बिहार में एक लोककथा अक्सर सुनने को मिलती है. अमावस की रात एक पंडित के यहां चोरों ने सेंध मारी. पंडित-पंडिताइन दोनों जान गए कि चोर आए हैं. पंडिताइन पंडित से बोली, ‘देखोजी, चोर आए हैं. शोर मचाओ.’ पंडित ने पंडिताइन को इशारे से समझाया, ‘भाग्यवान, अभी कुछ नहीं बोलो. अभी शोर मचाने का साइत नहीं.’ चोर चोरी करके चलते बने. लगभग एक महीने बाद पूर्णिमा की रात पंडित ने जोर-जोर से चोर-चोर का शोर मचाना शुरू किया. गांववाले पंडित के घर की ओर लाठी-डंडा लेकर दौड़े. पूछा कि किधर है चोर. पंडित ने कहा, ‘आज और अभी थोड़ी न आए हैं चोर, वे तो अमावस्या की रात आए थे, आज तो शोर मचाने का साइत-संजोग ठीक बन रहा है, इसलिए शोर मचाया.’ गांववाले पंडित को कोसते हुए आधी रात को वापस लौट आये और यही बतियाते रहे कि पंडितजी की बात भरोसे लायक नहीं .
इन दिनों जब बिहार में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के एक मंदिर में जाने के बाद उस मंदिर की सफाई के प्रसंग पर जमकर राजनीतिक बवाल हो रहा है तो बहुत से लोग इस किस्से को भी याद कर रहे हैं. यह विवाद 28 सितंबर को तब शुरू हुआ जब बिहार के दिग्गज दलित नेता रहे और पूर्व मुख्यमंत्री भोलापासवान शास्त्री के जयंती समारोह में मांझी ने यह बताया कि राज्य में हालिया उपचुनाव के दौरान जब वे मधुबनी जिले के एक मंदिर में गए तो उनके जाने के बाद मंदिर का शुद्धिकरण करने के लिए उसे धोया गया. मूर्तियों को भी धोया गया. मांझी ने कहा कि यह सूचना उन्हें राज्य के खान एवं भूतत्व मंत्री रामलखन राम रमण ने दी. मांझी ने कहा कि उन्हें बहुत दुख हुआ. उनका कहना था, ‘मेरे पास काम के लिए लोग आते हैं तो पैर छूते हैं. मैं जान नहीं पाता कि उनके मन में क्या है? बाद में ऐसा व्यवहार करते हैं. मैं अछूत हूूं, इसलिए… मेरा अनुसूचित जाति के घर में जन्म लेना ही कसूर है न!’ मांझी ने ऐसी कई भावुक बातें कहीं. इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था. देखते ही देखते मांझी के पक्ष में सहानुभूति की लहर चलने लगी.
लेकिन अब मांझी अपने ही बयान में फंसते दिख रहे हैं. सबसे पहले तो उन्हें उनके ही मंत्री रामलखन राम रमण ने झटका दिया. रमण के हवाले से ही मंदिर के शुद्धिकरण की सूचना मिलने की बात मांझी ने सार्वजनिक मंच पर साझा की थी. रमण ने कहा कि पता नहीं क्यों और कैसे मुख्यमंत्री ने उनका नाम लिया क्योंकि वे उस आयोजन में मांझी के साथ नहीं थे. रमण यहां तक बोले कि वे चुनाव प्रचार में भी मांझी के साथ नहीं थे. जदयू के प्रमुख नेता, राज्य सरकार में मंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र ने भी बिना देर किए कहा कि मुख्यमंत्री को दी गई सूचना गलत और भ्रामक है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘उपचुनाव के दौरान मुख्यमंत्री का कार्यक्रम अंधराठाढ़ी में था, रास्ते में मां परमेश्वरी का मंदिर पड़ता है, मुख्यमंत्री ने वहां रुककर पूजा-अर्चना की थी. बात बस इतनी-सी ही है.’ मिश्र आगे जोड़ते हैं, ‘जिस मूर्ति को धोने की बात मुख्यमंत्री बता रहे हैं वह मिट्टी का पिंड है, जिसे कभी धोया ही नहीं जाता.’
मंदिर प्रकरण को छोड़ भी दें तो मांझी शुरुआत से ही महादलितों व दलितों के मसले पर अपना अलग रुख दिखाकर एक निश्चित दिशा में जाते हुए दिखते हैं
मांझी यह बात कहकर अपनों से तक घिरते गए. उनके दो मंत्रियों के अलावा जदयू के ही विधान पार्षद विनोद सिंह ने भी कहा कि उस दिन वे मुख्यमंत्री के साथ थे और ऐसी कोई घटना नहीं हुई. उधर, मंदिर के पुजारी अशोक कुमार झा भी इसकी पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘मंदिर में भगवती की कोई प्रतिमा नहीं है. वैसे तो रोजाना ही सुबह-शाम मंदिर की साफ-सफाई होती है, लेकिन 18 अगस्त को सीएम के आने की वजह से ज्यादा लोग आए थे तो उस शाम सफाई तक भी नहीं हो सकी थी. 19 की सुबह ही सफाई हुई थी.’
मांझी ने भोला पासवान को याद करते हुए जो कहा, वह क्यों कहा, किस मकसद से कहा, यह तो वही बता सकते हैं. लेकिन वे फिलहाल यह बताने की बजाय अपने बयान से बने जाल से निकलने की कोशिश में लगे हुए हैं. मांझी ने जब यह बात कही तो तुरंत जांच की बात उठी और बिना कोई वक्त लिए जांच कमिटी भी गठित हो गई. जांच का जिम्मा दरभंगा प्रमंडल के आयुक्त बंदना किन्नी और आईजी एके आंबेडकर को दिया गया है. जो परिणाम सामने आएंगे, हो सकता है उनमें वक्त लगे, लेकिन अभी से जो संकेत मिल रहे हैं, उससे मांझी इस मामले में फंसते ही नजर आ रहे हैं. मंदिर के पुजारी अशोक झा ने जांच दल को बताया कि मंदिर के पिंड को कभी धोया नहीं जाता, सुबह-शाम घी लगाया जाता है. उनके मुताबिक जिस दिन मुख्यमंत्री आए थे उस दिन मंदिर के बाहर मटका फोड़ का आयोजन भी था इसलिए भीड़-भाड़ की वजह से शाम को साफ-सफाई भी नहीं हुई थी. पुजारी अशोक झा ताल ठोकते हुए कह रहे हैं कि हर तरह की जांच हो जाए. यह भी कि अगर वे गलत हैं तो उन्हें फांसी पर चढ़ाया जाये और अगर बात में सच्चाई नहीं है तो गलत बात कहने वाले को सजा मिले. स्थानीय ग्रामीणों का भी कहना है कि जिस मंदिर की बात मुख्यमंत्री उठा रहे हैं उसमें इस रास्ते से गुजरनेवाले दलित-महादलित अधिकारी नियमित आते हैं और कभी किसी को रोका नहीं गया. गांव के लोग यह भी बताते हैं कि उस मंदिर में होने वाले भजन में जो नियमित ढोल बजानेवाला है, वह दलित चौठी राम ही है.
ऐस कहनेवाले अब सिर्फ पुजारी या ग्रामीण नहीं हैं. मांझी इस मामले में अब चारों तरफ से घिरते नजर आ रहे हैं. एक तरफ उन्हें इस मुद्दे पर अपने दल की ओर से कोई सहयोग नहीं मिल रहा तो दूसरी ओर भाजपा को जैसे बैठे-बिठाए एक मौका मिल गया है. पार्टी नेता सुशील मोदी कहते हैं कि अगर यह घटना सही है और सीएम के जाने की वजह से मंदिर का शुद्धिकरण हुआ है तो वे इसकी निंदा करते हैं लेकिन अगर यह सही नहीं है तो फिर जिस मंत्री ने मुख्यमंत्री को यह सूचना दी, उसे बर्खास्त करना चाहिए. उनका कहना था, ‘अगर सीएम झूठ बोल रहे हैं तो उन पर आईपीसी की धारा 152 एक के तहत मामला दर्ज होना चाहिए जिसके तहत गैर जमानती वारंट और तीन साल की सजा का प्रावधान है.’ मोदी इस मसले पर सवर्णों के बीच पार्टी को और मजबूत करने में लगे हैं. साथ ही वे इसे मिथिला इलाके का अपमान बताकर क्षेत्र की राजनीति को भी साध लेने की जुगत लगाये हुए हैं.
सुशील मोदी राजनीति करते हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि वे हर मुमकिन मौके से राजनीतिक फायदा उठाना चाहेंगे और वे वैसा ही कर रहे हैं. लेकिन इस पूरे प्रकरण में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि आखिर मांझी ने एक घटना के इतने दिनों बाद, वह भी एक प्रमुख दलित नेता के जयंती समारोह में अचानक ही यह बात हवा में क्यों उछाल दी. जदयू के पूर्व पार्षद रहे और अब राजद से ताल्लुक रखनेवाले नेता व लेखक प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘मांझी ऐसी बात कर रहे हैं कि समझ में ही नहीं आ रहा. मान लिया कि घटना सही भी हो. लेकिन क्या कोई एसपी, डीएसपी आकर कहे कि उसे तो एक उचक्के ने आज रास्ते में पीट दिया तो क्या करें?’ वे आगे कहते हैं, ‘मांझी मुख्यमंत्री हैं. अगर इस बात की सूचना उन्हें एक माह से भी अधिक समय पहले मिली थी तो उन्होंने तुरंत ही क्यों नहीं इसकी पुष्टि और जांच करवाकर अस्पृश्यता निवारण कानून के तहत केस नहीं किया? एक मुख्यमंत्री इतनी उम्मीद तो की ही जाती है.’
ऐसे सवालों के जवाब में मांझी कहते हैं कि वह उपचुनाव का समय था और वे ऐसा कहते तो सामाजिक तनाव का खतरा होता. उधर, मणी कहते हैं, ‘उस दिन भी जीतन राम मांझी सार्वजनिक तौर पर यह बात एक महादलित की तरह बता रहे थे, जबकि उन्हें हमेशा यह याद रखना चाहिए िक वे सिर्फ महादलित नहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं और इस तरह की बातें, इतने दिनों बाद कहकर भी वे सामाजिक तनाव बढ़ाने का ही काम करेंगे.’ उनके मुताबिक सवाल यह भी है कि अगर महादलितों के साथ आज भी बिहार में ऐसा ही सुलूक होता है तो यह तो नीतीश कुमार के शासनकाल पर भी एक सवाल है. वे कहते हैं, ‘इसलिए कि उनके शासनकाल में सबसे ज्यादा महादलितों की स्थिति ही सुधारने और उनके विकास की बात कही जाती है लेकिन इतने सालों क्या स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ.’ इस बारे में बात करने पर हाल तक जद यू के प्रमुख नेता रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘मामला समझ में नहीं आ रहा. क्यों मांझी इतने दिनों तक चुप रहने के बाद बोले? जिसके हवाले से बोले वही इंकार कर रहा है, उनकी पार्टी के नेता इंकार कर रहे हैं.’ तिवारी कहते हैं कि इस बात को सार्वजनिक मंच से कहकर मांझी अपनी पार्टी की फजीहत ही करवा रहे हैं.
‘वे जानते हैं कि अगर महादलितों और दलितों का नेता बना जाए तो जदयू-राजद गठबंधन के लिए उन्हें नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा’
मंदिर धुलाई मामले में मांझी सच बोल रहे हैं या झूठ अभी तो साफ-साफ नहीं कहा जा सकता. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बिहार के कई हिस्सों में आज भी दलितों से अछूतों की तरह व्यवहार किया जाता है और रोजमर्रा के जीवन में उन्हें मानसिक प्रताड़ना का सामना भी करना पड़ता है. लेकिन मांझी अगर दूसरे संदर्भ में, दूसरे प्रसंग के साथ यह बात रखते तो बात इतनी आगे नहीं बढ़ती. यह भी सच है कि अब आगे जांच के परिणाम चाहे जो आएं, घटना के लगभग डेढ़ माह बाद सनसनी के साथ, वह भी किसी के जरिये प्राप्त जानकारी का हवाला देकर सार्वजनिक मंच पर ऐसी बात कहकर उन्होंने अपनी पार्टी को न उगलने-न निगलनेवाली स्थिति में ला दिया है.
अब सवाल दो हैं. पहला यह कि क्या मांझी इतने नासमझ नेता हैं कि ऐसा कहने के पहले उन्होंने जरा भी सोचा नहीं होगा कि इसके आगे-पीछे ढेरों सवाल खड़े होंगे. इससे पार्टी की छवि को भी नुकसान होगा और इससे एक नयी बहस का दौर भी शुरू होगा. या फिर मांझी ने सबकुछ सोच-समझकर यह बात कही होगी.
मांझी को नासमझ नेता मानने को शायद ही कोई तैयार हो. इसकी वजहें भी हैं. मांझी पिछले तीन दशक से अधिक समय से बिहार की राजनीति में सक्रिय हैं और अच्छे ओहदे के साथ भी राजनीति करते उन्हें एक लंबा समय हो गया है. यूं भी राजनीति में वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और धाकड़ कूटनीतिक नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा के चेले माने जाते हैं. जगन्नाथ मिश्र को भी उनका गुरू कहा जाता है. सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्र की राजनीति को जाननेवाले जानते हैं कि दोनों सधी हुई चाल चलने में उस्ताद नेता रहे हैं. कई राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस लिहाज से देखें तो मांझी को कभी भी इतना नासमझ नेता नहीं माना जा सकता कि वे बिना सोचे कुछ भी बोल दें.
मंदिर शुद्धिकरण मामले की जांच के चाहे जो नतीजे निकलंे. संभव है मांझी ने किसी के कहे पर ही जो बात हवा में उछाली है, वह सही भी साबित हो जाए. तब भी इस मामले को लेकर मांझी पर उठे सवाल अपनी जगह रहेंगे. सबसे पहला सवाल कि वे इतने दिनों तक वह चुप्पी क्यों साधे रहे. अगर उन्हें सार्वजनिक तौर पर यह कहना ही था तो पहले जांच ही क्यों नहीं करवा ली? उसके बाद इस बात को सार्वजनिक तौर पर कहते. मांझी को करीब से जाननेवाले गया के एक पत्रकार बताते हैं, ‘मंदिर मामले में क्या सच्चाई है, मैं यह तो नहीं कह सकता, लेकिन यह तय है कि मांझी जो बोलते हैं बहुत कैलकुलेट कर बोलते हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘मांझी एक साथ कई तरह की राजनीति साध लेने की जुगत में हैं. जिस दिन वे मंदिर प्रकरण पर बोले थे, उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि वे सिर्फ 15 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेता नहीं है, बल्कि महादलित के साथ दलितों को मिलाकर 23 प्रतिशत की आबादी होती है बिहार में और अगर यह एकजुट हो जाए तो फिर अगला मुख्यमंत्री इसी समुदाय से होगा.’ मांझी को करीब से जाननेवाले गया के इस पत्रकार जैसी बातें ही कुछ दूसरे जानकार भी कहते हैं.
भाजपा नेता सुशील मोदी चुटकी लेने के अंदाज मंे कहते हैं कि मांझी को नीतीश कुमार ने रोबोट सीएम बनाया था, लेकिन मांझी खुद ही रोबोट के माउस को आॅपरेट करने लगे हैं. मोदी विपक्षी नेता हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि वे चुटकी ले रहे हैं या मंदिर मामले से राजनीतिक फसल काटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन और भी कई हैं जो मानते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही मांझी अपनी अलग राह बना रहे हैं और मंदिर मामले को उठाकर उन्होंने बिना किसी की परवाह करते हुए सोच-समझकर एक चाल चली है.
दरअसल मंदिर मामले को भोला पासवान शास्त्री के नाम पर होनेवाले आयोजन के दिन उठाकर और उसी दिन दलित-महादलितों की संख्या के अनुसार राजनीतिक ताकत बताकर मांझी अपनी पार्टी के अंदर भी बहुत संदेश देना चाहते थे. वे अपनी आकांक्षा भी बयां कर रहे थे. असल में मांझी बिहार में दलितों-महादलितों के सर्वमान्य नेता बनने और उनकी सहानुभूति-समर्थन बटोरकर अपनी स्थिति को और मजबूत करना चाहते हैं. हालांकि विश्लेषकों के एक वर्ग दूसरी बात भी कहता है. उसके मुताबिक जीतन राम मांझी यह जानते हैं कि विपक्षी पार्टी भाजपा ने हालिया वर्षों में महादलितों और दलितों के मतों में भी संेधमारी की है और आगामी विधानसभा चुनाव में भी वह ऐसी सेंधमारी करने की कोशिश में है. इसलिए भाजपा की कोशिशों को नाकाम करने के लिए उन्होंने भावनात्मक राजनीति की चाल चली है. हालांकि ऐसा माननेवाले विश्लेषकों का समूह थोड़ा छोटा है. उतना ही छोटा समूह, जितना छोटा समूह यह मानता है कि आनेवाले दिनों में अगर जदयू-राजद की ओर से मांझी को सीएम की तरह पेश नहीं किया गया तो वे दलितों-महादलितों के बड़े नेता के तौर पर खुद को स्थापित कर कभी भी पाला बदलने का खेल कर सकते हैं और दुश्मन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं.
मंदिर मामले में मांझी ने इतने दिनों बाद क्या सोचकर बयान दिया और इससे वे क्या मकसद साधना चाहते हैं, यह वही बता सकते हैं. हां, यह साफ है कि उन्होंने आहत-मर्माहत होकर बयान नहीं दिया है. अगर आहम-मर्माहत होने वाली बात होती तो वे इतने दिनों तक चुप नहीं रहते. मंदिर प्रकरण को छोड़ भी दें तो मांझी शुरुआत से ही महादलितों व दलितों के मसले पर अपना अलग स्टैंड रखकर खुद को महादलितों के सर्वमान्य और बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे हुए नेता की तरह दिखते रहे हैं. जब वे मुख्यमंत्री बने थे तो कई समारोहों-सभाओं में यह कहा करते थे कि बिहार में सर्वांगीण विकास हुआ है, बहुत कुछ हुआ है लेकिन महादलित समुदाय का उस तरह से विकास नहीं हुआ है, वह करेंगे. ऐसा कहककर मांझी नीतीश कुमार के सबसे बड़े एजेंडे और उपलब्धिगान पर ही प्रहार करते रहे हैं. कुछ समय पहले तहलका से बातचीत में ही जीतन राम मांझी ने कई ऐसी बातें कही थी जिनसे साफ संकेत मिले थे कि वे दलितों व महादलितों के बड़े नेता के तौर पर स्थापित होकर आगे सत्ता और शासन की राजनीति को साधने की नयी जुगत में हैं. तहलका से बातचीत में मांझी ने कहा था कि एससी/एसटी छात्रों के लिए जो आवासीय विद्यालय हैं, उसकी स्थिति बहुत दयनीय है, बहुत ही खराब हाल है और संख्या भी बहुत कम है. यह काम हो ही नहीं सका है, वे पहले करेंगे. उन्होंने यह भी कहा था कि ‘यह पूरा बिहार और पूरा देश जानता है कि जीतन राम मांझी जिस दल में रहता है, महादलित उधर ही वोट करते हैं. जब जीतन राम मांझी कांग्रेस में था तो महादलित कांग्रेस को वोट करते थे, जब मांझी राजद में आया तो महादलित राजद के साथ हुए और अब जदयू के पास मांझी है ता महादलित बिना इधर-उधर गये जदयू के साथ इंटैक्ट हैं.’ तहलका से ही बातचीत में मांझी ने यह भी कहा था कि जो जाति जदयू के साथ इंटैक्ट है, उस दल का नेता अब प्रदेश का मुखिया है और काम हो रहा है तो बिहार में आगे किसके नेतृत्व में चुनाव होगा, इस पर भी वक्त आने पर सोचना पड़ेगा और तभी देखा जाएगा.
तहलका से ही बातचीत में कई ऐसी बातें कहकर मांझी कुछ और संकेत दे रहे थे जिसकी एक पराकाष्ठा अभी मंदिर वाले मामले में दिख रही है, जब वे एक पुरानी घटना को बड़े समारोह में उचित अवसर देखकर हवा मंे उछाल देते हैं. इसके पहले पिछले माह जहानाबाद में भी उन्होंने ऐसा ही कुछ किया था. वे एक बड़े पिछड़े नेता के जयंती समारोह में गए थे. वहां लोगों ने तख्तियों के साथ बिजली की मांग की और नारा लगाया कि बिजली नहीं तो वोट नही तो मांझी मंच से ही भड़कते हए बोल पड़े थे कि ‘तख्ती नहीं दिखाइए, आपलोगों के वोट से हम मुख्यमंत्री के पद तक नहीं पहुंचे हैं.’ तब भी बवाल मचा था लेकिन मांझी ने चुप्पी साध ली थी.
मांझी को करीब से जाननेवाले एक अधिकारी कहते हैं, ‘वे कुछ भी अनायास या औचक नहीं बोल रहे. सब आगे की राजनीति को ध्यान में रखकर कह रहे हैं. वे जानते हैं कि अगर महादलितों और दलितों का नेता बना जाए तो जदयू-राजद गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा कि उन्हें नजरअंदाज कर फिर नीतीश कुमार या किसी और के नाम पर चुनाव लड़ने की बात दिलेेरी के साथ कह सके.’ और अगर ऐसा होता भी है तो मांझी इस कोशिश में भी हैं कि वे खुद को 23 प्रतिशत मतदाता समूह के एक ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर दें जिसकी उस समुदाय पर सबसे ज्यादा पकड़ हो ताकि किसी दूसरे दल के साथ जाने पर भी अधिक से अधिक तवज्जो मिले.
संभव है, मांझी यह सब बातें सोचकर ही ऐसा कर रहे हों. यह भी संभव है कि ऐसा न हो और वे जीवन के अनुभव से उपजी कड़वी सच्चाइयों को सामने बयां करनेवाले सहज व्यक्ति के तौर पर सारी बातें कर रहे हों. दोनों में से जो भी सही हो लेकिन इससे उनकी पार्टी जदयू की बार-बार फजीहत हो रही है. हालांकि फिलहाल जदयू और नीतीश कुमार के पास ऐसा कोई रास्ता भी नहीं िक वे मांझी को भी सार्वजनिक मंच से सलाह देकर समझा सकें. इसके अलग खतरे हैं.
मंदिर मामले को उठाकर अपने ही दल में लगभग अकेले पड़ चुके मांझी को समर्थन देने के लिए भी कुछ लोग सामने आ रहे हैं. राजद के एक नेता, दरभंगा के जिलाध्यक्ष फुलहसन अंसारी ने अपनी ओर से कोशिश की िक वे मंदिर में जांच करने गई टीम के सामने अपनी बात रखंे. वे जांच टीम के पास पहुंचकर यह कहने लगे कि पास के महादलित गांव के लोगों के बयान भी लिये जाएं. लेकिन गांववालों ने अंसारी का विरोध किया तो वे वापस चले गए. बिहार सरकार के एक मंत्री भीम सिंह ने भी यह कहकर भी मुख्यमंत्री को समर्थन देने की कोशिश की है कि ऐसा कई जगहों पर होता है. यह बात सच है. बिहार में बहुत जगह अभी ऐसा होता है. महादलित-दलित क्या दूसरे कई समुदायों के साथ सामाजिक स्तर पर अछूत जैसा व्यवहार होता है. दलितों पर अत्याचार के मामले में बिहार देश के अग्रणी राज्यों में भी शामिल है. लेकिन यहां सवाल दूसरा है. यहां सवाल एक महादलित के साथ-साथ एक मुख्यमंत्री के बयान का है, जो एक घटना होने पर डेढ़ माह बाद बड़े समारोह में अपनी बात रखता है. वह भी कहासुनी का हवाला देकर और उसके बाद उस बात के समर्थन में ठोस तथ्य नहीं जुट पाता.
विवाद के उस्ताद
मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही जीतन राम मांझी के बयान निरंतरता के साथ विवाद का विषय बन रहे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि उनकी जबान फिसल जाती है. कुछ कहते हैं िक वे सरल स्वभाव वाले हैं इसलिए बिना ज्यादा सोचे मन की बात कह डालते हैं. कई यह भी मानते हैं कि मांझी, लालू प्रसाद के साथ भी बहुत दिनों तक राजनीति कर चुके हैं इसलिए जानबूझकर ऐसा कुछ कहते रहते हैं जिससे सुर्खियों में बने रहें. उधर, कुछ राजनीतिक विश्लेषक मांझी के बयानों को सधी हुई राजनीतिक चाल की तरह भी देखते और आंकते हैं.
मांझी इस बार मंदिर प्रकरण को लेकर विवाद मंे हंै. मधुबनी जिले के एक मंदिर मंे उनके जाने के बाद मंदिर के शुद्धिकरण की बात घटना के डेढ़ माह बाद बताकर. इससे कुछ दिन पहले वे दानापुर मंे एक बयान देकर चर्चा में आए थे. मांझी वहां भूमिहीनों के बीच थे. दलितों के भविष्य की चिंता जताते हुए वे बोल पड़े, ‘आप बच्चों पर ध्यान नहीं देते क्योंकि आप नशा करते हैं. दारू पीजिए, लेकिन रात में. थोड़ा-थोड़ा, दवाई जैसा.’ अभिभावक या हितैषी वाले अंदाज में कही गई उनकी इस बात का खूब मजाक उड़ा. इससे पहले वे बिहार राज्य खाद्यान्न व्यवसायी संघ के राज्यस्तरीय सम्मेलन में अतिथि के तौर पर पहुंचे थे. वहां छोटे व्यवसायियों का मन बढ़ाने के उत्साह में कह बैठे कि छोटे कारोबारी अगर जमाखोरी करके माल बटोरते हैं और अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाते हैं तो यह चलेगा और ऐसा करनेवाले धन्यवाद के पात्र हैं. आगे बोले कि देश को बड़े कारोबारी अपने कालाबाजारी से खोखला कर रहे हैं. छोटे कालाबाजारी पोठिया मछली की तरह हैं जबकि बड़े वाले मगरमच्छ हैं. मांझी के इस बयान पर भी बवाल कटा. इससे पहले भी वे ग्रामीण विकास विभाग के एक आयोजन में गए थे. वहां भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बताने के फेर में अपना एक प्रसंग भी सुना गए. उन्होंने कहा कि उनके मंत्री रहते हुए उनके घर का बिजली का बिल 25 हजार का आ गया तो बेटे ने बिजली विभाग से सेटिंग कर उसे पांच हजार करवाकर मामला निबटा दिया. और फिर लगे हाथ भ्रष्टाचार पर यह भी बोल गए कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में बेशक बिहार का विकास हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार भी बढ़ा.
मांझी यह सब सहजता में कहते जाते हैं या कुछ सोचकर, यह उनके करीबी भी नहीं बता पाते. एक बार दलित स्टूडेंट वेलफेयर के एक आयोजन में गए तो वहां उन्होंने जाति बंधन को तोड़कर अंतरजातीय विवाह की अच्छी बातें शुरू कीं और फिर लगे हाथ यह सलाह भी दे दी कि अधिक से अधिक जनसंख्या बढ़ाइए तभी भला होगा. इस सबके बीच जहानाबाद के एक आयोजन में बिजली की मांग करनेवालों को हड़काते हुए उनका बयान तो खूब चरचे में रहा ही था जिसमें उन्होंने मांग करनेवालों से कहा था कि ‘आपलोग वोट नहीं देते हैं, आपके वोट से सीएम नहीं बने हैं, हम अपने वोट से यहां तक पहुंचे हैं.’
जीतन राम मांझी बोलते समय शायद यह भूल जाते हैं कि वे प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ जदयू के एक अहम नेता भी हैं जिनके कहे का असर पार्टी और सरकार दोनों पर पड़ता है. वे समय-समय पर अपनी पार्टी की राजनीति को प्रभावित करनेवाले बयान भी देकर सुर्खियों मंे बने रहते हैं. जब लालू प्रसाद के साथ महागठबंधन बनने की बात चल ही रही थी कि मांझी ने अपनी ओर से कह दिया था कि महागठबंधन के नेता नीतीश ही होंगे. उनके इस बयान के बाद कुछ दिन तक राजद और जदयू में वाकयुद्ध भी चला. नीतीश कुमार जब महागठबंधन बनाने में ऊर्जा लगाए हुए थे तो उस समय मांझी ने यह भी कहा था कि लालू प्रसाद के दिल में पिछड़ों के लिए ही सबकुछ है, वे दलितों-महादलितों को तरजीह नहीं देते.