‘सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के लिए कम से कम दिन में सात से आठ घंटे की पढ़ाई करनी होती है. इतने घंटे हम अपने कमरे में ही कैद रहते थे, लेकिन पिछले दस दिनों से हम पढ़ ही नहीं पा रहे. दिन रात सड़क पर रह रहे हैं. नोट्स के बदले बैनर-पोस्टर बना रहे हैं. ट्यूशन जाने की जगह प्रदर्शन और अनशन में जा रहे हैं. लेकिन करें तो क्या करें? यूपीएसी ने ऐसी ही हालत बना दी है कि हिंदी और दूसरे भाषाओं में परीक्षा देने वाले छात्रों को पहले लड़ना होगा, जीतना होगा और तब पढ़ना होगा. केवल पढ़ाई करने से कुछ नहीं होने वाला.’
मायूसी और जोश के मिले-जुले भाव के साथ यह बात कहते विवेक कुमार उत्तर प्रदेश के जौनपुर के रहने वाले हैं. पांच साल पहले सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने के लिए वे दिल्ली आए और अपने जैसे उन हजारों छात्रों की तरह शहर के मुखर्जी नगर इलाके में समा गए जो चुपचाप इस परीक्षा की तैयारी करते रहते हैं. लेकिन पिछले एक पखवाड़े से इन छात्रों का एक बड़ा वर्ग आंदोलित है. मुखर्जीनगर में अनशन और प्रदर्शन चल रहा है. हिंदी सहित अन्य दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में तैयारी करने वाले छात्रों का आरोप है कि सिविल सेवा करवाने वाला यूपीएसी 2011 से उनके साथ भेदभाव कर रहा है. इस साल यूपीएससी ने सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में एक बदलाव किया था. इसे अब सी-सैट (सिविल सर्विसेस एप्टिट्यूड टेस्ट) के नाम से जाना जाता है. यूपीएससी ने यह बदलाव प्रोफेसर एसके खन्ना की अध्यक्षता वाली कमेटी की सिफारिशों के आधार पर किया था. लेकिन छात्रों के एक बड़े वर्ग को यह बदलाव मंजूर नहीं है और वह इसमें सुधार चाहता है.
2010 तक सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा 450 अंकों की हुआ करती थी. इसमें दो पर्चे होते थे. इतिहास, राजनीतिशास्त्र, भौतिकी जैसे 20 वैकल्पिक विषयों में से एक का प्रश्नपत्र जो 300 अंकों का होता था और 150 अंकों वाला सामान्य ज्ञान का प्रश्नपत्र. 2011 में लागू सीसैट में 450 अंकों की बजाय दो-दो सौ अंकों के दो प्रश्नपत्र हैं. पहला सामान्य ज्ञान का है और दूसरे में मानसिक क्षमता, तर्कशक्ति और आंकड़ों के विश्लेषण, अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से जुड़े प्रश्न हैं.
हालिया विवाद इसी दूसरे प्रश्न पत्र को लेकर है. विरोध कर रहे छात्रों का कहना है कि जब मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी की परीक्षा होती ही है तो फिर प्रारंभिक परीक्षा में भी इसकी क्या जरूरत है. छात्रों की शिकायत है कि इस प्रणाली के तहत मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों को फायदा पहुंचता है. छात्र यह भी कहते हैं कि यह प्रणाली गांव-देहात के स्कूलों से पढ़कर आए हुए छात्रों के सामने बाधा पैदा करती है जबकि अंग्रेजी माध्यम और शहरों में पढ़े हुए बच्चों के लिए रास्ता और आसान करती है.
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी डॉक्टर विकास दिव्यकीर्ति कहते हैं, ‘देखिए, कुछ लोग जबरन इसे हिंदी बनाम अंग्रेजी की लड़ाई बता रहे हैं. ऐसे लोग यह तस्वीर बनाना चाहते हैं मानो हिंदी माध्यम के बच्चे अंग्रेजी नहीं जानते और इसी वजह से वे इसका विरोध कर रहे हैं जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. अंग्रेजी से किसी को भी दिक्कत नहीं है. अंग्रेजी का एक पेपर तो मुख्य परीक्षा में वर्षों से होता आ रहा है. आजतक किसी ने उसका विरोध नहीं किया. असल दिक्कत यूपीएससी के उस नए परीक्षा पैटर्न से है जो हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बच्चों को तो नुकसान पहुंचाता है, लेकिन अंग्रेजी और विज्ञान पृष्ठभूमि के बच्चों को फायदा पहुंचाता है.
डॉक्टर दिव्यकीर्ति आगे बताते हैं, ‘समझने की कोशिश कीजिए. सी-सैट में कुल 80 सवाल होते हैं. इन 80 सवालों में से 40 सवाल ऐसे हैं जो सीधे-सीधे अंग्रेजी माध्यम के बच्चों को फायदा पहुंचाते हैं. इन 40 सवालों में से सात या आठ अंग्रेजी भाषा के होते हैं तो जाहिर तौर पर इन सवालों को वे बच्चे जल्दी हल कर लेंगे जिन्होंने अंग्रेजी भाषा पढ़ी होगी. 32 सवाल मानसिक क्षमता परखने के लिए होते हैं. मूल रूप से ये सवाल अंग्रेजी में बनते हैं और बाद में इनका हिंदी अनुवाद किया जाता है. अब इन अनुवादों को देखिए तो समझ में आएगा कि हिंदी माध्यम के बच्चे इन सवालों को कैसे हल कर पाएंगे. हिंदी में ऊल-जुलूल अनुवाद के चलते इन सवालों को समझने के लिए अंग्रेजी में छपे प्रश्न ही पढ़ने होंगे. जब तक हिंदी का बच्चा सवाल समझता है तब तक अंग्रेजी वाला कई सवाल हल कर चुका होता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यह कोई सामान्य परीक्षा नहीं बल्कि प्रतियोगी परीक्षा है जिसमें एक-एक मिनट बहुत कीमती होता है. क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या इसका विरोध नहीं होना चाहिए? क्या यह केवल हिंदी बनाम अंग्रेजी का मामला है?’
ऐसे कई सवाल हैं जिनका यूपीएसी के पास कोई जवाब नहीं है. हां कुछ पूर्व अधिकारी हैं जो केवल इतना भर कहते हैं कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है और इस पर भेदभाव का आरोप नहीं लगाना चाहिए. लेकिन उनके पास भी इस बात का जवाब नहीं है कि जो संस्था पूरे देश में इतनी महत्वपूर्ण परीक्षा लेती है वह सवाल के हिंदी अनुवाद में ’स्टील प्लांट’ को स्टील का पौधा’ , ‘टैबलेट कंप्यूटर’ को ‘गोली कंप्यूटर’ और ज्वाईंट वेंचर रूट’ को ‘संयुक्त संधिमार्ग’ कैसे लिख देती है?
इस अनुवाद को देखकर हिंदी के जाने माने साहित्यकार और सिविल सेवा में रह चुके अशोक वाजपेयी भी चकरा गए. उनका कहना था, ‘मैं इतने साल से हिंदी में कहानी-कविताएं लिख रहा हूं. यह कहने में भी संकोच नहीं है कि हिंदी की अच्छी जानकारी है मुझे. फिर भी जब मैंने इन सवालों के हिंदी अनुवाद देखे तो माथा चकरा गया. बहुत से सवाल तो मैं समझ ही नहीं पाया.’ दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इस अनुवाद को वाहियात बताकर खारिज कर दिया. जाने माने पत्रकार और टीवी एंकर रवीश कुमार ने अपने टीवी शो के दौरान यहां तक कहा कि जिन लोगों पर अनुवाद की जिम्मेदारी है उन पर तो कानून के तहत मामला दर्ज किया जाना चाहिए.
विरोध कर रहे छात्रों के मुताबिक अनुवाद की समस्या तो केवल बानगी भर है. इससे यह दिखता है कि यूपीएससी एक भाषा के प्रति किस कदर लापरवाह है. छात्रों की मांग में सी-सैट में बदलाव के अलावा यह भी शामिल है कि अगस्त में होने वाली यूपीएससी परीक्षा को एक महीने टाला जाए. इस मांग के पीछे छात्रों का तर्क है कि यूपीएससी के भेदभावपूर्ण रवैय्येे का विरोध करने की वजह से छात्र अपनी तैयारी नहीं कर पाए हैं.
गौर करनेवाली बात यह भी है कि यूपीएससी द्वारा यूजीसी के भूतपूर्व अध्यक्ष अरुण निगवेकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में सी-सैट को भेदभावपूर्ण बताया था. समिति ने अगस्त 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सी-सैट शहरी क्षेत्रों के अंग्रेजी माध्यम के प्रतियोगियों को फायदा पहुंचाता है तथा ग्रामीण क्षेत्र के प्रतियोगियों के लिए कठिनाई पैदा करता है. समिति के मुताबिक पहले वर्ग के प्रतियोगी सामान्य अध्ययन पर पकड़ न रखने के बावजूद सी-सैट पर अच्छी पकड़ होने के चलते सफल हो रहे हैं जबकि दूसरे वर्ग के प्रतियोगियों के लिए सामान्य अध्ययन के विषय में अच्छी पकड़ होने पर भी प्रारंभिक परीक्षा पास कर पाना मुश्किल होता है. इसी समिति ने अंग्रेजी से होनेवाले अनुवाद को ‘मशीनी किस्म’ का भी बताया था.
इस समिति ने जो बात कही है वह खुद यूपीएससी के आंकड़ों से साबित होती है. उदाहरण के लिए 2003 से 2010 के बीच प्रारंभिक परीक्षा पास करके मुख्य परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवारों में से हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की संख्या 35 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के बीच थी, लेकिन 2011 में सीसैट के आते ही यह आंकड़ा 15 फीसदी तक लुढ़क गया है.
इतनी अहम परीक्षा लेने वाली संस्था सवाल के हिंदी अनुवाद में ’स्टील प्लांट’ को स्टील का पौधा’ या ‘टैबलेट कंप्यूटर’ को ‘गोली कंप्यूटर’ कैसे लिख देती है?
सफल होनेवाले छात्रों की घटती संख्या ने छात्रों में असंतोष की लहर पैदा कर दी है. इस सबके बीच 16 जुलाई को कार्मिक मामलों के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद में बोलते हुए विरोध कर रहे छात्रों को यह भरोसा दिलाया था कि सरकार छात्रों के पक्ष में है. उन्होंने यह भी कहा कि पिछली सरकार के कार्यकाल में गठित अरविंद वर्मा समिति ही सिविल सेवा परीक्षा में बदलावों पर विचार करेगी. समिति को एक सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया. तब इसी भरोसे पर छात्रॊं ने अपना अनशन तोड़ा था. लेकिन जब छात्रों को यह जानकारी मिली कि यूपीएससी ने अपनी वेबसाइट पर सूचना दी है कि प्रारंभिक परीक्षा पहले से तय तारीख यानी 24 अगस्त से ही होगी और परीक्षा के लिए जरूरी एडमिड कार्ड भी जारी कर दिया गया है तो शांति से प्रदर्शन कर रहे छात्रों का एक गुट उग्र हो गया. छात्रों ने मुखर्जी नगर से बाहर निकलकर इंडिया गेट और यूपीएससी दफ्तर के बाहर प्रदर्शन किया. पुलिस ने उन पर लाठियां भांजते हुए कई छात्रों को गिरफ्तार किया. फिलहाल छात्र शांत हैं और वर्मा समिति की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं. सरकार ने भी छात्रों से यह अनुरोध किया गया है कि वे तब तक संयम रखें जब तक समिति की रिपोर्ट नहीं आ जाती.
छात्र एक ऐसा फैसला चाहते हैं जिससे हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा देनेवालों के हित सुरक्षित हों और उनसे हो रहा भेदभाव बंद हो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘यूपीएससी से तो हमें कोई उम्मीद ही नहीं है. अगर इन्हें कुछ करना होता तो 2012 में ही कुछ कर लेते जब इनके द्वारा गठित समिति ने ही इस प्रणाली पर कई सवाल खड़े किए थे. हमें तो उम्मीद है सरकार से. अगर सरकार चाहे तो वह हम छात्रों को बचा सकती है.’
हम उनसे पूछते हैं कि क्या वे सी-सैट को खत्म करके पुराने तरीके से परीक्षा करवाने के हिमायती हैं. वे कहते हैं, ‘पीछे लौटना कोई समझदारी नहीं है, लेकिन केवल अंग्रेजी में प्रश्न पूछा जाना भी भेदभाव है. क्यों न 10 प्रश्न ऐसे भी हों जो सिर्फ भारतीय भाषाओं में पूछे जाएं और उनका अंग्रेजी अनुवाद न दिया जाए? अगर यह अस्वीकार्य है तो केवल अंग्रेजी के प्रश्नों को भी हटाया जाए. मानसिक क्षमता के प्रश्न मूल हिंदी में पूछे जाने चाहिए, अनुवाद वाली हिंदी में नहीं क्योंकि अनुवाद जितना भी अच्छा हो, मूल पाठ की बराबरी नहीं कर सकता.’ वे आगे कहते हैं, ‘अगर यह संभव नहीं है तो क्यों न हिंदी पाठ को मूल माना जाए और अंग्रेजी में अनुवाद करके प्रश्न पूछे जाएं? अगर इस विकल्प पर भी आपत्ति है तो क्यों न ऐसे प्रश्न हटा ही दिए जाएं? आखिर मुख्य परीक्षा में तो मानसिक क्षमता की जांच होती ही है. गणित और तर्क शक्ति के प्रश्नों से कोई दिक्कत नहीं है, पर उनका अनुपात ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी एक पृष्ठभूमि के छात्रों को ज्यादा फायदा मिले.’
ये तो विरोध कर रहे छात्रों के तर्क हैं जिनसे सरकार या यूपीएससी का सहमत होना या न होना कतई जरूरी नहीं है. लेकिन यूपीएससी और सरकार को इन छात्रों के हितों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा.