सेवा विस्तार पर सवाल

एक प्रसिद्ध अंग्रेजी कहावत है कि ‘सीज़र की पत्नी को संदेह से परे होना चाहिए।’ अर्थात् यदि कोई किसी प्रसिद्ध या प्रमुख व्यक्ति या संस्थान से जुड़ा है, तो उसे संदेह की किसी भी स्थिति से बचना चाहिए। याद करें कि सीज़र ने अपनी पत्नी पोम्पिया को यह कहते हुए तलाक़ दे दिया था कि ‘मेरी पत्नी को संदेह के दायरे में भी नहीं आना चाहिए।’

सन् 2021 और सन् 2022 में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) प्रमुख को एक के बाद एक सेवा विस्तार देने के लिए केंद्र सरकार की खिंचाई करते वाली सर्वोच्च न्यायालय की हालिया टिप्पणियों में कहा गया है कि ये दोनों अवैध और अमान्य बिन्दु संदेह की सूई की ओर इशारा करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशक एस.के. मिश्रा को 31 जुलाई को पद छोड़ देने को कहा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2021 में सरकार को निर्देश दिया था कि वह उस साल नवंबर के बाद ईडी निदेशक को कोई विस्तार न दे। इस साल मई में फिर न्यायालय ने ईडी प्रमुख को तीसरा विस्तार देने के लिए सरकार को फटकार लगायी थी। न्यायालय ने कहा था- ‘क्या संगठन में कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है, जो उनकी जगह काम कर सके? क्या एक व्यक्ति इतना अपरिहार्य हो सकता है?’

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ‘यह सरकार की इच्छा पर निर्भर नहीं है कि मौज़ूदा अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया जा सकता है। यह केवल सम्बन्धित नियुक्ति समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर ही किया जा सकता है।’ सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश जारी किया था कि ईडी प्रमुख को कोई और विस्तार नहीं दिया जाएगा। हालाँकि केंद्र ने यह दावा करते हुए मिश्रा को बरक़रार रखा कि विस्तार प्रशासनिक कारणों से ज़रूरी था और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) द्वारा भारत के मूल्यांकन के लिए महत्त्वपूर्ण था।

सीबीआई और ईडी प्रमुखों के लिए सेवानिवृत्ति आयु से इतर दो साल का सुनिश्चित कार्यकाल तय होता है। वर्तमान ईडी प्रमुख को पहली बार 19 नवंबर, 2018 को दो साल के लिए निदेशक नियुक्त किया गया था। बाद में 13 नवंबर, 2020 के एक आदेश में केंद्र सरकार ने नियुक्ति पत्र को पूर्वव्यापी रूप से संशोधित किया और उनका दो साल का कार्यकाल तीन साल में बदल दिया गया। सरकार ने पिछले साल एक अध्यादेश जारी किया और बाद में क़ानून पारित किया, जिसके तहत ईडी और सीबीआई प्रमुखों का कार्यकाल दो साल के अनिवार्य कार्यकाल के बाद तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है।

प्रमुख जाँच एजेंसी की विश्वसनीयता बार-बार ख़राब हुई है; क्योंकि विपक्षी दल अक्सर केंद्र पर ईडी- जो ऐसी एजेंसी हैं, जो धनशोधन और विदेशी मुद्रा क़ानूनों के उल्लंघन के मामलों की जाँच करती है और जिसके पास राजनीतिक हिसाब-किताब तय करने के लिए ‘निरंकुश’ शक्तियाँ हैं; के दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं। अधिकारियों की नियुक्ति या विस्तार पर विवाद ने मामले को और भी बदतर बना दिया है। अब क़ानूनों और नियमों को गंभीरता से लागू करने की ज़िम्मेदारी केंद्र पर है, ताकि दोनों एजेंसियों की कुशल और विवाद-मुक्त कार्यप्रणाली सुनिश्चित की जा सके। यह धारणा नहीं बननी चाहिए कि ईडी मनमाने ढंग से लोगों को उठा रही है और उनकी जाँच कर रही है। शीर्ष न्यायालय की टिप्पणियों ने निश्चित रूप से सरकार और जाँच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय पर यह प्रमाणित करने की ज़िम्मेदारी डाल दी है कि उसकी साख अन्य सब चीज़ों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।