दीवाली का दूसरा दिन था. मैं शाम को नोएडा की तरफ निकल गई. रात के 9 बजते-बजते मेरे पास घर से एक के बाद एक कई फोन आने लगे. पता चला, मेरा घर जो कि त्रिलोकपुरी में है, वहां पथराव हो रहा है. घरवालों ने कहा अभी कहीं बाहर ही रहो, जब मामला शांत होगा, हम बुला लेंगे. उस रात तकरीबन दो-ढाई बजे मैं घर पहुंची. इलाके में काफी पुलिस तैनात थी, लेकिन माहौल शांत हो चुका था.
अगले दिन भाईदूज था. छुट्टी का एक आैैर दिन. रात को देर से लौटने की वजह से घर में मेरी किसी से पिछली रात के पथराव और लड़ाई के बारे में बात नहीं हुई थी. मैं आधी नींद में ही थी कि अचानक गली से हल्का शोर आने लगा. मेरा 23 साल का छोटा भाई शोर सुनते ही मामला जानने के लिए बाहर की तरफ निकल गया. शोर थोड़ा और बढ़ा तो मैं और मेरे घर की बाकी महिलाएं खिड़की तक पहुंचकर बाहर देखने लगीं.
गली से सड़क का एक हिस्सा दिख रहा था जहां लोग चिल्लाते हुए भागते-दौड़ते दिख रहे थे. मैं समझ गई जरूर आसपास कहीं लड़ाई हुई है. लेकिन फिर मिनटों में लोग गली से गुजरकर भाग रहे थे. गली में रहनेवाले लोग फटाफट अपने दरवाजे और खिड़कियां बंद करने लगे. भागते दौड़ते लोगों से टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारियां मिल रही थी, ‘ ब्लॉक-27 की दुकानों में आग लगा दी है… पथराव हो रहा है…आंसू गैसे के गोले छोड़े जा रहे हैं… गोलियां चल रही हैं…’
मेरे घर में उस वक्त कोई पुरुष सदस्य मौजूद नहीं था. बड़े भाई सुबह ऑफिस निकल चुके थे. छोटा भाई जो मामला जानने निकला था, वह फोन रिसीव नहीं कर रहा था. इस इलाके में आठ-नौ साल रहते हुए मुझे दिन के वक्त ऐसा डरावना अहसास पहली बार हुआ. जिन ब्लॉकों की बात हो रही थी वे हमारे बिल्कुल बगल में थे और गलियों के रास्ते इंटर-कनेक्टिड भी. अक्सर उन ब्लॉकों में कुछ लड़कों के आपसी झगड़ों को हल्की-फुल्की पत्थरबाजी में बदलते मैंने कई बार देखा था लेकिन यह कुछ अलग था.
कुछ ही मिनटों में अफवाहें तेजी से फैलने लगीं. मेरे ही ब्लॉक के दूसरी गली में रहनेवाली मेरी बहन ने तो यह तक सुन लिया कि लोग तलवारें लेकर आ रहे हैं… दो छोटे बच्चों की मां के लिए वह पल कितना खौफनाक होगा इसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं. यहां मेरे घर पर अलग डर और आशंकाओं का माहौल था. मेरे छोटे भाई का फोन नॉट रीचेबल आने लगा था और बाहर से शोर बढ़ने लगा था.
11-11:30 बजते बजते दो-तीन ब्लॉकों की लड़ाई को हिंदु-मुसलमानों की लड़ाई का नाम दे दिया गया था. मेरे ब्लॉक में हिंदु-मुसलमानों का अनुपात 85:15 ही है. मेरी अपनी गली में हम तीन से चार मुस्लिम परिवार रहते हैं. मेरा परिवार अब दूसरी वजहों से खौफ में आने लगा था. सबसे ज्यादा खराब हालत शायद मेरी ही थी. अपनी 25 साल की ज़िंदगी में पहला मौका था जब मैंने हिंदु-मुस्लिम दंगों के बीच खुद को पाया था. यह मेरी अच्छी किस्मत ही है कि मैंने अब तक ऐसा कुछ अपने आसपास नहीं देखा था. एक मुस्लिम परिवार में रहते हुए भी अपने आपको इस तरह से कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया था.
सड़क का जो हिस्सा हमारी बालकनी से दिखता था, उस पर अब भागती-दौड़ती पुलिस दिख रही थी. हवा में फायरिंग की कुछ आवाजें हम तक आने लगी थीं. पुलिस गली में आकर लोगों को घर में रहने की हिदायत दे रही थी. इस इलाके में सारे घर एकदूसरे से सटे हुए हैं और गली संकरी है. इसलिए बाहर तेज आवाज में कोई बात करे तो घरों में आवाजें पहुंच जाती हैं. ऐसे ही गली से भागते हुए कुछ लोगों से सुना कि कुछ लोगों को गोलियां लगी हैं.
इतना सुनना था कि घबराहट की वजह से मेरी हालत खराब होने लगी. मेरा छोटा भाई अब-तक घर नहीं आया था. सब बहुत डरे हुए थे. पिता के दुनिया में, और बड़े भाई के घर पर न होने के बाद ऐसे मौकों पर एक वही हम सबका सहारा बनता है. मैं रो रही थी, चिल्ला रही थी और बस ये कह रही थी कि भाई को बुला दो. इसी वक्त मैंने अपने एक दोस्त को फोन करके आधी-अधूरी जानकारी देते हुए बोलना शुरू कर दिया कि यहां बहुत गड़बड़ हो गई है. कभी भी कुछ भी हो सकता है. यहां आग लगाई जा रही है, गोलियां चल रही हैं. बिना ज्यादा जानकारी दिये बस मैं ये कह रही थी, ‘मुझे बचा लो, प्लीज !’
डर का कारण जो हो रहा था, सिर्फ वही नहीं था. मैं यह सोच-सोचकर ज्यादा घबरा रही थी कि और क्या-क्या हो सकता है. मैंने बचपन से लेकर अब तक अपने घर में मम्मी-पापा को 1984 के सिख-विरोधी दंगों के बारे में बात करते सुना है. उन दिनों जब मैं पैदा भी नहीं हुई थी, इस इलाके में जो घटा वह बहुत खौफनाक और अमानवीय था. इसके अलावा अलग-अलग प्रदेशों में हुए दंगों पर पढ़े लेख, उनसे जुड़ी तस्वीरें, दंगों पर देखी तमाम फिल्में, अब तक सब मेरे दिमाग में घूमने लगा था.
करीब दो घंटे बीत जाने के बाद मेरा छोटा भाई घर लौट आया. वह पास रहनेवाले अपने एक दोस्त के घर पर फंसा था. ‘जो हो सकता था’ उसके डर से मैं अपने पूरे परिवार से घर छोड़कर कहीं और चलने की जिद करने लगी. लेकिन घर के बाकी लोगों को अपने मोहल्ले और पड़ोसियों पर इतना ऐतबार था कि उन्हें लगा इसकी जरूरत नहीं. हालांकि, डर से सबके चेहरे सफेद-पीले से होने लगे थे. दोपहर होते-होते इलाके में भारी पुलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स ने इलाके को घेर लिया. मैं अभी भी किसी सुरक्षित जगह जाने की जिद पर अड़ी थी.
‘दोपहर होते-होते पुलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स ने इलाके को घेर लिया. मैं अभी भी किसी सुरक्षित जगह जाने की जिद पर अड़ी थी’
जैसे-जैसे शाम हो रही थी, मेरी घबराहट बराबर बढ़ रही थी. जब दिन के उजाले में इतना सब हो गया हो, तब रात का क्या भरोसा? मेरे घरवालों ने मेरी हालत देखकर मुझे कुछ दिनों के लिए कहीं और भेज दिया. अगले दिन मीडिया में ये झड़पें ‘हिंदू-मुसलमानों का दंगा’ बनकर खबरों में छाई हुई थीं.
इस घटना को अब दो हफ्ते बीत चुके हैं. लेकिन रात को गली या पास की सड़क से आनेवाली छोटी से छोटी आहट मेरे परिवार के लोगों को चौंका देती है. मैं खुद यह सोचते हुए रात बिताती हूं, कि बस जल्दी से सुबह हो जाए. मेरा परिवार किसी और जगह शिफ्ट होने की कोशिश कर रहा है. काश कि यह मोहल्लों की लड़ाई मोहल्लों तक ही रह जाती हमेशा की तरह, जाने वह कौन-सी साजिशें थीं कि इस इलाके को दंगाग्रस्त इलाका बनाकर बदनाम कर गई!