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शिक्षा नीति-2019

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में 09 दिसंबर, 2019 को एक संयुक्त बैठक आयोजन किया गया। बैठक में एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (डीएनईपी) 2019 का मसौदे पर चर्चा की। चर्चा में कहा गया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (डीएनईपी) 2019 भारतीय संस्कृति, दर्शन एवं ज्ञानतंत्र और भाषा की विविधता; संविधान के अनुच्छेद-14, 15(1) और 16 के तहत समानता, समाजिक न्याय और भेदभाव से मुक्ति के मौलिक अधिकार; अनुच्छेद-1(1) के तहत भारतीय राजनीति की संघीय संरचना और राज्यों/संघ शासित प्रदेशों के अधिकार और संविधान के मूल मंत्र के अनुसार समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के निर्माण के लिए आवश्यक अन्य संवैधानिक मूल्य और अनिवार्यताओं के िखलाफ है। यह प्रारूप शिक्षा प्रणाली से स्वायत्तता के हर आिखरी अंश को निकाल देता है और उच्च शिक्षा सहित सभी स्तरों पर पात्रता, प्रवेश और मूल्यांकन के मानदंडों के केन्द्रीकरण को बढ़ावा देता है। यह शिक्षण संस्थानों की बहुस्तरीय प्रणाली की जगह निजी राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी और मान्यता प्रक्रियाओं को लागू करने का प्रस्ताव करता है। जो तथाकथित स्वतंत्र प्रबंधन द्वारा चलाया जाएगा, जो संस्थानों के कामकाज में शिक्षकों, छात्रों और कर्मचारियों की किसी भी लोकतांत्रिक और प्रतिनिधि भागीदारी की अनुमति नहीं देता है। इसका मतलब यह है कि प्रतिगामी शासन को सुदृढ़ करने के लिए बहुमूल्य भारतीय संस्कृति और भाषा के आधिपत्य और जाति, वर्ग, पितृसत्ता, जाति धर्म, भाषा, जन्म स्थान और आमतौर पर निकाय में निहित बहुविध शिक्षा प्रणाली से है। जो शिक्षा के निजीकरण और निगमीकरण को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक वित्त पोषित शिक्षा प्रणाली को कमज़ोर और ध्वस्त करता है। कम वेतन वाले कौशल (कौशल भारत मिशन) के लिए शिक्षा में कमी; और बहुजन (एससी, एसटी/ओबीसी/मुस्लिम/स्वछंद और परम्परागत आदिवासियों) का बड़े पैमाने पर बहिष्कार, खासतौर से मुनाफे के लिए लालायित वैश्विक पूँजी (कौशल भारत से मेक इन इंडिया के लिए) के लाभ के लिए सस्ती श्रम शक्ति के निर्माण के लिए लड़कियों को शिक्षा के क्षेत्र से बंचित करना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (डीएनईपी) वास्तव में दोहरे समानांतर संवाद से स्वतंत्रता संग्राम में किये गये महत्त्वपूर्ण योगदान, जाति-विरोधी तर्क और साम्राज्यवाद-विरोधी तर्क और संविधान में वर्णित समस्त सामाजिक धार्मिक समुदायों के बीच एकजुटता से बनाये गये ऐतिहासिक भूमिका उप-महाद्वीप के विभिन्न हिस्सों की बहु-धार्मिक, बहु-जातीय और बहु-भाषी भारत (हिंदू राष्ट्र नहीं) के दृष्टिकोण को बनाने के तर्क को नकारता है। पूर्व के 484 पृष्ठ का डॉ. कस्तूरीरंगन समिति की ड्राफ्ट रिपोर्ट (जून 2019) को अब 55 पृष्ठ संस्करण (अक्टूबर 2019) में बदल दिया गया है। बाद के संस्करण को छल से बदला गया है, ताकि भारत सरकार के इरादे का भंडाभोड़ जनता द्वारा आसानी से नहीं किया जा सके। इस संस्करण को मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया जाना बाकी है। हमें देखना है कि दोनों संस्करण में क्या है?

शैशव संरक्षण एवं शिक्षा (ईसीसीई) और समावेश सार्वजनिक वित्त पोषित डोमेन में डीएनईपीई के सार्वभौमिक ईसीई (3-6 वर्ष आयु वर्ग के लिए) पर ज़ोर दिया गया है। हालाँकि, यह प्रगतिशील कदम लगता है। लेकिन यह चुटकी भर नमक का लेना है। जबकि सभी क्षेत्रों में यह व्यावसायीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। इनका उद्देश्य बड़े पैमाने पर स्थानीय स्वयंसेवकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और परामर्शदाताओं’ की भर्ती करने की मंशा है। जो निस्संदेह सत्तारूढ़ औषधालय, विशेष रूप से आरएसएस के हैं, जिन्हें सार्वजनिक धन से समर्थन प्राप्त होगा। आरएसएस कैडर द्वारा स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक में घुसपैठ करके शिक्षा प्रदान करने से है।

व्यवसायीकरण और विनियमन

हालाँकि डीएनईपी शिक्षा को सामाजिक अच्छा, सार्वजनिक खर्चों में वृद्धि और परोपकार, अवसरों की समानता और इतने पर शिक्षा के बारे में ज़ोर से बात करता है। यह शिक्षा में अनपेक्षित व्यापार को बढ़ावा देता है। यह न केवल निजी स्वामित्व वाले स्कूलों और कॉलेजों को फीस जमा करने की अनुमति देता है, बल्कि विश्व बैंक, आईएमएफ और डब्ल्यूटीओ के आदेशों के अनुसार, यह अनुशंसा करता है कि सरकारें निजी संस्थानों को विनियमित नहीं करेंगी; क्योंकि वे लाभ के लिए नहीं या सार्वजनिक हैं।

भेदभाव-आधारित स्कूल और बहुजनों का बहिष्कार

डीएनईपी ने पड़ोस के स्कूलों (सीएसएस-एनएस) पर आधारित कोठारी आयोग की सिफारिश को अनदेखा करने के लिए चुना है। सभी बच्चों के लिए 12वीं कक्षा तक सभी वर्गों, जातियों, धर्मों, लिंग, भाषा, जन्म स्थान आदि को खासतौर से, सीएसएस-एनएस 1968, 1986 और 1986 (1992 में संशोधित) को क्रमिक नीतियों द्वारा अनुशंसित किया गया था। इस प्रकार, डीएनईपी समाज के विभिन्न वर्गों के लिए बहुस्तरीय स्कूल प्रणाली को वैध करता है। इसके अलावा, यह कक्षा 9 या उससे भी पहले की शिक्षा के व्यावसायीकरण की सिफारिश करता है। व्यावसायिक और उदार पाठ्यक्रमों के बीच विकल्प के प्रावधान के साथ, बहुजन और यहाँ तक कि गरीब उच्च जाति के बच्चों (85 फीसदी से अधिक बच्चों की संख्या) चाहेंगे।

मातृभाषा मध्यम और संस्कृत के प्रभाव का खंडन

शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा की डीएनईपी की सिफारिश कक्षा 5 तक सीमित है। इसे कक्षा 8 तक सहन किया जाता है और फिर जब सम्भव हो खंड जोडक़र सिफारिश को समाप्त कर दिया जाता है। यह उच्च शिक्षा के साथ-साथ सभी स्तरों पर संस्कृत को लागू करना चाहता है। जबकि गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में छात्रों पर हिन्दी और संस्कृत लागू की जाएगी, संस्कृत को हिन्दी-भाषी राज्यों में तीन-भाषा की नीति के तहत लागू किया जाएगा।

पाठ्यक्रम और अनुसंधान का एकीकरण

डीएनईपी की सिफारिश है कि कोर सामग्री एनसीईआरटी द्वारा स्कूलों के लिए तैयार की जानी चाहिए और पूरे देश के लिए सामान्य शिक्षा परिषद् (जीईसी) द्वारा कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए पाठ्यक्रम और क्रेडिट संरचनाएँ (55-पृष्ठ में गिरायी गयी जीईपी, संस्करण)। इसका तात्पर्य यह है कि राज्यों/संघ शासित प्रदेशों और उनके निकायों की पाठ्यक्रम सामग्री तय करने में बहुत कम भूमिका होगी (इस स्थिति को लेने में 55-पृष्ठ का संस्करण अप्रत्यक्ष है)। इसके अलावा, यह राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) की भूमिका का विस्तार करता है, जिससे स्कूल स्तर और उच्च शिक्षा दोनों में शिक्षा की सामग्री को नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार, एनटीए स्कूल शिक्षा के निकास द्वार और उच्च शिक्षा के प्रवेश द्वार को नियंत्रित करेगा। अंत में डीएनईपी नेशनल रिसर्च फाउंडेशन (एनआरएफ) को पूरे देश में एचईआई द्वारा किये जाने वाले शोध को नियंत्रित करने के लिए अनिवार्य करता है। निस्संदेह, यह विचार और ज्ञान उत्पादन के प्रतिगमन को बढ़ावा देगा, जो फासीवाद के लिए आवश्यक है।

संस्थागत स्वायत्तता पर हमला

एनईपी 2019 भी शिक्षा प्रणाली से स्वायत्तता को हर सम्भव समाप्त करता है और उच्च शिक्षा सहित सभी स्तरों पर योग्यता, प्रवेश और मूल्यांकन मानदंडों के ेकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देता है। एक ही समय में, यह एक निजी राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी और प्रत्यायन प्रक्रियाओं का प्रस्ताव करता है, जो शिक्षण संस्थानों की एक बहुस्तरीय प्रणाली है, जो तथाकथित स्वतंत्र प्रबंधन द्वारा चलाया जाएगा, जो किसी भी लोकतांत्रिक और शिक्षकों, छात्रों और संस्थानों प्रतिनिधि की भागीदारी की अनुमति नहीं देता है।

जनवादी विकल्प और संघर्ष की कार्यसूची इस प्रकार है :

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारुप को वापस लिया जाए।

सभी स्तरों पर (पीपीपी और एफडीआई सहित) शिक्षा के निजीकरण और व्यावसायीकरण का उन्मूलन और पूरी तरह से राज्य द्वारा वित्त पोषित, पूरी तरह से स्वतंत्र और लोकतांत्रिक ढंग से संचालित सामान्य शिक्षा प्रणाली को केजी से पीजी ‘तक, यानी कॉमन स्कूल सिस्टम’ से दिया जाए। केजी से कक्षा सात तक, नेबरहुड स्कूलों पर आधारित और बहुभाषी सन्दर्भ में शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा पर आधारित हो।

केजी से पीजी तक शिक्षकों की ठेकेदारी को समाप्त करना और उनकी नियुक्ति को नियमित करना।

शिक्षा में निर्णय लेने के केन्द्रीकरण को समाप्त करना और सीएबीई को राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों के साथ लोकतांत्रिक परामर्श के मॉडल के रूप में फिर से स्थापित करना, जबकि शिक्षा को राज्य/संघ राज्य क्षेत्र की सूची में वापस लाना।

समानता और सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व, लोकतंत्र, बहुलवाद, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के संवैधानिक मूल्यों के आधार पर एक परिवर्तनकारी शिक्षा प्रणाली की स्थापना, जो ज्ञान के लिए वैज्ञानिक स्वभाव पैदा करती है, जिससे धर्म, जाति, जैसे सभी विषमताओं से मुक्ति मिलती है।

इस एजेंडे को हराने के लिए बौद्धिक कठोरता और ज्ञान आवश्यक होगा। हमें उच्च शिक्षा के स्कूलों और संस्थानों दोनों में असंतोष और संघर्ष के लिए लोकतांत्रिक स्थानों की रक्षा के लिए पूरी तरह से सूचित, तैयार और संगठित होना चाहिए, जो सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी देगा।

जिसमें शिक्षा का अधिकार (एआईएफआरटीई) के लिए अखिल भारतीय मंच; आईसा; एआईएसएफ; अखिल भारतीय शांति और एकजुटता संगठन (एआईपीएसओ); एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एएफडीआर), पंजाब; बीएपीएसए; भगत सिंह छात्र एकता मंच, दिल्ली; भीम सेना के छात्र संघ; छात्र एकता मंच, हरियाणा; सामान्य शिक्षक फोरम (सीटीएफ); सामूहिक; दयार-ए-शौक छात्र चार्टर, जामिया; दिल्ली शिक्षक की पहल; डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसपी); डेमोक्रेटिक स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन (डीओएस), पंजाब;  दिशा; डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (डीटीएफ); डीवाईएफआई; खुदाई िखदमतगार; लोक शिक्षा मंच; निशांत नाट्य मंच; पीएसीएचएचएएस; पीडीएसयू; पिंजरातोड़; प्रगतिशील छात्र मोर्चा (पीएसएफ), हांसी, हरियाणा; पंजाब रेडिकल स्टूडेंट यूनियन (पीआरएसयू), पंजाब; लाल झंडा (पंजाब); समाजवादी युवजन सभा (एसवाईएस); एसएफआई; सामाजिक लोकतांत्रिक मोर्चे (एसडीएफ); दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए समाज; और सामाजिक न्याय के लिए युवा ने भागीदीरी किया।

शिक्षकों के पद खाली, राज्यों में घटे विद्यार्थी

पंजाब और हरियाणा के स्कूलों में एक-तिहाई पद खाली हैं। नतीजतन बच्चों का भविष्य दाँव पर है। हरियाणा राज्य विद्यालय शिक्षा विभाग के 2018 के आँकड़ों के अनुसार, 1 लाख 28 हज़ार 732 पद अध्यापकों के लिए थे; लेकिन सिर्फ 86 हज़ार 246 पद भरे जा सके। इसी तरह 45 हज़ार 446 खाली पद के लिए अतिथि अध्यापकों को 13,731 खाली पदों पर स्थान मिला। इस कारण स्कूलों में बच्चों की भर्ती भी कम हुई। कक्षा पहली  से चौथी में 2012-13 में जहाँ 13 लाख 43 हज़ार 958 की भर्ती हुई, वहीं हरियाणा में 2017-18 में 9 लाख 18 हज़ार 241 छात्र ही प्रवेश पा सके।

पड़ोसी राज्य पंजाब में 80 फीसदी पद स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीईआरटी) और 17 जिलों में डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग (डीआईईटी) खाली पड़े हैं।  एकेडमिक स्टाफ में 82 फीसदी (हर 5 सीट में 4 खाली) पूरे राज्य के ज़िला अध्यापक शिक्षा संस्थानों में खाली हैं, जबकि एससीईआरटी में 55 फीसदी हैं। यह जानकारी केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से जुड़े एजुकेशनल कंसलटेंट ऑफ इंडिया लिमिटेड ने मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार की है, में दी। जहां 17 ज़िलों में सरकार की डी मार्गदॢशका के तहत जहाँ 425 का एकेडमिक स्टाफ चाहिए, वहाँ स्कूल शिक्षा विभाग ने 264 पद पर ही सहमति दी। ज़िला स्तर के इन संस्थानों में 76 का स्टाफ तो हाल-िफलहाल है, लेकिन 349 पद खाली हैं। केन्द्र की ओर से चलायी स्कीम ऑफ रिस्ट्रक्टिरिंग एंड रि-ऑर्गेनाइजेशन ऑफ टीचर एजुकेशन में केन्द्रीय मंत्रालय में एकेडमिक पदों की संख्या हर डीआईईटी में 25 कर दी है, जिससे अध्यापक शिक्षा संस्थान मज़बूत हों। लेकिन 22 ज़िलों में से 17 में ही डीआईईटी िफलहाल काम कर रहे हैं। हालाँकि विभागों में और पद बनाने और जो हैं उन पर ही नियुक्तियों की मंज़ूरी विभाग को लेनी है। मोहाली में 5 नये ज़िला शिक्षक शिक्षा संस्थानों की मंज़ूरी है, ऐसी ही मंज़ूरी तरनतारन फाज़िल्का बरनाला और पठानकोट को भी मिली है। डीआईईटी को प्री सर्विस और इन सर्विस प्रशिक्षण अध्यापकों को देना है। स्कूल आधारित शोध शिक्षा शास्त्रीय अभ्यास और समन्वय एससीईआरटी से शिक्षक प्रशिक्षण में समन्वय और शिक्षकों को प्रशिक्षण की बात है। फिर भी राज्य में शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आयी है।

एससीईआरटी की स्थापना 1981 में बतौर नोडल एजेंसी हुई थी, जिससे स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार है। उसके लिए 45 पद थे। इसमें विशेष कोर्स और विशेषज्ञ प्रशिक्षण की व्यवस्था थी; लेकिन राज्य सरकार ने महज़ 24 पद ही मंज़ूर किये, जिनमें अभी चार खाली हैं। पंजाब में राज्य के सरकारी सेकेंडरी स्कूलों में 6,527 अध्यापक (लगभग 21 फीसदी) अप्रशिक्षित है।

अब अखिल भारतीय स्तर पर देखें, तो तकरीबन 2 लाख अध्यापकों के पद सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी स्कूलों में खाली हैं। बिहार और अभी हाल ही में केन्द्रशासित क्षेत्र बने जम्मू और कश्मीर में अध्यापकों की संख्या सबसे कम है।

जो आँकड़ा मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) ने लोकसभा में पेश किया उसके अनुसार सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी स्कूल में 2 लाख 13 हज़ार 608 पद अध्यापकों के खाली हैं। यह आँकड़ा हाल 2018-19 का है। बिहार में 33 हज़ार 908 पद खाली हैं। अरुणाचल प्रदेश में 21 हज़ार 393 और मध्य प्रदेश में 19 हज़ार 455 जबकि यूपी में 16087 पद रिक्त हैं। छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा ऐसे राज्य हैं, जहाँ 10-10 हज़ार पद रिक्त हैं। तमिलनाडु और केरल में चार हज़ार पद खाली हैं, जबकि कर्नाटक में 8 हज़ार 306, दिल्ली में 6 हज़ार 832 पद खाली हैं। कुल मिलाकर अध्यापकों के पदों की मंज़ूरी संख्या के बावजूद 23 फीसदी पद खाली हैं।

देश के राज्य विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में तकरीबन 28 फीसदी पद खाली हैं। 2 लाख 46 हज़ार 509 पदों में मात्र 1 लाख 79 हज़ार 950 पद ही अभी तक भरे जा सके। यह जानकारी केन्द्रीय मानव संसाधन विभाग मंत्रालय ने पिछले दिन राज्यों के राज्यपालों के साथ पिछले महीने हुई बैठक में दी। सरकारी कॉलेज जो बिहार हरियाणा, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में हैं, वहाँ 7 हज़ार 559 अध्यापकों की भर्ती प्रक्रिया शुरू हो गई है।

मंत्रालय ने राज्यपालों से गुज़ारिश की है कि वे सभी राज्यों की सरकारों से बात करके नियत समय में नियुक्तियाँ करा लें। उन्हें विश्वविद्यालयों के लिए भी एक मार्गदर्शिका बनाकर राज्य सरकारों को देने को कहा गया है। इन रिक्त पदों के चलते इन संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है क्योंकि ज्यादातर अस्थायी हैं और फिर अतिथि अध्यापक जो शिक्षा देते हैं। पंजाब में सरकारी कॉलेजों में 391 नियमित शिक्षक हैं, जबकि मंज़ूर पदों की संख्या 1,873 है। इसमें अंशकालिक अतिथि अध्यापक और सेवानिवृत्त अध्यापक भी हैं जो कमी पूरी कर रहे हैं।

देश के 292 राज्य विश्वविद्यालय हैं। उनमें राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगना में पूर्णकालिक वाइस चांसलर भी नहीं है। राज्यपालों से इस सम्बन्ध में कहा गया है कि वे राज्य सरकारों से बातचीत करके खाली पदों को भरे। एमएचआरडी का प्रस्ताव था कि यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) ऐसे नियम जारी करें, जिसमें 10 साल प्रोफेसर रहने, 3 साल प्रशासनिक अनुभव, वैश्विक शोध पत्रिकाओं में शोध पेपर (30 से कम पेपर छपे न हों) और उनके अधीन 10 लोगों ने पीएचडी की हो। राज्यों में यह न्यूनतम योग्यता वाइस चांसलर पद के लिए होनी चाहिए।

मंत्रालय ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को खाली पदों को भरने और उपयुक्त लोगों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया है। साथ ही बताया है कि केन्द्र समग्र शिक्षा योजना के तहत राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों में अतिरिक्त अध्यापकों की तैनाती में भी मदद करता है जिससे शिष्य-शिक्षक अनुपात न बिगड़े और सेवा के दौरान ही अध्यापकों का प्रशिक्षण हो।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ‘सही स्कूलों में, सही शिक्षक’ में अध्यापकों की तादाद 2017 में जारी हुई थी। इसमें बताया गया था कि जो अध्यापक स्कूल जाते नहीं थे, वह अपनी जगह उन्हें तैनात कर जाते थे, जिनके पास पढ़ाने की प्रशिक्षण योग्यता भी नहीं थी। वल्र्ड बैंक के इस अध्ययन में बताया गया कि खाली पदों के कारण सभी स्तरों पर छात्रों को ही भारी नुकसान झेलना पड़ेगा। भले वे स्कूल, कॉलेज या फिर किसी विश्वविद्यालय में न हो।

किसानों की आफत इधर से भी, उधर से भी

इन दिनों देश में विभिन्न समस्याएँ चल रही हैं। इन समस्याओं में किसानों की अपनी कई समस्याएँ हैं, जिन पर सरकारें बहुत ही कम ध्यान देती हैं। हाल ही के कुछ वर्षों में किसानों की कर्ज़ माफी की बात चली, लेकिन किसानों के लिए ये योजना भी धोखा-सा साबित हुई, खासकर छोटे और मँझोले किसानों के लिए। इसी तरह फसल बीमा योजना भी सिवाय दिलासे के कुछ न दे सकी। खाद की बढ़ती कीमतों और सस्ते में जाते खाद्यान किसानों की हालत को बेहतर करने की बजाय बदतर बना रहे हैं। जबकि सरकार दावा कर चुकी है कि उसने किसानों की आय को दोगुना कर दिया; जबकि सच्चाई यह है कि किसानों की आय में दिनोंदिन कमी आ रही है। किसानों के जीवन में एक समस्या नहीं है, बल्कि ऐसी कई समस्याएँ हैं, जिनके चलते वह उबर नहीं पाता है। कभी उसे बाज़ार में फसल के सही दाम नहीं मिलते, कभी उसके गन्ने का पैसा समय पर नहीं मिलता, कभी उसे मौसम की मार तबाह कर देती है, तो कभी कोई अन्य आपदा। ऐसे में किसानों के पास सिवाय रोने के कोई चारा नहीं बचता। सही बात तो यह है कि जिस तरह केन्द्र और राज्य सरकारों को किसानों की मदद करनी चाहिए, वह कभी नहीं करतीं। बाज़ार में खाद्य सामग्री महँगी होती है, लेकिन किसानों के हाथ से बहुत ही सस्ते में उन्हें खरीद लिया जाता है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण प्याज की बढ़ती कीमतें हैं। आज प्याज बाज़ार में 120 से 160 रुपये प्रति किलो बिक रहा है; लेकिन यही प्याज महज छ: महीने पहले 50-60 पैसे प्रति किलो किसानों से नहीं खरीदा जा रहा था। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर विस्तार से सरकारों के निठल्लेपन और मुनाफाखोरों की साज़िश को उजागर किया जा सकता है। िफलहाल एक और समस्या है, जो सदियों से किसानों के लिए मुसीबत और बर्बादी का सबब बनी हुई है। इस समस्या को मुंशी प्रेमचंद ने अपनी हल्कू नामक कहानी में बखूबी बयान किया है। आप समझ गये होंगे- यह समस्या है, आवारा पशुओं द्वारा फसलों को नष्ट किये जाने की। आवारा पशुओं द्वारा फसलों को नष्ट किये जाने पर न तो कोई बीमा योजना काम आ रही है और न ही सरकार इस नुकसान की भरपाई के लिए कोई कदम उठाती है। इस मामले को लेकर तहलका के स्वतंत्र पत्रकार ने बरेली के भौजीपुरा इलाके में कई किसानों से भी बातचीत की।

आवारा पशुओं का झुण्ड करता है हमला

बरेली के भौजीपुरा क्षेत्र के जालिम नगला गाँव के बड़े किसान नत्थू लाला ने बताया कि इन दिनों गेहूँ, मटर, सरसों, गन्ना, गोभी, साग, गाजर-मूली और अन्य मौसमी सब्ज़ियों की फसलें खेतों में खड़ी हैं। कड़ाके की सर्दी है और आवारा पशुओं के मन की फसलें हैं ये, जिन्हें वे किसी भी हाल में छोडऩा नहीं चाहते। इस सर्दी में किसानों द्वारा अपनी फसलों की रखवाली का संकट होता है। चट कर जाते हैं। अपनी गेहूँ की फसल को बचाने का असफल प्रयास किसान लगभग हर रोज़ करते हैं। लेकिन जहाँ उनकी नज़र खेतों से हटती है, वहीं आवारा पशुओं का झुण्ड उनके खेतों को तबाह करने पहुँच जाता है। किसानों की परेशानी यह है कि दिन में तो वह अपने खेतों की रखवाली कर लेते हैं, मगर रात की कडकड़ाती ठंड में किसान अपनी फसलों की रखवाली नहीं कर पाते। ऐसे में आवारा पशु बेखौफ होकर उनकी फसलों को रातोंरात पूरी तरह तबाह कर देते हैं। इससे किसान एक तरह से आधा मर जाता है। नील गायों और अन्य जानवरों के झुण्ड जिस तरह फसलों पर हमला करते हैं, उसे रोकने के लाख उपाय करने पर भी वह हमला रुकता नहीं है।

जान जोखिम में डालकर करनी पड़ती है फसलों की रखवाली

वहीं भोजीपुरा क्षेत्र के छोटे किसान नन्हें ने बताया कि रात को खेतों में जाने की हिम्मत नहीं होती। क्योंकि रात फसल की रखवाली करके सुबह वापस घर लौटना मौत के मुँह में जाकर लौटने से कम नहीं होता। किसानों के पास एक डंडे के सिवाय कोई हथियार नहीं होता। ऐसे में अगर किसान पर जानवर हमला कर दें, तो उसका बचना मुश्किल हो जाए। उसके अलावा ज़हरीले जीवों का भी डर रहता है। ऐसे में फसल की रखवाली के चलते किसान को अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता है। इतने पर भी रात को 12-1 बजे तक और सुबह 3-4 बजे से जाकर खेती की रखवाली करनी पड़ती है, जो कि काफी जोखिम भरा और कष्टदायक काम है। नन्हें बताते हैं कि एक बार वे अपने खेत की रखवाली करने गये थे, तभी नील गायों का झुण्ड उनके खेत में आ घुसा। उन्होंने उस झुण्ड को बचाने का प्रयास किया, तो झुण्ड उन पर उलटा हमलावर हो गया और उन्होंने भागकर अपनी जान बचायी। फिर गाँव से वे मसालें लेकर कई लोगों के साथ गये और नील गायों को भगाकर आये। लेकिन महज एक घंटे के अंतराल में नील गायें कई किसानों की फसलों के काफी हिस्से नष्ट कर चुकी थीं।

सरकार को करनी चाहिए भरपाई

एक अन्य बड़े किसान हरि सिंह का कहना है कि आवारा पशुओं से हुए नुकसान की भरपाई सरकार को करनी चाहिए। हाल ही में बीमा योजना शुरू हुई है, लेकिन अगर किसी किसान की फसल नष्ट होती है, तो उसे वह लाभ नहीं मिलता। कुछ किसानों को तो फसल बीमा की जानकारी भी नहीं है, तो कुछ किसान पैसे के अभाव में बीमा करा भी नहीं पाते। वहीं अगर कोई किसान किसी भी तरह नष्ट हुई अपनी फसल की भरपाई के लिए बीमा लेने की कोशिश कर भी ले, तो उसे रिश्वत खाने वाले अफसरों-कर्मचारियों की जेबें पहले भरनी पड़ती हैं। ऐसे अधिकतर किसान तो बीमा का भूत ही दिमाग से निकाल देते हैं।

गो-रक्षा ने बढ़ा दी आवारा पशुओं की संख्या

भोजीपुरा क्षेत्र के आयुर्वेद पशु चिकित्सक और बड़े स्तर के किसान सुखदेव गंगवार ने बताया कि गो-रक्षा का सरकार ने जिस तरह से नारा दिया, वह अच्छी बात है; गोवंश की रक्षा होनी भी चाहिए। लेकिन इससे किसानों की मुसीबत बहुत बढ़ गयी है। सुखदेव बताते हैं कि अब किसानों को गाय और गोवंश की बकरी-बकरे के बराबर भी कीमत नहीं मिलती। यहाँ तक बछड़ों (गाय का नर बच्चा) को तो मुफ्त में भी कोई लेने को तैयार नहीं होता। गोरक्षा का ऐसा जुनून कुछ लोगों में चढ़ा है कि अगर किसी को गाय या गोवंश को ले जाता देख लें, तो बिना कोई कारण जाने सीधे पीटने लगते हैं। सरकार ऐसे अराजक तत्त्वों पर रोक नहीं लगाती, पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ, तो पुलिस पीढि़त पर पर ही हावी हो जाती है। ऐसे में तबेला मालिक भी गायों को लेने और उनके मांस का व्यापार करने से बचने लगे हैं। अब किसान क्या करे? वह अधिक पशु रख भी नहीं सकता, क्योंकि उसके खुद के खाने का ठिकाना नहीं होता, तो बिना दूध की गायों और गोवंश को कैसे पाले? इसलिए अधिकतर किसान बिना दूध की गायों और बछड़ों को जंगल में छोड़ रहे हैं, बल्कि मैं कहूँगा कि छोडऩे के लिए मजबूर हो रहे हैं। इसकी ज़िम्मेदार कहीं न कहीं सरकार अधिक है। ऐसे में जंगलों में अवारा जानवरों की संख्या लगातार बढ़ रही है और किसानों के लिए अपनी फसलों को बचाना बहुत मुश्किल हो गया है। अगर सरकार को गो रक्षा की इतनी ही चिन्ता है, तो वह हर किसान से उस गोवंश को खरीदती क्यों नहीं, जिसे किसान पालने में असमर्थ है?

सरकार ने उठाया है यह कदम

उत्तर प्रदेश सरकार की बात करें, तो कुछ समय पहले सरकार ने एक कदम उठाया था, जिसके अंतर्गत नगर पंचायतों को प्रस्ताव भेजे गये हैं कि जो किसान गोवंश को पालेंगे, उन्हें सरकार प्रति पशु 900 रुपये महीने देगी। हालाँकि यह योजना अभी तक लागू नहीं हुई है, जबकि उत्तर प्रदेश सरकार को इसकी घोषणा किये हुए कई महीने बीत गये। इस मामले में एक मझोले किसान रामकरन बताते हैं कि पहले तो सरकार दावों और वादों पर अमल करने से रही। अगर मान लो कि वह किसानों को गोवंश पालने के एवज़ में पैसा देती भी है, तो उसे सोचना चाहिए कि इतने कम पैसे में पशु कैसे पलेगा? रामकरन ने कहा कि एक पशु को पालने के लिए कम से कम 2000 रुपये महीने की ज़रूरत होती है; ऐसे में 8-9 सौ रुपये से क्या होगा? उन्होंने यह भी कहा कि सरकार खाली के ड्रामे कर रही है, अगर उसे किसानों के हित की इतनी ही चिंता होती, तो सबसे पहले किसानों का कर्ज़ माफ करती।

नीलगायों से कैसे करें बचाव?

नीलगायों से बचाव के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने कुछ सामान्य और सस्ते से उपाय बताये हैं। इन उपायों में एक है- हर्बल घोल फसलों पर छिडक़ना। इस हर्बल घोल में- गोमूत्र, 1/4 मट्ठा (छाछ), 1/3 लालमिर्च, 1/8 राख मिलाना चाहिए। इस घोल को फसलों पर छिडक़ें, इससे न केवल आवारा पशुओं से, बल्कि कीटों से भी फसलों की रक्षा होती है। इसके अलावा मट्ठे और लहसुन से तैयार घोल भी फसलों पर छिडक़ने से आवारा पशुओं से फसलों की रक्षा की जा सकती है। इसके अलावा गोमूत्र, नीम की पत्ती, धतूरा, मदार, तम्बाकू, लहसुन, लाल मिर्च पाउडर आदि सामग्री मिलाकर भी घोल बनाकर फसलों पर छिडक़ाव करने से आवारा पशु फसल पर हमला नहीं करते। इस घोल में 1/4 गोमूत्र 1/4 नीम की पिसी पत्ती, 1/5 धतूरे की पिसी पत्ती और फल, 1/5 मदार (आक) की जड़, 1/8 तम्बाकू, 1/9 लहसुन, 1/16 लाल मिर्च पाउडर का घोल बनाकर धूप में ढककर रख दें। ध्यान रहे इस घोल में हवा नहीं लगनी चाहिए। फिर शाम को फसलों पर इस घोल का छिडक़ाव कर दें। आवारा पशुओं के साथ-साथ कीट भी फसलों को नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे। यह सभी घोल फसलों पर रक्षक दवा और खाद का भी काम करेंगे।

अधूरी ज़िन्दगी जीते आदिवासी

राजस्थान में बाराँ ज़िले के बीलखेड़ा गाँव के 30 वर्षीय धनराज को देखकर नहीं लगता कि दो जून की रोटी भी उसे मयस्सर होगी। जंगल के छोर पर बनी उसकी फूस की झोंपड़ी गिर रही है। उसके तीन बच्चे अधनंगे घूम रहे थे। सम्पत्ति के नाम पर गिलट के टूटे-फूटे बर्तन और एक कुल्हाड़ी है। लेकिन सरकारी रिकॉर्ड कुछ और ही बताते हैं कि धनराज समेत गाँव के सभी बाशिंदों के लिए सरकार ने पक्के मकान बनाकर दे रखे हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत भी मकान बनाये गये हैं। सरकारी दस्तावेज़ों में उनके नाम खेत और ज़मीन भी दर्ज है। नियमित रूप से राशन भी मिल रहा है। लेकिन हँसमुखी यह कहते हुए सरकारी आँकड़ों के झूठ को बेपरदा कर देती है कि राशन के दर्शन तो कोर्ई तीन-चार महीनों में ही हो पाते हैं, और वो भी कभी-कभी। कोर्ई 15 साल पहले मकान बनवाये गये भी होंगे, तो अब वहाँ सिर्फ खण्डहर नज़र आते हैं। प्रधानमंत्री आवास येाजना के तहत मकान बनाये जाने की शुरुआत भर की ही तस्दीक होती है। आधी-अधूरी दीवारों को मकान कहने का दावा किया जाए, तो बात अलग है। उनके नसीब में फूस की झोंपडिय़ाँ ही हैं। रोज़गार के सवाल पर तो गाँव वाले यह कहते हुए कन्धा झटक देते हैं कि मनरेगा कोर्ई ज़माने में रहा होगा, लेकिन अब कहाँ है?

राजस्थान में उदयपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़ और बाराँ आदिवासी बहुल इलाकों में गिने जाते हैं। सरकारी योजनाओं का नुमाइशी नज़ारा तो हर कहीं है। लेकिन सबसे बदतर हालात में अगर कोर्ई जी रहा है, तो वे हैं- बाराँ ज़िले के सहरिया आदिवासी है। ज़िले के केलवाड़ा और शाहबाद समेत 60 पंचायत हलकों में कोर्ई डेढ़ लाख की सहरिया आबादी है। लेकिन जीवन यापन के नाम पर सहरिया डेढ़ ज़िन्दगी जी रहे हैं। इलाके का हर शख्स सरकारी योजनाओं के हाशिये पर खड़ा बेचारगी, बदहाली और बदनसीबी की मुकम्मल कहानी बयान करता है। वह आसमानी ख्वाब बुनता है, तो दारू के नशे में, …और यही इसे चाट रही है। नशे की नशीली ज़िन्दगी बरकरार रखने के लिए आदिवासियों ने ज़मीन खेत तो क्या राशन कार्ड भी बेच खाये हैं। राशन कार्ड भी सभी के बन गये हों या बनकर उन्हें मिल गये हों? कहना मुहाल है। सरकारी सूत्रों के दावे की बात करें तो राशन कार्ड से गेहूँ ही नहीं, घी-तेल तक दिया जाता है; तो फिर जाता कहाँ है? हरिनगर गाँव का धुआँलाल कभी-कभी गेहूँ मिलने की तो तस्दीक करता है। लेकिन घी-तेल के सवाल पर तो दायें-बायें झाँकने लगता है। आदिवासियों के हालात पर पैनी नज़र रखने वाले और उनके अधिकारों के मुहािफज़ बने मुकंदीलाल का कहना है कि सहरिया (आदिवासी) तो दोनों ही हाथों लुट रहे हैं। अव्वल तो राशन सामग्री मिलने का कोर्ई ठिकाना ही नहीं है; अगर मिलता भी है, तो इन तक पहुँचने का सवाल ही नहीं। शराब की गिरफ्त में गले-गले तक डूबे आदिवासी खुद इस बात से बेखबर है कि दारू की खातिर राशन कार्ड किसे बेच आये? मुकंदीलाल यह कहते हैं कि इनसे बड़ा बदनसीब कौन होगा, जो अपने ही खेतों में मज़दूरी करते हैं? मुकंदीलाल कहते हैं कि खेतों के कागज़ातों पर तो साहूकारों ने ओने-पोने दामों के अँगूठे लगवा लिए। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि आदिवासियों की ज़मीनों की दीगर नामों से रजिस्ट्रियाँ क्यों कर हुई? जबकि यह तो कानूनी जुर्म है। फिर खतावार कौन हुआ? क्यों सरकार ने ऐसे जालसाज़ों के कान नहीं उमेठे? लेकिन सूत्रों का कहना है कि इन ज़मीनों केा खरीदा ही दबंगों ने है तो फिर कौन इनसे उलझने का दुस्साहस करेगा? ज़मीनों पर वनोपज की भरमार है। आदिवासी चाहे तो इन दरख्तों से लक्ष्मी की बारिश करवा सकते हैं। लेकिन शराब की मस्ती में उन्होंने अपनी ज़मीनों की कद्र ही नहीं की। केलवाड़ा, शाहाबाद, समेत सभी इलाके सघन वन क्षेत्र है। यहाँ पेड़ों की कटाई का एक पूरा तंत्र फैला हुआ है। लेकिन सब कुछ दबंगई के चलते निर्वाध चल रहा है।

आदिवासियों के डरे हुए चेहरे इस बात की तस्दीक कर देते हैं कि उनका एक लफ्ज़ भी उन्हें साँसत में डाल सकता है। ‘बँधुआ मज़दूरी’ के जाल ने तो इनकी मुश्कें बुरी तरह कस रखी है। गज़ब तो यह है कि इन्हें जल, जंगल और ज़मीन की नेमतें हासिल हैं; लेकिन घर छोडक़र बँधुआ बनने के लिए अभिशप्त है। उज्ज्वला और शौचालय सरीखी योजनाओं का फेरा तो यहाँ भी पड़ा होगा। लेकिन गैस उपलब्ध नहीं होगी और शौचालयों में पानी नहीं मिलेगा, तो ऐसी हज़ार योजनाएँ भी क्या करेगी? सूत्रों की मानें तो राशन सामग्री पर सरकार 30 करोड़ सालाना खर्च करती है। फिर राशन कहाँ जाता है? 25 करोड़ रुपये हर साल शिक्षा से जुड़ी योजनाओं पर खर्च होते हैं। लेकिन शिक्षा की तो यहाँ झलक भी नहीं मिलती। जिन गाँवों में पहुँचने के लिए सडक़ें ही नहीं है, वहाँ इन योजनाओं का लाव-लश्कर कैसे पहुँचा होगा? पानी तो इंसान की पहली ज़रूरत है। लेकिन इसकी मुकम्मल तस्वीर क्या है? कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक हैंड पम्प है। लेकिन कितने पम्प चालू स्थिति में है? एक शिक्षा कर्मी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि बजट तो साब हर चीज़ के लिए खूब आता है। लेकिन पता नहीं कहा जाता है। किसी को कुछ मिल ही नहीं रहा। बजट की हेराफेरी का खुलासा, तो इस एक ही घटना से हो जाता है। पिछले दिनों जनजाति विकास के लिए आवंटित बजट का एक बड़ा हिस्सा कलेक्ट्रट परिसर में एयर कंडीशनर लगाने पर खर्च कर दिया गया। आदिवासी तो यह सोच भी नहीं पाते कि उनके लिए दिया गया बजट कौन हड़प जाता है? भले ही सरकार ने आदिवासियों के विकास के लिए जनजाति क्षेत्रीय विकास महकमा अलग से बना रखा है। लेकिन महकमें के अफसर तो अपना ही विकास करने में लगे हैं। शाहाबाद, केलवाड़ा समेत पूरा आदिवासी इलाका कुपोषण और रक्त की कमी की सबसे ऊँची दरों वाले इलाकों में से एक है। लेकिन इन्हें कुपोषण से बचाने के लिए सरकार चाहे, तो छत्तीसगढ़ से सबक ले सकती है। सूबे के आदिवासी बहुल सूरजपुर ज़िले में ग्रामीण महिलाओं ने प्रशासन की मदद से अनूठी पहल की है। करीब 125 महिलाएँ मोङ्क्षरगा और सहजन की फलियों से तैयार पाउडर ‘मुनगा’ से ब्रेड टोस्ट, समोसा, कुकीज और लड्डू बना रही है। आँगनबाडिय़ों के माध्यम से यह चीज़े बच्चों को दी जा रही है। इसके नतीजे उत्साहवद्र्धक रहे। महज़ तीन महीने में तीन से छ: साल की उम्र के बच्चे कुपोषण के दायरे से बाहर हो गये। आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का तो यहाँ तक कहना है कि मुनगा पाउडर कैंसर, डायबिटिज और ब्लड प्रेशर ठीक करने की अचूक दवा है। राज्य मंत्रिमंडल में प्रमोद भाया बाराँ का प्रतिनिधित्व तो करते हैं; लेकिन आदिवासियों की खैर खबर लेने का खयाल इन्हें क्यों नहीं आया? कोर्ई तीन साल पहले ज़रूर प्रमोद भाया राहुल गाँधी को आदिवासी इलाकों में ले गये थे। चुनाव पूर्व तो उन्होंने भी खूब वादे किये थे। लेकिन उसके बाद तो इधर मुडक़र भी नहीं देखा। गिने-चुने स्कूल, डिस्पेंसरियाँ हैं भी, तो वो सब लोगों की पहुँच से बाहर हैं। फिर अध्यापक, नर्स और डॉक्टर कहाँ पहुँच पाते हैं अपनी डयूटी पर। जब उनकी निगरानी करने वाला तंत्र ही नहीं होगा, तो क्यों जाएँगे ड्यूटी पर? चोराखड़ी गाँव की कल्लूबाई कहती है कि गर्भवती औरतों के लिए अलग से कुछ मिलना तो दूर की बात, यहाँ तो न उनकी कोर्ई जाँच होती है और न ही किसी तरह के इलाज की कोर्ई सुविधा ही मिल पाती है। भला यह भी कोर्ई ज़िन्दगी है?

क्या कहते हैं पूर्व उप ज़िलाधिकारी?

सहरिया बेल्ट के पूर्व उप ज़िलाधिकारी राम प्रसाद मीणा बड़े पते की बात कहते नज़र आते हैं। उनका कहना है कि सरकार चाहे जो दे। लेकिन ये खुद लेना नहीं चाहते। शराब की एवज़ में सब कुछ साहूकारों के हवाले कर देते हैं। उनका मशविरा है कि पहली ज़रूरत तो इनको शराब की लत से मुक्त कराने की है। राशन कार्ड पर सामग्री इस पाबंदी के साथ दी जाए कि केवल महिलाओं को मिले। तभी गेहूँ, तेल, घी आदि खाद्य सामग्री घरों में पहुँच सकेगी; नहीं तो सब कुछ शराब की भट्टी में राख हो जाएगा। मीणा कहते हैं कि यहाँ के आदिवासियों की नयी पीढ़ी को शिक्षित करने की भी ज़रूरत है, ताकि इनके परिवारों को बुराइयों से बचाया जा सके। इसके लिए सरकार को नवोदय विद्यालय खोलने होंगे। शिक्षा का महत्त्व इन लोगों को बताना होगा। बच्चों को पढ़ाई के लिए आकॢषत करने के लिए आँगनबाड़ी को बढ़ावा देना होगा। पूर्व उप ज़िलाधिकारी मीणा बताते हैं कि आदिवासियों के हितों के लिए किशनगंज-शाहाबाद में स्वयंसेवी संस्थाएँ भी काम कर रही हैं। इसके लिए सरकार की अनुदान भी हासिल करती है। फिर भी उनका काम नज़र क्यों नहीं आया? यह कहना मुश्किल  है।

वह बताते हैं कि मार्च में जब महुआ खिलता है, तो पूरा इलाका महक उठता है। महुए के ढेर हाट-बाज़ारों में दिखायी दें या नहीं; इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। लेकिन देशी शराब की भट्टियाँ ज़रूर तपने लगती हैं। इसकी तीखी गन्ध आदिवासियों को अपनी तरफ न खींच पाये, यह सम्भव ही नहीं है। क्योंकि शराब का नशा अधिकतर आदिवासी पुरुषों के मुँह लग चुका है और उन्हें ज़िन्दगी की बेहतरी से कोर्ई सरोकार नहीं रह गया है।

नशे में घुलता नये साल का जश्न

कश्मीर भले नये साल पर देश भर के सैलानियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण रहा हो, इस बार वहाँ कुछ पाबंदियों और स्थिति के चलते बड़ी संख्या में सैलानियों ने हिमाचल का रुख गया है। हिमाचल में नये साल से पहले ही ज़्यादातर होटल में 70 फीसदी से ज़्यादा की बुकिंग हो चुकी है।

होटल इंडस्ट्री में इससे उपजी खुशी के बीच इस पहाड़ी राज्य के खास पर्यटन स्थलों राजधानी शिमला, मनाली और मैक्लोडगंज आदि में नये साल पर रेव पार्टियों के आयोजन की भी छिपकर तैयारियाँ हुई हैं। इन रेव पार्टियों में ड्रग्स और अन्य नशीले पदार्थों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है। पिछले साल पुलिस ने इन्हें रोकने की अथक कोशिश की है; लेकिन इसके बावजूद इन पर आंशिक नियंत्रण ही लग पाया है।

तहलका संवाददाता द्वारा जुटाई जानकारी के मुताबिक, प्रदेश में इस साल नशीले पदार्थों के 1350 के करीब मामले दर्ज हुए हैं। इनमें से ज़्यादातर मामले अब अदालतों में हैं। चिन्ता की बात यह है कि हिमाचल में ‘चिट्टा’ के इस्तेमाल का चलन बढ़ रहा है। इस साल में यह रिपोर्ट लिखे जाने तक चिट्टा से जुड़े 295 मामले दर्ज हो चुके थे। इससे पहले पड़ोसी पंजाब में इसे लेकर खासी बहस हो चुकी है।

नये साल से पहले ही कुल्लू के कई इलाकों के अलावा धर्मशाला के पास मैक्लोडगंज जैसे स्थानों पर रेव पार्टियों के आयोजन की तैयारी शुरू हो जाती है। इन्हें किया चोरी-छिपे ही जाता है। पुलिस की नज़र इन पर रहती है, लेकिन इसके बावजूद बहुत-सी जगह इनका आयोजन होता है।

हिमाचल में मुख्यता चरस, अफीम, भुक्की, गाँजा, चिट्टा, हेरोइन, स्मैक, ब्राउन शुगर, कोकीन, पॉपी प्लांट्स आदि का इस्तेमाल होता है। प्रदेश सरकार समय-समय पर नशा विरोधी अभियान चलाती रही है, इसके बावजूद इस धन्धे से जुड़े स्थानीय विदेशियों और लोकल युवाओं को यह चीज़े उपलब्ध करवाते रहे हैं।

यह आश्चर्य ही है कि अपने सौंदर्य और सेबों के स्वाद के लिए प्रसिद्ध हिमाचल नशे के मामले में भी उतना ही बदनाम हुआ है। हिमाचल में नशे का कारोबार खतरनाक स्तर तक पहुँच गया है। एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि हिमाचल नशे के लिए दर्ज मामलों में तीसरे स्थान पर है। प्रति लाख आबादी के हिसाब से दर्ज घटनाओं का आँकड़ा 13.6 है, जो देश में तीसरा सबसे ज़्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्रदेश में एनडीपीएस अधिनियम 1985 में विशेष और स्थानीय कानूनों (एसएलएल) अपराधों के तहत संज्ञेय अपराधों के 700 से ज़्यादा मामले दर्ज किये गये हैं, जो एक डरावनी तस्वीर पेश करते हैं।

हिमाचल में नशे के व्यापार में पकड़े गये आरोपियों को सज़ा मिलने का आँकड़ा भी बहुत कमज़ोर रहा है। पिछले दो साल में प्रदेश में नशे से सात युवाओं की जान गयी है। सामाजिक कार्यों में जुटी उमंग फॉउण्डेशन के अध्यक्ष अजय श्रीवास्तव का कहना है कि प्रदेश में विभिन्न सरकारें नशे का कारोबार रोकने में नाकाम रही हैं। श्रीवास्तव ने बताया कि ‘यहाँ नशीले पदार्थों की धड़ल्ले से बिक्री होती है। स्कूलों के बाहर नशे की पूडिय़ाँ बिकती हैं और सरकारी तंत्र हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है।’

सरकारों के अभियान भी कागज़ी साबित हुए हैं। इनमें गम्भीरता और नीति की बेहद कमी दिखती है और लोगों का इसमें भागीदारी बहुत कम है। पिछले साल एक पूर्व विधायक का नाबालिग बेटा अपने तीन साथियों समेत चरस के साथ हिरासत में लिया गया था। इससे जागरूकता का सहज ही अंदाज़ालगाया जा सकता है।

सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, हिमाचल में पिछले 10 साल में एनडीपीएस मामले तीन गुना बढ़ गये हैं। हिमाचल में बढ़ते नशीले पदार्थों के व्यापार का सबसे बड़े केन्द्र कुल्लू, मनाली, मंडी, सिरमौर और शिमला हैं, जहाँ बड़ी संख्या में युवा इसकी जकड़ में हैं। चरस का व्यापार कुल्लू में एक भयानक आकार ग्रहण कर रहा है, जहाँ पर्यटकों की बड़ी संख्या रहती है। सरकारी अधिकारियों के मुताबिक, विदेशियों में ज़्यादातर इज़राइली नागरिक इस धन्धे से जुड़े हैं। नशे की खेती के ज़रिये स्थानीय किसानों को त्वरित कमायी के लिए प्रेरित किया जाता है।

कुल्लू ज़िलों में मनाली, कासोल, मालाणा अभी भी नशीले पदार्थों के व्यापार के केन्द्र हैं। विदेशी नागरिकों और स्थानीय निवासियों की तरफ से मलाणा और आसपास रेव पार्टियाँ आयोजित करना आम बात है। यहाँ तक आरोप हैं कि कुछ विदेशी नागरिक अवैध रूप (भारत सरकार से वैध अनुमति के बिना) मालाणा क्षेत्र में रह रहे हैं और वे स्थानीय लोगों की मदद से नशा व्यापार में शामिल हैं। पिछले सात साल में 97 से अधिक विदेशी नागरिक, मुख्य रूप से ब्रिटिश, इस्राइली, डच, जर्मन, जापानी और इटालियन राज्य में नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेंस (एनडीपीएस) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किये गये हैं।

छानबीन बताती है कि पंजाब और हरियाणा की सीमा के साथ लगते राज्य के क्षेत्र नशीली दवाओं के केन्द्र बन गये हैं। नशा व्यापार के खतरे ने धार्मिक तीर्थ केन्द्रों और पर्यटन स्थलों में भी खतरनाक अनुपात में अपने पाँव पसार लिए हैं। सेवानिवृत्त एडीजीपी केसी संयाल ने इस संवाददाता से बात करते हुए खुलासा किया कि हिमाचल प्रदेश में 58 प्रतिशत से ज़्यादा नशे का उत्पादन इज़रायल, इटली, हॉलैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों में तस्करी के ज़रिये पहुँच रहा है। ‘बाकी नेपाल, गोवा, पंजाब और दिल्ली, नेपाल या अन्य भारतीय राज्यों में पहुँच जाता है।’

काँगड़ा ज़िले में मैक्लोडगंज और आसपास के इलाके भी अवैध नशीले पदार्थों के केन्द्र हैं। सड्याल ने कहा- ‘वैकल्पिक खेती (सब्ज़ियों और फूलों की खेती) ही अफीम और भाँग की खेती को नियंत्रित करने का एकमात्र तरीका है।’

राज्य पहले भाँग के लिए जाना जाता था, जो पहाडिय़ों में उगाया जाता था और विदेशियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता था। हालाँकि, अब सिंथेटिक नशा दवाओं की उपलब्धता और कुख्यात चिट्टा (हेरोइन) आ चुके हैं। युवाओं में खाँसी सिरप, एंटी-ड्रिंपेंट्स और नींद वाली गोलियों का भी इस्तेमाल होता है, जो सस्ती हैं। ड्रग तस्करी अब राज्य में विदेशी, स्थानीय और देश के अन्य राज्यों के तस्करी करने वालों के रूप में राज्य में बहु-आयामी समस्या बन गयी है। यह अब रहस्य की बात नहीं रही, भाँग और हशीश दशकों से हिमाचल में उगाये जाती रहे हैं और उपभोग के अलावा तस्करी में इस्तेमाल की जाती रही है।

ज़्यादा पर्यटक आ रहे

कश्मीर में हालत के मद्देनज़र हिमाचल में पर्यटकों की संख्या बड़ी है। जल्दी बर्फबारी ने इस बार पर्यटकों को हिमाचल की तरफ दिसंबर के दूसरे हफ्ते में ही खींच लिया। अहमदाबाद से आये नवविवाहित जोड़े सुधीर और रागिनी पटेल ने शिमला के मॉल रोड पर इस संवाददाता को बताया कि वे हनीमून के लिए कश्मीर जाना चाहते थे; लेकिन परिवार वालों ने शिमला और मनाली जाने की सलाह दी। रागिनी ने कहा- ‘शिमला के बाद हम मनाली जाएँगे। शिमला-कुफरी हमें बहुत सुन्दर और शाँत लगे।’

उधर शिमला और मनाली के होटलों में 70 फीसदी से ज़्यादा एडवांस बुकिंग हो चुकी है। इससे होटल के रेट भी बड़े हैं। शिमला होटल एंड रेस्टोरेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय सूद के मुताबिक, बर्फबारी के कारण शिमला आने वाले पर्यटकों की तादाद में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई हैं। नये साल तक यह ऑक्यूपेंसी करीब 80 फीसदी पहुँच गयी। मनाली में इस बार जल्दी बर्फ पडी है। अभी भी कई जगह बर्फ जमी है। रोहतांग जाने वाले पर्यटकों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है।

सख्ती कर रही पुलिस

तमाम एसपी को निर्देश दिये गये हैं कि नये साल पर इस तरह के पार्टियों पर विशेष नज़र रखी जाये और ऐसा करने वालों पर सख्त कार्रवाई के जाए। शैक्षणिक संस्थानों के पास स्थित सभी दुकानों, ढाबों में सख्त निगरानी रखी जा रही है। पहले के मुकाबले प्रदेश में नशे से जुड़ी घटनाओं में बड़ी संख्या में कमी आयी है। नशे, खासकर भाँग की खेती के िखलाफ व्यापक अभियान राज्य के सभी ज़िलों में शुरू किया गया था। पुलिस, एनसीबी, एसएनसीबी, सीआईडी और वन, राजस्व, पंचायती राज और ग्रामीण विकास विभागों जैसे प्रवर्तन एजेंसियों को शामिल करके ऐसी खेती को नष्ट करने के लिए एक संयुक्त अभियान हम चला रहे हैं। सभी एसपी, महिला मंडल, युवक मंडल और अन्य गैर सरकारी संगठन इससे जुड़े हैं। अफीम पोस्त और भाँग की फसलों का विनाश हम कर रहे हैं। ग्रामीण विकास विभाग के समन्वय में कृषि और बागवानी विभाग संयुक्त रूप से अफीम पोस्त और भाँग की खेती वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त वैकल्पिक नकद फसलों को अपनाने के प्रस्ताव पर काम शुरू हो चुका है। पीटीए और एसएमसी बैठकों के दौरान, छात्रों के माता-पिता भी इस मुद्दे पर चर्चा में शामिल किया गया है। स्कूलों में छात्रों को नशे से दूर रखने के लिए हमने जागरूकता अभियान शुरू किये हैं, जिनके अच्छे नतीजे आये हैं।

एसआर मरडी, हिमाचल पुलिस प्रमुख 

नशे का व्यापार

राजधानी शिमला में प्रदेश के सबसे बड़े स्वास्थ्य संस्थान,  इंदिरा गाँधी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (आईजीएमसी) की एक अध्ययन रिपोर्ट का हवाला देते हुए कुछ साल पहले न्यायमूर्ति राजीव शर्मा की अध्यक्षता वाली हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एक फैसले में कहा था कि राज्य में 40 प्रतिशत युवा नशीली दवाओं के जाल में फँसे हैं। यह दिलचस्प तथ्य है कि उच्च न्यायालय हाल के महीनों में इस मुद्दे पर राज्य सरकारों की खिंचाई कर चुका है। अदालत ने सरकार के भाँग उखाड़ो अभियान पर भी कहा था कि यह समस्या के हल के बहुत छोटा उपाय है और कागज़ों तक सीमित है। राज्य के करीब 380 गाँवों में भाँग की खेती होती हैं। राज्य सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक, अकेली कुल्लू घाटी में करीब 51,500 एकड़ ज़मीन में भाँग की खेती की जाती है और इस ज़िले में सालाना 1900 करोड़ रुपये के नशे का कारोबार होता है।

नशे की बुराई से निपटने के लिए सामूहिक प्रयास करने की ज़रूरत है। नशे के दुष्प्रभावों के बारे जागरूकता लाने के लिए एक जन आन्दोलन शुरू किया जाना चाहिए। हमारी सरकार ने इस बुराई को मिटाने के लिए बहु-आयामी रणनीति तैयार की है। एक माह तक चलने वाला अभियान इस रणनीति का हिस्सा है। अभियान औपचारिकता मात्र नहीं है, बल्कि इसके सकारात्मक परिणाम सामने आएँगे। सभी विभागों के बेहतर समन्वय के द्वारा इन प्रयासों को फलीभूत किया जा सकता है।

देश के पर्यटन निगमों के होटलों को भी प्रदेश में आने वाले पर्यटकों को नशे से दूर रहने के लिए जागरूक किया जाना चाहिए। हमने पिछले महीने ही शिमला में नशा मुक्ति केन्द्र और हिमाचल प्रदेश राज्य मनोरोग चिकित्सा प्राधिकरण की वेबसाइट शुरू की है।

जयराम ठाकुर, मुख्यमंत्री, हिमाचल

नये साल के जश्न में परम्पराओं से दूर होते हम

भारत एक ऐसा देश है, जिसके रीति-रिवाज़और तीज-त्योहार, सभी कुछ प्रकृति के अनुरूप तय किये गये हैं। ज्योतिष और मुहूर्त का भी उद्भव प्रकृति के अनुरूप हुआ है। यहाँ के सभी त्योहार मौसम और ऋतुओं के अनुरूप आते और मनाये जाते हैं, जो प्रकृति के बदलाव से सम्बन्धित हैं। भारत के मूल त्योहार भले ही किसी पौराणिक-कथा या किवदंती से जुड़े हों, परन्तु अंतत: उनका सम्बन्ध प्रकृति से ही है। यहाँ एक और तथ्य भी इन त्योहारों से जुड़ा हुआ है और वह है खेती। सभी जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। ऐसे में यह त्योहार न केवल मौसम और ऋतुओं के अनुरूप हैं, वरन् कृषि के अनुरूप भी हैं। ऐसे में हम अपनी संस्कृति के अनुरूप ही सभी त्योहारों को मनाते हैं। इन त्योहारों में अंग्रेजी कैलेण्डर का कोर्ई महत्त्व नहीं है, बल्कि इन त्योहारों में ज्योतिष शास्त्र का महत्त्व है। लेकिन आजकल हम अपनी संस्कृति को धीरे-धीरे भुलाते जा रहे हैं और अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार ही अपने त्योहारों को मनाने लगे हैं। जबकि अंग्रेजी कैलेण्डर से हमारे त्योहारों और यहाँ तक की भारतीय मौसम का भी कोर्ई लेना-देना नहीं है। इसी क्रम में अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल मनाने की प्रवृत्ति तकरीबन सभी भारतीयों में पनपने लगी है; जबकि सच्चाई यह है कि अंग्रेजी कैलेण्डर की कोर्ई भी तारीख हर साल आगे-पीछे होती रहती हैं। दरअसल, यह एक वैलेंस कैलेण्डर है, जिसे तीन साल में एक दिन की बढ़त करके बैलेंस किया गया है। दूसरी बात यह भी है कि इस कैलेण्डर को अंग्रेजों ने निर्मित किया है। यही कारण है कि यह कैलेण्डर भारतीय मौसमों, ऋतुओं और यहाँ की प्रकृति के अनुरूप पूरी तरह खरा नहीं उतर सका है। ऐसे में इस अंग्रेजी कैलेण्डर से हमें त्योहार मनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। नये साल को हम इसी कैलेण्डर के हिसाब से मनाने लगे हैं। यह बुरा नहीं है कि हम दूसरी संस्कृतियों के त्योहारों का सम्मान करें। लेकिन यह गलत है कि हम अपनी परम्परा के अनुरूप मनाये जाने वाले त्योहारों को भूलते जा रहे हैं। अगर केवल अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुरूप मनाये जाने वाले त्योहारों या यह कहें कि ईसाइयों के यानी पश्चिमी संस्कृति के त्योहारों की बात करें, तो आजकल हम नये साल से लेकर रोज-डे, स्लेप-डे, किस-डे और न जाने कौन-कौन से डे तथा क्रिसमिस-डे मनाने लगे हैं। इसमें कोर्ई बुराई नहीं है; लेकिन हम अपने त्योहारों को भूलते जा रहे हैं, यह गलत है। जैसे हम अपने नये साल को ही भूल चुके हैं। आप खुद ही सोचें कि 01 जनवरी को आने वाले नये साल में आिखर क्या नया होता है, सिवाय अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से नया साल आने के अलावा? जबकि हम सब भली-भाँति जानते हैं कि प्रकृति इस समय अपना कोर्ई रंग नहीं बदलती, मौसम भी नहीं बदलता, यहाँ तक कि ऋतु भी नहीं बदलती। अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल में हमारे यहाँ सर्दी का ही मौसम होता है और शीत ऋतु ही होती है। इन दिनों में हमारी रीति के अनुसार दूसरे कई ऐसे त्योहार होते हैं, जिनके बारे में अधिकतर लोग नहीं जानते। जैसे- माघ मास, जो पुण्य-धर्म का महीना होता है; इसके अलावा पूस का महीना, जिसे पकवान बनाकर खाने का समय होता है, खासकर दाल-बड़े, कचौड़ी, तिलकुट यानी तिल तथा मूँगफली के दानों से बनी मिठाइयाँ आदि बनाकर खाने का मौसम होता है। आयुर्वेद के हिसाब से भी इस मौसम में इस तरह के व्यंजन जमकर खाये जा सकते हैं। इन दिनों हमारी पाचन शक्ति बहुत बेहतर होती है। मगर हम मनाते हैं, नया साल; जिसका उतना महत्त्व कम-से-कम प्रकृति के हिसाब से नहीं होता, जितना कि हमारे इन त्योहारों का होता है। मगर हम अपने त्योहारों को भूलकर पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों में विशेष रुचि लेने लगे हैं। जबकि भारतीय त्योहार हमारे स्वास्थ्य से भी जुड़े हैं। आजकल अधिकतर लोग अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार नया साल 01 जनवरी से मनाने लगे हैं, जिसके मनाने का समय प्रकृति के अनुरूप नहीं है। साथ ही इस नये साल के जश्न में युवा पीढ़ी रास्ता भी भटकने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति और परम्परा को भी भूलती जा रही है। भारतीय नये साल के महत्त्व को समझने के लिए हमें भारतीय परम्परा के नये साल के महत्त्व तथा अच्छाइयों और अभारतीय परम्परा के नये साल के कुप्रभाव तथा बुराइयों पर विचार करने की ज़रूरत है।

कब आता है भारतीय नया साल?

हालाँकि हमारी वर्षों की परम्परा है, फिर भी आजकल के बहुत से लोगों को नहीं मालूम कि भारतीय नया साल कब आता है? तो आपको बता दें कि हमारा नया साल आता है चैत्र माह चंद्रोदय के पहले दिन यानी चैत्र माह के शुक्ल पक्ष से। कुछ लोग वसंत पंचमी से भी नया साल मानते हैं, लेकिन इन दोनों समयों में थोड़ा-सा अन्तर है। हालाँकि, जब भारतीय नया साल आता है, तब प्रकृति नयी-नवेली दुल्हन की तरह सजी होती है। चारों ओर मकरंद की खुशबू बिखरी होती है। भँवरे और तितलियाँ फूलों पर मँडराते दिखते हैं। पेड़ नयी-नयी कोपलों और नये-नये पत्तों से लदे होते हैं। सुरम्य, सुगंधित पछुवा हवा चल रही होती है। कोयल कूकना शुरू कर देती है। चारों ओर हरियाली छायी होती है। सरसों के खेत पीले-पीले फूलों से लदे होते हैं। गेहूँ के खेत बालियों से लदे होते हैं। अरहर के खेतों से फूलों की सुरम्य खुशबू आती है। मोर बागों में नाचने लगते हैं। यानी सर्दी को हम अलविदा कह रहे होते हैं। गुनगुनी धूप होने लगती है और बादल लगभग आकाश से गायब हो चुके होते हैं। तब होता है हमारा नया साल। यही नहीं हमारा वित्तीय वर्ष भी 01 अप्रैल से शुरू होता है। ऐसे में हमें भारतीय संस्कृति, भारतीय प्रकृति और मौसम के अनुरूप नया साल मनाना चाहिए, जो कि चैत्र माह में नवरात्रि से शुरू होता है। वसंत पंचमी को भी नया साल मनाने की परम्परा हमारी रही है। जिसे सिख धर्म में वैशाखी के रूप में मनाते हैं। वैसे सिख धर्म में नया साल होली, जिसे पंजाबी में होला-मोहल्ला कहते हैं, के अगले दिन से माना जाता है। इसी तरह सिंधी नया साल चैत्र के शुक्ल यानी चंद्र उदय के दूसरे दिन यानी दूज वाले दिन को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में भारतीय नये साल को गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता है, तो आंध्र प्रदेश में उगादी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन पाँच भारतीय परम्पराओं में तीन अलग-अलग दिवसों को नया साल मनाया जाता है; लेकिन इस अंतर से कोर्ई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि भारतीय नया साल आता वसंत ऋतु के अनुरूप ही है। वैसे मुख्य रूप से और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नया साल चैत्र शुक्ल पक्ष के पहले दिन यानी नवरात्रे के पहले वृत से शुरू होता है, जिसे नव संवत्सर भी कहते हैं।

संवत्सर का महत्त्व और इतिहास

भारतीय ज्योतिष शास्त्र के कैलेण्डर में जो गणना की गयी है, वह सूर्य और चंद्रमा की गति और उदय-अस्त के अनुसार होती है। कहा तो यही जाता है कि दुनिया भर के कैलेण्डर भारतीय ज्योतिष शास्त्र के कैलेण्डर का अनुसरण करते हैं। लेकिन इस दावे को अभी किसी दूसरी सभ्यता ने प्रामाणिक तौर पर स्वीकार नहीं किया है। यह भी कहा जाता है कि दुनिया का सबसे पहला कैलेण्डर भारतीय कैलेण्डर है, जो राजा विक्रमादित्य के काल में बना था, इसी के चलते इसके साल विक्रम संवत्् कहा जाता है। यहाँ तक कि वर्ष, महीने और सप्ताह का चलन भी विक्रम संवत्् के अनुरूप ही हुआ है। ऐसा भी कहा जाता है कि भारतीय ज्योतिष कैलेण्डर की नकल करके ही यूनानियों ने इसे दुनिया भर में फैलाया।

सबसे प्राचीन संवत् कौन-सा है?

अनेक भारतीय ज्योतिषी और विद्वान भी विक्रमी संवत्् से ही भारतीय दिवस गणना आदि को मानते हैं और यह मानते हैं कि एक साल की गणना भी विक्रम संवत्् से ही शुरू हुई है; लेकिन विक्रम संवत्् से तकरीबन 6,700 ईस्वी पूर्वी सप्तर्षि संवत्् अस्तित्व में आ चुका था। हालाँकि, ज्योतिष शास्त्र के जानकारों की मानें, तो वर्ष यानी संवत्् का प्रारम्भ तकरीबन 3,100 ईस्वी पूर्व माना जाता है। कुछ ज्योतिष मानते हैं कि भारतीय कैलेण्डर भगवान कृष्ण के जन्म से शुरू हुआ था, जिसे कृष्ण कैलेण्डर भी कहते हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग नया साल दीपावली से मानते हैं। इन लोगों में गुजरात और जैन धर्म के लोग शामिल हैं। बताया जाता है कि कृष्ण संवत्सर के बाद कलियुगी संवत्् की शुरुआत भी हुई। हालाँकि, यह कैलेण्डर इतने स्पष्ट और प्रामाणिक अब नहीं माने जाते, क्योंकि भारतीय ज्योतिष शास्त्र भी विक्रम संवत्् के अनुरूप ही चलता है, जिसके हिसाब से ही हमारे त्योहार पड़ते हैं, जो कि प्रकृति के अनुरूप हैं। हालाँकि विक्रमी संवत् के उद्भव यानी शुरुआत को लेकर ज्योतिषी और विद्वान एकमत नहीं हैं। फिर भी अधिकतर विद्वान विक्रम संवत्् की का प्रारम्भ 57 ईसवीं पूर्व से मानते हैं।

क्या है विक्रमी संवत्् यानी नव संवत्सर?

विक्रम संवत्् यानी नव संवत्सर पाँच प्रकार का होता है। इसमें सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, सावन और अधिमास आदि की गणना मान्य की गयी है, जिसके हिसाब से साल का चक्र घूमता है। इसका ज्योतिष में 12 राशियों से भी सम्बन्ध है। विक्रम संवत्् का एक साल 365 दिन का होता है। वहीं चंद्र वर्ष 354 दिनों का होता है। इसी तरह ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक माह 30 दिन का होता है। जबकि सप्ताह सात दिन का। अंग्रेजी कैलेण्डर में हर साल को बैलेंस करने के लिए कुछ माह 30 दिन के, कुछ माह 31 दिन के तो फरवरी को 28 या तीसरे वर्ष 29 दिन का बनाया गया है। जबकि भारतीय कैलेण्डर में प्रत्येक माह 30 दिन का ही होता है।

भारतीय नव वर्ष का महत्त्व

आजकल भले ही भारतीय युवा पीढ़ी अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार नया साल मनाने लगी है, लेकिन भारतीय कैलेण्डर के अनुसार ही नया साल मनाना अधिक उत्तम है। भारतीय नव वर्ष का महत्त्व और मतलब न केवल नयी प्रकृति, बल्कि रंगों और कलाओं से भी है। क्योंकि इन दिनों में प्रकृति भी रंग-बिरंगी और आकर्षक दिखती है, वहीं कला की देवी सरस्वती की उपासना भी की जाती है। माना जाता है कि संगीत की उत्पत्ति का सम्बन्ध वसंत के आगमन से है। कविता भी उदय भी वसंत के आगमन से है। महाकवि कालिदास ने तो प्रकृति के इस नव यौवन यानी नये साल में प्रकृति के नयेपन पर वृहद काव्य की बड़ी बारीकी से रचना की है। आिखर दुनिया का कौन ऐसा इंसान या जानवर या अन्य प्राणी होगा, जिसका लगाव या सम्बन्ध प्रकृति से न हो? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि कोर्ई भी नहीं। पर फिर भी हम अपनी प्रकृति से कटने लगे हैं, जो कि हमारी बड़ी भूल है। हमें याद रखना होगा कि प्रकृति से कटकर कोर्ई भी सुखी नहीं रह सकता। हमें प्रकृति के अनुरूप रहकर हर कार्य करना चाहिए, अन्यथा वह दिन देखना पड़ सकता है, जब हम बर्बादी के कगार पर खड़े दिखेंगे। आपको लग रहा होगा कि त्योहारों को न मनाने से भला क्या बिगड़ेगा? तो यह आपकी बड़ी गलत-फहमी होगी। क्योंकि प्रकृति के अनुसार त्योहार मनाने से हमारे स्वास्थ्य, हमारे जीवन-चक्र और हमारे व्यक्तिगत चरित्र आदि पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि भारतीय नया साल बहुत शुद्धता, वृत, प्रकृति पूजा आदि से शुरू होता है। जबकि अंग्रेजी साल में ऐसा कुछ भी नहीं है, सिवाय रात भर के हुड़दंग के।

अंग्रेजी के नये साल पर जश्न का नशा

कहने की ज़रूरत नहीं कि आज की पीढ़ी ज्यों-ज्यों पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों के जश्न में डूबती जा रही है, त्यों-त्यों नशे और अवैध और अत्यधिक सेक्स की लत में डूबती जा रही है। 01 जनवरी को मनाया जाने वाला नया साल लोग 31 दिसंबर की रात से शुरू करते हैं और वह भी किसी न किसी बुराई के साथ। अधिकतर युवा-युवतियाँ इस अंग्रेजी कैलेण्डर के नये साल को शराब और रात भर के डांस आदि के साथ शुरू करते हैं, जिसमें शोर-शराबे के अलावा कुछ और नहीं होता। शहरों में तो पब हाउस, बार, गेस्ट हाउस, होटल के कमरे और अवैध रूप से चल रहे सेक्स रैकेट के अड्डे 31 दिसंबर की रात से 01 जनवरी की सुबह तक शराब, सबाब, कबाब में तर रहते हैं, जो किसी न किसी रूप में भारत की नयी पीढ़ी को भटका रहे हैं। नयी पीढ़ी को इस पागलपन से बचाने के लिए अपने त्योहारों का महत्त्व और इनकी अच्छाइयाँ बताने की ज़रूरत है। लेकिन इसमें समस्या यह है कि न केवन बच्चे और युवा, बल्कि अनेक बुजुर्ग भी अंग्रेजी कैलेण्डर के इस पश्चिमी नये साल के जश्न में डूबते जा रहे हैं। उन्हें केवल शादी-विवाह या अन्य शुभ कामों के लिए भारतीय ज्योतिष शास्त्र और उसके सवंत्सर के अनुरूप चलने के अलावा बाकी चीज़ों से कोर्ई सरोकार नहीं रह गया है।

आने वाली पीढिय़ाँ भूल न जाएँ भारतीय नव वर्ष!

अगर सब इसी तरह चलता रहा और हम इसी तरह वसंत पंचमी को नया साल न मनाकर अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार 01 जनवरी को नया साल मनाते रहे, तो हमारी पीढिय़ाँ भूल जाएँगी कि भारतीय संस्कृति का भी कोर्ई सबसे बेहतर कैलेण्डर होता है। साथ ही यह भी भूल जाएँगी कि ज्योतिष गणना का क्या महत्त्व है? इससे न केवल हमारी संस्कृति का पतन होगा, वरन् हमारा भी पतन होगा। क्योंकि जो लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और भाषा को भुला देते हैं, उनका इतिहास खत्म हो जाता है, पतन हो जाता है।

भारतीय संस्कृति पर हमला, एक सोची-समझी साज़िश

जब भारत पर अंग्रेजों ने शासन किया था, तब उन्होंने सबसे पहले भारतीय भाषाओं पर हमला किया और अंग्रेजी को मुख्य भाषा के रूप में इस्तेमाल किया। इसी तरह उन्होंने भारतीय संस्कृति पर भी कुठाराघात किया और यहाँ की सभ्यता को भी कुचला। हमारे अच्छे ग्रंथों को या तो वे लेकर चले गये या उन्हें जला दिया। यह भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति और भारतीयता को नष्ट करने की एक सोची-समझी साज़िश थी। आज हम अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी के 72 साल बाद भी अपनी किसी एक बेहतरीन भाषा को भी राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं दे सके हैं और अंग्रेजी का लवादा ओढ़े घूम रहे हैं। इसी तरह अब हमारे त्योहारों पर हमले हो रहे हैं, अंग्रेजी कैलेण्डर यानी पश्चिमी सभ्यता के अनुरूप त्योहारों के रंग में हम भारतीयों को रंगकर। ऐसा नहीं कि यह सब एक दिन में हो गया, हम धीरे-धीरे अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार ढलने लगे और उसी के अनुसार पश्चिमी सभ्यता के त्योहारों को अपनाने लगे। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि यह सब यूँ ही नहीं हो रहा है, बल्कि इसके लिए बड़ी फंडिंग तक की जाती है और यह फंडिंग भारतीयों की जेब काटकर की जाती है। शायद थोड़ी-सी तरक्की, थोड़ी-सी अमीरी और नये साल के जश्न के नशे ने हमें अन्धा बना दिया है। अंग्रेजी कैलेण्डर के इस नये साल के जश्न में हम इतने मदहोश हो गये हैं कि हमें यह तक नहीं पता चल रहा कि हम नशे के शिकार हो रहे हैं और नशे तथा जिस्म की तस्करी को बढ़ावा दे रहे हैं, जो कि हमारे लिए काफी घातक है।

सरकारें भी नहीं लगातीं रोक

31 दिसंबर की रात पूरी तरह शोर-शराबे और नशे तथा जिस्म फरोशी के धन्धे में डूबी होती है। यह बात पुलिस भी अच्छी तरह जानती है, आबकारी विभाग के अधिकारी भी जानते हैं और सरकारें भी। लेकिन कोर्ई भी इस अवैध काम में हस्तक्षेप करने की ज़हमत नहीं उठाता। यहाँ तक कि अवैध बार, क्लब और शराब के अड्डे भी चलते हैं, पर किसी को कोर्ई लेना-देना नहीं। शायद अवैध कमाई और रिश्वत की रकम ने सबकी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। आज नये साल के नशे में न केवल शहर, बल्कि कस्बे और गाँव तक डूबने लगे हैं। न तो केन्द्र सरकार का इस ओर ध्यान है और न ही राज्य सरकारें इस नशीली-रसीली जश्न की रात पर रोक लगाती हैं। अगर यह सब इसी तरह चलता रहा, तो इसी तरह अवैध धन्धों और नशे की तस्करी को बल मिलता रहेगा और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के साथ-साथ भारतीयों का भी पतन होता रहेगा।

भडक़ाऊ संगीत भी दे रहा बढ़ावा

नये साल के जश्न में आजकल जिस तरह की नाइट पार्टियाँ आयोजित होने लगी हैं, उन्हें भडक़ाऊ म्यूजिक भी बढ़ावा दे रहा है। बॉलीवुड के आजकल के गानों के अलावा इस काम को हरियाणवी और भोजपुरी गाने भी बढ़ावा दे रहे हैं। असभ्यता की ओर ले जाने और जिस्म लौलुप्सा के लिए उकसाने वाले इन गीतों पर भी पाबंदी लगनी चाहिए; ताकि नये साल की नाइट पार्टियों में होने वाली अश्लीलता पर कुछ रोक लग सके। इसके साथ ही देर रात तक, जैसा कि कानूनी हिदायत है; पुलिस को कहीं पर भी म्यूजिक नहीं बजने देना चाहिए; तेज आवाज़में तो बिलकुल भी नहीं।

झारखंड में हेमंत सोरेन सरकार

देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा देने वाली भाजपा के लिए हाल के महीनों के विधानसभा चुनाव बुरे सपने की तरह साबित हुए हैं। इसकी अंतिम कड़ी झारखंड है, जहाँ भाजपा बुरी तरह हार कार एक साल में पाँचवाँ राज्य खो बैठी है। इस चुनाव से पहले ही जिस तरह भाजपा को उसके सहयोगियों ने छोड़ा वह भी पार्टी के लिए बड़ा झटका साबित हुई। अब 2020 में होने वाले दिल्ली और बिहार विधानसभाओं के चुनाव निश्चित ही भाजपा के लिए बड़ी चुनौती रहेंगे।

भाजपा अभी महाराष्ट्र में मिली चोट से उबरी भी नहीं थी कि झारखंड के चुनाव नतीजे उसे बड़ा झटका दे गये। एक और राज्य भाजपा के हाथ से खिसक गया, पिछले एक साल में पाँचवाँ। जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन को 47 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिल गया और भाजपा, जिसने 65 पार का नारा लगाया था, 25 सीटों पर सिमट गयी। हेमंत सोरेन झारखंड में अब नयी सरकार के मुखिया होंगे। नतीजे आने के अगले ही दिन तीन सीटें जीतने वाली जेवीएम ने भी नयी सरकार को बिना शर्त समर्थन का ऐलान कर दिया।

भाजपा के लिए सबसे बड़ा झटका यह भी रहा कि उसके मुख्यमंत्री रघुबर दास तक चुनाव हार गयेे। इस चुनाव में जेएमएम अकेले सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। उसकी सहयोगी कांग्रेस, जिसके पिछली विधानसभा में महज़ छ: सदस्य थे, इस बार अपनी ताकत बढ़ाकर 16 सीटें जीतने में सफल रही। हेमंत सोरेन दो सीटों से चुनाव लाडे और दोनों पर ही जीते।

भाजपा में चुनाव से पहले ही रघुबर दास को मुख्यमंत्री के रूप में दोबारा आगे रखने पर विवाद था; लेकिन आलाकमान ने इसे स्वीकार नहीं किया। नतीजा यह निकला कि वे खुद अपना चुनाव तो हार ही गये, भाजपा की भी लुटिया डूब गयी।

झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन अब राज्य के अगले मुख्यमंत्री होंगे। वैसे इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत जेएमएम से ज़्यादा रहा; लेकिन उसे उससे सीटें पाँच कम मिलीं। मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की बढ़त कहीं ज़्यादा सीटों पर थी, लेकिन विद्यानसभा चुनाव में उसे बुरी तरह हार मिली है। उसका वोट फीसद भी तब 51 था; लेकिन इस चुनाव में घटकर 33.4 पर आ पहुँचा।

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास जमशेदपुर पूर्वी सीट से अपने ही मंत्री रहे और भाजपा के बागी सरयू राय से 15,833 वोटों से पिट गये। हार के बाद रघुबर दास ने हार स्वीकार करते हुए अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया। राज्यपाल द्रोपदी मुर्मू को उन्होंने 23 दिसंबर को ही इस्तीफा सौंप दिया। वह इसी सीट से लगातार पाँच बार विजयी रहे थे और 2014 के विधानसभा चुनाव में तो वह 70,157 वोटों से विजयी रहे थे।

यही नहीं भाजपा को एक और बड़ा झटका प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा की हार से भी मिला। गिलुवा चक्रधरपुर सीट से झामुमो प्रत्याशी सुखराम उरांव से 12,234 वोटों से हारे। हेमंत सोरेन समेत उनके गठबंधन के कमोवेश सभी बड़े नेता विधानसभा चुनाव में जीतने में सफल रहे। झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और विजयी गठबंधन के नेता हेमंत सोरेन ने बरहेट और दुमका दोनों सीटों से जीत दर्ज की। उन्होंने बरहेट सीट पर भाजपा के साइमन माल्टो को 25,740 वोटों से पराजित किया, जबकि दुमका में भाजपा की मंत्री रही लुईस मरांडी को 13,188 वोटों से हराया। वैसे 2014 के चुनाव में सोरेन उनसे 4914 वोटों से हार गये थे।

इन चुनावों में जो अन्य बड़े नेता जीते उनमें आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो भी हैं, जो सिल्ली से 20,195 मतों के बड़े अन्तर से झामुमो की उम्मीदवार सीमा महतो को हराकर जीते। इससे पहले वे उप चुनाव में उनसे हार गये थे। याद रहे 2014 में सीमा के पति झामुमो के उम्मीदवार अमित महतो ने सुदेश को 29,740 वोटों से पराजित किया था।

इसी तरह झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने धनवार सीट से भाजपा के लक्ष्मण प्रसाद सिंह को 17,550 वोटों से मात दी। पिछले चुनाव वे इसी सीट से हारे थे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने कांग्रेस के ही पूर्व अध्यक्ष और अब भाजपा में चले गये सुखदेव भगत को 30,150 वोटों के बड़े अन्तर से मात दी।

यह विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए किसी बुरे सपने की तरह साबित हुआ है। पिछले एक साल में भाजपा पाँच राज्यों में हार चुकी है। इसकी शुरुआत राहुल गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधासभा चुनाव से हुई थी। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 37 सीटें जीते थीं; लेकिन इस बार 12 सीटें खोकर 25 पर पहुँच गयी।

पिछले चुनाव में उसकी सहयोगी रही आजसू की भी भाजपा जैसी ही हालत हुई। इस बार भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ा था; लेकिन इसका न तो उसे फायदा मिला न ही आजसू को। आजसू पिछली बार आठ सीटें जीती थीं; लेकिन इस बार 53 सीटों पर लडक़र दो ही जीत पायी।

उधर झारखंड मुक्ति मोर्चा 30 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। कांग्रेस ने भी इस चुनाव में अपनी ज़मीन काफी हद तक हासिल करने में सफलता हासिल की है। कांग्रेस ने 16 सीटें जीते हैं और उसका उप मुख्यमंत्री नयी सरकार में होगा। इसी गठबन्धन की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने एक सीट जीती। निर्दलीय के खाते में दो सीटें गयी हैं। आठ सीटों पर झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) (जेवीएम-पी), एक पर सीपीआई-माले और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने भी एक सीट जीती।

झारखंड में हार के बाद निश्चित ही भाजपा खेमे में अब बिहार की चिन्ता पैदा हुई है, जहाँ 2020 के आिखर में विधानसभा चुनाव होने हैं। पड़ोसी देश होने के नाते झारखंड के नतीजों का बिहार पर भी असर पड़ सकता है।

भाजपा के लिए यह चुनाव हार इसलिए भी चिन्ताजनक है; क्योंकि इस चुनाव में पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने धारा 370 से लेकर नागरिकता संशोधन कानून तक को भुनाने की बहुत कोशिश की थी। लेकिन लोगों से भाजपा को समर्थन नहीं मिल पाया। विपक्ष ने आरोप भी लगाया था कि भाजपा झारखंड में हार देखकर अपने घटिया एजेंडे को सामने कर रही है।

हालाँकि, भाजपा के कुछ नेताओं ने नतीजों के बाद कहा कि आिखर के चरण में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहा, जो इस बात का सबूत है कि लोगों ने नागरिकता कानून के हक में भाजपा को वोट दिया। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में भी भाजपा ने अपनी सीटें धारा-370 के बाद खोयी हैं। पीएम मोदी ने डबल इंजन की सरकार की बात भी की थी, जो जनता के गले नहीं उतरी। भाजपा को उसके मुख्यमंत्री रघुबर दास की विवादित छवि भी महँगी पड़ी है, जिनके िखलाफ विपक्ष लगातार भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहा था। लेकिन भाजपा ने इसके बावजूद दास पर भरोसा जताया और अंतत: उसे हार झेलनी पड़ी।

चुनाव में किसका कितना वोट शेयर?

भाजपा  33.37 प्रतिशत

जेएमएम            18.72 प्रतिशत

कांग्रेस   13.88 प्रतिशत

जेवीएम 5.45  प्रतिशत

आजसू   8.10  प्रतिशत

राजद    2.75 प्रतिशत

किसको कितनी सीटें

जेएमएम            30

कांग्रेस   16

भाजपा  25

राजद    1

जेवीएम 3

आजसू   2

अन्य      4

पाबंदी नहीं, अधिक आज़ादी प्रदान करने वाला हो नया प्रेस बिल

प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 का मसौदा तैयार किया गया है, इसमें पीआरबी अधिनियम 1867 में सुधार की ज़रूरत बतायी गयी है। इसके साथ ही कहा गया है इससे किसी पर ‘नियंत्रण’ किया जाएगा। ये बातें दिल्ली पे्रस के प्रमुख परेश नाथ ने बिल के मसौदे के सम्बन्ध में कहीं।

सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 का मसौदा नवंबर में जारी किया था और इसमें कहा गया कि यह पंजीकरण के लिए है न कि नियंत्रण (रेगुलेशन) के लिए, क्यों कि नियंत्रण के कई मायने निकलते हैं। मसलन, बोलने की आज़ादी को नियंत्रित करना या दबाना हो सकता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी देश के जीवंत और लम्बे समय से चल रही पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशकों के मूल में रहा है।

दिल्ली प्रेस के प्रमुख परेश नाथ ने यह भी बताया कि विधेयक में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी को नियंत्रित नहीं करता है; लेकिन 2009, 2011 और 2013 में लोगों के लिए ज़रूरी विषय पर बिल में सुधार की बात कही गयी थी, पर 14वीं लोकसभा के कार्यकाल के बाद उनको हटा दिया गया। परेश नाथ ने कहा कि बिल में 1867 के पीआरबी अधिनियम की प्रस्तावना और परिचय में ही स्पष्ट है कि मौज़ूदा अधिनियम का उद्देश्य भारत में मुद्रित कार्य का लेखा-लोखा रखना साथ ही उसे संरक्षण प्रदान करना था, पर इसमें ऐसी भावना का अभाव दिख रहा था। उन्होंने कहा कि मसौदे के कुछ प्रावधानों ने प्रकाशकों को बेचैन कर दिया है।

परेश नाथ ने बताया कि मसौदे के नोट सूचना मंत्रालय को भेजे गये हैं, जिसमें कहा गया है कि देश के नागरिक चाहते हैं कि प्रेस को वैधता देने के लिए एक कानून बनाया जाए और ऐसा मंच दिया जाए, जिससे समाचार पत्र के मालिकों को उनके अधिकारों को संविधान के तहत ही प्रदान किये जाएँ। उन्होंने कहा कि प्रस्तावित अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि इसमें पंजीकरण का ज़िक्र है न कि नियंत्रित करने का; क्योंकि इसका मतलब यह भी हो जाता है कि आप लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी चाहते हैं।

अखबारों के बारे में भ्रम की स्थिति को लेकर उन्होंने कहा कि बिल के मसौदे में समाचार पत्र के लिए कई तरह की शर्तों का ज़िक्र किया गया है, जिससे यह उलझन भी बढ़ जाती है कि इससे अखबार पढऩे वालों के कहीं अधिकार तो नहीं छिन जाएँगे।

नये विधेयक में शब्दावली को भ्रमित करने के मामले में परेश नाथ ने कहा कि भाग चार में पंजीकरण के लिए आवधिक (पीरियोडिकल) शब्द का इस्तेमाल किया गया है। धारा-6 में शीर्षक केवल ‘आवधिक’ के बारे में है। हम बिल में इन विसंगतियों को मानते हुए अखबार के लिए थोपी जा रहीं शर्तें वैसी ही रखी जाएँ जैसे कि डाकघर अधिनियम, रेलवे अधिनियम, प्रेस काउंसिल एक्स आदि के लिए रखी गयी हैं। प्रेस काउंसिल एक्ट में किसी भी तरह के बदलाव का मतलब होगा कि हर जगह मुकदमेबाज़ी का सामना करना। इसलिए पुराने ‘न्यजपेपर’ शब्द से बचें, ताकि इस तरह की दिक्कत का सामना न करना पड़े।

परेश नाथ ने कहा कि प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक-2019 के मसौदा प्रिंटिंग प्रेस वालों के लिए भारी साबित हो सकता हैं। ‘बिल की धारा-3 में सभी प्रिंटिंग प्रेस के लिए यह अनिवार्य है कि वे रिटर्न दािखल करें।’ यह एक पेंडोरा बॉक्स की तरह है, जिससे हर प्रिंटिंग प्रेस को काम करने वाले को अपने हर एक काम की जानकारी रजिट्रार को देनी होगी। प्रेस रजिस्ट्रार जनरल का दफ्तर रुकावट का कार्य करेगा। अभी इस बारे में विस्तृत विवरण नहीं मिला है, इसलिए इस पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। उन्होंने बिल पर आशंका जताते हएु कहा कि इससे बड़ी संख्या में स्वतंत्र प्रिंटिंग प्रेस कई चीज़ों का प्रकाशन बन्द कर देंगी, जिनके दायरे में अखबार, प्रकाशन या पत्रिका या सामान्य अथवा आवधिक और पुस्तकें भी होंगी।

परेश नाथ जिन्होंने 1940 में अंग्रेजी साहित्यिक पत्रिका कारवाँ शुरू की थी, उन्होंने विधेयक के ज़रिये थोपी जाने वाली शर्तों पर सवाल उठाये। उन्होंने कहा- ‘हमें लगता है कि गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम 1967 के तहत दोषी पाया गया व्यक्ति अगर सज़ा काटकर जेल से बाहर आ जाए, तो उसे एक बार फिर अखबार शुरू करने की इजाज़त मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि किसी भी कानून के तहत हिरासत में लिए जाने पर भी अपराधी के भी अपने कई मौलिक अधिकार होते हैं। नाथ ने कहा कि पीआरबी अधिनियम 1867 में ऐसा कोर्ई प्रावधान नहीं था; इसके बावजूद  अंग्रेज स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में निकाले जाने वाले अखबारों के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर थे।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ‘आज़ाद भारत में दोषी पाये जाने पर जीवन भर के लिए पाबंदी लगाये जाने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, उसे रिहाई के बाद भी अपनी राय जनता के सामने पेश करने का कोर्ई अधिकार नहीं होगा। हम यह भी सोचते हैं कि यदि एक कॉरपोरेट निकाय जहाँ विदेशियों की बड़ी हिस्सेदारी है, जिनको स्वयं प्रकाशित करने और ‘प्रकाशन’ करने की अनुमति है, तो विदेशी को भी एक समाचार पत्र लाने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह भी कहा जाता है कि विदेशियों के लिए संविधान के तहत कोर्ई ‘मौलिक अधिकार’ नहीं होगा; लेकिन यह वैधानिक अधिकार विदेशियों के स्वामित्व वाले कॉरपोरेट को दिया जा सकता है।

हिन्दी की कई पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाली दिल्ली प्रेस के मालिक परेश नाथ ने कहा किबिल में समाचार पत्रों के पंजीकरण में कई तरह की खामियाँ हैं। धारा-6 (1) में कहा गया है कि आज के समय में ज़रूरी नहीं है कि भारत में ही समाचार पत्र की छपाई हो।  प्रिंङ्क्षटग की अच्छी क्वालिटी अब सब जगह उपलब्ध है, और केवल भारत में समाचार पत्र छापने के लिए (प्रकाशन की आवृत्ति के साथ) बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने बिल के मसौदे के बारे में कहा कि जब बेंगलूरु में अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया के ग्राहकों के लिए कॉल सेंटर स्थापित किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं बनता कि भारत से बाहर कोई अखबार छपे और यहाँ पर प्रकाशक के लिए उसे भारत पहुँचाने में कोई दिक्कत हो।

विधेयक की धारा-6 (2) अपने वर्तमान रूप में अस्पष्ट है साथ ही नियमों को बनाने के दौरान रजिस्ट्रार कार्यालय को बहुत-सी विधायी शक्तियाँ प्रदान करता है। प्रावधान बहुत अस्पष्ट हैं और यदि इसे पारित कर दिया जाता है, तो यह भ्रम पैदा करेगा; क्योंकि कुछ भी निश्चित नहीं होगा और यह बहुत अधिक रजिस्ट्रार के विवेक और उनके कार्यालय पर निर्भर करेगा कि क्या सही और क्या गलत है? उन्होंने कहा कि इसमें शुल्क निर्धारित किये जाने का भी ज़िक्र नहीं किया गया है।

अपराध घट गये हरियाणा में!

हरियाणा पुलिस ने दावा किया है कि राज्य में इस वर्ष के पहले 6 महीनों में अपराधों में 7.88 फीसदी की कमी हुई है। यह कमी जनवरी और जून 2018 की तुलना में दिखी है। पुलिस का कहना है कि अपराध के मामलों में 25 फीसदी की कटौती हुई है। इस तरह हत्या की कोशिशों में भी काफी हद तक काबू पा लिया गया है। हरियाणा पुलिस के डायरेक्टर जनरल मनोज यादव ने कहा कि जनवरी से जून 2010 के दौरान कुल 23834 मामले अपहरण, डकैती, हमले, दंगे ,चोरी, सडक़ दुर्घटना के दर्ज हुए थे। जबकि इसी दौरान 2018 में 25874 मामले दर्ज हुए थे हालाँकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो एनसीआरबी के अनुसार हरियाणा तीसरे स्थान पर (यानी केरल, दिल्ली के बाद)है। इसके बाद दूसरे राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों की सूची है। हालाँकि यह अंक 2017 के हैं। जबकि इसी दौरान 2018 में 25874 मामले दर्ज हुए थे। हालाँकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार हरियाणा तीसरे स्थान पर यानी केरल, दिल्ली के बाद है। इसके बाद दूसरे राज्यों और केन्द्र शासित राज्यों की सूची है। हालाँकि यह अंक 2017 के हैं। अपराधों की तादाद यानी जनसंख्या में प्रति लाख लोगों पर हुए अपराधों की संख्या जिन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), विशेष और स्थानीय कानून भी जुड़ते हैं। फिर अपराधों की संख्या तक्मीना होता है। केरल में 2017 में (1.84 लाख अपराधी मामले) जबकि दिल्ली में ( 1,107 .1) कुल 2.44  लाख मामले सामने आये। हरियाणा में अपराध दर 802.9 यानी ( 2.24 लाख मामले) थे। 57.1 फीसदी बढ़ोतरी 2016 की तुलना में।

पूरे देश में नागालैंड में अपराध सबसे कम यानी 64.4 फीसदी थी जबकि अखिल भारतीय दर 388.6 रही। उत्तर प्रदेश में 10.1 फीसदी मामले भारतीय दंड संहिता के तहत दर्ज हुए। हत्याओं के मामले में 5.9 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई। तकरीबन 28,653 हत्याओं को 2017 में दर्ज किया गया। यानी इसमें 2016 की तुलना में 30,450 की कमी थी। अपहरण के मामलों में 9 फीसदी की बढ़ोतरी 2017 की तुलना में दिखी। जबकि 2016 में 88,008 ऐसे मामले थे। जबकि 2017 मैं यह बढक़र 95893 हो गये भारतीय दंड संहिता में कई नये अपराध भी सूची में शामिल हुए। जैसे बुरे काम में सहयोगी होना, अपराधिक तौर पर धमकाना, धक्का-मुक्की क्रेडिट/डेबिट कार्ड की जालसाज़ी, गायब हुए बच्चों की अलग-अलग श्रेणी मसलन अपहरण और उनसे भीख मँगवाने दूसरे काम कराने और बाल-सेक्स का काम कराना।

 बलात्कार के कुल मामले 2017 में 32,599 थे। बलात्कार के शिकार हुई लोगों की तादाद 33,658 थी। इन में 10,221 तो बच्चियाँ/ बच्चे थे। हालाँकि, इस संख्या में 2013 की तुलना में कमी आयी है, जब दर्ज किये गये मामलों और उसके शिकार हुए लोगों की तादाद 33,707 और 33,764 (एनसीआरबी डाटा जो सीएमआईई को दिया जाता है) रही।

महिलाओं के साथ हुए अपराधों (ऐसे मामले जिनमें सज़ा हुई ) वे भारत में 25.5 फीसदी 2017 में थे। दिल्ली में या 35 फीसदी थी। गुजरात और पश्चिम बंगाल में तो सज़ा देने की संख्या मात्र 3.1 फीसदी और 3.2 फीसदी ही रही। नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार ज़्यादातर ऐसे मामले जो पतियों या सम्बन्धियों द्वारा सताने के थे, वह 33.2 फीसदी थे। इसके अलावा महिलाओं की आबरू लूटने के इरादों से हुए अपराधों की संख्या 27.3 फीसदी थी। यह 2017 में 9,013 थी, जबकि 2016 में 6,986 और 2015 में 6,040 थी। राष्ट्रद्रोह के मामले 2017 में 51 थे। जब की 2016 में इस श्रेणी को दर्ज ही नहीं किया गया था। ऑिफशियल सीक्रेट एक्ट के तहत भी दर्ज मामले 30 से घटकर 18 पर 2016 और 2017 में आ गये। भारत में अपराध की एक रिपोर्ट में काफी लम्बा-चौड़ा डाटा कलेक्शन का अवधि है यानी यह अगस्त 2018 में शुरू हुआ और जुलाई 2019 तक चला। 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, यह सिलसिला जुलाई 2019 तक चला। 1 रिपोर्ट 2016 में यह  जनवरी-फरवरी 2017 से सितंबर 2017 तक है।

अभी नवीनतम एनसीआर में बताया गया है कि यह विस्तार यौन अपराधों से बच्चों को बचाने के लिए प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस) यह यह व्यापक अध्ययन जोड़ा गया। इसमें शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब (अत्याचारों को रोकना) और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट है। हरियाणा में 2017 में 1,072 हत्याएँ और 1,099 बलात्कार के मामले दर्ज हुए राज्य में 2,408 मामले दंगे, 26,234 मामले दंगों 26,234 मामले चोरी के 4,169 मामले बच्चों के साथ हुए अपराध और 2,200 मामले नशे यानी नारकोटिक्स ड्रग्स और साइकॉट्रॉपिक सब्सटेंसस कानून के चलते हरियाणा अपराधों के अनुपात में पाँचवें स्थान पर पहुँच गया।

 महिलाओं के िखलाफ अपराधों के मामलों में हरियाणा का स्थान पूरे देश में पाँचवाँ  है। महिलाओं की प्रति लाख जनसंख्या में 88.7 ऐसे मामले प्रतिबिम्ब हैं। असम (143.3) दिल्ली (133.3) तेलंगना (94.7) और उड़ीसा में (94.5) है। वहीं 2017 में हरियाणा में 11,370 मामले महिलाओं के साथ किये गये अपराधों के थे। यानी तकरीबन 15 .56 फीसदी ज़्यादा 2016 के आँकड़े से। हरियाणा का क्रम 2016 में छठा था। महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज़ से नागालैंड सबसे सुरक्षित राज्य है। छोटा राज्य होने के बावजूद 2017 में हरियाणा में सामूहिक बलात्कार के मामले 159 थे। उत्तर प्रदेश में सामूहिक बलात्कार 676  हुए थे। वहीं 2016 में हरियाणा 191 सामूहिक बलात्कार के साथ चौथे नम्बर पर था। हर महीने 14 बलात्कार की तादाद के साथ गुरुग्राम काफी बदनाम जगह है। इस साल तो शहर से 126 बलात्कारों की सूचना सितंबर में मिली, जबकि इस दौरान यह तादाद 103 की थी। पुलिस के डाटा के मुताबिक, बच्चों के साथ हुए सेक्सुअल अपराधों की संख्या बढक़र 10.4 फीसदी हो गयी और छेड़छाड़ की घटनाओं में 17.8 फीसदी कमी आयी। लेकिन इस अवधि में सामूहिक बलात्कार की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। बच्चों के साथ सेक्सुअल अपराधों की संख्या सितंबर तक 138 रही, जबकि पिछले साल यह 125 थी। सामूहिक बलात्कारों की संख्या आठ पर ही रही। तुलनात्मक तौर पर छेड़छाड़ और सेक्सुअल तौर पर परेशान करने के 101 मामलों का पंजीकरण पहले 9 महीने में हुआ, जबकि पिछले साल उसकी तादाद 123 थी। बाल अपहरण के मामले भी घटकर 16 रह गये, जबकि पिछले साल यह 35 थे। लेकिन महिलाओं के साथ अपराधों की संख्या खासी बढ़ी है, जिस कारण यह प्रदेश महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है। जो सरकारी आँकड़े आये हैं। उनके अनुसार 2012 में 25000 बलात्कार के मामले थे, जबकि 2016 में 38000 बलात्कार के मामले थे और िफर 2017 में औसतन एक दिन में सबसे ज़्यादा बलात्कार होने की खबरें आयी हैं। अच्छी बात यह भी हुई कि किस तरह महिलाओं ने हिम्मत करके अपराधियों के बारे में पुलिस को जानकारी दी और गिरफ्तारी पर ज़ोर दिया।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) डाटा के तहत 2016 में सामूहिक बलात्कार के 19 मामले थे जो सभी राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय औसतन सामूहिक बलात्कार का 0.3  फीसदी रह गया है जबकि हरियाणा में यह 1.5 फीसदी है। पिछले 5 साल में गुरुग्राम में सबसे बलात्कार और हत्या के मामले दर्ज हुए। पिछले साल की तुलना में इस शहर में पहले 9 महीने में 22.3 फीसदी की  बढ़ोतरी बलात्कार के मामलों में हुई है।

एक ज़िला, एक उत्पाद योजना से मज़बूत होगी देश की अर्थ-व्यवस्था

भारत को पाँच ट्रिलियन डॉलर की आर्थिक शक्ति बनाने में कौशल विकास की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। किसी भी देश की अर्थ-व्यवस्था मज़बूत करने के पीछे उसकी हुनरमंद युवा शक्ति का योगदान बाकी अन्य कारकों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावशाली होता है। इस बात की महत्ता को समझते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने पारम्परिक कारीगरों / हस्तशिल्पियों को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र्र की मदद से राज्य भर में छ: ज़िलों में वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट (ओडीओपी) क्लस्टर खोलने का फैसला किया है। एक ज़िला एक उत्पाद योजना कारीगरों और हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शुरू की गयी एक परियोजना है। खास बात यह है कि इन क्लस्टर समूहों में केवल कारीगर और निर्माता ही सदस्य होंगे।

िफलहाल चार क्लस्टर समूहों को चालू किया गया है। चंदौसी ज़िले में एक चमड़े का क्लस्टर खोला जाएगा, सहारनपुर में जूते, संत कबीर नगर में पीतल, और गोरखपुर में टेराकोटा मिट्टी के बर्तन। जल्द ही दो और क्लस्टर चालू किये जाएँगे और निकट भविष्य में 13 क्लस्टर और खोले जाएँगे। सरकार ने पहले से भदोही में कालीन क्लस्टर, उन्नाव में ज़री-ज़रदोजी, बरेली में रेडीमेड वस्त्र, वाराणसी में काँच के मोती और रेशम बुनाई के क्लस्टरों की स्थापना की है। इसके अलावा सरकार ने राज्य में अधिक सामान्य सुविधा केन्द्र्र खोलने का भी निर्णय लिया है। इन केन्द्र्रों का उद्देश्य परीक्षण, कच्चे माल के डिपो, उत्पादन प्रक्रिया और प्रशिक्षण के पूरक के लिए सुविधाएँ प्रदान करना है।

उत्तर प्रदेश हस्तशिल्प, खाद्य प्रसंस्करण, इंजीनियरिंग सामान, कालीन, रेडीमेड वस्त्र और चमड़े के उत्पादों के लिए पहले ही से मशहूर रहा है। उदाहरण के तौर पर वाराणसी की रेशम साडिय़ों, मुरादाबाद के पीतल की हस्तकला की चीज़े, पीलीभीत की बाँसुरी, बांदा के पत्थर की कलाकृतियाँ और सिद्धार्थनगर के काला नमक चावल को किसी पहचान की जरूरत ही नहीं है। प्रदेश के लघु उद्योग राज्य की औद्योगिक उत्पादकता में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे उद्योग न सिर्फ रोज़गार सृजन करने में लाभकारी सिद्ध होंगे, बल्कि निर्यात को बढ़ाकर प्रदेश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जन के स्रोत भी बनेंगे। ऐसे उद्योग राज्य के साथ-साथ देश में भी कृषि के बाद रोज़गार में सबसे बड़ा योगदान देता है। उत्तर प्रदेश में ऐसे उत्पाद हैं,जो कहीं और नहीं पाये जाते; जैसे- दुर्लभ और पेचीदा गेहूँ-डंठल शिल्प, विश्व-प्रसिद्ध चिकनकारी और ज़री-ज़रदोजी का कपड़े पर किया हुआ काम। इनमें से कई समुदाय परम्पराएँ भी मर रही थीं, जिन्हें आधुनिकरण और प्रचार के माध्यम से पुनर्जीवित किया जा रहा है। इनमें से कई उत्पाद तो जीआई-टैग किये गये हैं, जिसका अर्थ है कि वे उत्तर प्रदेश में उस क्षेत्र के लिए विशिष्ट होने के रूप में प्रमाणित हैं। प्रदेश के 75 ज़िलों का अपना कोई न कोई विशिष्ट उत्पाद है, जिसको सरकार वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट योजना की मदद से आर्थिक मज़बूती दे रही है।

सरकार पूरी पूँजी खुद न लगाकर कुछ प्रतिशत लाभार्थियों से भी लगवा रही है। इसका फायदा यह है कि लाभार्थी पूरी मेहनत के साथ अपने व्यवसाय को आगे बढ़ाने की दिशा में काम करेगा। आसानी या मुफ्त में मिली वस्तु की कद्र कई बार लोग नहीं करते। इसीलिए वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट योजना में 25 लाख रुपये तक की परियोजना लागत का 25 फीसद या फिर 6.25 लाख रुपये, जो भी कम हो; माॢजन मनी के रूप में लाभार्थी को लगाना होगा। शेष राशि ऋण के रूप में उपलब्ध करायी जाएगी। इसी तरह 25 से 50 लाख रुपये की परियोजना पर 20 फीसद अथवा 6.25 लाख रुपये, जबकि 50 लाख से डेढ़ करोड़ की परियोजना लागत पर 10 प्रतिशत माॢजन मनी 10 लाख रुपये व डेढ़ करोड़ रुपये से अधिक लागत वाली परियोजना पर 10 फीसद अथवा 20 लाख रुपये माॢजन मनी जो कम होगी, वह राशि लाभार्थी को लगानी होगी। शेष राशि ऋण के रूप में मिलेगा।

हालाँकि राज्य में आर्थिक विकास को तेज़ करने के काम और भी कई क्षेत्रों में चल रहे हैं, जिनमें एक्सप्रेस-वे, नये हवाई अड्डों का निर्माण शामिल है। लेकिन विकास में गरीब तबके की भागीदारी भी सुनिश्चित करने में योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा लायी गयी वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट योजना कारगर सिद्ध होगी। इस योजना के अंतर्गत सरकार ऐसे उद्यमियों को सहायता दे रही है, जिन्होंने अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ाया है। इस योजना के तहत उन कारीगरों को चिह्नित किया जा रहा है, जिनके पास कौशल तो है, लेकिन किसी कारणवश वह अपने हुनर का सही लाभ नहीं ले पा रहे हैं। ऐसे उद्यमियों को सरकार आधुनिक ट्रेनिंग की व्यवस्था कर रही है। बैंकों से बात करके उनको लोन दिलाने का काम भी कर रही है। इसके अलावा बड़ी ऑनलाइन कम्पनियों से बात करके इनके उत्पादों के लिए बड़ा बाजार खोलने का काम भी कर रही है।

इसके अलावा राज्य सरकार आईटीआई के माध्यम ने कारीगरों को आधुनिक वातावरण में ट्रेनिंग दिलवाकर प्रमाण-पत्र भी दिलवाने का काम भी कर रही है। कई बार प्रमाण-पत्र न होने की वजह से उद्यमियों को पूँजी जुटाने में कठिनाई होती है। साथ ही उद्यमियों को अपने उत्पादों की सही पैकेजिंग करना भी सिखाया जा रहा है, जिससे उनकी बेहतर कीमत मिल सके। राज्य सरकार इन उत्पादों के लिए विश्व बाज़ार खोलने की दिशा में काम कर रही है और इसके लिए अमेजन जैसी ई-कॉमर्स कम्पनियों से भी बात की जा रही है कि इन उत्पादों को ऑनलाइन बेचा जाए, जिससे विश्व के किसी भी कोने से इन उत्पादों को खरीदा जा सके। साथ ही राज्य सरकार दिल्ली में पारम्परिक उद्यमियों के उत्पादों के प्रदर्शन के लिए दो सप्ताह की प्रदर्शनी आयोजित करने पर भी विचार कर रही है। इससे उनके उत्पादों का बेहतर विपणन हो सकता है। जब राज्य के उत्पाद प्रदेश के बाहर ऐसी प्रदर्शनियों में ले जाए जाएँगे तभी लोगों में इनकी माँग बढ़ेगी और प्रदेश के हुनरमंद लोगों को उनकी कला का उचित दाम और सम्मान मिलेगा और राज्य को विदेशी मुद्रा।

ओडीओपी योजना को और बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने न केवल देश भर में, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यापार मेलों में भाग लेने के इच्छुक कारीगरों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया है। जनवरी, 2018 में शुरू की गयी इस महत्त्वाकांक्षी योजना से यदि कुछ लोगों ने अपनी जीवन की दिशा परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त कर ली, तो प्रदेश में लघु उद्यमियों की एक नई पीढ़ी को बहुत बल मिलेगा। जब कोई सरकार युवाओं को नौकरी पाने की इच्छा रखने वाले से बदलकर नौकरी देने वाला बना दे, तब उस प्रदेश की प्रगति को कैसे रोका जा सकता है।

(लेखक कौशल विकास के क्षेत्र में काम करते हैं और िफलहाल माइनॉरिटी अफेयर्स मंत्रालय में कंसल्टेंट हैं।)