आरटीआई को लेकर काम करनेवाले कार्यकर्ता चंद्रशेखर करगेती कहते हैं, ‘आरटीआई के तहत मांगी जानेवाली सूचनाओं को लेकर सरकारों का यह डर इसलिए इतना गहरा है क्योंकि इस अधिकार के जरिए भ्रष्टाचार के बहुत से ऐसे मामले हाल के समय में सामने आए हैं जिनमें मंत्रियों और अफसरों की मिलीभगत खुले तौर पर उजागर हुई है. यह भी एक बड़ी वजह है कि ऊंचे पद पर बैठे ब्यूरोक्रेट्स के खिलाफ जाने वाली सूचनाओं को आरटीआई के जवाब के रूप में देने से कई कर्मचारी कतराते हैं.’ जानकारों की मानें तो सूचना छिपाने के लिए अलग-अलग हथकंडों का प्रयोग करते हुए कई सरकारें अपने अधिकारियों को गुप्तरूप से ऐसे पैंतरे भी बताती हैं जिनसे या तो सूचना को सामने ही नहीं आने दिया जाता या फिर अनावश्यक विलंब लगा दिया जाता है. उत्तराखंड सचिवालय में कार्यरत एक अनुभाग अधिकारी बताते हैं, ‘हर मामले में तो नहीं लेकिन कुछ मामलों में आरटीआई आवेदनों को लेकर उच्च अधिकारियों का लोक सूचना अधिकारियों को निर्देशित करना कोई बड़ी बात नहीं है.’ करगेती कहते हैं, ‘आवेदनों को तमाम विभागों को अंतरित कर देने या फिर बहुत अधिक पन्नों में बता कर आवेदक को हतोत्साहित करनेवाले ये तरीके भी इन्हीं गुप्त ट्रेनिंगों का परिलक्षण हैं.’
‘अधिकतर कर्मचारियों की आरटीआई एक्ट को लेकर जानकारी बेहद कम है. वे कई बार इतना तक नहीं जानते कि किसी फाइल का कौन सा पन्ना सूचना है और कौन सा नहीं’
सूचना की राह में बाधा के रूप में कुख्यात हो चुके इन तरीकों के अलावा और भी बहुत से तरीके हाल के समय में देखे गए हैं जिनके जरिए अधिकारी या तो सूचना देने से ही पल्ला झाड़ लेते हैं या फिर विलंब करके उसके औचित्य को कम करने का प्रयास करते हैं. सूचना के आवेदनों पर तरह-तरह के जवाब देना भी इन्हीं तरीकों में शामिल है. कई बार यह भी होता है कि सूचना होने के बावजूद अधिकारी ‘सूचना उपलब्ध नहीं है’ या फिर ‘सूचना अन्य विभाग से संबंधित प्रतीत होती है’ जैसे ऊल-जुलूल जवाब तक दे देते हैं.’ ऊल-जुलूल जवाबों वाले ऐसे मामलों की फेहरिस्त भी बहुत लंबी है. पिछले साल केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर उसके द्वारा की गई कार्रवाई का ब्यौरा मांगे जाने पर इसी तरह का हैरान करनेवाला जवाब दिया था. तहलका के आवेदन पर आयोग ने अपने जवाब में लिखा कि, ‘इस तरह की कार्रवाईयों को एक साथ संकलित किया जाना संभव नहीं है, क्योंकि इससे अनानुपातिक विचलन हो सकता है.’ इसी तरह उत्तराखंड के उड्ययन विभाग से जब आरटीआई के तहत राज्य के मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों द्वारा प्रदेश-भर में की गई हवाई यात्राओं का व्यौरा मांगा गया तो विभाग ने वह आवेदन सभी जिलों के जिलाधिकारियों को यह लिख कर अंतरित कर दिया कि, ‘यह सूचना आपके निकटतम प्रतीत होती है.’
एक दशक के इस सफर के दौरान सूचना की राह में अवरोधक के रूप में सबसे बड़ा रोड़ा विभागों के सूचना अधिकारियों तथा अपीलीय अधिकारियों को माना जाता है. लेकिन कई बार सूचना आयोगों पर भी अपील में आनेवाले मामलों पर टरकाऊ रवैय्या बरतने के आरोप लगे हैं. उत्तराखंड में इस तरह का एक मामला बेहद चर्चित भी रहा. नवंबर 2012 में आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर करगेती ने प्रदेश के राजस्व सचिव से प्रदेश की उस सिंचित भूमि की जानकारी मांगी जिसका इस्तेमाल लेंड यूज चेंज करके आवासीय उपयोग के लिए किया गया था. 2001 से 2012 तक के इस ब्यौरे में करगेती ने उन लोगों, संस्थाओं, न्यासों तथा कंपनियों की जानकारी भी मांगी जिन्हें सरकार नें यह भूमि पट्टे अथवा लीज पर दी थी. लेकिन राजस्व विभाग ने उनके आवेदन पर कोई सूचना नहीं दी. इसके बाद अपीलीय अधिकारी के कार्यालय में मामला पहुंचा तो उन्होंने इस आवेदन को राजस्व परिषद के साथ ही प्रदेश के सभी जिला अधिकारियों को अंतरित कर दिया. करगेती कहते हैं कि रायता फैलाने की शुरुआत यहीं से हुई. ‘राजस्व परिषद तथा जिलाधिकारियों के कार्यालयों से जो सूचना मुझे मिली, उसमें अधिकतर की जानकारी छुपा ली गई थी.’ वे कहते हैं, ‘वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक तथा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट बाड्रा समेत कई राजनीतिक शख्सियतों को उत्तराखंड सरकार ने इस दौरान जमीनंे आवंटित की थीं जिसकी जानकारी मुझे अपने स्तर से मालूम हुई थी.’ इसके बाद करगेती ने राज्य सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया जहां उनका मामला राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त एनएस नपल्च्याल के अधीन था. लेकिन इसके बाद भी उन्हें जमीनों के आवंटन संबंधी पूरी सूचना नहीं मिल सकी. करगेती का आरोप है कि उन्हें सूचना न दिए जाने की असली वजह प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त से ही जुड़ी थी. दरअसल मुख्य सूचना आयुक्त नपल्च्याल इससे पहले राज्य के मुख्य सचिव तथा राजस्व सचिव भी रह चुके थे. करगेती का कहना है कि जिन बड़े नामों को प्रदेश सरकार ने जमीनंे आवंटित की थीं उन जमीनों की अनुमति संबंधी अधिकांश आदेश नपल्च्याल के कार्यकाल के दौरान ही दिए गए. यही वजह थी कि उन्होंने इस मामले में लंबे समय तक तारीखें बढ़वाईं और चंद सूचनाएं दिलाने के साथ ही मई 2013 में यह अपील निस्तारित कर दी.
कई बार यह भी होता है कि सूचना होने के बावजूद अधिकारी ‘सूचना उपलब्ध नहीं है’ या फिर ‘सूचना अन्य विभाग से संबंधित प्रतीत होती है’ जैसे ऊल-जुलूल जवाब तक दे देते हैं’
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि सूचना का अधिकार पूरी तरह से अपने लक्ष्य से भटक चुका है. 2005 में लागू होने से अब तक के दशक भर लंबे इस सफर में इस अधिनियम ने बेशक कई मील के पत्थर भी गाड़े हैं. ग्राम पंचायत स्तर से लेकर केंद्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार के कई मामलों को उजागर करने और दोषियों को दंडित करने में इस अधिनियम ने बेहद अहम भूमिका भी अदा की है. इन दिनों मध्यप्रदेश की राजनीति में उफान लाने वाले व्यापम घोटाले को उजागर करने में भी आरटीआई एक्ट की महत्वपूर्ण भूमिका बताई जा रही है. लेकिन इस सबके बावजूद यह भी उतना ही कड़वा सच है कि आबादी के बड़े हिस्से को यह अधिनियम अभी भी उतना सुकून नहीं दे सका है जिसकी उम्मीद इसको बनाए जाने के वक्त की गई थी.
कुछ समय पहले एक नामी संस्था ने पांच राज्यों में आरटीआई को लेकर एक सर्वेक्षण किया था. इस सर्वेक्षण के जरिए आरटीआई एक्ट से निकले परिणामों को लेकर आम लोगों की राय जानी गई थी. सर्वे के परिणाम के मुताबिक केवल 25 फीसदी लोग ही आरटीआई से मिलनेवाली सूचनाओं को लेकर संतुष्ट थे. इसके अलावा 25 फीसदी लोगों ने इसके परिणामों को ठीक ठाक बताया. जबकि 50 फीसदी लोगों ने साफ तौर पर इस तरफ इशारा किया कि आरटीआई से मिलनेवाली सूचनाओं के लिए उन्हें बेहद मशक्कत करनी पड़ती है. शैलेश गांधी कहते हैं, ‘यह सर्वे यह भी बताता है कि बहुत से लोग आरटीआई से खुश हैं, लेकिन उससे अधिक यह इस बात की तरफ इशारा करता है कि आम लोगों को आसानी के सूचना दिलाने का दावा करनेवाले इस अधिकार की बेहतरी के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’ जाहिर तौर पर ‘बहुत कुछ’ से शैलेश गांधी का इशारा उन सुझावों की तरफ है, जो इस अधिनियम के असली उदेश्य को पूरा करने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
तो सवाल उठता है कि ऐसे कौन से उपाय किए जा सकते हैं कि बिना किसी अड़चन के आवेदक को समयबद्ध और सटीक सूचना मिल जाए.
बहुत से लोगों के मुताबिक सूचना आयोग की ताकत को बढ़ाकर उसे और अधिक मजबूत किए जाने की जरूरत है. एक बड़े वर्ग का मानना है कि आयोग के पास ताकत होनी चाहिए कि वह देर से सूचना देनेवाले अधिकारियों पर जुर्माना लगाने के अलावा उन्हें आपराधिक दण्ड भी दे सके, क्योंकि कई बार बड़ी गड़बड़ियों को छुपाने के लिए कर्मचारी जान बूझकर जुर्माना भरने के आसान रास्ते को चुन लेते हैं, और आयोग एक सीमा के बाद उन पर जुर्माना भी नहीं लगा सकता. ऐसे में आवेदक को न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है जहां न्याय मिलने में लंबा वक्त लग जाता है. लेकिन शैलेश गांधी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं कि जो शक्तियां और अधिकार आयोग को वर्तमान में प्राप्त हैं अगर आयुक्त उन्हीं को ठीक से अमल में लाने लगें तो बहुत कुछ ठीक किया जा सकता है. लेकिन संकट यह है कि अधिकतर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति राजनीतिक स्तर से की जाती है जिसके चलते वे भी बहुत बार खुल कर काम नहीं कर पाते.
आदर्श स्थिति में सूचना हासिल करने के लिए आरटीआई की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए. सरकारी विभाग आवश्यक सूचनाएं खुद ही सार्वजनिक कर दें तो ऐसा हो सकता है
सुभाष अग्रवाल की मानें तो आदर्श स्थिति यही है कि सूचना चाहने के लिए आरटीआई एक्ट की जरूरत न पड़े. वे कहते हैं, ‘अगर सभी सरकारी विभाग आवश्यक सूचनाओं को खुद ही सार्वजनिक कर दें तो लोगों को विभागों में आरटीआई आवेदन ही नहीं लगाना पड़ेगा. सूचना क्रांति के इस दौर में सभी विभाग अपनी वेबसाइटों पर इन जानकारियों को डाल सकते हैं, लेकिन सवाल वही है कि क्या इन विभागों के कर्ताधर्ता कभी ऐसा चाहेंगे कि उनके कारनामों और जनता की नजरों के बीच सिर्फ एक क्लिक की दूरी रह जाए.’
पिछले साल केंद्रीय सूचना आयोग ने देश के छह राजनीतिक दलों को आरटीआई के अधीन बतानेवाला एक फैसला दिया था. आम तौर पर सभी मामलों में एक-दूसरे के बिल्कुल उलट राय रखनेवाले इन दलों में से सिर्फ दो पार्टियों को छोड़कर बाकी सब पार्टियों ने तब एक विचार पर गजब की एकता का प्रदर्शन किया था. वह एक विचार यह था कि केंद्रीय सूचना आयोग के इस फैसले का विरोध करते हुए आरटीआई के प्रावधानों के साथ कुछ ऐसा किया जाए कि राजनीतिक दल हमेशा के लिए इसके शिकंजे से बाहर आ जाएं. नियमों के मुताबिक संसद चाहे तो ऐसा कर सकती है. और संसद के ताजा सूरते हाल की बात करें तो सांसदों की संख्या के मामले में इन चार दलों में से एक दल (भाजपा) लोकसभा तथा दूसरा दल (कांग्रेस) राज्यसभा में पहले नंबर पर है.
बहरहाल कई लोगों की मानें तो आने वाले वक्त में सूचना मिलने का यह बदरंग सूरते हाल सिर्फ दो ही स्थितियों में ही संवर सकता है. या तो राजनीतिक मंशा का हृदयपरिवर्तन या फिर जनता का आंदोलन.