शिक्षा बचाने का संघर्ष

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विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने का निर्णय लेने के बाद देश के कई विश्वविद्यालयों में शुरू हुआ आंदोलन खत्म होने की जगह बढ़ता जा रहा है. हालांकि, बाद में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने फेलोशिप खत्म न करने की बात कही, लेकिन छात्र-छात्राओं ने फेलोशिप के तहत मिलने वाली राशि बढ़ाने अाैर शिक्षा का निजीकरण न करने की मांग काे लेकर आंदोलन जारी रखा है. सैकड़ों की संख्या में छात्र-छात्राएं दिल्ली स्थित यूजीसी मुख्यालय के सामने ‘ऑक्यूपाई यूजीसी’ अभियान चलाते हुए धरना दे रहे हैं. बीते 27 अक्टूबर को यूजीसी के सामने प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया जिसमें  कई छात्र-छात्राओं को गंभीर चोटें आईं.

सात अक्टूबर को यूजीसी ने एक बैठक में नौ वर्षों से चल रही नॉन नेट फेलोशिप योजना खत्म करने का निर्णय लिया था. इस योजना के तहत वर्तमान में एमफिल की पढ़ाई कर रहे छात्रों को 18 महीने तक प्रतिमाह 5,000 रुपए जबकि पीएचडी की पढ़ाई कर रहे छात्रों को चार साल तक प्रतिमाह 8,000 रुपए की वित्तीय मदद दी जाती है. यह फेलोशिप देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शोध करने वाले उन छात्र-छात्राओं को दी जाती है, जिन्होंने नेशनल एलिजबिलिटी टेस्ट (नेट) पास नहीं किया है या जिन्हें जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) नहीं मिलती है.  इस  फेलोशिप को बंद करने के पीछे यूजीसी का तर्क था कि इसमें पारदर्शिता की कमी के कारण इसका दुरुपयोग किया जा रहा है. यूजीसी ने कहा था कि यह फेलोशिप कार्यक्रम भेदभावपूर्ण है और विश्वविद्यालयों में चयन प्रक्रिया में समरूपता की कमी है. साथ ही धन की कमी के कारण भी यूजीसी यह फेलोशिप देने में असमर्थ है. इस फैसले के बाद दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद समेत कई शहरों व विश्वविद्यालय परिसरों में प्रदर्शन शुरू हो गए.

विरोध-प्रदर्शनों को देखते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 25 अक्टूबर को एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि सरकार ने यूजीसी द्वारा प्रदान की जाने वाली नेट और नॉन नेट रिसर्च फेलोशिप के मामलों की जांच के लिए एक समीक्षा समिति गठित करने का फैसला किया है. समीक्षा समिति, दिसंबर 2015 तक मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. तब तक यूजीसी का निर्णय स्थगित है, सभी मौजूदा फेलोशिप जारी रहेंगी. यूजीसी साल में दो बार अखिल भारतीय राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा (नेशनल एलिजबिलिटी टेस्ट) आयोजित करता है, जिसके तहत फेलोशिप प्रदान की जाती है. यूजीसी ने 2006 में नॉन नेट फेलोशिप योजना शुरू की थी. इसके तहत ऐसे छात्रों को भी फेलोशिप दी जाती है जिन्हें नेट के तहत जूनियर रिसर्च फेलोशिप नहीं मिलती. मौजूदा वक्त में यह फेलोशिप केवल 50 संस्थानों के लिए सीमित है. वर्तमान में करीब 35,000 छात्र इन फेलोशिप का उपयोग कर रहे हैं.

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छात्रों की मांग

  • यूजीसी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को स्पष्ट तौर पर नोटिफिकेशन जारी करना चाहिए कि 7 अक्टूबर को जारी यूजीसी का निर्णय मान्य नहीं होगा
  • इस तरह के किसी भी प्रावधान को वापस लिया जाना चाहिए जो मेरिट या आर्थिक आधार पर लाभार्थी छात्रों को लाभ से वंचित करता हो
  • फेलोशिप की मौजूदा राशि 5,000/8,000  रुपये से बढ़ाकर जेआरएफ फेलोशिप के अनुपात में 8,000/12,000 रुपये की जाए. साथ ही भविष्य को ध्यान में रखते हुए फेलोशिप को महंगाई सूचकांक के साथ भी जोड़ा जाए
  • फेलोशिप केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ राज्य विश्वविद्यालयों में भी बिना किसी भेदभाव के लागू की जाए
  • शिक्षा के बाजारीकरण के सभी प्रयास बंद किए जाएं

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मंत्रालय ने दिसंबर 2014 से नेट आधारित रिसर्च फेलोशिप के लिए सहायता राशि बढ़ा दी थी. जूनियर रिसर्च फेलो को पहले दो वर्ष के लिए 25,000 रुपये प्रतिमाह और हर वर्ष 30 प्रतिशत मकान किराया (एचआरए) और आकस्मिक अनुदान तथा सीनियर रिसर्च फेलो को अगले तीन वर्षों के लिए प्रतिवर्ष 28,000 रुपये प्रतिमाह, 30 प्रतिशत एचआरए और आकस्मिक अनुदान मिलता है.

हालांकि, मंत्रालय के समिति गठित करने की घोषणा के बाद भी छात्रों ने अपना आंदोलन वापस नहीं लिया है. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने बताया, ‘ऑक्यूपाई यूजीसी आंदोलन जारी रहेगा. मंत्रालय की ओर से हमें जो पत्र मिला है, उसमें कहा गया है कि इस बारे में कमेटी गठित की गई है, वह नॉन नेट फेलोशिप की समीक्षा करेगी. उसकी सिफारिश के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा. समीक्षा समिति बने, इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन कमेटी इसलिए बननी चाहिए कि छात्रों को शोध कार्य के लिए और क्या बेहतर सुविधाएं दी जा सकती हैं. कमेटी आर्थिक हालत और मेरिट के आधार पर समीक्षा करने जा रही है, जिससे हम सहमत नहीं हैं. फेलोशिप की समीक्षा के लिए आर्थिक और मेरिट का आधार हटाया जाए और इसके तहत राज्य विश्वविद्यालयों को भी शामिल किया जाए.’

आंदोलन से सिर्फ फेलोशिप का मसला नहीं जुड़ा है. केंद्र सरकार पिछले बजट में उच्च शिक्षा के आवंटित बजट में 25 प्रतिशत की कटौती कर दी थी. दिसंबर में विश्व व्यापार संगठन के जनरल एग्रीमेंट्स ऑन ट्रेड सर्विस की वार्ता में सरकार उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की तैयारी कर रही है. 2005 में मनमोहन सिंह ने उच्च शिक्षा को इसके तहत लाने का प्रस्ताव रखा था. इस साल के अंत में इस समझौते पर अंतिम वार्ता होनी है. अगर सरकार उच्च शिक्षा को वैश्विक निजी क्षेत्र के लिए खोल देती है तो शिक्षा एक उत्पाद होगी और छात्रों को अंतर्राष्ट्रीय कीमत पर शिक्षा खरीदनी होगी. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों ने शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने से इंकार कर दिया है. छात्र-छात्राएं और अध्यापकों का तर्क है कि सरकार से इस कदम से शिक्षा की गुणवत्ता तो प्रभावित होगी ही, साथ ही देश का बहुसंख्यक तबका जो आर्थिक रूप से कमजोर है, उच्च शिक्षा से वंचित हो जाएगा.

शिक्षा को विश्व व्यापार के लिए खोलने के विरोध में अध्यापकों के संगठन भी छात्रों के साथ हैं. प्रदर्शन में शामिल सभी छात्रों की ओर से एक राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की तैयारी है जो इस मसले पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाएगा. 29 अक्टूबर को आईसा की ओर से जारी बयान में कहा गया, ‘हमारा आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक हमारी सभी मांगें पूरी नहीं हो जातीं. हमें मालूम है कि नॉन नेट फेलोशिप बंद करने का निर्णय दिसंबर में विश्व व्यापार संगठन के साथ होने वाली वार्ता के मद्देनजर लिया गया है. हम शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन के हवाले करने की इजाजत नहीं देंगे.’

जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष का कहना है, ‘हम नॉन नेट फेलोशिप के अलावा शिक्षा को बाजार और पूंजी के हवाले करने के भी विरोध में हैं. इससे शिक्षा गरीब जनता की पहुंच से बाहर हो जाएगी. दरअसल हम शिक्षा को बचाने के लिए लड़ रहे हैं.’ इस विरोध प्रदर्शन में एआईएसएफ, एसएफआई, आईसा, एनएसयूआई शामिल हैं. इसके अलावा ऐसे छात्र भी शामिल हैं जो किसी संगठन में नहीं हैं. फिलहाल, इलाहाबाद, पुडुचेरी, वर्धा, हैदराबाद और अलीगढ़ से विरोध-प्रदर्शन की खबरें हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की ओर से जारी बयान में कहा गया है, ‘हम यूजीसी के उस फरमान के खिलाफ हैं जिसमें कहा गया है कि उन छात्र-छात्राओं को अब शोधवृत्ति नहीं दी जाएगी जो नेट की परीक्षा पास नहीं होंगे.’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष ऋचा सिंह ने 28 अक्टूबर को एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिसमें एसएफआई, आईसा, एआईडीएसओ और फ्रेंड्स यूनियन के छात्र-कार्यकर्ता शमिल रहे. छात्राें ने मांग की है कि यूजीसी अपना निर्णय वापस लेने की घोषणा करे और उसे अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित करने के साथ शोध छात्रों का मानसिक उत्पीड़न बंद करे. भारत के राष्ट्रपति और मानव संसाधन विकास मंत्री को संबोधित अलग-अलग ज्ञापनों में छात्रों ने अपनी मांगें और शिकायतें दर्ज कराईं. इस मसले पर इलाहाबाद में हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है. यहां पर एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने भी यूजीसी के चेयरमैन का पुतला फूंका. हालांकि, एबीवीपी ने छात्र आंदोलन से खुद को अलग रखा है.  इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की अध्यक्ष ऋचा सिंह ने कहा, ‘नॉन-नेट शोध छात्रों की फेलोशिप हटाना अदूरदर्शी और अलोकतांत्रिक है.’

गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र रमाशंकर ने बताया कि ‘केन्या की राजधानी नैरोबी में होने वाली विश्व व्यापार संगठन की आगामी बैठक में किए जाने वाले समझौते छात्रों को ग्राहक में बदल देंगे. फीस महंगी हो जाएगी और उच्च शिक्षा गरीबों के लिए सपना हो जाएगी. केंद्र सरकार को शिक्षा के बजट को बढ़ाकर शोध और विकास की उस परियोजना को आगे बढ़ाना चाहिए जो भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान इसके निर्माताओं ने सोची थी. आज के दौर में प्रजातंत्र और आधुनिकता के मूल्य उच्च शिक्षा के बिना आगे नहीं जा सकते. दुर्भाग्य से केंद्र सरकार ने अपनी रुचियों का क्षेत्र बदल दिया है.’

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इलाहाबाद छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव लड़ चुके एसएफआई के प्रदेश उपाध्यक्ष विकास स्वरूप का मानना है, ‘समान कार्य के लिए समान फेलोशिप की संरचना जरूरी है, न कि इस प्रकार की विभेदकारी व्यवस्था.’ शोधछात्र अंकित पाठक मानते हैं, ‘नॉन नेट छात्र विश्वविद्यालय में शोध कार्यक्रम में प्रवेश लेते हैं, अपने पांच साल के शोध के दौरान नेट हो जाते हैं, कुछ को जूनियर रिसर्च फेलोशिप मिल जाती है. यह फरमान इन संभावनाओं को खत्म कर देगा.’

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मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से गठित समिति इन मुद्दों पर करेगी विचार

  • योग्यता के आधार पर नेट फेलोशिप की संख्या बढ़ाने की व्यावहारिक समीक्षा
  • नॉन नेट शोधकर्ताओं को हर माह फेलोशिप की राशि का हस्तांतरण करने के लिए पारदर्शी पद्धति स्थापित करना. वर्तमान में यह प्रतिपूर्ति के आधार पर और सरकार के प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण आदेश के बिना की जा रही है
  • नॉन नेट फेलोशिप योजना के लाभों और अवसरों को राज्य विश्वविद्यालयों सहित बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों तक पहुंचाना
  • नॉन नेट फेलोशिप के लिए आर्थिक और अन्य मापदंड पर विचार करना. नॉन नेट फेलोशिप के चयन, प्रदान करने और प्रशासन के बारे में दिशानिर्देश की सिफारिश करना

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आंदोलन में शामिल जेएनयू के शोधछात्र ताराशंकर ने कहा, ‘हम मांग कर रहे थे कि महंगाई और बढ़ते खर्चों को देखते हुए नॉननेट फेलोशिप की राशि बढ़ाई जाए तो यूजीसी ने कहा कि अगले साल से फेलोशिप ही बंद कर दी जाएगी! इसका विरोध किया गया तो सरकार ने कहा कि ठीक है फेलोशिप बंद नहीं होगी! कुल मिलाकर बात तो वहीं पहुंची जहां से शुरू हुई थी! दबाव में आकर स्मृति ईरानी ने कहा कि मांग के मुताबिक नॉन नेट फेलोशिप सभी विश्वविद्यालयों में लागू रहेगी, लेकिन ये भी कहा कि एक रिव्यू कमेटी बनेगी, वो समीक्षा करेगी और उसके अनुसार निर्णय लिया जाएगा… यानी अगर कल को रिव्यू कमेटी कह दे कि बिना नेट परीक्षा पास किए किसी को फेलोशिप नहीं दी जाएगी या मेरिट वाला कोई क्राइटेरिया रखकर अधिकांश छात्रों को इस दायरे से बाहर कर दिया जाए तो यूजीसी उसे मान लेगी!’

बहरहाल,  ‘ऑक्यूपाई  यूजीसी’ अभियान का दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ, जामिया शिक्षक संघ ने समर्थन किया है. दक्षिण अफ्रीका की शिक्षा नीति को लेकर वहां के छात्र भी आंदोलनरत हैं. उस आंदोलन से जुड़े छात्रों ने भी इस अभियान के समर्थन में पत्र भेजा है.

देशबंधु कॉलेज के प्रोफेसर संजीव ने कहा, ‘नॉन नेट फेलोशिप और शिक्षा के बाजारीकरण के मुद्दे आपस में जुड़े हैं. शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने के बाद आप जितनी सुविधाएं, फंडिंग आदि अपने विश्वविद्यालयों को देते हैं, उतना ही विदेशी संस्थाओं को भी देना होगा. ऐसा न करना डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन होगा. दूसरे, शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोल देने पर आम जनता के लिए शिक्षा की उपलब्धता कम हो जाएगी, जो कि पहले से ही कम है. इसके बाद के हालात और भी भयावह हो जाएंगे.’

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. आशुतोष कुमार ने आगाह किया कि ‘विश्व व्यापार संगठन से समझौते का मतलब है कि शिक्षा प्रणाली को विश्व व्यापार के लिए खोलना, जिसकी शर्तें बाजार तय करेगा. फेलोशिप कम करना, शिक्षा बजट घटाना उसी प्रक्रिया का हिस्सा है. सरकार का अगला कदम होगा कि आईआईटी और अन्य बड़े संस्थानों की आर्थिक सहायता कम की जाएगी और उन्हें निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया जाएगा. बाहर से जितना कॉन्ट्रीब्यूशन ​होगा, सरकार उसी हिसाब से फंड करेगी. निजी क्षेत्र शिक्षा के लिए फंड करेगा तो वह अपनी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाएगा, सरकार भी उन्हीं विषयों को तवज्जो देगी. ज्ञान के बुनियादी इलाके में मार्केट की कोई दिलचस्पी नहीं है. इसका परिणाम यह होगा कि बाजार की मांग पर रिसर्च भी होंगे और जितने भी बेसिक रिसर्च हैं, वे सब के सब बंद हो जाएंगे.’

डीयू के एक कॉलेज की शिक्षक डॉ. सुनीता का कहना है, ‘यूजीसी व सरकार को यह नॉन नेट फेलोशिप बंद नहीं करनी चाहिए. अगर उसे लगता है कि इसमें पारदर्शिता की कमी है तो उसके उपाय करने चाहिए. क्योंकि अगर कोई साधारण पृष्ठभूमि का छात्र संघर्ष करके शोध करने तक पहुंचता है तो यह फेलोशिप उसे बहुत मदद करती है. ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन की अपेक्षा शोध महंगा है. फेलोशिप मिलने से छात्रों को मुक्त होकर शोध करने का अवसर मिलता है.’ आईसा की अध्यक्ष सुचेता डे ने बताया, ‘हमारा संघर्ष देश के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए है. इस मुद्दे पर जनता की राय ली जानी चाहिए. यह आंदोलन उनके लिए है जो हमारी आवाज को दरकिनार कर रहे हैं.’

डीयू के प्रो. अपूर्वानंद का कहना है, ‘दुनिया भर के देश जब अपने को मापते हैं तो यह देखते हैं कि उनके यहां कितना शोधकार्य हो रहा है. उस हिसाब से वे अपनी शैक्षिक नीतियां तय करते हैं. चीन अपने यहां उच्च शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहा है. अमेरिका इसलिए सुपर पावर नहीं है कि वह हथियार बेचता है. दुनियाभर के स्कॉलर वहां पर शोध करना चाहते हैं. उसने बड़ी संख्या में नोबेल विजेता पैदा किए हैं. आप गुणवत्ता के तर्क के आधार पर अगर परिमाण घटा देंगे तो गुणवत्ता और कम हो जाएगी. परिमाण बढ़ेगा तो गुणवत्ता अपने आप बढ़ेगी. केंद्र सरकार ने विज्ञान प्रयोगशालाओं से भी कहा है कि वे अपने लिए पैसा खुद जुटाएं. इसी क्रम में नॉन नेट फेलाशिप भी हटा दी. यह कदम पूरी तरह ज्ञान विरोधी है. पिछले कुछ समय से जिस नॉलेज इकोनॉमी की बात चल रही थी, इस सरकार ने उसे बदल दिया. नई सरकार ने अपनी नीतियों से नॉलेज (ज्ञान) शब्द ही हटा दिया है.’