विकास या फिर विनाश की पटकथा

NEPAL-INDIA-QUAKE

हम हर त्रासदी के बाद जगते हैं और फिर सो जाते हैं. यही हमारे काम करने का तरीका है. आज से दो साल पहले केदारनाथ में त्रासदी आई थी. वहां भी भारी संख्या में क्षति हुई थी. उस त्रासदी में जो भी क्षति हुई उसकी मुख्य वजह यह थी कि हमने पहाड़ों को बहुत कमजोर कर दिया है. हमने नदी के रास्ते में अपने लिए होटल और सराय बना लिए हैं. तब भी हमने इस बारे में थोड़ी बहुत बात की कि कैसे हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि इस बारे में हमने कोई व्यापक चर्चा की हो या किसी नीति का निर्माण किया हो.

ऐसा भी नहीं है कि उस त्रासदी से हमने कुछ सीख लिया हो. थोड़ी-बहुत बात करने के बाद हमने फिर वही करना शुरू किया जो हम वर्षों से करते आए हैं. असल में हम जिसे अपना विकास समझ रहे हैं वो विनाश की पटकथा है. आज एक बार फिर इंसान अपने आपको प्रकृति के सामने कमजोर पा रहा है. हमसब नेपाल और भारत के कुछेक हिस्सों में आए भूकंप से हिले हुए हैं. हजारों जिंदगियां तबाह हुई हैं. तो क्या इस तबाही या बर्बादी का दोष प्रकृति पर है? क्या इस पूरी तबाही की वजह केवल भूकंप है?

पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है. इस त्रासदी के लिए हम यानी इंसान सबसे ज्यादा दोषी हैं. हमने पिछले कई वर्षों में पूरे ‘इको सिस्टम’ को तबाह कर दिया है. हम इस तबाही को लगातार जारी रखे हुए हैं. हम पहाड़ों को डायनामाइट की मदद से उड़ा रहे हैं. हम कोयले और दूसरे खनिजों के लिए लगातार माइनिंग कर रहे हैं. हमने अपने इन कृत्यों से जमीन के भीतर एक हलचल मचा रखी है. सतह के ऊपर जो हरकत हम कर रहे हैं उसका प्रभाव सतह के नीचे दिखता है. सतह के नीचे की चट्टानें धीरे-धीरे कमजोर हो रही हैं. हमारे द्वारा लगातार किए जा रहे हस्तक्षेप से चट्टानें दरक रही हैं. इस वजह से भूकंप का असर पहले की तुलना में ज्यादा दिख रहा है और तबाही भी ज्यादा हो रही है. अगर हम इसी रफ्तार से अपना काम करते रहे तो आगे तबाही का स्तर और बड़ा होगा. अभी आंकड़ा हजारों में है आगे आंकड़ा लाखों में भी हो सकता है.

पृथ्वी पर नदी, झील, समुंद्र, पहाड़ और पठार ये सब मिलकर एक संतुलन बनाते हैं और हमें इस संतुलन को बने रहने देना चाहिए

भूकंप आना तो एक समान्य प्रक्रिया है. जब से पृथ्वी बनी है तब से भूकंप आ रहे हैं. हिमालय का बनना भी ऐसी ही एक प्रक्रिया से संभव हो पाया है. आज से करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले दो प्लेट्स के एक-दूसरे के करीब बढ़ने की वजह से ही हिमालय का निर्माण हुआ है.

कहने का मतलब कि धरती के गर्भ में भी एक दुनिया है जहां हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है. इसे न तो हम रोक सकते हैं और न ही कभी इसे रोकने की कोशिश की जानी चाहिए. ऐसे में अब सवाल उठता है कि हम क्या कर सकते हैं. यहां मैं यह भी साफ कर दूं कि आज हमें जो करना है वो हमारी सुरक्षा के लिए ही जरूरी है. इसे किसी के ऊपर एहसान के तौर पर नहीं लेना चाहिए. जब हम कहते हैं कि पर्यावरण बचाना है तो साथ में हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा.

अपनी सुरक्षा के लिए हमें केवल इतना करना है कि पृथ्वी का अपना जो संतुलन है, उसे हम जस का तस बना रहने दें. पृथ्वी पर नदी, झील, समुंद्र, पहाड़ और पठार ये सब मिलकर एक संतुलन बनाते हैं और हमें इस संतुलन को बने रहने देना है. नदी का सूखना रोकना होगा और पहाड़ को चीरना-फाड़ना बंद करना होगा. हमें अपने लालच पर लगाम लगानी पड़ेगी. अगर हम चाहते हैं कि भविष्य में ऐसी त्रासदियां न आएं तो हमें प्रकृति से सहयोग करते हुए जीना होगा.

(विकास कुमार से बातचीत पर आधारित)