सबसे बड़ी चुनौती

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आप आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. फोटो: विकास कुमार

दो तस्वीरें. चंद महीनों के फासले की. जिन्हें देखकर पता चलता है कि काफी कुछ बदल गया है. एक तस्वीर 28 दिसंबर की है जब दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में शपथ लेने जा रहे थे. खुद को आम दिखाने और आम से अपने संबंधों को खास करने के लिए अरविंद ने मेट्रो की सवारी को चुना था. कौशांबी से लेकर सेंट्रल सेक्रिटेरियट के मेट्रो स्टेशनों तक लोगों का समंदर उमड़ पड़ा था. लोग उस व्यक्ति की एक झलक पाने के लिए बेताब थे जो आंदोलन के रास्ते सत्ता की कुर्सी तक पहुंचा था. इनमें वे लोग तो थे ही जिनके सिर पर ‘मैं हूं आम आदमी’ वाली टोपी थी, उनसे कई गुना अधिक उन लोगों की संख्या थी जो आम आदमी ही थे.

दूसरी तस्वीर 21 मई की है. जब केजरीवाल ने 10 हजार रुपये का जमानती मुचलका भरने से इनकार कर दिया. कोर्ट ने अरविंद को 15 दिन के लिए जेल भेजा. वे तिहाड़ जेल ले जाए गए. केजरीवाल की इस गिरफ्तारी के खिलाफ कहीं कोई बड़ा प्रदर्शन नहीं हुआ. जेल के गेट के बाहर आप के मुट्ठीभर कार्यकर्ता जरूर पहुंचे थे. जिनके साथ योगेंद्र यादव और पार्टी के अन्य नेता भी थे. पार्टी कार्यकर्ताओं के अलावा शायद ही कोई आम आदमी वहां पहुंचा था.

ये तस्वीरें आम जनमानस के बीच आप की लोकप्रियता के अर्श से फर्श पर आने की कहानी कहती हैं. ये बताती हैं कि आम आदमी पार्टी और अरविंद अपने छोटे से राजनीतिक करियर के सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं.

बीते लोकसभा चुनाव में आप के 96 फीसदी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. जिन दो सीटों – अमेठी और बनारस – को पार्टी ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था, जिन पर आप का झंडा बुलंद कर अरविंद आगामी लोकसभा का राजनीतिक भविष्य लिखना चाहते थे, उन दोनों ही पर पार्टी की करारी हार हुई. पार्टी के पूरे संसाधनों को दूसरे संसदीय क्षेत्रों की कीमत पर बनारस में खर्च करने के बावजूद अरविंद वहां से हार गए. जिस दिल्ली के विधानसभा चुनाव में जनता ने आप पर ऐसा विश्वास जताया था कि पार्टी पूरे देश में फैल जाने को बेताब हो गई वहां पार्टी के सारे प्रत्याशी चुनाव हार गए. पार्टी ने कुल जमा चार सीटें जीतीं भी तो उन जगहों से जहां से शायद उसे खुद जीतने की उम्मीद नहीं थी. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच पिछले कुछ समय में उपजे विवाद और बाता-बाती ने भी पार्टी की स्थिति को बहुत कमजोर किया है. वर्तमान में पार्टी दिशाभ्रम की स्थिति में दिखाई देती है. लेकिन ये सब भी पार्टी के भविष्य के लिए उतने खतरनाक नहीं हैं जितना पार्टी की नींव की उन ईंटों का खिसकना है जिन पर पूरी पार्टी टिकी हुई है.

ये ईंट हैं पार्टी के वे वॉलंटियर/कार्यकर्ता जिन्होंने आंदोलन के समय से ही पार्टी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने का काम किया. पार्टी की जान यही वालंटियर थे जिनके दम पर पार्टी खड़ी हुई और चलना सीखा. लेकिन आज ये ही कार्यकर्ता हताश-निराश हैं. उनकी अरविंद और पार्टी से तमाम शिकायते हैं. जिन कार्यकर्ताओं से पार्टी और अरविंद की तारीफ के सिवा कुछ सुनाई नहीं देता था उनके मन में आज गुस्सा और पीड़ा है.

निराशा और नाउम्मीदी का आलम यह है कि पार्टी के भीतर के लोग ही बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद लगभग 30 से 40 फीसदी के करीब कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स यह भी कहती हैं कि पार्टी में 3.50 लाख वॉलंटियर्स की तुलना में अब केवल 50 हजार ही बचे हैं. दिल्ली में ही 15 हजार शुरुआती कार्यकर्ताओं में से आधे से अधिक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. जो अभी पार्टी से जुड़े हुए हैं उनमें से लगभग 80 फीसदी से अधिक ने पूरा समय पार्टी के लिए देना बंद कर दिया है. इनमें से भी अधिकतर इस बात को दोहराते हैं कि कैसे पार्टी के लिए काम करने का उनका उत्साह अपने सबसे निचले स्तर पर जा पहुंचा है.

आप में ऐसे लोग एक बड़ी संख्या में थे जो अपनी नौकरी या पढ़ाई छोड़कर पार्टी के लिए काम करने आए थे. ये लोग शुरुआत में अन्ना आंदोलन से जुड़े थे. बाद में जब पार्टी बनी तो ये उसके लिए काम करने लगे. ये लोग देश के लिए कुछ करना चाहते थे. इन्हें लगता था कि आप वह मंच है जिसके माध्यम से देश बदलने, व्यवस्था बदलने, क्रांति करने का उनका सपना सच हो जाएगा. आईआईटी दिल्ली में पढ़ रहे पार्टी कार्यकर्ता प्रिंस कहते हैं, ‘पहले लगता था कि हर दिन कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है. मंजिल बहुत पास दिख रही थी. लेकिन लोकसभा में भयानक हार के बाद बहुसंख्यक कार्यकर्ताओं के मन में ये बात घर कर गई की आगे लड़ाई बहुत लंबी होने वाली है. एक तरह से पार्टी को शून्य से शुरूआत करनी है. सफलता कब तक मिलेगी पता नहीं. इसमें 2, 5, 10 साल लगेंगे या उससे भी अधिक पता नहीं. ऐसे में कई कार्यकर्ता जो अपनी नौकरी और पढ़ाई आदि छोड़कर आए थे वो फिर वापस चले गए हैं.’

‘परिणाम आने के बाद से ही कार्यालय बंद है. किसी को यह तक नहीं पता कि आम आदमी पार्टी तक उसे अपनी बात पहुंचानी है तो वह किससे संपर्क करे’

सॉफ्टवेयर इंजीनियर की अपनी नौकरी छोड़कर पार्टी के साथ जुड़ने वाले और हाल ही में पार्टी छोड़ कर जाने वाले संजीव वर्मा कहते हैं, ‘मैं अपना करियर छोड़कर पार्टी के साथ आया था लेकिन अब मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती. चीजें बहुत खराब हो चुकी हैं. मैंने पार्टी छोड़ दी. अब नौकरी करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है मेरे पास.’ यही कहानी देवेंद्र राजावत की भी है. मुंबई स्थित एक प्राईवट बैंक में काम कर रहे देवेंद्र नौकरी छोड़कर पार्टी से जुड़े थे. लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी. अब फिर से नए सिरे से नौकरी की तलाश कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘हां, मैंने पार्टी छोड़ दी है. मुझे ऐसा लगा कि इस पार्टी को जितना करना था वो कर चुकी है. अब वो भी भाजपा कांग्रेस के रास्तों पर जा चुकी है. कार्यकर्ताओं की अब यहां कोई सुनता नहीं है.’

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यह तस्वीर 28 दिसंबर की है जब दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद अरविंद केजरीवाल रामलीला मैदान में शपथ लेने जा रहे थे. फोटो: विजय पांडे

दिल्ली के वसंत विहार में पार्टी के लिए पिछले डेढ़ साल से वॉलिटियर का काम कर रहे अनुराग राय कहते हैं, ‘मैंने अपनी बीटेक फर्स्ट ईयर की पढ़ाई छोड़कर पार्टी के लिए काम करना शुरू किया था. घरवाले पहले पार्टी से जुड़ने पर नाराज हुए. मेरे नहीं मानने पर बोले बीटेक पूरा कर लो फिर पार्टी के लिए काम कर लेना. मैं नहीं माना. पिछले एक साल तक पार्टी के लिए बिना कुछ सोचे काम करता रहा लेकिन लोकसभा में जिस तरह से पार्टी ने गलत लोगों को टिकट दिया. कार्यकर्ताओं की सुनवाई खत्म हो गई. आंतरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता का जिस तरह से मजाक बनाया गया उससे मैं बहुत दुखी हुआ. मैंने पार्टी छोड़ दी. अब फिर से अपनी बीटेक की पढ़ाई शुरू करने की तैयारी कर रहा हूं. इस बीच घरवाले उस खबर की कतरनें सैकड़ों बार दिखा चुके हैं जिनमें लिखा है कि अरविंद केजरीवाल की बेटी का आईआईटी में सलेक्शन हो गया है. घरवाले ये कहते हुए कोसते हैं कि देखो तुम बीटेक की पढ़ाई छोड़कर क्रांति कर रहे थे वहीं तुम्हारे नेता जी की बेटी आईआईटी में दाखिले की तैयारी कर रही थी.’

पार्टी कार्यकर्ता चंद्रभान कहते हैं, ‘ऐसे कार्यकर्ताओं की अब बड़ी तादाद है जो नौकरी के साथ पार्टी के लिए जितना बन पड़ता है उतना कर रहे हैं. पार्टी के लिए फुलटाइम काम करने वाले पार्टी में तेजी से कम हुए हैं.’

ऐसा नहीं है कि पार्टी से दूर जाने की यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली तक सीमित है. राज्यों में तो स्थिति इससे भी बुरी है. ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां पार्टी कार्यकर्ताओं का पार्टी से मोहभंग न हुआ हो. और जगहों को छोड़कर सिर्फ बनारस की ही बात करें तो आज यहां के दोनों कार्यालयों पर ताला लगा हुआ है. बनारस में पार्टी कार्यकर्ता रहे देवेश यादव कहते हैं, ‘रिज्लट आने के बाद से ही कार्यालय बंद है. किसी को यह तक नहीं पता कि आम आदमी पार्टी तक उसे अपनी बात पहुंचानी है तो वह किससे संपर्क करे. जो नंबर था वो भी बंद हो गया है. सारे लोग वापस चले गए हैं. न यहां संगठन है और न लोग. जिन लोगों ने चुनाव में हमें समर्थन किया था वो अब ये तंज कस रहे हैं कि अरविंद ने जाने से पहले एक बार भी हम लोगों से नहीं पूछा कि जाएं या यहीं रहें.’

पार्टी के कार्यकर्ताओं से बात करने पर पता चलता है कि पार्टी को लेकर उनके मोहभंग की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी. पार्टी नेतृत्व के कार्य-व्यवहार को लेकर उनकी नाराजगी लंबे समय से पल रही थी जो समय के साथ और बढ़ती गई.

कार्यकर्ता बताते हैं कि मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से कार्यकर्ताओं से किसी तरह का संवाद करना या उनकी राय लेना पार्टी ने बंद कर दिया

नाराजगी की शुरुआत होती है दिल्ली विधानसभा के बाद बनी पार्टी की सरकार से. पार्टी कार्यकर्ता दिनेश शर्मा कहते हैं, ‘सरकार बनने के बाद हम सभी लोग बहुत खुश थे. लेकिन कुछ समय बाद ही चीजें बदलनी शुरू हो गईं.’ दिनेश बताते हैं कि कैसे सरकार बनने से पहले पार्टी द्वारा लिए गए हर निर्णय से पहले वालंटियरों की राय ली जाती थी. उनसे पूछा जाता था कि वे क्या चाहते हैं? लेकिन सरकार बनने के बाद सब कुछ बदल गया. दिन गुजरने के साथ स्थिति ऐसी बनती गई कि कार्यकर्ताओं की सुनवाई बंद हो गई. पार्टी को जो भी निर्णय लेना होता था वह सेंट्रल ऑफिस में बैठे लोग तय कर लेते थे. पार्टी के अन्य कार्यकर्ता भी बताते हैं कि पहले जहां एक निश्चित अंतराल के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाई जाती थी वहीं सरकार बनने के बाद यह सिलसिला बंद हो गया. चंद्रभान कहते हैं, ‘सरकार बनने के बाद लोगों में ईगो आ गया. जब तक सरकार नहीं बनी थी तब तक लोगों से उनकी राय ली जाती थी, उन्हें मैसेज जाता था या फोन करके बुलाया जाता था. अरविंद से मीटिंग होती थी. बाद में कार्यकर्ताओं को इग्नोर किया जाने लगा.’

यह तस्वीर 21 मई की है. जब केजरीवाल ने 10 हजार रुपये का जमानती मुचलका भरने से इनकार कर दिया. जेल के गेट के बाहर आप के मुट्ठीभर कार्यकर्ता जरूर पहुंचे थे.

पार्टी के कई कार्यकर्ता कहते हैं कि उनके लिए सबसे बड़ा चौंकाने वाला समय तब आया जब उन्हें खुद टीवी के माध्यम से पता चला कि अरविंद दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी से इस्तीफा देने वाले हैं. ‘एक दिन पहले तक हम लोगों को भी पक्की खबर नहीं थी कि अरविंद इस्तीफा देने वाले हैं. हालांकि टीवी वाले ये चलाना शुरू कर चुके थे.’ पार्टी के एक वॉलंटियर राजीव कुमार कहते हैं, ‘मैंने ऑफिस में बात की तो पता चला कि ऐसी चर्चा चल रही है. मैंने सेंट्रल ऑफिस के एक कोऑर्डिनेटर से कहा कि आप लोगों को हमें भी सूचित करना चाहिए था. लेकिन सामने वाले ने ये कहते हुए फोन काट दिया कि वालंटियर फैसला नहीं करेंगे कि उन्हें क्या बताया जाए क्या नहीं. आप अपना काम कीजिए.’

ऐसे तमाम कार्यकर्ता हैं जिनसे बात करने पर पता चलता है कि वे अरविंद के सीएम पद छोड़ने से आहत थे. इसलिए नहीं कि अरविंद ने मुख्यमंत्री पद छोड़ा था बल्कि इसलिए कि किसी ने न तो उन्हें बताया कि वे पद छोड़ने वाले हैं और न उनकी राय पूछी गई. राजीव कहते हैं, ‘जब आप एसएमएस के माध्यम से लाखों लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं. जब आप वॉलंटियर से इस बारे में राय ले सकते हैं कि हम सरकार बनाएं या नहीं तो फिर आप ये क्यों नहीं पूछ पाए कि मैं सरकार छोड़ूं या नहीं.’

पार्टी कार्यकर्ता बताते हैं कि अरविंद के मुख्यमंत्री पद छोड़ने का सबसे अधिक खामियाजा कार्यकर्ताओं को ही भुगतना पड़ा. चांदनी चौक में पार्टी के लिए काम कर चुके अनुपम कहते हैं, ‘कार्यकर्ता ही जमीन पर लोगों के बीच में था. सो जो लोग अरविंद के इस निर्णय से खफा थे उन्होंने कार्यकर्ताओं पर ही गुस्सा निकालना शरू कर दिया. इस कारण से भी कई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गए. कौन रोज सुबह-शाम लोगों की गालियां सुनता. जिस निर्णय में आपका रोल नहीं है उसके लिए आपको कोई कोसे तो चिढ़ मचना स्वाभाविक है.’ मालवीय नगर में पार्टी का काम देखने वाले एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘अरविंद जी को चंद रैलियों और कार्यक्रर्मों में इस सवाल का जबाव देना पड़ा तो वो ये कहते नजर आए कि उनसे गलती हो गई. आगे से वो ऐसा नहीं करेंगे. ऐसे में ये कल्पना कीजिए कि जो कार्यकर्ता जनता के बीच 24 घंटे रहता है उसकी क्या फजीहत हुई होगी.’

कार्यकर्ता बताते हैं कि मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद से कार्यकर्ताओं से किसी तरह का संवाद करना या उनकी राय लेना पार्टी ने बंद कर दिया. इसके बाद कोई भी एक फैसला ऐसा नहीं हुआ जिसमें अरविंद ने या पार्टी ने कार्यकर्ताओं को विश्वास में लिया गया हो. सबकुछ पार्टी की राजनीतिक समिति या अरविंद और उनके करीबी चंद लोगों ने मिलकर तय कर लिया. प्रिंस कहते हैं, ‘सीएम का पद छोड़ने के बाद से ही गलतियां होनी शुरू हुईं. वहीं से हड़बड़ी में काम होना शुरू हुआ. कार्यकर्ता बेवजह खुद को पिसा महसूस करता था. पार्टी ने उससे उसका मन नहीं पूछा. उससे अगर पूछा गया होता तो उन्हें भी लगता कि मैं भी इस निर्णय में जिम्मेदार हूं.’ कार्यकर्ता बताते हैं कि इस कारण से कई जगहों पर जब अरविंद के पद छोड़ने के संबंध में उनसे पूछा गया तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि आप जाकर अरविंद से ही पूछ लें.

पार्टी कार्यकर्ता पार्टी के उस निर्णय की भी आलोचना करते हैं जिसके तहत पार्टी ने लोकसभा की 430 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे. दक्षिणी दिल्ली से पार्टी कार्यकर्ता चंद्रप्रसाद कहते हैं, ‘अगर पार्टी ने कार्यकर्ताओं से पूछा होता तो शायद कोई भी कार्यकर्ता इससे सहमति व्यक्त नहीं करता. लेकिन पार्टी कितने सीटों पर लड़ेगी, कहां से लड़ेगी, इस बारे में कार्यकर्ताओं की राय नहीं ली गई.’ ‘पूरे देश में लोकसभा चुनाव लड़ने का जो निर्णय पार्टी ने लिया उसमें संगठन की सलाह नहीं ली गई. भ्रष्ट लोगों को भी पार्टी ने टिकट दिया. यही कारण है कि स्थानीय स्तर संगठन लगभग खत्म हो चुका है.’ हिमाचल प्रदेश में पार्टी का काम देख रहे देशराज कहते हैं, ‘पार्टी ने प्रत्याशियों के चयन के लिए कुछ नियम तय किए थे लेकिन उन सभी को दरकिनार कर दिया गया.’

देशराज जैसे ही पार्टी के अन्य कई कार्यकर्ता इस बात से बेहद आहत नजर आते हैं कि कैसे पार्टी में चंद रोज पहले ही आए लोगों को टिकट दे दिया गया. लखनऊ में पार्टी के कार्यकर्ता विनय तिवारी कहते हैं, ‘जिन लोगों को टिकट दिया गया उनके इतिहास को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया. कई जगहों पर पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस में रहे ऐसे लोगों को भी टिकट दे दिया जिनके ऊपर गंभीर आरोप थे.’ पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेश दहिया भी विनय की बात से सहमति जताते हैं, ‘ये सही है कि चुनाव के समय दूसरी पार्टियों के बहुत से नाकारा लोग हमारी पार्टी में घुस गए. अब जिनको टिकट नहीं मिला वो पार्टी में ही रहकर उसकी जड़ में मट्ठा डालने लगे,’ चंडीगढ़ में पार्टी का काम देख रहे विजयपाल सिंह से यह पूछने पर कि क्या जब गुल पनाग को चंडीगढ़ का उम्मीदवार बनाया गया तो वहां के कार्यकर्ताओं की राय ली गई वे कहते हैं, ‘नहीं, अधिकांश जगहों के साथ ही चंडीगड़ में भी प्रत्याशी की पैराशुट लैंडिंग ही हुई. कार्यकर्ता से कुछ नहीं पूछा गया. हम खुद ही द्वंद में फंसे हैं कि मैडम चंडीगढ़ में रहेंगी या नहीं रहेंगी. आगे क्या होगा पता नहीं.’

कौशांबी में आम आदमी पार्टी का जो कार्यालय कभी कार्यकर्ताओं से गुलजार रहता था आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है. गिने-चुने कार्यकर्ता ही दिखाई देते है

पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं में से लंबे समय तक आरकेपुरम विधानसभा का काम देखते रहे लोकेश पार्टी के अपने आदर्शों से भटकने की बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी ने खुद नियम बनाया था कि सही और सच्चे लोगों को हम लोकतांत्रिक प्रक्रिया अर्थात स्थानीय जनता और कार्यकर्ताओं के फीडबैक के आधार पर टिकट देंगे. प्रत्याशियों के चयन की एक पूरी प्रक्रिया बनाई गई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी ने खुद अपने आदर्शों की हत्या कर दी. पैसे और रसूख वालों के हाथों में टिकट दिया गया. सही लोग यहां भी हाशिए पर थे.’ एक अन्य कार्यकर्ता कहते हैं, ‘पहले यह तय किया गया था कि चार महीने पहले पार्टी से जुड़ा होना एक पहली शर्त थी किसी के प्रत्याशी बनने की. लेकिन यहां तो स्थिति ऐसी थी कि लोग टिकट लेने के बाद पार्टी में आए. यही कारण है कि चांदनी चौक से पार्टी प्रत्याशी आशुतोष समेत कई लोकसभा प्रत्याशियों के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया. लेकिन पार्टी नेतृत्व के कान पर जू तक नहीं रेंगी.’

कई ऐसे पार्टी कार्यकर्ता हैं जो बनारस से मोदी के खिलाफ लड़ने के अरविंद केजरीवाल के फैसले पर भी सवाल उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘अरविंद दिल्ली में कितने लोकप्रिय हैं ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है. दिल्ली में हमारा संगठन भी बेहद मजबूत था. लोगों ने चंद महीने पहले ही हमें विधानसभा में ऐतिहासिक समर्थन दिया था. ऐसे में अगर अरविंद को लड़ना था तो वो दिल्ली से लड़े होते. अपनी सीट वो यहां से जीतते ही बाकि प्रत्याशियों का भी भला हो जाता. लेकिन पता नहीं उन्होंने बनारस क्यों चुना. अगर वो मोदी को हरा भी देते तो क्या आज मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते. दूसरे को हराने के चक्कर में हम खुद ही हार गए.’ लोकेश कहते हैं, ‘बनारस जाकर हमें अपनी ऐसी-तैसी कराने की जरूरत नहीं थी. गुस्सा लोगों का कांग्रेस के खिलाफ था और हम मोदी को हराने के लिए बनारस पहुंच गए.’

गांधीनगर क्षेत्र में पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता नरेंद्र पुराने अनुभवों का हवाला देते हुए सवाल खड़े करते हैं. वो कहते हैं, ‘शीला दीक्षित के खिलाफ लड़ने के बारे में जब अरविंद ने सोचा तो उन्होंने इसमें वॉलंटियर्स की राय भी ली. लेकिन बनारस जाने के बारे में उन्होंने कार्यकर्ताओं से कुछ नहीं पूछा.’ पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव हार चुके एक प्रत्याशी कहते हैं, ‘पार्टी के पास जो भी सीमित संसाधन थे उसने एक सीट पर ही सब झोंक दिया. इस तरह से बाकी सीटें अनाथ जैसी थीं. अरविंद ने खुद कहा था कि उन्हें सिर्फ अमेठी और बनारस से मतलब है. अगर ऐसा था तो फिर पार्टी ने बाकी 400 सीटों पर क्यों प्रत्याशी उतारकर उनकी फजीहत कराई?’

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लोकसभा चुनाव के दौरान वाराणसी में स्थित पार्टी कार्यालय जिसमे चुनाव के बाद से ताला बंद है. फोटो: विकास कुमार

कार्यकर्ताओं में से कई ऐसे भी हैं जो अरविंद को पार्टी की बुरी गत के लिए कम और योगेंद्र यादव की सदस्यता वाली पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी को ज्यादा जिम्मेंदार मानते हैं. पार्टी के एक नेता अरविंद का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘अरविंद खुद दिल्ली पर फोकस चाहते थे लेकिन बाकी मैंबर्स पूरे देश में जाने को आतुर थे. पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी ने अरविंद को ऐसा करने पर मजबूर किया था.’ लोकेश कहते हैं, ‘हम लोग योगेंद्र जी को पार्टी का चाणक्य समझते थे. वो एक पुराने राजनीतिक जानकार हैं. ऐसे में हुआ ये कि वो पार्टी में आए तो उन्हीं पुराने तरीकों को आजमाना शरू किया जो भाजपा और कांग्रेस वाले करते आए हैं. ये संभव है कि एक खास तरह की राजनीति को देखने की वजह से राजनीति को लेकर उनकी एक खास समझ बनी हो. वो आंदोलन से उभरी इस पार्टी की अलग राजनीतिक जरूरत को समझ नहीं पाए और वही राजनीतिक तौर तरीके यहां भी अपनाए जाने लगे जो इन पार्टियों में अपनाए जाते हैं.’

हालांकि ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या भी कम नहीं है जो सारी गड़बड़ियों के लिए सीधे अरविंद को दोषी मानते हैं. वे तर्क देते हैं कि कौन है पार्टी में जो कोई ऐसा निर्णय ले जिसके पक्ष में अरविंद न हों. ऐसे में अगर सफलता का सेहरा हाईकमान के माथे बांधा जाएगा तो फिर गड़बड़ी की जिम्मेंदारी भी उन्हें ही लेनी होगी.

एक समय पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता रहे लोकेश अब अपनी रोजी-रोटी की दुनिया में वापस लौट आए हैं. वो कहते हैं, ‘पहले लगता था कि मैं जो कुछ कर रहा हूं वो देश के लिए कर रहा हूं. हर आदमी इसी सोच के साथ जुड़ा था. बाद में जब पार्टी बनी तब भी हम उसे आंदोलन ही मानते थे. लेकिन दिल्ली का चुनाव जब आया तो पार्टी का आंदोलकारी चेहरा बदल चुका था. वो अब एक सामान्य राजनीतिक दल का रूप ले चुकी थी. आप भी भाजपा-कांग्रेस जैसी एक अन्य पार्टी बन गई.’ लोकेश अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं, ‘पार्टी में ऐसे तमाम लोग घुस गए जिनका विचारधारा से कोई मतलब नहीं था. वो शाजिया इल्मी का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘शाजिया को न तो आंदोलन से मतलब था न वो आंदोलन की विचारधारा वाली शख्स थीं. कांग्रेस और भाजपा के नेता जिस हल्की और फालतू भाषा में बात करते हैं वो भी इसी भाषा में बात करती थीं. ‘

पार्टी कार्यकर्ता बताते हैं कि कैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जिस बड़ी तादाद में लोग पार्टी में आए उससे भी पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा. वालंटियर बताते हैं कि इससे आंदोलन की विचारधारा वाले लोग साइड होते गए. बकौल लोकेश उन्होंने खुद अरविंद से कहा कि ‘हमें कोई न कोई क्राइटिरिया बनाना चाहिए. तो वो बोले बाद में छंटनी कर लेंगे. समय के साथ मैं पार्टी से निराश होता चला गया. फिर मैंने सोचा कि अगर मुझे समाज सेवा करनी है तो वो तो में पार्टी के बाहर किसी और माध्यम से भी कर लूंगा. इसके लिए आप में रहने की क्या जरूरत है.’

जो लोग अरविंद के निर्णय से खफा थे उन्होंने कार्यकर्ताओं पर ही गुस्सा निकालना शुरु कर दिया. इस कारण से भी कई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गए

दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत के बाद उससे जुड़ने के लिए आई लोगों की बाढ़ ने आंदोलन के समय से काम रहे पार्टी कार्यकर्ताओं को हाशिए पर धकेल दिया. प्रिंस कहते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा के बाद और लोकसभा चुनाव के समय बहुत बड़ी तादाद में लोग पार्टी से जुड़े. लाखों लोग उसके कार्यकर्ता बने. एकाएक नए नेताओं की पार्टी में बाढ़ आ गई. ऐसे में धीरे-धीरे पुराने कार्यकर्ताओं की पूछ कम होती गई और नए लोग तवज्जो पाते गए. चंद्रभान एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले शाजिया इल्मी रेवाड़ी से अपनी दोस्त अंजना मेहता को ले आईं. उनके साथ उनके अपने लोग आए थे. अंजना ने यहां आकर आरके पुरम के कार्यकर्ताओं को परेशान करना शुरू कर दिया. यहां की पूरी टीम को वो तोड़ के चली गईं.’ पार्टी की तरफ से दिल्ली विधानसभा में प्रत्याशी रहे राजन प्रकाश कहते हैं, पार्टी में पुराने कार्यकर्ताओं को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा. पुराने कार्यकर्ताओं की दयनीय स्थिति हो गई थी. वहीं जो लोग बाहर से आए और जो बड़े नेताओं की परिक्रमा करने लगे उनका आज पार्टी में बोलबाला हो गया है.

पार्टी के कई कार्यकर्ता उसके भीतर खत्म हो रहे लोकतांत्रिक स्पेस का प्रश्न भी उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता रमेश परासर कहते हैं, ‘जो अरविंद स्वराज की बात करते हैं उन्होंने खुद पार्टी में इसका पालन नहीं किया. दुनियाभर से आप पारदर्शिता की उम्मीद करते हैं लेकिन खुद आप में इसका अभाव है. स्थिति ये है कि अगर कोई किसी गलत चीज का विरोध करता है या प्रश्न करता है तो अरविंद कहने लगते अरे वो लालची है, उसे टिकट चाहिए था. नहीं मिला तो विरोध करने लगा. पार्टी में लोकतंत्र का भयानक अभाव है. जिस तरह आप मायावती पर प्रश्न उठाकर बसपा में नहीं रह सकते. वैसे ही आप अरविंद पर प्रश्न उठाकर आप में नहीं रह सकते. जिन लोगों ने भी अरविंद की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाया है उन्हें गद्दार, कांग्रेस, भाजपा का एजेंट, टिकट का लालची और न जाने क्या क्या कहा गया है. कोई ऐसा स्पेस नहीं है जहां आप जाकर अपनी असहमति व्यक्त कर सकें. योगेंद्र यादव का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘अरविंद की सुप्रीमो वाली कार्यशैली पर उन्होंने प्रश्न क्या उठाया आपने देखा होगा कैसे मनीष सिसोदिया ने उन्हें हड़काने वाला पत्र भेज दिया. ये तो योगेंद्र यादव थे जो बच गए कोई और होता तो पार्टी उसे गद्दार ठहराकर कभी का बाहर कर चुकी होती.’

पार्टी के भीतर सिकुड़ते लोकतंत्र की चर्चा करते हुए एक कार्यकर्ता बताते हैं कि कुछ दिन पहले ही लोकसभा चुनाव में हार के बाद भविष्य की रणनीति तैयार करने को लेकर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में पार्टी की बैठक हुई थी. वहां जैसे ही कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखनी शुरू की वैसे ही नेताओं ने कार्यकर्ताओं को बोलने से रोक दिया. कहा, आप लोग अपनी बात लिख कर के दीजिए. वे कहते हैं, ‘पार्टी नेता कार्यकर्ताओं के प्रश्नों से जूझना नहीं चाहते थे. वो चाहते थे कि आप अपनी बात लिखकर के दीजिए ताकि नेता उसे कूड़े के ढ़ेर में फेंक सकें. ये लोग हर तरह के सवालों से बचना चाहते हैं.’ पार्टी के एक पूर्व कार्यकर्ता कहते हैं, पार्टी जानती है कार्यकर्ताओं में कितना रोष है. यही कारण है कि पार्टी नेशनल काउंसिल की मीटिंग नहीं बुलाती. पार्टी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वो मीडिया को देखकर अपनी रणनीति बनाती है.’

पार्टी से कार्यकर्ताओं की नाराजगी का प्रमाण पार्टी के कार्यालयों पर भी देखने को मिलता है. कौशांबी में आम आदमी पार्टी का जो कार्यालय कभी कार्यकर्ताओं से गुलजार रहता था आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है. गिने-चुने कार्यकर्ता ही दिखाई देते हैं. कनॉट प्लेस के पार्टी कार्यालय का भी वही हाल है. कुछ समय पहले तक यह जगह पार्टी कार्यकर्ताओं और पार्टी से जुड़ने को आतुर या समर्थकों से भरी रहती थी. राजन कहते हैं, ‘मुझे ऑफिस गए दो महीने से ज्यादा समय हो गया. अब वहां जाने का भी मन नहीं करता. ‘ चंद्रभान पिछले पांच महीने से पार्टी ऑफिस नहीं गए हैं.

पार्टी सूत्र बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के परिणाम आने बाद नए लोगों का पार्टी से जुड़ना लगभग बंद हो गया है. कोई भी नया कार्यकर्ता पिछले कुछ समय में पार्टी से नहीं जुड़ा है. पार्टी के लोग ये बताते हैं कि पहले जहां पार्टी की हेल्पलाइन की घंटियां लगातार बजती रहती थीं वहां अब सन्नाटा छाया हुआ है. असर चंदे पर भी पड़ा है. सामान्य परिस्थितियों में प्रतिदिन 30 लाख के करीब चंदा आता था जो अब हजारों में सिमट आया है. साल भर पहले से दिल्ली के विभिन्न इलाकों के लिए पार्टी के संपर्क नंबर या तो बंद पडे हैं या फोन की घंटी बजती रहती है कोई उठाता नहीं है. नरेंद्र कहते हैं, ‘सरकार छोड़ने के बाद लोगों के फोन आने बंद हो गए. अब शायद ही कोई सहायता के लिए फोन करता हो. ‘

चंद्रभान कहते हैं, ‘आरके पुरम विधानसभा के लिए जो पार्टी का मोबाइल नंबर था. उसका पार्टी ने चार महीने तक बिल भरने के बाद छोड़ दिया. नंबर बंद हो गया. ये वो नंबर था जिस पर यहां कि जनता हमसे संपर्क करती थी. मैंने उसका कुछ समय तक बिल भरकर चलाया. अधिकांश नंबरों का यही हाल है. उनका बिल नहीं भरा गया इसीलिए वो बंद पडे हैं. जो कार्यकर्ता अपने पैसे से बिल भर रहा है वो फोन चल रहे हैं.’ पिछले कुछ समय में आए अन्य बदलावों की चर्चा करते हुए चंद्रभान कहते हैं, ‘पहले अगर किसी कार्यकर्ता को कोई दिक्कत होती थी. उसका एक मैसेज आ जाता था तो पूरी पार्टी वहां पहुंच जाती थी. कोई आम आदमी भी अगर हेल्पलाइन पर फोन करके शिकायत करता था तो सारे लोग थाने पहुंच जाते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब न कोई फोन करता है और न कोई सहायता के लिए कहीं जाता है. लोग भी अब सपोर्ट नहीं करते. जिसने आपको वोट नहीं दिया है वो मजे तो ले ही रहा है और जिन्होंने वोट दिया है वो अलग कोस रहे हैं. इस तरह से सभी का मनोबल टूट रहा है.

पार्टी छोड़कर जा रहे कई कार्यकर्ताओं के पीछे मोदी फैक्टर भी है. प्रिंस कहते हैं, ‘कई साथी मोदी से काफी प्रभावित हैं. उनका मानना है कि मोदी जी को एक मौका देना चाहिए. ये तबका सरकार बनने से पहले मोदी का समर्थक तो था लेकिन पार्टी में बना हुआ था. अब लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत और आप की हार के बाद ये लोग पार्टी छोड़कर चले गए.’

हालांकि अब कार्यकर्ताओं का कहना है कि पार्टी अब फिर से वॉलंटियर्स को लेकर संवेदनशील दिखाई दे रही है. हाल ही में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अरविंद ने उनसे माफी मांगते हुए कहा कि हो सकता है पार्टी ने पिछले कुछ निर्णयों में कार्यकर्ताओं की राय नहीं ली. इससे उनमें नाराजगी है. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. प्रिंस कहते हैं, ‘अरविंद ने कहा कि हमने जल्दी-जल्दी कई निर्णय लिए इस वजह से वॉलेंटियर्स की राय नहीं ली जा सकी.’

चंद्रभान कहते हैं, ‘अब फिर से पार्टी ने शुन्य से शुरूआत की है. फिर से कार्यक्रताओं को जिम्मेदारी दी जा रही है, उन्हें मनाया जा रहा है.’ पार्टी की जुझारू कार्यकर्ता रही दिवंगत संतोष कोली के भाई और सीमापुरी से विधायक धर्मेंद्र कोली कहते हैं, ‘आज ये नहीं कहा जा सकता कि कौन वॉलिंटियर पार्टी के साथ है, कौन नहीं. पहले कार्यकर्ताओं को लोगों के बीच जाने पर सच में दिक्कत होती थी लेकिन अरविंद के माफी मांगने के बाद बहुत फर्क पड़ा है.’

लेकिन क्या इस दौर में अरविंद में भी कोई बड़ा बदलाव कार्यकर्ताओं ने महसूस किया है? इस सवाल के जवाब में  प्रिंस कहते हैं, ‘कुछ खास नहीं लेकिन हां अब वो पहले से ज्यादा व्यस्त हो गए हैं और अब वो लोकपाल, भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों पर बात करने की जगह पार्टी और संगठन की चर्चा करते हैं.’