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नतीजे और संकेत

भाजपा और शिवसेना गठबंधन ने महाराष्ट्र में अपनी सत्ता बरकरार रखी है और भगवा पार्टी हरियाणा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, लेकिन वह अपने बड़े-बड़े किए गए दावों से कम रह गई है। इस साल के लोकसभा चुनाव में अर्थव्यवस्था और आजीविका के मुद्दों पर गंभीर चर्चा से बचने के लिए भाजपा ने पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट हवाई हमले के सहारे राष्ट्रीय सुरक्षा की चाल चली थी। परिणाम बताते हैं कि राष्ट्रीय चुनावों में कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे अधिक प्रभावी होते हैं। 2019 के आम चुनाव में अपनी जबरदस्त जीत पर जश्न मनाते हुए, भाजपा ने विपक्ष को पूरी तरह से खत्म ही समझ लिया था। इस तरह उसे एक सरल जीत की उम्मीद थी। इन दोनों राज्यों में विपक्ष की उम्मीदें बढ़ी हंै, जबकि सत्तारूढ़ पार्टी की संख्या कम हो गई है। यह भाजपा के लिए एक चेतावनी है जो यह सोच कर सुस्त हो गई थी कि विधानसभा के नतीजे लोकसभा के नतीजों की तर्ज पर ही आंएगे। हरियाणा में भाजपा को बहुमत के लिए जोड़-तोड़ करना पड़ा है। तीन नेता जो नजऱ में हैं उनमें महाराष्ट्र में नेशनल कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के संरक्षक शरद पवार, कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हरियाणा में जननायक जनता पार्टी के युवा नेता दुष्यंत चैटाला हैं। भाजपा को साधारण बहुमत के लिए कम से कम छह विधायकों के समर्थन की जरूरत है। दो राज्यों के परिणाम अलग-अलग मापदंडों के आधार पर बताते हैं कि लोग एक विकल्प के लिए तरस रहे थे और यही कारण है कि पहले हताश, बेजान विपक्ष को भी एक जीवन रेखा मिल गई है।, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन ने महाराष्ट्र में 98 सीटें जीतीं और हरियाणा में, सभी को चैकाते हुए कांग्रेस 31 सीटें ले गई, जोकि 2014 में जीती 15 सीटों से दोगुनी हैं।

परिणामों में कुछ स्पष्ट संदेश हैं। सबसे बड़ा संदेश यह है कि भारतीय लोकतंत्र फिर से जीवित हो रहा है और विपक्ष के लिए अभी भी राजनीति में स्थान है। तथाकथित एक्जिट पोल, विश्लेषणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मतदाता किसी को भी अपना दिमाग नहीं देते हैं और राजनेताओं की तुलना में अधिक चालाक होते हैं। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा की तिकड़ी राष्ट्रीय स्तर पर अजेय हो सकती हैं, लेकिन राज्य के स्तर पर, स्थानीय मुद्दे और स्थानीय नेता मायने रखते हैं। हालांकि, दो राज्य विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद, मोदी की रणनीति को गलत कहना और विजेता की प्रशंसा करना शायद समझदारी नहीं होगी। हरियाणा के अधिकांश मंत्री हार गए, जिसने फिर से साबित कर दिया कि अति-राष्ट्रवाद के लिए शासन में कोई जगह नहीं है। कांग्रेस और बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी यदि यहां राहुल के नेतृत्व की जगह कोई और होता क्योंकि राहलु गांधी कोई ऐसे नए विचार लोगों तक नहीं पहुंचा पाए जो उन्हें स्वीकार्य हो और अपनी ओर आकर्षित करे।

भाजपा और कांग्रेस को सबक दे रहे हैं चुनावी नतीजे

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़ा संकेत हैं। महाराष्ट्र में वो पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 20 सीट पीछे रह गयी है और हरियाणा में तो इस बार 70 पार का उसका नारा सपना ही बनकर रह गया। भले भाजपा दोनों राज्यों में सरकारें बना ले,लेकिन इस चुनाव के नतीजे उसके लिए जो सबसे बड़ा सबक लेकर आये हैं वह यह कि देश के स्थानीय मुद्दों में वो जनता का समर्थन खो रही है और यह भी की उसकी इन चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को भुनाने की कोशिश नाकाम साबित हुई है। हरियाणा में भाजपा की कितनी फजीहत हुई है यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि उसके आठ मंत्री और कुछ बड़े नेता चुनाव में हार गए हैं।

भाजपा विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर ही उतरी थी। दोनों ताकतवर भाजपा नेताओं नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने अपने चुनाव भाषणों में धारा 370 से लेकर पुलवामा-बालाकोट तक को केंद्र में रखा लेकिन हरियाणा में जब स्थानीय मुद्दे हावी हो गए तो भाजपा संकट में आ गई। महाराष्ट्र में भी भाजपा की 20 सीटें घट जाना इस बात का संकेत है कि जनता का उसमें भरोसा कम हो रहा है।

साल 2014 के मुकाबले महाराष्ट्र में भाजपा की 20 सीटें घट गयी हैं। यह उसके लिए बड़ी चोट और चिंता का विषय है। भले नतीजों के बाद कार्यकर्ताओं का मनोबल रखने के लिए पीएम मोदी ने कहा हो कि भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है, सच यह है कि इन चुनाव नतीजों के बाद भाजपा खेमे में गहन निराशा है। उसे जिस बम्पर जीत की आदत पिछले कुछ सालों में पडी है और जैसे वह उम्मीद कर रही थी वैसा नतीजा यह बिलकुल नहीं रहा है।

भाजपा पिछले महीनों में जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की तरफ झुकी है उसे लगता था, यह उसे लम्बे समय तक चुनावी लाभ देगा लेकिन इस चुनाव में जनता ने उसका यह भ्रम तोड़ दिया है और उसे संकेत दिया है कि उसे जनता के मुद्दों की कद्र और फिक्र करनी होगी। हिन्दू-मुस्लिम, पाकिस्तान के तनाव को चुनाव में भुनाने और धारा 370जैसे मुद्दों की उसकी कोशिश चुनाव में उसे कोई लाभ नहीं दे पाई है। पाकिस्तान के साथ टकराव को उभार कर जिस ‘राष्ट्रवाद’ को भाजपा ने मई के लोकसभा चुनावों में भुनाया था और इस चुनाव में उसकी पुनरावृत्ति की उम्मीद कर रही थी, उसमें उसे तगड़ा झटका लगा है।

जम्मू कश्मीर में धारा 370 के ज़्यादातर प्रावधानों को खत्म करने से भाजपा को भरोसा था कि इसका चुनाव में उसे लाभ मिलेगा लेकिन यह भी नहीं हुआ है। सच यह है कि भाजपा को धारा 370 के मसले पर इतना भरोसा था कि उसे बम्पर जीत मिलने जा रही है। लेकिन महाराष्ट्र में उसकी सीटें घट गयी और हरियाणा में तो उसे लेने के देने ही पड़ गए हैं।

भाजपा भले अब चेहरा बचाने के लिए कहे कि वह दोनों राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी रही है और महाराष्ट्र में शिव सेना के गठबंधन के साथ वह सत्ता में लौट रही है, सच यह है कि सीटों की कमज़ोर संख्या ने दोनों राज्यों में भाजपा को गहरा जख्म दिया है।

भाजपा ने महाराष्ट्र में वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ देने की बात अपने चुनाव घोषणा पत्र में जोड़़ी थी लेकिन इस मसले पर भी उसे जनता का समर्थन नहीं मिला।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के नतीजों के बाद यह लगातार दूसरी बार है कि भाजपा को स्थानीय और रोज़गार, किसान, मंदी जैसे मुद्दों पर जनता ने समर्थन देने से गुरेज किया है।

आर्थिक मंदी की इतनी चिंता के बावजूद भाजपा के नेताओं ने इसे एक मज़ाक के विषय के रूप में लिया। वो कभी भी इस मसले पर गम्भीर नहीं दिखे। नौकरियों की हालत खराब है और भाजपा इसे मुद्दा नहीं बनने देना चाहती। इससे जनता के मन में यह सन्देश जा रहा है कि भाजपा उसकी रोजी-रोटी-रोज़गार के लिए गंभीर नहीं है। यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। महाराष्ट्र में भाजपा को गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे के हारने से भी बड़ा झटका लगा है।

महाराष्ट्र में भले भाजपा ने शिव सेना के बूते सरकार बनाने की स्थिति पा ली है, लेकिन नतीजों से निश्चित ही उसके खेमे में चिंता पैदा हुई है। यह भी साबित हो गया है कि महज चार महीने पहले लोकसभा के चुनाव में जिन पीएम मोदी की तुती बोल रही थी, वह इस चुनाव में कहीं नहीं दिखी है। भाजपा ने पिछले कुछ सालों में खुद को सिर्फ दो नेताओं -मोदी और शाह- के इर्दगिर्द समेट लिया है। अब इसके खराब नतीजे सामने आ रहे हैं।

महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस का कोई फैक्टर नहीं चला है। चला होता तो भाजपा की सीटें इस तरह कम नहीं हुई होती। हरियाणा में पीएम मोदी की करीब आधा दर्जन चुनाव रैलियां हुईं और अमित शाह ने भी काफी रैलियां कीं। सभी में उन्होंने खुद को राष्ट्रीय मुद्दों तक सीमित रखा। महाराष्ट्र और हरियाणा में पीएम मोदी ने कमोवेश हर चुनाव सभा में कांग्रेस को चुनौती दी कि वह धारा 370 को खत्म करने का वादा जनता से करे लेकिन इसका कोई असर जनता पर नहीं पड़ा।

वीर सावरकार को भाजपा महाराष्ट्र में बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी लेकिन वह नहीं चला। भाजपा के बड़े नेताओं ने बहुत कम लोकल मुद्दों को इन चुनावों में एहमियत दी। वे पीएम मोदी और अमित शाह को जिस तरह घारा 370 और बालाकोट का श्रेय देना चाहते थे लेकिन जनता ने इन मुद्दों के आधार पर वोट किया ही नहीं।

यह साफ है कि इन चुनावों में कांग्रेस की निष्क्रियता ने भाजपा को, जो भी उसने हासिल किया, उसका अवसर प्रदान किया। राजनीतिक लिहाज से यह कांग्रेस के बड़ी हार है। नतीजे देखकर लगता है कि कांग्रेस के पास इन दोनों राज्यों में बहुत बेहतर करने का अवसर था लेकिन वह नहीं कर पाई।

चुनाव से पहले ही कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी के समर्थकों के बीच बंट गयी थी। हां, कांग्रेस ने एक रणनीति के तहत एक समझदारी ज़रूर की। उसने राष्ट्रीय नेताओं को जानबूझकर महाराष्ट्र और हरियाणा में मैदान में नहीं उतारा। पार्टी नहीं चाहती थी कि यह चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों में तब्दील हो जाए। कांग्रेस ने हरियाणा में अपने राज्य प्रभारी गुलाम नबी आजाद तक की जनसभा नहीं रखी, सोनिया गांधी एक बार भी नहीं आईं जबकि राहुल को सोनिया की रद्द की रैली में भेजा गया।

कांग्रेस ने तो कोई बेहतर रणनीति इन चुनावों के लिए नहीं बनाई न उसने जीत की कोई मजबूत इच्छाशक्ति ही दिखाई। ऐसे में भी कांग्रेस और जेजेपी ने भाजपा की हरियाणा में यह हालत कर दी तो समझा जा सकता है कि कांग्रेस एकजुट होती तो क्या नतीजा निकलता। हुड्डा को पहले ही अध्यक्ष का जिम्मा दे दिया गया होता तो भाजपा की क्या हालत होती।

महाराष्ट्र में कांग्रेस एनसीपी से भी पीछे रह गयी है और चैथी पार्टी है। इसलिए इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए भी संकेत हैं कि उसे जागना होगा नहीं तो वह इतिहास की चीज हो जाएगी। उसका देश भर में जनाधार है यह इस चुनाव के नतीजे महाराष्ट्र में भी साबित करते हैं। वहां कुछ नहीं करने के बावजूद उसे पिछली बार से दो सीट ज्यादा मिली हैं। लिहाजा कांग्रेस यदि खुद को मुख्यधारा में ला सके तो भाजपा के लिए आज भी वह बहुत बड़ी चुनौती है।

इन चुनाव नतीजों से भाजपा में तो कोई फेरबदल नहीं होगा, कांग्रेस की राजनीति दिसंबर के संगठन के चुनाव में करबट ले सकती है। राहुल गांधी, जिनके अध्यक्ष रहते कांग्रेस ने पिछले दिसंबर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव जीते थे, फिर कांग्रेस की मुख्य धारा में लौट सकते हैं। और शायद ज़्यादा ताकत के साथ। वैसे प्रियंका गांधी के अध्यक्ष बनने की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

हरियाणा में जाट बनाम अन्य

राजनीति पूरी ताकत से चली है लेकिन वहां लोगों ने आज के गंभीर मुद्दों पर भाजपा और उसके राष्ट्रीय नेतृत्व के उदासीन रवैया अपनाने पर भी आक्रोश दिखाया है। हरियाणा में भाजपा बहुमत से दूर रह गयी। उसे वहां आरोपी गोपाल कांडा जैसे नेताओं से सहयोग लेना होगा।

भाजपा जाटों के मामले में कितनी अनिश्चित है, यह तभी साफ हो गया था जब उसने टिकट जारी किये थे। जहां 2014 में भाजपा ने 27 जाट समुदाय के उम्मीदवार उतारे वहीं इस बार सिर्फ 17 टिकट इस समुदाय को दिए। जाट वैसे ही भाजपा से नाराज थे और ऊपर से पिछले कुछ सालों खासकर जाट आंदोलन के दौरान सरकार के मंत्रियों का इस समुदाय के प्रति रवैया भी जाटों को नाराज कर गया।

जाट आरक्षण आंदोलन के बाद ही साफ होने लगा था कि भाजपा को अगले चुनाव में इस समुदाय का समर्थन शायद ही मिले। इसने पार्टी की धारणा भी बदली और टिकट वितरण में यह साफ हो गया कि भाजपा मान चुकी है कि उसे जाटों का समर्थन नहीं मिलेगा लिहाजा उनका प्रतिनिधित्व टिकटों में कम कर दिया।

हरियाणा में हमेशा जाति की राजनीति होती रही है और इस बार के चुनाव नतीजे यह साबित कर रहे हैं कि इस बार भी इसका असर रहा। पिछले विधानसभा और बीते लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को इस वर्ग का खुलकर साथ नहीं मिला था। वरिष्ठ पत्रकार नरेंद्र विद्यालंकार कहते हैं – ‘जब 2016 में जाट आरक्षण आंदोलन हुआ तभी यह साफ हो गया था कि 2019 का विधानसभा चुनाव हरियाणा में जाट बनाम गैर-जाट का चुनाव होगा। आम तौर पर बिरादरियों में खटास पैदा हो गई थी। यह अलग बात है कि भाजपा ने इसके बाद भी जाटों को मनाने की कोशिश जारी रखी लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिली।’

इस बार भी भाजपा ने पंजाबी चेहरे के रूप में मनोहर लाल खट्टर को चुनाव में आगे किया जिससे यह साफ हो गया कि बहुत कम ही जाट समर्थन भाजपा को मिल पायेगा। इस चुनावमें भाजपा के मंत्रियों की इतनी बड़ी संख्या में हार जाहिर करती है कि स्थानीय मुद्दों के चुनाव में उसे हार मिली है और चुनाव प्रचार में पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का राष्ट्रीय मुद्दों को ताकत से उभारना भी भाजपा के काम नहीं आया।

रोहतक, सोनीपत, जींद, कैथल, सिरसा, झज्जर, फतेहाबाद और भिवानी जिलों में जाट समुदाय का असर जबरदस्त रहा है और इन नतीजों में यह साफ दिखा है। वहां भाजपा को मार सहनी पड़ी है। करीब 23 सीटों पर जाट ताकतवर हैं। पुलवामा-बालाकोट की हवा के बावजूद लोकसभा चुनाव में जाट भाजपा के साथ नहीं गए और विधानसभा चुनाव में तो जाटों ने भाजपा को कमोवेश नकार ही दिया है।

भाजपा के कई दिग्गज मंत्री इस चुनाव में निपट गए।हरियाणा में दुष्यंत चैटाला नए युवा तुर्क के रूप में उभरे हैं। वहां उनकी नई नवेली पार्टी जेजेपी ने जैसा प्रदर्शन किया है उससे जाहिर हो गया है की हरियाणा की जनता ने चैटाला परिवार की जंग में अजय-दुष्यंत चैटाला की पार्टी को समर्थन दिया है। एक साल से भी कम समय में जेजेपी ने हरियाणा की राजनीति में अच्छी खासी पकड़ बना ली है और इसका श्रेय निश्चित ही दुष्यंत चैटाला की छवि और मेहनत को दिया जायेगा।

आने वाले समय में जेजेपी हरियाणा में एक ताकत के रूप में उभरेगी इसमें कोई दो राय नहीं है। वहां कांग्रेस अभी ताकतवर है यह भी इस चुनाव में साबित हो गया है वह भी उस सूरत में जब कांग्रेस आलाकमान की कोई बड़ी भूमिका चुनाव प्रचार में नहीं दिखी। हरियाणा के नतीजों में कांग्रेस के बड़े नेता और आलाकमान के नजदीक मायने जाने वाले राजनदीप सिंह सुरजेवाला को भी हारने के कारण झटका लगा है। सुरजेवाला कुछ महीने पहले विधानसभा का उपचुनाव भी हार गए थी। हरियाणा में जेजेपी ने खुद को ऐसी स्थिति में ला दिया है कि उसकी मदद के बिना अब सरकार नहीं बन पाएगी।

हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस दोनों में कई टिकटों का गलत वितरण हुआ जिससे पार्टी के नेता बागी हो गए। भाजपा ने दूसरी पार्टी के विवादित नेताओं को गले लगा लिया जिससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में असंतोष फैला और उन्होंने चुनाव प्रचार में गंभीर भागीदारी नहीं की। मुख्यमंत्री मनोहरलाल ने पूरी ताकत अपने हाथ में रखी, मंत्री भी पूरे पांच साल खुद को उपेक्षित महसूस करते रहे। जाट, यादव और राजपूत वोटर्स पार्टी से छिटक गए जिसका उसे बहुत नुक्सान हुआ। भाजपा के घोषणा पत्र में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था। प्रचार में केंद्रीय मुद्दों पर फोकस रखा, आम लोगों की समस्याओं को नहीं उठाया गया जिसका उसे नुक्सान हुआ। पार्टी नेताओं का अहंकार भी उसे नुक्सान कर गया।

उधर कांग्रेस ने हुड्डा को बहुत देर से चुनाव में उतारा। पहले लीडरशिप दी होती तो शायद नतीजे कुछ और होते। कांग्रेस में भी कई टिकटों का गलत वितरण हुआ जिससे कम से काम 10 सीटों पर उसे नुकसान झेलना पड़ा। कई बड़े नेता चुनाव के समय पार्टी छोडक़र दूसरे दलों में चले गए इससे माहौल पार्टी के खिलाफ बना। सबसे बड़ा नुकसान टीवी चैनेलों के सर्वों से हुआ जो बीजीपी को लगातार 70 से ज्यादा सीटें दिखाते रहे इससे जनता में भ्रम बना। इससे कांग्रेस वर्कर का मनोबल भी कमजोर हुआ। घोषणा पत्र का सही से प्रचार नहीं किया, नेताओं ने आम लोगों तक पहुंच नहीं बनाई। भाजपा के खिलाफ जनता के मूड को कांग्रेस पूरी ताकत से कैश नहीं कर पाई। जबकि जेजेपी ने कही ज़्यादा बेहतर तरीके से जनता में जाकर भाजपा विरोध को भुनाया।

महाराष्ट्र में भाजपा का सपना टूटा

महाराष्ट्र में भाजपा का सपना टूट गया। सपना था अपने बूते बहुमत ले लेना। लेकिन भाजपा 2014 के विधानसभा चुनावों के बराबर भी सीटें नहीं ले पाई। बल्कि करीब 20 सीटें पीछे रह गयी। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ा झटका है। अब शिव सेना के सहारे के बिना भाजपा की सरकार नहीं बन सकती। शिव सेना ने नतीजे आते ही 50-50 की बात कहनी शुरू कर दी है। यानी ढाई-ढाई साल दोनों का मुख्यमंत्री। भाजपा के अनुमान ही नतीजों ने गलत साबित नहीं किये हैं, टीवी चैनलों के तमाम सर्वे भी फेल हो गए हैं। सामना में नतीजों के बाद शिव सेना ने भाजपा को चाल बदलने की भी नसीहत दी है।

सूबे के नतीजे बताते हैं कि वहां भाजपा और शिव सेना ने अपने साथियों यानी एक-दूसरे का ईमानदारी से साथ नहीं दिया है। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और अपने बूते बहुमत चाहती थी और शिव सेना ऐसा होते हुए रोकना चाहती थी।

जिस कांग्रेस ने महाराष्ट्र में कुछ काम ही नहीं किया वो भी पिछली बार के मुकाबले एक सीट ज़्यादा जीत गयी पिछली बार से। इससे जाहिर होता है कि यदि वहां कांग्रेस ने खूब म्हणत की होती और एनसीपी-कांग्रेस इ ज़्यादा बेहतर तालमेल से चुनाव लड़ा होता तो नतीजे कुछ और भी हो सकते थे।

महाराष्ट्र में एक मौके पर यह भी विचार आया था कि शरद पवार की एनसीपी का कांग्रेस में विलय कर दिया जाये और एक ताकत के रूप में चुनाव शरद पवार के नेतृत्व में लड़ा जाए जो मराठों के मजबूत नेता हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो कांग्रेस भाजपा को इस चुनाव में चैंकाने की स्थिति में होती। वैसे भविष्य में इस तरह के विलय से इंकार नहीं किया जा सकता।

महाराष्ट्र की सियासत में शरद पवार को चाणक्य कहा जाता है। पवार 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए और चार बार सीएम रहे। कांग्रेस से राजनीतिक पारी शुरू करने वाले शरद पवार ने 1999 में एनसीपी का गठन किया। परिवार का सबसे ज़्यादा राजनीतिक प्रभाव मराठवाड़ा इलाके के बारामती और ग्रामीण पुणे के आसपास के इलाकों में है। शरद पवार की राजनीतिक विरासत अब बेटी सुप्रिया सुले और भतीजे अजीत पवार संभाल रहे हैं। सुप्रिया राज्यसभा सदस्य हैं और अजीत पवार भी महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं और विधायक हैं।

महाराष्ट्र की सियासत बिना ठाकरे परिवार के पूरी नहीं होती। ठाकरे परिवार का कोई सदस्य पहली बार चुनाव मैदान में उतरा और जीता है। यही नहीं शिव सेना ने महारष्ट्र में अपनी राजनीतिक ताकत इस चुनाव में बढ़ा ली है। पिछली बार से ज्यादा सीटें उसे मिली हैं। बालासाहेब ठाकरे ने 1966 में शिवसेना का गठन किया था और उसके बाद वह महाराष्ट्र की राजनीति में एक बड़ी ताकत रही है।

शिवसेना का राजनीतिक प्रभाव सबसे ज्यादा कोकंण और मुंबई और आसपास के इलाकों में है। बाला साहेब ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब उनके बेटे उद्धव ठाकरे के हाथों में है और शिवसेना के अध्यक्ष हैं। भतीजे राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाकर ताकत हासिल करने की कोशिश की लेकिन बात कुछ ज़्यादा जमी नहीं है लिहाजा ठाकरे परिवार की विरासत आदित्य ठाकरे चुनावी मैदान में उतरकर संभाल रहे हैं। वैसे महाराष्ट्र परिवारों के इर्दगिर्द घूमती रही है। ठाकरे और पवार परिवार के अलावा मुंडे परिवार, चव्हाण परिवार, भुजबल परिवार और नारायण राणे परिवार का दबदवा रहा है।

टीवी चैनलों के सर्वे फेल

इस बार महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में टीवी चैनलों के सर्वों की पोल खुल गयी है। कमोवेश सभी सर्वे गलत साबित हुए हैं। महाराष्ट्र में यह सर्वे भाजपा -सेना को 200 पार और हरियाणा में 70 पार बता रहे थे। लेकिन नतीजे इसके विपरीत आये हैं। कुछ चैनलों ने तो महारष्ट्र में भाजपा को अपने बूते बहुमत दिखाया था जो बिलकुल गलत साबित हो गया है। अतीत में कई बार टीवी चैनलों के सर्वे धराशाही हुए हैं। महाराष्ट्र में अधिकतर सर्वे भाजपा को 150 प्लस बता रहे थे लेकिन वह 104 के आसपास सिमट गयी है। हरियाणा में तो कांग्रेस ने भाजपा को चैंका ही दिया है जहाँ भाजपा 41पर सिमट गयी।

हरियाणा में कौन कौन जीता

आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी के कुलदीप बिश्नोई ने 29471 वोटों से जीत दर्ज की और भारतीय जनता पार्टी की सोनाली फोगाट को हराया। अंबाला कैंट विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के अनिल विज ने आज़ाद उम्मीदवार चित्रा सिरवारा को हराकर 20165 वोटों से जीत हासिल की। अंबाला शहर से भारतीय जनता पार्टी के असीम गोयल ने आज़ाद उम्मीदवार निर्मल सिंह मोहरा को हराकर 8952 वोटों से जीत दर्ज की। असंध से कांगे्रस के शमशेर सिंह गोगी 1703 वोटों से जीते और बहुजन समाज पार्टी के नरेंद्र सिंह को हराया। बाढडा से जन नायक जनता पार्टी की नैना सिंह 13704 वोटों से जीत दर्ज कर कांग्रेस के रणबीर सिंह महेंद्रा को हराया है। बड़ख़ल से भाजपा की सीमा त्रिखा ने कांग्रेस के विजय प्रताप सिंह को हराकर 2541 वोटों से जीत हासिल की है। बादली से कांग्रेस के कुलदीप वत्स ने भाजपा के ओम प्रकाश धनखड़ को हराकर 11245 वोटों से जीत दर्ज की है। कालका से कांग्रेस के प्रदीप चैधरी ने भाजपा की लतिका शर्मा को हराकर 5931 मतों से जीत दर्ज की। लाडवा से कांग्रेस उम्मीदवार मेवा सिंह ने 12637 वोटों से जीत हासिल की और भाजपा के पावन सैनी को हराया है। शाहबाद से जेजेपी के राम कर्ण ने भाजपा के कृष्ण कुमार को हराकर 37127 वाटों से जीत हासिल की है। थानेसर से बीजेपी के सुभाष सुधा ने कांग्रेस के अशोक कुमार अरोड़ा को हराया और 842 वाटों से जीते हैं। पिहोवा से भाजपा के संदीप सिंह ने कांग्रेस के मनदीप सिंह च_ा को हराकर 5314 वाटों से जीत दर्ज की है। कलायत से बीजेपी के कमलेश ढांडा ने कांग्रेस के जय प्रकाश को हराकर 8974 वोटों से जीते हैं। पानीपत ग्रामीण से भाजपा के महीपाल ढांडा ने 21961 से जीतकर जेेजेपी के देवेन्द्र कादियान को हराया है। पानीपत शहरी से भाजपा के प्रमोद कुमार विज ने कांग्रेस के संजय अग्रवाल को हराकर 39545 वाटों से जीतें हैं। गन्नौर से बीजेपी की निर्मल रानी ने कांग्रेस के कुलदीप शर्मा को हराकर 10280 वाटों से जीत हासिल की है। राई से भाजपा के मोहन लाल बदौली ने कांग्रेस के जयतीर्थ को हराकर 2662 वाटों से जीते हैं।

उन्होंने बताया कि खरखौदा से कांग्रेस के जयवीर सिंह ने जेजेपी के पवन कुमार को हराकर 1544 वाटों से जीत दर्ज की है। गोहाना से कांग्रेस के जगबीर सिंह मालिक ने लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के राजकुमार सैनी को हराकर 4152 वाटों से जीत हासिल की है। जुलाना से जेजेपी के अमरजीत ढांडा ने बीजेपी के परमिंदर कुमार ढुल को हराकर 24193 वाटों से जीते हैं। जींद से भाजपा के कृष्ण लाल मिड्ढा ने जेजीपी के महाबीर गुप्ता को हराकर 12508 वोटों से जीतें हैं। नरवाना से जेजेपी के राम निवास ने बीजेपी की संतोष रानी को हराकर 30692 वोटों से जीत हासिल की है।

इसी प्रकार, डबवाली से कांग्रेस के अमित सिहाग ने भाजपा के आदित्य को हराकर 15647 वोटों से जीत दर्ज की है। सिरसा से हरियाणा लोकहित पार्टी के गोपाल कांडा ने निर्दलीय उम्मीदवार गोकुल सेतिया को 602 वोटों से हराकर जीत हासिल की। नारनौंद से जेजेपी के राम कुमार गौतम ने बीजेपी के कैप्टन अभिमन्यु को 12029 वोटों से हराकर जीत दर्ज की है। हांसी से बीजेपी के विनोद भ्याना जेजेपी के राहुल मक्कड़ को हराकर 22260 वोटों से जीते हैं। नारनौल से बीजेपी के ओमप्रकाश यादव जेजेपी के कमलेश सैनी को हराकर 14715 वोटों से जीते हैं। पृथला से निर्दलीय उम्मीदवार नयन पल कांग्रेस के रघुबीर तवेतिया को हराकर 16429 वोटों से जीते हैं। फरीदाबाद एनआईटी से कांग्रेस के नीरज शर्मा ने भाजपा के नागेंद्र बडाना को 3242 वोटों से हराकर जीत दर्ज की है। बल्लभगढ़ से मूल चन्द शर्मा ने कांग्रेस के आनंद कौशिक को हराकर 41713 मतों से जीते हैं। पूंडरी से निर्दलीय उम्मीदवार रणधीर सिंह गोलन ने कांग्रेस के अनिल कुमार को हराकर 12824 मतों से जीत दर्ज की है। घरोंडा से जेजेपी के हरविंदर कल्याण ने कांग्रेस के अनिल कुमार को हराकर 17402 वोटों से जीत हासिल की है। बरवाला से जेजेपी के जोगी राम सिहाग ने भाजपा के सुरिंदर पुनिया को हराकर 3908 वोटों से जीत दर्ज की है। लोहारू से भाजपा के जयप्रकाश दलाल 17677 वोटों से जीते और कांग्रेस के सोमवीर सिंह हारे हैं। दादरी से निर्दलीय उम्मीदवार सोमबीर सिंह ने जेजेपी के सतपाल सांगवान को 14272 वोटों से हराकर जीत दर्ज की है। गढ़ी सांपला किलोई से कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भाजपा के सतीश नांदल को हराकर 58312 वोटों से जीत हासिल की है।

उन्होंने बताया कि फिरोजपुर झीरका से कांग्रेस के मामन खान ने भाजपा के नसीम अहमद को 37004 मतों से हराकर जीत दर्ज की है। हिसार से भाजपा के डॉ कमल गुप्ता ने कांग्रेस के रामनिवास रारा को हराकर 15832 वोटों से जीते हैं। कालांवाली से कांग्रेस के शीशपाल ने भाजपा के राजेन्द्र सिंह दिसोजदा को हराकर 19243 वोटों से जीत दर्ज की है। खरखौदा से कांग्रेस के जयवीर सिंह ने जेजेपी के पवन कुमार को हराकर 1544 वोटों से जीत हासिल की है। नूंह से कांग्रेस के आफताब अहमद ने भाजपा के जाकिर हुसैन को हराकर 4038 मतों से जीत दर्ज की। रानिया से निर्दलीय रणजीत सिंह ने हरियाणा लोकहित पार्टी के गोबिंद कांडा को हराकर 19431 मतों स जीते हैं। समालखा से कांग्रेस के धर्म सिंह छोकर ने भाजपा के शशिकांत कौशिक को हराकर 14942 मतों से जीते हैं। सोहना से भाजपा के संजय सिंह ने जेजेपी के रोहताश सिंह को हराकर 12453 वोटों से जीते हैं। सोनीपत से कांग्रेस के सुरेन्द्र पंवार ने भाजपा की कविता जैन को हराकर 32878 मतों से जीते हैं। तिगांव से भाजपा के राजेश नागर ने कांग्रेस के ललित नागर को हराकर 33841 मतों से जीत दर्ज की है। टोहाना से जेजेपी के देवेन्द्र सिंह ने भाजपा के सुभाष बराला को हराकर 52302 मतों से जीत दर्ज की है। तोशाम से कांग्रेस की किरण चैधरी ने भाजपा के शशि रंजन परमार ने हराकर 18059 मतों से जीत दर्ज की है। नारायणगढ़ से कांग्रेस की शैली ने भाजपा के सुरेंद्र सिंह को हराकर 20600 वोटों से जीत दर्ज की है। मुलाना से कांग्रेस के वरूण चैधरी भाजपा के राजबीर सिंह को हराकर 1688 मतों से जीतें। साढौरा से कांग्रेस की रेणू बाला ने भाजपा के बलवंत सिंह को हराकर 17020 वोटों से जीत दर्ज की। रादौर से कांग्रेस के बिशल लाल ने भाजपा के डॉ. पवन सैनी को हराकर 2541 वोटों से जीत हासिल की। गुहला से जेजेपी के ईश्वर सिंह ने कांग्रेस के चैधरी दीलू राम को हराकर 4574 वोटों से जीत दर्ज की। कैथल से भाजपा के लील राम ने कांग्रेस के रणदीप सिंह सुरजेवाला को हराकर 1246 वोटों से जीत दर्ज की। नीलोखेड़ी से आजाद उम्मीदवार धर्मपाल गोंदर भाजपा के भगवान दास को हराकर 2222 वोटों से जीते।

करनाल से भाजपा के मनोहर लाल ने कांग्रेस के त्रिलोचन सिंह को हराकर 45188 वोटों से जीत दर्ज की। इसराना से कांग्रेस के बलबीर सिंह ने भाजपा के कृष्ण लाल पंवार को हराकर 20015 वोटों से जीत दर्ज की। बरौदा से कांग्रेस के श्री हरी कृष्ण हुड्डा ने भाजपा के योगेश्वर दत को हराकर 4840 वोटों से जीत दर्ज की। सफीदों से कांग्रेस के सुभाष गांगोली ने भाजपा के बच्चन सिंह आर्य को हराकर 3658 वोटों से दर्ज की। फतेहाबाद से भाजपा के दूरा राम ने जेजेपी के डॉ. वीरेंद्र सिवाच को हराकर 3300 वोटों से जीत दर्ज की। रतिया से भाजपा के लक्ष्मण नापा ने कांग्रेस के जरनैल सिंह को हराकर 1216 वोटों से जीत हासिल की है। ऐलनाबाद से इंडियन नेशनल लोकदल के अभय चैटाला ने भाजपा के पवल बेनीवाल को हराकर 11922 वोटों से जीत दर्ज की। उकलाना से जेजेपी के अनूप धानक ने भाजपा के आशा खेदर को हराकर 23693 वोटों से जीत दर्ज की। नलवा से भाजपा के राणबीर गंगवा ने कांग्रेस के रणधीर पणिहार को हराकर 9672 वोटों से जीत दर्ज की। भिवानी से भाजपा के घनश्यामदास सर्राफ ने जेजेपी के डॉ. शिव शंकर भारद्वाज को हराकर 27884 वोटों से जीत हासिल की।

बवानी खेड़ा से भाजपा के बिशम्बर सिंह ने कांग्रेस के रामकिशन फौजी को हराकर 10895 वोटों से जीत दर्ज की। झज्जर से कांग्रेस की गीता भुक्कल ने भाजपा के राकेश कुमार को हराकर 14999 वोटों से जीत हासिल की। बेरी से कांग्रेस के रघुवीर सिंह कादियान ने भाजपा के विक्रम कादियान को हराकर 12952 वोटों से जीत दर्ज की। नांगल चैधरी से भाजपा के अभय सिंह यादव जेजेपी के मूलाराम को हराकर 20615 वोटों से जीते। पटौदी से भाजपा के सत्यप्रकाश ने आजाद उम्मीदवार नरेंद्र सिंह को हराकर 36579 वोटों से जीते। बादशाहपुर से आजाद उम्मीदवार राकेश दौलताबाद ने भाजपा के मनीष यादव को हराकर 10186 वोटों से जीत दर्ज की। गुडग़ांव से भाजपा के सुधीर सिंगला ने आजाद उम्मीदवार मोहित ग्रोवर को हराकर 33315 वोटों से जीत दर्ज की। फरीदाबाद से भाजपा के नरेंद्र गुप्ता ने कांग्रेस के लख्खन कुमार सिंगला को हराकर 21713 वोटों से जीत हासिल की।

पंचकूला से भाजपा के ज्ञान चंद गुप्ता ने कांग्रेस के चंद्र मोहन को हराकर 5633 वोटों से जीत दर्ज की। महम से आजाद उम्मीदवार बलराज कुंडु ने कांग्रेस के आनंद सिंह को हराकर 12047 वोटों से जीत हासिल की। रोहतक से कांग्रेस के भारत भूषण बतरा ने भाजपा के मनीष कुमार ग्रोवर को हराकर 2735 वोटों से जीत दर्ज की। कलानौर से कांग्रेस के शकुंतला खटक ने रामअवतार वाल्मिीक को हराकर 10624 वोटों से जीत दर्ज की। बहादुरगढ़ से कांग्रेस के राजेंद्र सिंह जून ने भाजपा के नरेश कौशिक को हराकर 15491 वोटों से जीत हासिल की। रेवाड़ी से कांग्रेस के चिरंजीव राव ने भाजपा के सुनील कुमार को हराकर 1317 वोटों से जीत दर्ज की। पुन्हाना से कांग्रेस के मोहम्मद इलियास ने आजाद उम्मीदवार रहिश खान को हराकर 816 वोटों से जीत दर्ज की। पलवल से भाजपा के दीपक मंगला ने कांग्रेस के करण सिंह को हराकर 28296 वोटों से जीत दर्ज की है। इन्द्री से भाजपा के राम कुमार ने आजाद उम्मीदवार रमेश कांबोज को हराकर 7431 वोटों जीत दर्ज की है। बावल से भाजपा के डॉ. बनवारी लाल ने कांग्रेस के डॉ. एम एल रांगा को हराकर 32245 वोटों से जीत दर्ज की। कोसली से भाजपा के लक्ष्मण सिंह यादव ने कांग्रेस के यदुवेंद्र सिंह को हराकर 38624 वोटों से जीत दर्ज की है। हथीन से भाजपा के प्रवीन डागर ने कांग्रेस के मोहम्मद इसरायल को हराकर 2887 वोटों से जीत दर्ज की है। होडल से भाजपा के जगदीश नायर ने कांग्रेस के उदयभान को हराकर 3387 वोटों से जीत दर्ज की है। तोशाम से कांग्रेस की किरण चैधरी ने भाजपा के शशी रंजन परमार को हराकर 18059 वोटों से जीत दर्ज की है। बडख़ल से भाजपा की सीमा त्रीखा ने कांग्रेस के विजय प्रताप सिंह को हराकर 2545 वोटों से जीत दर्ज की है।

हिमाचल उपचुनाव में भाजपा की जय

बागियों के चुनाव में उतरने के बावजूद हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा ने दोनों सीटें जीत ली हैं। इसे मुख्यमंत्री जयराम के बड़ी उपलब्धि माना जाएगा क्योंकि दोनों ही सीटों – पच्छाद और धर्मशाला – में उसके दोनों बागी बहुत मजबूत थे और जनता की सहानुभूति भी उनके साथ थी।

खुद को बहुत अनुशासित मानने वाली भाजपा में बगावत के सुर खुलकर सुने गए। दोनों हलकों में बहुत प्रयासों के बावजूद बागी नहीं माने। यहाँ तक कि खुद मुख्यमंत्री जयराम ने व्यक्तिगत रूप से इसकी कोशिश की। जब बागी नहीं माने तो सीएम को खुद चुनाव की बागडोर और रणनीति संभालनी पड़ी।  इस चुनाव में सबसे बड़ा धक्का कांग्रेस को लगा है जो धर्मशाला में तो तीसरे नंबर पर पहुँच गयी और वहां उसकी जमानत भी नहीं बची। पच्छाद में भाजपा की बागी दयाल प्यारी ने दिखा दिया कि टिकट के लिए उन्होंने लड़ाई क्यों लड़ी थी। पछाड़ में कांग्रेस के कद्दावर नेता गंगू राम मुसाफिर मैदान में नहीं होते तो वहां भी कांग्रेस के हालत खराब रहती। मुसाफिर का इलाके में अपना वोट बैंक है जिसके बूते वे दुसरे नंबर पर रहे।

मई में जब लोकसभा चुनाव हुए थे तब धर्मशाला विधानसभा हलके में भाजपा प्रत्याशी किशन कपूर को 18685 वोटों की बढ़त मिली थी जिससे भाजपा वहां मजबूत तो लग ही रही थी। लेकिन उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार विशाल नैहरिया की जीत का अंतर 6758 रह गया। यह लोकसभा चुनाव लीड का एक तिहाई ही है। वहां भाजपा के बागी राकेश चौधरी ने काफी दम दिखाया। पच्छाद में भाजपा प्रत्याशी सुरेश कश्यप ने करीब 16 हजार मतों की बढ़त हासिल की थी, जो उपचुनाव में घटकर 2742 रह गई। वहां भी भाजपा बागी ने दम दिखाया।

इन चुनाव नतीजों से भाजपा और मुख्यमंत्री को मजबूती मिली है जबकि कांग्रेस के लिए यह चुनाव काफी आघात दे गए हैं। प्रदेश की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले कांगड़ा ने उपचुनाव में भी अहम रोल निभाया है। कांग्रेस ने धर्मशाला सहित पछाड़ में कांग्रेस से पहले प्रत्याशी घोषित कर शुरुआती बढ़त हासिल कर ली थी। शुरू से ही भाजपा धर्मशाला से गद्दी समुदाय को प्रतिनिधित्व देती रही है। इस बार कांग्रेस ने इसी समुदाय के विजयइंद्र कर्ण को टिकट देकर भाजपा को कड़ी टक्कर देने का प्रयास किया। कांग्रेस के इस प्रयास से यहां पर जातिवाद की हवा भी चल पड़ी।

हवा का रुख देखकर भाजपा से छिटके राकेश चौधरी ने ओबीसी के करीब 35 प्रतिशत वोटों के दम पर जीत हासिल कर विधानसभा की दहलीज लांघने का प्रयास किया। प्रचार के दौरान राकेश चौधरी ने समुदाय के लोगों को साथ लेकर शक्ति प्रदर्शन का प्रयास भी किया लेकिन यहां पर किसी तरह का जातिवाद नहीं चला। धर्मशाला प्रदेश की दूसरी राजधानी है। यहां पर अधिकतर लोग अन्य स्थानों से आकर बसे हैं। हलके में अधिकतर तबका पढ़ा लिखा है जो जातिवाद नहीं बल्कि हर चीज को तौल कर देखता है। यहां चौधरी बिरादरी के वोटों को हथियाने के निर्दलीय प्रत्याशी ने हरसंभव प्रयास किया। चौधरी बहुल मतदान केंद्रों में मतप्रतिशतता भी बढ़ी।

नतीजों के बाद कांग्रेस तो मंथन कर पार्टी काडर पर ध्यान देना होगा। नेताओं के आपसी टकराव का नुकसान पार्टी को झेलना पड़ा है। पूर्व मंत्री और धर्मशाला से पूर्व में प्रत्याशी रहे सुधीर शर्मा का चुनाव प्रचार के अंतिम दिन हलके में पहुंचना कार्यकर्ताओं को अखरता रहा है। पार्टी प्रत्याशी ने तो उन पर भाजपा का साथ देने का आरोप भी लगाया है और बाकायदा आलाकमान को चि_ी लिखकर उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है।

क्या गुजरात पुलिस ने कमलेश तिवारी मामले में यूपी पुलिस को मात दी?

उत्तर प्रदेश पुलिस को देश के सबसे बड़ेपुलिस बल के रूप में जाना जा सकता है। लेकिन एक छोटे से गुजरात ने हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी के सनसनीखेज हत्याकांड के मामले में यूपी पुलिस को चालाकी से मात दी हैा। इस वीभत्स हत्या ने राजनीतिक रंग ले लिया क्योंकि पैगंबर मोहम्मद के बारे में उनके भडक़ाऊ बयानों के बाद उनकी हत्या की योजना के बारे में गुजरात पुलिस से मिले संकेत के बाद उन्हें पुलिस सुरक्षा देने के बावजूद राज्य पुलिस उन्हें बचाने में विफल रही है।

शाहजहाँपुर में उन्हें ट्रैक करने और क्लोज सर्किट कैमरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल होने के बाद भी, तिवारी के दोनों हत्यारे यूपी पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहे और उत्तरप्रदेश के साथ लगती  700 किलोमीटर लंबी और दलदली सीमा से नेपाल में खिसक गए। वे उसी  सीमा के माध्यम से यूपी में फिर से प्रवेश करने में कामयाब रहे और कथित रूप से सतर्क यूपी पुलिस का ध्यान आकर्षित किए बिना राजस्थान को पार कर गए। अंत में, उन्हें गुजरात-राजस्थान सीमा के निकट गुजरात आतंकवाद-निरोधी दस्ते द्वारा श्यामलाजी जिले अरावली में पकड़ा गया।

दोनों मुख्य आरोपी, अशफाक हुसैन (34), एक मेडिकल प्रतिनिधि और फूड डिलीवरी बॉय, मोइनुद्दीन पठान (27), को 21 अक्टूबर को लखनऊ में खुर्शेदबाग स्थित निवास में हिंदू समूह के नेता कमलेश तिवारी की कथित हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।

दोनों ने 18 अक्टूबर को लगभग 12.30 बजे, भगवा गमछा पहन कर कमलेश तिवारी को फोन किया और कहा कि वे उन्हें दीवाली के त्योहार के लिए मिठाई का डिब्बा देना चाहते हैं। तिवारी ने उन्हें चाय, नाश्ते की पेशकश के साथ गर्मजोशी से व्यवहार किया, और उनका असली मकसद नहीं पढ़ सके। तिवारी के समर्थक को पास की दुकान से सिगरेट और पान मसाला लेने के लिए भेजने के बाद और उसे अपने कार्यालय के कमरे में अकेला पाकर, उन्होंने उस पर धारदार चाकू से हमला कर दिन के प्रकाश में वहां सक भाग गए। तिवारी गंभीर रूप घायल हो गए। अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई। उसनी गर्दन पर दो गहरे जख्म के निशान पाए गए। उन्होंने तिवारी की खोपड़ी के पीछे एक गोली भी चलाई उनके चेहरे के बाईं ओर घाव था। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से पता चला कि उन्होंने उसे 15 बार बेरहमी चाकू मारे और चेहरे में गोली मार दी।

सबसे महत्वाकांक्षी दक्षिणपंथी कार्यकर्ता, कमलेश तिवारी को दिसंबर 2015 में राष्ट्रव्यापी सुर्खियों को आकर्षित करने के  विवाद के कारण गोली मार दी गई थी, जब उन्होंने पैगंबर मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। उनकी टिप्पणी के कारण देश भर में कई स्थानों पर विभिन्न मुस्लिम समूहों ने विरोध प्रदर्शन किया।

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और राजस्थान के टोंक में प्रदर्शनकारियों ने मांग की कि उनका ‘‘सिर कलम किया जाना चाहिए।‘‘  पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के कालीचक में मुस्लिम समूहों द्वारा किया गया विरोध जनवरी 2016 में हिंसक हो गया था जब प्रदर्शनकारी पुलिस और सीमा सुरक्षा बल से भिड़ गए। प्रदर्शनकारियों ने कालियाचक पुलिस स्टेशन पर हमला किया और आग लगा दी। दर्जनों वाहनों में आग लगा दी गई। ट्रेन सेवाएं बाधित हुईं। “उनकी टिप्पणी के बाद हुए दंगों और विभिन्न स्थानों पर जहां मुसलमान उनकी मौत की मांग करते हुए उग्र हुए थे, उनकी मृत्यु के पीछेे वास्तविक कारण में कुछ अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

तिवारी के विवादास्पद घृणास्पद बयान से मुस्लिम बहुल बिजनौर जिले के कुछ मौलवियों की प्रतिसादात्मक प्रतिक्रियाएं आईं, जिन्होंने उनके कृत्य को निंदनीय माना और उनके साथ मारपीट करने का आह्वान किया और जो भी ऐसा करेगा उसे भारी मात्रा में नकद इनाम दिया जाएगा।

यूपी के डीजीपी ओ.पी. सिंह ने अगले ही दिन हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी की हत्या के मामले में एक प्रेस कांफ्रेंस की। उन्होंने कमलेश तिवारी द्वारा 2015 में दिए गए भाषण नेे इन लोगों को कट्टरपंथी बना दिया था, लेकिन जब हम बाकी बचे अपराधियों को पकड़ेगे तो और  अधिक सच सामने आ सकते हैं। उन्होंने खुलासा किया कि कैसे एक मिठाई के डिब्बे ने पुलिस को अपराधियों को पकडऩे में मदद की। उनकी हत्या के तुरंत बाद गुजरात एटीएस के पुलिस ने शमीम रशीद पठान, फैजान पठान और मोहसिन शेख नामक तीन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, शेख पेशे से मौलवी है।

कमलेश शुरू में हिंदू महासभा से जुड़े थे, लेकिन जब से वे एक बड़ी प्रमुख भूमिका निभाना चाहते थे, तो उन्होंने हिंदू समाज पार्टी के नाम से अपनी पार्टी बनाई। हिंदू महासभा की इच्छा के बावजूद, उन्होंने महासभा की संपत्ति पर कब्जा करना जारी रखा, जहां से वह अपनी समानांतर हिंदू समाज पार्टी चला रहे थे। उनकी आक्रामकता ने कई विवादों को आमंत्रित किया जिससे अखिलेश यादव के शासन के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत उनकी गिरफ्तारी और हिरासत में ले लिया। पैगंबर मोहम्मद पर अपनी टिप्पणी के लिए कई महीने जेल में बिताने के बाद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा सितंबर 2016 में उन पर लगाए गए एनएसए के आरोपों को खारिज करने के बाद उन्होंने जमानत पर अपनी रिहाई को सुरक्षित कर लिया।

कमलेश ने 2018 में फिर से सुर्खियां बटोरीं, जब उन्होंने अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण के लिए ‘‘कारसेवा‘‘ (स्वयंसेवक सेवा) आयोजित करने की घोषणा की, मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित रहने के बावजूद। उन्होंने अपने प्रचार स्टंट के माध्यम से एक विवाद के बाद विवादों को जन्म दिया। उन्होंने यह घोषणा करके महात्मा गांधी के हत्यारे का गौरव बढ़ाया कि वह नाथू राम गोडसे का मंदिर बनाएंगे। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर को मुक्त करने की घोषणा की, जहाँ कथित रूप से ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण इस हिंदू मंदिर पर आक्रमण करने के लिए किया गया था। विश्व हिंदू परिषद (टभ्च्) भी नारेबाजी के बाद नारे लगाती है, ‘‘अयोध्या हुई हमारी है, अब मथुरा काशी की बारी है‘‘ कमलेश 2018 में  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुंह से पैगंबर मोहम्मद की प्रशंसा को सहन नहीं कर सके। उन्होंने सवाल किया, ‘‘जब वह पैगंबर मोहम्मद की प्रशंसा करते हैं, उनके आदर्शों का पालन करने का वादा करते हुए वे हिंदुत्व के नेता कैसे हो सकते हैं’’।

इसलिए, कमलेश तिवारी एक जटिल व्यक्तित्व थे, जो हिंदू नेताओं पर हमला करता है जबकि उसके मन में  किशोरावस्था से मुसलमानों के लिए कट्टर निहित घृणा भी। उसके शत्रु दोनों ओर से हो सकते हैं। जब उनकी हत्या हुई तो  भावनात्मक रूप से पीडि़त उनकी मां कुसुम तिवारी ने उन्होंने आरोप लगाया कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनकी लोकप्रियता से जलन थी । उन्होंने सवाल किया, ‘‘जब वह कट्टरपंथी मुस्लिम चरमपंथियों की हिट लिस्ट में थे और राज्य सरकार को गुजरात सहित अन्य राज्यों से इस आशय के संकेत मिले थे, तब उनका सुरक्षा घेरा क्यों नहीं बनाया गया?‘‘

उनकी टिप्पणी पर तंज कसते हुए, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने शनिवार को राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अपनी ‘मुठभेड़‘ नीति के लिए सीएम योगी आदित्यनाथ की आलोचना की। उन्होंने सुझाव दिया कि हत्याएं रुक नहीं सकतीं क्योंकि मुख्यमंत्री ने खुद पुलिस अधिकारियों को गोली मारने की अनुमति दी है, जो भी कानून और व्यवस्था की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए सोचते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, “जब सीएम खुद कहेंगे कि हालात सुधारने के लिए परेशानी पैदा करने वालों को खत्म करो तो हत्याएं कैसे रुकेंगी। लेकिन उनके आदेश के बाद, न तो पुलिस को पता है कि किसे गोली मारनी है और न ही लोगों को। “उन्होंने कमलेश तिवारी को प्रदान की गई सुरक्षा में चूक के लिए राज्य सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया।

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कमलेश तिवारी की हत्या के बाद ’अपराध को नियंत्रित करने में असफल’ योगी सरकार पर हमला किया। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा पर कानून-व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने में उसकी कथित विफलता पर एक चुटकी लेते हुए उसने आरोप लगाया कि योगी सरकार राज्य में अपराधों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित करने में ‘‘असफल‘‘ है। यूपी पुलिस प्रशासन के बारे में बताते हुए उन्होंने अपने ट्वीट में विभिन्न हत्याओं का हवाला दिया जिसमें सहारनपुर में एक भाजपा नेता, कुशीनगर में पत्रकार, मेरठ में एडवोकेट, बस्ती में छात्र नेता, मऊ में बेटे और लखनऊ में कमलेश तिवारी शामिल हैं।

कमलेश तिवारी का परिवार बहुत परेशान था, जब उनका पार्थिव शरीर सीधे उनके पैतृक स्थान महमूदाबाद से सटे सीतापुर जिले में भेजा गया, जबकि परिवार और दोस्त लखनऊ निवास पर इक_े थे। उनके शव का अंतिम संस्कार करने के लिए परिवार ने विरोध किया, लेकिन कमिश्नर लखनऊ मुकेश मेश्राम, डीएम कौशलराज शर्मा और अन्य अधिकारी ने परिवार की नौ सूत्रीय मांगों को स्वीकार किया, जिसमें पर्याप्त मुआवजा, घर, बेटे को सरकारी नौकरी और मारे गए हिंदू नेता के परिवार को सुरक्षा प्रदान की गई। इसके बाद कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच उनकी मां सहित परिवार के सदस्यों ने सीएम योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की। बाद में सीएम योगी आदित्यनाथ ने परिवार के लिए 15 लाख रुपये मुआवजे की मंजूरी दी। राज्य सरकार ने महमूदाबाद (सीतापुर) में परिवार को एक घर भी आबंटित किया।

कड़ी सुरक्षा के बीच परिवार के सदस्यों को सीएम से मिलने के बाद उनके मूल स्थान पर ले जाया गया और यहां तक कि मीडियाकर्मियों को भी सीएम आवास के सामने परिवार के सदस्यों के साथ बातचीत करने की अनुमति नहीं दी गई। लेकिन सीतापुर पहुंचने के बाद उनकी मां ने शिकायत की कि पुलिस उन्हें अनिच्छा से सीएम के पास ले गई क्योंकि 13 दिनों के दौरान हिंदू परंपराओं के अनुसार किसी को अपना घर नहीं छोडऩा चाहिए, लेकिन अधिकारियों ने उन्हें मुख्यमंत्री से मिलने के लिए मजबूर किया।

कमलेश की पत्नी और माँ के अलग-अलग संस्करण थे। मृतक किरण तिवारी की पत्नी का नाम मोहम्मद मुफ्ती नईम और अनवारुल हक है, जिन्होंने कथित रूप से रुपये की घोषणा की थी। किरण ने 18 अक्टूबर, 2019 की आधी रात को कमलेश तिवारी की हत्या की साजिश रचने के लिए उन्हें अपनी प्राथमिकी में नामित किया, जहां उनकी मां कुसुम तिवारी ने उनके उन्मूलन के पीछे एक स्थानीय भाजपा नेता शिव कुमार गुप्ता के साथ दुश्मनी का हवाला दिया।

राज्य के पुलिस महानिदेशक ओ.पी. सिंह की दिन और रात की निगरानी में यूपी एसआईटी और गुजरात एटीएस के  समन्वय के साथ हाई प्रोफाइल हत्या के रहस्य को आखिरकार सुलझा लिया गया, गुजरात-राजस्थान सीमा पर शामलाजी के पास गुजरात आतंकवाद-रोधी दस्ते ने तिवारी हत्या मामले में अशफाक हुसैन और मोइनुद्दीन खुर्शीद पठान को गिरफ्तार किया। दोनों आरोपी नेपाल भाग गए थे, लेकिन पैसे की कमी के कारण उन्हें भारत लौटना पड़ा। उन्होंने दोस्तों और रिश्तेदारों से संपर्क किया, जो निगरानी में थे। गुजरात-राजस्थान सीमा पर पुलिस उनकी लोकेशन को ट्रैक करने और उन्हें पकडऩे में सक्षम थी।

इससे पहले मामले में, तीन आरोपियों मौलाना मोहसिन शेख, फैजान सदस्य और राशिद पठान को भी गुजरात एटीएस और यूपी पुलिस ने एक संयुक्त अभियान में गिरफ्तार किया था और ट्रांजिट रिमांड पर उत्तर प्रदेश ले जाया गया था। एक अदालत ने मंगलवार (22 अक्टूबर, 2019) को तीनों आरोपियों को चार दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। इस मामले के एक अन्य आरोपी सैय्यद आसिम अली को महाराष्ट्र एटीएस ने सोमवार को नागपुर से गिरफ्तार किया था। अदालत द्वारा लखनऊ के लिए उनके ट्रांजिट रिमांड की अनुमति देने के बाद सभी आरोपी व्यक्ति यूपी एसआईटी जांच का सामना करेंगे।

चोट देते भुखमरी के आंकड़े

यह 48 साल पहले की बात है। इंदिरा गांधी ने चुनाव में एक नारा दिया- गरीबी हटाओ। इस नारे के पांच दशक होने को हैं और हम आज भी गरीबी और भुखमरी के आंकड़ों में दुनिया के सामने शर्मसारी झेल रहे हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 के आंकड़े जाहिर करते हैं कि आज जब हम पांच मिलियन इकॉनमी का ढोल पीट रहे हैं तो भुखमरी के मामले में हम दुनिया के 117 देशों में 102वें नंबर पर हैं।

यह इस देश की त्रासदी ही है कि यहां सबसे ज्वलंत मुद्दों पर न चुनाव लड़े जाते हैं, न यह किसी बड़ी डिबेट का हिस्सा ही बन पाते हैं। अमेरिका में लाखों-लाख रुपए खर्च करके ‘हाउडी मोदी’ जैसे दिखावे वाले प्रायोजित कार्यक्रम तो हमारे टीवी चैनलों के मुख्य कार्यक्रम बन जाते हैं, लेकिन देश की भुखमरी पर वे खामोशी धारण किये रहते हैं। यदि देखें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में मुख्या ‘पोआरटी’ भाजपा की तरफ से ‘उग्र राष्ट्रवाद’ मुद्दा बनाया गया। यह चिंता की बात है कि इस ‘राष्ट्रवाद’ में भुखमरी, अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी जैसे देश के सबसे मुख्य मसलों को कोर्ई जगह नहीं। यह कैसा राष्ट्रवाद है, जिसमें वास्तविक राष्ट्रवाद के मसलों को ही जगह नहीं तो सा$फ है कि यह राष्ट्रवाद तो चुनाव और वोट का ही राष्ट्रवाद है।

सत्ता में आकर नेता देश की आबादी की चिंता नहीं कर रहे हैं। यह इस बात से जाहिर हो जाता है कि भारत में छह से 23 महीने की उम्र वाले सिर्फ 9.6 फीसदी बच्चों को ही न्यूनतम डाइट मिल पा रही है। कहाँ ‘हाउडी’ जैसे कार्यक्रमों की चकाचौंध और कहां भुखमरी में तथ्प कर जान देते देश के जन।

साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी ‘गुजरात मॉडल’ के साथ सत्ता में आये तो लगा था कि एक सूबे में चार बार मुख्यमंत्री रहा और ज़मीनी हकीकत को समझने वाला व्यक्ति देश के वास्तविक मुद्दों की राजनीति करेगा लेकिन सच्चाई इसके बिलकुल उलट हुई। कॉरपोरेट अंदाज में सरकार चलने से देश के ज्वलंत मुद्दे और गंभीर हो गए हैं और उन पर वर्तमान शासन का कोर्ई ध्यान नहीं है। हालत यह है कि जिस पाकिस्तान को सत्ताधारी दल के लोग भिखमंगा कह-कहकर चिढ़ाते रहते हैं, वहां भुखमरी का ग्राफ भारत से बेहतर है। हम 117 देशों में 102वें स्थान पर हैं और पाकिस्तान 94वें स्थान पर। यहाँ तक कि बांग्लादेश और नेपाल जैसे देश भी हमसे बेहतर स्थिति में हैं। मोदी राज में तो भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में और नीचे लुडक़ गया है। भारत न केवल दक्षिण एशियाई देशों में सबसे खराब रैंकिंग पर पहुंच गया है, भयंकर आर्थिक स्थिति का सामना कर रहे पड़ौसी पकिस्तान से भी बुरी जीएचआई हालत में है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्कोर 30.3 पाया गया है जो ‘सीरियस हंगर कैटेगरी’ में माना जाता है।

जीएचआई के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 2015 में जो भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 93वें नंबर पर था, आज दुनिया के कुल 117 देशों में 102 स्थान पर पहुंच गया है। मोदी सरकार भले पांच ट्रिलियन इकॉनमी तक देश को पहुंचाने का ढोल पीट रही हो, जीएचआई की नई रिपोर्ट चिंता पैदा करने वाली है। रिपोर्ट जाहिर करती है कि ‘ब्रिक्स’ देशों में भारत भुखमरी के मामले में सबसे बुरी हालत में है। पिछले साल भारत जीएचआई रैंकिंग में 97वें नंबर पर था। यह आंकड़े संकेत कर रहे हैं कि देश में वर्तमान शासन असली मुद्दों की तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दे रहा। भारत के सबसे बुरी खबर यह भी है कि जीएचआई ने अपनी रिपोर्ट में दक्षिण एशिया की खराब रैंकिंग का जिम्मेवार भारत को माना है। उसका कहना है कि भारत के खराब प्रदर्शन से दक्षिण एशिया की रैंकिंग गिरी है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 2014 से 2018 का डाटा है जिसे किसी देश में कुपोषित बच्चों के अनुपात, पांच साल से कम उम्र वाले बच्चे जिनका वजन या लंबाई उम्र के हिसाब से कम है और पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों में मृत्यु दर जैसे तीन इंडीकेटर्स के आधार पर तैयार किया जाता है। जीएचआई में देशों को 100 प्वॉइंट्स पर रैंक किया जाता है। दस से कम प्वॉइंट्स ठीक हालात की तरफ इशारा करते हैं, 20 से 34.9 को सीरियस हंगर कहा जाता है, 35 से 49.9 प्वॉइंट्स अलार्मिंग और 50 से ज्यादा प्वॉइंट्स बेहद अलार्मिंग कैटेगरी में माने जाते हैं।

आंकड़े बताते हैं कि भारत के बच्चों में कमज़ोरी की दर बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है। चिंताजनक यह है कि यह सभी देशों से ऊपर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत में 2010 के बाद से लगातार बच्चों में कमज़ोरी (वेस्टिंग) बढ़ रही है। साल 2010 में पांच वर्ष तक की आयु के बच्चों में कमजोरी की दर 16.5 फीसदी थी जो साल 2019 में बढ़ कर बेहद चिंताजनक 20.8 फीसदी हो गई है। भारत को बच्चों का कम वजन के साथ कद में भी कमी आने को वेस्टिंग की श्रेणी में रखा गया है। यूनिसेफ की रिसर्च कहती है कि ऐसे बच्चों की मृत्यु होने की आशंका अधिक होती है। बच्चों के कमजोर होने का मुख्य कारण भोजन की कमी और बीमारियां है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन देशों में वेस्टिंग रेट 10 प्रतिशत से अधिक है, वे बेहद गंभीर स्थिति है। इन देशों को इस पर तत्काल और गंभीर ध्यान देने की ज़रूरत पर जोर दिया गया है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, छह से 23 माह के 90.4 फीसदी बच्चों को जितने खाने की ज़रूरत है, उतना भारत में मिल ही नहीं पा रहा है।

जीएचआई का कहना है कि भारत की बड़ी आबादी के कारण, इसके भूख संकेतक का क्षेत्र के कुल संकेतकों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 102 है, जबकि इसमें केवल 117 देशों को ही शामिल किया गया है। रिपोर्ट में भारत में भूख का स्तर 30.3 अंक है, जो काफी गंभीर है। यहां तक कि उत्तर कोरिया, नाइजीरिया, कैमरून जैसे देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं। पड़ोसी देश जैसे श्रीलंका (66वां), नेपाल (73वां), पाकिस्तान (94वां), बांग्लादेश (88वां) है।

इंडेक्स में भारत में उच्च स्टंटिंग (बच्चों का विकास रुकना) दर के बारे में भी चिंता जताई गई है। हालांकि पिछले सालों के मुकाबले इसमें सुधार हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक 2010 में भारत में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में स्टंटिंग की दर 42 प्रतिशत थी, जो 2019 में 37.9 फीसदी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व के मामले में दर भी बहुत अधिक है।

देश में भुखमरी और गरीबी को खत्म करना अब एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है क्योंकि शासक दुनिया के सामने देश को विकासशील दिखाने की झूठी होड़ में जुटे हैं। सत्ता में बैठे लोगों का फोकस नेता की छवि गाडऩे में लगा है। वह देश के अंदरूनी हालत और समस्यों के प्रति गंभीर रूप से उदासीन है। यह बड़े खतरे का संकेत है क्योंकि इससे देश के ज्वलंत मुद्दे विस्फोटक स्तर पर पहुँच जायेंगे।

दिल्ली वालों को दीवाली पर मकान का तोहफा

कहते है राजनीति हिंसा और प्रलोभन से शून्य नहीं होती है। ऐसे में दिल्ली विधान सभा चुनाव में मतदाताओं को केन्द्र शासित भाजपा सरकार ने अपने पक्ष में लाने के लिये दिल्ली वालों को तोहफा दिया है क्योंकि चुनाव में भले ही तीन-चार माह की देरी है पर केन्द्र सरकार ने चुनाव की देरी का इंतजार न करते हुये काफी समय अटके-लटके और फंसे प्रस्ताव को पास लाकर मतदाताओं का पास ला दिया है क्योंकि दिल्ली सरकार दिल्ली वालों को तमाम मुफ्त की योजनायें लाकर अपनी राजनीति और वोट बैंक पक्के करने में लगे थे ऐसे में ऐसे केन्द्र की मोदी सरकार ने केजरीवाल को तोड़ निकालने में देरी न करते हुये ऐसे में अनधिकृत कॉलोनियों को पक्का करने का निर्णय लिया है। इस समय दिल्ली में प्रलोभन की राजनीति चल रही है। केन्द्र सरकार ने राजधानी दिल्ली की 1797 अनधिकृत कॉलोनियों के लगभग 40 से 50 लाख लोगों को दीपावली का तोहफा देते हुये इन कॉलोनियों को नियमित करने के जो बनाये गये कायदे -नियम सम्बंधी प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। केन्द्र के इस प्रस्ताव से दिल्ली में खुशी की लहर दौड़ गयी और भाजपा कार्यालय में जमकर जश्न मना दिल्ली में भाजपा के पार्षदों ने भी अनधिकृत कॉलोनियों का नियमित करने पर लोगों के बीच जाकर कहा कि आज का दिन दिल्ली वालों का ऐतिहासिक दिन है।

केन्द्रीय आवास एवं शहरी कार्य मंत्री हरदीप पुरी व सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि इस प्रस्ताव को आगामी संसद सत्र में लाया जायेगा। उन्होंने बताया कि सरकार के इस फैसले से दिल्ली में लगभग 175 वर्ग किलोमीटर में फैली 1797 अनधिकृत कॉलोनियों के 40 से 50 लाख से अधिक निवासियों का सीधा लाभ होगा। हरदीप पुरी ने बताया कि सरकार यह फैसला प्रगतिशील और दूर दर्शी वाला साबित होगा। क्योंकि जो लोग दिल्ली में बेहत्तर जीवन-यापन के लिये आये थे पर उनको तमाम सुविधाये नहीं मिल पा रही थी लेकिन अब कच्ची कॉलोनियों के पास होने से मजबूत मकान वाला हक मिल जायेगा ।

फिलहाल जो भी किन्तु परन्तु हो पर दिल्ली में सालों साल से रह रहे अनधिकृत कॉलोनियों वालों में खुशी की लहर है। नियमित कॉलोनियों का प्रारूप ऐसे होगा।

 आगामी माह की 18वें नवंबर का शुरू हो रहे शीतकालीन सत्र में पेश किया जायेगा।

 दिल्ली विकास प्राधिकरण डीडीए लोकल एरिया का प्लान बनाएगी।फिर रजिस्ट्ेन की प्रक्रिया शुरू होगी। कानून बनने पर सरकारी जमीन पर बसी कॉलोंनियों को सर्कल रेट के आधार पर देना होगा शुल्क और प्राइवेट का रेट आधा होगा

 सीवर लाइने बिछेंगी, सडकें बनेगी और पार्क जैसे विकास के काम होगे मूल भूत सुविधायें मुहैया करायी जायेगी।

 सम्पति की खरीद -फरोख्त को कानूनी दर्जा मिलेगा और मामूली रेट पर रजिस्ट्ी होगी।

इस बारे में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि अब केन्द्र सरकार को देरी नहीं करनी चाहिये क्योंकि दिल्ली सरकार रजिस्ट्ी का काम जल्दी शुरू कर देगी। उन्होंनेे कहा कि दिल्ली सरकार द्वारा भेजे गये आधार पर केन्द्र सरकार ने रोड मैप तैयार किया है।

दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा कि आज दिल्ली वालों के लिये खुशी का दिन है। क्योंकि भाजपा और केन्द्र सरकार के अथक प्रयास से दिल्ली में रहे अनधिकृत कॉलोनी वालों को मालिकाना हक के साथ विकास करने का मौका मिलेगा।

फिलहाल अनधिकृत कॉलोनियों में अभी भी है कई चुनौतियां

 नये सिरे से कॉलोनियों का मास्टर प्लान बनाना होगा। जिसमें कई तरह की अडचनें आएगी।

 संपति के दस्तावेजों के आधार पर दी जायेगी मान्यता और सबसे बड़ी बात ये है कि बिना सीमा के आधार पर बनेगा लोकल एरिया। ऐसे में काफी समय लग सकता है सीमाओं को निर्धारित करने में।

 जबकि वनक्षेत्र, पुरातत्व स्मारक और सडक़े मार्ग में आने वाले घर नहीं होगे अधिकृत, सैनिक फार्म हाउस बसंतकुंज और 69 कॉलोनियों जो महरौली में रह रहे लोगों को नहीं मिलेगा मालिकाना हक।

स्थानीय निवासियों का कहना है कि केन्द्र सरकार ये फैसला दिल्ली वालों के लिये राहत वाला है। अनधिकृत कॉलोनी में रहने वाले गोविन्द ने बताया कि अब मालिकाना हक मिलने से खुशी होगी।

उल्टा चोर कोतवाल को डांटे

कोई भी काम संसाधनों के अभाव में नहीं हो सकता। ऐसा ही हाल दिल्ली में झोलाछाप डाकटरों के खिलाफ कार्रवाई के लिये स्वास्थ्य अधिकारियों को मुहैया कराए गए संसाधान का है जिनके बलबूते किसी सफलता या अंजाम तक पहुंचना मुश्किल है। जैसे डीएमए,डीएमसी और दिल्ली भारतीय चिकित्सा परिषद के पास कोई भी ऐसे संसाधन व शक्ति नहीं है कि वह कोई ठोस कार्रवाई सकेंं। ऐसे में राजधानी दिल्ली में झोलाछाप डाक्टरों का रूतबा इस कदर हावी होता जा रहा है कि जो भी उनके खिलाफ कार्रवाई या शिकायत करता है तो पुलिस की सहायता से या सांठगांठ सेे वे उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने से नहीं चूकते है। चाहे वो सामाजिक कार्यकर्ता हो या फिर दिल्ली सरकार से जुड़ा अधिकारी व दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन डीएमए और दिल्ली मेडिकल कांउसिल डीएमसी से जुड़ा डाक्टरों हो। झोलाछाप डाक्टरों का कहना है कि अब तक दिल्ली में कोई कार्रवाई उनके खिलाफ नहीं हुई है,तो इसका मतलब है कि वे डाक्टरी करने के हकदार है। ऐसे में दिल्ली में कोई भी ऐसा इलाका व गली नहीं है जहां पर झोला छाप डाक्टरों की दुकानें बेधडक़ हो कर न चल रही हों। ऐसे में डीएमए और डीएमसी के डाक्टरों का कहना है कि अब तो हालत ये है कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। डीएमसी और दिल्ली सरकार के नई दिल्ली जिला अधिकारी अब अपने खिलाफ झोलाछाप डाक्टरों द्वारा की गई शिकायत पर हाई कोर्ट से जमानत लेने मे लगे है।

सबसे गंभीर और चौकानें वाली बात ये है कि दिल्ली में झोलाछाप डाक्टरों का जो कारोबार चल रहा है उसके पीछे हकीकत यह भी है कि दिल्ली के नामी गिरामी अस्पताल और दवा कंपनी वाले छोलाछाप डाक्टरों से संपर्क में है। बडे अस्पताल वाले कहते है कि वे मरीज़ भेजे उसकी एवज में उनको पैसा दिया जाएगा और दवा कंपनी वाले कहत है कि दवा बिकने से मतलब है चाहे छोलाछाप डाक्टर दवा लिखे या ‘क्वालीफाइड’ डाक्टर इससे उनको कुछ लेना देना नहीं है।

अब बात करते है दिल्ली के पॉश इलाकों जिनमें कनॉट पेलेस, ग्रीन पार्क, लाजपत नगर और दक्षिण दिल्ली की जहां पर झोलाछाप डाक्टरों की दुकानें धडल्ले से ही नहीें चल रही है बल्ेिक वे अब इलाज़़ के लिए दिल्ली की गलियों में पोस्टर लगाने से परहेज तक नहीं करते है। दिल्ली में इस समय 50 हजार से ज़्यादा झोला छाप डाक्टर अपनी पै्रक्टिस कर रहे वे मरीज़ों के स्वास्थ्य के साथ ही नहीं बल्कि मरीजों की जान से भी खेल रहे है। आए दिन झोलाछाप डाक्टरों द्वारा इलाज़ के दौरान गलत इंजेक्शन और गलत ऑपरेशन से मरीज़ कीे मौत होने की घटना अब आम बात होती जा रही है। आलम ये है कि कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होने से दिल्ली में झोलाछाप डाक्टरों के हौसलें बुलंद है। डीएमए के एन्टी क्वेकरी सैल के चैयरमेन डॉ अनिल बसंल ने बताया कि वह झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ पिछले दो दशकों से एक मुहिम के तहत कार्रवाई करते रहे है पर अफसोस ये है कि आज तक झोलाछाप डाक्टरों के विरोध में कानूनी कार्रवाई नहीं करवा सकें। इसकी बजह सरकारी तंत्र पूरी से वोट की राजनीति मे फंसा हुआ है। दिल्ली सरकार हो या केन्द्र सरकार कोई भी सरकार इन झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती है। क्योंकि इस समय दिल्ली में झोलाछाप डाक्टरों का वोट बैंक काफी अहम भूमिका निभा रहा है। डॉ बसंल का कहना है कि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार रही है और अब आप पार्टी की सरकार है तब से अब तक तमाम बार सरकार के समक्ष वे कई बार झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर चुके है और लिखित में झोलाछाप डाक्टरों के पते भी दिये है पर सब ढाक के तीन पात वाली बात सामने आयी। दिल्ली के पिछड़े इलाकों में त्रिलोक पुरी कल्याण पुरी सीमा पुरी मंगोलपुरी कंझावला और नजफ़गढ़ में तो हालत ये है कि यहां पर झोलाछाप डाक्टरों का वर्चस्व इस कदर है कि वे ही नामी गिरामी डाक्टरों के पास मरीजों को ऐसे रेफर करते है कि वे किसी डाक्टर से कम न हो यानी की नकली डाक्टर असली डाक्टर के पास मरीज़ कमीशन के लिये भेजता है। असली डाक्टर इलाज भी करता है। एमबीबीएस डाक्टर बदला नाम पवन ने बताया कि पढ़ लिखकर एमबीबीएस करके डाक्टर जब दिल्ली में सरकारी और निजी अस्पतालों में प्रैक्टिस के लिये आता है तो उसे पता नहीं होता है कि दिल्ली में नकली डाक्टरों का एक समूह है जो आसानी से अपनी स्वास्थ्य सेवायें दिल्ली में धडल्ले से दे रहा है। पवन ने बताया कि जब एक मरीज़ की बिगड़ती तबीयत पर उन्होंने इलाज़ कर रहे डाक्टर की पर्ची मांगी तो उस पर्ची में न तो डीएमसी का नम्बर था न ही कोई डिग्री तो उन्होंने कहा कि ये नकली डाक्टर है इसके खिलाफ कार्रवाई होने चाहिये उन्होंने पुलिस और डीएमसी में शिकायत की पर कोई कार्रवाई नहीं होने से वे हैरान और परेशान हो गए और परेशाल होकर शिकायत करना तक छोड़ दिया।

डॉ अनिल बंसल ने बताया कि दिल्ली में 2014 में एक नकली डाक्टर द्वारा इलाज के दौरान एक महिला की मौत हो गई थी तब दिल्ली काफी हंगामा हुआ तब उन्होने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था हाई कोर्ट ने भी मामले को गंभीरता से लेते हुए, हाई पावर कमेटी का गठन करने का आदेश जारी किया था जिसमें दिल्ली पुलिस, दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य अधिकारी, डीएमसी, डीएमए और दिल्ली भारतीय चिकित्सा परिषद को शामिल किया गया। जिसमें हाई कोर्ट ने कहा कि दिल्ली पुलिस के बीट अफसर अपने -अपने क्षेत्र में ये पता करे कि कौन से डाक्टर के पास डीएमसी और सम्बधित चिकित्सा से जुड़े परिषद में रजिस्ट्ेशन है कि नहीं। लेकिन पुलिस ने कोई छानबीन नहीं की तब से अब तक दिल्ली में छोलाछाप डाक्टरों के हौंसले बुलंद है। चिकित्सा परिषद के पूर्व अध्यक्ष डॉ प्रदीप कुमार ने बताया कि दिल्ली सरकार को झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ कार्रवाई के लिये वे संसाधन मुहैया कराने चाहिये जिससे उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने में कोई दिक्कत न हो पर ऐसा नहीं है। जिसके कारण झोलाछाप पनप रहे है।

मौजूदा वक्त में चैकाने वाली बात ये सामने आयी है कि दिल्ली में बीएएमएस के डाक्टरों की जांच पड़ताल व रजिस्ट्ेशन के लिये दिल्ली सरकार की दिल्ली भारतीय चिकित्सा परिषद 2015 से बंद है। 2017 में परिषद का चुनाव हुआ था तब किसी धांधली की शिकायत पर चुनाव निरस्त कर दिये गये थे। तब से अब तक दिल्ली में परिषद का कामकाज पूरी तरह से ठप्प है। रजिस्ट्रेशन का काम तिबिया कॉलेज में चल रहा है। ऐसे में झोलाछाप डाक्टरों में कार्रवाई की बात तो मज़ाक वाली बात होगी। परिषद के बंद होने पर डॉ कर्ण सिंह ने बताया कि सरकार की लापरवाही और लालफीताशाही का नतीजा है कि दिल्ली में परिषद ठप्प है सुनवाई के लिये कोई ऐसा सिस्टम मौजूदा वक्त में नहीं है इसके कारण दिल्ली में छोलाछाप मनमर्जी करने में तुले है भोले भाले लोगो के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

डीएमसी के पदाधिकारी ने बताया कि दिल्ली में झोलाछाप डाक्टरों पर कार्रवाई की बात करना बेमानी है पर जो एमबीबीएस डाक्टर है उसको तमाम नियमों का पालन करना होता है, अगर जरा सी लापरवाही इलाज़ के दौरान या कागज़ों की कमी पाई जाती है तो उस योग्य डाक्टरों पर कार्रवाई होती है कई बार भारी भरकम वाला जुर्माना भरना पड़ता है। ऐसे हालात है। छोटी सी क्लीनिक से निकलने वाले मडिकल वेस्ट कचड़ा के लिये एमबीबीएस डाक्टरों को सावधानी बरतनी होती है पर झोलाछाप डाक्टर तो सिरेंजों को कई बार कई मरीजों में प्रयोग करके सडक़ों में फेंकते है लेकिन उनके खिलाफ कभी भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

एनजीओ से जुड़े गोविन्द ने बताया कि दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों, ड्रग विभाग,दिल्ली सरकार और डीएमसी सहित सम्बंधित विभाग में एक हजार से ज़्यादा शिकायतें वे लिखित में कर चुके है झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ नाम व पते सहित पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। गोविन्द का मानना है कि वे तब तक इस अभियान में लगे रहे रहेगे जब तक झोलाछाप के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती है। उन्होंने बताया कि दिल्ली में कोई पुख्ता आंकड़े तो नहीं है पर आए दिन झोलाछाप डाक्टरों के इलाज से भोले भाले असहाय मरीजों की मौत हो रही है।

झोलाछाप डाक्टरों से जब मरीज़ बनकर तहलका संवाददाता ने बात की तो उन्होंने कहा कि मेरा अस्पताल दस सालों से चल रहा है, मेरे पास अनुभव है। प्रत्येक दिन दर्जनों मरीज इलाज करानेे आते है उनको स्वास्थ्य लाभ भी होता है। ऐसे में जो शिकायत करता है उससे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है। सीमापुरी झोलाछाप डाक्टर संतोष त्रिलोकपुरी में झोलाछाप सुरेश कुमार ने कहा कि वह मरीजों को डेंगू के कहर से बचाने के लिये दवा देते है जिससे मरीज को लाभ भी मिलता है। उन्होंने बताया कि लैब वाले उनके संपर्क में है जो सस्ते दामों में रक्त की जांच भी करते है। आजकल दिल्ली में झोलाछाप डाक्टर किसी एमबीबीएस और अन्य चिकित्सकों के साथ मिलकर जगह -जगह स्वास्थ्य चैकअप कैम्प भी लगाते है और क्षेत्रीय विधायक व निगम पार्षद से कैम्प का उद्घाटन भी करवाते है। ऐसे में झोलाछाप डाक्टर समाज में योग्य डाक्टर की तरह अपने पकड़ बनाने में सफल हो रहे है। इस बारे में दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैने का कहना है कि दिल्ली सरकार दिल्ली में कोने -कोने में क्लीनिक खोल रही है जिससे शीध्र ही दिल्ली वालों का बेहत्तर डाक्टर मिलने लगेंगे।

क्या गलत वित्तीय फैसले लेते हैं अधिकतर भारतीय?

विलियम शेक्सपियर ने अपनी उत्कृष्ट कृति में शिथिलता के साथ संघर्ष को संबोधित किया जो मुख्य चरित्र हैमलेट के पतन को लाता है। यह एक तथ्य है कि यदि कोई क्रिया से पीछे हटता है, तो कोई भी शानदार बुद्धि मूल्य के लायक नहीं है। विलंब या अकर्मण्यता कई खराब वित्तीय फैसलों का मूल कारण है।

लाखों लोग ऐसे हैं, जिनके पास बैंकों और डाकघरों के बचत खातों में छ:-फिगर की राशि बेकार पड़ी है,यह महसूस किए बिना कि उनका पैसा हर गुजरते दिन के साथ मूल्य खो रहा है क्योंकि मुद्रास्फीति इसकी क्रय शक्ति को नष्ट कर रही है। इसी तरह से अनावश्यक वस्तुओं पर बहुत अधिक खर्च करने, टैक्स बचाने के लिए जीवन बीमा पॉलिसी खरीदने या जल्दी पैसा बनाने के लिए जोखिम भरे शेयरों में निवेश करने के मामले में भी ऐसा ही है क्योंकि ऐसी अफवाहें हैं कि किसी दोस्त ने किसी विशेष स्टॉक में निवेश करके पैसा कमाया है। ये कुछ ऐसे दोष हैं जो भारतीय करते हैं जो उनके वित्तीय स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहे हैं।

इस पखवाड़े की तहलका स्पेशल स्टोरी में आठ ऐसी आम वित्तीय आदतों के बारे में बताया गया है, जिन्हें हमारे वित्तीय स्थिरता को बेहतर बनाए रखने के लिए बेहतर तरीके से बदलने की ज़रूरत है।

निवेश के उद्देश्य से बीमा पॉलिसी खरीदना

सीए गोविंद एम चांडक ने बताया कि ‘‘बड़ी गलती यह है कि 100 लोगों में से 95 लोगों ने यह गलती की है क्योंकि बहुत कम लोग टर्म प्लान, अक्षयनिधि प्लान आदि के अंतर को समझते हैं।’’ विपणन और बिक्री पेशेवरों के लुभावने बहकावे में आकर लोग अपनी कड़ी मेहनत से कमाए गए धन को उन बीमा योजनाओं में निवेश करते हैं जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं होती है। उनमें से अधिकांश निवेश के समय कर कटौती के भारी लाभके प्रलोभन में आ जाते हैं। कर देयता को बचाने के लिए बीमा पॉलिसी खरीदना एक बुरा विचार है। ये योजनाएं आशाजनक दिखती हैं लेकिन एक बार जब आप गहराई से देखतेे हैं, तो आप पाते हैं कि रिटर्न पांच फीसद से अधिक या थोड़ा अधिक या कम नहीं है।

पारंपरिक बीमा योजनाएं न तो पर्याप्त बीमा कवर देती हैं और न ही बहुत अच्छा रिटर्न देती हैं। बीमा योजना का वास्तविक उद्देश्य मृत्यु के मामले में पेश किया गया बीमा कवर है, लेकिन अधिकांश मामलों में निवेशकों का प्राथमिक ध्यान धारा 80 सी के तहत कर कटौती है। एक वरिष्ठ नागरिक के लिए, आदर्श स्थिति वरिष्ठ नागरिक बचत योजना में कर बचाने और नियमित आवधिक आय प्राप्त करने के लिए निवेश करना है।

बिना ज्ञान के युक्तियों के आधार पर स्टॉक खरीदना

आपको हर कोई फेसबुक, व्हाट्सएप और टीवी पर स्टॉक टिप्स देंगे। दुर्भाग्य से, बहुत सारे लोग इन लोगों के जाल में फंस जाते हैं और बिना किसी ज्ञान के पैसा लगाते हैं। अंतिम परिणाम क्या है? वे सब कुछ खो देते हैं! अक्सर शेयर बाजारों में तेज गिरावट निवेशकों को हिला देती है और इसलिए अचानक वृद्धि भी होती है।

यहां तक कि ब्लू-चिप कंपनियां और उनके स्टॉक और इंडेक्स स्टॉक भी अप्रभावित नहीं रहे हैं। म्यूचुअल फंड को निवेश विकल्प के रूप में चुनना पूरी तरह से जोखिम में कटौती नहीं करेगा, लेकिन जोखिम कम से कम हैं। आदर्श रूप से, विभिन्न खंडों पर केंद्रित डायवर्सिफाइड इक्विटी फंड में निवेश पोर्टफोलियो को सभी प्रकार का विविधीकरण देता है जो इसकी आवश्यकता है और जो जोखिम को कम करता है। सुनहरा सिद्धांत यह है कि आप सभी अंडों को कभी एक टोकरी में नहीं रखें।

कोई आपातकालीन बजट नहीं

आपातकालीन स्थिति में पैसा नहीं होने का परिणाम है दोस्तों और रिश्तेदारों से उधार लेने की शर्मनाक स्थिति। कुछ लोग अपने निवेश को रोक भी देते हैं और एक बड़ी गलती करते हैं। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त बचत करनी चाहिए।

भविष्य की किसी भी घटना को ध्यान में रखते हए आकस्मिक बजट को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। महानगरों में जीवन सबसे अनिश्चित होता जा रहा है और यहां नौकरी छूटने की आशंका है, आपातकाल की स्थिति में निकट और प्रिय व्यक्ति की मदद करना। थोड़ा संदेह है कि हर किसी के पास बारिश के दिनों के लिए आपातकालीन या आकस्मिक बजट होता है। बहुत कम लोग अपने खर्चों पर नजऱ रखते हैं। उनमें से ज़्यादातर को पता नहीं है कि पैसा कहां गया है। लोग नहीं जानते कि उन्हें पैसे बचाने की आवश्यकता क्यों है क्योंकि वे अपने वित्तीय लक्ष्यों को नहीं जानते हैं। हमारे हिप्पोक्रेटिक समाज का शुक्रिया! लोग अपने पूरे जीवन को केवल रिश्तेदारों पर सारा पैसा खर्च करने के लिए बचाते हैं जो केवल भोजन और व्यवस्था के बारे में परेशान करते हैं।

चीजें सिर्फ इसलिए खरीद रहे हैं क्योंकि उन पर छूट पर हैं

अमेजन की ‘‘ग्रेट इंडियन सेल‘‘ से लेकर फ्लिपकार्ट के ‘‘द बिग बिलियन डेज‘‘ तक, हर कोई भारतीयों की इस कमजोरी का लाभ उठा रहा है, कि वह केवल इसलिए चीजें खरीद रहे हंै क्योंकि उन छूट पर है। मज़ेदार बात यह है कि अब आपको हर दूसरे महीने ऐसी बिक्री मिलेगी। इंस्टाग्राम और फेसबुक को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के रूप में पेश किया गया है लेकिन वे वास्तव में पूरे सामाजिक ताने-बाने को नष्ट कर रहे हैं। फेसबुक और इंस्टाग्राम एक मार्केटिंग प्लेटफॉर्म सेे अधिक हैं जहाँ लोग कुछ पसंद पाने के लिए सामान पोस्ट करते हैं और कंपनियां अपने उत्पादों और सेवाओं को बढ़ावा देती हैं।

फिर एक पक्ष पर संपत्ति खर्च करना भी एक बुरा विचार है क्योंकि यह आपके कुल बजट को खतरे में डाल सकता है। यह भारत में नई संस्कृति है। वीकेंड पर पब जाम हो जाते हैं जहां लोग ड्रिंक पर बहुत खर्च करते हैं। महीने के अंत तक, उनके पास पैसे नहीं होते हैं। एक पत्रकार मित्र ने बताया कि अक्सर उसे महीने के अंत में अपनी नौकरानी से पैसे उधार लेने पड़ते थे। जब व्यक्तिगत वित्त की बात आती है तो वित्तीय कुप्रबंधन के लिए संस्करणों की बात की जाती है।

कोई चिकित्सा बीमा नहीं

लोग जीवन भर की बचत को सिर्फ इसलिए खो रहे हैं क्योंकि उन्होंने चिकित्सा बीमा नहीं लिया था। एक दुर्घटना सभी वित्तीय सपने चकनाचूर कर सकती है। बेहतर है कि बीमा कराया जाए। हेल्थकेयर की लागत बढ़ रही है और बीमा के बिना इसे प्रबंधित करना असंभव है। फिर ऐसे लोग हैं जो क्रेडिट कार्ड से भुगतान के कारण न्यूनतम राशि का भुगतान कर रहे हैं? यदि हाँ, तो वे क्रेडिट कार्ड के रहस्य में फंस गए हैं। दूसरी तरफ, बहुत कम लोग वास्तव में लाभ उठाते हैं, जैसे कुछ खरीदो और एक मूवी टिकट पाओ, आदि।

 हर कोई कंपाउंडिंग के फार्मूले पर आ गया है लेकिन बहुत कम लोग वास्तव में इसकी शक्ति को समझते हैं। यही कारण है कि लोग जल्दी बचत करना शुरू नहीं करते हैं और इसलिए कंपाउंडिंग की शक्ति खो देते हैं। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि कंपाउंडिंग की शक्ति दुनिया का आठवां अजूबा है

जीवनशैली की महंगाई का शिकार होना

दो कमरे के घर से तीन कमरे के घर में सिर्फ इसलिए जाना कि आपको अच्छी बढ़ोतरी मिली है, अपनी कार को अपग्रेड करना क्योंकि आपको कुछ बोनस मिला हैं, जीवनशैली की मुद्रास्फीति के कुछ उदाहरण हैं जो वित्तीय जीवन को नष्ट कर रहे हैं। कुछ लोग अपना सारा पैसा अचल संपत्ति में निवेश करते हैं, कुछ सभी पैसे को सोने में निवेश करते हैं, कुछ इसे सिर्फ लॉकर में रखते हैं, और कुछ शेयर बाजार में निवेश करते हैं। बहुत कम लोग निवेश में विविधता लाने के सही तरीके को समझते हैं।

लॉकरों में रखे गए सोने की कीमत साल में एक या दो बार इस्तेमाल की जाती है। इसके परिणामस्वरूप धन अवरुद्ध हो रहा है और इसलिए उस पर कोई रिटर्न नहीं मिल रहा है। घर पर नकदी रखना उनको परंपरागत रूप् से जोखिम में डाल रहा है। एक बैंक में सावधि जमा में निवेश करने से वे अधिक कमाते हैं और उनका धन भी सुरक्षित रहता है।

मितव्ययी को सस्ता मानते हुए

बहुत सारे लोग सस्ते होने से आर्थिक खर्च को भ्रमित करते हैं। एक आर्थिक व्ययकर्ता गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं करता है, लेकिन सबसे अच्छी दर से उत्पाद या सेवा खरीदने के लिए पर्याप्त रूप से शोध करता है। कार का होना कोई संपत्ति नहीं है क्योंकि इसमें ईंधन की खपत होती है और रखरखाव की लागत होती है। इसकी कीमत भविष्य में केवल कम होगी। कार एक आवश्यकता है, लेकिन लोग बहुत पैसा खर्च करते हैं और यहां तक कि अपने बजट के ऊपरएक लक्जरी कार खरीदने के लिए ऋ ण लेते हैं।

एक फैंसी कार, एक फैंसी घर, एक फैंसी घड़ी, खराब निवेश का फैसला कर रहे हैं। लोग फैंसी सामान चाहते हैं और जो मूल्य उत्पन्न करते हैं, उसके लिए प्रीमियम का भुगतान करने को तैयार हैं। फिर ऐसे लोग हैं जिनके पास धैर्य की कमी है और वे चाहते हैं कि कुछ महीनों में निवेश दोगुना हो जाए। इस तरह के लोग उन्हें बहकाने के लिए बेईमान एजेंटों द्वारा बिछाए गए जाल में गिर जाते हैं। आरबीआई लोगों को चेतावनी दे रहा है कि वे ऐसी योजनाओं में निवेश न करें जो बहुत बड़ा रिटर्न देती हैं। बहुत से लोग अपनी जीवन भर की बचत को खो देते हैं क्योंकि उनके पास निवेश के विकल्प को समझने का धैर्य नहीं होता है और वे अपने निवेश के लिए किसी पर भी भरोसा कर लेते हैं।

परिवार में पैसों के मामलों पर चर्चा नहीं करना

भारतीय परिवारों में पैसे से संबंधित चर्चाओं को एक निषेध माना जाता है। कोई भी वास्तव में पैसे के मामलों पर चर्चा नहीं करता है। दुर्भाग्य से, बहुत से लोग अपनी मेहनत की कमाई के साथ दूसरों पर निर्भर हैं। यही कारण है कि हमारे पास स्टॉक मार्केट टिप्स देने वाले स्व-घोषित विशेषज्ञ हैं।

लोग अपने पैसे को पैनी स्टॉक, डे ट्रेडिंग, फ्यूचर और विकल्पों में निवेश करते हैं। वे अंतत: अपनी सारी मेहनत की कमाई खो देते हैं। मूल कारण लोभ है। परिणामस्वरूप, बहुत से लोग नया सीखने और कौशल विकसित करने के बजाय, सोशल मीडिया, और अन्य सामाजिक प्लेटफार्मों पर समय बर्बाद कर रहे हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि वित्तीय मामलों सहित सर्वोत्तम सलाह निहित स्वार्थ वाले लोगों की तुलना में परिवार से आती है।

खुदरा विक्रेताओं को दिवालियापन की ओर धकेलती ई-कॉमर्स आउटलेट्स की लोकप्रियता

दुनिया भर में लोगों के बीच ऑनलाइन शॉपिंग के प्रचलन से खुदरा क्षेत्र, जो हाल ही में उभरा था, वह व्यवसाय से बाहर हो रहा है। 2019 में फॉरएवर 21, वाल्ग्रेन्स, ड्रेसबर्न, गेमटॉप, गैप और अन्य चेन जैसे शीर्ष ब्रांडों ने पहले ही 8,500 से अधिक स्टोर बंद करने की घोषणा की है।

यह और भी चैंकाने वाली बात है कि कोरसाइट रिसर्च ने भविष्यवाणी की है कि जो स्टोर्स बंद हो रहे हैं, साल के अंत तक उनकी गिनती 12,000 तक पहुंच सकती हैं। निवेश बैंक यूबीएस का कहना है कि 2026 तक और 75,000 स्टोर लुप्त हो सकते हैं। वाणिज्यिक अचल संपत्ति कंपनी कोस्टार रुप के अनुमान के अनुसार रिटेलर्स ने 2017 में रिकॉर्ड-ब्रेकिंग 102 मिलियन वर्ग फीट स्टोर को बंद कर दिया, फिर 2018 में एक और 155 मिलियन वर्ग फीट जगह को बंद करके उस रिकॉर्ड को तोड़ दिया था। कोस्टार के वरिष्ठ सलाहकार, डेस मायर्स ने कहा, ‘‘इस साल हम रिटेल स्पेस में ऐसा ही होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं।’’ बिजनेस इनसाइडर के एक विश्लेषण के अनुसार, रिटेलर्स ने इस साल अब तक 4300 से अधिक स्टोर बंद करने की घोषणा की है। इस सप्ताह 24 घंटे के दौरान गैप, और विक्टोरिया सीक्रेटस जैसे बड़े स्टोरों ने 300 से अधिक स्टोर बंद करने की घोषणा की। पेलेस ने कहा है कि वह अपने 2,500 स्टोरों को बंद करने की योजना बना रहा है जो इतिहास में सबसे बड़ा परिसमापन हो सकता है।

पिछले कुछ वर्षों में रिटेल उद्योग को हिलाकर रख देने वाले स्टोरों की बंद होने की प्रक्रिया पिछले वर्षों में बंद दर के साथ 2019 में जारी रही है।

फरवरी में दिवालियापन के लिए निवेदन दायर करते समय पेलेस ने कहा कि उसने अपने सभी 2,500 स्टोरों को बंद करने की योजना बनाई जो इतिहास में सबसे बड़ा खुदरा परिसमापन हो सकता है। जिमबॉरे समूह ने जनवरी में अध्याय 11 दिवालियापन संरक्षण के लिए निवेदन दायर किया और कहा कि उसने अपने जिमबॉरे और क्रेजी 8 बैनरों के तहत 800 से अधिक स्टोर बंद करने की योजना बनाई है। जिमबोरे ने पहले जून 2017 तक दिवालियापन के लिए निवेदन दायर किया था और इस प्रक्रिया में लगभग 400 स्टोर बंद कर दिए थे । शॉपको ने जनवरी में दिवालियापन के लिए दायर किया था और कहा था कि वह 251 स्टोरर्स को बंद कर देगा।

कंपनी ने कहा कि यह फरवरी तक आधा दर्जन बंद कर देगी, जो कि एक वार्षिक कार्यक्रम बन गया है। फरवरी 2018 में श्रृंखला 13 बंद हो गई, और एक साल पहले एक दर्जन। ब्रिटिश फास्ट-फैशन चेन टॉपशॉप को 2009 में अमेरिका में स्टोर खोलने  के दौरान स्टार-स्टडेड स्वागत मिला, जिसमें रैपर जे-जेड और सुपर मॉडल केट मॉस सहित हस्तियों ने न्यूयॉर्क में पहला अमेरिकी स्टोर खोलने का जश्न मनाया। अब, सिर्फ 10 वर्षों के बाद, टॉपशॉप ने पहले ही प्रस्थान कर लिया है। अमेरिका के शहरों शिकागो, लास एंजिल्स, मियामी और सैनडिएगो सहित इसने अपने सभी 11 टॉपॉशॉप और टॉपमैन स्टोर को बंद कर दिया है।

गैप ने कहा कि वह अगले दो वर्षों में 230 नामी स्टोर्स को बंद कर देगा क्योंकि उसने बताया कि छुट्टी की तिमाही के दौरान बिक्री सात फीसद गिर गई। कंपनी ने यह भी कहा कि वह अपने पुराने नेवी ब्रांड को बंद कर देगी।, एडवांसड स्पोर्ट्स एंटरप्राइजेज, ने नवंबर में दिवालियापन संरक्षण के लिए दायर किया और बाद में घोषणा की कि वह अपने सभी स्टोरों को बंद कर देगी।

कंपनी द्वारा अध्याय 11 दिवालियापन संरक्षण के लिए निवेदन दायर किए जाने के बाद, शार्लोट रुसे ने फरवरी में 94 दुकानों पर बिक्री बंद कर दी।

डेस्टिनेशन मैटरनिटी की योजना इस साल 42 और 67 स्टोर्स के बीच बंद करने की है। विक्टोरिया सीक्रेट ने कहा कि वह ‘‘प्रदर्शन में गिरावट‘‘ का हवाला देते हुए इस साल 53 दुकानों को बंद कर देगा। क्रिस्टोफर और बैंक 30-40 स्टोर और जेसीपीनी लगभग 27 स्टोर बंद कर रहे हैं। उसने कहा कि यह 2019 में 27 स्टोर बंद कर देगा, जिसमें 18 फुल-लाइन डिपार्टमेंट स्टोर और और फर्नीचर स्टोर शामिल हैं। । डिपार्टमेंटल-स्टोर चेन ने कहा कि चौथी तिमाही के दौरान स्टोर की चार फीसद गिर गई। हेनरी बेंडेल ने व्यापार में 123 साल बाद जनवरी में अपने सभी स्टोर बंद कर दिए।

ब्यूटी ब्रांड्स, सैलून और स्पा सुपरस्टोर्स की एक क्षेत्रीय श्रृंखला ने कहा कि उसने इस साल 25 स्टोर बंद करने की योजना बनाई है। लोव इस वर्ष 13 राज्यों में 20 स्टोर बंद कर रहा है। मेसी के, वाशिंगटन, कैलिफोर्निया, न्यूयॉर्क, इंडियाना, मैसाचुसेट्स, वर्जीनिया और वेस्ट वर्जीनिया में स्टोर बंद हो रहे हैं। जेक्रू जॉर्जिया, दक्षिण कैरोलिना, टेनेसी, लुइसियाना, कैलिफोर्निया और कनाडा में स्टोर बंद कर रहा है।

कोहल इस साल चार स्टोर बंद कर रहा है। सभी स्टोर एक शॉपिंग मॉल के पास स्थित हैं। नॉर्डस्ट्रॉम फ्लोरिडा, वर्जीनिया और रोड आइलैंड में स्टोर बंद कर रहा है। कम बिक्री के बीच हाल के महीनों में स्टोर बंद होना या दिवालिया घोषित करना, ई-कॉमर्स आउटलेट्स की वृद्धि का एक संकेतक है, जिसने पारंपरिक खुदरा विक्रेताओं के लिए ग्राहकों को अपने स्टोरों के लिए आकर्षित करना कठिन बना दिया भारतीय परिदृश्य

भारत में 2014 में केवल 3.5 बिलियन डालर से, ई-कॉमर्स रिटेल के 100 बिलियन डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। वर्ष 2009 में, भारतीय ई-कॉमर्स उद्योग ने लगभग 3.8 बिलियन डॉलर राजस्व प्राप्त किया और अगले तीन वर्षों में 2012 तक यह संख्या लगभग तीन गुना बढक़र 9.5 बिलियन डॉलर हो गई। अगले तीन वर्षों के लिए जबकि भविष्यवाणियों में 33 फीसद की वृद्धि का अनुमान है, उद्योग 2015 तक 12.6 बिलियन डालर प्राप्त करने के और इससे भी आगे निकलने में कामयाब रहा। अगले तीन वर्षों के लिए जब अनुमानों में 33 फीसद की वृद्धि का अनुमान लगाया गया था, तो उद्योग 2015 तक 12.6 बिलियन डॉलर हासिल करने में कामयाब रहा। विश्लेषकों ने अनुमान लगाया है कि 2020 तक भारत में संगठित रिटेल का समग्र बाजार मूल्य एक ट्रिलियन डालर होगा। ये संख्याएँ अब कम लगती हैं। क्योंकि, ई-कॉमर्स का विकास जारी है। इसने भारत के पारंपरिक खुदरा उद्योग को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। खुदरा क्षेत्र बहुत ही मंथन का सामना कर रहा है क्योंकि भौतिक खुदरा विक्रेताओं ने अपने ऑनलाइन प्रतिस्पर्धियों के साथ रहने के लिए नए और विस्तृत उपाय किए हैं। पहले रिटेल स्टोर्स ने बड़े मॉल और अब ई-कॉमर्स से स्पर्घा महसूस की है।

नई पीढ़ी ऑनलाइन शॉपिंग में चली गई। ई-कॉमर्स के साथ भारत का पहला प्रयास साल 2002 में था जब भारत सरकार ने आईआरसीटीसी के माध्यम से ऑनलाइन रेलवे टिकट बुकिंग के लिए एक वेबसाइट शुरू की थी। यह विशेष रूप से आम आदमी के लिए निर्देशित किया गया था, जो तब लंबी कतारों में खड़ा नहीं था, इसने समय की बर्बादी और समग्र रूप से टिकट बुक करने वालों पर बोझ को कम कर दिया। हालाँकि रेडिफ खरीदारी और यहां तक कि ईबे के साथ रिटेल बिक्री साल 2000 से ऑनलाइन उपलब्ध थी, लेकिन ऑनलाइन शॉपिंग वास्तव में भारत में फिर से शुरू की गई थी, जब चंडीगढ़ स्थित टेक्नोक्रेट्स द्वारा स्थापित कंपनी फ्लिपकार्ट ने अपनी वेबसाइट पर बहुत अधिक छूट की पेशकश की थी। तब से, अमेजॅन जैसे अन्य व्यापारियों की एक बड़ी संख्या ऑनलाइन व्यापार में कूद गई है। भारत में ई-कॉमर्स क्षेत्र वर्तमान में पिछले एक दशक से 34 फीसद की उग्र गति से बढ़ रहा है।

भारत की इंटरनेट-प्रेमी युवा आबादी, देश में ई-कॉमर्स की सबसे बड़ी संचालक शक्ति में से एक है। युवा आबादी ई-कॉमर्स की बिक्री बढ़ा रही है, और नए और बेहतर मोबाइल ऐप खरीदारी करने वालों के लिए सुविधाजनक है कि वे ऑनलाइन खरीदारी कर सकें।

दूसरे और तीसरे स्तर शहरों जिनकी शीर्ष ब्रांडों तक पहुंच नहीं है, वे ऑनलाइन तरीके से अपनी इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं। उपयोगकर्ता के अनुकूल इंटरफेस, कई ऑनलाइन स्टोर, ट्रेंडिंग फैशन, आसान और बहुत सुरक्षित ऑनलाइन भुगतान के तरीके और छूट साल भर ऑनलाइन शॉपिंग को आकर्षक बनाते हैं। स्वाभाविक रूप से, ऑनलाइन खरीद के उन्माद ने ऑफलाइन खुदरा विक्रेताओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। ऑफलाइन खुदरा विक्रेताओं ने ऑनलाइन व्यापारियों के साथ अपने मूल्य युद्ध में हस्तक्षेप करने के लिए सरकार से संपर्क किया है।

भारतीय उपभोक्ताओं के लिए खरीदने से पहले उत्पादों को छूने और महसूस करने का अंतर्निहित रवैया है। कहानी के एक मोड़ में, मेकमायट्रिप के भारत के 40 से अधिक शहरों में आउटलेट हैं और 63 ऐसे आउटलेट्स के माध्यम से संचालित होते हैं तो क्या भारत मैटरीमोनियल और अब, यात्रा डॉट कॉम की योजना 100 नए भौतिक स्टोर खोलने की है। क्यों? यह उन लाखों लोगों की आवश्यकता को पूरा करता है जिनके पास अभी तक ऑनलाइन खरीद नहीं है? हालांकि भारत में 200 मिलियन से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, केवल 32 मिलियन वास्तविक खरीदार हैं। भारतीय संशयवादी दिमाग अभी भी उत्पादों के उस ’भौतिक स्पर्श’ के लिए तरसता है जैसे कि बच्चे के लिए उन उत्पादों या आभूषण या घडिय़ों जैसी महंगी वस्तुओं के लिए। ठीक इसी को ध्यान में रखते हुए, कैरलटन डॉट कौम जैसे व्यापारियों ने ग्राहकों के लिए अपनी वस्तुओं को आजमाने के लिए स्टोर स्थापित किए हैं।

नए खुदरा स्टोर एक मिश्रण प्रदान कर रहे हैं। कई बड़े खिलाड़ी अपने पारंपरिक खुदरा व्यापार की डिजिटल ई-कॉमर्स प्रणाली से बिक्री करके अपनी आय बढ़ा रहे हैं। एक कारण है कि स्नैपडील और क्रोमा अब भागीदार हैं या अमेजॅन और बिग बाजार केवल खुदरा विक्रेताओं नहीं हैं। यह प्रौद्योगिकी बैठक की लॉजिस्टिक सेवा की साझेदारी है। शॉपर्स स्टॉप ने अपने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को नया रूप दिया है और इसलिए रिलायंस ऑनलाइन उपभोक्ताओं को आकर्षित कर रहा है।

डिजिटल युग के साथ, निश्चित रूप से ई-कॉमर्स के प्रति झुकाव अधिक है। खुदरा विक्रेताओं को व्यवसायिक मिश्रण वाली खुदरा उपस्थिति और जीवित रहने के लिए स्थापित ऑनलाइन व्यवसायों के साथ विलय या ऑनलाइन होने जैसी नई रणनीतियों का पालन करना चाहिए। ‘‘यह सबसे मजबूत या सबसे बुद्धिमान नहीं है जो की जीवित रहेगा, लेकिन जो बदलाव का प्रबंधन करेगा’’। महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के 19 वीं शताब्दी में विकासवाद का सिद्धांत के लिए आने वाला बयान, शायद 21 वीं सदी में भारतीय खुदरा उद्योग के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक है।

अब राजनीति की ‘पिच’ का जायज़ा लेंगे गांगुली

क्या भाजपा 2021 में पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव को ‘दीदी’ बनाम ‘दादा’ करने का ताना-बाना बुन रही है? बीसीसीआई अध्यक्ष पद पर दिग्गज क्रिकेटर सौरव गांगुली को बिठाने में उसकी दिलचस्पी और परदे के पीछे से मेहनत तो यही संकेत देती है। गांगुली-क्रिकेट-राजनीति के इस दिलचस्प त्रिकोण पर विश्लेषण कर रहे हैं राकेश रॉकी।

सौरव गांगुली किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनको जानने वाले मानते हैं कि वे जितने अच्छे खिलाड़ी रहे, उतने ही राजनीति के छिपे रुस्तम हैं। बीसीसीआई का अध्यक्ष हो जाने को क्या गांगुली राजनीति की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करेंगे, इसके कयास अब देश की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर गली-कूचे में हैं।

खुद गांगुली मान चुके हैं उनके बीसीसीआई का अध्यक्ष होने के पीछे भाजपा के युवा तुर्क और राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर का समर्थन रहा है। तो क्या परदे के पीछे से अनुराग ठाकुर के जरिये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गांगुली को बीसीसीआई के बहाने पश्चिम बंगाल की राजनीति में ताकतवर ममता बनर्जी के मुकाबले भाजपा की तुरुप के रूप में तैयार किया है !

पहले यह देख लें कि गांगुली को बंगाल के अपने नेता के रूप में देखने की भाजपा की जरूरत (या मजबूरी) क्या और क्यों हो सकती है। मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा सीधे नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर चुनाव में उतरी थी। शायद अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी उतरे। लेकिन बंगाल में तमाम नेता होते हुए भी उसके पास पूरे बंगाल में ‘मास अपील’ रखने वाला नेता नहीं है। ऐसा नेता जो ममता बनर्जी जैसी मास अपील वाली नेता को टक्कर दे सके।

कोई दो राय नहीं कि शाह ने लोक सभा चुनाव में अपनी रणनीति, जिसमें हिंदुत्व को उभार कर राजनीति करना प्रमुख है, को कॉर्पोरट फंडिंग, सोशल मीडिया और जाति (दलित, आदिवासी) की मदद से ज़मीनी नेता ममता बनर्जी को ‘ठिकाने’ लगाने के उदेश्य से बखूबी इस्तेमाल किया।

लोक सभा चुनाव के वक्त सोशल मीडिया के प्रचार (या दुष्प्रचार) का भाजपा ने जमकर फायदा उठाया। एक पोस्ट में तो यह दावा किया गया था कि ममता बनर्जी की सरकार ने दुर्गा पूजा आयोजन पर ‘बैन’ लगा दिया है। सच यह है कि यह झूठ था। बांग्लादेशी शरणार्थियों पर भी भाजपा ने आंख रखी और उन्हें भाजपा से जोडऩे की गंभीर कवायद हुई जिसमें आरएसएस ने भी जमीनी स्तर पर काम किया।

सौरव गांगुली की बीसीसीआई अध्यक्ष चुनाव से पहले अमित शाह से मुलाकात बहुत कुछ कहती है। गांगुली बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पर जाने के नाते भले अपने किसी राजनीतिक कनेक्शन से बचना चाहते हों, परंतु अपने लिए अनुराग के समर्थन को खुले रूप से स्वीकार करना एक तरह से भाजपा का धन्यवाद करने जैसा ही है।

क्रिकेट में उनकी कप्तानी के दिनों को जिसने भी गहराई से समझा है, वो जनता है कि गांगुली बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। वे विरोधी टीम के लिए जाल बिछाते थे और उसे मात देने के लिए बहुत आक्रामक तरीके के साथ उस पर काम करते थे।

भाजपा को भी राजनीति में ‘आक्रामण’ पसंद रहा है। हिंदुत्व की उग्र राजनीति आक्रमण के साथ ही की सकती है। सौरव से अच्छा और लोकप्रिय पात्र भाजपा को भला कहां मिल सकता है। लेकिन एक सवाल जरूर है – क्या सौरव गंभीरता से ऐसी उग्र राजनीति की कश्ती पर सवार हो जाना चाहेंगे! मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ममता बनर्जी को चौंकाया था, इसमें कोई दो राय नहीं। चुनाव के नतीजों से ऐसा भी लगा कि एक समय बंगाल के किले पर दशकों राज करने वाले वामपंथियों का एक वर्ग भी भाजपा के समर्थन की कतार में जा खड़ा हुआ। शायद वामपंथियों की ममता से ‘नफरत’ ही वामपंथियों को किसी समय ममता से बड़ी अपनी राजनीतिक दुश्मन भाजपा के करीब ले गयी। वामपंथियों ने वास्तव में इससे क्या हासिल किया, यह तो समय ही बताएगा।

इस चुनाव में भाजपा 40 फीसदी वोट शेयर के साथ 18 सीटें जीत गयी जो उसके 2014 के प्रदर्शन – तीन सीट – से कहीं ज्यादा थीं। भाजपा से करीब तीन फीसदी ज़्यादा वोट फीसद के साथ ममता की तृणमूल कांग्रेस ने 22 सीटें जीतीं।

देश में उस चुनाव में भाजपा ने मोदी-शाह के नेतृत्व में ‘उग्र राष्ट्रवाद’ की जैसी नजीर पेश की, उसके सामने भी ममता बनर्जी 43 वोट शेयर ले गईं, यह जनता और बंगाल पर उनकी पकड़ का ही नतीजा था लेकिन यह भी सच है कि इन नतीजों ने ममता को चौकन्ना कर दिया। वे नतीजों के तुरंत बाद ज़मीन पर पूरी ताकत से सक्रिय हो गईं। भाजपा तो खैर है ही।

लेकिन इन अच्छे नतीजों के बावजूद भाजपा महसूस करती है कि उसके पास ममता की टक्कर का कोई चेहरा नहीं। विधानसभा चुनावों में ऐसे चेहरे की सख्त ज़रूरत उसे रहेगी, इसलिए गांगुली एक संभावना के रूप में सामने हैं। कहते तो यह भी हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा ‘दादा’ को लोकसभा चुनाव में ही सामने ले आना चाहती थी लेकिन गांगुली जल्दबाजी नहीं करते और शायद वो नतीजे भी देखना चाहते थे।

यदि भाजपा की पिछले पांच साल की क्षेत्रीय राजनीति का गहराई से अध्ययन किया जाए तो जाहिर होता है कि उसने बहुत से राज्यों में अपने पास बहुत लोकप्रिय चेहरा न होने के चलते दूसरे दलों – खासकर कांग्रेस – से लोकप्रिय नेताओं को तोडक़र अपने साथ मिलाया और उन्हें आगे कर चुनाव में उतरी। असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा जैसे कई उदाहरण हैं। बंगाल और तमिलनाडु अगली कतार में हैं।

गांगुली के चर्चा में आने से पहते तक मुकुल राय भी भाजपा के मुख्यमंत्री पद का सबसे मजबूत चेहरा माने जाते रहे हैं, वे भी भाजपा ने अपने यहां तृणमूल कांग्रेस से ही आयातित किये हैं। वैसे ही जैसा वह दूसरे कुछ प्रदेशों में करती रही है, जहां उसे सत्ता की तलाश है।

भाजपा की राजनीति को देखा जाए तो वह देश में जिन ज़मीनी नेताओं से सबसे ज्यादा ‘खौफ’ खाती है और जिनसे सबसे ‘नापसंदगी’ वाला भाव रखती है, उनमें ममता बनर्जी सबसे ऊपर हैं। एक समय ममता एनडीए की साथी रही हैं लेकिन तब भाजपा के केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी थे, नरेंद्र मोदी नहीं। वाजपेयी की लोकप्रियता मुसलमानों में भी खूब थी, मोदी की नहीं है। इसलिए ममता की सेक्युलर राजनीति में मोदी की कोई जगह नहीं हो सकती। वैसे ही जैसे शाह-मोदी की राजनीति में ममता की नहीं हो सकती।

मुकुल रॉय 2017 में बंगाल में सर्वेसर्वा बन गए लेकिन वहे भाजपा जैसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी में आकर भी वैसी प्रदेशव्यापी छवि नहीं पा सके जैसी क्षेत्रीय दल की नेता होते हुए भी ममता बनर्जी की है। मां, माटी, मानुष के राजनीतिक नारे के साथ ममता जैसी पैठ बंगाल की जनता में रखती हैं, वैसी फिलहाल तो सूबे में दूर-दूर तक किसी की नहीं।

वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि मुकुल राय ने ममता बैनर्जी से अलग होकर भाजपा में कड़ी मेहनत की और एक स्तर तक भाजपा का संगठन भी खड़ा किया। टीएमसी के कई बड़े नेताओं को भाजपा में लाने का ‘श्रेय’ भी उन्हें दिया जा सकता है। जाहिर है इतनी मेहनत और तोड़-फोड़ मुकुल ने इसलिए की होगी कि वे भी ममता की ही तरह सूबे का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते होंगे।

अब जबकि सौरव गांगुली को भाजपा के बंगाल में आगे करनी की चर्चा तेजी से उभरी है तो यह सवाल जरूर उठता है कि शाह ने क्या मुकुल राय को ममता से लोगों को तोडऩे और अपना आधार मजबूत करने के लिए ही इस्तेमाल किया? शायद मुकुल राय के जहन में भी यह सवाल आएं। फिलहाल तो तस्वीर साफ नहीं, लिहाजा मुकुल का मिज़ाज जानने के लिए कुछ महीने का इंतज़ार करना होगा।

गांगुली की बंगाल में भाजपा के चेहरे के रूप में चर्चा इतनी मजबूती से उठी है तो यह मुकुल राय के लिए चिंता की बात तो बनेगी ही। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक जब बीसीसीआई अध्यक्ष पद के लिए गांगुली को पर्चा भरना था तो कुछ और लोग मैदान में आने की तैयारी कर रहे थे। इन सब लोगों को रोकने के लिए अमित शाह ने असम के अपने नेता हिमंत बिस्वा सरमा को जिम्मा सौंपा था। रातों-रात सरमा मुंबई पहुंचे और फोन पर फोन खडक़ाये। अगले दिन नतीजा सबके सामने था – गांगुली के खिलाफ मैदान में कोई नहीं था।  गांगुली के लिए ऐसी मेहनत परदे के पीछे से भाजपा या अमित शाह या अनुराग ठाकुर या हिमंत विश्व सरमा ने क्यों की? सिर्फ उन्हें बीसीसीआई का प्रमुख बनाने भर के लिए? शायद नहीं। बीसीसीआई के अध्यक्ष पद की इस पिच पर तीन विकेट यदि मुंबई में गड़े थे तो तीन बंगाल में थे। शाह मुंबई की विकेट पर गांगुली को अपराजेय रखना चाहते थे ताकि बंगाल तक उनके जरिये भाजपा विधानसभा चुनाव का विजयी रन दौड़ सके।

गांगुली क्योंकि पिछले काफी समय से बीसीसीआई से पदाधिकारी के रूप में जुड़े हैं, नियमों के मुताबिक वे अगले 10 महीने तक ही बीसीसीआई अध्यक्ष पद पर रह सकते हैं। बीसीसीआई के नियम कहते हैं कि उसके बाद उन्हें ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ में रहना होगा यानी वे बीसीसीआई से जुड़े किसी संगठन में पदाधिकारी नहीं हो सकते। भाजपा संभवता इस ‘कूलिंग आफ पीरियड’ को ही अपने लिए ‘हॉट पीरियड’ के रूप में इस्तेमाल करेगी।

गांगुली का जब बीसीसीआई अध्यक्ष बनना तय हो गया तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें गर्मजोशी से भरा संदेश भी भेजा। इसमें ममता ने लिखा – ‘आपको आपके कार्यकाल के लिए शुभकामनाएं। हमें बंगाल क्रिकेट संघ के अध्यक्ष के तौर पर भी आपके कार्यकाल पर गर्व रहा है। अगली शानदार पारी के लिए शुभकामना।’ सौरव ने भी इस बधाई संदेश पर सकारात्मक रुख दिखाया – ‘ममता दीदी का बधाई संदेश पाकर मैं काफी खुश हूं।’

पश्चिम बंगाल में कभी बहुत ताकतवर वामपंथी राजनीति हाशिए पर पहुंच चुकी है। उसके पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में उसके वोट भाजपा की तरफ इसलिए खिसके क्योंकि वो टीएमसी को मैदान से हटाना चाहती है, भाजपा को नहीं। वामपंथियों को अभी भी यह लगता है कि वह टीएमसी को कमज़ोर करके ही अपनी खोई जगह पा सकते है लेकिन ममता ज़मीन पर जितनी मजबूत हैं उसे देखते हुए सीपीएम की यह सोच बहुत ज़मीनी नहीं दिखती। माकपा के 2014 में हासिल किय 30 फीसदी वोट 2019 के लोकसभा चुनाव में महज छह फीसद पर सिमट गए। इन कम हुए वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को गया।

बंगाल की चुनावी राजनीति हिंसा से भरी रहती है। लोक सभा चुनाव और उसके बाद के हालात भी इसका संकेत देते हैं। भाजपा जिस तरह का सांप्रदायिक ध्रवीकरण करना चाहती है, उसमें गांगुली शायद ज्यादा बड़ा रोल न निभा पाएं लेकिन भाजपा तो उनकी प्रदेशव्यापी छवि और लोकप्रियता पर मोहित है।

भाजपा ने भले 2019 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी से काफी सीटें छीनी हैं, एक सच यह भी है कि ममता की पार्टी ने 2014 से ज्यादा फीसद वोट इस बार हासिल किये। जहाँ 2014 में टीएमसी को 39 फीसद वोट मिले थे 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके वोट 42 फीसद पर पहुँच गए। ज़मीन पर विकास और काम के मामले में ममता सरकार का रिकॉर्ड बुरा नहीं रहा है। शायद एक कारण यह भी है कि भाजपा बंगाल में गांगुली के रूप में कुछ और ताकत की ज़रुरत महसूस करती है।  बंगाल में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं के पीछे राजनीति देखी जा रही है। भाजपा बंगाल में किस कदर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश में है, इसका उदहारण हाल में मुर्शिदाबाद की घटना है जिसमें एक परिवार के तीन लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। यह घटना होते ही भाजपा ने हत्याकांड के शिकार लोगों को भाजपा-आरएसएस का कार्यकर्ता बताकर टीएमसी पर इन हत्याओं का दोष मढ़ दिया। बाद में जांच से सामने आया कि यह हत्याएं तो निजी रंजिश का नतीजा था।

लोक सभा चुनाव में भाजपा ने बेहिचक बंाग्लादेश के प्रवासियों में लकीर खींचकर हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों को दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था। यही नहीं झारखंड सीमा पर बसे आदिवासियों को आरएसएस और बजरंग दल जैसे हिंदूवादी संगठनों के जरिये भाजपा खेमे में लाया गया।  ममता बनर्जी ने बहुत तरीके से सीपीएम की ज़मीन को अपने हक में किया है और इसे बनाकर रखा है। उन्होंने सत्ता में आने के बाद लेफ्ट की आर्थिक और इससे जुड़ी सुधार की नीतियों को कमोवेश जारी रखा है। बंगाल में इसे पसंद किया जाता है लिहाजा भाजपा इसे हिंदुत्व के अपने एजेंडा से छिन्न-भिन्न करना चाहती है। हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा को तो भाजपा ने अब खुले रूप से अंगीकार कर ही लिया है और इसे बेहिचक स्वीकार कर रही है।

लिहाजा गांगुली भाजपा में आ भी जाते हैं तो उनके लिए इस तरह के परिवेश में राजनीति करना उतना आसान नहीं होगा। वे क्रिकेट कप्तान और खिलाड़ी के रूप में आक्रामक ज़रूर रहे हैं पर धर्म विशेष के आधार पर आक्रामक होना अलग बात और अलग ‘हौसले’ की चीज है। शाह तो ऐसा कर सकते हैं, गांगुली के लिए धर्म विशेष के आधार पर राजनीति करना कितना सहज रहेगा, यह देखना भी बहुत दिलचस्प होगा।