आम आदमी पार्टी: कहां गए वे लोग?

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दो-ढाई साल पुराने किसी राजनीतिक दल से यह उम्मीद करना कि वह बेहद व्यवस्थित और संगठित तरीके से काम करेगा, थोड़ा ज्यादा हो जाएगा. और वह पार्टी अगर आम आदमी पार्टी हो जिसका उदय और सफलता ही अनपेक्षित और उठापटक भरी रही है तो इसकी संभावना और भी कम हो जाती है. लेकिन एक गंभीर राजनीतिक दल होने के लिहाज से यह अपेक्षा करना लाजिमी है कि वह भी अपनी क्षमताओं और सीमाओं को समझते हुए अपना दायरा फैलाएगी. क्या ऐसा होता दिख रहा है? लोकसभा के चुनावों से मिल सकने वाली लोकप्रियता और फायदे का लालच और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मिली चमत्कारिक जीत ने शायद आम आदमी पार्टी (आप) को उतना व्यावहारिक नहीं रहने दिया जितना दो-ढाई साल पुरानी एक पार्टी को होना चाहिए.

सवा चार सौ लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का आप का फैसला ज्यादातर लोगों के गले नहीं उतरा था. चुनाव के नतीजों ने भी साबित किया कि पार्टी जरूरत से ज्यादा उम्मीद और आत्मविश्वास पाल बैठी थी. इस विषय पर पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया का कहना था कि लोग संगठन बनाकर चुनाव लड़ते हैं जबकि उन्होंने चुनाव लड़कर संगठन खड़ा किया है. यह उल्टी दिशा की राजनीति आप का कितना भला कर पाएगी यह तो फिलहाल समय के गर्भ में है. लेकिन एक बात साफ है कि जिन सवा चार सौ लोगों ने लोकसभा चुनावों के दौरान आप की सवारी की थी उनमें से कई लोग फिलहाल अपने-अपने रास्ते जा चुके हैं. अगर इसमें चुनाव नहीं लड़ने वाले नामचीन और चमकदार चेहरों को भी शामिल कर दिया जाय तो लिस्ट काफी लंबी हो जाती है. हालांकि ऐसे भी तमाम लोग हैं जो अभी भी पूरी गंभीरता से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं. तमाम ऐसे भी लोग मिले जो मोहभंग की स्थिति में हैं पर पार्टी का हिस्सा बने हुए हैं.

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में आप को मिली जीत के बाद फिल्म अभिनेता, नौकरशाह, वकील और पत्रकारों का हुजूम आप में शामिल होने को लालायित था. लेकिन लोकसभा चुनाव आते-आते स्थितियां बदलने लगी थीं. इसकी वजह से पार्टी के लोकसभा चुनावी अभियान का ज्यादातर हिस्सा नकारात्मक सुर्खियां बटोरता रहा. सबसे पहले पार्टी का टिकट वापस करने की खबर वीवीआईपी सीट रायबरेली से आई थी. इससे पार्टी की बेहद किरकिरी भी हुई. हुआ यूं कि पार्टी ने सोनिया गांधी के खिलाफ रिटायर्ड जस्टिस फखरुद्दीन को अपना उम्मीदवार घोषित किया लेकिन जल्द ही उन्होंने टिकट वापस कर चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी. इसी समय प्रतिष्ठित कोलकाता दक्षिण की सीट से आप उम्मीदवार मुदार पाथेर्य के टिकट वापस करने की खबर भी सुर्खी बनी. सामाजिक कार्यकर्ता पाथेर्य ने स्वास्थ्यगत कारणों से चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी. गौरतलब है कि पाथेर्य उस आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे जिसने रिजवानुर रहमान की हत्या के विरोध में पैदा हुए जनआक्रोश का नेतृत्व किया था. लक्स नामक अंत:वस्त्र बनाने वाली कंपनी के मालिक अशोक टोडी के खिलाफ उनका आंदोलन बेहद प्रभावी रहा था. उनके टिकट वापस करने के पीछे तमाम अटकलें और कहानियां बनीं.

आगे आने वाले दिनों में पार्टी में आने-जाने वालों का एक लंबा सिलसिला चला. अकेले उत्तर प्रदेश से कुल आठ लोगों ने आप का टिकट लौटाकर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. इनमें जालौन से अभिलाषा जाटव, लखीमपुर खीरी से इलियास आजमी, फैजाबाद से इकबाल मुस्तफा, शाहजहांपुर से अशर्फीलाल आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण विवाद रहा फर्रूखाबाद से पार्टी के उम्मीदवार मुकुल त्रिपाठी का. फर्रूखाबाद की सीट तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की वजह से चर्चा में थी. आप ने मुकुल त्रिपाठी को सलमान खुर्शीद के खिलाफ अपना उम्मीदवार घोषित किया. त्रिपाठी ने सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुईस खुर्शीद द्वारा संचालित जाकिर हुसैन ट्रस्ट के फंड में हेरफेर उजागर करके खुब लोकप्रियता बटोरी थी. लेकिन चुनाव से ठीक पहले उन्होंने आप का टिकट यह कहकर वापस कर दिया कि आप के भीतर भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य गुल पनाग कहती हंै, ‘ऐसे तमाम लोग चुनाव से पहले हमसे जुड़े थे. कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है. ऐसे लोगों को समझ लेना चाहिए कि राजनीति में बदलाव रातो-रात नहीं होता.’

‘कुछ लोग पहले, कुछ चुनाव में मिली असफलता के बाद पार्टी छोड़कर चले गए हैं. पार्टी के लिए यह अच्छी बात है’

चुनाव के पहले और बाद में तमाम नामचीन हस्तियों का आना-जाना पार्टी की संगठनात्मक असफलता की तरफ भी इशारा करता है. बहुत कम समय में पार्टी ने अपनी क्षमता से ज्यादा पंख फैला लिए थे. इंटरनेट पर दूर-दराज के इलाकों से जुड़े दो-चार उत्साही युवाओं के दम पर पार्टी ने ऐसे-ऐसे स्थानों से चुनाव लड़ने की कोशिश की जहां वास्तव में जमीन पर पार्टी ने कभी कोई काम नहीं किया था. इस हड़बड़ाहट से पार्टी को किसी तरह के फायदे की जगह नुकसान ही हुआ. मीडिया और सोशल साइटों पर जहां पार्टी की सबसे ज्यादा धमक थी वहीं पर उसकी सबसे ज्यादा आलोचना शुरू हो गई. इस वजह से पार्टी अपने ही मानकों और सिद्धांतों का पालन करने में असफल हुई. एक अध्ययन के मुताबिक मध्य प्रदेश से आप के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले करीब 40% उम्मीदवारों के खिलाफ किसी न किसी तरह के अदालती मामले चल रहे थे. यह ऐसी पार्टी थी जिससे लोगों की अपेक्षा थी कि यह भ्रष्टाचार और कुशासन से लड़ेगी और देश के गवर्नेंस के पुराने तौर-तरीकों को बदलेगी. पर हुआ यह कि अंत में यह पार्टी खुद को ही व्यवस्थित नहीं रख सकी. एयर डेक्कन के मालिक कैप्टन गोपीनाथ, पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी समेत तमाम बड़े नामों ने चुनावों के बाद पार्टी का साथ छोड़ दिया. ठीक लोकसभा चुनाव से पहले उभरे आप नेता आशीष खेतान कहते हैं, ‘कुछ लोग हो सकता है बहती गंगा में हाथ धोने की नीयत से पार्टी में शामिल हुए हों, लेकिन ज्यादातर लोग अच्छी नीयत और उद्देश्य से जुड़े हैं. अभी आपको लग सकता है कि लोग अपने-अपने रास्ते चले गए हैं लेकिन वे किसी न किसी रूप में पार्टी के लिए काम कर रहे हैं.’

तहलका ने ऐसे कई चमकदार नामों के बारे में जानने की कोशिश की जो लोकसभा चुनाव के पहले बहुत तेजी से चमके थे और आप के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े थे. हमने यह जानने का प्रयास किया कि फिलहाल वे लोग क्या कर रहे हैं.

राजमोहन गांधी

पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से आप ने राजमोहन गांधी के नाम की घोषणा करके पूरे चुनावी माहौल को गर्मा दिया था. राजमोहन गांधी महात्मा गांधी के पौत्र हैं और खुद उनकी अपनी शख्सियत बहुत विस्तृत है. अमेरिका के इलिनॉय विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व एशिया विभाग के प्रोफेसर राजमोहन गांधी को चुनाव से पहले राजनीतिक जगत में बहुत कम जाना जाता था. हालांकि 1990-92 के बीच वे राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं लेकिन उनकी पहचान अकादमिक और बौद्धिक जगत में ज्यादा रही है. वे आईआईटी गांधीनगर से जुड़े हुए हैं. 1975-77 के बीच जब देश में आपातकाल लगा हुआ था तब राजमोहन गांधी ने लोकतंत्र की पुनर्स्थापना और मानवाधिकारों के लिए अपने साप्ताहिक जर्नल ‘हिम्मत’ के जरिए बहुत बेबाकी से एक अभियान छेड़ा था. उस दौरान उन्होंने अपनी भूमिका एक पत्रकार के रूप में निभाई थी. अपने लंबे अकादमिक और पत्रकारीय जीवन में राजमोहन गांधी प्रतिष्ठित अखबार इंडियन एक्सप्रेस के चेन्नई संस्करण के संपादक के तौर पर भी 1985 से 87 तक काम कर चुके हैं. लेकिन अब अपने राजनीतिक दल से उनका जुड़ाव ढीला-ढाला प्रतीत होता है. जब तहलका ने उनसे दो हफ्ते पहले संपर्क किया था तब वे अमेरिका के दौरे पर थे. क्या वे अभी भी आप से जुड़े हैं, पार्टी में उनका पद क्या है, अपने लोकसभा क्षेत्र के लोगों से उनका किस तरह का जुड़ाव है आदि सवालों के जवाब उन्होंने ई-मेल के जरिए भेजे हैं जिसका लब्बोलुआब यह है कि वे पार्टी में तो हैं पर अपने निर्वाचन क्षेत्र से उनका कोई जुड़ाव नहीं है. उनके जवाब के मुताबिक पार्टी से उनका जुड़ाव सक्रिय स्तर पर नहीं है, मगर वे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हैं.

लोकसभा चुनावों से पहले बना उनका फेसबुक पन्ना 17 मार्च 2014 के बाद से अपडेट नहीं हुआ है. साथ ही उनके दफ्तर के दोनों नंबर भी फिलहाल बंद पड़े हैं. पार्टी के कार्यकर्ता भी उनके संबंध में पूछे गए किसी सवाल का जवाब टाल जाते हैं. जिस तरह के हालात हैं उनके आधार पर एक ही अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद आप और राजमोहन गांधी के रिश्तों में गर्मजोशी नहीं रही है. पूर्वी दिल्ली सीट के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘चुनाव के बाद से हमने उन्हें अपने क्षेत्र में कभी नहीं देखा.’

‘चुनाव से पहले हमने कुल 32 लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में बनाए थे. पार्टी को चुनाव में कुल साढ़े आठ लाख वोट मिले. यह चयन में गड़बड़ी का नतीजा है’

गुल पनाग

पूर्व मिस इंडिया और फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग की चंडीगढ़ सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा दूसरे विकल्प के रूप में हुई थी. आप ने पहले चंडीगढ़ सीट से दिवंगत हास्य कलाकार जसपाल भट्टी की पत्नी सविता भट्टी को टिकट दिया था जिन्होंने एक हफ्ते बाद टिकट लौटाकर पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी थी. सविता भट्टी ने अपनी खुद की नोटा पार्टी का गठन करने का ऐलान किया था. बहरहाल गुल पनाग ने काफी हाई प्रोफाइल चुनाव लड़ा. उनके खिलाफ भाजपा ने किरण खेर को खड़ा किया था. इस चुनाव में गुल पनाग तीसरे स्थान पर रही. चंडीगढ़ की स्थानीय इकाई के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘चुनाव के बाद उनका चंडीगढ़ आना कम हो गया है, वालंटियरों को भी अब समय नहीं दे पाती हैं. हम लोगों के लिए समस्या यह है कि पार्टी का कोई बड़ा स्ट्रक्चर तो है नहीं. आम आदमी, पार्टी कार्यकर्ता हर दिन अपने छोटे-मोटे काम के लिए आते रहते हैं पर उनका काम नहीं हो पाता. जबकि दूसरी पार्टियों में ऐसा नहीं होता है. उन छोटे-मोटे कामों से पार्टी का जनाधार बनता है. पर हमारे पास ऐसा कोई नहीं है. इससे निचले स्तर पर थोड़ा असंतोष है.’ हालांकि गुल पनाग ऐसे किसी भी दावे को सच नहीं मानती हैं. उनका कहना है कि अमूमन हर दूसरे हफ्ते में वे चंडीगढ़ जाती रहती है. वे कहती हैं, ‘मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हूं, इसके अलावा मेरा अपना भी कामकाज है. इन तमाम कामों में मेरी व्यस्तता रहती है. अगर आप मुझसे यह उम्मीद करेंगे कि राजनीति में होने के नाते मैं हर वक्त सिर्फ पार्टी और राजनीति की बात करूंगी तो यह पूरी तरह से गलत होगा. पार्टी से जुड़ी बातों के लिए मैंने गुल4चेंज नाम से एक अलग पेज बना रखा है. पार्टी से जुड़ी गतिविधियों को मैं वहीं पर रखती हूं. लोगों को लगता है कि मैंने फिल्म और खेल आदि पर तो बातें कर रही हूं, लेकिन पार्टी पर नहीं. यह लोगों की गलतफहमी है.’ गुल के इतर पार्टी भी चंडीगढ़ और पंजाब को बेहद गंभीरता से ले रही है क्योंकि पार्टी को सबसे ज्यादा सफलता पंजाब से ही मिली है.

जावेद जाफरी

लखनऊ लोकसभा सीट पर फिल्म अभिनेता और कमेडियन जावेद जाफरी की उम्मीदवारी भी दूसरे विकल्प के तौर पर सामने आई थी. आप ने इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र आदर्श शास्त्री को लखनऊ लोकसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था. बाद में किन्हीं कारणों से आदर्श को इलाहाबाद भेज दिया गया और जावेद जाफरी को लखनऊ से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. जावेद जाफरी का मामला बहुत सीधा है. वे चुनावों के बाद न तो अपने लोकसभा क्षेत्र में कभी दिखे हैं न ही पार्टी के किसी फोरम पर. लखनऊ के आम आदमी पार्टी कार्यकर्ता मनुज सिंह की बातों से कार्यकर्ताओं की निराशा साफ झलकती है. मनुज बताते हैं, ‘पार्टी ने जिस तरह से काम किया उसका खामियाजा पार्टी ने भुगता है. मैं यहां मेंबरशिप कोऑर्डिनेटर था. चुनाव से पहले हमने कुल 32 लाख कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में बनाए थे. जबकि पार्टी को चुनाव में कुल साढ़े आठ लाख वोट मिले. यह पार्टी द्वारा उम्मीदवारों को चयन में की गई गड़बड़ी का नतीजा है. जावेद जाफरी को यहां सिर्फ 43000 वोट मिले. हमने निचले स्तर पर तय किया है कि हम सब पार्टी से जुड़े रहेंगे लेकिन प्रत्याशी के चयन में पार्टी को हमारी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी, चाहे वह सलाह के तौर पर ही क्यों न हो.’ मनुज और उनके जैसे तमाम कार्यकर्ताओं से बातचीत में एक बात साफ होती है कि बाहर से लाकर बैठा दिए गए सेलीब्रेटी उम्मीदवारों से कुछ हद तक तो फायदा हो सकता है, लेकिन संगठनात्मक मजबूती के लिए उसका स्थानीय होना और क्षेत्र में जमे रहना बहुत जरूरी होता है. आप जैसी नई पार्टी के लिए यह बेहद जरूरी है. जबकि जावेद जाफरी जैसे बाहरी लोगों की व्यावसायिक मजबूरियां भी उन्हें संगठन के लिए काम करने की छूट नहीं देती.

‘जिस तरह से काम करना चाहिए वैसा काम पार्टी कर नहीं रही है. पार्टी का जनाधार बढ़ाने का एक तरीका होता है, पार्टी में इसको लेकर भारी गड़बड़ी है’

हरविंदर सिंह फूल्का

1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों को न्याय दिलाने के मकसद से सिटिजन फॉर जस्टिस कमेटी की स्थापना करके फूल्का करीब तीस साल पहले सुर्खियों में आए थे. लगभग 25 सालों तक फूल्का अकेले दंगों के पीड़ितों के लिए लड़ाई लड़ते रहे. सुप्रीम कोर्ट में एक वकील के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा है और सिख दंगों के पीड़ितों की लड़ाई लड़ने की वजह से उनका काफी सम्मान है. इनका एक बहुत महत्वपूर्ण बयान आज भी राजनीति और जुडीशियरी के गलियारों में कहा-सुना जाता है- ‘1984 के दंगों से पहले राजनीति में अपराधी नहीं थे. अपराधी नेताओं के पीछे खड़े रहते थे. लेकिन 1984 के दंगों के बाद अपराधियों को लगने लगा कि लूटमार और हत्या करने वाले भी चुनाव जीत सकते हैं. इस तरह से अपराधियों ने राजनीति को करियर बनाना शुरू कर दिया.’ फूल्का को आप ने लुधियाना से अपना उम्मीदवार घोषित किया था. पर वे चुनाव हार गए. हार के बाद लुधियाना में अपनी राजनीतिक गतिविधियों को लेकर वे कहते हैं, ‘मैं तो दिल्ली और लुधियाना के बीच ही घूमता रहता हूं. पार्टी के स्तर पर मेरी सक्रियता पूरी तरह से बनी हुई है. फिलहाल मैं पंजाब इकाई की कार्यकारिणी का सदस्य और पंजाब प्रदेश का प्रवक्ता भी हूं.’ बहुत सारे नामचीन लोगों में पार्टी को लेकर आई शिथिलता के बारे में फूल्का का मानना है कि चुनाव हारने के बाद थोड़ा धीमा पड़ जाना स्वाभाविक है. आगे कोई चुनाव भी नहीं है और पार्टी भी फिलहाल संगठन को मजबूत करने पर ज्यादा जोर दे रही है. एक बात साफ है कि पार्टी छोड़कर जाने वालों की भीड़ के बावजूद पंजाब इससे कमोबेश अछूता रहा है. इसकी एक वजह शायद यह भी है कि वहां से पार्टी को अनपेक्षित रूप से चार लोकसभा सीटें प्राप्त हुई हैं.

बाबा हरदेव सिंह

बाबा हरदेव सिंह को उत्तर प्रदेश में एक प्रभावशाली प्रशासक के रूप में जाना जाता है. 2007 में वे शारदा सहायक कमांड एरिया डेवलपमेंट प्रोजेक्ट से रिटायर हुए थे. आप में शामिल होने से पहले हरदेव सिंह राष्ट्रीय लोकदल के उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष थे. ठीक चुनाव से पहले वे आम आदमी पार्टी से जुड़े थे. उन्हें पार्टी ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के खिलाफ मैनपुरी चुनाव लड़ाया था. जैसी ख्याति और सफलता बाबा हरदेव सिंह को प्रशासनिक सेवा में मिली थी कह सकते हैं कि उनकी राजनीतिक यात्रा उतनी सफल नहीं रही. दो जून के बाद से उन्होंने आम आदमी पार्टी और खुद के नाम से बनाए गए वेब पेज पर कुछ भी अपडेट नहीं किया है. फिलहाल वे आम आदमी पार्टी से भी मोहभंग की हालत में हैं. क्या आप अभी भी आम आदमी पार्टी से जुड़े हुए हैं, इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘हां, बस जुड़ा हुआ हूं. जिस तरह से काम करना चाहिए वैसा काम पार्टी कर नहीं रही है. पार्टी का जनाधार बढ़ाने का एक तरीका होता है, पार्टी में इसको लेकर भारी गड़बड़ी है. दिल्ली में मिली सफलता की हवा जैसे ही निकली पार्टी जमीन पर आ गई. लोकसभा चुनाव में आप देखिए पार्टी के पास कुछ था ही नहीं. जब तक स्थानीय स्तर पर संगठन और नेतृत्व तैयार नहीं होगा कभी भी सफलता नहीं मिलेगी.’ बाबा हरदेव का मानना है कि जिस साफ-सुथरी राजनीति की उम्मीद मे लोगों ने पार्टी को दिल्ली में अपना समर्थन दिया था वह उम्मीद शायद टूटती दिख रही है. फिलहाल बाबा हरदेव के पास संगठन से जुड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं है.

आशीष खेतान

लोकसभा चुनावों से पहले आप से जुड़ने वाले बड़े और हैरत में डालने वाले नामों में एक नाम तेज तर्रार खोजी पत्रकार आशीष खेतान का भी था. आप ने उन्हें नई दिल्ली सीट से अपना उम्मीदवार बनाया था. आशीष खेतान राजनीति में आने से पहले गुजरात दंगों से लेकर स्नूपगेट तक अपनी तमाम दमदार खोजी रिपोर्टों के लिए काफी सुर्खियां बटोर चुके थे. तमाम दूसरे नामचीन नेताओं के विपरीत खेतान चुनावों के बाद भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पार्टी की तरफ से लगातार सक्रिय रहे हैं. सेलीब्रेटी चेहरों का चुनाव के बाद गायब हो जाने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘आप बाकी पार्टियों में सेलिब्रेटी लोगों को देखिए वे तो चुनाव जीतने के बाद भी कितने दिन अपने क्षेत्र या लोकसभा में नजर आते हैं. यह मानने की कोई वजह नहीं है कि लोग पार्टी से अलग होकर अपने-अपने रास्ते चले गए हैं. सारे लोग पार्टी के अलग-अलग फोरमों पर काम कर रहे हैं. समस्या यह होती है कि वे फोरम इतने विजिबल नहीं हैं. इस वजह से लगता है कि ज्यादातर लोग पार्टी के लिए सक्रिय नहीं हैं. ऐसे इक्का-दुक्का लोग होंगे जो अपने रास्ते चले गए होंगे.’

आदर्श शास्त्री

आदर्श शास्त्री की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल यह है कि वे देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र हैं. पर राजनीतिक पहचान के इतर उनकी अपनी एक दुनिया थी जिसमें वे काफी ऐश और आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. अमेरिका में एप्पल कंपनी की अपनी सुरक्षित नौकरी छोड़कर उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थामा. उनके पिता अनिल शास्त्री अभी भी कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं. आदर्श कहते हैं, ‘आज जो कांग्रेस है उसका शास्त्रीजी के विचारों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है. मुझे लगता है कि फिलहाल आप ही वह पार्टी है जो शास्त्रीजी के विचारों के करीब है.’ आदर्श शास्त्री उन नेताओं की फेहरिस्त में शुमार हैं जो पूरी तरह से आप के साथ जुड़े हुए हैं. जिस समय तहलका ने उनसे बात करने की कोशिश की वे दिल्ली के जंतर मंतर पर ई-रिक्शा चालकों की रैली में हिस्सा ले रहे थे. उन्हें पार्टी ने कुछ बेहद गंभीर जिम्मेदारियां सौंपी हैं. पार्टी ने मिशन विस्तार योजना के तहत उन्हें हिमाचल प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया है. आदर्श बताते हैं, ‘कुछ लोग मौकापरस्ती में आए थे. वे लोग अलग हो गए हैं.’ तो फिर वे अपने निर्वाचन क्षेत्र इलाहाबाद क्यों नहीं जा रहे हैं, इस सवाल के जवाब में आदर्श कहते हैं कि पार्टी ने मेरे ऊपर केंद्रीय स्तर पर तमाम जिम्मेदारियां सौंपी है जिसकी वजह से इलाहाबाद जाना थोड़ा कम हो गया है, लेकिन यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. मेरा अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से लगातार संपर्क बना रहता है.

ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो पार्टी के भीतर नेतृत्व के कामकाज और अलोकतांत्रिक हालात की वजह से पार्टी से दूर हुए हैं

चुनाव के दौरान उभरे तमाम नए-चमकदार चेहरों से बातचीत में एक बात साफ तौर पर सामने आती है कि आप कोई परंपरागत ढांचे वाली पार्टी नहीं है. काफी हद तक उसका विस्तार और प्रभाव वालंटियरों और चंदे में मिले पैसों के ऊपर निर्भर रहा है. पार्टी के ज्यादातर कार्यकर्ता ऐसे थे जो चुनाव के दौरान अपना काम-काज छोड़कर चुनाव में आप के लिए काम कर रहे थे. आदर्श शास्त्री के शब्दों में, ‘ज्यादातर कार्यकर्ता चुनाव से पहले वालंटियर के तौर पर जुड़े थे. जाहिर सी बात है कि चुनाव के बाद वे लोग अपने काम-धंधों में लौट गए हैं. इसका ये अर्थ नहीं है कि वे पार्टी से अलग हो गए हैं. समय-समय पर ये लोग पार्टी को अपनी सेवाएं देते रहते हैं.’

फोटो: विकास कुमार
फोटो: विकास कुमार

इसके इतर भी कुछ वजहें सामने आई हैं जिनकी वजह से तमाम बड़े चेहरे पार्टी से दूर हुए हैं. चुनाव के बाद तात्कालिक लाभ की नीयत से जुड़े लोग तो पार्टी से दूर हुए ही हैं साथ ही ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो पार्टी के भीतर नेतृत्व के कामकाज और अलोकतांत्रिक हालात की वजह से पार्टी से दूर हुए हैं. इस बिना पर पहला झटका पार्टी को उसके सबसे विश्वसनीय चेहरों में से एक रहे योगेंद्र यादव के रूप में लगा था. किसी तरह से पार्टी इस झटके से उबरने मे सफल रही और यादव पार्टी में बने रहे. पार्टी को दूसरा बड़ा झटका पूर्व पत्रकार और पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी के रूप में लगा. शाजिया ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पार्टी में व्याप्त कामियों को गिनाया था और अरविंद केजरीवाल के ऊपर एक मंडली के प्रभाव में काम करने का आरोप लगाया था. बाद में पार्टी ने शाजिया को वापस बुलाने की भी कोशिश की थी, लेकिन वह कोशिश सिरे नहीं चढ़ सकी. शाजिया गाजियाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ी थी. उनको लेकर यह खबरें भी उस दौरान उड़ी थीं कि वे गाजियाबाद की बजाय दिल्ली की किसी सीट से चुनाव लड़ना चाहती थीं. लेकिन पार्टी ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं की. फिलहाल शाजिया के बारे में खबर है कि वे स्वच्छ भारत अभियान के जरिए भाजपा के मंचों पर देखी जा रही है. अटकलें लग रही हैं कि शायद वे भाजपा से जुड़ सकती है लेकिन शाजिया ने इसका खंडन किया है. इसी दौर में कुछ और बड़े चेहरों ने भी पार्टी को अलविदा कहा. इनमें अश्विनी उपाध्याय, कैप्टन गोपीनाथ, अशोक अग्रवाल सुरजीत दासगुप्ता, मधु भादुड़ी, नूतन ठाकुर आदि प्रमुख नाम हैं.

जहां तक पार्टी का सवाल है तो ऐसा लग रहा है कि वह शुरुआती दौर की झिझक और झटकों से उबर कर खुद को लंबी लड़ाई के लिए तैयार कर रही है. गुल पनाग कहती हैं, ‘राजनीति रातोंरात होने वाले बदलाव का नाम नहीं है. इसमें कम से कम तीन पीढ़ियां लगती हैं. हम इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं.’ मिशन विस्तार के तहत पार्टी बूथ स्तर पर संगठन खड़ा कर रही है. इस महत्वाकांक्षी योजना पर पंजाब और दिल्ली में गंभीरता से काम हो रहा है. इन शुरुआती झटकों से एक संकेत यह भी मिल रहा है कि शायद पार्टी अब लोकसभा चुनाव जैसी गलती से सबक सीख चुकी है.