फूलन बनाई जाती है

Sunyakal
फोटो: शैलेंद्र पाण्डेय

उन दिनों आज की तरह के 24 घंटेवाले चैनलों की दुनिया नहीं थी जो अपने दर्शकों को फूलन देवी की सच्ची-झूठी कहानियों से दहलाती और बहलाती. लेकिन तब भी कल्पनाशीलता में कमी नहीं थी और उन दिनों के अखबारों में फूलन देवी की खबरें ‘चंबल के बीहड़ों में दस्यु सुंदरी का आतंक’ जैसे शीर्षक के साथ छपा करती थीं. स्त्री से जुड़े हर खौफनाक अनुभव को एक रोमानी त्रासदी बनाकर बेचनेवाला हिंदी सिनेमा तब भी फूलन देवी के बंबइयां संस्करण तैयार करने में जुटा था और मशहूर फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ के एक पन्ने पर बड़ी ग्लैमरस सी मुद्रा में जंजीरों में जकड़ी रीता भादुड़ी की तस्वीर छपी थी जो किसी फिल्म में फूलन देवी का रोल कर रही थी. यह नहीं पता कि उस फिल्म का क्या हुआ, लेकिन नब्बे के दशक में शेखर कपूर ने बैंडिट क्वीन के नाम से फूलन की जिंदगी पर एक फिल्म बना भी डाली. तब असली फूलन किसी जेल में सड़ रही थी और उसने शेखर कपूर की फिल्म के खिलाफ शायद मुकदमा भी किया था जिसे उन दिनों फूलन देवी के लालच से जोड़कर देखा गया था.

महज बीस बरस की उम्र में उत्तर प्रदेश के गांव-देहातों को अपनी दहशत से दहला देनेवाली यह लड़की जब आत्मसमर्पण के बाद लोगों के सामने आई तब सबने अचरज से देखा कि यह कोई दस्यु सुंदरी नहीं है, उनके पास पड़ोस में रहने वाली ही किसी लड़की की तरह है- इस फर्क के सिवा कि उसने फौजी कपड़े और बूट पहन रखे हैं, बेल्ट बांध रखी है और कंधे पर एक राइफल लेकर चल रही है.

यह सच है कि फूलन कहीं से देवी नहीं थी. वह एक मामूली-सी लड़की थी. लेकिन उसके साथ जो कुछ हुआ, वह गैरमामूली था. उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक मल्लाह परिवार के घर पैदा हुई इस लड़की ने अभाव और गरीबी भी देखी और अपनी पिछड़ी पृष्ठभूमि का अभिशाप भी. बहुत सारी लड़कियां शायद यह सब देखती और झेलती हैं, लेकिन फूलन का जुर्म यह था कि उसने इसे ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया, इसका प्रतिरोध किया. बिल्कुल किशोर उम्र में उसने अपने कमजोर पिता की जमीन हड़पनेवाले अपने चचेरे भाई का विरोध किया, जिसके इशारे पर पहले उसे पुलिसवाले ले गए और फिर वह डाकुओं के साथ हो ली. दोनों जगहों पर उसने अपने पिछड़े और औरत होने की सजा झेली. उसके साथ बार-बार बलात्कार हुए, वह सार्वजनिक तौर पर बेलिबास की गई, उसे मारा-पीटा गया- इन सबके बावजूद, धूल और खून में लिथड़ी वह बची रही तो यह उसका जीवट था, जिंदा रहने की बिलकुल ढीठ जिद थी. वह इन सब से बच निकली, फिर डाकू गिरोह में शामिल हुई, अपना गिरोह भी बनाया और आखिरकार एक दिन वह अपने आततायियों को खोजती हुई बेहमई नाम के उस गांव में पहुंच गई, जिसने उसकी सार्वजनिक जिल्लत न सिर्फ देखी थी, बल्कि इसमें साझेदार भी रहा था. यह 1981 का साल था. फूलन ने गांव के अगड़े मर्दों को कतार में खड़ा करके गोली मार दी. 22 लोग देखते-देखते मौत के घाट उतार दिए गए.

उत्तर भारत की मैदानी पट्टी में सामूहिक बलात्कार नई बात नहीं है. जो कुछ फूलन के साथ हुआ, वह बहुत सारी दूसरी लड़कियों के साथ भी होता रहा होगा- शायद इसलिए कुछ कम कि दूसरों में प्रतिरोध का इतना बल नहीं रहा होगा. लेकिन नया वह प्रतिशोध था जो फूलन देवी ने लिया. अचानक बेहमई राष्ट्रीय सुर्खियों में चला आया. इस मल्लाह ने वक्त की नाव दूसरी तरफ मोड़ दी थी.

यह कहना आसान है कि फूलन ने जो रास्ता चुना, वह सही नहीं था. लेकिन क्या यह सही होता कि फूलन बेहमई से पहले मारी जाती?

इसके बाद की कहानी कम नाटकीय नहीं है. बेहमई के दो साल बाद फूलन ने आत्मसमर्पण कर दिया- इस शर्त के साथ कि आठ साल में उसका मुकदमा ख़त्म हो जाना चाहिए. लेकिन वह 11 साल ग्वालियर की सेंट्रल जेल में सड़ती रही और मुकदमा कायदे से शुरू भी नहीं हुआ. शुक्र है कि इस दशक तक आते-आते भारतीय राजनीति मंडल की गिरफ़्त में आ चुकी थी और निचली और पिछड़ी मानी जाने वाली जातियां अपनी अस्मिता की नई लड़ाई लड़ रही थीं. यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी और फूलन को रिहा कराया गया. मिर्जापुर से चुनाव लड़कर वह सांसद बनी. माला सेन ने उस पर किताब लिखी और शेखर कपूर ने फिल्म बनाई. खुद फूलन ने दूसरे लेखकों की मदद से अपनी आत्मकथा लिखी. लेकिन जिस जातिवादी घृणा और प्रतिशोध ने उसके जीवन को शुरू से छलनी रखा, उसी ने 2001 में उसे गोली मार दी. 13 साल बाद, बीते हफ्ते जब फूलन देवी की हत्या के गुनहगार शेर सिंह राणा को निचली अदालत से सजा सुनाई गई तो अचानक सबको वह दस्यु सुंदरी याद आई जो बाद के दिनों में खाती-पीती गृहस्थन लगा करती थी और जिसे आधुनिक समय की सबसे बड़ी विद्रोहिणियों में एक माना जाता रहा.

यह कहना आसान है कि फूलन ने जो रास्ता चुना, वह सही नहीं था. यह भी कहा जा सकता है कि उसे संसद तक भेजनेवाले नेताओं के भीतर इंसाफ के सब्र से ज्यादा राजनीतिक हिसाब-किताब की हड़बड़ी रही होगी. लेकिन क्या यह सही होता कि फूलन बेहमई से पहले मारी जाती? या वह ग्वालियर की सेंट्रल जेल में सड़कर खत्म हो गई होती? उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव गोरहा का पूर्वा से बरास्ता बेहमई दिल्ली पहुंची फूलन देवी दरअसल याद दिलाती है कि फूलन पैदा नहीं होती, बनाई जाती है. आज भी कई बेहमई हैं जहां फूलन जैसी लड़कियां बेलिबास की जा रही हैं. गरीबी, अभाव, जातिगत जकड़बंदी और राजनीतिक दुरभिसंधि के ठहरे हुए तालाब में फूलन जैसी कोई बागी किसी पत्थर की तरह गिरती है तो उसकी सड़ांध सामने आती है. यह अनायास नहीं है कि समाज से अपना दाय मांग रही पिछड़ी अस्मिताएं फूलन नाम के पत्थर में अपनी देवी भी खोज और देख रही हैं.