एक साल पहले तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपनी राजनीतिक शाखा, भाजपा से संवाद के लिए सिर्फ एक व्यक्ति नियुक्त करता था. पिछले एक दशक से यह काम सुरेश सोनी कर रहे थे. कुछ समय से उनके साथ सुरेश भैयाजी जोशी (संघ में सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत के बाद दूसरे महत्वपूर्ण पदाधिकारी), सह सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) दत्तात्रेय होसबोले और रामलाल भी भाजपा में आ चुके हैं. लेकिन हाल ही में संघ ने एक चौंकाने वाला फैसला करते हुए अपने दो और वरिष्ठ पदाधिकारियों राम माधव एवं शिव प्रकाश को पार्टी के कामकाज पर नजर रखने के लिए भेज दिया है.
करीब चार माह पहले की बात है जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ सदस्यों को मोदी के उभार के प्रभाव से बचने की सलाह दी थी. बेंगलुरू में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उनका कहना था, ‘हम राजनीति में नहीं हैं… नमो-नमो का उच्चारण हमारे लिए नहीं है.’ हालांकि उसके बाद उन्हें खुद अपने निर्देशों और सलाहों से अलग जाना पड़ा. भागवत ने अभी तक की परिपाटी से इतर बहुत से वरिष्ठ संघ पदाधिकारियों को भाजपा में भेजकर उसके साथ तालमेल बिठाने के काम पर तैनात कर दिया है. यह इस बात का संकेत है कि पार्टी और उसके मातृ संगठन के बीच संवाद के तौर-तरीके और स्तर में बड़े बदलाव आ रहे हैं.
जुलाई के पहले सप्ताह में संघ के 23 वरिष्ठ पदाधिकारी मध्य प्रदेश के राजगढ़ में दो दिवसीय सत्र के लिए एकत्रित हुए. इस आयोजन का उद्देश्य संघ की संगठनात्मक नीति में ऐसे बदलाव की शुरुआत करना था जिनसे वह समकालीन राजनीतिक और अन्य चुनौतियों से निपट सके. भाजपा के कई नेता इसमें शामिल होने के इच्छुक थे लेकिन उनको आयोजन से दूर रखा गया.
ये घटनाएं ऐसे ही नजरअंदाज नहीं की जा सकतीं. भाजपा और संघ के रिश्ते बदलाव के जटिल दौर से गुजर रहे हैं. हाल में हुए आम चुनावों में भाजपा को निर्णायक चुनावी जीत मिलने के बाद इस खेमें में एक किस्म की आश्वस्ति का भाव तो है लेकिन इस बीच कुछ ऐसा भी घटित हो रहा है जो निहायत ही जटिल और गूढ़ है. अपने मीडिया प्रभारी राम माधव की भाजपा में हालिया तैनाती से संघ यह सुनिश्चित करना चाहता है कि पार्टी की चुनावी जीत यूं ही न गंवा दी जाए. संघ की यह चिंता अपने उस घोषित विचार से एकदम उलट है जिसमें वह कहता रहा है कि राजनीतिक भूमिका पूरी तरह भाजपा के हवाले है और उसका उद्देश्य सिर्फ सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित करना और उन्हें आगे बढ़ाना है.
इस समय भाजपा पर संघ का नियंत्रण और सख्त हो चुका है. दिल्ली में केशव कुंज स्थित संघ के स्थानीय मुख्यालय के अंदरूनी सूत्र इस बदलाव की अलग-अलग व्याख्या करते हैं. मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ संघ पदाधिकारी कहते हैं, ‘जनता ने जो भारी जनादेश दिया है उसे संगठनात्मक कमजोरी के चलते गंवाया नहीं जा सकता है. संघ को पता है कि रोज-रोज की राजनीतिक जरूरतें कई बार क्षणिक समझौतों की ओर ले जाती हैं. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे संदेश की मूल भावना नष्ट न होने पाए.’
जब चुनाव के नतीजे एकतरफा रहे हों तब संघ की यह अतिसक्रियता हैरान करती है. अगर संघ के अंदरूनी लोगों पर भरोसा किया जाए तो इस जनादेश ने ही उसे चिंता में डाला है. हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित संगठनों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई एक व्यक्ति संघ परिवार पर इतना निर्णायक प्रभाव डालने की स्थिति में पहुंचा हो जितना कि मोदी पहुंचे हैं. इससे संघ के कुछ धड़ों में आशंकाएं पैदा हुई हैं. मोदी-अमित शाह के बीच के समीकरणों से ये और भी गहरा गई हैं. एक समय ऐसा भी रहा है जब संघ और भाजपा के बीच इस कदर दबाव नहीं होता था. उस कालखंड में पार्टी के मामलों पर नजर रखने के लिए आमतौर पर केवल एक व्यक्ति की नियुक्ति की जाती थी. दुर्भाग्यशाली रहे केएन गोविंदाचार्य का मामला छोड़ दिया जाए तो (काफी धूमधाम से भाजपा में शामिल किए गए गोविंदाचार्य की अटल बिहारी के नेतृत्व से खटक गई और उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया गया) तो संघ से भेजे गए बाकी लोग चुपचाप अपना काम करते रहे हैं. इस साल हुए आम चुनावों में भारी बहुमत और उससे पैदा हुई उम्मीदों के दबाव ने मजबूर कर दिया है कि संघ अपने संगठनों के लिए केवल मंथन शिविर से इतर कुछ और कामों को अंजाम दे.
मोहन भागवत वर्ष 2009 में केएस सुदर्शन के बीमार होने के के बाद संघ प्रमुख बने थे. दूसरी पीढ़ी के पहले संघ प्रमुख इस मायने में अपने पूर्ववर्तियों से बिल्कुल अलग हैं कि वे अब सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन 2009 में जहां चुनावी हार के बाद संघ को नए सिरे से नीतियां तैयार करनी थीं वहीं 2014 में मामला बिलकुल उलटा है. एक साल पहले नाराज लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के तीनों महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफा दे दिया था. उस वक्त पूर्वलिखित पटकथा की तरह एस गुरुमूर्ति बीच-बचाव करने पहुंचे और उन्होंने अपने मोबाइल से भागवत को फोन किया. भागवत के करीबी माने जाने वाले एक कारोबारी दिलीप देवधर बताते हैं, ‘आरएसएस प्रमुख ने आडवाणी को ऐसा कदम उठाने से रोका और अन्य बातों के अलावा उन्होंने इस बात का हवाला दिया इस समय सबसे बड़ी जरूरत सभी के एकजुट रहने और दिखने की है.’ इन दबावों के चलते आडवाणी को अपना रुख नर्म करना पड़ा.
इस पूरे प्रकरण का संदेश तब साफ हो गया जब कुछ समय बाद राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि आडवाणी अपना इस्तीफा वापस ले चुके हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता जाने-अनजाने यह मानते हैं कि पार्टी की आंतरिक राजनीतिक मुश्किलों को हल करने के लिए संघ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है. संघ 2009 में जिस काम को ‘सूक्ष्म प्रबंधन’ कहता था उसकी सूक्ष्मता अब गायब हो चुकी है और इसको स्पष्टरूप से देखा जा सकता है. संघ के कामों पर नजर रखने वाले कई विश्लेषकों ने पिछले दिनों में यह दोहराया है कि 2004 के बाद से संगठन का असर भाजपा पर बढ़ता गया है. हालांकि भागवत के आने के बाद यह नियंत्रण ज्यादा कड़ा हो गया. ऐसे में हैरानी नहीं कि आडवाणी को अपने से 20 साल कनिष्ठ उस संघप्रमुख की बात माननी पड़ी जिसके जन्म के पहले ही वे संघ कार्यकर्ता बन चुके थे.
पिछले दिनों की कुछ घटनाओं से ऐसा लगता है कि भाजपा वापस अपने शुरुआती दिनों में पहुंच रही है जब संघ अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से पार्टी के हर कदम पर नजर रखता था. लेकिन इस बार ये तौर तरीके काफी अलग हैं. भाजपा इस समय जिस तरह से एक व्यक्ति के आसपास केंद्रित लग रही है उसी का असर है कि संघ की ‘सूक्ष्म प्रबंधन’ वाली नीति में खास तरह से बदलाव आए हैं. इसी का नतीजा था राजनाथ के मोदी कैबिनेट में जाने के बाद भाजपा अध्यक्ष पद पर नई नियुक्ति में रहस्यमयी देरी हुई. यदि पिछले साल संघ का पूरा ध्यान मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने पर था तो इस साल वह बहुत सावधानी से दूसरे काम पर ध्यान दे रहा है. संघ के जो लोग भाजपा में भेजे गए हैं उन्हें भागवत की तरफ से स्पष्ट निर्देश हैं. इन र्निर्दशों का सार है कि इस समय देश में उसके पक्ष को भारी समर्थन मिला है और मुख्य विपक्ष नेस्तनाबूत है, ऐसे में भाजपा नेतृत्व पार्टी के लिए जो भी फैसले करे लेकिन उसके प्रतिनिधियों को सुनिश्चित करना है कि संघ की पकड़ पार्टी पर मजबूत होती जाए.
नए भाजपा अध्यक्ष की घोषणा में तीन हफ्ते की देरी पीछे भी संघ की दुविधा थी. संघ में अमित शाह के अलावा दो और लोगों के नाम पर विचार किया जा रहा था. इनमें से एक थे जेपी नड्डा. हिमाचल प्रदेश के नड्डा लंबे अरसे से संघ से जुड़े हैं और उन्हें संघ के बड़े तबके का समर्थन भी हासिल था. ओम माथुर को भी अध्यक्ष बनाने की बात चल रही थी जो मोदी के गृहराज्य गुजरात से हैं. लेकिन जब अध्यक्ष पद के लिए अमित शाह के नाम पर मुहर लगी तो संघ ने मजबूरी में ही सही इस फैसले को अपनी सहमति दे दी. मध्य प्रदेश से आने वाले संघ के एक वरिष्ठ सदस्य बताते हैं कि संघ पार्टी पर ज्यादा नियंत्रण चाहता है और इसके लिए वह ‘ पार्टी से संवाद के तरीके’ को बदलेगा. वे यह भी कहते हैं कि अब भाजपा पर नजर रखने के लिए संघ पदाधिकारियों की सक्रियता और बढ़ चुकी है. इसकी एक वजह भाजपा के इतिहास में आया यह महत्वपूर्ण मौका है. दूसरी बात यह भी है कि संघ यह नहीं चाहता कि मोदी या शाह का कद पार्टी में ऐसा न हो जाए जिसे वह काबू में न रख सके.
राजनीतिक विश्लेषक सौम्यजीत साहा कहते हैं, ‘ उत्तर प्रदेश में शाह ने एक तरह का चमत्कार किया है लेकिन यहां भाजपा की जीत में संघ की महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. पहले संभावित उम्मीदवार और फिर जीतने की संभावना वाले उम्मीदवारों के अंतिम चयन तक में भाजपा के मातृ संगठन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह सही है कि शाह ने चुनावी रणनीति का चेहरा बने लेकिन संघ का काम भी उससे कम महत्वपूर्ण नहीं था. हर लोकसभा क्षेत्र में संघ के तकरीबन 34 सबसे महत्वपूर्ण लोग थे जो जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे. और यह काम लोकसभा चुनावों के कहीं पहले शुरू हो चुका था. संघ इससे पहले कभी ग्रामीण मतदाताओं को अपने पक्ष में करने में इतना सफल नहीं रहा जितना इस बार रहा. लखनऊ के राजनीतिक विश्लेषक प्रभाष बाजपेयी कहते हैं, ‘ इन लोगों ने गैर समाजवादी और एक समय कांग्रेस का वोट बैंक रहे तबके को अपने पक्ष में करने के लिए बहुत मेहनत की है.’ वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ बहुजन समाज पार्टी का जाटव वोट जिस तरह से उसके लिए अप्रभावी साबित हुआ इसमें भी संघ की जमीनी स्तर पर की गई मेहनत की भूमिका है.’ ऐसे में संघ द्वारा भाजपा पर नियंत्रण की कोशिश एक तरह से उसका मेहनताना भी है.
इस कड़ी में राम माधव और शिव प्रकाश की पार्टी में तैनाती से नागपुर मुख्यालय का यह संदेश समझा जा सकता है कि भले ही मोदी ने पार्टी के लिए जो भी किया हो पर वह अब पर्दे के पीछे की भूमिका में नहीं रहने वाला.