तोडफ़ोड़ की राजनीति- महाराष्ट्र में एनसीपी की टूट से भाजपा पर भी कई सवाल

ख़ुद को राजनीतिक रूप से मज़बूत करने या दूसरे दल की सरकार को तोडक़र अपनी सरकार बनाने का चलन भारतीय राजनीति को बदसूरत करता जा रहा है। यदि दूसरे दल को तोडक़र अपनी सरकार ही बनानी है, तो फिर चुनाव और जनता की क्या अहमियत? चुनाव तो होते ही जनादेश के लिए हैं; लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी या उससे पहले शिवसेना की टूट यह ज़ाहिर करती है कि राजनीति केवल नैतिकता दिखाने भर को है। महाराष्ट्र की घटनाओं का देश पर क्या असर होगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश भर की राजनीति में महाराष्ट्र अनोखे राजनीति गठबंधनों वाला इकलौता राज्य बन गया है। वहाँ अब देश के दो बड़े राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के गठबंधन दो राजनीतिक दलों के दो गुटों के साथ हैं। भाजपा के साथ शिवसेना का शिंदे गुट है, तो कांग्रेस के साथ उद्धव वाली शिव सेना का गुट। इसी तरह भाजपा के साथ अजित पवार वाली एनसीपी है, तो कांग्रेस के साथ शरद पवार के नेतृत्व वाला एनसीपी धड़ा। शायद ही दुनिया की राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण मिले।

महाराष्ट्र में अपनी राजनीतिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए शिव सेना के बाद भाजपा ने शरद पवार की एनसीपी में भी सेंध लगा दी और अजित पवार को शरद पवार जैसे अनुभवी नेता से आठ अन्य विधायकों के साथ छीन लिया। इसका नतीजा यह निकला है कि महाराष्ट्र की राजनीति में जबरदस्त जंग छिड़ गयी है। शिंदे अजित को क़तई पसंद नहीं करते लिहाज़ा उनके ही ख़ेमे में हलचल मच गयी है।

शरद पवार, एनसीपी चीफ

भाजपा ने हाल के वर्षों में चुनाव में हारकर सरकार नहीं बना पाने के बावजूद विपक्षी दल की सरकार बनने पर उसके सदस्यों को तोडक़र अपनी सरकार बना लेने की परम्परा क़ायम कर दी है। हाल के वर्षों में ऐसी कई उदाहरण दिखे हैं। हालाँकि महाराष्ट्र में एनसीपी में टूट के बाद भाजपा के लिए भी दिक़्क़तें पैदा हुई हैं, क्योंकि उसके अपने ही गठबंधन के बीच इससे दरार बन गयी है। यही नहीं चाचा शरद पवार से अलग हुए भतीजे अजित पवार एनसीपी में दो-फाड़ करने के 20 दिन बाद भी अपने गुट को एनसीपी का ‘असली धड़ा’ बना पाने में सफल नहीं हुए हैं, जिसके लिए उन्हें 36 विधायकों की ज़रूरत है।

पार्टी में टूट के बाद 82 साल के शरद पवार ने जिस तरह मैदान में डटे रहने का संकल्प लिया, उससे साफ़ है कि एनसीपी में शरद पवार को किनारे करना आसान काम नहीं है। अभी भी एक लोकसभा सदस्य को छोडक़र पूरा संसदीय दल शरद पवार के साथ है और पार्टी का अधिकाँश हिस्सा भी उनके साथ खड़ा दिखता है। ऐसी स्थिति में भाजपा-शिंदे सरकार में मंत्री बन चुके अजित पवार के लिए राह उतनी आसान नहीं है। जनता अजित पवार के इस क़दम को कैसे देखती है? यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि अभी तक जनता का जो रुख़ सामने आया है, उससे लगता है कि उसकी सहानुभूति शरद पवार के साथ ज़्यादा है।

बहुत-से जानकार मानते हैं कि भाजपा भले दूसरे दलों को तोडक़र ख़ुद को मज़बूत कर रही है; लेकिन जनता में इसका अच्छा सन्देश नहीं जा रहा। इस तरह की राजनीति करने का चुनावों में उसे नुक़सान भी झेलना पड़ सकता है। महाराष्ट्र लोकसभा की राजनीति के लिहाज़ से भी काफ़ी अहम है; क्योंकि वहाँ 48 सीटें हैं। सन् 2019 के चुनाव में भाजपा ने 23 सीटें जीती थीं, जबकि अविभाजित शिव सेना ने 18 सीटें। एक साल पहले शिवसेना में टूट हो गयी और सदस्य भी बँट गये। एनसीपी को चार, जबकि कांग्रेस, एआईएमआईएम, निर्दलीय को एक-एक सीट मिली थी। अब सारा परिदृश्य बदल चुका है और शिव सेना और एनसीपी का एक-एक धड़ा क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के साथ है। महाराष्ट्र की इस उठापटक के बाद कांग्रेस राज्य में मुख्य विपक्षी दल बन गयी है, जिसके पास सबसे ज़्यादा 45 विधायक हैं।

कम नहीं दिक़्क़तें

महाराष्ट्र में भाजपा की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि उसके पास बड़े क़द का कोई मराठा नेता नहीं है, जो उसको विधानसभा में अपने दम पर बहुमत दिला सके। लिहाज़ा उसने पहले शिव सेना और अब एनसीपी को तोडऩे का रास्ता चुना, ताकि महाराष्ट्र में बिखरे रूप से उसको आधार मिल सके। महाराष्ट्र की राजनीति के जानकारों के मुताबिक, अजित पवार महत्त्वाकांक्षी नेता हैं। लिहाज़ा उनकी नज़र भाजपा के साथ रहते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहेगी। ऐसे में उनका शिंदे ही नहीं, देवेंद्र फडणवीस के साथ भी टकराव होगा। उपमुख्यमंत्री तो वह महाविकास अघाड़ी सरकार में भी थे।

सत्ता में आने के बाद अजित को अपने गढ़ पुणे में जिस ‘शासन आपल्य दारी’ कार्यक्रम के तहत सरकार में दूसरे उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के साथ जाना था, वह कार्यक्रम भी शिंदे सरकार ने 13 जुलाई को स्थगित कर दिया। कार्यक्रम की अगली तारीख़ अभी घोषित नहीं हुई है। लिहाज़ा इसे अजित पवार के लिए झटका ही माना जाएगा; क्योंकि उनके शिंदे सरकार में शामिल होने के बाद ही सारी उथल-पुथल शुरू हुई है। भाजपा अब महसूस कर रही है कि अजित पवार के उसके साथ आने से कुछ ऐसी पेचीदगियाँ पैदा हो सकती हैं, जिन्हें निपटाना आसान नहीं होगा।

उद्धव ठाकरे, महाराष्ट्र के पूर्व सीएम

अजित पवार के सामने अब दोतरफ़ा विरोध है, जिससे उन्हें पार पाना है। सरकार से बाहर उन्हें शरद पवार की जनता में पैठ से पार पाना होगा। दूसरे सरकार के भीतर मुख्यमंत्री शिंदे के विरोध से भी निपटना होगा, जिन्होंने उद्धव ठाकरे से अलग होते समय कहा था कि वह अजित पवार के कारण उद्धव ठाकरे से अलग हो रहे हैं। अब जबकि अजित पवार उनके नेतृत्व वाले भाजपा के दबदबे वाली सरकार में ही शामिल हो चुके हैं, तो शिंदे का असहज होना समझ भी आता है।

शिंदे की अजित के लिए कटुता आसानी से ख़त्म हो जाएगी, ऐसा दिखता नहीं है। दूसरे शिंदे पर अपने ही विधायकों का दबाव है कि उन्हें मंत्री बनाया जाए। शिंदे के लिए यह दिक़्क़त और विरोध अजित पवार के सरकार में शामिल होने से ही शुरू हुआ है, लिहाज़ा उनकी उनके प्रति तल्$खी और बढऩे से इनकार नहीं किया जा सकता।

शरद पवार की पॉवर

शरद पवार

शरद पवार भारतीय राजनीति में चाणक्य वाली छवि रखते हैं। बेशक अजित पवार ने इस बार उन्हें अपने विद्रोह से हैरान किया; लेकिन शरद पवार को यह तो पता ही था कि भतीजा उनसे दग़ा कर सकता है। यही कारण था कि जब उन्होंने बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया, तो उनके साथ अपने विश्वस्त प्रफुल्ल पटेल को भी यही पद दिया। यहाँ तक कि दिल्ली में इसके बाद जब एनसीपी कार्यकारिणी की बैठक हुई, तब दीवार पर लगाये गये पोस्टर में प्रफुल्ल पटेल की फोटो तो थी, अजित पवार की नहीं थी। हो सकता है, शरद पवार को यह उम्मीद न रही हो कि प्रफुल्ल भी उन्हें देखा दे सकते हैं। इसके बाद मुम्बई में जब अजित पवार ने अपनी शक्ति दिखाने के लिए बैठक बुलायी, तो उसमें उन्होंने सीधे शरद पवार पर हमला कर दिया। उन्हें यह भी सलाह दे डाली कि ‘यह उनकी रिटायरमेंट का समय है।’ हालाँकि शरद पवार ने इसका जवाब यह कहकर दिया कि ‘न मैं टायर्ड हूँ, न रिटायर्ड हूँ।’ जनता में भी अजित पवार की इस बात का कुछ अच्छा सन्देश नहीं गया और यह माना गया कि अजित पवार उस व्यक्ति से यह गुस्ताखी कर रहे हैं, जिसने उन्हें बनाया और आगे बढ़ाया।

एनसीपी के दोनों गुटों में इसके बाद ख़ुद को ‘असली’ बताने के लिए जबरदस्त जंग छिड़ गयी। दोनों ने एक दूसरे के नेताओं को पदों से हटाने की घोषणा की। यह जंग अभी भी जारी है और मामला चुनाव आयोग के पास लम्बित है।

शरद पवार ने दिल्ली में एनसीपी संसदीय दल और पदाधिकारियों की बैठक करके अपनी ताक़त का परिचय दिया। इसमें चार सांसद ही नहीं, बल्कि ज़्यादातर पार्टी पदाधिकारी भी पहुँचे। इस दौरान कार्यकारी अध्यक्ष सुप्रिय सुले भी काफ़ी सक्रिय दिखीं। शरद के चेहरे से बिलकुल नहीं लगता था कि भतीजे की बेवफ़ाई और पार्टी के टूटने से घबराये हुए हैं। उन्होंने ऐलान कर दिया कि वह पूरे राज्य का दौरा करके जनता से मिलेंगे। दो दिन बाद ही शरद पवार इस उम्र में भी सक्रियता से जनता के बीच दिखे। उन्होंने अपने गुरु यशवंत राव चव्हाण को भी याद किया। शरद पवार महाराष्ट्र में अब बाक़ी बची पार्टी (एनसीपी के अपने गुट) और महाविकास अघाड़ी गठबंधन को मज़बूत बनाने में जुट गये हैं।

अजित पवार ने 5 जुलाई को मुंबई के बांद्रा में पार्टी नेताओं के साथ शक्ति प्रदर्शन किया था, जिसमें एनसीपी के 53 में से 32 विधायक शामिल हुए थे। उधर शरद पवार की बैठक में 17 विधायक उपस्थित हुए। इस लिहाज़ से अजित का पलड़ा भारी लगता है। हालाँकि दूसरा सच यह है कि विधानसभा विधायक दल में अजित को एनसीपी का मुख्य धड़ा होने का दावा करने के लिए कम-से-कम 36 विधायक चाहिए। अभी तक तस्वीर साफ़ नहीं है कि वास्तव में कितने विधायक उनके पास हैं। दिलचस्प यह है कि जहाँ शरद पवार गुट के विधायक खुले घूम रहे हैं, वहीं अजित पवार को अपने विधायकों को होटल में रखना पड़ रहा है।

अजित की इस बात पर कि वह सरकार में इसलिए शामिल हुए, क्योंकि वह पार्टी और प्रदेश के लिए काम करना चाहते हैं; सीनियर पवार ने कहा कि वह बिना कोई मंत्री पद लिए हुए भी वह पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा- ‘मुझे रिटायरमेंट के लिए कहने वाले वे (अजित) कौन होते हैं? मैं अभी भी काम कर सकता हूँ।’

शरद पवार ने हाल में स्वीकार किया था कि भाजपा के नेतृत्व में सरकार में शामिल होने के लिए उनकी पार्टी से बात हुई थी। उन्होंने कहा कि साल 2014, 2017 और 2019 में भाजपा के साथ गठबंधन की बात हुई थी; लेकिन अलग विचारधारा होने के चलते हम आगे नहीं बढ़े।

फडणवीस बनाम शिंदे

महाराष्ट्र में अजित पवार और उनके आठ साथियों को शिंदे के नेतृत्व वाली ‘भाजपा संचालित’ सरकार में मंत्री बनाने के बाद काफ़ी विवाद बन गया है। महाराष्ट्र में उप मुख्यमंत्री और भाजपा के सबसे बड़े चेहरे देवेंद्र फडणवीस की कोशिशें नाकाम होने के बाद सारा ज़िम्मा भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले वरिष्ठ नेता एवं देश के गृह मंत्री अमित शाह के ऊपर आ पड़ा है। फडणवीस ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और अजित पवार से बैठकें की थीं कि कोई रास्ता निकल आये; लेकिन शिंदे के विधायक अजित पवार के उनके साथ सत्ता में साझीदार बनने से बहुत ख़फ़ा हैं। उन्हें यह भी लगता है कि उनका इस्तेमाल करके भाजपा उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल बाहर करना चाहती है।

भाजपा पर दबाव बनाने के लिए शिंदे ने अपने विधायकों को सक्रिय कर मंत्री पद की माँग उठाने और ऐसा न होने पर वापस उद्धव ठाकरे से मिलने की धमकी दिलवाने की रणनीति अपनायी। यह माना जाता है कि अजित के मंत्री बनने से सबसे ज़्यादा नाराज़ शिंदे ही हैं; क्योंकि अजित को भाजपा के साथ जोडऩे में उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सबसे बड़ी भूमिका निभायी है। इसके पीछे भी बड़ा कारण है। दरअसल शिंदे भाजपा आलाकमान के नज़दीक जाने और फडणवीस की भी छुट्टी करवाने की कोशिश कर रहे थे।

महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे

कहा जाता है कि फडणवीस को जब इसकी भनक लगी, तो वह बहुत नाराज़ हुए। इस बीच एक विज्ञापन ने महाराष्ट्र की राजनीति में खलबली मचा दी। इस विज्ञापन पोस्टर में ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा था- ‘मोदी फॉर इण्डिया, शिंदे फॉर महाराष्ट्र (राष्ट्र के लिए मोदी, महाराष्ट्र के लिए शिंदे)।’

इस पोस्टर में फडणवीस का न कोई ज़िक्र था, न उनकी कोई तस्वीर। सबसे ज़्यादा जो राजनीतिक तत्त्व इस पोस्टर में था, वह था- एक सर्वे का ज़िक्र; जिसमें दावा किया गया था कि महाराष्ट्र में शिंदे मुख्यमंत्री पद के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। फडणवीस से भी ज़्यादा लोकप्रिय। ये पोस्टर अंग्रेजी और मराठी दोनों भाषाओं में थे। इस पर जब हंगामा मचा, तो उसी दिन महाराष्ट्र सरकार की तरफ़ से एक और विज्ञापन जारी किया गया, जिसमें शिंदे और फडणवीस दोनों की फोटो थी और सरकार की एक साल की उपलब्धियों का इसमें ज़िक्र था।

हालाँकि तब तक तीर चल चुका था। फडणवीस ‘शिंदे के खेल’ को समझ रहे थे। लिहाज़ा उन्होंने महत्त्वाकांक्षी एनसीपी नेता अजित पवार के ज़रिये ऐसा खेल कर डाला कि शिंदे अपने ही जाल में उलझकर रह गये। देवेंद्र फडणवीस ने किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होने दी और 2 जुलाई को अचानक अजित अपने आठ अन्य साथियों के साथ उपमुख्यमंत्री बन गये। साफ़ देखा जा सकता था कि शपथ विधि समारोह के दौरान अजित पवार जब शिंदे से हाथ मिलाने गये, तो शिंदे के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ थीं।

दिल्ली की दौड़

अजित पवार के सत्ता में भागीदार बनने के बाद एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार में भगदड़-सी मच गयी है। शिंदे के समर्थक विधायक मंत्री बनाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। यह सब तब हो रहा है, जब चर्चा है कि एकनाथ शिंदे और उनके समर्थक विधायकों की विधायकी जा सकती है। विधानसभा स्पीकर शिंदे और उद्धव दोनों गुटों को नोटिस जारी कर चुके हैं।

इस पर देखना है कब और क्या फ़ैसला आता है? अजित पवार दबाव बना रहे हैं कि गृह मंत्रालय उन्हें दिया जाए। वह अपने विधायकों को भी मलाईदार महकमे चाहते हैं। मुम्बई से यह लड़ाई शिफ्ट होकर अब दिल्ली पहुँच गयी है। यदि मामला सुलट जाता है, तो महाराष्ट्र सरकार में जल्द ही एक और मंत्रिमंडल विस्तार देखने को मिलेगा।

दिल्ली में अजित पवार का एनसीपी धड़ा और शिंदे के अलावा भाजपा के राज्य नेता भी हैं। विभागों के पुनर्वितरण को लेकर शिवसेना और एनसीपी के बीच कई दिन तक सहमति नहीं बन सकी। मामला इसलिए अटका क्योंकि भाजपा शिंदे के मंत्रियों पर कुछ ऐसे विभाग छोडऩे का दबाव बना रही थी, जिन्हें अजित गुट के नये बने मंत्रियों को दिया जाना था। शिंदे इसका विरोध कर रहे थे। शपथ के 15 दिन के तक एनसीपी अजित धड़े के 9 मंत्री बिना विभाग काम करते रहे।

शिंदे गुट की शिवसेना के विधायकों का दावा है कि 17 जुलाई से शुरू होने वाले राज्य विधानमंडल के मानसून सत्र से पहले शिंदे मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। इस विस्तार को लेकर शिंदे गुट में बेचैनी है। इस गुट के विधायकों ने एक साल पहले उद्धव ठाकरे का साथ छोडक़र भाजपा के साथ सरकार बनायी थी। तब कई वरिष्ठ विधायकों को मंत्री पद देने का वादा किया गया था। लेकिन एक साल के बाद भी इन लोगों को मंत्री पद के लिए इंतज़ार है। दूसरी तरफ़ अजित पवार बीते 02 जुलाई को अपने नौ विधायकों के साथ मंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि आगामी 17 जुलाई से पहले शिंदे मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं हुआ, तो क्या स्थिति होगी? यह देखना दिलचस्प होगा।

शिंदे गुट की पार्टी के व्हिप भरत गोगावले का कहना है- ‘हम अपने विधायकों से चर्चा करेंगे और फ़ैसला करेंगे। मंत्री नहीं बनने की सूरत में जय महाराष्ट्र (शिंदे शिवसेना को अलविदा) करेंगे।’

भरत गोगावले ने कहा- ‘अब रुकने की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि विधायक फ़ैसले के क़रीब हैं। उन्हें जल्द-से-जल्द फ़ैसला चाहिए, इसलिए मुझे लगता है कि सत्र से पहले मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाएगा।’

दिलचस्प बात यह है कि शिंदे गुट के विधायकों के उद्धव ठाकरे सरकार में सबसे ज़्यादा शिकायत अजित पवार से ही थी। उनका आरोप था कि वित्त मंत्री के नाते अजित पवार शिव सेना विधायकों को पैसा ही नहीं देते थे।

विधायकों की इस नाराज़गी के कारण ही पिछले कुछ दिन से मुख्यमंत्री शिंदे के इस्ती$फे की बड़ी चर्चा है। हालाँकि मंत्री उदय सामंत कहते हैं कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के इस्तीफ़ा देने का सवाल ही नहीं उठता। इस समय मंत्रिमंडल में 29 मंत्री हैं और अभी 14 और विधायकों को मंत्री बनाया जा सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अमित शाह यह सारा विवाद कैसे सुलझाते हैं और शिंदे गुट के विधायकों की नाराज़गी दूर होती है। दूसरे यह देखना भी दिलचस्प होगा कि शिंदे गुट के विधायकों का क़ानूनी विवाद में क्या भविष्य होता है?

निर्दलीयों का राग

महाराष्ट्र के वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से 10 निर्दलीय विधायक भी नाराज़ हैं। यह विधायक 13 जुलाई को मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से मंत्री पद के अपने दावों के साथ मिले थे। हालाँकि बाद में उन्होंने कहा कि वे मंत्री पद का दावे छोड़ रहे हैं। दरअसल प्रहार जनशक्ति पार्टी के प्रमुख और पूर्व मंत्री ओमप्रकाश बी. (बच्चू कडू) शिंदे सरकार के साथ हैं। उनके नेतृत्व वाले निर्दलियों का कहना है कि वे केबिनेट पदों के लिए चल रही माँग से बहुत हतोत्साहित हैं। यहाँ दिलचस्प यह है कि यह विधायक भी अजित पवार के सरकार मेंं शामिल होने से ख़ुश नहीं हैं। कडू का कहना है कि वे 17 जुलाई को बैठक करके अगले दिन अपनी योजनाओं का ऐलान करेंगे।

कडू पहले उद्धव ठाकरे की सरकार के साथ भी रहे हैं। कडू ठाकरे के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उनके अनुरोध पर वह मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व के भरोसे के बाद महाविकास अघाड़ी में शामिल हुए थे और उन्हें (कडू) मंत्री बनाने का वादा भी निभाया गया। हालाँकि उनके मुताबिक, विकलांगता कल्याण के लिए अलग मंत्रालय नहीं बनाने से वे नाराज़ थे। लिहाज़ा सरकार गिरने के बाद शिंदे सरकार में शामिल हुए, जिसने यह मंत्रालय बनाया।

कडू ने कहा- ‘यदि एमवीए ने मंत्रालय बना दिया होता तो हम जून, 2022 में उद्धव को छोडक़र शिंदे के साथ नहीं जाते। अब महाराष्ट्र विकलांगों के लिए समर्पित मंत्रालय वाला अकेला राज्य है; लिहाज़ा हमारा शिंदे के प्रति हमेशा के लिए आभार है। ज़ाहिर है यदि कोई घटनाक्रम होता है और शिंदे बाहर जाने को मजबूर होते हैं, तो यह 10 विधायक भी सरकार से बाहर जा सकते हैं। वह स्वीकार भी करते हैं कि राज्य में बदले राजनीतिक माहौल के साथ ऐसे कई लोग हैं, जो किनारे किये जाने से परेशान हैं। क्योंकि उनका भरोसा टूट रहा है। ज़ाहिर है कि शिवसेना शिंदे-भाजपा-एनसीपी अजित पवार की सरकारी तिकड़ी में अभी कई खेल हो सकते हैं।

महाराष्ट्र की घटनाएँ और विपक्षी एकता

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, झारखंड सीएम हेमंत सोरेन, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल सीएम ममता बनर्जी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे

विपक्ष अपने महागठबंधन को आकार देने के लिए पटना के बाद 17-18 जुलाई को बेंगलूरु में फिर मिलने जा रहा है। इस बैठक में कांग्रेस की नेता सोनिया गाँधी भी शामिल हो सकती हैं। विपक्ष की यह बैठक ऐसे समय में होने जा रही है, जब विपक्षी एकता के सबसे बड़े सूत्रधारों में एक शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी को टूट से नहीं बचा पाये हैं।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसका विपक्षी एकता पर असर पड़ेगा? ख़ुद शरद पवार कह चुके हैं कि विपक्षी एकता की कोशिशें जारी रहेंगी। हालाँकि विपक्ष के ख़ेमे के लिए बड़ी ख़बर यह है कि पटना के मुक़ाबले बेंगलूरु में उसके साथ 24 दल शामिल होने जा रहे हैं। पटना की बैठक में 15 ही दल जुटे थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि बेंगलूरु बैठक में राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के जयंत चौधरी भी आ रहे हैं; जिन्हें लेकर हाल में ये ख़बरें आयी थीं कि वह भाजपा के साथ जा सकते हैं। वह पटना की महागठबंधन की बैठक में भी नहीं आये थे।

बेंगलूरु की बैठक से पहले सोनिया गाँधी ने सभी पार्टियों को डिनर पर बुलाया है। यह डिनर डिप्लोमेसी क्या रंग लाएगी? यह तो समय ही बताएगा। लेकिन सोनिया गाँधी की सक्रियता ज़ाहिर करती है कि कांग्रेस पूरी ताक़त से एकता प्रयास कर रही है। यहाँ दिलचस्प बात यह है कि सोनिया गाँधी ने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) को भी इस डिनर में आमंत्रित किया है। हाल के दिनों में कांग्रेस और आप में केंद्र के दिल्ली को लेकर अध्यादेश पर दोनों दलों में तनातनी दिखी थी। सोनिया गाँधी का यह मूव काफ़ी अहम माना जा रहा है। इससे संकेत मिलता है कि सोनिया गाँधी कुछ मुद्दों पर विपक्ष के बीच की टकराव के मुद्दों को ख़त्म करने की इच्छुक हैं।

एक कांग्रेस सांसद ने ‘तहलका’ को बताया- ‘वह (सोनिया गाँधी) विपक्ष की एकजुटता में वही भूमिका निभाने की तैयारी में हैं, जो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत ने निभायी थी। वह चाहती हैं कि विपक्ष की एकता और भाजपा के विरोध के प्रति कटिबद्ध अधिक से अधिक दलों को साथ जुटना चाहिए।

ज़ाहिर है पटना के बाद इस बैठक में नौ नये दलों के जुडऩे से विपक्षी दलों में उत्साह है; क्योंकि इससे उनकी एकता को बल मिलेगा। बेंगलूरु बैठक में इस बार केडीएमके और एडीएमके भी हिस्सा लेंगे, जो 2014 में भाजपा के गठबंधन का हिस्सा थे।’ वरिष्ठ कांग्रेस नेता आनन्द शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘देश की हवा बदल रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की बड़ी जीत के बाद सत्तारूढ़ ख़ेमे (भाजपा) में चिन्ता भरी है। विपक्ष जिस तेज़ी से एकता अभियान में जुटा है, वह 2024 के चुनाव में चौंकाने वाले नतीजे देने की क्षमता रखता है।’

सूत्रों के मुताबिक, विपक्षी दलों की इस बैठक में सोनिया और राहुल गाँधी दोनों के शामिल होने की संभावना है।

हालाँकि भाजपा विपक्षी एकता का मज़ाक़ उड़ा रही है। भाजपा नेताओं का कहना है कि जो अपनी पार्टी ही सँभाल नहीं पा रहे, वह क्या $खाक एकता करेंगे। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘तहलका’ से कहा- ‘वो न अपनी सरकारें सँभाल पा रहे हैं, न दल। प्रधानमंत्री मोदी दुनिया भर में भारत का नाम ऊँचा कर रहे हैं और यह (विपक्ष) ये ही तय नहीं कर पा रहा है कि उनका नेता कौन होगा?’

एकता की इस दूसरी बैठक में विपक्षी दल सम्भवत: एक से ज़्यादा वर्किंग ग्रुप बना सकते हैं। उन्हें न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) ड्राफ्ट तैयार करने का ज़िम्मा दिया जाएगा।  यह सीएमपी चुनाव में विपक्ष का साझा घोषणा पत्र होगा। उसका काम तमाम साझे मुद्दे ढूँढना होगा, दलों को स्वीकार्य होंगे। वर्किंग ग्रुप के ज़िम्मे सबसे कठिन काम राज्यों में गठबंधन की रूप रेखा बनाना होगा। इसमें भाजपा के ख़िलाफ़ साझा उम्मीदवार उतारना भी शामिल है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, फ़िलहाल महागठबंधन सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए होगा। राज्यों पर बाद में फ़ैसला किया जाएगा। वर्किंग ग्रुप अगस्त से शुरू होने वाली विपक्षी नेताओं की साझा रैलियों की रूपरेखा भी तय करेगा। बेंगलूरु की बैठक में गठबंधन का नाम, पदाधिकारियों के नाम पर चर्चा होगी।

हालाँकि इसकी अन्तिम घोषणा अभी होने की सम्भावना नहीं है। नीतीश कुमार, मल्लिकार्जुन खडग़े, शरद पवार, ममता बनर्जी संयोजक हो सकते हैं। बेंगलूरु बैठक में कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके, आप, जद(यू), राजद, सीपीएम, सीपीआई, एनसीपी, शिवसेना उद्धव, सपा, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, सीपीआई एमएल, जेएमएम, आरएलडी, आरएसपी, आईयूएमएल, केरल कांग्रेस एम, वीसीके, एमडीएमके, केडीएमके, केरल कांग्रेस(जे) और फॉरवर्ड ब्लॉक हिस्सा लेंगे।

पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में टीएमसी का बोलबाला

पश्चिम बंगाल के हिंसा से प्रभावित त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में बड़ी जीत हासिल की है। टीएमसी ने 20 ज़िला परिषदों में सीधे 880 सीटें जीतीं, जबकि उसकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा के हिस्से में 928 में महज़ 31 सीटें ही आयीं। कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन 15 सीटों पर विजयी रहा और दो सीटें निर्दलीय जीते। टीएमसी के लिए साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस बड़ी जीत के कई मायने हैं। टीएमसी ने सभी 20 ज़िला परिषदों पर क़ब्ज़ा कर भाजपा को बड़ा झटका दिया है, जो बेहतर नतीजों की उम्मीद कर रही थी।

राज्य चुनाव आयोग की तरफ़ से घोषित नतीजों के मुताबिक, टीएमसी ने 63,219 ग्राम पंचायत सीटों में से 35,000 से अधिक सीटों पर विजय पताका फहरायी है। भाजपा ने क़रीब 10,000 ग्राम पंचायत सीटों पर, जबकि वाम-कांग्रेस गठबंधन ने 6,000 से अधिक सीटों पर जीत हासिल की है।

पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी

बता दें सन् 2018 के पंचायत चुनाव में भाजपा ने ग्राम पंचायत की 5,779 सीटें जीती थीं। टीएमसी का दावा है कि उसने बिना हिंसा का सहारा लिए इन चुनावों में जीत का जो लक्ष्य रखा था, उसे हासिल करने में वह सफल रही है। पार्टी के मुताबिक, उसे 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अपने ग्रामीण आधार को मज़बूत करने में मदद मिली है और उसने शहरी मतदाताओं का भी भरोसा जीता है।

उधर भाजपा और माकपा-कांग्रेस गठबंधन ने उनके उम्मीदवारों को डराने-धमकाने का टीएमसी पर आरोप लगाया। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने टीएमसी की 22 सीटों के मुक़ाबले 18 लोकसभा सीटें जीतकर टीएमसी को चौंका दिया था। लेकिन ममता बनर्जी ने संगठन को चुस्त करते हुए दो साल बाद 2021 के विधानसभा चुनाव भाजपा के पूरी ताक़त झोंक देने के बावजूद अपनी सीटों को और बढ़ाते हुए 294 सदस्यीय विधानसभा में 215 तक पहुँचा दिया था। भाजपा 77 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। लेकिन उसके बाद पश्चिम बंगाल की ज़मीन पर भाजपा बहुत मज़बूत नहीं हो पायी है। उसके कई बड़े नेता हाल के महीनों में टीएमसी में शामिल हो चुके हैं।

पंचायत चुनाव के नतीजे बताते हैं कि दार्जिलिंग और कलिम्पोंग के पहाड़ी क्षेत्रों में भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) मज़बूत हुआ है। पश्चिम बंगाल के इस पहाड़ी क्षेत्र में बीजीपीएम ने काफ़ी संख्या में पंचायत सीटें जीती हैं। बाक़ी हिस्सों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के बाद इन ज़िलों में 23 साल के बाद द्विस्तरीय पंचायत चुनाव 8 जुलाई को हुए, जिसे गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) क्षेत्र कहते हैं। वहाँ पहले से ही बीजीपीएम नियंत्रित अर्ध-स्वायत्त परिषद् गठित है। ज़िला प्रशासन के मुताबिक, जीटीए के मुख्य कार्यकारी अनित थापा के नेतृत्व वाली बीजीपीएम ने दार्जिलिंग ज़िले की 70 ग्राम पंचायतों में 598 सीटों में से 349 पर क़ब्ज़ा कर लिया।

हिंसा को देखते हुए राज्य चुनाव आयोग ने बड़ी संख्या में दोबारा मतदान के नर्देश दिये। उधर कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में हुई हिंसा को लेकर राज्य चुनाव आयोग और सरकार से नाराज़गी जतायी। भाजपा ने भी टीएमसी सरकार पर हिंसा को लेकर कई आरोप लगाये। हालाँकि सरकार का कहना था कि हिंसा में ज़्यादा जानें, तो टीएमसी के समर्थक लोगों की गयी। लिहाज़ा उस पर हिंसा का आरोप कैसे लगाया जा सकता है?

नतीजों के बाद ममता ने जनता का उनकी पार्टी को समर्थन देने के लिए आभार जताया। उन्होंने कहा कि इन नतीजों से अगले लोकसभा चुनाव के संभावित नतीजों के झलक मिलती है। यह तो तय है कि राज्य में टीएमसी का मुख्य मुक़ाबला भाजपा से ही रहेगा। माकपा और कांग्रेस ने भी काफ़ी सीटें जीतीं हैं। लिहाज़ा माना जा सकता है कि उनकी स्थिति 2021 के विधानसभा चुनाव जैसी नहीं रहेगी, जब दोनों को एक भी सीट नहीं मिली थी। हाल में कांग्रेस ने जब एक उपचुनाव जीता था, तब लगा था कि उसका पुराना वोट बैंक फिर उसके पास लौट रहा है। लेकिन पंचायत चुनाव में कांग्रेस को कोई बहुत बड़ी जीत नहीं मिली है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-माकपा फिर गठबंधन बनाकर मैदान में उतरेंगे या फिर कांग्रेस ममता बनर्जी की टीएमसी के साथ जाना चाहेगी। यह तय है कि यदि महागठबंधन बना, तो टीएमसी और कांग्रेस राज्य में मिलकर लड़ेंगे। लेकिन इस गठबंधन में क्या माकपा भी शामिल होगी? यह एक बड़ा सवाल है। साल के आख़िर तक, जब महागठबंधन की तस्वीर कुछ साफ़ होगी, तभी यह पता चलेगा कि बंगाल में भाजपा के ख़िलाफ़ क्या टीएमसी-कांग्रेस-माकपा का साझा गठबंधन उतरेगा?

गृह मंत्रालय पाकर मज़बूत हुए अजित

महाराष्ट्र में लम्बी खींचतान के बाद आख़िर 14 जुलाई को एनसीपी से टूटकर आये अजित पवार और उनके साथी आठ विधायकों को मंत्रालय मिल गये। इस सारी क़वायद में साफ़ दिखा है कि अजित पवार अपनी मनवाने में सफल रहे हैं। भले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को मन मसोसकर अजित पवार को गृह मंत्री बनाना पड़ा हो, पर इसका असर आने वाले समय में दिख सकता है। शिंदे के साथ उद्धव ठाकरे को छोडक़र भाजपा-शिंदे गठबंधन में कुछ महीने पहले शामिल हुए विधायक अब मंत्री बनाने के लिए शिंदे पर दबाव बढ़ाएँगे। वो पहले से ही यह मुद्दा उठा आ रहे हैं और कह रहे हैं कि जल्दी की मंत्रिमंडल का विस्तार किया जाए।

गृह ही नहीं, महाराष्ट्र की राजनीति में महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले सहकारिता और कृषि विभाग भी अजित पवार की एनसीपी (मंत्री दिलीप वैसे पाटिल) के खाते में गये हैं; जबकि छगन भुजबल, हसन मुशरीफ़ और धनंजय मुंडे को भी अहम विभाग मिले हैं। गृह विभाग पहले उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास था। शिंदे के मंत्रियों को तीन महकमे छोडऩे पड़े, जिनमें ख़ुद शिंदे का राहत और पुनर्वास, संजय राठौड़ का खाद्य और औषधि प्रशासन और अब्दुल सत्तार का कृषि मंत्रालय शामिल हैं।

“भाजपा में 75 साल की उम्र वाले नेता रिटायर हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग (शरद पवार पर तंज) यह बात नहीं समझते हैं। आईएएस अफ़सर 60 साल की उम्र में रिटायर हो जाते हैं। आप (शरद पवार) 83 साल के हो गये हैं। क्या अभी भी रुकने वाले नहीं हैं? हमें आशीर्वाद दीजिए। हम आपकी लम्बी ज़िन्दगी की कामना करेंगे।’’

अजित पवार

उप मुख्यमंत्री 

“कुछ लोगों (अजित-प्रफुल्ल) पर भरोसा करने में गलती हुई, अब नहीं दोहराएँगे। वे मुझे रिटायर होने के लिए कहने वाले कौन होते हैं? मैं अब भी काम कर सकता हूँ। क्या आप जानते हैं कि मोरारजी देसाई किस उम्र में प्रधानमंत्री बने? मैं प्रधानमंत्री या मंत्री नहीं बनना चाहता। लेकिन केवल लोगों की सेवा करना चाहता हूँ।’’

शरद पवार

वरिष्ठ नेता, एनसीपी

“वे (भाजपाई) महाराष्ट्र के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने पहले शिवसेना और अब एनसीपी को तोड़ दिया। वे महाराष्ट्र को तोडऩा चाहते हैं।’’

उद्धव ठाकरे

अध्यक्ष यूबीटी