लखनऊ का ऐतिहासिक रिफह-ए-आम क्लब फिलहाल मुशीर झंझानवी का शेर सुनाता मालूम होता है, ‘कांटा समझ के मुझसे न दामन बचाइए/गुजरी हुई बहार की इक यादगार हूं.’ कभी लखनऊ के इतिहास की आबरू रही ये जगह आज इतिहास का नौहा पढ़ रही है. गोलागंज इलाके में स्थित ये जगह शहर के स्वतंत्रता-संघर्ष, स्वाभिमान और प्रगतिशील चेतना की निशानी है, नया दौर जिसे मिसमार करने पर आमादा है.
अंग्रेजों के दौर में आम हिंदुस्तानियों के लिए खुला ये शहर का पहला क्लब था. इसीलिए इसका नाम रिफह-ए-आम (जन-हित) क्लब रखा गया था. इसी जगह को प्रथम विश्वयुद्ध के समय होमरूल लीग के जलसे के लिए चुना गया था, यहीं पर 1920 में सभा करके महात्मा गांधी ने लखनऊ वालों से असहयोग आंदोलन में जुड़ने की अपील की थी. खिलाफत काॅन्फ्रेंस भी यहीं हुई थी. 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन भी यहीं हुआ था जिसकी अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने इसी जगह अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था. मगर तारीख की दौलत से मालामाल ये जगह आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही है. इसकी खूबसूरत इमारत को लोगों ने इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि ये नीचे से एकदम कमजोर हो चुकी है. इसमें अवैध कब्जे हो रहे हैं.
इस पर अधिकार के लिए कई पक्षों में जंग छिड़ी हुई है. बिल्डरों और भू-माफिया की बुरी नजर भी इस पर है. इसका ऐतिहासिक मैदान कूड़ा डालने के लिए इस्तेमाल हो रहा है जिस कारण यहां गंदगी का अंबार है. ये नशेड़ियों का भी अड्डा है. इस पर गैर कानूनी ढंग से प्राइवेट बसें खड़ी की जा रही हैं, अवैध दुकानें लग रही हैं. लब्बो-लुअाब ये है कि अदब के शहर में इतिहास की इस धरोहर के साथ बेहद शर्मनाक सुलूक हो रहा है.
रिफह-ए-आम की बदहाली को लेकर शहर में जागरूक नागरिकों में बहुत रोष और निराशा है. वे अपने स्तर पर इसको बचाने की छोटी-मोटी कोशिश भी करते रहते हैं. पिछले दिनों एक स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों ने सरकार से रिफह-ए-आम क्लब को बचाने की अपील करते हुए जुलूस निकाला. बच्चों ने आसपास के लोगों से इसे साफ रखने का निवेदन भी किया. लंबे समय से लखनऊ में ये मांग उठती रही है कि प्रदेश अथवा केंद्र की सरकार इस ऐतिहासिक जगह को अपने अधिकार में लेकर इसका कायाकल्प करे. लेकिन सरकारें नया लखनऊ आबाद करने में ही इस कदर मसरूफ रहती हैं कि पुराने लखनऊ की पामाली पर गौर करने के लिए उनके पास वक्त नहीं बचता. पिछले कुछ सालों में प्रदेश की अलग-अलग सरकारों ने नए लखनऊ में स्मारकों, पार्कों और मैदानों के निर्माण पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए हैं, मगर पुराने शहर की इस यादगार पर मामूली रकम खर्च करना भी सरकारों को गवारा नहीं है. केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भी इसके जीर्णोद्धार में दिलचस्पी नहीं लेते.
रिफह-ए-आम की बदहाली पर अवधी संस्कृति के जानकार योगेश प्रवीन कहते हैं, ‘इस जगह की हालत राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव को लेकर हमारी शोशेबाजी की पोल खोलती है. पता चलता है कि इतिहास को लेकर हम असल में कितने संजीदा और संवेदनशील हैं. ये इस इमारत की बदकिस्मती है कि ये लखनऊ में है, जहां राष्ट्रीय इतिहास को कूड़े की वस्तु समझा जाता है. यही अगर किसी सही जगह होती तो देशप्रेमियों का तीर्थ कहलाती.’ क्लब के पास ही रहने वाले मासूम रजा चाहते हैं कि इसे बचाने के लिए सरकार आगे आए. वे कहते हैं, ‘आज जो स्थिति है उसमें बिना सरकार की मदद के इसे बचाया नहीं जा सकता. हम लोग लंबे वक्त से इसके लिए गुहार लगा रहे है. मीडिया बार-बार इस जगह का सवाल उठा रहा है लेकिन इसके बावजूद स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. ये कोई मामूली जगह नहीं है. सरकार को चाहिए कि इसे अपने अधिकार में लेकर यहां जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण का काम करवाए और फिर इसे राष्ट्रीय चेतना और प्रगतिशील साहित्य के केंद्र के रूप में विकसित करे, ताकि लोगों को इसके महत्व का अंदाजा हो सके.’
राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक ये देसी क्लब आज बंद और बदहाल है जबकि अंग्रेजों के अत्याचार वाला एमबी क्लब अपनी सभी क्रूर रिवायतों के साथ जिंदा है
सितम तो ये है कि इतनी बेशकीमती इमारत के निर्माण की सही तिथि शहर में किसी को नहीं पता. हर किसी की इसे लेकर अलग-अलग राय है. इतिहासकार रौशन तकी इसे बादशाह नासिरूद्दीन हैदर के जमाने का यानी 1830 के आसपास का बताते हैं. महमूदाबाद राजघराने से ताल्लुक रखने वाले राजकुमार अली नकी खां इसे वाजिद अली शाह के दौर का यानी 1850 के आसपास का बताते हैं. वहीं लखनऊ के नवाबी खानदान से जुड़ाव रखने वाले जाफर मीर अब्दुल्ला इसे 1857 के गदर के बाद का बना हुआ बताते हैं. हालांकि निर्माण काल को लेकर अधिकृत संदर्भ या प्रमाण कोई नहीं दे पाता. बावजूद इसके इमारत की स्थापत्य कला और इसके निर्माण में इस्तेमाल हुई सामग्री को देखते हुए इतना तो तय हो जाता है कि ये खूबसूरत इमारत 19वीं सदी में ही वजूद में आई होगी. हालांकि लखनऊ में इस जगह की धूम इसके निर्माण के कुछ सालों बाद शुरू हुई. उस दौर में जब यहां रिफह-ए-आम नाम से एक अनूठा क्लब शुरू हुआ. इमारत के निर्माण काल की तरह ही क्लब की शुरुआत की सही तारीख किसी को नहीं मालूम पर इसके शुरू होने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. एक दौर में लखनऊ में मोहम्मद बाग क्लब और यूनाइटेड सर्विसेज क्लब सिर्फ अंग्रेजों और उनके खास मेहमानों के लिए होते थे. आम आदमी का इसमें प्रवेश वर्जित था. इसी से क्षुब्ध होकर अंग्रेजी क्लबों के जवाब के बतौर अवध के कुछ राजाओं-तालुकेदारों ने मिलकर रिफह-ए-आम क्लब की स्थापना की थी. ये हिन्दुस्तानियों का क्लब था. यहां एमबी क्लब की तरह अंग्रेजी वेशभूषा की अनिवार्यता भी नहीं थी. कई तरह के खेल खेलने और लाइब्रेरी की सुविधा भी यहां थी. इस लोकप्रिय स्थल पर शहर के तमाम सार्वजनिक जलसे हुआ करते थे. आजादी के बाद इसकी रौनक धीरे-धीरे घटने लगी और अस्सी का दशक आते-आते ये जगह एक भूली हुई दास्तान लगने लगी.
प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर ने अपनी आत्मकथा ‘रौशनाई’ में रिफह-ए-आम क्लब की अजमत का विस्तार से वर्णन किया है. प्रलेस के पहले सम्मेलन के बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, ‘एक जमाना था जब रिफह-ए-आम में बड़े-बड़े तारीखी जलसे और काॅन्फ्रेंस होती थीं. यहीं पर पहले विश्वयुद्ध के जमाने में होमरूल लीग का वह जलसा होना तय हुआ था जो एनी बेसेंट की गिरफ्तारी पर प्रतिरोध जताने के लिए शहर के राष्ट्र भक्तों ने बुलाया था. लेकिन अंग्रेज सरकार ने इसे गैर कानूनी करार दिया था. ये लखनऊ में अपने किस्म की पहली घटना थी. हथियारबंद पुलिस से रिफह-ए-आम भर गई थी और सारे शहर में जबरदस्त सनसनी फैल गई थी. 1920 में यहीं खिलाफत कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें अली बंधुओं और मुल्क के तमाम बड़े लीडरों ने शिरकत की. इस मौके पर मौलाना मोहम्मद अली ने लगातार छह घंटे तकरीर की और रिफह-ए-आम के आहाते में अंग्रेजी कपड़ों के बड़े-बड़े अंबार जलाए गए थे. इसके बाद यहीं पर असहयोग आंदोलन के सिलसिले में कांग्रेसियों और खिलाफतियों ने लिबरल पार्टी की कॉन्फ्रेंस में हंगामा करके हॉल पर कब्जा कर लिया और उनके ही प्लेटफार्म से लिबरलों के खिलाफ रिजोल्यूशन पास करवाए थे.’
विडंबना ये है कि राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक ये देसी क्लब आज बंद और बदहाल पड़ा है जबकि अंग्रेजों के अत्याचार वाला एमबी क्लब आज भी अपनी सभी क्रूर, अन्यायी और विभेदकारी रिवायतों के साथ जिंदा है. साधारण वेश-भूषा जैसे चिकन का कुरता-पैजामा और चप्पल पहनकर चलने वाले आम लखनवी का इसमें प्रवेश आज भी सख्ती के साथ वर्जित है. अंग्रेजों के जमाने में एमबी क्लब के ऐसे नियम लखनऊ वालों में रोष पैदा करते थे. अंग्रेजों के जाने के सत्तर साल बाद यही नियम लखनऊ वालों को स्टेटस सिंबल प्रदान करते हैं. उन्हें ‘तहजीब’ वाला बनाते हैं. उन्हें क्यों फर्क पड़े कि रिफह-ए-आम आज किस हालत में है. उनका एमबी क्लब तो बहरहाल गुलजार है… और अब तो यहां साहित्य पर बात करने के लिए महफिलें भी सजने लगी हैं. उसी साहित्य के बारे में बात करने के लिए, जिसके बारे में कभी प्रेमचंद ने रिफह-ए-आम में कहा था, ‘हम जब ऐसी व्यवस्था को सहन न कर सकेंगे कि हजारों आदमी कुछ अत्याचारियों की गुलामी करें तभी हम केवल कागज के पृष्ठों पर सृष्टि करके ही संतुष्ट न हो जाएंगे किंतु उस विधान की सृष्टि करेंगे जो सौंदर्य, सुरुचि, आत्म-सम्मान और मनुष्यता का विरोधी न हो. साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है. उसका दरजा इतना न गिराइए. वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है.’
रिफह-ए-आम को तो भुला दिया गया है. प्रेमचंद किसी को याद हैं?