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बीमार होते बैंक

यस बैंक में हालिया मुसीबत इस बात का गम्भीर संकेत है कि देश की बैंकिंग प्रणाली अब भी धोखाधड़ी मुक्त नहीं है और लम्बे समय से इसे ठीक करने की ज़रूरत रही है। बैंकिंग संकट की वास्तविकता पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक में आये एक घोटाले से सामने आती है। यह घोटाला एकल क्लाइंट-रियल-एस्टेट फर्म हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एचडीआईएल) पर भारी पड़ा, जो खुद दिवालियापन की कार्यवाही का सामना कर रही थी। लेकिन ऐसा लगता है कि पीएमसी की घटना से कोई सबक नहीं लिया गया। यह राजनेता, बैंकर और कॉरपोरेट साठगाँठ का एक अनोखा मामला था, जिसमें शासन और हितों की रक्षा करने वालों की विफलता उजागर हुई है।

इससे पहले भी नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या के मामलों ने बैंकिंग प्रणाली को हिलाकर रख दिया था, जहाँ बिना बैंक गारंटी के कर्ज़ लिया गया था। अब बैंकिंग प्रणाली में धोखाधड़ी की पुनरावृत्ति ने बैंकों की कार्यप्रणाली पर संदेह पैदा किया है। इससे वित्तीय संस्थानों पर से जनता का भरोसा कम हुआ है। विडम्बना यह है कि यस बैंक का मामला सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों को चार मेगा स्टेट-स्वामित्व वाले ऋणदाताओं में समेकित करके सरकार की योजनाओं को लागू करने के लिए निर्धारित किये जाने से कुछ हफ्ते पहले आया है। वास्तव में बैंकिंग प्रणाली में सुधार का रास्ता काफी मुश्किल लग रहा है।

यस बैंक की कहानी भी बड़ी अजीब है। यह बैंक अनेक कर्ज़दारों द्वारा कर्ज़ न चुका पाने के बावजूद वित्तीय वर्ष 2014 और 2019 के बीच 334 फीसदी बढ़त के साथ कर्ज़ देने की होड़ में शामिल हो गया। बैंक की सकल गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) 7.39 फीसदी तक देखी गयी, जो दूसरे बैंकों की तुलना में सबसे अधिक है। सबसे पहले, यस बैंक ने खराब ऋणधारकों की संख्या को बढऩे दिया, कई नये ऋणों को मंज़ूरी भी दी। फिर जब संकट आया, तो उसका समाधान करने और अपना मुनाफा बढ़ाने में पूरी तरह विफल रहा। हालाँकि, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जमाकर्ताओं को भरोसा दिलाया है कि उनका पैसा सुरक्षित है। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने भी यस बैंक को संकट से उबारने तथा उसके ग्राहकों को राहत देने के लिए कदम बढ़ाया है। बता दें कि एसबीआई की यस बैंक में अधिकतम 49 फीसदी हिस्सेदारी है और इसके लिए वह लगभग 11,760 करोड़ रुपये इस संकट से उबारने में लगाएगा।

जाँच एजेंसियाँ अब यस बैंक के संस्थापक राणा कपूर की भूमिका की जाँच कर रही हैं। इन सबके बावजूद संकट घटता नहीं दिखता। वित्त मंत्रालय और आरबीआई दोनों के लिए यह जानना समझदारी होगी कि बैंकिंग क्षेत्र में घोटालों का कोई अन्त नहीं है, क्योंकि अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजी बैंकों और सहकारी बैंकों के अलावा गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ भी धोखाधड़ी करते हुए पकड़ी गयी हैं। यदि बैंकिंग प्रणाली पर जनता का भरोसा बनाये रखना है, तो बैंकों की कार्यप्रणाली में निहित खामियों को प्रभावी ढंग से दुरुस्त करना होगा। बैंक, अर्थ-व्यवस्था के पहियों की महत्त्वपूर्ण धुरी हैं और अगर भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थ-व्यवस्था हासिल करनी है, तो बैंकिंग व्यवस्था और कार्यप्रणाली की खामियाँ हमेशा के लिए खत्म करनी होंगी।

क्या चल पायेगा अमेरिका-तालिबान समझौता?

क्या अमेरिका और तालिबान के बीच अफगानिस्तान को लेकर 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में हुआ शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही खतरे की तरफ बढ़ रहा है? तीन बड़ी घटनाएँ इसका इशारा करती हैं। एक, समझौते के एक हफ्ते के भीतर ही तालिबान ने अफगानिस्तान के 16 प्रान्तों पर एक के बाद एक 33 हमले किये, जिसमें 40 से ज़्यादा लोग मारे गये। देश में मौज़ूद अमेरिकी सैनिकों ने जवाब में तालिबान क्षेत्र में हवाई हमले किये। दो, अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते के बाद कहा कि अफगानिस्तान सरकार ने 5000 तालिबान कैदियों को रिहा करने को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं जतायी है; जैसा कि समझौते में दावा किया गया है। तीन, राष्ट्रपति गनी ने इसके बाद शर्त रखी कि तालिबान कैदियों की रिहाई उसी सूरत में की जा सकती है, जब वह पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते खत्म कर ले।

इस शान्ति समझौते को लेकर सबसे  ज़्यादा उत्साहित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को तालिबान के व्यवहार से झटका लगा है। तालिबान के हमले के बाद ट्रम्प को कहना पड़ा कि तालिबान इस अवसर को गँवाना चाहता है।

भले ट्रम्प ने कहा कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से मेरे बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं; लेकिन हमले ने अमेरिका को झटका दिया है।

बता दें समझौते का मकसद अफगानिस्तान में 18 साल से जारी संघर्ष को खत्म करना है। समझौता तालिबान के युद्धविराम खत्म करने और अमेरिकी सैनिकों के वहाँ से वापस चले जाने को लेकर है। गौरतलब है कि 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने 2001 में तालिबान के िखलाफ लड़ाई के लिए अपने सैनिक अफगानिस्तान भेजे थे। तालिबान ने साल 1996 से साल 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया था। भारत ने तालिबान से बातचीत को कभी प्राथमिकता नहीं दी। तालिबान से अमेरिका के इस समझौते को लेकर भारत में भी दर्जनों आशंकाएँ हैं। अफगानिस्तान में चुनी सरकार ही भारत की हितों के लिहाज़ से सही कही जा सकती है। दूसरे तालिबान की पाकिस्तान में ऐसे तमाम तत्त्वों से घनिष्टता है; जो भारत को रास नहीं आते। ऐसे में इस समझौते से भारत की चिन्ता स्वाभाविक है।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भले कह रहे हों कि तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला बरदार से उनकी लम्बी बातचीत हुई है और वे हिंसा पर रोक चाहते हैं। लेकिन समझौते के बाद भी तालिबान के हमले जारी रहने पर अमेरिकी सेना के प्रवक्ता लेगेट को भी कहना पड़ा कि तालिबान अफगान लोगों की शान्ति की इच्छा की अनदेखी कर रहे हैं। ऐसे में समझौते को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है।

तालिबान के हमले के बाद अफगानिस्तान के शानिस्तान क्षेत्र के हेलमंड प्रान्त में अमेरिकी फौज के तालिबानी ठिकानों पर हवाई हमलों से यह तो ज़ाहिर है कि तालिबान अमेरिका िफलहाल खुली छूट नहीं देना चाहता। लेकिन इससे यह भी आशंका खड़ी हो गयी है कि क्या अमेरिका-तालिबान शान्ति समझौता लागू होने से पहले ही अशान्ति के भँवर में फँस रहा है।

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की तैयारियों के बीच हुए इस समझौते में देखा जाए, तो भारत के हितों का कुछ खास खयाल नहीं रखा गया है। यह दिलचस्प है कि हाल में जब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप भारत के दौरे पार आये थे, तो इस दौरान कहा जाता है कि उन्होंने तालिबान के साथ शान्ति समझौते को लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज़िक्र किया था। यह भी कहा जाता है कि भारत ने इसे लेकर सहमति जतायी थी।

लेकिन यह समझौता होने के बाद से ही यह आशंकाएँ अब खुले रूप से सामने आने लगी हैं। लेकिन समझौते से भारत में राजनीतिक स्तर पर चिन्ता महसूस की जा रही है। इसमें सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि तालिबान पाकिस्तान के काफी करीब है। पाकिस्तान की सेना में तालिबान के प्रति सॉफ्ट कार्नर है और राजनीतिक स्तर पर भी तालिबान का कोई विरोध पाकिस्तान में नहीं है।

नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता में आने से पहले पाकिस्तान के पीएम इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) चुनाव से पहले ही तालिबान का खूब गुणगान करती रही थी। सत्ता में आने के बाद भी इमरान खान ने कभी तालिबान के हितों के विपरीत कोई बात नहीं कही है। इसका एक बड़ा कारण सेना का तालिबान के प्रति अघोषित समर्थन है।

भारत की चिन्ता यह है कि भले आज अफगानिस्तान में अशरफ गनी के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार हो, भविष्य में तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में भारत के लिए चिन्ता का बड़ा क्षेत्र सामने होगा। पिछले साल अक्टूबर में ही इमरान खान के बुलावे पर तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में पाकिस्तान का दौरा किया था।

पाकिस्तान भले आतंकियों के िखलाफ बोलता रहा हो और खुद को भी आतंक का शिकार बताता रहा हो, ज़मीनी हकीकत सब जानते हैं कि पाक में आतंकपरस्ती भी कम नहीं होती। लोग नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान में नेशनल एसेम्बली के चुनाव से पहले ही पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के तमाम विरोधी दल तालिबान खान तक पुकारते रहे हैं। कारण था इमरान खान का लगातार तालिबान के पक्ष में बयान देना। तालिबान की सोच में हाल के वर्षों में कोई फर्क नहीं आया है। कतर के दोहा में अमेरिका से समझौते के तुरन्त बाद तालिबान के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह बिरादर ने जब अपना सम्बोधन दिया, तो उनकी भाषा और सोच कमोवेश वही दिखी, जो 90 के दशक में तालिबान की रही है। बिरादर ने कहा कि इस्लामी मूल्यों की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में सभी को एकजुट हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि बिरादर जिस एकजुटता की बात कर रहे थे, वह कट्टर इस्लामी व्यवस्था की तरफ ही संकेत करती है।

यदि अफगानिस्तान में वर्तमान सरकार भी रहती है, तब भी भविष्य में अमेरिकी सैनिकों की अनुपस्थिति में पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के भारत के हितों का नुकसान करने की सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता। अफगानिस्तान के विकास में भारत लाखों डॉलर हाल के समय में खर्च कर चुका है। अफगानिस्तान भारत के विदेशी सहायता कार्यक्रम का सबसे बड़ा भागीदार है। ऐसे में भारत की चिन्ताओं को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है।

करीब दो दशक से अफगानिस्तान जंग झेल रहा है और उसका भीतरी आर्थिक ढाँचा तबाह हो चुका है। वहाँ बचाव, विकास और राहत कार्यों के लिए भारत एक अनुमान के मुताबिक, अब तक करीब तीन बिलियन यूएस डॉलर की मदद कर चुका है।

वैसे सच यह है कि इस समझौते में भारत की कोई भूमिका नहीं रही है। न भारत ने इसे लेकर किसी तरह का हस्तक्षेप ही करने की कोशिश की है। लेकिन एक बात तय कि भारत को बदले हालत में अफगानिस्तान को लेकर अपनी रणनीति में व्यावहारिक बदलाव करना होगा।

तालिबान की माँग

अमेरिका के साथ समझौते में तालिबान ने अफगानिस्तान में युद्धविराम के लिए शर्त रखी कि उसके जेल में बन्द लोगों को रिहा किया जाए। अभी शान्ति समझौते को लेकर बैठकों के दौर होने हैं। युद्ध के बाद महिला और अल्पसंख्यकों को लेकर योजनाओं और क्षेत्र के विकास पर व्यापक बातचीत होनी है। ज़ाहिर है, इसमें कुछ वक्त लगेगा।

लेकिन अफगानिस्तान सरकार ने अभी से इन लोगों की रिहाई को लेकर अपना विरोध दर्ज करवाना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति ने साफ कहा कि तालिबान की रिहाई को लेकर उनकी सरकार से कोई बात नहीं की गयी। हालाँकि, उन्होंने एक शर्त के साथ तालिबान की रिहाई पर रज़ामंदी जतायी है कि तालिबान पाकिस्तान से कोई सम्बन्ध नहीं रखेगा। ज़ाहिर है, तालिबान ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि इससे अफगान सरकार और तालिबान में तनाव बन सकता है।

इस शान्ति समझौते ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा है। बहुत से जानकार इसे अमेरिका की हार के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। कहने को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने समझौते के बाद तालिबान को चेतावनी दी कि उसके तालिबान से हाथ मिलाने मतलब यह नहीं है कि वह अपने सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान में हिंसा बर्दाश्त करेगा। लेकिन देखा जाए, तो यह बहुत संवेदनशील मामला है और समझौते के अपनी शर्तों पर खरा न उतरने से अमेरिका की बड़ी किरकिरी भी हो सकती है। सब जानते हैं कि एक बार सैनिकों को वापस बुला लेने के बाद अमेरिका के लिए दोबारा वहाँ लौटना बहुत मुश्किल काम होगा।

तालिबान के साथ शान्ति समझौता हो जाने के बाद भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान में आतंकवाद को समर्थन देता रहेगा। आप एक समझौते तक पहुँचे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि जब समझौते तक पहुँचे हैं, तो यह लम्बी अवधि तक शान्ति लाने वाला होना चाहिए। जल्दबाज़ी में सिर्फ वहाँ से बाहर निकलने के लिए अस्थायी कदम के बतौर नहीं होना चाहिए। उन्हें (तालिबान) अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में आना होगा। अगर वो देश पर शासन चलाना चाहते हैं, तो उन्हें वहाँ के लोगों की मर्ज़ी के मुताबिक शासन करना होगा।

जनरल बिपिन रावत

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ समझौते को लेकर।

हम तालिबान नेताओं से मुलाकात करेंगे। अगर कुछ बुरा हुआ तो हम वहां वापस जाएंगे। मुझे भरोसा है कि तालिबान सिर्फ समय बर्बाद करने के लिए यह सब (शान्ति समझौता) नहीं कर रहा। अगर कुछ खराब हुआ तो हम वापस (अफगानिस्तान) जायेंगे और ऐसे जायेंगे जैसे पहले किसी ने नहीं देखा होगा। मुझे भरोसा है कि ऐसी नौबत नहीं आएगी।

डोनाल्ड ट्रम्प, अमेरिकी राष्ट्रपति

क्या है शान्ति समझौता?

यह समझौता कतर के दोहा में हुआ। इसमें तालिबान के प्रतिनिधि मुल्ला बिरादर, जबकि अमेरिका के प्रतिनिधि (वार्ताकार) जलमय खलीलज़ाद ने दस्तखत किये। आज की तारीख में अफगानिस्तान के युद्ध ग्रस्त क्षेत्र में करीब 13,200 नाटो सैनिक (अमेरिका और सहयोगी देशों के)

मौज़ूद हैं। अमेरिका-तालिबान समझौते के तहत अमेरिका को अपने सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाना है। शान्ति समझौते के मुताबिक, अमेरिका 14 महीने के भीतर अफगानिस्तान से अपने सैनिक हटायेगा। इसके अलावा समझौते में शामिल अन्य शर्तें भी 135 दिन में पूरी कर ली जाएँगी। समझौते के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा कि तालिबान से यह समझौता तभी कारगर होगा, जब वह (तालिबान) पूरी तरह शान्ति कायम करने के लिए काम करेगा।  तालिबान को आतंकी संगठन अलकायदा से अपने सारे रिश्ते तोडऩे होंगे। यह समझौता इस क्षेत्र में एक प्रयोग है। हम तालिबान पर नज़र बनाये रखेंगे। अफगानिस्तान से अपनी सेना पूरी तरह से तभी हटाएँगे, जब पूरी तरह से पुख्ता कर लेंगे कि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर आतंकी हमले नहीं करेगा। वैसे यह भी दिलचस्प है कि तालिबान अफगानिस्तान में आईएसआईएस का कट्टर विरोधी है और उसके िखलाफ भी लड़ता है। साल 2009 के बाद से तालिबान के हमलों में एक लाख से ज़्यादा अफगानी नागरिक और सुरक्षा बल के लोग मारे जा चुके हैं।  यही नहीं, इन 18 वर्षों में करीब 2352 अमेरिकी सैनिक भी जान गँवा चुके हैं। तालिबान के पास इस समय करीब 1000 सरकारी कर्मी बन्धक हैं, जिन्हें तालिबान अपने करीब 5000 लोगों की रिहाई के बदले मुक्त करेगा।

तालिबान के ‘हमदर्द’ इमरान

एक मौके पर इमरान खान ने, जब वे सत्ता से दूर थे; तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कमांडर वाली-उर-रहमान को शान्ति समर्थक कहा था। रहमान वही हैं, जिन्हें साल 2013 में अमेरिका की सेना ने ड्रोन हमले में मार गिराया था। अमेरिका के रहमान को मारने पर तब खान ने कहा कि शान्ति समर्थक वाली-उर-रहमान को मार डाला गया। कई सैनिकों की मौत और कई घायल हुए हैं। यह पूरी तरह अस्वीकार्य है और ऐसा जानबूझकर किया गया है।

यही नहीं लगभग उन्हीं दिनों में इमरान खान ने तालिबान को पाकिस्तान में अपना दफ्तर खोलने की मंज़ूरी देने को कहा था। उनका तर्क था कि अमेरिका यदि कतर में अफगान तालिबान के लिए कार्यालय खोल सकता है, तो पाकिस्तान तालिबान ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यह माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी पार्टी पीटीआई की जड़ें जमाने के लिए इमरान ने तालिबान को खुश रखने की नीति अपनायी थी। ऐसा वक्त ऐसा भी आया, जब फरवरी 2014 में तालिबान ने इमरान खान को एक मध्यस्थता बैठक में जाने के लिए अपना प्रतिनिधि ही घोषित कर दिया। यह अलग बात है कि राजनीतिक खतरे को भाँपते हुए खान ने मना कर दिया। लेकिन इससे यह ज़ाहिर हो गया कि तालिबान इमरान पर भरोसा करता है। इमरान ने तब अपनी सफाई में कहा था कि पाकिस्तान तालिबान की खुद को यूएस वॉर से अलग करने की माँग उनकी पार्टी की इस बारे लाइन से मेल खाती है।

अपनी राजनीतिक रैलियों में भी इमरान खान तब तालिबान को लेकर बहुत नरम भाषा अपनाते थे। उसके िखलाफ तो कुछ बोलते थे ही नहीं। यह कुछ ऐसी बातें थीं, जिनके चलते पाकिस्तान में उनके राजनीतिक विरोधी इमरान को तालिबान खान तक कहने लगे थे। पीटीआई मौलाना फज़ल-उर-रहमान खलील के साथ भी हाथ मिला चुकी है, जो अमेरिका की आतंकवादी सूची में शामिल है।

दो साल पहले एक साक्षात्कार में इमरान तालिबान की न्याय प्रणाली का समर्थन कर दिया था, जिसके बाद दिवंगत बेनजीर भुट्टो के बेटे और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के सर्वेसर्वा बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने खान का ज़ोरदार विरोध किया था। यही नहीं जनवरी में इमरान खान की पार्टी पीटीआई तालिबान प्रभावशाली नेता सामी-उल-हक को मदरसे के निर्माण और रखरखाब के लिए 550 मिलियन पाकिस्तानी रुपये दान कर चुकी है।

आज इमरान खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं। उनके सत्ता में आने के बाद भारत से रिश्तों को लेकर कोई खास प्रगति नहीं देखी गयी है। उलटे 2019 के शुरू में तो भारत-पाक रिश्तों का तनाव चर्म पर पहुँच गया, जब पाक समर्थित आतंकियों ने पुलवामा में सेना के कािफले पर हमला कर दिया और जवाब में भारत की तरफ से बालाकोट हुआ। इमरान को लेकर यह भी धारणा रही है कि वे सेना के दबाव में काम करते हैं।

ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान हावी होता है, तो यह भारत के लिए गहन चिन्ता की बात होगी। दूसरे जिस तरह अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार तालिबान की रिहाई और पाकिस्तान से उनके सम्बन्धों को लेकर चिन्ता दिखा रही है, वही चिन्ता भारत की भी है। अफगानिस्तान में तालिबान हमेशा भारतीय हितों के िखलाफ काम करता रहा है और इसके पीछे पाकिस्तान का ही दिमाग माना जाता है। वहाँ काम करने वाले भारतीयों पर भी तालिबान ने हमले किये हैं।

दरअसल, इस्लामाबाद समर्थित तालिबान के साथ अमेरिका के समझौते में इस बात का कहीं भी ज़िक्र नहीं है कि अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में पाकिस्तान का हस्तक्षेप नहीं होगा। यह उल्लेख न होने से यह भी संकेत मिलता है कि अमेरिका ने इस शान्ति समझौते के ज़रिये एक तरह से अफगानिस्तान से अपने बाहर निकलने का रास्ता ही बनाया है।

यह हमेशा से माना जाता रहा है कि तालिबान की कुंजी वास्तव में पाकिस्तान के हाथ है। दरअसल, अमेरिका की कोशिश तालिबान और उसके हक्कानी नेटवर्क को अफगानिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति में लाने की कोशिश में है, जो वास्तव में उसकी अपनी रणनीति का हिस्सा है।

हालाँकि, बहुत से जानकार मानते हैं कि इससे पाकिस्तान को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप का अवसर मिलेगा, क्योंकि हक्कानी नेटवर्क  पाकिस्तान की पकड़ में रहा है। इसका सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी वास्तव में पाकिस्तान का ही खास माना जाता है और पूरी तरह आईएसआई और पाक सेना के इशारे पर काम करता है। यही नहीं, पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर हक्कानी और तालिबान को फंडिंग होती है, जो इस बात का साफ इशारा है कि दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत हैं।

भारत की अपेक्षाएँ और फायदे

अमेरिका के चुनावी वर्ष में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हाल की दो दिवसीय भारत यात्रा कई मायनों में महत्त्वपूर्ण थी। दौरे के दौरान एक-दूसरे को लेकर व्यक्त प्रशंसा और अभिव्यक्तियों से परे इस यात्रा को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। किसी को भी यह समझ लेना चाहिए कि कोई भी अमेरिकी नेता भारत के हितों के बारे में उस सीमा तक ही चिन्ता करेगा, जहाँ तक वाशिंगटन के अपने हित को चोट न पहुँचती हो।

उनकी यात्रा का पहला दिन प्रदर्शन से भरा था, जिसे वे अपने देश के लोगों को दिखाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे कि कैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनका स्वागत किया गया। उन्होंने मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम (सरदार बल्लबभाई पटेल स्टेडियम) में एक लाख से अधिक लोगों की एक सभा को सम्बोधित किया था। इससे उन्हें आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भारतीय-अमेरिकियों, खासकर अति-राष्ट्रवादी विचारों वाले भारतीयों का समर्थन हासिल करने में मदद मिल सकती है।

सच्चाई यह है कि दोनों देशों को उभरते भू-राजनीतिक वैश्विक परिदृश्य में एक-दूसरे की ज़रूरत है, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में। अमेरिका नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच अपनी भारत-प्रशांत नीति के एक आवश्यक घटक के रूप में अहम सहयोगी मानता है; खासकर तब जब क्षेत्र में चीनी उपस्थिति तेज़ी से बढ़ रही है। जिस गति के साथ चीन एक विशाल वैश्विक उपस्थिति की योजना के साथ तकनीकी, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है, वह न केवल भारत, बल्कि अमेरिका के लिए भी चिन्ता का विषय है। भविष्य में एक महाशक्ति के रूप में उभरने के अपने सपने को साकार करने के उद्देश्य से शक्ति बढ़ाने के लिए चीन के कार्यक्रम के प्रति चौकन्ना होने के लिए अमेरिका बाध्य है। भारत और अमेरिका के बीच घनिष्ठ रणनीतिक और समुद्री सहयोग बीजिंग को एक कड़ा संदेश दे सकता है कि उसे क्षेत्र और दुनिया में शक्ति संतुलन को बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अमेरिका इस बात से खुुश होगा, यदि वह चीन को यह अहसास दिला सके कि क्षेत्र में उसके प्रभुत्व को चुनौती देने में भारत सक्षम है। चीन के विस्तारवादी डिजाइन में भारत की मज़बूती अमेरिका के सुपर पॉवर स्टेटस को बनाये रखने के लिए एक उच्च-स्तरीय भारत-अमेरिकी रणनीतिक सहयोग प्रभावी साबित हो सकती है।

चीन की बड़ी सैन्य ताकत और अर्थ-व्यवस्था दोनों विश्व स्तर पर, विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व के लिए खतरा मानी जाती हैं। साल 2017 के आधार पर चीन की अर्थ-व्यवस्था 3 ट्रिलियन डॉलर की है; जो क्रय शक्ति समानता में दुनिया में सबसे ज़्यादा और जीडीपी के मामले में दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था है। बाज़ार केंद्रित अर्थ-व्यवस्था में अपनी केंद्र-नियोजित प्रणाली को बदलने के बाद चीन अधिक-से-अधिक आर्थिक शक्ति का अधिग्रहण कर रहा है।

भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारत को चीन से मिलने वाली चुनौती अमेरिका की समस्या के रूप में भी देखा जाता है। इसलिए, यदि अमेरिका चीन को भारत के पड़ोसियों- नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान तक सीमित रखने के उपाय करता है, तो इससे वह भारत के हितों की भी पूर्ति करता है। अगर वाशिंगटन इस पर गम्भीरता से काम करे, तो अमेरिका भारत के चारों ओर एक मज़बूत घेरा बनाने की चीन की रणनीति को कमज़ोर कर सकता है। नई दिल्ली से किसी भी तरह की मदद के लिए भारत के पड़ोसियों को कम दिलचस्पी लेने की चीन की नीति के बारे में एक विचार सार्क (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) देशों में बीजिंग से बड़े पैमाने पर निवेश से हो सकता है। चीन इन देशों को ऋण जाल में फँसाये रखने की कोशिश कर रहा है, ताकि उनकी नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से प्रभावित कर सके।

स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के एक अनुमान के अनुसार, बांग्लादेश में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (चीन प्रायोजित एक योजना, जिसमें पुराने सिल्क रोड के आधार पर एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़कों और रेल मार्गों से जोड़ा जाना है) से सम्बन्धित चीनी निवेश जुलाई, 2019 तक लगभग 38 बिलियन डॉलर था। चीन ने बांग्लादेश में विभिन्न प्रकार के निवेश किये हैं। बिजली क्षेत्र में यह सबसे अधिक हैं, जिसके कारण कई विदेशी मामलों के विशेषज्ञ ढाका को धीरे-धीरे चीनी ऋण जाल में फँसता देख रहे हैं। जहाँ तक श्रीलंका का सम्बन्ध है, वह भी विदेशी ऋण करीब 66 बिलियन डॉलर में बहुत गहरा फँसा है और वित्त मंत्रालय के जारी आँकड़ों के अनुसार इस कर्ज़ में से अकेले चीन का 12 फीसदी है, जो सबसे बड़ा हिस्सा है।

यह बात नेपाल और म्यांमार के बारे में भी सच है। नेपाल और म्यांमार में कुल एफडीआई का 90 फीसदी चीन से आता है। चीन म्यांमार के विदेशी निवेश का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत और उसका शीर्ष व्यापार भागीदार है। वहाँ साल 1988 से 2019 तक स्वीकृत चीन का निवेश 20 अरब डॉलर से अधिक था, जो उस देश के कुल एफडीआई का करीब 26 फीसदी है। पाकिस्तान तो वस्तुत: चीन का उपनिवेश ही बन गया है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में बीजिंग ने बड़ा निवेश किया है। यह पाकिस्तान के एक छोर से शुरू होकर चीन (शिनजियांग प्रान्त) तक जाता है और दूसरे छोर पर अरब सागर को छूता है, जहाँ पाकिस्तान की ग्वादर बंदरगाह स्थित है।

मौज़ूदा वैश्विक स्थिति भारत को विभिन्न क्षेत्रों में अमेरिकी साझेदारी के लिए एक आकर्षक गंतव्य बनाती है। यह स्पष्ट था कि राष्ट्रपति ट्रंप नयी दिल्ली में 2.6 बिलियन डॉलर कीमत के 24 सैन्य हेलीकॉप्टरों की आपूर्ति में तेज़ी लाने के लिए भारत-अमेरिकी सौदों पर हस्ताक्षर करने से क्यों खुश थे। अगर भारत में छ: परमाणु रिएक्टरों के निर्माण के लिए तकनीकी-वाणिज्यिक अमेरिकी प्रस्ताव के साथ हेलीकॉप्टरों की खरीद नई दिल्ली के लिए आवश्यक थी, तो ये सुस्त अमेरिकी रक्षा उद्योग में भी नये प्राण फूँकने के लिए मददगार थी। इसके कोई ज़्यादा मायने नहीं हैं कि इस साल के अन्त तक दोनों पक्षों के बीच बहुप्रतीक्षित व्यापार सौदे को अंतिम रूप दिया जाना है। इसके लिए रास्ता साफ हो चुका है।

हालाँकि, राष्ट्रपति ट्रंप ने अफगानिस्तान में चल रही शान्ति प्रक्रिया के मामले में भारत के रोल पर ज़्यादा भरोसा नहीं दिया, सिवाय इसके कि नई दिल्ली और वॉशिंगटन ने यह सुनिश्चित करने के लिए अपने संकल्प को दोहराया कि यह शान्ति प्रक्रिया अफगान के नेतृत्व वाली और अफगान-स्वामित्व वाली होगी। ट्रंप की भारत यात्रा के समापन के बाद जारी साझे बयान में इस बात का कोई उल्लेख या प्रावधान नहीं है कि पाकिस्तान को इस्लामाबाद समर्थित तालिबान गुटों के माध्यम से अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से रोका जाए, जो कि कुछ ही महीनों में अमेरिका सेना की वापसी के बाद योजनाबद्ध तरीके से काबुल में सत्ता संरचना का हिस्सा होगा। भारत स्पष्ट रूप से दक्षिण एशिया और अन्य जगहों से सीमा पार आतंकवाद को रोकने के लिए नयी अमेरिकी प्रतिबद्धताओं से खुश है। हालाँकि, इसमें कोई नई बात नहीं है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रधान मंत्री मोदी और भारत के कुछ मुख्य कार्यकारी अधिकारियों के किये इन वादों का स्वागत किया कि वे इस काम में जुटे हैं कि चीनी दूरसंचार दिग्गज हुआ वे को जल्द ही भारतीय 5जी नेटवर्क से बाहर किया जा सके, जिसका नतीजा अमेरिका में कौशल विकास के लिए किया गया भारतीय निवेश है। संयुक्त बयान के करीबी अध्ययन से पता चलता है कि दोनों पक्षों के बीच कोई बड़ी बात नहीं थी; क्योंकि यह नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच असैनिक परमाणु सहयोग समझौते के मामले में भी हुआ था, जब भारत में मनमोहन सिंह सरकार थी और अमेरिकी प्रशासन का नेतृत्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने किया था।

 फिर भी ट्रंप की यात्रा भारत के लिए संतोषजनक थी। इसके प्रमुख लाभ में से एक राष्ट्रपति ट्रम्प का रणनीतिक रूप से यह महत्वपूर्ण आश्वासन था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का एक स्थायी सदस्य बनने के भारत के सपने को साकार करने के लिए अमेरिका पूर्ण समर्थन देगा, क्योंकि बदले वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए कई देशों  की इस (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्) के विस्तार की माँग है।

सिंधिया के कांग्रेस छोडऩे के मायने

वफादारी किसी ब्लैंक चेक जैसी नहीं होती। यह किसी के जीवन का ऐसा हिस्सा है, जो केवल तभी काम करता है जब चीज़ें निश्चित हों और समय प्रामाणिक हो। सत्ता में रहने वाले जब इसे एक अधीनता के रूप में मानने की भूल कर बैठते हैं, तो उन्हें अक्सर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस और गाँधी परिवार के साथ हाल में ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में यही हुआ, जिन्हें अक्सर कांग्रेस के वंशज राहुल गाँधी के ‘दाहिने हाथ’ के रूप में वर्णित किया जाता रहा था। यह न तो कोई अतिशयोक्ति थी और न मिथ्य। क्योंकि सिंधिया ने कांग्रेस में बिताये तमाम वर्षों में शायद ही कभी इस लक्ष्मण रेखा को लांघा हो।

उनके हथियार डाल देने का एक उदाहरण उनके गृह राज्य मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद का है। जब पार्टी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ को सिंधिया के मुकाबले तरजीह दी। सिंधिया ने इस कड़ुवी गोली को भी निगल लिया। यदि उन्होंने राजस्थान के अपने समकक्ष सचिन पायलट की तरह मज़बूत सौदेबाज़ी की होती, तो सिंधिया की राजनीति की पटकथा आज अलग होती। याद करें, कांग्रेस ने जब अशोक गहलोत को राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में चुना था, तो पायलट ने इस पर कड़ा रुख अपनाया था। पायलट ने इसे भाँपते ही उच्च पद के लिए दावा ठोक दिया था, उसी के बाद उन्हें उप मुख्यमंत्री पद के लिए नामित किया गया था।

इसके विपरीत, सिंधिया की आकांक्षाओं पर विचार तक नहीं किया गया। उनकी चुप्पी ही काफी थी। लेकिन नेतृत्व ने इसे नहीं सुना, शायद इस भरोसे कि सिंधिया पार्टी को नुकसान पहुँचाने के लिए कुछ भी नहीं करेंगे और यह भी कि गाँधी परिवार के साथ उनके करीबी रिश्ते हैं। पार्टी ने अपनी इस सोच को सिंधिया के मामले में एक गारंटी की तरह मान लिया।

यह उनकी पहली गलती थी। यह उन्हें एक पद से वंचित कर देने भर की बात नहीं थी, बल्कि एक बड़ा सवाल उठा कि क्या किसी की बफादारी की यही कीमत चुकानी चाहिए? जो लोग आज सिंधिया को नीचा दिखा रहे हैं और उनके इस कदम को राजनीतिक अवसरवाद बता रहे हैं, उन्होंने अवश्य ही इस भावना को नज़रअंदाज़ किया है।

 कांग्रेस ने जो दूसरी गलती की, वह यह कि सिंधिया के समर्थन को उसने उनकी कमज़ोरी मान लिया। वर्षों की मित्रता और सान्निध्य के बावजूद वे यह समझने में असफल रहे कि सिंधिया बहुत मज़बूत व्यक्तित्व हैं और जब उन्हें किनारे लगाने की कोशिश होगी, तो वह जवाबी हमले के लिए खड़े हो सकते हैं।

इन तथ्यों के मद्देनज़र यह काफी स्पष्ट है कि उनके कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करने के पीछे महज़ भावना इकलौता कारक नहीं था। उनका राजनीतिक भविष्य भी खतरे में था।

दूसरों को पुरस्कृत करते हुए नेतृत्व ने न केवल उन्हें दरकिनार कर दिया था, बल्कि उनके विरोधियों की भी पीठ थपथपायी। उनके गृह राज्य में कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की साठगाँठ ने उनका दबदबा कम कर दिया। उनके समर्थकों को उनके हिस्से से वंचित कर दिया गया और उनके अनुरोधों को व्यवस्थित तरीके से लगातार अनदेखा किया गया। कहा जाने लगा कि सिंधिया ज़मीन खो रहे थे। शायद, आिखरी झटका यह था कि उन्हें राज्यसभा टिकट से वंचित किया जा सकता है, क्योंकि कमलनाथ उन्हें समायोजित करने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर ऐसा होता, तो यह सिंधिया के लिए बड़े अपमान से कम नहीं होता। किसी के स्वाभिमान को खत्म करके भी वफादारी की उम्मीद करना कुछ ज़्यादा ही बड़ी उम्मीद होती।

इतिहास का खुद को दोहराने का एक अजीब तरीका है। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को भी कांग्रेस और गाँधी परिवार के हाथों प्रताडि़त होना पड़ा था। साल 1989 में राजीव गाँधी ने अर्जुन सिंह के इशारे पर मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिन्हें अदालत के आदेश का अपना पद छोडऩा पड़ा था। ठीक इसी की तर्ज पर राहुल गाँधी ने ज्योतिरादित्य की जगह कमलनाथ को चुना।

1996 का दोहराव

माधवराव सिंधिया को लोकसभा चुनाव में टिकट देने से इन्कार कर दिया गया था। उन्होंने बगावत की और पार्टी से बाहर चले गये। 24 साल बाद उनके बेटे ने भी यही राह चुनी। और कांग्रेस छोडऩे के लिए उन्होंने 10 मार्च का दिन चुना, जो उनके दिवंगत पिता की 75वीं जन्मजयंती का है और काफी महत्त्वपूर्ण है। अपने पिता की तरह ज्योतिरादित्य को भी किनारे कर दिया गया। लेकिन उनके विपरीत, ज्योतिरादित्य ने एक सुरक्षित राह चुनी। उनके पिता एक नयी पार्टी बनायी, जबकि ज्योतिरादित्य ने उस भाजपा को चुना; जो सत्ता में है। कांग्रेस के भीतर और बाहर कई लोग इस बात से सहमत हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया बेहतर पाने के हकदार थे। लेकिन वे उन्हें भाजपा की बाहों में जा समाने के लिए दोषी मानते हैं। अगर इस बात को अलग कर दें, तो उनके पक्ष में सहानुभूति का एक बड़ा कारक पैदा हो जाता है। लेकिन कांग्रेस छोडऩे के कुछ ही घंटों के भीतर भगवा को गले लगाना भी एक तरह से उनका गलत आकलन करने जैसा ही है।

इसमें स्पष्ट रूप से दो विचार हैं- एक यह कि सिंधिया एक अवसरवादी हैं और दूसरा यह कि उनके साथ खराब व्यवहार किया गया। हालाँकि, इन दोनों तर्कों को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं, लेकिन मुद्दा कहीं अधिक जटिल है। यह महज एक कांग्रेसी के बाहर निकलने या वफादारी तोडऩे तक सीमित नहीं है, न तो यह किसी डूबते जहाज़ को छोडऩे जैसा या व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का है। यह उससे कहीं बड़ी बात है। यह कांग्रेस में पैदा हो चुकी उदासीनता का संकेत है। यह नेतृत्व के पार्टी कार्यकर्ता की ज़रूरतों और आकांक्षाओं के प्रति उदासीनता का संकेत है। यह उस पार्टी के बारे में है, जो तब जागती है, जब बहुत देर हो चुकी होती है। यह अपने दल को एकजुट रखने के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है; और सबसे अहम, यह कि यह उन चुनौतियों का सामना करने में नाकामी का संकेत है, जो उसके आड़े हैं।  यह किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं है, बल्कि पूरी कांग्रेस के बारे में है- इसका पतन; जिसे रोकने में इसका नेतृत्व विफल रहा है। यह उन मुद्दों का समाधान करने में असमर्थता के बारे में है, जिन्हें तत्काल निवारण की आवश्यकता है।

इसलिए, कांग्रेस यदि सिंधिया के पार्टी से बाहर निकलने को इक्का-दुक्का मामले या इसे बस यूँ ही हो जाने वाली घटना के ही रूप में लेती है, तो यह उसकी एक घातक गलती होगी। यदि वो दीवार पर लिखी इबारत को पढऩे में नाकाम रहती है और इसे एक रुटीन घटना मान लेती है, तो वो अपना बड़ा नुकसान करेगी। यह भी सच है कि सिंधिया कांग्रेस छोडऩे वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं; न ही वह आिखरी होंगे। लोग आते-जाते रहते हैं, लेकिन संस्थाएँ अपनी जगह रहती हैं। इसलिए, कम-से-कम इस स्तर पर कांग्रेस को खत्म मान लेना न केवल मूर्खता होगी, बल्कि यह समय से पहले ही ऐसा सोच लेने जैसा भी होगा।

कांग्रेस की उन्नत्ति में सबसे बड़ा रोड़ा राहुल गाँधी हैं। यह उनकी वजह से है कि दूसरों को किनारे रखा गया है। उनका एक वास्तविक डर है। इस तरह से उनके व्यवहार से उन सभी लोगों के करियर को खतरे में डालना है, जो निष्ठा की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। भले ही सिंधिया को उनकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के लिए कोसा जा रहा हो, लेकिन कोई भी उन्हें उनकी शीर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता को गलत नहीं ठहरा सकता। कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को शिकस्त दी, लेकिन उनके बेटे ने घुटने नहीं टेकने का फैसला किया। महत्त्वाकांक्षा के अलग-अलग पैमाने नहीं हो सकते। 100 साल की पार्टी का भविष्य दाँव पर रख दिया गया है; क्योंकि एक माँ अपने बेटे को शासन में देखने की महत्त्वाकांक्षा रखती है।

इस दृष्टिकोण से देखें, तो सिंधिया महत्त्वाकांक्षी होने के लिए क्यों गलत हैं? राहुल के लिए राजनीति एक खेल का मैदान हो सकती है, लेकिन कई अन्य लोगों के लिए यह गम्भीर व्यवसाय है। इसलिए, भले ही ज्योतिरादित्य का ‘देश सेवा’ का कथन एक पाखंड हो, लेकिन उनके इरादे अंतर्निहित हैं। कांग्रेस में वह एक बन्द गली में पहुँचते दिख रहे थे। इसलिए, कांग्रेस को इस संदेश को समझने की ज़रूरत है। इसका नेतृत्व बेखबर होने का जोखिम नहीं उठा सकता। रेत में अपना सिर दबाने के बजाय उसे उठकर बैठना चाहिए। उसे यह मानना चाहिए कि सिंधिया के बाहर निकलना और बड़े नुकसान की आहट है, जो पार्टी के भीतर एक बड़े पलायन का रास्ता खोल सकती है। हो सकता है वे अकेले मशालवाहक न हों, लेकिन उन्होंने निश्चित ही अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है।

(कुमकुम चड्ढा वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं, उनकी हालिया पुस्तक ‘द मैरीगोल्ड स्टोरी : इंदिरा गाँधी व अन्य’ चर्चित रही है। कई पुरस्कारों से सम्मानित कुमकुम ने जेल सुधार पर राष्ट्रीय समिति में भी कार्य किया है।)

कोरोना का रोना, व्यापार ठप!

चीन के वुहान से शुरू हुआ कोरोना वायरस दुनिया के 100 से अधिक देशों में फैल चुका है। इसके कारण भारत के स्वास्थ्य महकमे पर ही नहीं, बल्कि यहाँ का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं हैं, जहाँ कोरोना के चलते भय न फैला हो। दिल्ली एनसीआर में स्वास्थ्य महकमे, व्यापार जगत के साथ-साथ शिक्षा का क्षेत्र काफी प्रभावित हुआ है। दिल्ली के बाज़ारों, स्कूलों और अस्पतालों के साथ मेडिकल स्टोरों पर कोरोना के कहर को लेकर तहलका के विशेष संवाददाता ने पड़ताल की। इस दौरान पता चला कि चीन के कोरोना वायरस ने दिल्ली में भयावह हालात पैदा कर दिये हैं, जिसके चलते होली के सीजन में बड़ा आर्थिक घाटा हुआ। कोरोना के कारण लोगों का बुरा हाल है। वहीं, मुनाफाखोर सैनेटाइजर्स और मास्क विक्रेता कालाबाज़ारी से बाज़ नहीं आये। इस कालाबाज़ारी में ड्रग विभाग के साथ दिल्ली पुलिस की साठगाँठ से गरीबों को खास दिक्कतों को सामना करना पड़ा। दिल्ली सरकार के अस्पतालों, निजी असपतालों, एम्स और सफदरजंग अस्पतालों के साथ-साथ दिल्ली नगर निगम के अस्पतालों में इस समय मास्क उन मरीज़ों के मिल रहे हैं, जो अस्पतालों में अपनी पहुँच रखते हैं या फिर दलालों से सम्पर्क कर पैसा देकर मास्क प्राप्त कर रहे हैं। सैनेटाइजर्स तो दिल्ली सरकार के अस्पतालों में कभी मिलते ही नहीं हैं। इसलिए सख्त ज़रूरत के दौरान मरीज़ और तीमारदार सैनेटाइजर्स की उम्मीद ही नहीं कर रहे हैं। निजी अस्पतालों मेें तो मास्क की कोई कमी नहीं है। दिल्ली के नामी मेडिकल स्टोरों में मास्कों की कोई कमी नहीं है। मास्कों की बिक्री मनमानी कीमत पर धड़ल्ले से की जा रही है। जो मास्क आसानी से पाँच और 10 रुपये में मिल जाता था, वह अब मेडिकल स्टोरों पर 20, 30 और 40 रुपये में बेचा जा रहा है। मेडिकल स्टोरों पर कुछ जागरूक ग्राहक मनमाने दामों पर बेचे जा रहे मास्कों और सैनेटाइजर्स की बिक्री का विरोध करते हैं। अगर ऐसे ग्राहक ड्रग विभाग व दिल्ली पुलिस में शिकायत करने की बात करते हैं, तो मेडिकल स्टोर वाले उन्हें मास्क नहीं देते और बेधड़क कहते हैं कि जो करना है, कर लो; सब जगह सेटिंग है। नामी मेडिकल स्टोर वाले और छोटे-छोटे मेडिकल स्टोर वालों ने तो पुलिस और ड्रग विभाग से बचने के लिए मेडिकल स्टोर से दूर हटकर अड़ोस-पड़ोस की दुकानों में कालाबाज़ारी के लिए मास्कों का स्टोर जमा कर रखा है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेक कुमार ने बताया कि कोरोना वायरस का असर शरीर के प्रत्येक अंग पर पड़ता है। इसमें हृदय रोगियों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है। दिल शरीर का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंग है, जो ज़रा-सी लापरवाही होने पर धोखा दे सकता है। ऐसे में ज़रा-सी घबराहट होने पर डॉक्टर से परामर्श लें और ज़रूरी उपचार करवाएँ।

देश-दुनिया में इस समय कोरोना वायरस से मरीज़ों का हाल बेहाल है। उनमें ज़बरदस्त खौफ है। बहुत-सी जानें जा चुकी हैं। इलाके-के-इलाके बन्द कर दिये गये हैं। स्कूल और सिनेमाघरों के अलावा एक जगह इकट्ठे होने वाली जगहों से बचने की सलाह दी जा रही है। वहीं, दलाल व मुनाफाखोर पैसा कमाने के लिए इस बीमारी को वे एक उत्सव की तरह देख रहे हैं। सबसे गम्भीर व चौंकाने वाली बात तो यह है कि मास्क और सैनेटाइजर्स कालाबाज़ारी में वे लोग लग गये हैं, जिनका दूर-दूर तक स्वास्थ्य महकमे से कोई लेना-देना नहीं है। पर अब मज़े से लाखों करोड़ों रुपये के मास्क उपलब्ध करा रहे हैं और अच्छा-खासा मुनाफा कमा रहे हैं। दिल्ली का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ पर मास्कों की सप्लाई में मुनाफाखोर न लगे हों।

दिल्ली के भागीरथ पैलेस और लाजपत नगर में दवा विक्रेताओं ने बताया कि मास्कों का बाज़ार से टोटा उसी समय होने लगा था, जब चीन में कोरोना वायरस का कहर ज़ोर पकड़ रहा था। अब तो दुनिया के साथ-साथ भारत में कोरोना वायरस के मरीज़ों की संख्या मेें इज़ाफा हो रहा है। कैमिस्ट एसोसिएशन के कैलाश गुप्ता का कहना है कि इस समय चीन और सिंगापुर में मास्कों की सप्लाई भारत से हो रही है। ऐसे में एक साज़िश के तहत मास्कों की कालाबाज़ारी करने वालों ने यहाँ पर मास्कों की कमी दिखाकर एक धन्धे के तौर पर काम करना शुरू कर दिया है। यह बाज़ार में हौवा खड़ा कर दिया है कि मास्कों की कमी है।

मास्कों, सैनेटाइजर्स के साथ-साथ ग्लव्स की कमी भी बाज़ारों में बनी हुई है। लाजपत नगर के दवा व्यापारी सुरेंद्र सिंघल ने बताया कि देश में एक अजीब-सा माहौल बनता जा रहा है। जिसको देखो वही मार्केटिंग कर रहा है। अब दिल्ली में मास्क और सैनेटाइजर्स के साथ ग्लव्स की कमी बतायी जाने लगी है। जहाँ लोगों को इस ‘महामारी’ के समय लोगों की मदद करनी चाहिए, पर वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा है। सरकार को तत्काल ऐसे लोगों के िखलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि कालाबाज़ारी को रोका जा सके।

यही हाल व्यापार जगत का है कि कोई भी व्यापारी ऐसा नहीं है, जो कोरोना का रोना नहीं रो रहा हो। होली के सामान की बिक्री करने वाले धीरज अग्रवाल ने बताया कि पिछले कई साल से वे दिल्ली के चाँदनी चौक पर फुटपाथ पर लाखों रुपये की पिचकारी और होली के खिलौने त्योहार से दो सप्ताह पहले ही बेच लेते थे। इस बार चाइनीज सामान को लोग खरीदने से कतरा रहे हैं और उस पर देश के पीएम नरेन्द्र मोदी और दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने घोषणा कर दी थी कि वे कोराना वायरस की वजह से होली मिलन में शामिल नहीं होंगे यानी होली नहीं मनाएँगे। उसके बाद तो मानो होली का सामान बिकना ही बन्द हो गया।

मिठाई विक्रेता पवन गर्ग ने बताया कि वैसे ही बाज़ार में मंदी के कारण पिछले कई साल से धन्धा मन्दा पड़ा था, उस पर इस बार कोरोना वायरस के डर के कारण लोगों ने बाहर का खाना बन्द-सा कर दिया है, जिसके कारण उनकी मिठाई की बिक्री दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। क्योंकि, लोगों को लगता है कि मिठाई में मिलावटी सामान होने की वजह से संक्रमण हो सकता है, जो उनको बीमार कर सकता है।

दिल्ली के स्कूलों की बात करें, तो बच्चों के ज़्यादातर अभिभावकों ने अपने बच्चों को मास्क और हाथों में ग्लव्स और सैनेटाइजर्स के साथ स्कूल भेज रहे हैं। ऐसे में उन बच्चों को काफी दिक्कत हो रही है, जो महँगे मास्क, सैनेटाइजर्स और ग्लव्स नहीं खरीद सकते हैं। अभिभावक राजकुमार बीणा ने बताया कि दिल्ली सरकार ने ज़रूर पाँचवीं तक के स्कूलों की छुट्टी कोरोना वायरस के चलते 31 मार्च तक कर दी है। लेकिन दिल्ली और केंद्र सरकार का यह भी तो दायित्व बनता है कि वे स्कूलों में सभी बच्चों को मास्क मुहैया कराएँ, ताकि यह बीमारी फैलने ही न पाये।

व्यापार मंडल के महामंत्री विजय जैन का कहना है कि भारत सरकार और रिज़र्व बैंक ने ज़रूर आश्वासन दिया है कि वो बाज़ार को हर सम्भव सहायता देंगे। ऐसे समय में यह बयान हौसलाअफजाई तो करता है, पर फायदा नहीं। इसके लिए सरकार को ठोस नीति बनानी होगी, ताकि आने वाले दिनों में बाज़ार की और हालत खस्ता हो, उससे पहले ज़रूरी कदम उठाने होंगे।

कोरोना का कहर दवा कम्पनियों, फार्मास्युटिकल की कम्पनियों, इलेक्ट्रिक व्हीकल इंडस्ट्री की रफ्तार कम कर सकता है। आयात-निर्यात बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकता है। नोएडा के व्यापारी संजीव अग्रवाल और रमाकांत गर्ग ने कहा कि सरकार की कौन-सी ऐसी पॉलिसी है, जिससे दिन-ब-दिन बाज़ारों से रौनक खत्म होने के बारे में कुछ किया जा रहा हो? कोई भी अमानवीय संकट आने पर सबसे पहले बाज़ार पर उसका असर दिखता है। इस समय एक संकट कोरोना का है। सरकार से लेकर हर महकमा कोरोना के कहर से बचाव में लग गया है, लेकिन बाज़ार में मंदी छा गयी है।

गौर करने वाली बात यह सामने आयी है कि सरकार के ही लोग आर्थिक चोट पहुँचाने में लगे हैं। इस समय मास्कों, ग्लव्स और सैनेटाइजर्स की कालाबाज़ारी में दिल्ली सरकार के लोकनायक अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारी, राममनोहर लोहिया अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारी और दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी लगे हैं। सूत्रों के मुताबिक, ये कर्मचारी रोज़ाना बड़ी आसानी से बाज़ारों में मास्क, ग्लव्स सप्लाई कर रहे हैं। और तो और, दवा कम्पनियाँ भी अधिकारियों से साठगाँठ करके बिना जीएसटी के बिलों के लाखों मास्क बेचने में लगे हैं।

चौंकाने वाली बात यग है कि मास्कों के नमूने भी सोशल मीडिया में दिखाकर पास हो रहे हैं और आसानी से ग्राहकों तक पहुँचाये जा रहे हैं। इस समय एनसीआर में दिल्ली के यमुनापार और राजौरी गार्डन के कई क्षेत्रों से इन मास्कों की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर है।

हरियाणा को नशे की गिरफ्त से बचाने की कोशिश में राज्य सरकार

हरियाणा में बढ़ती नशाखोरी रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने नशा तस्करी पर लगाम कसने की तैयारी शुरू कर दी है। सरकारी सूत्रों की मानें, तो हरियाणा सरकार इसके लिए जल्द ही 65 स्निफर डॉग खरीदेगी। नशामुक्त राज्य बनाने के लिए सरकार इसके लिए पाँच करोड़ रुपये खर्च करेगी। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने इसकी जानकारी दी।

अनिल विज ने यह भी कहा कि हरियाणा में मादक (नशीले) पदार्थों की पैदावार नहीं होती, बल्कि बाहर से नशीले पदार्थों की तस्करी होती है। सवाल यह है कि अनिल विज ने नशीले पदार्थों की तस्करी का आरोप इशारों-ही-इशारों में किन राज्यों की तरफ किया? शायद, पंजाब और दिल्ली की तरफ। क्योंकि पंजाब में नशे की तस्करी होती है। वहीं दिल्ली और उत्तर प्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं है।

विज ने कहा कि दूसरे राज्यों से नशे की तस्करी को रोकने के लिए राज्य सरकार ने जल्द ही 65 स्निफर डॉग खरीदने का फैसला किया है, ताकि सीमाओं पर सघनता से जाँच की जा सके और मादक पदार्थों के तस्करों को पकड़ा जा सके। यहाँ बताना ज़रूरी है कि दूसरे राज्यों की तरह हरियाणा भी नशे की गिरफ्त से मुक्त नहीं है। यहाँ तक कि हरियाणा के अनेक खिलाडिय़ों पर भी नशा करने के आरोप लग चुके हैं। एक सर्वे में पाया गया है कि हरियाणा में हुक्के के चलन को युवाओं ने न केवल बढ़ावा दिया है, बल्कि उसका क्रेज भी उनमें लगातार बढ़ रहा है। इसके लिए हुक्काबार जाकर देखा जा सकता है। यही नहीं पिछले 15 साल में हरियाणा के बड़े शहरों, खासतौर से गुडग़ाँव में बार और क्लबों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है, जो नशे के मुख्य केंद्र बन चुके हैं। हरियाणा में नशाखोरी के चलते कई बार हत्या, लूट, चोरी और बलात्कार जैसी घटनाएँ भी सामने आयी हैं। फरीदाबाद के एक समाजसेवी ने नाम न छापने की शर्त बताया कि पूरे हरियाणा में मादक पदार्थों के तस्करों का जाल फैला है, जिनसे उलझने का मतलब है मौत को बुलावा देना। यह जाल युवाओं को अपनी जकड़ में लेता जा रहा है।

तस्करों के सॉफ्ट टारगेट हैं युवा

माना जा रहा है कि पंजाब के बाद अब हरियाणा में नशे का जाल बढ़ता जा रहा है। हरियाणा मादक पदार्थों के तस्करों के लिए सॉफ्ट टारगेट है। इसका कारण यह है कि हरियाणा में युवा आॢथक मज़बूती के चलते आसानी से नशे की लत में फँसने लगे हैं। एक रिपोर्ट में ऐसा कहा भी गया है कि हरियाणा के युवा मादक पदार्थों के तस्करों के सबसे सॉफ्ट टारगेट हैं। 2019 में उत्तर भारत के सबसे बड़े स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ में संचालित राज्य व्यसन निर्भरता उपचार केंद्र की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हरियाणा में नशे का ट्रेंड बदल रहा है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि राज्य के 18 से 25 साल की उम्र के अधिकतर युवा इंजेक्शन के ज़रिये नशा ले रहे हैं और महँगे नशे के शौकीन होने लगे हैं। यहाँ तक कि अनेक युवा हेरोइन को पानी में घोलकर इंजेक्शन के माध्यम से नशा लेते हैं, जो कि बहुत खतरनाक है।

खतरनाक रोगों की चपेट में नशा करने वाले लोग

राज्य व्यसन निर्भरता उपचार केंद्र की रिपोर्ट में कहा गया है कि संकट की बात केवल नशा ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि एक ही इंजेक्शन से अनेक लोग नशा ले लेते हैं, जिससे उनमें खतरनाक रोग, जैसे- एचआईवी, हेपेटाइटिस और दूसरे रोगों के फैलने का खतरा बढ़ रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बार-बार इंजेक्शन लेने से युवाओं की नसें बन्द हो रही हैं, जिससे उन्हें दर्द होता है और उससे बचने के लिए वे दोबारा नशा लेते हैं। यही नहीं युवा हर बार ओवरडोज लेते हैं, जो कि उनकी ज़िन्दगी को निगल रही है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि नशे के आदी हो चुके युवा महँगे नशे की लत को पूरा करने के लिए अपराध की दुनिया में कदम रख रहे हैं। ऐसे युवा पहले घर से चोरी की शुरुआत करते हैं और बाद में गम्भीर अपराधों को अंजाम देने से भी नहीं चूकते। स्टेट ड्रग डिपेंडेंट सेल में हर रोज़ ऐसे मामले आ रहे हैं। महँगे नशे के शौकीन 70 फीसदी युवा इंजेक्शन ले रहे हैं। वे इंजेक्शन के ज़रिये हेरोइन और स्मैक लेने लगे हैं।

नशा मुक्ति केंद्रों में हर साल आते हैं सैकड़ों मामले

रिपोर्ट में कहा गया है कि नशा मुक्ति केंद्रों में नशा करने वाले 1712 मरीज़ सन 2018 में और 600 से अधिक मरीज़ 2019 के सितंबर तक आये थे। मानसिक स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार, यहाँ के डॉक्टरों ने वर्ष 2018 व 2019 के सितंबर माह तक के आँकड़े इकट्ठे किये। यह आँकड़े बताते हैं कि राज्य के सैकड़ों युवा हेरोइन, स्मैक, कोकीन, स्मैक, अफीम, कैप्सूल, नशीली दवाएँ, इंजेक्शन, गाँजा, सुलपा, महँगी शराब और हुक्का भी पीते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नशा करने वालों में 60 फीसदी युवा हेरोइन व स्मैक लेने के आदी मिले हैं, जबकि 30 फीसदी इंजेक्शन के ज़रिये महँगे नशे का सेवन करने वाले मिले हैं।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले दो वर्षों में नशे के आदी अधिकतर युवाओं ने गाँजा, अफीम, तम्बाकू की जगह हेरोइन, कोकीन, स्मैक और इंजेक्शन का सेवन शुरू कर दिया है। जिन लोगों को नशे से छुटकारा पाने की इच्छा होती है या उनके परिजनों को उनकी लत के बारे में पता चलता है, उन्हें नशा मुक्ति केंद्रों में लाये जाने पर काउंसिलिंग और दवाओं के ज़रिये इस लत से छुटकारा दिलाया जाता है।

दिल्ली-पंजाब से सप्लाई होते हैं मादक पदार्थ

रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि इलाज के लिए आने वाले अधिकतर लोगों ने काउंसिलिंग के दौरान बताया है कि दिल्ली व पंजाब से सटे बॉर्डर के क्षेत्रों से उन्हें सीधे या तस्करों के ज़रिये हेरोइन, स्मैक व कोकीन जैसे नशीले पदार्थ मिलते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि मादक पदार्थों की तस्करी का यह कारोबार गुडग़ाँव, फरीदाबाद, रोहतक, झज्जर, सिरसा, फतेहाबाद, हिसार, सोनीपत समेत अन्य कई ज़िलों में बेरोकटोक हो रहा है। इसके अलावा बस अण्डों, रेलवे स्टेशनों पर और होटलों, रेस्टोरेन्टों में तस्कर बेखौफ होकर हेरोइन, कोकीन, स्मैक व गाँजे की सप्लाई करते हैं। यहाँ तक कि तस्करों के जाल में छोटे कस्बों और गाँवों के युवा भी फँसते जा रहे हैं। काउंसिलिंग के दौरान 55 फीसदी युवाओं ने कहा है कि पहले-पहल तो उन्होंने शौक में या यारी-दोस्ती में नशा किया और बाद में नशे की लत लग गयी। जबकि, 30 फीसदी ने प्यार या करियर में फेल होने के बाद नशा लेना शुरू किया था। वहीं, 10 फीसदी ने बिना किसी कारण के नशा करना शुरू किया और 5 फीसदी को धोखे से या ज़बरन नशे का शिकार बनाया गया।

केवल हरियाणा नहीं, हर राज्य है नशे की गिरफ्त में

एक सर्वे के अनुसार, देश के अधिकतर युवा नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। इनमें सिगरेट, बीड़ी, शराब, तम्बाकू और गुटखा का सेवन करने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा है। 2019 में किये गये एक सर्वे के अनुसार, प्रतिदिन देश के छ: हज़ार से अधिक युवा तम्बाकू उत्पादों का सेवन करते हैं, जिनकी संख्या में लगातार बढ़ रही है। सर्वे के आँकड़ों पर विश्वास करें, तो भारत में करीब 12 करोड़ लोग धूम्रपान करते हैं, जिनमें से 25 फीसदी महिलाएँ हैं।  पिछले साल वाशिंगटन यूनिवर्सिटी ने 185 देशों में सिगरेट पीने वालों पर सर्वे करके एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में अमेरिका के बाद भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें युुवतियाँ सबसे ज़्यादा सिगरेट पीती हैं।

हैरत की बात है कि भारत में सिगरेट पीने वाली युवतियों की संख्या 1 करोड़ 27 लाख से अधिक है। वहीं भारतीय युवा तेज़ी से शराब की गिरफ्त में आ रहे हैं। 40 देशों के शराब सेवन सम्बन्धी अध्ययन से पता चला है कि भारत में केवल 20 साल में शराब का सेवन करने वालों की संख्या में 60 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अध्ययन रिपोर्ट यह भी कहती है कि भारत में 55 फीसदी पुरुष शराब पीते हैं और 45 फीसदी महिलाएँ शराब पीती हैं। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि नशा करने वाली महिलाओं की संख्या शहरों में ज़्यादा है।

बच्चे और छात्र भी आ रहे गिरफ्त में

रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि मादक पदार्थ के तस्करों की गिरफ्त से बच्चे और स्कूल, कॉलेज के छात्र भी नहीं बच पा रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि नशे का शिकार बनाने के लिए शुरू में तस्कर बच्चों और छात्रों को फ्री में मादक पदार्थ मुहैया कराते हैं, ताकि उन्हें इसकी आदत पड़ सके और वह खरीदकर नशा करने पर मजबूर हो जाएँ। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तस्कर नये युवाओं और बच्चों को दोस्ती करके अथवा किसी और तरीके से बहला-फुसलाकर उनके साथ खुद भी नशा करते हैं और बाद में उन पर दबाव बनाकर मादक पदार्थों का पैसा वसूलते हैं। चाइल्ड लाइन इंडिया फॉउन्डेशन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 18 वर्ष से कम उम्र के 65 फीसदी बच्चे नशे की गिरफ्त में हैं।

लड़कियाँ भी फँस रहीं जाल में

नशा मुक्ति केंद्र के डॉक्टरों की मानें, तो लड़कियाँ भी नशे की गिरफ्त में फँसती जा रही हैं। डॉक्टरों का कहना है कि लड़कियाँ अपने शौक पूरे करने के लिए ऐसे लड़कों के चंगुल में फँस जाती हैं, जो नशा करते हैं और बाद में उनके साथ नशा करने लगती हैं। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लैमरस दुनिया और महँगे शौक लड़कियों को हुक्का बार, क्लब, डांस बार जैसी जगहों तक ले जाते हैं और फिर उनको नशे की गिरफ्त में ले लिया जाता है। इतना ही नहीं नशे की आदी हो जाने के बाद अधिकतर लड़कियों को जिस्मफरोशी के धन्धे में धकेल दिया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कुछ लड़कियाँ अपनी अमीरी के चलते शौिकया नशा करने लगती हैं और फिर उन्हें नशे की लत लग जाती है।

क्या भरोसा, अब नहीं सुलगेगी दिल्ली!

कहा जाता है कि दिल्ली में कुछ भी हो, उसका असर पूरे देश में दिखाई देता है। दिल्ली जब दंगे की आग में जल रही थी, तो पूरा देश संवेदनशील था और देश के लोग परेशान-हैरान थे, जिसकी दहशत कम-से-कम दिल्ली के लोगों के मन में तो आज भी है। सरकार, पुलिस प्रशासन आश्वासन दे रहे हैं कि अब सब शान्त है; किसी को भी डरने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन क्या भरोसा कि दिल्ली अब नहीं सुलगेगी!

यह बात आपको अचम्भित ज़रूर करेगी, लेकिन यह बात मैं बहुत सोच-समझकर कह पाने की हिम्मत जुटा पाया हूँ। इसका पहला कारण यह है कि दिल्ली में दंगे की अफवाहें दंगे के बाद भी भी उड़ती रही हैं। यह अलग बात है कि दंगों की अफवाह फैलाने वाले 24 आरोपियों को पुलिस ने 2 मार्च तक गिरफ्तार कर लिया था। दूसरा कारण यह है कि अभी भी सभी दंगाई पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े हैं। न ही सरकार का पुलिस पर दंगाइयों को पकडऩे के लिए कोई बड़ा दबाव दिख रहा है। तीसरा कारण यह है कि दंगा भड़काने वाले कई लोगों के िखलाफ तो एफआईआर तक नहीं हुई है। इनमें ज़्यादातर लोग सियासत से जुड़े हैं, जिन पर पुलिस हाथ डालने से भी कतरा रही है। चौथा कारण है, दंगा भड़काने वालों के िखलाफ कार्रवाई करने का आदेश देने वाले जज का रातोंरात ट्रांसफर हो जाता है। पाँचवाँ कारण है, अब भी सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे वीडियो आ रहे हैं, जिनमें लोग हथियार लहराकर दूसरे धर्म के लोगों को धमकियाँ दे रहे हैं और उन लोगों पर कोई भी कार्रवाई नहीं हो रही है। यह अलग बात है कि कुछ लोगों पर कार्रवाई की गयी है, लेकिन उसमें धार्मिक विद्वेष की बू भी आ रही है। इसकी वास्तविकता यह है कि दिल्ली में जो साहिब-ए-मसनद हैं, वे चाहते हैं कि सत्ता का सुख मरते दम तक उनके लिए ही रहे, फिर चाहे इसके लिए जो भी करना पड़े। लेकिन ये साहिब-ए-मसनद यह बात भूल बैठे हैं कि गरिमामयी पदों पर आसीन होने के बावजूद उन पर से पूरे देश की अवाम का भरोसा उठता जा रहा है। इसकी कई वजहें हैं, जो न केवल जायज़ हैं, बल्कि स्वभाविक भी हैं। इतिहास गवाह है कि जब-जब सियासी लोग केवल स्वहित की सोचने लगते हैं, अवाम उनके लिए इतनी गौड़ हो जाती है कि आम लोग उन्हें कीड़े-मकोड़े से ज़्यादा कुछ नहीं दिखते। यहीं से सियासत मर्यादाओं का उल्लंघन करती है और तानाशाही शासन की शुरुआत होती है। दिल्ली में इसी तानाशाही शासन की एक झलक प्रस्तुत की गयी है। इसमें कोई हैरत नहीं कि जब चुनाव जीतने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं, तब यह एक बौखलाहट ही थी कि गोली मारो जैसे बयान देकर सनकी भीड़ को उकसाया गया। लेकिन सियासी लोग यह भूल गये कि दिल्ली दंगों का जो असर देश के तमाम हिस्सों पर पड़ा है, या कहें कि इस आग की जो चिंगारियाँ देश के दूसरे हिस्सों में छिटककर गिरी हैं, उनसे कभी भी कहीं भी हिंसा की आग भड़क सकती है। दिल्ली में भी अब कभी दंगे नहीं होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि अगर सरकार सभी दंगाइयों के िखलाफ कार्रवाई करती, तब यह भरोसा बढ़ता कि दिल्ली में दंगे नहीं होंगे। दूसरा आम आदमी पार्टी की सरकार ने इस बार दंगाइयों के िखलाफ बोलने से जिस तरह परहेज़ करते हुए पीडि़तों के घावों पर दूर से मरहम लगाने की कोशिश की है, उससे भी दंगाइयों के हौसले बुलंद होने स्वाभाविक हैं। यह अलग बात है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी के दंगों के आरोपी निगम पार्षद ताहिर हुसैन को बर्खास्त करके सज़ा देने की इल्तिजा की।

पूरा देश कर रहा सवाल

वर्तमान सरकार की यह बड़ी कमी है कि वह सवालों के जवाब नहीं देती। सवाल करने वालों को देशद्रोही तक कह दिया जाता है। किसी गलत काम का खुलासा करने वाले पत्रकारों पर हमले हो जाते हैं और सीधे-सादे लोगों को बिना खता के आरोप लगाकर पीट दिया जाता है- कहीं तथाकथित उपद्रवी भीड़ के द्वारा, तो कहीं पुलिस के ही द्वारा। दिल्ली दंगों को लेकर भारत सरकार ने अब भी एक चुप्पी साधी हुई है। पूरा देश सवाल कर रहा है। दिल्ली दंगों के बाद सोनिया गाँधी की अगुवाई में कांग्रेस नेताओं ने राष्ट्रपति से मिलकर विरोध भी जताया और गृह मंत्री अमित शाह का इस्तीफा भी माँगा। लेकिन उसका भी असर न तो सरकार पर हुआ और न ही अमित शाह के कान पर जूँ रेंगी। न ही उन्होंने विपक्ष को कोई तरजीह दी। राष्ट्रपति भी खामोश रहे। कपिल मिश्रा को वाई प्लस सिक्योरिटी दे दी गयी। क्या इससे दंगा करने वालों का मनोबल नहीं बढ़ेगा? क्या आने वाले समय में सियासी लोग और उत्तेजक और भड़काऊ बयान देने की ज़ुर्रत नहीं करेंगे? यही बात है कि पूरी दुनिया कह रही है कि दंगा भड़काने या उत्तेजक बयानबाज़ी करने वालों के साथ एनडीए सरकार सीधे-सीधे खड़ी है। संदेश भी यही जाता है। दृश्य साफ है कि सरकार उन लोगों पर कार्रवाई नहीं करना चाहती, जो सरकार के पक्ष में हैं। चाहे फिर वो आपराधिक पृष्ठभूमि के ही क्यों न हों। अगर ऐसा है, तो पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर विपक्षी दलों के दबाव का कोई असर न होना कोई बड़ी बात नहीं और यह असर तब तक नहीं होगा, जब तक कि जनता चुनाव में इसका जवाब नहीं देगी। अन्यथा निरंकुश होती सरकार लगातार और निरंकुश होती जाएगी।

ट्रंप के आने पर ही क्यों हुए दंगे?

पूरी दुनिया जानती है कि ट्रंप किस तरह से इस्लामिक देशों के िखलाफ रहे हैं। उन्होंने न केवल आतंकवाद का खात्मा करने के लिए जंग छेड़ी है, बल्कि मुस्लिम समाज के िखलाफ बयान भी दिये हैं। मुसलमानों का विरोध किया है। ऐसे में ट्रंप को मुस्लिमों की यह छवि दिखाना कि वे दुनिया के लिए ही नहीं, भारत के लिए भी सिरदर्द हैं- पाकिस्तान की ओर से भी और आंतरिक स्तर पर भी; कहीं-न-कहीं अमेरिकी राष्ट्रपति की पुचकार पाने की कोशिश लगता है। लेकिन इस सबसे न केवल भारत की छवि दुनिया भर में धूमिल हुई है, बल्कि भारत को बड़ी क्षति भी हुई है। साथ ही ट्रंप पर भी इसका कोई असर नहीं पड़ा। उलटा उन्होंने पाकिस्तान को अमेरिका का दोस्त बताकर साफ संदेश दे दिया कि अमेरिका के लिए पाकिस्तान भारत से किसी भी मायने में कम महत्त्व नहीं रखता। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री को अमेरिकी कूटनीति को और समझने की ज़रूरत तो है ही, इस बात को समझने की भी ज़रूरत है कि घर की इज़्ज़त खराब होने पर बाहर वालों से सम्मान की अपेक्षा करना मूर्खता के सिवाय कुछ और नहीं है।

बिहार, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल भी नहीं सुरक्षित

दिल्ली के बाद अब बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल संवेदनशील प्रदेश के रूप में देखे जा रहे हैं। इसी साल अक्टूबर-नवंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश और उसके बाद पश्चिम बंगाल में चुनाव होंगे। ज़ाहिर है इन प्रदेशों में भी भड़काऊ बयानबाज़ी से सियासी लोग बाज़ नहीं आएँगे। क्योंकि इन प्रदेशों की सुरक्षा व्यवस्था के हालात तो दिल्ली से भी बदतर हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार का माहौल तो पहले से ही खराब माना जाता है। दोनों प्रदेशों में बात-बात पर तनाव, बात-बात पर दंगे, बात-बात पर कत्लेआम के हालात बन जाते हैं। ऐसे में क्या भरोसा किया जा सकता है कि वहाँ दंगे नहीं भड़केंगे? क्या इन प्रदेशों में भी लोग उपद्रव नहीं मचाएँगे? क्या दिल्ली में दंगाइयों पर कार्रवाई में देरी से बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल के अराजक तत्त्वों के हौसले बुलंद नहीं होंगे? उत्तर प्रदेश में जिस तरह सीएए का विरोध करने वालों पर बर्बर पुलिस कार्रवाई हुई है, उससे तो वहाँ के हालात और भी खराब हुए हैं। बिहार भी इस दमन से अछूता नहीं है।

कितना हुआ नुकसान?

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगों की जाँच के लिए एसआईटी का गठन किया गया है। पिछले दिनों लॉ एंड ऑर्डर के स्पेशल कमिश्नर ने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा भी किया। अब तक आयी की रिपोर्टों की मानें, तो दंगाइयों ने 287 से अधिक मकानों, 327 से अधिक दुकानों, 424 से अधिक वाहनों, 175 से अधिक रेहडिय़ों-ठेलियों को तहस-नहस कर दिया। यह खुलासा उत्तर-पूर्वी ज़िला प्रशासन की 18 एसडीएम की अगुवाई वाली टीमों के सर्वे की अंतरिम रिपोर्ट और स्थानीय लोगों से बातचीत में हुआ है। हालाँकि, प्रशासन की अंतिम रिपोर्ट अभी आनी बाकी है। माना जा रहा है कि अभी जलायी गयी सम्पत्तियों की संख्या बढ़ सकती है। 2 मार्च तक के आँकड़े बताते हैं कि इन दंगों में 52 से अधिक मौतें हुई हैं। दर्ज़नों लोग लापता हैं। कई परिवार घरबार छोड़कर चले गये हैं और करोड़ों का नुकसान हुआ है। जाँच में यह बात भी सामने आ रही है कि इस दंगे में दोनों समुदाय के उपद्रवियों ने उत्पाद मचाया है। अभी तक चार दर्ज़न से अधिक के िखलाफ एफआईआर दर्ज हुई हैं और करीब दो दर्जन के िखलाफ एफआईआर और हो सकती है। इसके अलावा 1000 से अधिक सीसीटीवी फुटेज ज़ब्त की गयी हैं। तकरीबन 109 लोगों के गिरफ्तार किये जाने का दावा किया जा रहा है।

दिल्ली सरकार कुल नुकसान का सर्वे करा रही है। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि नुकसान का आँकड़ा बढ़ सकता है। दिल्ली सरकार ने पीडि़तों को 38.75 लाख की आर्थिक मदद देने की बात कही है।

700 मीट्रिक टन ईंट-पत्थर!

हैरत की बात है कि पूर्वी नगर निगम ने दंगा प्रभावित क्षेत्र की सड़कों से केवल चार दिन में 700 मीट्रिक टन ईंट-पत्थर और 424 क्षतिग्रस्त एवं जली हुईं गाडिय़ाँ हटाने का दावा किया है। रिपोर्टों की मानें, तो पूर्वी निगम के शाहदरा के नौ थानाक्षेत्र के 15 इलाके दंगे से प्रभावित हुए हैं। यही नहीं, घरों की छतों पर भी पत्थरों के ढेर मिले हैं। मलबा उठाने के लिए पूर्वी नगर निगम ने 200 टिपरों, 80 मिनी ट्रकों के साथ 500 से अधिक कर्मचारियों को लगाया हुआ है। इसके अलावा वॉलेंटियर्स और स्वयंसेवी संस्थाएँ भी इन इलाकों में सफाई तथा दूसरे कामों में लगी हुई हैं।

घाव भरने में लगेगा समय

दिल्ली के कलेजे पर इन दंगों से ऐसा घाव लगा है, जिसने पूरे देश को एक पीड़ा से गुज़ार दिया है। इस घाव को भरने में सदियाँ लग जाएँगी; वह भी तब, जब सियासत नफरत को हवा न दे। भारत की हिन्दू-मुस्लिम एकता को इन दंगों में जिस तरह खंडित किया गया है, वह नफरत की खाई को इतना गहरा कर गया है कि सदियों तक नासमझ लोग इस खाई में गिरते-लड़ते रह सकते हैं। लेकिन अगर इन लोगों को भाईचारे और मोहब्बत का पाठ पढ़ाया जाए, तो नफरत के इस घाव को काफी हद तक भरा जा सकता है। और देश को पुन: एकता के साथ तरक्की के रास्ते पर ले जाया जा सकता है।

‘मर्जर’ नहीं है मर्ज़ की दवा

सरकारी बैंकों के विलय पर सरकार द्वारा स्पष्टीकरण देने के बाद भी संशय की स्थिति बनी हुई है। 30 अगस्त, 2019 को सरकार द्वारा 10 सरकारी बैंकों के विलय करके 4 बड़े बैंक बनाने की घोषणा की गयी थी। तय समय-सीमा के अनुसार, 01 अप्रैल, 2020 तक 10 सरकारी बैंकों का विलय करके 4 बैंक बनाने की प्रक्रिया पूरी करनी है। बैंक ऑफ बड़ौदा का विजया बैंक और देना बैंक के साथ 01 अप्रैल, 2019 को विलय हुआ था; लेकिन उसके प्रदर्शन में लगातार गिरावट देखी जा रही है। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है। पूर्व के विलयों का परिणाम भी बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। इसलिए कहा जा रहा है कि समय-सीमा के अन्दर 10 बैंकों की विलय प्रक्रिया का पूरा होना मुश्किल है।

दरअसल, विलय से पहले सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करने के बाद सम्बन्धित बैंक के बोर्ड सदस्यों की बैठक होती है, जिसकी सूचना ग्राहकों को दी जाती है। अगर सरकार फरवरी महीने में अधिसूचना नहीं जारी करती है, तो विलय में देरी हो सकती है। विलय के दौरान बैंकों को छोटे शेयरहोल्डर्स को नुकसान न हो इसका भी ध्यान रखना होगा। विलय होने वाले बैंकों की वैल्यू चालू वित्त वर्ष में पहली छमाही के नतीजे के आधार पर तय की जाएगी। पंजाब नेशनल बैंक में ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का विलय होने से यह देश का दूसरा सबसे बड़ा कर्ज़दाता बैंक बन जाएगा।

विलयों के परिणाम उत्साहजनक नहीं

बैंकिंग क्षेत्र में बैंकों का विलय कोई नयी बात नहीं है। भारतीय स्टेट बैंक के साथ उसके 5 सहायक बैंकों और एक महिला बैंक का विलय वर्ष 2018 में किया गया था; जबकि स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक ऑफ इंदौर का विलय क्रमश: 2008 एवं 2010 में भारतीय स्टेट बैंक के साथ किया गया था। आर्थिक और बैंकिंग विषयों पर केंद्रित प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘द बैंकर’ के मुताबिक, वर्ष 2017 में विलय के तुरन्त बाद भारतीय स्टेट बैंक की रैंकिंग 54 थी, जो वर्ष 2018 में गिरकर 56 और पुन: वर्ष 2019 में गिरकर 57 हो गयी। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि विलय के बाद भारतीय स्टेट बैंक के प्रदर्शन में गिरावट आयी है, जबकि विलय से पहले बैंक का प्रदर्शन अच्छा था। ऐसे में सरकारी बैंकों के विलय पर सवाल उठाया जाना लाज़िमी है।

एकीकरण के पक्ष में तर्क

सरकार का मानना है कि अगले 5 साल में पाँच लाख करोड़ डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनाने के लिए देश में बड़े बैंकों का होना ज़रूरी है। सरकार का यह भी कहना है कि बढ़ते एनपीए, बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने, बैंकों की आधारभूत संरचना को मज़बूत करने आदि के लिए बैंकों को पूँजी की ज़रूरत है, जिसे विलय के ज़रिये पूरा किया जा सकता है। कहा यह भी जा रहा है कि विलय से बैंकों के परिचालन लागत व दूसरे खर्चों में कमी, लाभ में बढ़ोतरी, जोखिम प्रबंधन में आसानी, प्रदर्शन में बेहतरी आदि आ सकती है। इतना ही नहीं, इसकी मदद से प्रशिक्षित मानव संसाधन में बढ़ोतरी, प्रशिक्षण के खर्च में कमी, संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि एवं धोखाधड़ी के मामलों में कमी लाने की बात भी कही जा रही है।

पूँजी नहीं है सफलता की गारंटी

निजी बैंकों की कुल परिसम्पत्ति सरकारी बैंकों के मुकाबले बहुत ही कम है। उदाहरण के तौर पर- एचडीएफसी बैंक की कुल परिसम्पत्ति 120 बिलियन यूएस डॉलर, कोटक महिंद्रा की कुल परिसम्पत्ति 31 बिलियन यूएस डॉलर, आईसीआईसीआई बैंक की कुल परिसम्पत्ति 160 बिलियन यूएस डॉलर, एक्सिस बैंक की कुल परिसम्पत्ति 100 बिलियन यूएस डॉलर, इंडसइंड बैंक की कुल परिसम्पत्ति 26 बिलियन यूएस डॉलर, बंधन बैंक की कुल परिसम्पत्ति 4.4 बिलियन यूएस डॉलर और आईडीएफसी फस्र्ट बैंक की कुल परिसम्पत्ति 16 बिलियन यूएस डॉलर है। इन शीर्ष निजी बैंकों की कुल परिसम्पत्ति भारतीय स्टेट बैंक की कुल परिसम्पत्ति 530 बिलियन यूएस डॉलर से कम है। बावजूद इसके कुछ अपवादों को छोड़कर हर मोर्चे पर इन निजी बैंकों का प्रदर्शन अच्छा रहा है।

एनपीए बढऩे की आशंका

विलय के बाद भी आधारभूत संरचना जैसे- टेक्सटाइल, सीमेंट, ऊर्जा, स्टील, सड़क आदि क्षेत्रों को ऋण देने के लिये सरकारी बैंकों पर दबाव बना रहेगा। जहाँ एनपीए का फीसदी आज सबसे ज़्यादा है। बीते महीनों में मुद्रा ऋण में एनपीए बढ़ा है और यह 10 फीसदी के आसपास पहुँच गया है, लेकिन सरकार इसका दायरा और भी बढ़ाना चाहती है। सरकार ने 59 मिनट में ऋण देने की योजना का आगाज़ किया है, लेकिन अल्प समय में ऋण प्रस्तावों का गुणवत्ता पूर्ण विश्लेषण करना मुमकिन नहीं है। ऐसे में एनपीए में और भी बढ़ोतरी हो सकती है।

निष्कर्ष

सरकार चाहती है कि 5 वर्षों में पाँच लाख करोड़ डॉलर की अर्थ-व्यवस्था बनायी जाए; लेकिन इसके लिए क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ाकर लगभग 20 फीसदी करना होगा। चालू कैलेंडर वर्ष के पहले 6 महीनों में यह 7.3 फीसदी रहा है, जो 5 वर्षों में सबसे कम है। वर्ष 2018 की पहली छमाही में यह 7.7 फीसदी, वर्ष 2017 में 8.6 फीसदी, वर्ष 2016 में 8.1 फीसदी और वर्ष 2015 में 8.5 फीसदी रहा है। ऐसे में 20 फीसदी क्रेडिट ग्रोथ की बात करना यूटोपिया की तरह है। सरकार सभी समस्याओं का समाधान विलय में ढूँढ रही है, लेकिन इससे केवल बैंक की परिसम्पत्ति में बढ़ोतरी होगी; न कि प्रदर्शन बेहतर होगा। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि विलय के बाद मानव संसाधन के स्तर पर समस्याएँ देखी जा रही हैं, जो प्रदर्शन की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। प्रदर्शन में बेहतरी लाने के लिए सभी बैंकों, केंद्रीय बैंक, सरकार और दूसरे तंत्रों को मिलकर काम करना होगा।

(लेखक बैंक में अधिकारी हैं और वित्तीय मामलों के जानकार हैं।)

भ्रष्टाचार का सजावटी सत्कार

साफ-सुथरा प्रशासन देने के लिए चर्चित गहलोत सरकार के सियासी नक्शे पर भ्रष्टाचार के लक्षण दिखने शुरू हो गये हैं। इस दौड़ में परिवहन महकमा बाज़ी मारने पर तुला है। भ्रष्टाचार निरोधी महकमे की कार्रवाई में बेशक अभी इसका छोटा-सा हिस्सा उजागर हुआ है। अलबत्ता निजी बस ऑपरेटर और परिवहन महकमे के अफसरों के बीच लेन-देन की परतें कहीं ज़्यादा गहरी हैं। राजनीतिक रसूख ने भ्रष्टाचार की कालिख और बढ़ा कर दिया है। मुद्दा गरमाया, तो भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस के सवाल पर मुख्यमंत्री गहलोत यह कहते हुए बिफर पड़े कि संवेदनशील और जवाबदेह प्रशासन मेरे अकेले की ही नहीं, बल्कि सभी मंत्रियों और नौकरशाही की ज़िम्मेदारी भी है। जनता ने हमें ऊँचे पदों पर बैठाया है। अफसर-कर्मचारी कोताही बरतेंगे, तो सरकार की उन पर नज़र रहेगी।

यह सरकारी महकमों में गहरे पैठते भ्रष्टाचार पर मुख्यमंत्री का गुस्सा भर नहीं है। असल में यह मंत्रियों का निकम्मापन है, जिन्हें अपने काम की गम्भीरता का कतई अंदाज़ा नहीं है। आिखर क्यों मीडिया ने इस महकमे को खुलकर निशाने पर लिया कि राजनीतिक रसूख तो अहम किरदार है ही। सरकारी परिवहन सेवा को बरबाद करने के लिए दूसरे हथकंडे भी खुलकर अपनाये जा रहे हैं। समस्या यह है कि अगर परिवहन मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास की नज़र समूची व्यवस्था पर नहीं है, तो फिर इस खुले खेल पर कौन शिकंजा कसेगा? जब सरकारी बसों को जानबूझकर लेट करवाकर निजी बसें आगे दौड़ाई जा रही हैं, तो कहने को क्या बचा है? जयपुर समेत कोटा, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, पाली, अजमेर, जोधपुर, राजसमंद और हनुमानगढ़ में नेताओं और अफसरों की शह पर निजी बसें दौड़ रही हैं। जानकारों का कहना है कि जब बिना नियमों के चल रही इन बसों को परिवहन महकमे ने ही हरी झंडी दे रखी है, तो परिवहन मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास को मुख्य खलनायक के रूप में क्यों नहीं देखा जाएगा? भ्रष्टाचार निरोधक विभाग द्वारा इस खेल की बखिया उधेडऩे के बावजूद खाचरियावास अगर अपनी सफाई का रिपोर्ट कार्ड पेश करने के लिए मुख्यमंत्री के पास जाते हैं, तो क्या अर्थ रह जाता है? हालाँकि, खाचरियावास इसे मुख्यमंत्री से औपचारिक मुलाकात बताते हैं। लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि एक मंत्री की मान्यताओं और मंत्रालय की अपेक्षाओं के बीच इतनी चौड़ी खाई विरले ही देखने को मिलती है। सवाल यह नहीं कि मंत्रालयों में सबसे खराब प्रदर्शन परिवहन मंत्री खाचरियावास का ही है? बल्कि इतने खराब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार कौन है? बहरहाल इस मंत्रालय के विरुद्ध अक्षमता का आरोप काफी बड़ा है। एक तरफ मुख्यमंत्री खुलकर परिवहन मंत्रालय को अक्षमता का सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाचरियावास का दावा चौंकाता है कि महकमे में जो खामियाँ थीं, हमने उन्हें दूर किया है। जो परिवहन का बेड़ा निजी हाथों में सौंपा जा रहा था, हमने उसे बन्द कर दिया है। लेकिन सवाल है कि कहाँ हुआ ऐसा? उनका यह दावा तो सरासर गलत है कि हमने प्राइवेट बस माफिया को बन्द कर दिया है। आिखर परिवहन मंत्री के पास इन सवालों का क्या जवाब है कि सड़क सुरक्षा का ज़िम्मा सँभालने वाले फिटनेस केंद्रों को निजी हाथों में क्यों दिया गया है? जबकि फर्ज़ीवाड़े की शिकायतों के बाद भी इन्हें विकसित किया जा रहा है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में परिवहन मंत्री रहे बाबूलाल वर्मा की मानें तो, आये दिन एसीबी के छापे पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है कि महकमे में खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। जब निजी बसों का गैर-कानूनी संचालन जारी है, तो कहाँ थमा भ्रष्टाचार? परिवहन महकमे और निजी बस संचालकों की साँठ-गाँठ को लेकर लोगों का कहना है कि प्राइवेट बसों की दौड़ में नेता और अफसरों का पूरा हाथ है। निजी बसों को जिस तरह हरी झंडी मिली हुई है? बसों में की जा रही कोड स्टीकरों की सजावट तो इस खेल की खुलकर तस्दीक करती है। भुवनेश जैन कहते हैं कि पैसा खिलाकर बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के बसें चलाकर जनता की ज़िन्दगी से खिलवाड़ किया जाता है। बच्चे मरे या बड़े, किसी को क्या फर्क पड़ता है? बूँदी ज़िले के लाखेरी में मेज नदी दुखांतिका इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है। इसमें 24 व्यक्तियों की मौत हो गयी। बुरी तरह कंडम हो चुकी बस को परिवहन विभाग ने कैसे इजाज़त दे रखी थी। परिवहन महकमे के सूत्रों की मानें, तो प्रदेश के परिवहन बेड़े में 742 बसें कंडम है। लेकिन उन्हें मौत की राह पर चलाया जा रहा है। परिवहन महकमा किस कदर गले-गले तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है, इसकी ज्वलंत मिसाल है वह रिपोर्ट है, जिसमें कहा गया है कि ट्रक के मालिक और ड्राइवर परिवहन अधिकारियों तथा पुलिस को सालाना 48,000 करोड़ की रिश्वत देते हैं। रिश्वत वसूलने में राजस्थान दूसरे नंबर पर है। इस सूबे के ट्रक ड्राइवरों को प्रत्येक लम्बी फेरी में औसतन 1803 रुपये की रिश्वत देनी पड़ती है।

दूसरी तरफ इन दिनों जिस तरह सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा बजरी माफिया की झोली में जा रहा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या राजस्थान बजरी माफिया की गिरफ्त में पहुँच गया है? 27 फरवरी को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्य विधानसभा में बजट पर जवाब दे रहे थे, तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के ‘सुपर रिच’ खेल पर चुटकी लेने से नहीं चूके कि बजरी माफिया 5 करोज़ रुपये प्रतिमाह किसको दे रहे थे? यह तो बता दो! गहलोत का बजरी मुद्दे पर करारा पलटवार विपक्षी नेताओं राजेन्द्र राठौड़ और किरण माहेश्वरी सरीखे नेताओं पर था। क्योंकि बजरी का मुद्दा इन्होंने उठाया था। गहलोत ने प्रश्नकर्ता विपक्षी नेताओं को ही यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि बजरी बन्द क्यों हुई है? ये जंजाल क्यों पैदा हुआ? यह तो बता दो! गहलोत ने कहा कि ताज्जुब है आप हमसे पूछ रहे हो बजरी कहाँ गयी? दिलचस्प बात है कि आज भी बजरी माफिया का खौफ कायम है। स्याह काली रातों में पुलिस और खनन महकमे के अफसरों की मिलीभगत से रेत माफिया अवैध कारोबार कर रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि बजरी माफिया की तहें खँगालने की दिशा में मौज़ूदा सरकार के खान मंत्री प्रमोद भाया ने क्या किया? विश्लेषकों की मानें, तो बजरी माफिया पूरी तरह बेखौफ हैं। सवाल यह है कि इनकी धरपकड़ नहीं होने का क्या मतलब हुआ? क्या उनके निकम्मेपन को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है।

यह स्थिति तब है, जब अलवर में अरावली के खत्म होते पहाड़ों को देखकर सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी कर चुका है कि क्या इन पहाड़ों को हनुमानजी उठाकर ले गये? खनन माफिया जहाँ सक्रिय है, पुलिस नाका और सदर थाना क्षेत्र भी है। यहाँ स्याह रातों में हर रोज़ रात को सौ से ज़्यादा भरी हुई ट्रैक्टर ट्रालियाँ निकलती है। प्रसंगवश यहाँ वसुंधरा सरकार के दौरान रेत खनन पर अदालती रोक का उल्लेख भी करना ज़रूरी होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने चार मई, 2018 को तत्कालीन वसुंधरा सरकार की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें नवंबर, 2017 से ही रेत के खनन पर लगाये गये पूर्ण प्रतिबंध पर कुछ रियायत देने की माँग की गयी थी। जबकि जस्टिस एम.बी. लोकुर का कहना था कि पारिस्थितिकी पर खनन के प्रभाव तथा रेत की फिर से भराई की दर के वैज्ञानिकी आकलन के बाद ही खनन की अनुमति दी जाएगी। इससे एक दिन पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने सभी ज़िला कलेक्टरों को आदेश दिया था कि वे राज्य में रेत बजरी खनन की गतिविधियाँ रोकने के लिए विशेष दलों का गठन करे? जबकि चौंकाने वाली बात है कि तत्कालीन वसुंधरा सरकार ने अवैध खनन रोकने के लिए बनाये गये 80 चेक पोस्ट भी हटवा दिये थे; आिखर उनकी क्या मंशा थी? अब सवाल यह है कि इन आदेशों पर अमल को लेकर खान मंत्री प्रमोद भाया अब तक क्या कर पाये हैं? सरकार बेशक बदल गयी; लेकिन बजरी माफिया पुलिस की छत्र छाया में पूरी तरह फल-फूल रहा है। विरोध करने वालों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है? लेकिन अफसरों और नेताओं का पेट पाप की कमाई से भरता ही नहीं? बीकानेर में बजरी माफिया के ओवरलोड ट्रैक्टर-ट्रॉली ने तीन महिलाओं को कुचल दिया। लेकिन क्यों इस दुर्घटना से महकमे ने सबक नहीं लिया? सूत्रों का कहना है कि मंत्री प्रमोद भाया उपासना में घंटों खपाते हैं, लेकिन पाप की कमाई का परनाला नहीं थमेगा, तो उपासना का मतलब क्या? प्रश्न है कि मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों को सुधारें भी तो कैसे? भाया डेयरी महकमे के भी मंत्री हैं। उनकी अपने महकमे में तबादले की बानगी देखिए, वह कहते हैं- ‘मुझे डेयरी संधों में तबादलों की भी कोई जानकारी नहीं है। वैसे डेयरी संघों में होने वाले तबादलों की फाइलें मेरे पास आती भी नहीं…!’

मुख्यमंत्री गहलोत खरी-खरी कहने के मामले में जयपुर विकास प्राधिकरण को निशाने पर लेने से भी नहीं चूके कि प्राधिकरण में इतना भ्रष्टाचार हो रहा है कि कोई ईमानदार अफसर वहाँ लगना ही नहीं चाहता? गहलोत ने मिसाल देते हुए कहा कि अगर दो बिल्डिंग अवैध है, तो प्राधिकरण के अफसर एक को तोड़ेंगे और दूसरी को पैसा लेकर छोड़ेंगे। इससे अफसरशाही का मनोबल नहीं टूटेगा तो क्या होगा? हालाँकि, कुछ जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार की वजह से कम कुशल लोग मोटी कमाई कर रहे हैं और यह काली कमाई बढ़ती जा रही है। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि अगर मुख्यमंत्री ही पल्ला झाड़ दे, तो सरकार कहाँ है? उन्हें प्रदेश के सात करोड़ लोगों ने दायित्व सौंपा है.. वे कहाँ जाएँगे? इसलिए ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री संवेदनशील प्रशासन का उदाहरण पेश करें।

मुस्लिम आरक्षण : महाराष्ट्र सरकार के गले की हड्डी!

महाराष्ट्र की महा विकास आघाड़ी सरकार में ‘सब कुछ ठीकठाक है’ का दावा करने वाले अब इस बात को लेकर परेशान हैं कि मुस्लिम आरक्षण को लेकर आपसी विवाद कैसे सुलझाया जाए?

जहाँ एक ओर महा विकास अघाड़ी के घटक दल इस मामले को अपने-अपने तौर पर डायल्यूट करने की कोशिश में लगे हैं, ताकि उनके बीच समन्वय की तस्वीर बनी रहे। वहीं दूसरी ओर भाजपा इस मामले को तूल देकर बड़ा मुद्दा बनाने पर तुली है, ताकि वह इसका राजनीतिक फायदा उठा सकें। इतना ही नहीं हिन्दुत्व के मुद्दे पर मुखर रहने वाले विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय बजरंग दल जैसे संगठन भी इस मामले में शिवसेना को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। महाराष्ट्र में खुद को हिन्दुत्व का नया चेहरा बताने की कोशिश में लगे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे की इस लड़ाई में कूद पड़े हैं।

 दरअसल, मामले की शुरुआत हुई राज्य के अल्पसंख्यक विकास मंत्री नवाब मलिक के एक बयान से। मलिक ने विधान परिषद् में एक सवाल के जवाब में कहा कि महाराष्ट्र में मुस्लिम समाज को शिक्षा में 5 फीसदी आरक्षण मिलेगा और इसके लिए राज्य सरकार कानून बनाएगी। सरकार के घटक दल एनसीपी व कांग्रेस ने इसका स्वागत किया। लेकिन भाजपा द्वारा इसका विरोध करने के बाद शिवसेना ने कहा कि इस बाबत कोई विचार ही नहीं हुआ है। इससे एक नया विवाद पैदा हो गया। मलिक के इस घोषणा और उसे इसी शैक्षणिक वर्ष से लागू करने के वादे पर शिवसेना के एक कद्दावर मंत्री एकनाथ शिंदे ने यह कहकर कि महा विकास आघाड़ी की बैठक में ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया गया; महा विकास आघाड़ी  सरकार में आपसी समन्वय की तस्वीर साफ कर दी।

 हालाँकि, दूसरे दिन इस मसले पर अपना स्पष्ट रवैया रखते मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि मुस्लिम आरक्षण को लेकर अब तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। अगर ऐसा कोई प्रस्ताव सरकार के सामने आता भी है, तो सरकार पहले सभी कानूनी पहलुओं की जाँच करेगी। िफलहाल इस पर कोई भी निर्णय नहीं लिया है।

ठाकरे के इस बयान को शिवसेना, एनसीपी, कांग्रेस अपने-अपने नज़रिये से देख रही हैं और भाजपा अपने नज़रिये से।

 कयास लगाये जा रहे हैं कि शिवसेना ने यह कहकर कि महा विकास आघाड़ी की बैठक में ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया गया है, भाजपा जैसे विरोधी पक्ष और हिन्दूवादी संगठनों को चुप कराने की कोशिश की है।

 हालाँकि, मुस्लिम आरक्षण को लेकर कांग्रेस और एनसीपी अभी भी आश्वस्त हैं कि मुस्लिम आरक्षण का मामला कोई बड़ा पेंच नहीं बनेगा।

एनसीपी और कांग्रेस के खेमे का मानना है कि उद्धव ठाकरे ने मुस्लिम आरक्षण के प्रस्ताव आने पर सरकार द्वारा कानूनी पहलू की जाँच करने की बात कहकर शिवसेना की सकारात्मक सोच को दर्शाया है और समय आने पर महा विकास अघाड़ी में इस मामले में कोई मतभेद नहीं दिखाई देगा।

दूसरी ओर शिवसेना से गठबन्धन वाली सत्ता से दूर हुई भाजपा मुस्लिम आरक्षण मामले में महा विकास आघाड़ी में विवाद को हवा देकर शिवसेना के साथ एक बार फिर सत्ता का खवाब देखने लगी है।

भाजपा के एक खेमे में से इस बात को लेकर एक बार फिर चर्चा शुरू होने की खबर है कि यदि महाविकास आघाड़ी में इसी तरह विवाद उठते रहते हैं और विशेषकर मुस्लिम आरक्षण को लेकर मतभेद सिरे तक जा पहुँचता है, तो इसका फायदा उठाया जाए। इसके लिए आरक्षण के मुद्दे पर शिवसेना को चुनौती दी जाए और स्थिति पैदा की जाए की महाविकास आघाड़ी में इस विवाद को लेकर खटास उत्पन्न हो जाए और उस स्थिति में शिवसेना से नज़दीकी बढ़ायी जाए।

 जहाँ एक ओर तीखे तेवर के साथ विधानसभा में ही नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस ने उद्धव ठाकरे को चुनौती देते हुए कहा कि यदि ठाकरे में हिम्मत है, तो वह बोलें कि वे मुस्लिमों को आरक्षण नहीं दे सकते।

दूसरी ओर भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता सुधीर मुनगंटीवार ने सॉफ्ट रवैये के साथ शिवसेना को अप्रोच भी किया। उनका कहना था कि यदि मुस्लिम आरक्षण को लेकर कांग्रेस, एनसीपी, शिवसेना का साथ छोड़ देती है, तो ऐसे में भाजपा उद्धव ठाकरे को साथ देगी।

हालाँकि, भाजपा के तल्ख तेवरों को देखते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का कहना था कि इस मामले में जब कोई निर्णय ही नहीं लिया गया है, तो हंगामा किस बात का किया जा रहा है। साथ ही ठाकरे ने सलाह भी दे डाली कि हंगामा करने वाले अपनी ऊर्जा बचाकर रखें और उसका इस्तेमाल उस समय करें, जब यह मुद्दा चर्चा के लिए सामने आये।

 राजनीतिक विश्लेषक भरत राऊत महा विकास आघाड़ी सरकार का हिस्सा होते हुए भी घटक दल कांग्रेस, एनसीपी द्वारा मुस्लिम आरक्षण की पैरवी किये जाने के बावजूद उसका विरोध करने की असली वजह उद्धव ठाकरे की मजबूरी बताते हैं। वह कहते हैं कि उद्धव ठाकरे की यह बात भले ही एनसीपी और कांग्रेस को सांत्वना देती लगे, लेकिन सच्चाई यह है कि शिवसेना कभी नहीं चाहेगी कि उसके माथे पर मुस्लिमों को आरक्षण देने का दाग लगे और हिन्दुत्व की लाइन पर चलने वाली भाजपा उसे बार-बार इस मामले पर जलील करती रहे।

यह बात जुदा है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बयानों पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सरकार में लोक निर्माण मंत्री अशोक चव्हाण मुस्लिम आरक्षण के मामले में अपनी पार्टी का नज़रिया स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मुस्लिमों को आरक्षण देकर रहेंगे। कांग्रेस एनसीपी के घोषणा-पत्र मेंं मुस्लिम आरक्षण शामिल है।

मुस्लिम आरक्षण के मामले में उद्धव ठाकरे के इस बयान पर कि प्रस्ताव आने पर सरकार पहले सभी कानूनी पहलू की जाँच करेगी; को लेकर महाराष्ट्र कांग्रेस प्रमुख बाला साहेब थोरात भी जायज़ ठहराते हैं।

 थोरात कहते हैं कि ठाकरे ने जो कुछ कहा वह सच है। क्योंकि इस मुद्दे पर अब तक कोई चर्चा नहीं की है। कांग्रेस, एनसीपी ने मुसलमानों को आरक्षण दिया था; यह पिछले 5 साल में आगे नहीं बढ़ा। लेकिन हमारी प्रतिबद्धता है और यह कांग्रेस, एनसीपी के घोषणा-पत्र का हिस्सा है। इसलिए हम इसे देना चाहते हैं। यह कोई बहुत बड़ा मसला नहीं है, जिस पर इतना हंगामा बरपाया जाए। क्योंकि महाराष्ट्र विकास आघाड़ी  सरकार की समन्वय समिति और मंत्रिमंडल में इस मुद्दे पर चर्चा होगी और मुझे पूरा विश्वास है कि यह और इसका नतीजा अच्छा ही निकलेगा।