आप पर म्यूजियम बनाने के लिए फोर्ड फाउंडेशन से मिले धन का गबन करने का आरोप है. इसमें कितनी सच्चाई है?
गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच के द्वारा हम पर लगाए गए किसी भी आरोप में कोई सच्चाई नहीं है. इनमें से कुछ आरोप अभी हाल में सत्ता द्वारा नियंत्रित सीबीआई द्वारा लगाए गए हैं. क्राइम ब्रांच ऐसे अधिकारियों के हाथों में है जिनका पेशेवर रवैया गुजरात हाईकोर्ट में चल रहे जकिया जाफरी के केस को लेकर शक के दायरे में है. हमने जांचकर्ताओं को दस्तावेजी सुबूत (जो लगभग 25 हजार पेज हैं) मुहैया कराए हैं . वैसे अब तक इस मामले में चार्जशीट भी दायर नहीं हुई है बस हमें सार्वजनिक जीवन में धमकाया, परेशान और तिरस्कृत किया जा रहा है.
गुलबर्ग सोसायटी के कुछ पीड़ितों की मुख्य शिकायत एक ड्रीम प्रोजेक्ट, गुलबर्ग मेमोरियल के लिए इकट्ठा किए गए लगभग चार लाख साठ हजार रुपये को लेकर थी, जिसे जमीन के दामों में हुए जबरदस्त उछाल के बाद रद्द करना पड़ा. वो पैसा अब भी उन खातों में पड़ा हुआ है. बदले की भावना से हो रही कार्रवाई की ये पूरी श्रृंखला क्राइम ब्रांच ने शुरू की और आक्रामक तरीके से जारी रखी. ये वही क्राइम ब्रांच है जिसके कई अधिकारियों को 2002 में गैरकानूनी रूप से की गई हत्याओं के मामले में हाल ही में बरी किया गया है. ये सब जनवरी, 2013 में शुरू हुआ जब हमारे खातों को गैर-कानूनी तरीके से सील कर दिया गया. उसके बाद फरवरी 2015 में हमें हिरासत में लेने के प्रयास सफल नहीं हो पाए, जब हाईकोर्ट ने हमारी अग्रिम जमानत याचिका नामंजूर की और हाईकोर्ट के आदेश के चंद मिनटों के अंदर क्राइम ब्रांच हमारे घर पहुंच गई. जब ये योजना भी काम नहीं आई तब गुजरात के गृह मंत्रालय ने केंद्रीय गृह मंत्रालय की एफसीआरए डिवीजन को एक पत्र लिखा. इसके बाद तो जैसे जांचों की बाढ़-सी आ गई. ये सब उन्हीं के द्वारा किया जा रहा है, जो 2002 के बाद हमें मिली सफलता से चिढ़े हुए हैं. हमारा मुंह बंद कराने के तमाम प्रयासों के असफल होने के बाद उनका गुस्सा और बढ़ गया है.
अधिकारियों का आरोप है कि आपने विदेशी दानदाताओं से मिले पैसे का उपयोग राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के लिए किया. उन्होंने आपको राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी कहा है. आपका क्या कहना है?
ये न्याय पर आधारित भारत के संविधान और गणतंत्र का घोर अपमान है, जहां शांति-व्यवस्था को मजबूत करने को राष्ट्र-विरोधी कहा जा रहा है. ये निश्चित रूप से, वर्तमान सत्तारूढ़ दल की रीढ़ यानी फासीवाद-समर्थक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है.
हमने कोई कानून नहीं तोड़ा. एफसीआरए, 2010 की धारा 3 के तहत चुनिंदा व्यक्तियों, जिसमें राजनीतिक दलों और उसके पदाधिकारी, सरकारी मुलाजिम, रजिस्टर्ड न्यूजपेपर से जुड़े लोग, खबरों के निर्माण और प्रसारण से जुड़े लोग आते हैं, को विदेशी चंदा लेने की मनाही है.
हालांकि उसी अधिनियम की धारा 4, यह बताती है कि किन व्यक्तियों पर धारा 3 लागू नहीं होगी. इसके अनुसार ये धारा किसी भी व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जिनका उल्लेख धारा 3 में है तथा जिनके द्वारा धारा 10 (ए) के प्रावधानों के तहत विदेशी चंदा स्वीकार किया गया है जैसे कि वेतन, मजदूरी या अन्य पारिश्रमिक जो उनको देय हो या किसी व्यक्ति, समूह को जो उसके अधीन काम कर रहा हो, किसी विदेशी स्रोत से या फिर ऐसे किसी विदेशी स्रोत के द्वारा भारत में घटित किसी सामान्य व्यवसायिक गतिविधि में किया गया भुगतान हो.
मासिक ‘कम्युनलिज्म कॉम्बेट’ का प्रकाशन करने वाली सबरंग कम्युनिकेशन प्रा. लि. कंपनी ने 2004 और 2006 में फोर्ड फाउंडेशन के साथ एक कंसल्टेंसी समझौता किया, जिसका उद्देश्य जात-पात और सांप्रदायिकता के मुद्दों को उठाना था. उसका ‘कम्युनलिज्म कॉम्बेट’, जावेद आनंद या तीस्ता सीतलवाड को संपादकीय/प्रबंध से जुड़े कार्यों के बदले मिले भत्ते से कोई लेना-देना नहीं था. नामी कानूनी परामर्शदाताओं की सलाह के बाद ही सबरंग कम्युनिकेशन ने कंसल्टेंसी समझौते पर हस्ताक्षर किए जिन्होंने बताया कि ये समझौता एफसीआरए 2010 की धारा 4 में मिली छूट के अंदर है और इस तरह जो कंसल्टेंसी फीस होगी (अनुदान या दान नहीं) उससे एफसीआरए 2010 का उल्लंघन नहीं होगा. फोर्ड फाउंडेशन ने सबरंग कम्युनिकेशन को भुगतान की गई कंसल्टेंसी फीस की सभी किस्तों पर टीडीएस भी काटा था. जो काम किए गए और उन पर जितना खर्च आया वे सब समझौते के मुताबिक थे. फोर्ड फाउंडेशन की संतुष्टि के लिए गतिविधियों और वित्तीय रिपोर्ट्स को हर साल जमा किया जाता था.
2002 दंगों को लेकर जिस तरह आपने कानूनी लड़ाई जारी रखी है, क्या लगता है कि गुजरात की पूर्व की मोदी सरकार के बाद अब केंद्र की मोदी सरकार आपको निशाना बना रही है?
यहां इसकी शुरुआत जाननी बहुत महत्वपूर्ण है. इसकी शुरुआत 4 जनवरी 2014 को, गुलबर्ग सोसायटी से जुड़े कथित गबन के आरोप में हम पांच लोगों पर तथ्यहीन एफआइआर दर्ज होने के साथ हुई. गुलबर्ग म्यूजियम के लिए कुल चार लाख साठ हजार रुपये इकट्ठा हुए थे, तो जांच भी उन्हीं पैसों के मामले में होनी चाहिए थी. पर गुजरात पुलिस ने शुरू से ही बढ़-चढ़कर काम किया. पुलिसिया कहानी के आधार पर मीडिया जिन करोड़ों रुपये की बात करता है वो सारा पैसा कानूनी सहायता और दोनों ट्रस्टों के कामकाज के लिए इकट्ठा किया गया था. इस एफआइआर का एक मकसद हमें नीचा दिखाना था ताकि हमारे समर्थकों और दंगे में बचे लोगों का हम पर से विश्वास उठ जाए. बॉम्बे हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत मिलने के बाद हम अहमदाबाद सत्र न्यायालय गए. यहां भी हमारी जमानत याचिका नामंजूर हो गई. जांच अधिकारी ने जो आरोप लगाए वे शपथ पत्र पर थे, वो भी बिना किसी दस्तावेजी प्रमाण के. मार्च 2014 से लेकर फरवरी 2015 तक जब अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी गई, हमने उन आरोपों का पांच हजार पेज के दस्तावेजों के आधार पर खंडन किया. हमने मेरे क्रेडिट कार्ड उपयोग आदि से जुड़े आरोपों को भी गलत साबित किया. मैं जैसे चाहे रह सकती हूं, शराब पी सकती हूं और इस बात से मैं बिल्कुल इंकार नहीं करती पर ये सब मेरी निजी कमाई से होता है न कि जैसा आरोप है वैसा.
सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के बाद हमने 21 हजार पेज के दस्तावेज और पेश किए. यानी अब तक हमने कुल 25 हजार पेज के दस्तावेज पेश किए हैं, जिसे गुजरात पुलिस में कोई स्वीकारने वाला नहीं है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि कैसे हमारी निजता का हनन हुआ और इस जांच का दायरा कितना बड़ा बनाया गया. इस साल 10 मार्च को गुजरात के गृह विभाग ने एफसीआरए को एक पत्र लिख ा. इस मामले में शिकायतकर्ता गुजरात सरकार है. गृह मंत्रालय या एफसीआरए स्वतंत्र रूप में नहीं बल्कि गुजरात सरकार के इशारे पर ये सब कर रहे हैं.
इसमें कोई चौंकने वाली बात नहीं है कि हमें नोटिस मिले. हमने पूरा सहयोग किया क्योंकि हमें विश्वास था कि हमारी तरफ से कोई उल्लंघन नहीं किया जाएगा. इन सबका उद्देश्य सिर्फ हमें कानूनी पचड़ों में उलझाए रखकर हमारे काम को कमजोर करना है, जो संविधान के अनुरूप है और इस सरकार की विचारधारा को चुनौती देता है (जिसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की प्रतिबद्धता है) और उस भीड़ में संतुष्टि बनाए रखना है, जो इस विचारधारा का समर्थन करती है.
गृह मंत्रालय ने सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) और सबरंग के दस्तावेजों से जांच की शुरुआत की थी और अब उनके निशाने पर सबरंग कम्युनिकेशन है. हमारा केस अपने आप में अलग और अनोखा है जहां पर देश की मशीनरी का उपयोग बदले की भावना को पूरा करने के साधन के रूप में किया जा रहा है. अब जब हमारी जमानत याचिका पर सुनवाई होनी है तब हमारा ध्यान भटकाने के लिए तमाम तरकीबें अपनाई जा रही हैं. यह सरकार का स्पष्ट एजेंडा लगता है, जिसका सीधे-सीधे पालन किया जा रहा है. सीबीआई को दिल्ली से सीधे हमारे घर और दफ्तरों पर छापे मारने के लिए भेज दिया जाता है. बावजूद इसके कि हमने 30 जून 2015 को खुद ही आगे बढ़कर सीबीआई (मुंबई आर्थिक अपराध शाखा को भी) पत्र लिखकर पूरा सहयोग देने की इच्छा जाहिर की थी.
ऐसी निरंकुशता क्यों? क्या ये कोई संयोग है कि वाइसी मोदी (एनडीए-1 की सरकार में सीबीआई में रहते हुए हरेन पंड्या मर्डर की जांच को कमजोर करने के जिम्मेदार) और एके शर्मा, अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के पूर्व संयुक्त पुलिस आयुक्त (स्नूपगेट और इशरत जहां हत्याकांड में लीपापोती के जिम्मेदार) को पीएमओमें शामिल कर लिया जाता है. और फिर ये अधिकारी राजनेताओं की निजी सेना की तरह काम करने लगते हैं!
आपके अनुसार आपके घर पर सीबीआई के हालिया छापों का एक कारण 2002 के दंगों से संबंधित सुनवाई भी हो सकती है. कृपया ये स्पष्ट कीजिए और इस मामले में हुई हालिया कानूनी प्रगति के बारे में भी बताइए.
हाईकोर्ट में जकिया जाफरी की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को गुलबर्ग केस, जिसमें एहसान जाफरी समेत 69 लोगों की हत्या हुई थी, के साथ मत जोड़िए. ये याचिका 2002 के गुजरात दंगों के समय हुई सभी घटनाएं आपराधिक या प्रशासनिक मिलीभगत से संबंधित है. इस तरीके से देखें तो ये एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई है. 8 जून 2006 को हमारे सहयोग से जकिया जाफरी द्वारा आपराधिक शिकायत दायर करने के साथ इसकी शुरुआत हुई. जब एफआइआर दर्ज नहीं हुई तो हम एफआइआर दर्ज कराने के निर्देश लेने हाईकोर्ट गए. हाईकोर्ट ने भी हमारी याचिका खारिज की, तब हम सुप्रीम कोर्ट गए.
27 अप्रैल 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने जांच उसी एसआइटी को सौंप दी जिसका गठन दूसरे मामलों के लिए किया था जिसमें हम शामिल थे लेकिन इस शर्त और चेतावनी के साथ कि गुजरात से बाहर के अधिकारी इस मामले को देखें. वो जांच 2009 में शुरू हुई. मैंने जुलाई 2009 में अपने बयान दर्ज कराए. उस वक्त दस्तावेजी सुबूत के तौर पर हमारे पास आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा (जिन्होंने 2002 के दंगों के दौरान भाजपा, विहिप के सदस्यों और पुलिस अधिकारियों के मोबाइल फोन रिकॉर्ड का अध्ययन किया था) और दूसरे अन्य अधिकारियों के शपथ पत्र थे जो उन्होंने नानावटी कमीशन के पास जमा किए थे. हमारे पास आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार के शपथ पत्रों का अनुबंध भी था जो शपथ पत्र से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था क्योंकि उन्होंने राज्य की खुफिया रिपोर्टों को सार्वजनिक कर दिया था. आपराधिक कानून के मुताबिक ये किसी व्यक्ति की राय नहीं बल्कि विश्वनीय दस्तावेजी सुबूत हैं.
आपको यह क्यों लगता है कि सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे पर आपके खिलाफ काम कर रही है?
मेरी राजनीतिक सक्रियता 1975 में उस समय शुरू हुई जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ती थी. पिताजी ने कहा परीक्षा छोड़ो और आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ो. मुद्दा किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के खिलाफ लड़ाई का नहीं बल्कि लोकतंत्र में तानाशाही के खिलाफ था. आपातकाल का माहौल उसके लगने के दो साल पहले से शुरू हुआ, जब तीन जजों के निर्णय के अतिक्रमण के रूप में न्यायपालिका पर पहला हमला हुआ. मैं आज फिर वही माहौल बनते देख रही हूं. मुझे लगता है कि नियंत्रण रखने के प्रति जितना झुकाव कांग्रेस और यूपीए में था, कमोबेश वही प्रवृत्ति एनडीए में भी है. अंतर केवल इतना है कि एनडीए के पीछे आरएसएस की विचारधारा है जो इस देश को संवैधानिक और गणतांत्रिक देश नहीं बल्कि एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है. हम देख सकते हैं कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय में शिक्षा, संस्कृति और एफटीआईआई को लेकर क्या चल रहा है! तानाशाही वहीं होती है, जहां राजनीतिक पार्टियां जांच एजेंसियों पर भी नियंत्रण रखना चाहती हैं और राष्ट्र की विचारधारा पर कब्जा कर लेती हैं. यही आरएसएस और भाजपा कर रहे हैं. दोनों का समान रूप से विरोध करने की जरूरत है. सीबीआई पर भी यही बात लागू होती है. जब हवाला और अन्य मामले सामने आए तब सीबीआई की एक छवि थी, इसे एक स्वतंत्र एजेंसी के तौर पर देखा जाता था. ऐसा भी वक्त था जब राजनेता सीबीआई का दुरुपयोग करने की हिमाकत नहीं करते थे. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सीबीआई कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के मातहत काम करती है जो पीएमओ के अधीन है, गृह मंत्रालय के नहीं. हमारे केस को छोड़ भी दें लेकिन ये जरूरी है कि सीबीआई संसद के प्रति जवाबदेह हो न कि सरकार के प्रति.
बतौर एक मानवाधिकार कार्यकर्ता आपको 2002 के दंगा पीड़ितों के साथ काम करने में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
मुझे लगता है कि ऊपर दिए गए सभी जवाब इस बात को दर्शाते हैं कि बदले की भावना में शासन तंत्र किस हद तक जा सकता है. गुजरात सरकार ने न्यायालय और अपनी पुलिस के जरिए 2004 से ही मेरे और मेरे संगठनों के खिलाफ बदनाम करने और डराने-धमकाने का मानो अभियान छेड़ रखा है. मेरे खिलाफ आधा दर्जन प्रार्थना-पत्र तथ्यहीन आरोप लगाते हुए दायर किए गए हैं. अब ये अभियान और तेज हो गया है और मेरे परिवार तक पहुंच गया है. केंद्र में सत्ता बदलते ही केंद्रीय एजेंसियों को भी पीछे लगा दिया गया है. इसी बीच हमें (सीजेपी और तीस्ता) गवाहों को प्रभावित करने के आरोपों से बरी भी किया जाता रहा है.
- रजिस्ट्रार जनरल बीएम गुप्ता की रिपोर्ट- अगस्त 2005
- सरदारपुरा स्पेशल कोर्ट (ट्रायल) का फैसला- 9.11.2011
- नरोदा पाटिया स्पेशल कोर्ट (ट्रायल) का फैसला- 29.08.2012
- बेस्ट बेकरी स्पेशल कोर्ट का फैसला (ट्रायल) फरवरी 2006 और अपील 4.7.2012
इस सबने 2002 हिंसा से जुड़ी कानूनी लड़ाई को कैसे प्रभावित किया है?
ये सब बहुत थकाऊ, शक्तिहीन कर देने जैसा है और बहुत चुनौतीपूर्ण भी. मगर अब तक हिम्मत नहीं टूटी है, हमें जो समर्थन मिला वो अभूतपूर्व था.