यह घटना वर्ष 1974 की है. उस समय देश की सरकार ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु बम का परीक्षण किया था. उस वक्त टोंक जिले के ‘माता का भुरटिया’ नाम के हमारे गांव में अफवाह फैली कि आज हमारे देश में बम गिरने वाला है. अब गांव के उन नासमझों और अशिक्षितों को कौन समझाता कि हमारे देश की सरकार परमाणु बम का परीक्षण कर रही है. हम भी उस वक्त बच्चे ही थे. गांव के उन भोले-भाले लोगों ने न जाने कहां से यह अफवाह सुन ली कि आज कोई दूसरा देश परमाणु बम गिराने वाला है. उस दिन गांव में ऐसी दहशत फैली कि लोग दोपहर से पहले ही खेतों का काम निपटाकर घरों की ओर दौड़ने लगे. गांव के बड़े-बूढ़े कहने लगे कि आज कोई बाजार-वाजार नहीं जाएगा क्योंकि सभी बाजार घर से तीन से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर पड़ते थे.
गांव पर बम गिराए जाने की खबर पर सबको इतना पक्का यकीन था कि मौत आंखों के आगे दिखाई दे रही थी. तय हुआ कि सब अपने घर में रहें. अच्छे-अच्छे पकवान बनाएं और प्रेम से खाएं, आखिरी वक्त में एक साथ रहें या यूं कहें कि साथ-साथ मरें. संयोग से उस दिन जबरदस्त आंधी व बरसात भी शुरू हो गई, जिससे दहशत और भी ज्यादा गहरा गई. सबने इसे विनाश के लिए दिया गया प्रकृति का संकेत माना. उस रोज सब लोग अपने-अपने परिवार के साथ घरों में दुबके हुए थे. गांव की गलियां वीरान थीं.
मुझे याद है ठीक इसी तरह देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में जब इमरजेंसी लगाई थी तब भी ऐसा ही नजारा और दहशत लोगों पर हावी था, क्योंकि उस वक्त घर के मर्दों को जबरदस्ती पकड़कर नसबंदी कराई जा रही थी. उस वक्त इतनी दहशत थी कि एक किलोमीटर दूर से पुलिस की जीप देखते ही घर के मर्द खेतों में जाकर छिप जाते थे. खेतों की सिंचाई की नहरों में उल्टे लेट जाते थे. हम बच्चे भी पड़ोस की चाची-ताई के साथ चारे की कुट्टी (एक त्रिशंकु आकार का चारा भरने का स्थान जिसकों राजस्थानी में ‘कंसारी’ कहते हैं) में बंद हो जाते थे. फिर शाम को ही सब लोग छिपते-छिपाते अपने घरों की ओर लौटते. ये सिलसिला कई दिनों तक चला, लोगों का जीना मुहाल हो गया था. बाद में लोगों ने अपना ये गुस्सा आम चुनावों में उतारा और इंदिरा जी चुनाव हार गईं.
खैर, मूल घटना पर लौटते हैं, जब पूरी रात भय और दहशत के साये में गुजरी. सवेरा हुआ तो लोग अनमने ढंग से उठे. जान चले जाने की रात भर की दहशत और अब जिंदा होने की पुष्टि. लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा था कि वे जिंदा हैं. न तो वे खुश हो पा रहे थे और न ही दुखी. फिर जब रेडियो के समाचारों से पता लगा कि हमारे देश में परमाणु बम बनाकर उसका परीक्षण किया गया है तब लोगों की जान में जान आई. हालांकि मानसिक रूप से उस रात हम सब मौत के डर के साये में थे और वो रात आज भी भुलाए नहीं भूलती.
दुखद है कि संवाद की नित नई तकनीक विकसित होने के बावजूद लोगों में विवेक और जागरूकता का विकास नहीं हो पा रहा है
यह तो सिर्फ हमारे गांव की घटना थी लेकिन मुझे याद है एक बार ऐसी ही झूठी अफवाह के चलते देश के अधिकांश शहरों में लोग पत्थर के गणेश को दूध पिलाने के लिए मंदिरों पर टूट पड़े थे. अब इसे श्रद्धा कहें या अंधविश्वास मगर सब लोगों का यही मानना था कि गणेश की मूर्तियां सचमुच दूध पी रही हैं. इन घटनाओं को कितने दशक बीत गए हैं. वैज्ञानिक प्रगति में तब से अब तक हमारे देश ने नित नए सोपान गढ़े. हम चांद और मंगल तक की दूरी नाप आए लेकिन अंधविश्वासों और अफवाहों से हमारा देश अब तक पीछा नहीं छुड़ा पाया है. अभी जुलाई में ही उत्तर प्रदेश के कई गांवों में सिल-बट्टे के खुद-ब-खुद छेदे जाने की अफवाह ने जोर पकड़ा था. अफवाहें जान-बूझकर फैलाई जाती हैं और इसका परिणाम काफी घातक होता है. दुखद है कि संवाद की नित नई तकनीक विकसित होने के बावजूद लोगों में वैज्ञानिक चेतना, विवेक और जागरूकता का विकास नहीं हो पा रहा. कई बार इन घटनाओं को याद कर जेहन में बार-बार सवाल उठता है कि क्या वाकई हम तरक्की कर रहे हैं या फिर देश में अब भी 40 साल पहले जैसे हालात जस के तस बने हुए हैं.
(लेखक राजस्थान के निवासी हैं)