क्या वजह है कि देश में मकान मालिक और किराएदार का संबंध सनातन बैरी जैसा हो गया है?

सभी फोटोः विकास कुमार

गूगल पर यदि ‘किराएदार’ टाइप किया जाए तो लगभग 50 हजार परिणाम सामने आते हैं. इनमें पहला किराएदार शब्द का अंग्रेजी मतलब बताता है. बाकी लगभग सभी परिणाम किराएदार और मकान मालिक के विवादों से संबंधित होते हैं.

भारतीय शहरों के अधिकतर लोग कभी न कभी मकान मालिक और किराएदार होने के अनुभव से गुजरते हैं. इसके बावजूद भी यह रिश्ता ऐसा बन चुका है जिसमें संवाद की कम और विवाद की गुंजाइश ज्यादा हो गई है. महानगरों में तो ज्यादातर स्थिति यह है कि मकान मालिक कमरा देने से पहले बातचीत की शुरुआत ही किराएदार को अपराधी मानते हुए करते हैं. इसके बाद वे अपने होने वाले किराएदार की पड़ताल ठीक वैसे ही करते हैं जैसे किसी लड़की का पिता अपने होने वाले दामाद की करता है. यदि बात बन जाए तो किराएदार को लगभग उतने ही दस्तावेज और प्रमाणपत्र पेश करने होते हैं जितने किसी सरकारी नौकरी के आवेदन पर किये जाते हैं. इसके बाद जब किराएदार मकान में रहना शुरू कर दे तो भी दोनों पक्ष एक-दूसरे पर संदेह बनाए रखते हैं. किराएदार को हर महीने शक होता है कि मकान मालिक ने उससे बिजली-पानी का ज्यादा पैसा वसूल कर उसे लूट लिया है. दूसरी तरफ यदि किराया चुकाने में एक दिन की भी देरी हुई तो मकान मालिक यह मान लेता है कि किराएदार के इरादे ठीक नहीं हैं. इस पर वह पहले ही दिन किराएदार को टोकता है जिसे किराएदार अपना अपमान मान बैठता है. अधिकतर झगड़े यहीं से शुरू होते हैं.

किराएदार की शुरूआती जांच करने की सलाह तो हर राज्य की पुलिस सुरक्षा कारणों से देती है. लेकिन इसके बाद भी मकान मालिक क्यों किराएदार को हमेशा संदेह से ही देखते हैं? क्यों किराया चुकाने में एक दिन की भी देरी मकान मालिकों को बैचैन कर देती है? क्यों मकान मालिक अपने किराएदार के साथ कानूनी एग्रीमेंट करने के बावजूद भी आश्वस्त नहीं हो पाते? इन सभी सवालों के जवाब तलाशने के लिए उन अनुभवों को समझना जरूरी है जो पिछले 60-70 साल में देशभर के मकान मालिकों को हुए हैं. इन्हें समझने की शुरुआत दिल्ली से ही करते हैं.

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दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में एक एकड़ पर बनी एक विशाल हवेली है. इस हवेली को लगभग डेढ़ सौ साल पहले राय लाला छुन्नामल ने बनवाया था. राय छुन्नामल उस दौर में दिल्ली के सबसे अमीर व्यक्ति थे. कहा जाता है कि दिल्ली की पहली मोटर कार और टेलीफोन भी उन्होंने ही खरीदा था. राय छुन्नामल की हवेली में आज उनकी सातवीं पीढ़ी रहती है. लेकिन उनके पास इस हवेली का सिर्फ 20 प्रतिशत हिस्सा ही है. हवेली की निचली मंजिल पर 130 दुकानें हैं. इन्हें लगभग 40-50 साल पहले व्यापारियों को किराए पर दिया गया था. तब एक दुकान का किराया 75 रुपये प्रतिमाह तय हुआ था. इसके बाद से आज तक दिल्ली में लगभग सब कुछ बदल गया. दिल्ली का क्षेत्रफल बढ़ा, जनसंख्या बढ़ी, बाजार बढ़ा और साथ ही व्यापार भी बढ़ा. लेकिन इन दुकानों का किराया आज भी 75 रुपये प्रतिमाह ही है. राय छुन्नामल के वारिस और इस हवेली के मालिक अनिल प्रसाद बताते हैं, ‘इस इलाके में आज दुकान डेढ़ सौ रुपये वर्ग फुट की दर से किराए पर मिलती है. इस तरह से हमारी एक दुकान का किराया लगभग 15 हजार रुपये प्रतिमाह होना चाहिए. लेकिन हमारी तो 130 दुकानों का कुल किराया मिलाकर भी लगभग नौ हजार महीना ही आता है.’  प्रसाद आगे बताते हैं, ‘दुकानदार न तो दुकान खाली करते हैं और न ही किराया बढ़ाकर देते हैं. इस तरह से ये दुकानें हमारी होते हुए भी हमारी नहीं हैं.’

यह स्थिति सिर्फ अनिल कुमार की ही नहीं बल्कि देशभर के लाखों लोगों की है. पंजाब के मोगा जिले में रहने वाले हितेश गुप्ता की शहर के सर्राफा बाजार में आठ दुकानें हैं. इन दुकानों को उनके दादा ने लगभग 30 साल पहले किराए पर दिया था. दुकानों की वर्तमान कीमत लगभग तीन करोड़ रुपये है लेकिन इन सभी दुकानों का कुल किराया 2400 रुपये प्रति महीना आता है. हितेश बताते हैं, ‘पिछले कई साल से हम अपनी दुकानें खाली करवाने के लिए मुकदमे लड़ रहे हैं. अभी न जाने कितने साल इसमें और लगेंगे.’

हितेश गुप्ता, अनिल प्रसाद और उन जैसे लाखों लोगों की लाचारी का मूल कारण यह है कि किराएदारों को ‘किराया नियंत्रण कानून’ के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है. यह कानून देश की आजादी के बाद लगभग सभी राज्यों में लागू किया गया था. उस वक्त विभाजन के कारण बड़ी सख्या में लोगों का पलायन हुआ था. ऐसे में लाखों लोग अपना बसा-बसाया घर और कारोबार छोड़कर देश में शरणार्थी बनकर पहुंचे थे. इन्हीं लोगों की मदद के लिए किराया नियंत्रण कानून बनाया गया था. हालांकि हर राज्य के किराया नियंत्रण कानून का स्वरूप अलग था लेकिन इसका मूल उद्देश्य किराएदारों के हितों की रक्षा करना था. यह कानून मकान मालिकों को ज्यादा किराया वसूलने और किराएदार को जबरन निकालने से प्रतिबंधित करता था.

दिल्ली में यह कानून 1958 में लाया गया. इसका नाम था ‘दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम 1958’. शुरुआती दौर में यह कानून किराएदारों का शोषण रोकने में तो सफल साबित हुआ लेकिन धीरे-धीरे मकान मालिकों के शोषण का सबसे बड़ा कारण भी बन गया. इस कानून की सबसे बड़ी कमी यह रही कि इसमें वक्त के साथ संशोधन नहीं किए गए. इसमें मुख्य संशोधन इसके लागू होने के लगभग 30 साल बाद हुआ. 1988 में इस कानून में दो मुख्य बदलाव किए गए. एक, 3500 रुपये प्रतिमाह से ज्यादा किराया चुकाने वाले किराएदारों को इस कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया और दूसरा हर तीन साल में 10 प्रतिशत तक किराया बढ़ाए जाने की व्यवस्था की गई.

लेकिन इन बदलावों से भी मकान मालिकों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. किराया बढ़ाने पर शुरू से ही रोक के कारण पुराने किराएदार 1988 में भी 3500 से कम किराया ही चुका रहे थे. इसलिए लगभग सभी किराएदार इस संशोधन के बाद भी संरक्षित ही रहे. 90 के दशक तक यह बात नीति-निर्माताओं को भी स्पष्ट हो चुकी थी कि किराया नियंत्रण अधिनियम पर रोक लगाना अनिवार्य है. इस दिशा में काम करते हुए 1995 में भारत सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया. संसद में 1995 में ‘दिल्ली किराया अधिनियम’ पास कर दिया. इस अधिनियम में मकान मालिकों के हितों को देखते हुए बाजार भाव पर किराया तय करने और जरूरत पड़ने पर किराएदार को बेदखल करने के भी प्रावधान थे. इस नए कानून को अगस्त, 1995 में राष्ट्रपति की सहमति भी मिल चुकी थी और बस केंद्र सरकार को एक तिथि तय करते हुए इसे लागू करना था. लेकिन दिल्ली के लाखों किराएदारों और व्यापारियों ने इसका जबरदस्त विरोध किया. इस विरोध के चलते केंद्र सरकार नए कानून को राष्ट्रपति की सहमति के बावजूद भी लागू नहीं कर सकी. अंततः पिछले साल 1995 के उस कानून को वापस लेने का फैसला सरकार ने कर लिया जो कभी लागू ही नहीं हो पाया. दूसरी तरफ 1958 का वह कानून आज भी मौजूद है जिसे लगभग बीस साल पहले ही संसद ने बाबा आदम के जमाने का मानते हुए समाप्त करने का फैसला बहुमत से लिया था. इतने सालों तक इस कानून की मौजूदगी ने आज स्थिति को और भी भयावह बना दिया है.

हवेली की निचली मंजिल पर 130 दुकानें हैं. एक दुकान का किराया 15000 होना चाहिए. लेकिन सभी दुकानों का किराया मात्र नौ हजार ही आता है

किराया नियंत्रण कानून के कारण मकान मालिकों पर हो रहे अत्याचार के सबसे बड़े उदाहरण दिल्ली के कनॉट प्लेस में देखे जा सकते हैं. इस इलाके के डी ब्लॉक में ‘एंबेसी’ नाम का एक मशहूर रेस्टोरेंट है. यह जगह 1948 में कराची से आये दो साथियों ने किराए पर ली थी. आज इस रेस्टोरेंट के ग्राहकों की सूची में कई दूतावास, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय, मुख्यमंत्री कार्यालय और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं. इस रेस्टोरेंट की प्रतिदिन की बिक्री लाखों में आंकी जाती है. 2500 वर्ग फुट पर बना यह रेस्टोरेंट उस जगह स्थित है जो केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (सीबीआरई) की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की दस सबसे मंहगी व्यवसायिक जगहों में से एक है. इस सबके बावजूद भी इस पूरे रेस्टोरेंट का मासिक किराया मात्र 312 रुपये है. रेस्टोरेंट को किराए पर दी गई इस संपत्ति के असली मालिक आत्मा राम प्रोपर्टीज के प्रबंध निदेशक सीएम चड्ढा हैं. उनकी इस पूरे इलाके में और भी कई संपत्तियां हैं जिनमें से ज्यादातर इसी हालत में हैं. कनॉट प्लेस का सिंधिया हाउस भी आत्मा राम प्रोपर्टीज का ही है. आज इसका लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा किराया नियंत्रण कानून के चलते किराएदारों के कब्जे में है. एक ओर जहां इस इलाके में जानी-मानी फास्ट फूड चेन केएफसी 5,000 वर्ग फुट जगह का दस लाख रुपये प्रतिमाह से ज्यादा किराया चुका रही है वहीं इसके ठीक साथ में 8,800 वर्ग फुट जगह का किराया ‘अलाइड मोटर्स’ द्वारा मात्र 1800 रुपये दिया जाता है. आत्मा राम प्रोपर्टीज के अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘एंबेसी रेस्टोरेंट और अलाइड मोटर्स जैसे किराएदार लाखों रुपये का टैक्स जमा करते हैं. इनका एक साल का टर्नओवर करोड़ों में है. इसके बावजूद भी इन लोगों को किराया नियंत्रण कानून का संरक्षण मिला हुआ है और ये कौड़ियों के भाव किराया चुका रहे हैं. इन संपत्तियों के लिए हमने इस साल डेढ़ करोड़ रुपये हाउस टैक्स के तौर पर जमा किए हैं.’

2009 में दिल्ली में हाउस टैक्स संबंधी नई नियमावली बनाई गई है. इस नियमावली के बनने के बाद से हाउस टैक्स संपत्ति के क्षेत्रफल के अनुसार तय किया जाता है. पहले यह संपत्ति से मिलने वाले किराए पर निर्धारित किया जाता था. अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘आत्मा राम प्रोपर्टीज को इस साल पांच करोड़ रुपये बतौर टैक्स जमा करने का नोटिस आया है. जिस संपत्ति के लिए यह टैक्स भरना है उसमें रहने वाले किराएदारों में से कोई तीन सौ रुपये महीने किराया देता है तो कोई चार सौ. हालांकि टैक्स संबंधी नियमावली में यह लिखा गया है कि यदि टैक्स किराए की कुल राशि से ज्यादा होगा तो वह किराएदार को चुकाना होगा. लेकिन किराएदार इसे नहीं चुकाते. वे कहते हैं कि टैक्स पहले मालिक चुकाए और फिर हमसे बकाए के तौर पर वसूल कर ले.’

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मकान मालिकों के लिए किराया नियंत्रण कानूनों का दुखद पहलू यह भी है कि कई सरकारी संस्थाएं भी इस कानून की आड़ में उनको लूट रही हैं. चांदनी चौक के अनिल प्रसाद की लगभग छह हजार वर्ग फुट की एक संपत्ति पर पंजाब नेशनल बैंक का कब्जा है. इस संपत्ति के किराए के तौर पर बैंक उन्हें मात्र 124 रुपये प्रतिमाह देता है. वे बताते हैं ‘मेरी उस संपत्ति से लगभग 50 मीटर की दूरी पर ‘देना’ बैंक ने भी एक उतनी ही बड़ी संपत्ति किराए पर ली है. ‘देना’ बैंक इसके लिए ढाई लाख रुपये महीने का किराया दे रहा है.’ अनिल प्रसाद अपना स्वयं का व्यवसाय चलाने के लिए कोटला मुबारकपुर में पौने दो लाख रुपये महीने का किराया दे रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पीएनबी के पास मेरी जो संपत्ति है वह पिछले पांच साल से खाली है. बैंक ने सिर्फ उस पर अपना ताला लगा कर छोड़ दिया है. अब मैंने न्यायालय से अपील की है कि मुझे अपना व्यवसाय चलाने के लिए वह संपत्ति चाहिए. मैं अपनी संपत्ति होते हुए भी लाखों रुपये किराए के रूप में चुका रहा हूं.’

सरकारी और सार्वजानिक क्षेत्र की कई संस्थाएं ऐसी हैं जो इस कानून की आड़ में नाम-मात्र का किराया चुका कर लोगों की संपत्तियों पर कब्जा जमाए बैठी हैं. दिल्ली के जनपथ इलाके में ही भारतीय जीवन बीमा निगम 346 रुपये के किराये पर, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस लिमिटेड 733 रुपये के किराए पर और कनॉट प्लेस में दिल्ली परिवहन निगम 627 रुपये का मासिक किराया देकर 16 हजार वर्ग फुट जगह पर कब्जा किए हुए है.

साल 2005 में भारत सरकार ने शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए ‘जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन’ (जेएनएनयूआरएम) शुरू किया था. शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए इतना बड़ा अभियान इससे पहले पूरे विश्व में कहीं नहीं चलाया गया था. इस मिशन के तहत शहरी क्षेत्रों में सात आवश्यक सुधार तय किए गए थे. इनमें से एक किराया नियंत्रण कानूनों में सुधार करना भी था. जेएनएनयूआरएम के अंतर्गत प्रत्येक राज्य का केंद्र सरकार के साथ एक अनुबंध हुआ था. इस अनुबंध में वह समय सीमा भी तय की गई थी जिसके अंदर राज्यों को अपने किराया कानूनों को सुधारना था. इस अनुबंध के कुछ समय बाद सरकार ने कहा कि देश के 12 राज्यों ने किराया कानूनों में जरूरी बदलाव कर लिए हैं. दिल्ली की एक स्वयं सेवी संस्था ‘पीआईएल वाच ग्रुप’ ने इस मिशन और इसके तहत हुए किराया कानूनों की अलग से पड़ताल करके एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट में बताया गया कि जेएनएनयूआरएम के शुरू होने के बाद से किसी एक भी राज्य में किराया कानूनों में सुधार नहीं हुआ है. इस रिर्पोर्ट के अनुसार ‘पांच राज्यों में कभी किराया नियंत्रण कानून थे ही नहीं. पश्चिम बंगाल, राजस्थान और कर्नाटक में जेएनएनयूआरएम के अस्तित्व में आने से पहले ही किराया नियंत्रण कानूनों में सुधार हो चुका था. 20 राज्यों ने इन कानूनों में सुधार का वादा किया गया था लेकिन वे सभी इसमें विफल रहे. अन्य तीन राज्यों ने सुधार का वादा तक नहीं किया. इनमें से एक दिल्ली भी था.’

फास्ट फूड चेन केएफसी 5000 वर्ग फुट जगह का किराया 10 लाख से ज्यादा देता है वहीं अलाइड मोटर्स 8,800 वर्ग फुट का मात्र 1800 रुपये ही देता है

संस्था की संस्थापक सदस्य शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘जेएनएनयूआरएम के तहत अरबों रुपये बांटे गए. अनुबंध में यह साफ लिखा था कि राज्यों को पैसों की अगली किस्त तभी दी जाएगी जब वे अपने कानूनों में निर्धारित सुधार कर लेंगे. किसी भी राज्य ने यह शर्त पूरी नहीं की. इसके बावजूद भी उन्हें पैसा दिया गया. हमने इस संबंध में सभी संबंधित अधिकारियों को शिकायत भेजी थी.’

शोभा अग्रवाल ने दिल्ली किराया अधिनियम 1958 की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देते हुए एक याचिका भी दाखिल की है. तीन जुलाई को इस याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में अंतिम बहस होनी है. ‘यह कानून संविधान के अनुछेद 14, अनुछेद 19(1) (जी) और अनुछेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करता है. दिल्ली में इस संबंध में तीन अलग-अलग कानून हैं. कानून सबके लिए एक समान होने चाहिए’ शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘इस कानून के अंतर्गत वे ही लोग आते हैं जिनका किराया 3500 रुपये से कम है. यह पैमाना आज खरा नहीं है. इससे यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि किराएदार गरीब व्यक्ति है. कई करोड़पति भी इस पैमाने के कारण किराया नियंत्रण का दुरूपयोग कर रहे हैं.’

शोभा अग्रवाल ने किराया कानून को चुनौती देने वाली यह याचिका 2010 में दाखिल की थी. वे बताती हैं कि उस वक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने उनकी याचिका को एक लंबित मामले से जोड़ते हुए अपने न्यायालय में पेश करने को कहा. इस पर उन्हें कुछ संदेह हुआ. उन्होंने न्यायाधीश के बारे में जानकारी जुटाना शुरू किया. इसमें उन्होंने पाया कि वह न्यायाधीश स्वयं भी एक ऐसी संपत्ति में किराएदार हैं जो कि किराया नियंत्रण कानून के अंतर्गत आती है. अपनी जानकारियों को मजबूत करने के बाद उन्होंने न्यायालय से अपील की कि यह मामला किसी अन्य न्यायाधीश के सामने रखा जाए ताकि मामले में निष्पक्ष सुनवाई हो. इसके बाद यह याचिका एक अन्य न्यायाधीश की अदालत में पेश की गई.

बीस साल पहले जिस कानून को समाप्त करने का फैसला संसद ने लिया था वह आज तक जीवित क्यों है इस सवाल पर शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘इस कानून के समाप्त होने पर निश्चित तौर से वे लोग विरोध करेंगे जो इतने साल से इसका नाजायज फायदा उठा रहे हैं.’ किराया नियंत्रण कानून का समर्थन करने वाले अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यदि यह कानून समाप्त हुआ तो लाखों लोगों को अपने घर या व्यवसाय से बेदखल कर दिया जाएगा. इसके जवाब में शोभा कहती हैं, ‘यह एक भ्रमित करने वाला तर्क है. आज स्थिति ऐसी है कि अधिकतर किराएदार संपन्न हैं. इस कानून को समाप्त करने की मांग इसलिए नहीं है कि किराएदारों को बेघर किया जा सके. हमारी मांग सिर्फ यह है कि कम से कम मकान के असली हकदारों को उनकी सही कीमत तो मिले. आज कई मकान मालिक ऐसे भी हैं जिनकी माली हालत बहुत खराब है और उनकी करोड़ों की संपत्ति किराया नियंत्रण की भेंट चढ़ रही है.’ पुरानी दिल्ली के प्रवीण चंद जैन उन्हीं में से एक हैं. प्रवीण चंद की उम्र 69 साल है. उनके जवान बेटे की मौत हो चुकी है और अब वे अकेले ही रहते हैं. करोल बाग के पास गौशाला मार्ग पर उनकी पुश्तैनी इमारत है जिसमें लगभग 40 किराएदार रहते हैं. प्रवीण बताते हैं, ‘मेरे 40 किराएदारों का कुल मिलाकर महीने का 450 रुपये किराया है. वो भी लेने जाओ तो मुझसे भिखारियों जैसा बर्ताव करते हैं.’

‘उन्हें इस साल पांच करोड़ रुपये टैक्स जमा करने का नोटिस आया है. लेकिन किराएदारों में से कोई तीन सौ रुपया किराया देता है तो कोई चार सौ’

दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम से जूझ रहे लोगों की समस्या के समाधान पर जब भी दोनों पक्षों में बात होती है ‘पगड़ी’ के मुद्दे पर विवाद फंस जाता है. किराएदारों का कहना है कि आज से कई साल पहले जब वे मकान या दुकान में रहने आए थे तो उन्होंने मकान मालिक को ‘पगड़ी’ दी थी. ‘पगड़ी’ उस रकम को कहा जाता था जो किराएदार एकमुश्त मकान मालिक को देता था. उनके अनुसार यदि ‘पगड़ी’ में दी गई रकम की तुलना आज से करें तो वो लगभग संपत्ति की कीमत के बराबर ही होती है. लेकिन ‘पगड़ी’ देने का कोई भी सबूत किसी भी किराएदार के पास नहीं है. शोभा अग्रवाल कहती हैं, ‘कई संपत्तियां सरकारी विभागों के पास किराए पर हैं. यदि ‘पगड़ी’ देकर ही मकान या दुकान दी जाती थी तो ये विभाग किराएदार कैसे बन गए. सरकारी विभाग तो अवैध ‘पगड़ी’ देकर किराएदार नहीं बन सकता.’ शोभा आगे बताती हैं कि उस जमाने में भी संपत्ति दो तरीकों से बेचीं जाती थीं. एक सेल डीड के माध्यम से और दूसरा पॉवर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से. यदि ‘पगड़ी’ की रकम संपत्ति के बराबर ही थी तो इनमें से कुछ भी क्यों नहीं किया गया.

सदर बाजार व्यापारी संघ के अध्यक्ष प्रवीण कुमार आनंद पगड़ी के बारे कहते हैं, ‘यदि कुछ लोगों ने पगड़ी दी भी थी तो इतने सालों से नाम-मात्र का किराया देकर वे लोग पगड़ी की रकम भी वसूल कर चुके हैं. ये साफ दिखाई देता है कि जो किराया वे आज दे रहे हैं वह नाजायज है. कानून में बदलाव होना चाहिए. पुराने किराएदारों को खाली करने को न कहा जाए लेकिन किराया तो बाजार के हिसाब से बढ़ना ही चाहिए.’ आम तौर पर किराएदारों के पक्ष में रहने वाले बंगाली मार्केट व्यापारी संघ के महासचिव प्रमोद गुप्ता बताते हैं, ‘इस कानून को तो समाप्त होना ही चाहिए. ये तो साफ तौर से मकान मालिकों के साथ नाइंसाफी है. लेकिन नए कानून में किराएदारों के हित भी ध्यान में रखे जाएं. इन लोगों ने ये दुकानें तब किराए पर ली थी जब आस-पास सब जंगल था. इन्हीं की मेहनत से बाजार बना और संपत्ति की कीमत बढ़ी है. तो किराया बढ़ाया जाए लेकिन पुराने किराएदारों के लिए इसे बाजार के भाव से कम ही तय किया जाए.’

chhanu-mal-ki-haweli-in-oldकुछ राज्यों में किराया नियंत्रण कानूनों को सुधारने की दिशा में काम हुए भी हैं. अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘महाराष्ट्र में कानून में संशोधन हो चुका है. इसके बाद से यदि कहीं भी सरकारी विभाग किराए पर थे तो उन्हें इस कानून की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. साथ ही यह भी फैसला लिया गया है कि यदि कोई निजी कंपनी किराएदार है और उसकी पेड अप कैपिटल एक करोड़ या उससे ज्यादा है तो वह किराया नियंत्रण कानून के अंतर्गत नहीं आएगी.’

महाराष्ट्र में हुए इन बदलावों से अधिवक्ता अमित सेठी तो संतुष्ट नजर आते हैं लेकिन शोभा अग्रवाल का नजरिया अलग है. उनका मानना है कि किराया नियंत्रण कानून होना ही नहीं चाहिए. ‘हर क्षेत्र का उदारीकारण हुआ है. आज चीनी और तेल के दाम भी बाजार तय करता है. इन पर सरकार कोई नियंत्रण नहीं रखती. और किराया नियंत्रण के नाम पर लोगों की निजी संपत्तियों को नियंत्रित करती है’ शोभा आगे बताती हैं, ‘कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरा करने के लिए सरकार को अपने नागरिकों की हर व्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए. लेकिन कुछ नागरिकों का भला करने के लिए कुछ अन्य नागरिकों का शोषण नहीं किया जा सकता. सरकार को यदि किराए में छूट देनी है तो सरकारी भवनों पर छूट दे. एक नागरिक की निजी संपत्ति पर सरकार किस अधिकार से किसी को भी छूट दे सकती है?’

किराएदार और मकान मालिक की इस सालों पुरानी लड़ाई का एक सबसे घातक पहलू और भी है. ऐसी विवादास्पद इमारतों की मरम्मत न तो किराएदार करता है और न ही मकान मालिक. देश भर में ऐसी इमारतों के गिरने और उनसें कई लोगों के जान गंवाने की खबरें कई बार सुनने को मिलती हैं. लेकिन कुछ लोगों ने इसमें भी समस्या का समाधान ढूंढ लिया है. विवादास्पद इमारतों की आसानी से अच्छी कीमत नहीं मिलती. ऐसे में कई मकान मालिक भूमाफियाओं को अपनी इमारत बेच देते हैं. यहां से उन्हें तुलनात्मक रूप में बेहतर दाम मिल जाते हैं. ये भूमाफिया पहले से ही जर्जर इमारतों को जबरन तुड़वा देते हैं और जमीन पर नए भवन बना लेते हैं. कुछ मकान मालिकों ने इससे थोड़ा अलग तरीका भी अपनाया है. वे अपनी इमारत को बैंक में गिरवी रख देते हैं. फिर जानबूझ कर बैंक के पैसे नहीं चुकाते. इस पर बैंक इमारत को अपने कब्जे में ले लेता है. इसके बाद कई बार जब बैंक किराएदारों को बेदखल कर बिल्डिंग की नीलामी करवाते हैं तो असली मालिक ही अपने लोगों के जरिए वापस इसे खरीद लेते हैं.

दिल्ली के जनपथ इलाके में एलआईसी 346 रुपये और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस 733 रुपये किराया देकर हजारों वर्ग फुट जगह पर कब्जा किए हुए हैं

विश्व के लगभग 40 देशों में किराया नियंत्रण कानून मौजूद हैं. हालांकि इनका स्वरुप सभी देशों में अलग है लेकिन इसके दुष्परिणाम लगभग सभी जगह देखे गए हैं. स्वीडन के प्रख्यात अर्थशास्त्री असर लिंडबेक ने इसीलिए किराया नियंत्रण के बारे में कहा है कि ‘किसी शहर को बर्बाद करने के लिए बमबारी के अलावा यदि कोई दूसरा काबिल तरीका है तो वह किराये का नियंत्रण है.’