Home Blog Page 874

अलग-थलग रहकर व्यक्ति कैसे करेगा विकास

कोरोना (कोविड-19) का आतंक चारों ओर है। लगातार इस तरह के संदेश मिल रहे हैं, जिनमें अपने-अपने घरों के भीतर रहने के लिए कहा जा रहा है। समाज के भीतर दहशत का माहौल है। कयास लगाये जा रहे हैं कि क्या यही प्रलय या कयामत का दिन होने वाला है? क्योंकि सब कुछ धीमे-धीमे ठहरता जा रहा है और चारों ओर से विनाश और तबाही की खबरें आ रही हैं। धाॢमक स्थल बन्द कर दिये गये हैं और लोगों की आवाजाही रोक दी गयी है। ग्लोबल विलेज का विचार एक तरह से धराशायी हो गया है। बाज़ार बन्द है। सोशल डिस्टेन्सिंग पहले ही बहुत अधिक थी, अब और ज़्यादा हो गयी है। छोटे-छोटे समूह में भी मेल-मिलाप बन्द किया गया है। जीवन ठहर गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है। मीडिया भी दंगों और साम्प्रदायिकता के उन्माद से निकलकर विश्व स्वास्थ्य पर बातचीत कर रही है।

आज हम सबको कुछ गम्भीर बातों पर आज विचार करने की ज़रूरत है। सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है कि एक सूक्ष्म से दिखने वाले वायरस ने किस तरह सर्वशक्तिशाली मनुष्य को ठहरकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया? मनुष्य जीवधारियों में सबसे ज़्यादा बुद्धिमान और सुविधा-सम्पन्न है। जिन रहस्यों को कभी ईश्वर की शक्ति कहकर रहस्य के आवरण में ही रखा जाता था, मनुष्य ने उसे ढूँढने का अनथक प्रयास किया और अंतत: अधिकांश रहस्यों का सूत्र ढूँढ ही लिया। यहाँ तक कि उन एन्जाइम्स को भी ढूँढ लेने का दावा भी किया जा रहा है, जिससे बच्चे के भीतर के गुणसूत्र माता-पिता से विकसित होते हैं! मनुष्य की क्षमताएँ अनन्त हैं और अनन्त है उसकी ऊर्जा। परन्तु अनेक सुविधाओं को जुटाते हुए उसने प्रकृति का दोहन किया, संसाधन जुटाये और प्रकृति के हर अंश पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया। पर मनुष्य भूल गया कि प्रकृति से छेड़छाड़ करने की भी कोई सीमा तो ज़रूर होगी! और उस सीमा के बाद प्रकृति जब विद्रोह करेगी, तो उसके परिणाम भयंकर होंगे। विज्ञान ने हमारा सबसे अधिक भला किया; पर अब कुछ ठहरकर जीवन शैली के बदलाव पर बात करने की ज़रूरत है। हमने प्रकृति प्रदत्त चीज़ों पर लगातार अपना अधिकार करके सिर्फ और सिर्फ अपनी सुविधाओं के लिए उसका विनाश किया। आज प्रकृति हाँफ रही है… और यदि अब भी हम नहीं रुके, तो अपना विनाश खुद कर बैठेंगे!

कामायनी को इन दिनों फिर से पढऩे बैठी। कामायनी की पहली पंक्ति है- ‘हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह! एक पुरुष भीगे नैनो से, देख रहा था प्रलय प्रवाह!!’

हमारे मन में सवाल पैदा होता है कि इस पुरुष के नेत्र भीगे क्यों हैं? और प्रलय का प्रवाह क्यों और कैसे है? यह मनु है- प्रसाद जी की कल्पना का आदि-पुरुष! वह याद करता है कि समस्त देवता जब इतने विलासी हो गये कि प्रकृति पर ही अपना कब्ज़ा मान बैठे… ‘प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में! भोले थे हाँ तिरते केवल, बस विलासिता के नद में!!’

और ऐसे भाव के साथ देवता यह मान बैठे कि प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट करके वे अनंतकाल तक अजर-अमर-अविनाशी हो सकते हैं। पर प्रकृति शब्द में ही उसका मूल भाव छिपा है, जो प्राकृत हो; जिसे बदलने का प्रयास न किया जाए। देवताओं ने उसे बदला, अपने आनन्द के लिए उसका उपभोग किया और स्वयं को अजर-अमर घोषित कर दिया। प्रकृति ने शीघ्र ही इसका उत्तर दिया और अमरता के इस दम्भ को समाप्त कर दिया… ‘अरे, अमरता के चमकीले पुतलों तेरे वे जयनाद! काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बनकर मानो दीन-विषाद!!’

और तब प्रसाद कामायनी के दो सूत्र देते हैं- पहला, प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में, और दूसरा सबसे अन्त में कि समरसता में ही सबका विकास सम्भव है। आज कामायनी को फिर से पढऩे की गहरी ज़रूरत महसूस हो रही है। मनुष्य के कर्मों का ही परिणाम अंतत: उसे विनाश की ओर ले जाता है। चीन से जिस वायरस के फैलने की शुरुआत हुई, उसका प्रसार अब कई देशों तक हो चुका है। मीडिया रिपोट्र्स पर जाएँ, तो जिन देशों में यह महामारी फैली है, वहाँ की खबरें दहशत से भरी हैं। गैर-ज़रूरी चीज़ों से लेकर ज़रूरी चीज़ों की आवाजाही पर रोक लगने की स्थिति उत्पन्न हो रही है। परन्तु अब इस सबके आगे ठहरकर सोचने की ज़रूरत है। कोरोना पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगी। क्योंकि मैं उसकी विशेषज्ञ नहीं हूँ। यहाँ मेरा उद्देश्य सिर्फ एक बार ठहरकर विचार करने और जीवन में शान्ति-संतोष के महत्त्व की ओर ध्यान दिलाने का है।

लगभग सारी व्यवस्थाएँ चौपट होने की स्थिति है। स्कूल, कॉलेज बन्द हैं। अस्पतालों में डॉक्टर लगातार हमारी मदद के लिए तैनात हैं। लगभग सभी जगहों में घर से काम करने की कोशिश हो रही है। सरकारें सजग हैं और अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाने की कोशिश कर रही हैं। पर क्या एक इंसान होने के नाते अपने भीतर झाँककर देखने और अपनी जीवन-शैली में बदलाव लाने की हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?

कुछ सवाल अपने आपसे कीजिए

हम जिस तरह से लगातार सुविधाजीवी होते जा रहे हैं, क्या सचमुच हमें इतनी ज़्यादा सुविधाओं की ज़रूरत है? क्या हम कुछ समय इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी से निकलकर थोड़ा आत्मचिन्तन, आत्म परीक्षण कर सकते हैं? क्या यह ज़रूरी नहीं है? क्या हम इस कठिन समय का सदुपयोग घर में रहकर कुछ किताबें पढऩे, योग करने, बच्चों से बातचीत करने में लगा सकते हैं? क्या हम अपने घर के भीतर स्वास्थ्य जागरूकता अभियान की तरह अपने बच्चों, बूढ़ों और सभी घर के आस-पास के सदस्यों को स्वास्थ्य नियमों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?

क्या हम कुछ देर इस प्रकृति का शुक्रिया अदा कर सकते हैं, जिसका शोषण करने में हमने कोई कोर-कसर नहीं रखी, पर उसने हमें सभी सुख-सुविधाएँ दीं? क्या हम कुछ समय तक नशे की आदतों को रोक सकते हैं, क्या हम कुछ समय तक खुद को धर्मों और उसकी उप-श्रेणियों में बाँटने की जगह केवल इंसान समझकर व्यवहार कर सकते हैं? क्या कुछ समय हम ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रार्थना के लिए निकल सकते हैं? आप ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी कुछ भी हो सकते हैं। पर क्या आप मानवता में विश्वास की प्रार्थना कर सकते हैं? इन सवालों के जवाब कुछ के हाँ में होंगे, तो कुछ के नहीं में भी होंगे। आज एक सूक्ष्म-से दिखने वाले वायरस ने उस मनुष्य को ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया है, जो स्वयं को परमाणु का आविष्कारक और पूरी मानवता को नष्ट करने वाली शक्ति मानता रहा है…। हम जिस समय और समाज के सन्धि स्थल पर खड़े हैं, वहाँ यह जानना ज़रूरी है कि जव एक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अणु ने हमारे इस सुविधाजीवी जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। तो झूठे गर्व और अहंकार के लिए जगह कहाँ है? हम एक-दूसरे से घृणा करते हैं; एक-दूसरे को कुछ रुपयों के लिए मार देना चाहते हैं; आज इतनी सुविधाओं के होने के बाद भी पहला संकट मनुष्य को जीवित रहने का है। मैं, केवल मैं; आज का सत्य नहीं हो सकता…।

जीवन का यह मोह मानवता का मोह बन जाए, तो शायद इस वायरस की ओर से आने वाली यह एक बड़ी सीख होगी। स्वस्थ रहने और स्वस्थ रहने के लिए प्रेरित करने की आदत भी हमारे साथ रह जाए, तो यह हमारे जीवन की एक बड़ी शिक्षा होगी। कभी सोचते हैं हम कि ऐसा क्या हुआ कि सबसे ताकतवर, सबसे दम्भी, सबसे विवेकशील, सबसे अहंकारी प्रजाति-मनुष्य इसकी चपेट में आ गया, जबकि पशु-पक्षी नहीं! पशु-पक्षी हमसे अपने जीवन की गुहार लगते रहे, पर हम त्याज्य-स्वीकार्य में भेद नहीं कर सके! उचित-अनुचित का सारा विवेक हमने छोड़ दिया। क्योंकि हम तो ठीक कामायनी के देवताओं की तरह अजर-अमर होने का दम्भ पाले बैठे हैं! अब वह समय हमारे द्वार पर खड़ा दस्तक दे रहा है। जब ठहरना होगा, सोचना होगा; फिर से अपनी आदतों, जीवन-शैली को नज़दीक से देखकर बदलना होगा। पता नहीं इसकी चपेट में कौन आएगा और कौन बचेगा? पर जो रह जाएँगे, क्या वे फिर सब कुछ भूलकर दौडऩा शुरू कर देंगे? या सोचेंगे कि जिस धरती, जिस प्रकृति ने हमें सब कुछ दिया, उसके प्रति हमारी भी कोई ज़िम्मेदारी है! ध्यान रखिए, यह पार्टी का दौर नहीं है; यह आपात स्थिति है। सरकारें, जो सूचनाएँ भेज रही हैं, उस पर बहुत ध्यान देकर सुनने की ज़रूरत है। जिससे समझदारी से उसे लागू किया जा सके या लागू करने में अपनी भूमिका निभायी जा सके।

कल्पना कीजिए कि यदि यह वायरस हवा के ज़रिये फैला होता,  तो शायद हवा से आने वाले वायरस से बचने के लिए हमारे पास कोई रास्ता नहीं होता! हवा, पानी और भोजन हमारे जीने के लिए अनिवार्य साधन हैं। अब यदि यही इस हद तक दूषित हो जाएँ, तो क्या हमारा बचाव हो सकेगा? इस कल्पना की आज बहुत अनिवार्यता है। क्योंकि कभी गंगा को साफ करने के नाम पर, तो कभी हवा-पानी के प्रदूषण को दूर करने के नाम पर भ्रष्टाचार किया गया; और आज इसके परिणाम हम सब भुगत रहे हैं। दूसरी कल्पना कीजिए कि आपकी मुंडेर पर चिडिय़ा आये और दाने खा सके! क्या यह कल्पना मुमकिन है? मध्यकाल की प्रार्थना थी- ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय; मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।’

अब सोशल आइसोलेशन का समय आ गया है। कौन-सी प्रगति कर रहे हैं हम? और कहाँ जाकर थमेंगे हमारे कदम? अब अतिथि नहीं आते; कौए किसी के आने का संदेसा नहीं लाते। जिस जगह मैं बैठकर यह लिख रही हूँ, इस क्षेत्र में छोटी चिडिय़ा,जिसे गौरेया कहते हैं; नजर नहीं आती। सूर्य निकलता है, पर हल्की धुन्ध उसे घेरे नज़र आती है। पूरा शहर एक धुएँ में घिरा दिखता है। वृद्ध लोग अब बाहर नहीं जा सकते; क्योंकि उनके जीवन पर अधिक खतरा है। धाॢमक उन्माद से लेकर हिंसा के उन्मादी व्यवहार के बीच अब कुछ मानवीय होने की उम्मीद ही हमें जिलाये रख सकती है। इसके लिए चलिए कुछ देर रुकते हैं; ठहरते हैं। अपने-अपने घरों के भीतर रहकर बच्चों से बातें करते हैं। बूढ़ों के पास बैठते हैं। फोन पर आस-पास के हाल-चाल लेते हैं। वह जो बूढ़ी काकी पीछे गाँव में हैं, उसे चिट्ठी लिखते हैं; या फोन पर ही बतियाते हैं। आइए, कुछ देर रुकते है। कुछ देर रुकेंगे, तो बेहतर चल सकेंगे…!

किसान फिर हुए बर्बाद

पूरे उत्तर भारत में बेमौसम बारिश थमने का नाम नहीं ले रही है। होली से तकरीबन दो सप्ताह पहले शुरू हुई बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा ने होली आते-आते किसानों की, खासतौर से मझोले और छोटे किसानों की कमर तोड़कर रख दी। इस बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा ने इस बार होली का रंग इस कदर फीका कर दिया कि अधिकतर किसानों ने होली ही नहीं मनायी। बेमौसम की बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा से रबी फसलों- गेहूँ, सरसों, जौ, चना, मक्का, तिलहन, दलहन, केला, पोस्त और मौसमी सब्ज़ियों को भारी नुकसान पहुँचा है। इस बारिश और ओलावृष्टि से खासतौर से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली-एनसीआर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित उत्तर भारत के अन्य हिस्सों के किसानों पर मार पड़ी है। अपनी उजड़ी फसलों को देख तकरीबन सभी किसान रुआँसे हैं और मदद के लिए सरकार की तरफ देख रहे हैं। ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में भी कुछ स्थानों पर बारिश और ओलावृष्टि हुई है। छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ इलाकों में बारिश हुई है।

उत्तर प्रदेश का हाल-बेहाल

उत्तर प्रदेश में भारी बारिश, ओलावृष्टि के साथ-साथ तेज़ हवा ने रबी की सभी फसलों को ज़मीन पर लिटा दिया। यहाँ फसलों को बुरी तरह क्षति पहुँची है, जबकि सरकार ने किसानों से कोई खास हमदर्दी नहीं जतायी है। इस बारिश से कई कच्चे मकान गिरने के अलावा ओलावृष्टि से किसानों की मौतें भी हुई हैं। होली से पहले ओलावृष्टि से सुलतानपुर के आदमपुर गाँव के एक किसान की मौत हो गयी। वह फसल देखने गया था। इतना ही नहीं, फिरोजाबाद में आकाशीय बिजली गिरने से दो घर गिर गये और एक घर में आग लग गयी, जिससे उसमें रखा सामान खाक हो गया। ये सभी घर किसानों के थे। इस बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा से बरेली, शाहजहाँपुर, पीलीभीत, बदायूँ, चंदोसी, रामपुर, मुरादाबाद, फैज़ाबाद, बलरामपुर, हाथरस, इटावा, सोरों, एटा, मथुरा, हाथरस, गढ़, हापुड़, गाज़ियाबाद, नोएडा के अलावा उत्तराखंड के कई इलाकों में फसलें गिर गयी हैं। इस तबाही से अधिकतर किसान, खासतौर मझोले और छोटे किसान बर्बाद हुए हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के कृषि प्रौद्योगिकी आकलन एवं स्थानान्तरण केंद्र के अनुसार, देश के अनेक राज्यों में बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवा से रबी फसलों को भारी नुकसान हुआ है। वातावरण में नमी बढऩे से कीटों के प्रकोप का खतरा बढ़ गया है। तेज़ हवा और बारिश से गेहूँ, सरसों, चना, जौ, पन्ना, पोस्त और दलहनों की फसल गिर गयी है। इस बार उपज घटने के साथ-साथ कटाई में परेशानी होगी, जिसमें अधिक मेहनत की ज़रूरत पड़ेगी। गेहूँ की बालियाँ निकली हुई हैं, लेकिन उनमें दाना ठीस से नहीं पड़ा है। ऐसे में गेहूँ का दाना पूरी तरह विकसित नहीं हो सकेगा। इसी तरह नमी के कारण दलहन की फसलों, खासकर मटर, चना में फली छेदक कीड़े लग जाएँगे, जिससे भारी नुकसान होगा।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) की रिपोर्ट में कहा गया है कि इस बार किसानों को भारी नुकसान हुआ है। भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान (आईआईडब्ल्यूबीआर) ने हाल ही में रिपोर्ट जारी कर कहा है कि बेमौसम की भारी बारिश, ओलावृष्टि और तेज़ हवाओं ने गेहूँ के अलावा रबी की खड़ी फसलों को गिरा दिया है। इस बार पैदावार पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। हरियाणा सरकार का कहना है कि गेहूँ से ज़्यादा नुकसान सरसों की फसल का हुआ है। वहीं कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि सरसों और चना की फसलों का ज़्यादा नुकसान हुआ है। स्काइमेट के अनुसार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बारिश और बर्फबारी हुई है।

किसान संगठनों ने माँगा मुआवज़ा

उधर, किसान संगठनों ने अपने-अपने राज्यों की सरकारों से फसल नुकसान के मुआवज़े की माँग की है। उत्तर प्रदेश के किसान संगठनों ने राज्य सरकार से किसानों को मुआवज़ा देने की माँग की है। हरियाणा के किसान संगठनों ने राज्य सरकार से प्रदेश में ओलावृष्टि और बरसात से हुए नुकसान की गिरदावरी करवाकर किसानों को मुआवज़ा देने की माँग की है। पंजाब के किसान संगठनों ने भी वहाँ के किसानों को मुआवज़ा देने की माँग की है।

नुकसान की जाँच के आदेश

कृषि विभाग ने राज्यवार फसलों के नुकसान की जाँच का आदेश दिया है। एक अनुमान के अनुसार, तो 65 से 70 फीसदी खेती खराब हुई है। इसमें पहली फरवरी के आिखरी सप्ताह में बारिश में ही तकरीबन 37935.23 हेक्टेयर खेती प्रभावित हो चुकी थी। जो फसलें बची हुई थीं, होली तक हुई बारिश ने बर्बाद कर दीं। कृषि विभाग की मानें, तो गेहूँ, मक्का, तिलहन-दलहन व केला की  60 से 70 फीसदी फसल उजड़ गयी है।

कर्ज़ लेकर फसल उगाने वाले परेशान

बरेली में किसानों से बात करने पर पता चला कि अधिकतर किसानों ने खाद, दवाएँ और यहाँ तक कि बीज भी कर्ज़ पर लिये थे। यह किसान फसल होने पर अपना कर्ज़ चुकाते हैं। लेकिन इस बार फसलों का नुकसान होने पर तकरीबन सभी किसान परेशान हैं। रामपाल गंगवार नाम के एक किसान ने बताया कि उन्होंने तीन बीघा अपने और चार बीघा बटाई के खेत में गेहूँ बोया था। कर्ज़ के खाद-पानी से लेकर उसके पूरे घर ने जी-तोड़ मेहनत की थी। बारिश ने उसकी सारी फसल खराब कर दी। उसे चिन्ता है कि वह कर्ज़ कैसे उतारेंगे और क्या बच्चों को खिलाएँगे? रामपाल ने बताया कि उन पर करीब 20 हज़ार रुपये का कर्ज़ है, इतने रुपये का तो गेहूँ निकलने की भी उम्मीद नहीं है। अब तो सरकार ही मदद कर सकती है और कोई रास्ता नहीं है।

दूसरे एक किसान मोहन लाल तो बात करते-करते रो पड़े। उन्होंने बताया कि वे हर बार बड़ी मेहनत से खेती करते हैं, दिन-रात उसकी रखवाली करते हैं, इस बार बर्बाद हो गये। वे कहते हैं कि थोड़ा-बहुत नुकसान तो हर किसान हर बार सहन करता है, लेकिन इस बार तो सभी बर्बाद हो गये। मोहन लाल यह कहते-कहते रो पड़े कि उनका तो पूरा परिवार इसी खेती से पलता है।

देवकी नंदन नाम के एक किसान की भी कुछ ऐसी ही दशा है। देवकी नंदन का एक पैर कमज़ोर है और वह बिना मज़दूरों के सहयोग के खेती नहीं कर पाते।

भारतीय कृषि बीमा कम्पनी करती है फसल बीमा

प्राकृतिक आपदा से फसल नष्ट होने पर फसल बीमा के तहत नुकसान का मुआवज़ा मिलता है। भारत सरकार द्वारा शुरू की गयी फसल बीमा योजना के अंतर्गत भारतीय कृषि बीमा कम्पनी (एआईसी) को इस योजना की ज़िम्मेदारी दी गयी है। इसके अंगर्गत प्राकृतिक आपदा, जैसे- बारिश, ओलावृष्टि, आँधी-तूफान, आग, कीड़े और अचानक लगे किसी रोग से फसल बर्बाद होने पर सरकार द्वारा अधिसूचित फसल के नुकसान की भरपाई करने का प्रावधान है। फसल बीमा योजना  के लिए नजदीकी बैंक में जाकर या ऑनलाइन द्धह्लह्लश्च://श्चद्वद्घड्ढ4.द्दश1.द्बठ्ठ/ लिंक पर जाकर फार्म भरकर बीमा कवर लिया जा सकता है। पीएमएफबीवाई में किसान की एक फोटो, आईडी और एडरेस प्रूफ, जिसमें पैन कार्ड (आईडी प्रूफ), वोटर आईडी, आधार कार्ड,  ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, आधार कार्ड की कॉपी के अलावा अगर अपना खेत है, तो खसरा नम्बर या खाता नम्बर के कागज़ जमा करने होंगे। इसके अलावा फसल बुआई का सुबूत पटवारी, प्रधान, सरपंच द्वारा लिखित रूप में देना होगा।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और मुआवज़े की आस

दो हेक्टेयर ज़मीन के मालिक रामसेवक गंगवार बताते हैं कि उन्होंने फसल बीमा करा रखा है, लेकिन फसल के नुकसान का पैसा ले पाना कम टेढ़ी खीर नहीं है। अफसर पहले तो काफी मिन्नतों के बाद भी फसल देखने आना नहीं चाहते, अगर आ भी जाएँ, तो अपनी मर्ज़ी से नुकसान का अनुमान लगाते हैं। उन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं कि किसान का वास्तव में कितना नुकसान हुआ है? मझोले किसान देवेंद्र बताते हैं कि छोटी खेती में किसान के पास फसल बोने के लिए भी पैसे नहीं होते साहब, वह जुताई-बुवाई में ही चित हो जाता है। ऐसे में बीमा कौन करा पाएगा? हम जैसे किसानों को तो सरकार से मुआवज़े के अलावा कोई और उम्मीद नहीं है। मुआवज़ा मिलने के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि अभी तक तो ठीक से मुआवज़ा कभी नहीं मिला, जो मिलता है, उसमें दलाली भी खूब होती है। इस बार योगी सरकार है, उम्मीद तो है कि योगी जी नुकसान के हिसाब से कुछ अच्छा करेंगे।

कैसे मिलता है फसल बीमा का मुआवज़ा?

भारत सरकार द्वारा 13 जनवरी 2016 को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएमबीवाई) की शुरुआत की जा चुकी है। इस योजना के शुरू होने से लेकर आज तक लोगों में कई भ्रांतियां हैं। कुछ लोगों को यह भी भ्रम है कि उन्हें फसल का नुकसान होने पर इसका लाभ मिल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है। इसका लाभ लेने के लिए किसानों को एक प्रीमियम का भुगतान करना पड़ता है। इसके लिए खरीफ की फसल का 2 फीसदी, रबी का फसल के लिए 1.5 फीसदी, वाणिज्यिक और बागवानी की फसलों के लिए 5 फीसदी प्रीमियम अदा करना होता है। जबकि छोटे और मझोले किसान तो फसल उगाने तक के लिए कर्ज़ के सहारे होते हैं, ऐसे में बीमा कराने के बारे में तो वे सोचते तक नहीं। इस बीमे के ज़रिये मुआवज़ा तब मिलता है, जब कोई फसल किसी प्राकृतिक आपदा के कारण खराब हो जाए।

बुन्देलखण्ड के किसान परेशान

बे-मौसम बारिश से बुन्देलखण्ड के किसानों का हाल बेहाल है। यहाँ के किसानों का कहना है कि होली के त्योहार के बाद हर किसान यह उम्मीद करने लगता है कि उनकी फसल पक गयी है; बस कटाई के बाद वह बाज़ार मेें बेंचकर अपनी मेहनत की कमाई से सरकारी-गैर सरकारी कर्ज़ चुकायेगा और अपने काम-काज, जैसे बच्चों की पढ़ाई, शादी वगैरह करेगा; कपड़े बनवायेगा। पर इस बार 7 मार्च और 13-14 मार्च को हुई बारिश से उनकी फसल पूरी तरह से चौपट हो गयी। इस बेमौसम बारिश ने किसानों की फसलें चौपट कर दीं और अब उनके सामने आर्थिक संकट अलावा सरकारी कर्ज़ चुकाना भी विकट चुनौती बना हुआ है। इस बारे में तहलका के विशेष संवाददाता ने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड के किसानों की समस्याओं को करीब से जाना। किसानों ने बताया कि बुन्देलखण्ड के किसानों की दुदर्शा कभी सूखे की वजह से होती रहती है, तो कभी बे-मौसम बारिश की वजह से। उन्होंने कहा कि सन् 2016 में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि 2022 तक देश के किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। तब किसानों को लगा था कि किसानों के दिन फिरेंगे और किसान खुशहाल होंगे। लेकिन  किसानों की आय में कोई इज़ाफा नहीं हुआ। ऊपर से किसानों के सिर पर कुदरत का कहर भी किसी-न-किसी रूप में मुसीबत बनकर टूटता रहता है। हालाँकि, केंद्र सरकार किसानों के लिए काम भी कर रही है; ताकि किसानों को आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े। सरकार ने पहल भी की है और उसका लाभ मिल रहा है। लेकिन बे-मौसम बारिश से हुई किसानों की जो फसलें चौपट हुई हैं, उनका सरकार को तुरन्त मुआवज़ा देना चाहिए और किसानों का कर्ज़ भी माफ करना चाहिए, ताकि किसान सुकून से जीवन-यापन कर सकें।

अब बात करते हैं उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले झाँसी, जालौन, महोबा, हमीरपुर और बाँदा ज़िले की। यहाँ के किसानों का कहना है कि 13 मार्च को बारिश के साथ ओले गिरने से उनकी फसलें पूरी तरह से नष्ट हो गयीं। किसानों का कहना है कि इस बार सर्दी का सितम अभी तक चल रहा है। जो कुछ फसल बची हुई है, वह सर्दी के कारण पक नहीं पा रही है। इसके कारण उनको काफी नुकसान हो रहा है। झाँसी ज़िले के किसान प्रकाश चन्द्र का कहना है कि सराकार को किसानों के लिए अलग से आयोग बनाना चाहिए, ताकि आयोग बिना देरी किये किसानों की समस्याओं का समाधान कर सके। क्योंकि बुन्देलखण्ड के किसान भुखमरी के कगार पर हैं। बाँदा ज़िले के किसान राजेश शुक्ला ने बताया कि यह अजीब और दु:खद है कि जैसे ही किसान खेतों पर गेहँू, मटर, चना और खड़ी दलहन की फसलों को काटने की तैयारी कर रहे थे, बारिस के साथ ओले भी गिरने लगे। अब स्थिति यह है कि ओले, बारिश के कारण जो फसलें नहीं कट सकीं या कटी फसलें खेत में पड़ी रह गयीं, वो अब खेतों में ही सडऩे लगी हैं। यहाँ के किसानों ने ज़िलाधिकारी हीरा लाल को एक ज्ञापन देकर नुकसान के मुआवज़े की माँग की है। किसानों का कहना है कि नुकसान के लिए सरकार कोई ठोस पहल करे, ताकि किसानों को राहत मिल सके। राजेश शुक्ला ने बताया कि नरैनी, करतल, बदौसा और मटौध में तो छोटे किसानों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट बना हुआ है। महोबा ज़िले के चरखारी, ऐंचाना और कबरई के किसानों ने बताया कि अब तक मार्च के महीने में अच्छी-खासी गर्मी पडऩे लगती थी, जिससे किसानों की फसल कटकर बाज़ारों में आ जाती थी। लेकिन इस बार सर्दी खत्म होने से पहले बारिश भी हो गयी, जिससे गर्मी पड़ ही नहीं रही है, तो फसलें कैसे पकें? किसान राहुल ने बताया कि बुन्देलखण्ड में किसानों को किसी-न-किसी रूप में परेशानी का सामना करना ही पड़ता है। जैसे इस बार किसानों को लग रहा था कि खेती में की गयी मेहनत का फल उनको अच्छा मिलेगा, लेकिन 12 और 13 मार्च को हुई बारिश ने किसानों के अरमानों पर पानी फेर दिया। सारी मेहनत बेकार हो गयी। अब यहाँ के किसानों को सरकार से उम्मीद है कि वह किसानों को सही मुआवज़ा दे; ताकि किसान अपना जीवनयापन कर सकें। जालौन के किसान डब्बू और प्रमोद का कहना है कि यहाँ के किसानों ने आत्महत्या तक की है। कभी सूखे की वजह से, तो कभी बे-मौसम बारिश और अन्य आपदा से फसल बर्बाद होने के चलते। क्योंकि किसान बुआई के समय साहूकार से और बैंक से कर्ज़ लेता है और फसल खराब होने पर कर्ज़ समय पर लौटा नहीं पाता है; जिसके चलते आत्महत्या तक कर लेता है। डब्बू किसान का कहना है कि मटर और गेहूँ की फसल आने वाली थी। पर बारिश और ओले पडऩे से सब बर्बाद हो गयी। हमीरपुर के किसान अनुपम कहते हैं कि किसानों की िकस्मत में तो साफ लिखा है कि मेहनत करो और खुद खाने के लिए जूझो।  सरकार कहती है कि किसानों के नुकसान की भरपाई की जाएगी। लेकिन भरपाई के नाम पर न के बराबर पैसा दिया जाता है। ऐसे में किसान फटेहाल और लाचार-सा भटकता फिरता है। उन्होंने कहा कि छोटे किसानों का हाल इसलिए बेहाल है, क्योंकि उनकी चार से छ: बीघा या उससे भी कम खेती होती है। ऐसे में छोटे किसान सरकार और साहूकार से कर्ज़ लेकर जो लगात लगाते हैं, वह भी कई बार नहीं निकल पाती है और वे कई परेशानियों से जूझते रहते हैं।

यही हाल मध्य प्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर और दतिया ज़िलों का है। यहाँ भी 13 और 14 मार्च को हुई बारिश ने किसानों को रोने को मजबूर कर दिया। टीकमगढ़ के मजना, बम्हौरी, बड़ागाँव, पलेरा के किसान धीरज, दीपक और विनोद ने बताया कि उनकी खती 19 बीघा है। उन्होंने सरकार से तो कर्ज़ नहीं लिया है, पर अब फसल नष्ट हो गयी है, तो सरकार से कर्ज़ लेना होगा। क्योंकि घर चलाना मुश्किल होगा। उन्होंने बताया कि यहाँ के किसान पलायन तक करते हैं, क्योंकि किसानों को सरकार और पैसे वाले लोग मज़दूर जैसा मानते हैं। उनको किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में किसान भगवान भरोसे खेती करते रहते हैं और किसानी करते-करते उनका जीवन तमाम हो जाता है। छतरपुर और दतिया के किसान अनूप और राधेश्याम का कहना है कि किसानों को वोट बैंक की तरह सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ इस्तेमाल करती हैं। सियासतदाँ चुनाव के दौरान तो किसानों की हित की बात करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद थोड़ी-बहुत राहत बमुश्किल देते हैं। उन्होंने बताया कि इस समय सही मायने में सरकार को किसानों की आॢथक मदद की ज़रूरत है, ताकि किसान अपना दैनिक जीवनयापन कर सकें। क्योंकि एक ओर तो फसल नष्ट हो गयी है, दूसरा कर्ज़ ले रखा है, जिसे चुकाना सम्भव नहीं है, ब्याज अलग बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि उस पर मध्य प्रदेश में सरकार गिरने से किसानों और मुसीबत में आ गये हैं। क्योंकि इस समय कुछ विधायक नयी सरकार बनाने में लगे हैं, तो कुछ सरकार गिरने का रोना रो रहे हैं। ऐसे में किसान किसके पास जाएँ? अधिकारी सुनते नहीं हैं। इसलिए किसान अधिकारियों के पास जाने से बचते हैं।

टीकमगढ़ के किसान नेता घनश्याम शर्मा ने बताया कि बुन्देलखण्ड में किसानों, खासकर छोटे किसानों का भविष्य कभी उज्ज्वल नहीं रहा है। क्योंकि सरकारें तो बस ऐलान करती हैं कि 2021 में यह होगा, 2022 वो होगा। पर होता कुछ नहीं है। मुआवज़ा तो देना दूर, किसानों की समस्याएँ तक सुनने वाला कोई नहीं है। बैंक वालों से साठगाँठ न हो, तो उन्हें कर्ज़ तक नहीं मिलता है। साहूकारों का एक गिरोह है। भाजपा की सराकर हो या कांग्रेस की हो, दोनों सरकारों के जनप्रतिनिधियों के सरक्षण साहूकारों पर रहता है और ये लोग किसानों में महँगी ब्याज दर पर कर्ज़ देते हैं। किसान मजबूरी में साहूकारों से कर्ज़ लेता है। कर्ज़ न चुका पाने की स्थिति में साहूकार किसानों से उनका खेत ले लेते हैं। बाद में किसान अपने ही खेत में साहूकार की मज़दूरी करने को मजबूर होता है। घनश्याम शर्मा ने बताया कि ऐसा नहीं कि शासन-प्रशासन को कुछ पता नहीं है; सब कुछ पता है। लेकिन किसानों की सुनवाई कहीं नहीं है।

निर्भया के दोषियों को फाँसी के मायने

निर्भया बलात्कार मामले के चारों दोषियों को अंतत: फाँसी के फंदे पर झूलना पड़ा। कहा जा रहा है कि फैसला आने में सात साल लग गये। यह कहते हुए हमें यह भी कहना होगा कि अगर हैदराबाद में पशु चिकित्सक महिला की 28 नवंबर, 2019 को सामूहिक बलात्कार के बाद ज़िन्दा जला देने की वारदात को अंज़ाम देने वाले दोषियों को पुलिस द्वारा एन्काउंटर में मार गिराने की घटना के बाद इस फैसले में तेज़ी आयी। अन्यथा हो सकता है कि फैसले में और देर हो जाती। हैदराबाद की वारदात भी निर्भयाकांड जितनी ही, बल्कि उससे भी अधिक क्रूर और भयावह थी, जिसने एक बार फिर से पूरे देश में उबाल ला दिया था। तब बार-बार यह कहा जाने लगा कि अगर निर्भया के दोषियों को फाँसी मिल गयी होती, तो हो सकता है कि हैदराबाद की इस पशु चिकित्सक महिला के साथ वहशी यह दङ्क्षरदगी न करते।

तभी यह बात भी सामने आयी कि निर्भया के दोषियों की दया याचिका दिल्ली सरकार की फाइलों में पड़ी है। यह बात अपने आप में हास्यास्पद थी, क्योंकि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल महिलाओं के प्रति हिंसा के मामलों में इंसाफ के लिए अपनी सक्रियता के लिए काफी लोकप्रिय रही हैं। जो भी हो, हैदराबाद मामले से हुए हंगामे के बाद साल भर से अटकी हुई अर्जी आगे बढ़ी और अंतत: सात साल और तीन महीने के बाद निर्भया के दोषियों को फाँसी लगी और निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा कि निर्भया को न्याय मिला, देश की सारी निर्भयाओं को न्याय मिला।’ निश्चय ही निर्भया के आरोपियों को फाँसी से उन सभी महिलाओं में एक उम्मीद जगी होगी, जो उससे भी कई साल पहले से इंसाफ का इंतज़ार कर रही हैं और पूरी तरह उम्मीद खो बैठी हैं। निर्भया के साथ 16 दिसंबर, 2012 की रात को दक्षिण दिल्ली में सात लोगों ने एक बस में सामूहिक बलात्कार के साथ-साथ बर्बरता की थी। वह अपने एक मित्र के साथ फिल्म देखकर रात को ब्लूलाइन बस (उन दिनों चलने वाली प्राइवेट बस) में वापस आ रही थीं। मित्र ने बचाने की काफी कोशिश की, पर उन्होंने उसे भी जमकर पीटा। फिर दोनों को बस में से फेंककर बस दौड़ा ले गये। मित्र ने ही 100 नम्बर पर फोन कर पुलिस को बुलाया। छ: आरोपियों में से एक रामसिंह ने कुछ महीने बाद ही जेल में आत्महत्या कर ली। एक नाबालिग साबित हुआ। उसे कोर्ट ने सुधार के लिए भेज दिया और कहा जाता है कि एक गैर-सरकारी संगठन की निगरानी में वह दक्षिण भारत में किसी जगह काम कर रहा है। बाकी चार दोषियों- विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर, पवन गुप्ता तथा मुकेश सिंह को 20 मार्च की सुबह 5:30 बजे तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी।

इस फैसले को हमेशा इसलिए याद किया जाएगा, क्योंकि बलात्कार के मामले में तिहाड़ जेल में पहली बार एक साथ चार दोषियों को फाँसी लगायी गयी है। इसलिए भी कि चारों को एक साथ फाँसी लगने की व्यवस्था का सहारा ले दोषियों का वकील फाँसी को तय समय से दो घंटे पहले तक रुकवाने में लगा रहा। इससे पहले दो महीने तक फाँसी टलवाने में वह कामयाब रहा। इससे कानून व्यवस्था की खामियाँ खुलकर सामने आयीं। एक नहीं, कई बार लगा जैसे कानून पीडि़त के साथ न होकर अपराधियों के साथ है।

आज लोग भूल चुके होंगे शायद और उन्हें याद दिलाना ठीक ही होगा कि जिस तरह 2012 के दिसंबर की सर्दी में दिल्ली में इंडियागेट पर युवाओं ने दिन-रात निर्भया के पक्ष में अहिंसक आन्दोलन किया और उस समय की मनमोहन सरकार ने उन पर डण्डे चलवाये, राहुल गाँधी व सोनिया गाँधी में से कोई भी उनके बीच नहीं गया; उससे लोगों का भरोसा सरकार व कांग्रेस नेतृत्व में कम हुआ और 2014 के चुनाव में महिला सुरक्षा एक मुख्य चुनावी मुद्दा न होते हुए भी अंडरकरंट मतदान के समय वह जनता के दिमाग में रहा। कह सकते हैं कि कांग्रेस की हार में निर्भया कांड की भी कहीं एक अप्रत्यक्ष भूमिका रही। वैसे ही जैसे कि केजरीवाल की आप पार्टी की जीत में।

फाँसी के पक्ष में सबसे अहम तर्क यह दिया जाता है कि इससे अपराधियों में कानून के प्रति डर पैदा होता है। यह तो अब पता चलेगा कि हर तीन मिनट पर भारत में होने वाली बलात्कारों की वारदात में कितनी कमी आती है। पर मेरा सवाल है कि क्या इस फाँसी से उस किशोरी की दहशत खत्म हो गयी, जो 30 नवंबर की सर्द सुबह संसद मार्ग पर जाकर देश के हुक्मरानों से जानने के लिए बैठ गयी कि अपने ही देश में मैं सुरक्षित क्यों नहीं रह सकती?’ उसके चेहरे पर खौफ था और हाथ में तख्ती। नितांत अकेली वह अपने खौफ के साथ वहाँ शान्त बैठी थी और आने-जाने वाले लोग उसके हाथ में थमी तख्ती पर लिखे सवाल को पढ़कर आगे बढ़ जाते थे। अंतत: पुलिस वहाँ आयी और उसे अपनी गाड़ी में डालकर ले गयी। उसके वहाँ से हटते ही संसद मार्ग साफ हो गया। कुछ गज़ की दूरी पर बैठे हुक्मरानों ने चैन की साँस ली; क्योंकि जवाब देने के लिए अब वहाँ कोई सवाल नहीं दिख रहा था। निर्भया के दोषियों को फाँसी से उस बच्ची को अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती; पर जिस तरह से दोषियों में से एक ने अपनी जान न बचती देख एक दिन पहले जेल में अपने परिवार से मुलाकात के दौरान कहा- ‘हमें फाँसी लगा देने से क्या बलात्कार रुक जाएँगे, नहीं रुकेंगे!’ तो हताशा में ही सही, उसने सच ही कहा। ऐसे में निर्भया के माता-पिता अगर कहते हैं कि ‘निर्भया को तो न्याय मिल गया, अब वे देशभर की निर्भयाओं को न्याय दिलाने के लिए काम करेंगे; तो वे समझ लें कि उनका काम पहले से भी कहीं ज़्यादा कठिन है।

कठिन इसलिए, क्योंकि भले ही हमारे कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद कहते रहें कि अब बलात्कार के मामालों में नयाय व्यवस्था को दुरुस्त किया जाएगा। हम चाहते हैं कि ऐसा ही हो। पर अगर गौर करें, तो पाएँगे कि देश के लोग रोज़ हो रहे बलात्कारों की घटनाओं के प्रति एकजुट होकर गुस्से का इज़हार नहीं करते। तो क्या इसके लिए देश को अभी एक-दो और निर्भया व महिला पशु चिकित्सक जैसी देश में उबाल पैदा करने वाली वारदातों का इंतज़ार करना होगा? ऐसा इसलिए कि निर्भया वारदात के बाद वर्मा आयोग, जिसकी माँग महिला संगठन लम्बे समय से कर रहे थे; बैठा और उसने बहुत तेज़ी से काम करते हुए यौन हिंसा के खिलाफ अपनी सिफारिशें दे दीं। फास्ट ट्रैक कोर्ट और निर्भया फंड उनमें दो ऐसी महत्त्वपूर्ण सिफारिशें थीं, जिन्हें लागू तो किया गया, पर उनका हश्र हम सबके सामने है। सात साल के बाद फैसले में तेज़ी लाने के लिए सरकारों व अदालतों ने कई और वारदात का इंतज़ार किया। अब कोई दूसरा ए.पी. सिंह वकील लचर कानून व्यवस्था का सहारा लेकर दोषियों की फाँसी को आिखरी क्षण तक टलवाने की कोशिश न कर सके इसके लिए कोरोना व मंदी में फँसती अर्थ-व्यवस्था से जूझती सरकार के लिए कानूनों में संशोधन करना कितना अहम होगा? अभी यह कहना कठिन है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चारों दोषियों को फाँसी लगने के बाद कहा- ‘निर्भया को न्याय मिला। महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान को सुनिश्चित करना बेहद महत्त्वपूर्ण है।’ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था-‘आज का दिन प्रतिज्ञा लेने का है कि हम ऐसे मामले दोबारा नहीं होने देंगे। पुलिस, अदालत, राज्य व केंद्र सरकारों को ही यह प्रतिज्ञा लेनी होगी। कानूनी खामियों को दूर करने के लिए मिलकर काम करना होगा।’ ये दोनों बयान कितने रस्मी हैं, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सात साल में निर्भया को कम से कम न्याय मिल तो गया। निर्भया कांड के बाद महिलाओं के लिए लगातार और अधिक असंरक्षित होती चली गयी दिल्ली में इन सात साल में भी अपराधी के डीएनए टेस्ट के लिए एक फौरेंसिक लैब तक नहीं लग पायी। रिहेब्लिटेशन सेंटर तो और भी दूर की बात है।

(लेेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

निर्भया को मिला इंसाफ 2.4 लाख को अब भी इंतज़ार

बहुचर्चित निर्भया सामूहिक बलात्कार और निर्मम हत्याकांड मामले में लगातार लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद आिखकार न्याय मिल गया है। चारों दोषियों को 20 मार्च को फाँसी दे दी गयी। सात साल के लम्बे इंतज़ार के बाद आिखरकार 23 वर्षीय फिजियोथेरेपी इंटर्न को न्याय मिला है, जो दक्षिण दिल्ली के पास के इलाके में एक खाली ब्लूलाइन बस में दङ्क्षरदों की क्रूरता की शिकार हुई थी। न्याय में देरी हमारी कानूनी प्रणाली में कई खामियों के चलते हुई। लेकिन दो बहादुर महिलाओं- निर्भया की माँ आशा देवी और वकील सीमा कुशवाहा को इस लड़ाई में आिखरकार जीत मिली।

दोषियों को फाँसी मिलने पर केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसद भवन परिसर में संवाददाताओं से कहा कि यह बहुत राहत का दिन है कि एक बेटी, जिसने इतना दर्द सहा, उसे आिखर न्याय मिला है। यह न्यायपालिका, सरकार और नागरिक समाज के लिए आत्मनिरीक्षण करने का समय है कि क्या मौत की सज़ा के दोषियों को व्यवस्था में जोड़-तोड़ करने और देरी करवाने का कारण बनने दिया जा सकता है?

विदित हो कि निर्भया के चारों दोषियों- मुकेश सिंह (32), पवन गुप्ता (25), विनय शर्मा (26) और अक्षय कुमार सिंह (31) को तिहाड़ जेल में 20 मार्च को 5:30 बजे फाँसी दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने दोषियों के वकील की अंतिम याचिका खारिज करने के बाद तय कार्यक्रम के अनुसार फाँसी दी गयी। निर्भया मामले में दोषियों को मृत्युदंड की सज़ा के बाद देश में राहत की भावना महसूस की जा सकती है। लेकिन देश भर में बलात्कार के लम्बित मामलों की स्थिति एक अलग ही कहानी कहती है। भारत में अभी भी करीब 2.45 लाख निर्भया हैं, जो आज भी न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा- ‘हम सभी ने इस दिन का बहुत इंतज़ार किया है। आज भारत की बेटियों के लिए एक नयी सुबह है। जानवरों को फाँसी पर लटका दिया गया है।’ उन्होंने फैसले के बाद घर जाकर अपनी बेटी की तस्वीर को सीने से लगाया।

चार दोषियों को फाँसी देने के साथ निर्भया को तो न्याय मिल गया, लेकिन सवाल यह है कि देश की कई अन्य निर्भयाओं का क्या? जो अभी भी न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं। इसका कारण एक ही है। वह यह कि दशकों से भारतीय कानूनी प्रणाली इस तरह के मामलों के भारी दबाव का सामना करती आ रही है। जानकारों का कहना है कि ऐसे लम्बित मामलों की संख्या चिन्ताजनक है और सरकार के साथ-साथ देश की न्यायिक व्यवस्था के लिए यह चिन्ता का विषय है।

सरकार ने भारत भर की विभिन्न अदालतों में बड़ी संख्या में लम्बित बलात्कार और पोक्सो (यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम) से जुड़े मामलों के चौंकाने वाले आँकड़े उजागर किये हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, दिसंबर, 2019 तक भारत में कुल 2,44,001 बलात्कार और पोक्सो के लम्बित मामले हैं। उत्तर प्रदेश कुल 66,994 बकाया मामलों के साथ सूची में सबसे ऊपर है। जबकि महाराष्ट्र में 21691, पश्चिम बंगाल में 20,511, मध्य प्रदेश में 19,981, राजस्थान में 11,159 मामले लम्बित हैं। इन लम्बित मामलों की संख्या सरकार के महत्त्वाकांक्षी अभियान ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान पर सवालिया निशान खड़ा करती है?

एनसीआरबी के आँकड़ों में आगे कहा गया है कि 2018 में देश भर में प्रत्येक चौथी बलात्कार पीडि़ता नाबालिग थी; जबकि उनमें से 50 फीसदी से अधिक 18 से 30 वर्ष की आयु वर्ग में थीं। 9 जनवरी, 2020 को जारी किये गये आँकड़े 2018 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3,78,277 मामलों के साथ पूरे देश में कानून और व्यवस्था की खराब स्थिति को उजागर करते हैं। आँकड़ों में उत्तर प्रदेश में 59,445 महिलाओं के खिलाफ अपराधों से सम्बन्धित मामलों की सबसे अधिक संख्या है। मध्य प्रदेश में बलात्कार के मामलों की अधिकतम संख्या 5,450 है यानी एक दिन में लगभग 15 बलात्कार के मामले यहाँ होते हैं। दूसरी ओर, दिल्ली दुनिया की महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक राजधानी बन गयी है। साल 2018 में सबसे अधिक 1,217 बलात्कार के मामले यहाँ हुए।

बलात्कार और पोक्सो के लम्बित मामलों के मुद्दे पर राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा कहती हैं कि हमारे पास मज़बूत कानून है, लेकिन इसे बेहतर तरीके से लागू करने की ज़रूरत है। इसके अलावा लम्बी जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को बदलने और फास्ट कोर्ट की ज़रूरत है। एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक, 94 फीसदी मामलों में अपराधी पीडि़तों के जानकार थे। इनमें से 18,059 मामलों में बलात्कारी मित्र, नियोक्ता, पड़ोसी या अन्य ज्ञात व्यक्ति थे; जबकि 11,945 मामलों में वे ऑनलाइन मित्र थे। यह आँकड़ा 2017 के लिए लगभग समान है, जब 93.1 फीसदी मामलों में पीडि़तों की दुष्कर्म करने वाले से पहचान थी।

कुल मिलाकर 72.2 फीसदी 18 वर्ष से अधिक और 27.8 फीसदी 18 से नीचे आयु वर्ग की बलात्कार पीडि़ताएँ हैं। साल 2018 में 51.9 फीसदी यानी 17,636 बलात्कार पीडि़तों की आयु 18 से 30 वर्ष के बीच, 18 फीसदी यानी 6,108 बलात्कार पीडि़त 30 से ऊपर और 45 वर्ष से कम, 2.1 फीसदी यानी 727 पीडि़त 45 और 60 वर्ष की आयु के बीच और 0.2 फीसदी यानी 73 पीडि़त 60 साल से ऊपर थीं।

इस आँकड़े से पता चलता है कि 14.1 फीसदी यानी 4,779 बलात्कार पीडि़त 16 वर्ष से अधिक और 18 वर्ष से कम आयु की थी। 10.6 फीसदी यानी 3,616 पीडि़त 12 से 16 वर्ष के बीच थीं। 2.2 फीसदी यानी 757 पीडि़त 6 वर्ष से अधिक और 12 वर्ष से कम आयु की थीं। वहीं 0.8 फीसदी यानी 281 पीडि़त महज़ 6 वर्ष या उससे भी कम आयु की थीं। आँकड़ों के अनुसार, 2,780 मामलों में उनके अपने परिवार के सदस्यों ने ही महिलाओं को शोषित किया।

इसके अलावा, बलात्कार के मामलों की संख्या पिछले 17 वर्षों में दोगुनी हो गयी है। इन 17 वर्षों में देश भर में औसतन 67 महिलाओं के साथ प्रतिदिन बलात्कार किया गया, या हर घंटे लगभग तीन महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। वर्ष 2001 में पूरे भारत में बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या 16,075 थी, यह संख्या 2017 तक बढ़कर 32,559 हो गयी।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत एनसीआरबी भारतीय दंड संहिता और देश में विशेष और स्थानीय कानूनों के तहत परिभाषित अपराध आँकड़ों को एकत्र करने और उनका विश्लेषण करने के लिए ज़िम्मेदार है।

 थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। बलात्कार के मामलों की बढ़ती संख्या और यौन हिंसा के उच्च जोखिम के कारण भारत दुनिया भर में सबसे असुरक्षित राष्ट्र बन गया है, जबकि अफगानिस्तान दूसरे स्थान पर और सीरिया तीसरे स्थान पर है।

कानून और न्याय मंत्री, रविशंकर प्रसाद ने बताया कि स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने बलात्कार और पोक्सो अधिनियम, 2012 से सम्बन्धित लम्बित मामलों के ट्रायल और निपटारे के लिए देश भर में कुल 1023 राज्यवार फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट की स्थापना के लिए एक केंद्र प्रायोजित योजना शुरू की है।

राज्य वार 1023 फास्ट ट्रैक स्पेशल कोट्र्स में से उत्तर प्रदेश में 218,  महाराष्ट्र में 138, पश्चिम बंगाल में 123, मध्य प्रदेश में 67, केरल में 56, बिहार में 54, ओडिशा और राजस्थान में 45, तेलंगाना में 36, गुजरात में 35, कर्नाटक में 31, असम में 27, झारखंड में 22, आंध्र प्रदेश में 18, हरियाणा और दिल्ली के एनसीटी में में 16-16, छत्तीसगढ़ में 15, तमिलनाडु में 14, पंजाब में 12, हिमाचल प्रदेश में 06, मेघालय में 05, जम्मू और कश्मीर और उत्तराखंड में 4-4, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और त्रिपुरा में 3-3, गोवा और मणिपुर 2-2, चंडीगढ़, नागालैंड और अंडमान और निकोबार द्वीप में 1-1 में होगा। इसके अलावा 2019-20 के दौरान राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 649 फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित करने के लिए 99.43 करोड़ रुपये की राशि जारी की गयी है।

महिलाओं और बालिकाओं के लिए जनवरी, 2020 तक एफटीएससी योजना के तहत स्थापित और कार्यरत 195 फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों में से 56 मध्य प्रदेश, 34 गुजरात, 26 राजस्थान, 22 झारखंड, 16 दिल्ली, 15 छत्तीसगढ़, त्रिपुरा में 3, तेलंगाना में 9 और तमिलनाडु में 14 हैं।

हर साल बड़ी संख्या में मामले निपटाने के बावजूद, लम्बित मामले बढ़ते रहते हैं। लम्बित मामलों की बढ़ती संख्या पर विराम न लगा पाने के पीछे मुख्य कारणों में से एक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी भी है। साल 2017 में 10 साल से अधिक समय से लम्बित मामलों के निपटारे के लिए न्याय मित्र योजना शुरू की गयी थी। इस योजना के तहत सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों को 10 साल पुराने अधिक-से-अधिक मामलों का निपटान करके उन्हें कम करने और हाशिये पर पड़े लोगों की न्याय तक पहुँच बढ़ाने में मदद करने के लिए नियुक्त किया गया था। जुलाई, 2019 तक स्वीकृत न्यायाधीशों के 37 फीसदी अर्थात् 399 पद रिक्त हैं। अदालतों से उम्मीद है कि इस देरी को दूर करने के लिए प्रतिवर्ष 165 लम्बित मामलों का निपटारा करेंगी।

हालाँकि आज यौन हिंसा और बलात्कार समाचार चैनलों पर ज्वलंत बहस का विषय बन गये हैं, जो खासकर एक ऐसे देश में बड़ी बात है, जहाँ यौन अपराध पर बहुत सीमित स्तर पर ही बात होती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए मीटू, सड़क पर विरोध-प्रदर्शन, कैंडल मार्च या कड़े कानून बनाने जैसे कदम समाज में कोई बदलाव लाएँगे? क्योंकि सबसे बड़ी चुनौती तो महिलाओं के प्रति समाज का नज़रिया बदलना है।

जजों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद इनाम उचित नहीं!

सेवानिवृत्ति से पहले दिये गये फैसले सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी की इच्छा से प्रभावित होते हैं…। मेरा सुझाव है कि सेवानिवृत्ति के बाद कम-से-कम दो साल कोई भी पद नहीं दिया जाना चाहिए, अन्यथा सरकार सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है। वर्ष 2012 में भाजपा के नेता और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने कहा था कि अगर ऐसा होता है, तो देश में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी साकार नहीं होगा। हालाँकि, इस तरह के तर्क रखने वालों के पास अब कोई जवाब नहीं मिल सकता है कि जब करीब छ: महीने पहले ही सेवानिवृत्त हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई को हाल ही में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया है।

वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत ए. दवे ने कहा है- ‘यह पूरी तरह से घिनौता कृत्य है और यह स्पष्ट रूप से पूर्व में किए कामों का इनाम है। इससे न्यायपालिका की आज़ादी पूरी तरह से खत्म कर दी गयी।’ आधिकारिक गजट में रंजन गोगोई के नामांकन को अधिसूचित किये जाने के बाद ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि क्या यह उनके दिये गये फैसलों का इनाम है? लोगों को न्यायाधीशों की स्वतंत्रता में विश्वास कैसे होगा? इस पर जस्टिस (सेवानिवृत्त) मदन बी. लोकुर ने भी कई सवाल उठाये? कुछ समय से ये अटकलें लगायी जा रही थीं कि जस्टिस गोगोई को क्या सम्मान मिलेगा। तो उस मायने में राज्यसभा का नामांकन आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यह इतनी जल्दी आ गया। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से नये से तरीके से परिभाषित करता है। तो लोगों के भरोसे का आिखरी गढ़ भी ढह गया है?

इस तरह के विवादों की पुनरावृत्ति ने तब जड़ें जमा लीं, जब केंद्र सरकार की सबसे लम्बी पारी होने वाली सत्तारूढ़ दल ने सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज फातिमा बीवी को तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया था। सेवानिवृत्त सीजेआई रंगनाथ मिश्रा राज्यसभा के अलावा अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विभिन्न अन्य अहम पदों पर नियुक्त किये जाते रहे हैं। एक पूर्व सीजेआई सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया गया और अब रिटायर्ड सीजेआई गोगोई राज्यसभा की सदस्यता ले चुके हैं। 1950 से आज तक न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद पदों से नवाज़े जाने का यह विवादास्पद मुद्दा अनसुलझा ही है।

लोगों में कहीं-न-कहीं शक तो पैदा होता ही है, जिससे इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गयी है। इस बहस पर ध्यान नहीं दिया जाता कि सीजेआई ने अपने कार्यकाल के दौरान संवेदनशील मुद्दों पर फैसलों का निपटारा किया था। 16 मार्च को केंद्र द्वारा जारी एक अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद-80 के खंड (1) के तहत राज्यसभा में रिक्त पद को भरने के लिए पूर्व सेवानिवृत्त सीजेआई को मनोनीत सदस्य के तौर पर नामित किया है। गोगोई ऐतिहासिक अयोध्या का फैसला सुनाने के बाद 17 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो गये थे। अन्य महत्त्वपूर्ण निर्णयों में भारत में समलैंगिकता का उन्मूलन, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश और निजता मौलिक अधिकार शामिल हैं।

इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि उनके फैसले गलत थे या पक्षपाती रहे। एकमात्र तथ्य यह सामने आता है कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद तत्काल उनकी नियुक्ति या पद से नवाज़े जाने से उनके किये गये फैसलों पर लोग एक राय बनाना शुरू कर देते हैं, भले ही उनकी मेरिट चाहे जो हो। जैसा कि इससे सभी वािकफ हैं कि पूर्वाग्रह के वास्तविक अस्तित्व को न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता को खत्म नहीं किया जा सकता है। पूर्वाग्रह की धारणा इस पर आधार पर बनायी गयी न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए जुदा नहीं है। न्याय के बारे में कहा जाता है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि यह भी दिखना भी चाहिए। इस संदर्भ में इसकी महत्त्व और ज़्यादा बढ़ जाता है।

एक मज़बूत और स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए ज़रूरी है कि उसके लिए निडर और मज़बूत बार ऐसोसिएशन हो, लेकिन आम धारणा है कि न्यायाधीशों की स्वतंत्रता हमारे कुछ न्यायाधीशों के कार्यकाल के आिखरी कार्यकाल में दबाव में होती है। सम्भवत: इसकी वजह सेवानिवृत्ति के बाद की सम्भावनाएँ सरकार के पक्ष की ओर ​इशारा करती हैं। जब कोई न्यायाधीश अपने सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी ओहदे को सरकार की ओर से स्वीकार करता है, तो उनकी स्वीकारोक्ति पर उँगलियाँ उठायी जाती हैं। एक ऐसी स्थिति जिसमें सरकारी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रुचि से प्रभावित लगता है।

हितों का टकराव

न्यायाधीशों का पद स्वीकार करना निश्चित रूप से हितों के टकराव की स्थिति पैदा करता है। यह न्यायिक स्वतंत्रता में लोगों के भरोसे को कमज़ोर करता है। हाल ही के मास्टर ऑफ रोस्टर केस में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि जनता का विश्वास न्यायपालिका की सबसे बड़ी सम्पत्ति है। इस दौरान कहा गया था कि लोगों का भरोसा ज़्यादा मायने रखता है, जिस पर न्यायिक समीक्षा की समीक्षा और फैसलों का असर दिखता है। विश्वसनीयता अगर जनता के दिमाग में संशय पैदा कर दे तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस जे चेलमेश्वर ने इस मामले में खुलकर बात करते हुए मोर्चा सँभाला था। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति से पहले ही, सार्वजनिक बयान में कहा था कि वे सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी पद को स्वीकार नहीं करेंगे और वे अपने स्टैंड पर कायम हैं। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस कुरियन जोसेफ ने भी इसी तरह का बयान दिया।

शिष्टाचार के कारक

हाल ही में रिटायर हुए तीन जजों की सरकार की ओर से पदों से नवाज़े जाने को लेकर इसके औचित्य पर फिर से बहस शुरू हो गयी है। 6 जुलाई को न्यायमूर्ति ए.के. गोयल को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अपनी सेवानिवृत्ति के उसी दिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल को उच्चतम न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के कुछ ही हफ्तों बाद मई के अंतिम सप्ताह के दौरान राष्ट्रीय उपभोक्ता निवारण आयोग के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति एंटनी डोमिनिक को केरल सरकार द्वारा राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, जो मई के अंतिम सप्ताह में केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए। तीन न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के थोड़े समय के भीतर हुई इन नियुक्तियों ने लोगों के मन में सवाल पैदा कर ​दिये। सेवानिवृत्ति के बाद तत्काल नियुक्ति को लेकर शिष्टाचार के सिद्धांत को तो नहीं अपनाया जाता, भले ही इस बारे में पहले ही से क्यों न फैसला कर लिया गया हो।

न्यायमूर्ति बी. केमल पाशा, जो इस साल की शुरुआत में केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए और अपने विदाई भाषण में इस पर बढिय़ा भाषण दिया था। उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद पद स्वीकारने के लिए सरकार से उम्मीद करते हैं, इसलिए वे सरकार से कम उसे उसा साल ऐसा फैसला नहीं सुनाते हैं, जिससे सरकार किसी भी तरह से उनसे नाराज़ लगे। यह एक आम शिकायत है कि इस तरह के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद किसी ऑफर की उम्मीद करके सरकार से नाराज़गी को आमंत्रित करने की हिम्मत नहीं करते हैं। उन्होंने जस्टिस एसएच कपाडिय़ा के बयान को भी पढ़ा। जस्टिस कपाडिय़ा और न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने कहा था कि किसी भी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद कम-से-कम तीन साल की अवधि के कोई भी वेतनभोगी पद स्वीकार नहीं करना चाहिए।

सभी पूर्व सीजेआई कपाडिय़ा, लोढ़ा और ठाकुर के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कूलिंग ऑफ अवधि के सम्बन्ध में सुझाव प्रासंगिक हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने कहा था कि वह सेवानिवृत्ति के बाद दो साल की अवधि तक कोई भी लाभ का पद नहीं लेंगे। स्वतंत्र भारत का पहला लॉ कमीशन एम.सी. सेतलवाड की अध्यक्षता में बना, इसमें सिफारिश की गयी थी कि उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी नौकरी को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

इस तरह के न्यायाधीशों को यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिए सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका आचरण बेहद मायने रखता है। संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद 148 या 319 के तहत ऐसा प्रावधान शामिल किया जा सकता है। संसद द्वारा सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को दो साल के लिए कोई भी नियुक्ति लेने से रोकने के लिए एक विशेष कानून भी पारित किया जा सकता है।

चौंकाने वाले आँकड़े

कानूनी थिंक टैंक, विधी सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार, 100 से अधिक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों में से 70 ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, सशस्त्र बल, अधिकरण, भारतीय विधि आयोग आदि संगठनों में इस तरह के पद स्वीकारे हैं। इनमें से हो सकता है कि कुछ पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति ज़रूरी हो।

रिपोर्ट में पाया गया है कि अध्ययन किये गये में से पाया गया कि 56 फीसदी की नियुक्ति कानून के तहत संरचनात्मक समस्या को लागू करते के लिए ज़रूरी थी। यह देखने के लिए एक और विडंबनापूर्ण तथ्य यह है कि ऐसी नियुक्तियाँ कैसे सांविधिक प्रावधानों की पवित्रता को बनाये रखने में अपनी उत्पादकता साबित करती हैं, जिसके तहत वे अपनी नियुक्ति प्राप्त करते हैं। उनके पैरिसिडल दृष्टिकोण के इस चौंकाने वाले पहलू पर अलग से विस्तार में बताया जा सकता है।

1950 के बाद से भारत के 44 मुख्य न्यायाधीश हुए हैं, जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरियों को स्वीकार किया है। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के चार महीने पहले भी कमीशन पर नियुक्त किया गया है। उदाहरण के लिए, जस्टिस दलवीर भंडारी 30 सितंबर, 2012 को सेवानिवृत्त होने वाले थे। लेकिन हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में चुने जाने के कुछ महीने पहले उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसी तरह 18 सितंबर, 2011 को न्यायमूर्ति मुकुंदक शर्मा के सेवानिवृत्त होने के चार महीने पहले, उन्हें वंसधारा जल विवाद न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के लिए मंज़ूरी दे दी गयी थी।

पहचान स्थापित करना

कुछ समय पहले (सेवानिवृत्त) न्यायमूर्ति ए. सेल्वम का ट्रैक्टर से एक खेत की जुताई करते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था। 62 साल की उम्र में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद ए. सेल्वम ने कृषि को आगे बढ़ाने के लिए शिवगंगा ज़िले के तिरुप्पत्तुर तालुका में अपने मूल निवास पुलंकुरिची पहुँचे और खेतीबाड़ी से जुड़े। वह एक कृषि परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो लगभग 100 वर्षों से फसलें उगा रहे हैं और सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने इसे अपनाया। अप्रैल, 2018 में सेवानिवृत्त हुए पूर्व न्यायाधीश अब पुलनकुरी में अपने पाँच एकड़ की पैतृक ज़मीन पर कृषि कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि कृषि से मुझे सच्ची खुशी मिलती है। मैं यहाँ अपनी ज़मीन पर खेती कर रहा हूँ और अच्छी फसल उगा रहा हूँ। प्रकृति के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है।

तंत्र की ज़रूरत

इसी दौरान यह सुनिश्चित करना कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के अनुभव और अंतर्दृष्टि पर धन बर्बाद किया जाना कहना भी आदर्श स्थिति नहीं है। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की क्षमता का सदुपयोग करने के लिए एक तंत्र होना चाहिए। वर्तमान में अधिकांश वैधानिक आयोगों और न्यायाधिकरणों को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की अध्यक्षता की आवश्यकता होती है। संविधान न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद का कार्यभार लेने से रोकता नहीं है।

संविधान का अनुच्छेद-124 कहता है कि कोई भी व्यक्ति, जिसने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदभार सँभाला है; वह किसी भी अदालत में या भारत के क्षेत्र के भीतर किसी भी अधिकार के समक्ष याचना नहीं करेगा। तब अनुच्छेद-220 में उच्च न्यायालय के जज सर्वोच्च न्यायालय और अन्य उच्च न्यायालयों को छोड़कर किसी भी प्राधिकरण के समक्ष दलील पेश कर न्याय दिलाते हैं। हालाँकि, ऐसे सुझाव दिये गये हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यूनतम कूलिंग-ऑफ अवधि होनी चाहिए और हितों के टकराव को रोकने के लिए एक नयी नियुक्ति होनी चाहिए। ये पद आमतौर पर संवैधानिक या अर्ध-न्यायिक निकाय के होते हैं; जिनके कानून ज़्यादातर ऐसे जनादेश नहीं देते हैं कि केवल सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही उन पर कब्ज़ा कर सकते हैं।

पारम्परिक मुकदमों, जिनके लिए अदालतें बनायी गयी हैं; की अनदेखी की जा रही है। अधिकांश न्यायाधीशों को ऐसे मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं है और इसका नतीजा यह है कि इन मामलों में गरीब और आम लोगों को निर्दयता से खारिज कर दिया जाता है। प्रस्ताव में कहा गया कि अदालतों का प्रमुख समय मीडिया-लोकप्रिय मामलों पर बर्बाद होता है, जिसके पास हमारे देश के 99 फीसदी नागरिकों की कोई चिन्ता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे अधिकांश न्यायाधीश ज़मीनी वास्तविकताओं और सामाजिक मुद्दों पर जनता की राय से बहुत दूर हैं। सभी प्रकार के निर्धारित सामाजिक और धार्मिक मूल्यों और मानदंडों के खिलाफ कानून बनाये जा रहे हैं। आदेश भी पारित किये जा रहे हैं। इस पर गम्भीर बहस की आवश्यकता है?

( लेखक पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं।)

काबुल में गुरुद्वारे पर आतंकी हमला

अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में 25 मार्च को एक गुरुद्वारे पर फिदायीन हमले में 27 श्रद्धालुओं की जान चली गयी और कई घायल हो गये। कुछ की हालत गम्भीर है। आज जब दुनिया कोरोना के कहर से जूझ रही है, यह कायराना हमला मानवता को शर्मशार करने वाला है। गुरुद्वारे में आतंकियों ने यह हमला 25 मार्च को सुबह 7:30 बजे तब किया, जब सिख संगत प्रार्थना के लिए वहाँ थी। घटना के तुरन्त बाद सुरक्षाबलों ने गुरुद्वारे की घेराबंदी कर जवाबी कार्रवाई की। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, खासकर संयुक्त राष्ट्र ने इस पर ठोस कार्यवाही करने की माँग की है।

यह कोई पहला मौका नहीं है, जब अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हमला हुआ है। पिछले साल ऐसा ही एक हमला आईएसआईएस ने किया था। इस बार भी इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने हमले की ज़िम्मेदारी ली है। दरअसल, कुछ समय पहले ही अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका और तालिबान के बीच शान्ति समझौता हुआ है। आईएस पहले से तालिबान के काफी खिलाफ रहा है और अमेरिका के भी।

समझौते के बाद आईएस ने अफगानिस्तान ने हमलों की धमकी दी थी। समझौते के बाद आईएस ने अफगानिस्तान में हमले भी किये हैं, लेकिन अल्पसंख्यकों पर उसका यह  पहला हमला है। वैसे भी अल्पसंख्यक सिख और हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर अफगानिस्तान में हमले होते रहे हैं।

इससे पहले 2018 में राष्ट्रपति अशरफ गनी से भेंट करने जा रहे हिन्दुओं और सिखों के काफिले पर एक आत्मघाती हमला हुआ था। जलालाबाद प्रान्त के गवर्नर के परिसर से करीब 100 मीटर दूर एक बाज़ार में हुए इस हमले में 12 सिख और 7 हिन्दू मारे गये थे और कई घायल हो गये थे। वहाँ राष्ट्रपति अशरफ गनी बैठक कर रहे थे। इस हमले की ज़िम्मेदारी भी आईएस ने ही ली थी। इस अशांत प्रान्त में हाल के वर्षों में कई घातक हमले हुए हैं। अब 25 मार्च को एक और हमला हो गया, जिसमें एक दर्ज़न से अधिक सिख श्रद्धालु शहीद हो गये। हमले के बाद गुरुद्वारे में सुरक्षाबलों ने मोर्चा सँभाल लिया। तालिबान ने कहा है कि इस हमले से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जबकि आईएस ने एक बयान जारी कर हमले की ज़िम्मेदारी ली है। अफगानिस्तान सरकार ने इस हमले की पुष्टि की है और इसे कायराना हमला बताया।

अफगानिस्तान में करीब 325 सिख परिवार रहते हैं। इनकी संख्या काबुल और जलालाबाद में अधिक है। इन्हीं दो शहरों में गुरुद्वारे भी हैं। जब 25 मार्च को हमला हुआ, उस समय गुरुद्वारे में 150 से ज़्यादा श्रद्धालु उपस्थित थे। हमले के बाद आतंकी गुट तालिबान के प्रवक्ता ज़बीहुल्लाह मुज़ाहिद ने ट्वीट करके कहा कि हमने कोई हमला नहीं किया है। इसके तुरन्त बाद आईएस ने हमले की ज़िम्मेदारी ले ली।

भारत ने इस हमले की कड़ी निन्दा की है। विदेश मंत्रालय ने एक ट्वीट में कहा है कि कोरोना वायरस महामारी के समय में अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थानों पर इस तरह के कायरतापूर्ण हमले अपराधियों और उनके आकाओं की शैतानी मानसिकता दिखाते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और अन्य नेताओं ने घटना को बेहद कायरतापूर्ण बताते हुए इसकी कड़ी निन्दा करते हुए अफगान सरकार से अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने को कहा है।

घटना के बाद भारत के जाने-माने कानूनविद नङ्क्षरद्र सिंह खालसा ने बताया कि उनके पास काबुल के गुरुद्वारे से फोन आया, जिससे उन्हें घटना की जानकारी मिली। उनके मुताबिक, कॉल करने वाले ने कहा कि गुरुद्वारे में घटना के समय 150 से ज़्यादा श्रद्धालु मौज़ूद थे। हमले के बाद गुरुद्वारा पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया है।

प्रताडऩा का लम्बा दौर

वैसे देखा जाए, तो अफगानिस्तान में पहले अल्पसंख्यक कभी डर महसूस नहीं करते थे। दशकों से कई संस्कृतियों के संगम तौर पर जाना जाने वाला अफगानिस्तान रणनीतिक रूप से व्यापार के मुख्य रूट के तौर पर लम्बे समय से इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन कुछ दशक पहले जब तालिबान और कट्टर इस्लामिक संगठनों की मौज़ूदगी वहाँ बढ़ी है, वहाँ का माहौल खराब होता चला गया। इन लोगों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों का जीना दूभर कर दिया। पहले तालिबान और उसके बाद अलकायदा ने अफगानिस्तान को अपने गढ़ के रूप में चुना और इसके बाद इतिहास की बेशकीमती धरोहरों का खात्मा होना शुरू हो गया। एक रिपोर्ट मुताबिक, पिछले करीब साढ़े तीन दशक में अफगानिस्तान से करीब 99 फीसदी हिन्दू और सिख नागरिक भाग चुके हैं। अस्सी के दशक की शुरुआत में जब मुजाहिदीन संगठनों ने देश में पकड़ नहीं बनायी थी, तब अफगानिस्तान में हिन्दू और सिखों की संख्या मिलकर करीब सवा दो लाख थी। बाद में इसमें कमी ही आती चली गयी। नब्बे के दशक में तालिबान ने इस देश पर कब्ज़ा किया, तब तक कुछ ही हज़ार हिन्दू और सिख रह गये थे। यह पलायन अब भी जारी है। हिन्दू और सिख समुदाय के लोगों के व्यापार और संपत्तियां छीन ली गयी हैं और बड़े स्तर पर धर्मांतरण भी हुआ है। बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र रहे अफगानिस्तान में अब बौद्ध धर्म का बस नाम-ओ-निशान ही है। बौद्ध धर्म से जुड़ी इमारतें और मूर्तियों पर वहाँ हमले होते रहे हैं। बामयान को कौन भूल सकता है जहाँ 2001 में तालिबान ने गौतम बुद्ध की दो विशालकाय मूर्तियों को डायनामाइट से उड़ा दिया था।

नशे की मदहोशी में उड़ता राजस्थान

अखबारों के पन्नों पर परोसी जा रही ड्रग्स पेडलिंग की खबरें बेशक किसी को एकाएक नहीं चौंकातीं, लेकिन इस गोरखधन्धे की जड़ें खँगालने वाली सरकारी एजेंसियों का कहना है कि राजस्थान के जयपुर, जोधपुर और कोटा जैसे शहरों में ड्रग्स की सप्लाई हो रही है। तीनों शहर अवैध तरीके से ड्रग्स सप्लाई का नया ठिकाना बनकर उभरे हैं। एक्सटेंसी पर मस्त ये शहर हुक्काबारों में चरस के नशे में मचलते, झूमते हैं। इन शहरों में नशेडिय़ों की एक नयी जमात भी है, जिसमें शिक्षित और उच्च-मध्यम वर्ग के युवा शामिल हैं। ड्रग्स पुशर, पैडलर और यूजर के बीच के रिश्तों की हर कहानी एजुकेशन हब्स की बहुमंज़िला इमारतों, अपार्टमेंट्स और भीड़-भाड़ वाली सड़कों से गुज़रती हुई नौजवान ज़िन्दगियों का पीछा कर रही है।

नशे के अवैध कारोबार को बेपरदा करने वाली नारकोटिक्स विभाग की पुलिस पड़ताल में कहा गया है कि अपराध का यह बहुस्तरीय त्रिकोण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी सबसे बड़ा खतरा है। अखबारी खबरों के एक विश्लेषण में कहा गया है कि राजस्थान बड़ी तेज़ी से नशे के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार का ट्रांजिट प्वाइंट बन रहा है। इसका उद्गम अफगानिस्तान है और ड्रग्स पाकिस्तान के ज़रिये राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच रही है। गत 16 फरवरी को एक विशेष ऑपरेशन के तहत डेढ़ किलो चरस के साथ अंकुश और उपेश ठागरिया पकड़े गये।

एसओजी के एडीजी अनिल पालीवाल ने बताया कि ये लोग राजस्थान के कई इलाकों में नशीले पदार्थ पहुँचा रहे थे। इसी 11 मार्च को कोटा पुलिस ने 11 किलो गाँजा पकड़ा है। इस धन्धे में रामसेवक मीणा और उसकी पत्नी ममता मीणा को गिरफ्तार किया गया है। एसपी गौरव यादव ने पुलिस टीम के साथ इन दोनों अपराधियों को पकड़ा था। उन्होंने बताया कि ये लोग विद्याॢथयों को निशाना बनाते हैं। उन्होंने बताया कि राजस्थान पुलिस प्रशासन पूरी सजगता से नशीले पदार्थों की तस्करी करने वालों की तलाश में लगा हुआ है। जयपुर पुलिस द्वारा पकड़ी गयी पाँच किलो गाँजे के साथ भी कमोबेश यही कहानी जुड़ी हुई है। अलबत्ता नशीले पदार्थों के साथ पकड़ा गया हर िकरदार एक नया खुलासा करता है। सिंथेटिक मादक पदार्थों और इंजेक्शन के सेवन से एचआईवी/एड्स जैसी बीमारियाँ हो रही हैं, जिससे समस्या नया रूप ले रही है।

अपराध की रक्तरंजित पटरियों पर दौड़ती कैंसर बन चुकी नशे की ट्रेन खौफ पैदा करती है, लेकिन इस पर ब्रेक लगाने वाला कोई नज़र नहीं आता। अपराध, सियासत और नशे के कारोबार की जुगलबंदी ने सहीराम सरीखे काले सोने के कुबेर ही पैदा नहीं किये, बल्कि अपराध के स्याह घरोंदे भी बना दिये हैं। नशे के धन्धे पर बेखौफ काबिज़ लेडी डॉन समता विश्नोई के हर रोज़ अपराध के नये-नये िकस्से सुनने में आते हैं। सूत्रों की मानें, तो उदयपुर सरीखा शान्त शहर भी ड्रग्स के कारोबार का बड़ा ठिकाना हो सकता है। लेकिन जब ड्रग्स का सबसे बड़ा जखीरा पकड़ा गया है, नारकोटिक्स विभाग हिलकर रह गया है। हैरत है कि राजस्थान पुलिस, खुफिया एजेसियाँ और ड्रग कंट्रोलर तक को नाकाम साबित करने वाले इस खुलासे की गूँज दिल्ली तक पहुँची। राजस्थान में ड्रग्स फैक्ट्री का होना, बाहरी अधिकारियों का आकर उसका पर्दाफाश करना और प्रदेश पुलिस के अंजान बने रहने से बड़ी शर्मिन्दगी राज्य सरकार के लिए क्या हो सकती थी?

नशे पर विलायती रंग

बदलते समय के साथ नशे पर भी अब ‘विलायती’ रंग चढऩे लगा है। नशे के आदी लोग, खासकर युवा अफीम, गाँजा, हेरोइन, कोकीन व चरस जैसे नशीले पदार्थों की बजाय कैटामाइन, मैंड्रेक्स, मार्फीन, एफिड्राइन, मेफेड्रोन और मैथाक्यूलिन जैसी नारकोटिस एवं साइकोट्रॉपिक दवाइयों के इस्तेमाल का चलन बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, इन दवाओं का 60 से 65 फीसदी इस्तेमाल नशे के रूप में किया जा रहा है। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, औषधि नियंत्रक संगठन समेत अन्य एजेंसियों द्वारा ज़ब्त ड्रग्स के आँकड़े नशे के बदलते ट्रेंड की गवाही दे रहे हैं। नारकोटिक्स ड्रग एंड साइकोट्रिपिक संस्टेंस (एनडीपीएस) एक्ट के तहत बिना लाइसेंस नशीली दवाओं का कारोबार करना भी गैर-जमानती अपराध है। जबकि डब्ल्यूएचओ की आवश्यक दवा सूची में शामिल इन दवाओं का इस्तेमाल नशीले पदार्थ के रूप में हो रहा है।

ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देशों में नशे के लिए धड़ल्ले से इस्तेमाल की जा रही मेफेड्रोन दवा ने भारत में होने वाली रेव पार्टियों में भी जगह बना ली है। गत दिनों केंद्र सरकार ने इसे प्रतिबन्धित नशीली दवाओं की सूची में शामिल किया था। कुछ अर्सा पहले में माउंट आबू व अहमदाबाद की रेव पार्टियों में इस दवा की बड़ी खेप पकड़ी गयी थी।

बता दें कि साइकोट्रॉपिक ड्रग के रासायनिक तत्त्व सीधे स्नायु तंत्र को प्रभावित करते हैं। इसके सेवन से मस्तिष्क के कार्य करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ये दवाएँ मानसिक रोगों, दर्द निवारक, बेहोशी आदि के लिए डॉक्टर की देखरेख में ही इस्तेमाल की जा सकती हैं। लेकिन आधुनिक जीवन शैली के दबाव और करियर के तनाव के चलते छात्र एवं युवा इन दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। औषधि नियंत्रक डी.के. श्रृंगी का कहना है कि नारकोटिक्स व साइकोट्रिॉपिक ड्रग, नशीली दवाइयाँ नशे का पर्याय बन चुकी हैं। इसमें कुछ दवाइयाँ तो मेडिकल स्टोर पर आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, बाकी अन्य माध्यमों से मुहैया हो जाती है।

चिट्टा बना काला नाग

सूत्रों का कहना है कि ड्रग्स माफिया राजस्थान के चप्पे-चप्पे पर फैले हुए हैं। इनके ज़्यादातर शिकार युवा हैं, जिन्हें चरस का चस्का लगाया जा रहा है। शहरों के बाग-बगीचे इस माफिया के अड्डे हैं। उधर, राजस्थान से जुड़े मालवा के अफीम उत्पादक इलाकों से अफीम और इससे बनने वाली हेरोइन या ब्राउन शुगर की ही तस्करी नहीं होती, चोरी-छिपे डोडा, चूरा (चिट्टा) का भी बड़ा धन्धा होता है। मध्य प्रदेश पुलिस के खुफिया महकमे की एक रिपोर्ट के अनुसार- पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और राजस्थान जैसे राज्यों में डोडा, चूरा की खपत लगातार बढ़ रही है। ‘उड़ता पंजाब’ इस डोडा, चूरा तस्करी की ही देन है।

बहरहाल, ड्रग माफिया पर लगाम कसने की दिशा में पुलिस की मुस्तैदी को समझें, तो ऑपरेशन क्लीन स्वीप उम्मीद जगाता है। पुलिस आयुक्त आनंद श्रीवास्तव का कहना है कि ड्रग पैडलर्स और पुशर्स पर पुख्ता कार्रवाई के लिए अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक गुप्ता और पुलिस आयुक्त (अपराध) योगेश यादव  की अगुवाई में गठित दस्ते ने तीन महिला तस्करों समेत छ: लोगों को गिरफ्तार करने में कामयाबी हासिल की। श्रीवास्तव कहते हैं कि,’अब तक ऑपरेशन क्लीन स्वीप के तहत 332 आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। श्रीवास्तव का कहना है कि अब किसी भी रेस्तरां में हुक्काबार चलाना संज्ञेय अपराध माना जाएगा। ऑपरेशन क्लीन स्वीप इस नज़रिये से कामयाब कहा जा सकता है क्योंकि पुलिस ने कुछ बड़े घडिय़ालों को पकड़ा है। लेकिन सवाल यह है कि यह खेल अभी थमा क्यों नहीं है? सूत्रों की मानें, तो कॉल सेंटरों से भी नशे की गन्ध उड़ती उड़ती है। तो क्या पुलिस को इधर ध्यान नहीं देना चाहिए?

पंजाब की सीमा से सटे हुए राजस्थान के ज़िलों हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, बीकानेर और चुरू में नशे का अवैध धन्धा खूूब फलफूल रहा है। पुलिस सूत्रों का कहना है कि इन ज़िलों के लोगों की पंजाब, हरियाणा में रिश्तेदारियाँ होने के कारण भी नशे का मकडज़ाल तेज़ी से फैला है। राजस्थान में डोडा, चूरा के इस्तेमाल से कैंसर के मरीज़ तेज़ी से बढ़ रहे हैं। इसका एक उदाहरण है- पंजाब से बीकानेर पहुँचने वाली अबोहर-जोधपुर ट्रेन, जिसमें बड़ी संख्या में कैंसर के मरीज़ यात्रा करते हैं; जो आचार्य तुलसी रीजनल कैंसर ट्रीटमेंट एंड रिसर्च सेंटर (आरसीसी) में इलाज कराने जाते हैं। इस ट्रेन से रोज़ाना बीकानेर आने वाले यात्रियों में कम-से-कम 100 यात्री तो चिट्टा के ही शिकार होते हैं।

लेडी डॉन का खौफ

डोडा, पोस्त की तस्करी को कुटीर उद्योग की मानिंद अपनी मुट्ठी में रखने और पुलिस को बरसों तक छकाने कामयाब रही लेडी डॉन सुमता विश्नोई का नशा तस्करी की दुनिया में बड़ा खौफ रहा है। सुमता ने अपने कारोबारी प्रतिद्वंद्वियों को कभी सिर उठाकर चलने का मौका नहीं दिया। आधुनिक तरीकों से ड्रग्स तस्करी का जंजाल खड़ा करके मारवाड़ में चर्चित किंवदंतियों की नायिका बनने वाली सुमता विश्नोई अब ज़िन्दगी भर पुलिस की निगरानी में रहेगी। क्योंकि पुलिस अब उसकी हिस्ट्री खोल रही है। सुमता विश्नोई ने प्रेमी राजूराम ईराम के साथ मिलकर चोरी की लग्जरी कारों में जीपीएस लगाकर मध्य प्रदेश, चित्तौडग़ढ़ व भीलवाड़ा से डोडा, पोस्त की तस्करी का नेटवर्क खड़ा किया था। जीपीएस लगी चोरी की फॉरच्यूनर पकड़ में आने पर पुलिस ने सुमता विश्नोई को गिरफ्तार कर यह नेटवर्क तोड़ा था। तब से अब तक उसके खिलाफ मादक पदार्थ तस्करी के चार और फर्ज़ी दस्तावेज़ों से मोबाइल सिम खरीदने के आठ मामले दर्ज हो चुके हैं।

पुलिस की वेबवाइट की मानें, तो जोधपुर कमिश्नरेट के पूर्वी ज़िले में 154 हिस्ट्रीशीटर हैं। जबकि पश्चिमी ज़िले में 157 और जोधपुर ज़िले में 105 हिस्ट्रीशीटर हैं। सीआईडी की बर्खास्त कांस्टेबल मंजू व्यास वर्तमान में एकमात्र महिला हिस्ट्रीशीटर है। एक अन्य महिला सिपाही की भी हिस्ट्री खोली गयी थी; लेकिन उसकी मृत्यु हो चुकी है। राजस्थान में करोड़ों के डोडा, पोस्त की सप्लायर कोई महिला हो सकती है? इस बात पर सहज ही विश्वास भले ही न हो, पर यह सोलह आने सच है। पुलिस के हत्थे चढ़ी सुमता विश्नोई ऐसी ही महिला रही है। जोधपुर वेस्ट के डीसीपी रह चुके समीर कुमार सिंह की मानें तो, प्रदेश में किसी महिला तस्कर से जुड़ा यह पहला इतना बड़ा मामला है। इस मामले में कई बड़े खुलासे होने बाकी हैंं। अलबत्ता यह सच है कि यह पिछले 10 साल से पुलिस की आँखों में सुमता धूल झोंक रही थी। पुलिस काफी समय से इसके पीछे थी, लेकिन बहुत मशक्कत के बाद ही उसे कामयाबी मिल पायी। दिलचस्प बात है कि शहर की सबसे महँगी टाऊनशिप पाश्र्वनाथ सिटी में विलासी जीवन बिताने वाली सुमता विश्नोई जिस सुरक्षा चक्र में रह रही थी, वह अभेद्य था।

उसे अपने फुल प्रूफ सिस्टम पर इतना अधिक भरोसा था कि पुलिस द्वारा चार दिन पहले डोडा, पोस्त से भरी गाड़ी पकडऩे के बाद भी वह फरार नहीं हुई। क्योंकि उसे यकीन था कि पुलिस चाहे कितनी जाँच पड़ताल कर ले, उस तक नहीं पहुँच पाएगी। पुलिस अधिकारी अर्जुन सिंह बताते हैं कि पुलिस जब पूरी तैयारी के साथ उसे गिरफ्तार करने उसके घर पहुँची, तो वह बिना किसी तनाव के अपने घर पर नवरात्रे पूरे होने पर मेहमानों की खातिरदारी में लगी हुई थी। पुलिस ने जब उसे पकड़ा, तो उसने पुलिस से एक ही बात पूछी- ‘आप मुझ तक पहुँचे कैसे?’

दूदानी का खेल

समाजसेवी का मुखौटा पहनकर विराट ड्रग कारोबार खड़ा करने वाले उदयपुर के सुभाष दूदानी बड़े स्तर का नशा तस्कर था। लेकिन डीआरआई के अफसरों की टोली ने उसे एक ही झटके में बेनकाब कर दिया। अफसरों द्वारा दूदानी की गिरफ्तारी ने अंडरवल्र्ड को भी चौंका दिया था। क्योंकि दूदानी डॉन दाऊद इब्राहीम की सरपरस्ती हासिल कर चुका था। डीआईआर के अफसरों की इस कार्रवाई से इस बात का भी खुलासा हुआ कि बीते ज़माने की हीरोईन ममता कुलकर्णी दूदानी की मदद से बॉलीवुड की पार्टियों में ड्रग सप्लाई कर रही थी। अफसरों का तो यहाँ तक दावा था कि ममता कुलकर्णी भी इंटरनेशनल ड्रग्स सिंडिकेट में शामिल थीं।

सुभाष दूदानी की ड्रग तस्करी की कहानी भी बड़ी खौफनाक और दिलचस्प है। उसने अपने कारोबार की शुरुआत फिल्म ‘विकल्प’ के निर्माण से की, लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गयी। अलबत्ता इस फिल्म के ज़रिये उसका परिचय नामचीन फिल्मी हस्तियों से हो गया; ममता कुलकर्णी से भी। ममता ने ही उसका परिचय विकी गोस्वामी से कराया। उस दौरान विकी गोस्वामी जांबिया शिफ्ट हो चुका था और कुछ रसूखदार लोगों की मदद से मैंड्रेक्स बनाने की फैक्ट्री लगाने की फिराक में था; लेकिन बात नहीं बनी। इस बीच पुलिस की निगाहों में आने के बाद फैक्ट्री स्थापित करने का इरादा छोड़कर उसने दुबई में पनाह ले ली। अलबत्ता विकी सिर्फ इतना ही कर सका कि मैंड्रेक्स बनाने की पूरी योजना सुभाष दूदानी के हवाले कर गया। सूत्रों का कहना था कि दूदानी को मैंड्रेक्स की सप्लाई चेन उपलब्ध कराना भी विकी गोस्वामी की ही देन है थी। भले ही ममता कुलकर्णी और विकी गोस्वामी का ठिकाना केन्या में बताया जाता था, लेकिन सूत्रों का कहना है कि अगर दूदानी के कारोबार में निरंतर बरकत हुई थी, तो उसकी वजह विकी और ममता कुलकर्णी के साथ उसका कारोबारी गठजोड़ था। जिस समय दूदानी डीआरआई की गिरफ्त में आया, उस दौरान वह सप्लाई को जाँच एजेंसियों की निगाहों से बचाने के लिए एक नया प्रयोग कर रहा था। ड्रग तस्करी के कारोबार को लेकर दूदानी के तीन ठिकाने बने रहे- मुम्बई, दुबई और उदयपुर। तस्करी और स्थायी निवास होने के कारण मैंड्रेक्स निर्माण के लिहाज़ से उसके लिए उदयपुर सर्वाधिक सुरक्षित था। मैंड्रेक्स बनाने का मशविरा सुभाष दूदानी को दुबई के तस्कर लियोन नाम के शख्स ने दिया था। इस काम में तकनीकी मदद के लिए लियोन ने उसे सीरिया निवासी एक डॉक्टर से भी मिलवाया था। डॉक्टर सुभाष दूदानी के मकसद में काफी मददगार साबित हुआ, जिसने उसे मैंड्रेक्स बनाने का रासायनिक फार्मूला तो दिया ही, साथ ही 10 करोड़ की मशीने लगाने के लिए फाइनेंसर से भी मिलवाया।

रेव पार्टियाँ थीं निशाना

सुभाष दूदानी की गिरफ्तारी के बाद इस बात का खुलासा हुआ कि राजस्थान, खासकर पुष्कर में अक्सर होने वाली रेव पार्टियों में मैंड्रेक्स की सप्लाई भी दूदानी ही करता था। इस रहस्योद्घाटन के बाद पुलिस ने रेव पार्टियों में छापामारी की, लेकिन पुलिस सिर्फ औपचारिक कार्रवाई करके ही रह गयी। उसने पर्यटकों को नशे की सप्लाई के स्रोत खँगालने तक की कोशिश नहीं की।

दूदानी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नशीली दवाओं की तस्करी की हैरान करने वाली लम्बी-चौड़ी चेन का खुलासा किया। उसका नेटवर्क यूके, यूएस और दक्षिणी अफ्रीका समेत कई देशों में फैला हुआ था। हैरानी होती है कि उदयपुर जैसे शान्त शहर से नशे की इतनी बड़ी खेप भारत के विभिन्न इलाकों के अलावा नाइजीरिया और मंगोलिया आदि देशों तक सप्लाई हो रही थी, लेकिन स्थानीय पुलिस को इसकी खबर तक न थी। नशे के धन्धे की बखिया उधेडऩे की मशक्कत में जुटी डीआरआई टीम ने सुभाष दूदानी से सम्पर्क रखने वाले मुम्बई के परमेश्वर व्यास और अतुल म्हात्रे को भी दबोच लिया। सूत्रों के मुताबिक, परमेश्वर व्यास पिछले 20 साल से सुभाष दूदानी का मित्र और वित्तीय व रासायनिक सलाहकार था। म्हात्रे ने पूछताछ में स्वीकार किया कि वह केमिकल इंजीनियर होने के नाते ड्रग्स के निर्माण को लेकर दूदानी को तकनीकी सलाह भी देता था। डीआरआई की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उसने ड्रग्स तस्करी का ट्रांजिट प्वाइंट बनते उदयपुर को समय रहते इन तस्करों से बचा लिया। लेकिन सवाल यह है कि क्या राजस्थान नशे की मदहोश उड़ान से बच गया? क्या उदयपुर में नशा तस्करी रुक गयी? क्या तस्करों के दाँत खट्टे हुए?

काली कमाई का कुबेर

काली कमाई का धन्धा हो और अफसरों से साठगाँठ न हो! ऐसा तो सम्भव नहीं। लेकिन जब इस साठगाँठ का खुलासा होता है, तो चौंकाने वाले खुलासे होते हैं। नारकोटिक्स महकमे के उपायुक्त सहीराम मीणा के चेहरे से नकाब ऐसे ही नोचा गया। दिलचस्प बात है कि जिस सुबह सहीराम अपने स्टॉफ को ईमानदारी का पाठ पढ़ाकर घर लौटा था, उसी दोपहर को भ्रष्टाचार निरोधक महकमे की टोली ने उसे रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ लिया।

सहीराम अच्छा रहन-सहन, अच्छा खान-पान और अच्छी कहानियाँ पसन्द करता था। लेकिन उसका दुर्भाग्य ही रहा कि एक दिन उसने अपने ही बारे में बुरी और डरावनी कहानी पढ़ी। यह उसके रसूख का अन्त था। सहीराम मुखिया बनाने के खेल में ट्रेप हुआ। दरअसल, यह एक विभागीय व्यवस्था है। इसमें अफीम उत्पादक, काश्तकारों और महकमे के बीच संवाद बनाये रखने के लिए मुखिया की तैनाती की जाती है। राजस्थान में तैनात किये जाने वाले 1800 मुखिया की तकदीर लिखने का काम सहीराम की मुट्ठी में था।

मुखिया बनाने के खेल में लाखों को लेन-देन होता है। अफीम की खेती का सबसे बड़ा रहस्य है- ‘अफीम की खेती के लिए सरकार जितनी भूमि का निर्धारण करती है, असल में उत्पादन उससे ज़्यादा बड़े रकबे में होता है। निर्धारित भूमि में पैदा हुई फसल तो समर्थन मूल्य पर बेच दी जाती है। लेकिन गैर-निर्धारित रकबे में उत्पादित फसल की कालाबाज़ारी होती है। इससे मनमानी काली कमाई होती है। यह सब मुखिया की नज़र-ए-इनायत पर होता है। यहीं से ड्रग्स का धन्धा फलता-फूलता है। भारत में कर सुधारों पर पीएचडी कर चुका डॉ. सहीराम मीणा आदिम जाती विकास संघ, राष्ट्रीय बहुजन सामाजिक परिसंघ सरीखी कोई एक दर्जन सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ा हुआ रहा है। नारकोटिक्स महकमे में आने से पहले सहीराम करीब 15 साल मुम्बई में कस्टम में भी रहा। सूत्रों का कहना है कि अपनी हैसियत से उसने कई नामचीन अभिनेत्रियों से नज़दीकी रिश्ते बना लिये थे।

इतनी भारी-भरकम रकम का जुगाड़ भी उसने राजनीति में पैठ बनाने के लिए किया था। सहीराम ने घूसखोरी में जितनी अथाह दौलत कमायी है, उसने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं।  सहीराम रोज़ाना 10 लाख की रकम बनाता था और उसे जयपुर स्थित घर में रखने के लिए सप्ताह में दो बार वहाँ जाता था। अफीम के खेतों में रिश्वत की फसल उगाने वाले नोरकोटिक्स महकमे के उपायुक्त सहीराम मीणा के ट्रेप की कार्रवाई एसीबी के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई है। ट्रेप से एक दिन पहले सहीराम जयपुर में भाजपा के एक बड़े नेता से मिला था। उसकी भाजपा नेता से मुलाकात लोकसभा चुनाव से टिकट लेने के लिए थी। उसने डांग क्षेत्र से चुनाव लडऩे की इच्छा जतायी थी।

सहीराम की बेटी सोनिका भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी है और फिलहाल उत्तराखंड के टिहरी ज़िले की कलक्टर है। उसने अपने पिता से कोई भी रिश्ता रखने से इन्कार कर दिया है। विधानसभा चुनावों के दौरान सख्ती और वाहनों की जाँच के चलते उसने कुछ दिनों के लिए रुपयों का जयपुर ले जाना बन्द कर दिया था। अफीम की खेती में रिश्वत की फसल उगाने वाला सहीराम अफीम काश्तकारों से एक बार की पैदावार में पाँच दफा अलग अलग काम की रिश्वत लेता था। एक किसान फसल की पैदावार के दौरान 6 बार 15 हज़ार से लेकर डेढ़ लाख रुपये तक की रिश्वत देता था। किसानों को अफीम की खेती का लाइसेंस लेने के लिए 15 हज़ार रुपये से एक लाख तक की रिश्वत देनी पड़ती है। हालाँकि एसीबी अफसर उससे तीन अरब से ज़्यादा की सम्पत्ति बरामद कर चुके हैं, लेकिन बावजूद इसके वह लगातार कहता रहा कि-‘मुझे ज़बरदस्ती फँसाया गया है।’ नंदलाल को मुखिया बनने के मामले में अड़चन डालने वाले चित्तौडग़ढ़ के ज़िला अफीम अधिकारी सुब्रह्मण्यम द्वारा अचानक एच्छिक सेवानिवृत्ति माँग लेना भी गहरे रहस्य की तरफ इशारा कर रहा है। एसीबी के अफसरों को कहना था कि ज़रूर दाल में कुछ काला है। एसीबी को तलाशी के दौरान सहीराम मीणा की जन्मपत्री भी मिली है, जो कई तरह से चौंकाती है। पूछताछ में सहीराम ने बताया- ‘एक पंडितजी ने यह जन्मपत्री बनायी थी। उन्होंने लिखा था कि आप नेता बनोगे और छा जाओगे। इसी आधार पर मैंने पैसे जुटाने शुरू कर दिये थे।’ एसीबी अफसरों ने इस पर कहा- ‘पंडित जी ने गलत नहीं कहा था। वाकई तुम छा गये हो। लेकिन राजनेता बनकर नहीं घूसखोर बनकर।’

देश में क्यों कम हो रहे तेंदुए?

वैज्ञानिकों ने जनसंख्या की संरचना और जनसांख्यिकीय गिरावट के पैटर्न की पड़ताल करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं के आनुवंशिक आँकड़ों के नमूनों का उपयोग किया है। वैज्ञानिकों ने मल के नमूने एकत्र किये और 13 माइक्रोसैटेलाइट मार्करों के एक पैनल का उपयोग करके 56 अनूठी पहचान कीं, इनमें से 143 तेंदुओं के बारे में पहले से ही डाटा उपलब्ध था। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि तेंदुओं को भी भारत में बाघों की तरह ही संरक्षण देने की आवश्यकता है।

यह अध्ययन वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की सुप्रिया भट्ट, सुवनकर बिस्वास, डॉ. बिवाश पांडव, डॉ. सम्राट मोंडोल और सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ स्टडीज से डॉ. कृति करनाथ ने किया। अध्ययन में जनसंख्या संरचना की जाँच करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं के आनुवांशिक डाटा के नमूनों का उपयोग किया गया। इसमें प्रत्येक पहचाने गये उप-जनसंख्या के जनसांख्यिकीय इतिहास की जाँच की गयी और देशव्यापी स्थानीय विलुप्त होने की सम्भावनाओं के साथ आनुवंशिक गिरावट के विश्लेषण की तुलना भी की गयी।

अध्ययन के परिणामों से देश भर में माइक्रोसैटेलाइट के ज़रिये किये अघ्ययन में से खुलासा हुआ है कि सम्भवत: 120 से 200 साल पहले की तुलना में 75-90 फीसदी तेंदुए कम हो गये हैं। अध्ययन से पता चलता है कि तेंदुओं की भी भारत में बाघों की तरह संरक्षण आज की माँग है। इसमें इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि ऐसी प्रजातियाँ दुनिया में कम ही बची हैं और इनकी घटती आबादी को देखते हुए बचाव को लेकर विशेष महत्त्व दिया जाना ज़रूरी हो गया है।

तेंदुओं की घटती तादाद के सम्भावित कारणों में से जलवायु परिवर्तन के चलते प्राकृतिक और मानवजनित दबाव, कम होते जंगल, शिकार न मिल पाना, वन्यजीव व्यापार और मानव-वन्यजीव संघर्ष, जंगल का क्षेत्र भी दिन-ब-दिन सिकुड़ता जा रहा है, इससे तेज़ी से ऐसी प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं और कुछ तो विलुप्त भी हो गयी हैं। फिर भी वर्तमान में इनकी संख्या को देखें तो इनके रहने की जगह में कमी आयी है। खाने के लिए शिकार नहीं मिल रहे हैं। मानव के साथ संघर्ष और पिछली सदी में अवैध शिकार के कारण इनकी तादाद में तेज़ी से गिरावट दर्ज की गयी है।

तेंदुओं के मामले में मौज़ूदा स्थिति का विश्लेषण बताता है कि अफ्रीका में इसकी प्रजातियों का नुकसान 48-67 फीसदी हुआ है, जबकि एशिया एशिया में 83-87 फीसदी तक का खामियाज़े का अनुमान लगाया गया है। इसमें सुझाया गया है कि शीर्ष 10 बड़े मांसाहारी प्रजातियाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई हैं। इसने अंतर्राष्ट्रीय संघ द्वारा प्रकृति के संरक्षण के लिए इस प्रजाति की स्थिति को संकट से लेकर असुरक्षित तक की श्रेणी मेें बदल दिया गया है। लगातार घटती संख्या और सीमाओं के बावजूद तेंदुओं का मानव बस्तियों की ओर नज़र आना अलग बात है। इससे उनकी तादाद बढऩे की बात कहना सही नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं का अवैध शिकार और तमाम खामियों की वजह से इनकी संख्या पर खतरा बढ़ गया है।

वैज्ञानिकों ने भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं की आनुवंशिक भिन्नता, जनसंख्या संरचना और जनसांख्यिकीय इतिहास का आकलन करने के लिए मल के नमूनों का उपयोग किया। अध्ययन में विशेष रूप से यह पड़ताल (1) सीमा की जाँच की जो भारतीय उपमहाद्वीप में तेंदुओं में आनुवंशिक भिन्नता की सीमा की जाँच; (2) देश में तेंदुओं की जनसंख्या संरचना; (3) जनसंख्या के आकार में हाल के बदलावों का आकलन और अंत में (4) तेंदुओं के जनसांख्यिकीय इतिहास की देशव्यापी स्थानीय विलुप्त होने की सम्भावनाओं के साथ आनुवंशिक गिरावट के विश्लेषण की तुलना। इनकी तादाद और जनसांख्यिकी का पता लगाने के लिए अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न तेंदुओं के आवासों से आनुवंशिक नमूने हासिल करना अहम हिस्सा रहा। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने भारतीय उपमहाद्वीप में एकत्र किये गये गैर-आक्रामक नमूनों से तेंदुओं के आनुवंशिक डाटा का उपयोग किया। उन्होंने 2016-2018 के बीच उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार के उत्तर-भारतीय राज्यों को कवर करते हुए तराई-आर्क वाले क्षेत्र (टीएएल) के भारतीय हिस्से में विस्तृत सर्वेक्षण किया।

8 फरवरी, 2020 को रणथंभौर नेशनल पार्क ने अश्विनी कुमार सिंह का ‘भारत में तेंदुओं की मौतों के रहस्य का पता लगाने’ शीर्षक से एक विश्लेषण प्रकाशित किया था, इसमें कहा गया कि भारतीय तेंदुए अपनी घटती तादाद के कारण आईयूसीएन की लाल सूची (रेड लिस्ट)में सूचीबद्ध हैं। क्योंकि यह प्रजाति कम होती जा रही है।

18वीं शताब्दी में दुनिया को इस पैंथर जीव के बारे में पता चला था, जो किसी भी अन्य जानवर की तुलना में तेज़ गति से फर्राटा भर सकता था। तेंदुए भारत, नेपाल, पाकिस्तान और भूटान तक में पाये जाते हैं। ये उष्णकटिबंधीय वर्षावन, समशीतोष्ण वनों, शुष्क पर्णपाती वन और सुंदरवन व मैंग्रोव जंगल में पाये जाते हैं।

भारत में 2015 की जनगणना के अनुसार, तेंदुओं की तादाद करीब 12,000-14,000 थी। 2018 में किये गये सर्वेक्षण किया गया, पर उसके आँकड़े अभी जारी नहीं किये गये हैं। पिछली जनगणना में मध्य प्रदेश को सबसे ज़्यादा तेंदुओं की आबादी वाला राज्य बताया गया था, उसके बाद कर्नाटक और महाराष्ट्र का स्थान है।

राज्य     जनसंख्या

मध्य प्रदेश          1,817

कर्नाटक 1,129

महाराष्ट्र 905

छत्तीसगढ़          846

तमिलनाडु          815

उत्तराखंड          703

केरल    472

ओडिशा 345

आंध्र प्रदेश         343

उत्तर प्रदेश         194

गोवा      71

बिहार    32

झारखंड 29

2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया कि मध्य प्रदेश में तेंदुओं की आबादी 2015 में 1817 से बढ़कर 2018 में 2000 से अधिक हो गयी। कर्नाटक में तेंदुओं की तादाद 2500 से अधिक हो गयी। हालाँकि, केंद्र के वैज्ञानिकों ने वन्यजीव अध्ययन (सीडब्ल्यूएस इंडिया) और भारतीय वन्यजीव संस्थान के लिए अध्ययन किया और पाया कि सच्चाई यह है कि भारत में तेंदुओं की आबादी में 75-90 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी है।

क्यों मर रहे हैं तेंदुए?

तेंदुओं की मौतों को लेकर वन्य जीव प्रेमी और संरक्षणवादी चिन्तित हैं। 2018 में ही भारत ने कई कारणों से 460 तेंदुओं को खो दिया, इनमें अवैध शिकार, ग्रामीणों द्वारा हमले और प्राकृतिक मौतें शामिल हैं।

राज्य     तेंदुओं की मौत

उत्तराखंड          93

महाराष्ट्र 90

राजस्थान           46

मध्य प्रदेश          37

उत्तर प्रदेश         27

कर्नाटक 24

हिमाचल प्रदेश    23

महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा तेंदुओं की मौत के मामले सामने आये, इसके बाद महाराष्ट्र और राजस्थान का नम्बर है।

भारत में तेंदुओं की मौत की कई कारण हैं। कुछ कारण निम्न हैं-

वजह     कुल मौतें

शिकार  155

दुर्घटना  74

ग्रामीणों द्वारा हमले          29

वन विभाग की कार्रवाई    9

प्राकृतिक कारण और अन्य कारण  194

तेंदुआ सबसे ज़्यादा नज़रअंदाज़ किया जाने वाला जंगली पशु (बिग कैट) है। राजसी होने के साथ-साथ लुप्तप्राय होने के बावजूद तेंदुओं के संरक्षण की नीति लागू करने पर खास ध्यान नहीं दिया गया है। बाघ की मौत की खबरें हर अखबार और मीडिया संस्थानों में प्रमुखता से पहले पेज पर छपती हैं, लेकिन तेंदुओं की मौतों पर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। अब भी ग्रामीणों द्वारा हमला किये जाने से अपने प्राकृतिक आवास में शिकार के चलते तेंदुओं को हर तरफ से खतरे का सामना करना पड़ता है। भारत में 12,000-14,000 तेंदुओं में से लगभग 8,000 के टाइगर रिज़र्व के आसपास होने की जानकारी मिली थी। तेंदुओं की मौतों का चलन नया नहीं है, लेकिन इनकी मौतों का आँकड़ा भी एक सुसंगत तरीके से सामने नहीं रखा जाता है। पिछले पाँच वर्षों में भारत में सबसे ज़्यादा तेंदुओं की मौत हुई है।

वर्ष        तेंदुओं की मौत

2018    460

2017    431

2016    440

2015    339

2014    331

वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के जारी आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में तेंदुओं की मौतें बढ़ी हैं। जब हम भारत में तेंदुओं की मौत के आँकड़ों पर विचार करते हैं, तो एक बात बिल्कुल साफ है कि तेंदुए हमारी प्राथमिक चिन्ता में नहीं हैं। भारत में तेंदुओं के संरक्षण के लिए आगे की नीतियों पर चर्चा करने से पहले, यहाँ इनकी मौतों के कारणों पर चर्चा करते हैं।

अवैध शिकार

दुनिया भर में संरक्षणवादियों के लिए सबसे बड़ी चिन्ताओं में से एक- ऐसे पशुओं को बचाने के लिए अवैध शिकार हमेशा बड़ी चुनौती रही है। हालाँकि, गैर-कानूनी घोषित होने के बावजूद हर इलाके को देखें, तो जंगलों में अवैध शिकार ज़्यादा किये गये हैं। अकेले वर्ष 2018 में ही भारत में 155 तेंदुए मारे गये या शिकार किये गये।

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 में लुप्तप्राय जानवरों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगाये जाने के साथ ही यह एक दंडनीय अपराध है। हालाँकि, अवैध शिकार के मामलों में सज़ा के मामलों में कम दर के चलते इस अधिनियम को उदार माना गया है। अधिकारियों पर कार्रवाई करने की असंवेदनशीलता के साथ अकुशल अभियोजन को जोड़ा है, जिससे शिकारी आज़ाद घूमते हैं। जबकि गैंडा और बाघ जैसे पशुओं को खास तवज्जो दी जाती है, जिससे वे बचे हुए हैं। बाघ जैसे जानवर विशेष अहमियत मिलती है; लेकिन तेंदुओं के अवैध शिकार के मामले समाचारों की सुॢखयाँ नहीं बन पाती हैं। तेंदुओं को कोई राजनीतिक संरक्षण नहीं मिला है और अक्सर शिकारियों को रोकने के लिए सख्त दिशा-निर्देशों को लागू करने को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

ग्रामीणों के हमले

वन्यजीव संरक्षण पार्क और अभयारण्य आसपास स्थानीय गाँवों के सहयोग पर काफी निर्भरता रहती है। ग्रामीण वन अधिकारियों की आँख और कान के रूप में काम करते हैं। इसके अलावा, स्थानीय ग्रामीणों की मदद से अधिकारी शिकारियों को रोक सकते हैं। हालाँकि एक समस्या वन्यजीव संरक्षणवादियों के लिए समस्या पैदा करती रही है। मानव-पशु संघर्ष बाधा है। वर्ष 2011-2017 के बीच केवल महाराष्ट्र में ही 2 लाख से अधिक मानव-पशु संघर्ष हुए हैं।

पार्क जहाँ जंगली जानवर रहते हैं, आमतौर पर गाँवों को उजाड़कर तैयार किये जाते हैं। हालाँकि, ग्रामीणों को अन्य स्थानों पर शिफ्ट कर दिया जाता है, जिनमें से कुछ वन्यजीव अभयारण्यों के बेहद करीब होते हैं। इसके अलावा बफर ज़ोन में जानवरों की उपस्थिति और फिर आस-पास के गाँवों में प्रवास के चलते पशुओं और मनुष्य दोनों के लिए घातक खतरे पैदा हो गये हैं। अभयारण्यों और रिजर्व में पहुँचने वाले लोगों का सामना पशुओं से हो जाता है, जिसके चलते जानवर उन्हें निशाना बनाते हैं। बाद में ग्रामीण बदला लेने के लिए जंगली जानवरों को मार डालते हैं। ऐसा पूरे देश में एक निरंतर चलन रहा है। कुछ मामलों में जानवर पास के गाँवों में भटककर पहुँच जाते हैं और आत्मरक्षा में ग्रामीण जानवर को मार डालते हैं।

वन विभाग की कार्रवाई

यह एक व्यापक बहस का मुद्दा है, क्योंकि इसका दायरा बड़ा है। वन विभाग के हस्तक्षेप के चलते पशुओं को मारने या पकड़े जाने को लेकर भी चर्चा का विषय है। मौतों की वैधता का तर्क भी दिया जा सकता है और जबकि अधिकांश शुरुआती चरण में वन विभाग के इरादों पर सवाल उठाएँगे, लेकिन कई मामलों में हस्तक्षेप भी ज़रूरी होता है। 2018 में वन विभाग की कार्रवाई के कारण 9 मौतें हुई हैं।

अन्य कारण

जबकि हम इन राजसी जंगली जानवरों को प्राकृतिक आवास प्रदान करने का लक्ष्य रखते हैं, इसके लिए पैसा भी खर्च किया जाता है। एक प्राकृतिक आवास में प्रकृति का चक्र चलता है, जिसका मतलब यह होता है कि जंगलों का प्राकृतिक क्रम खास जानवरों के जीवन चक्र को निर्धारित करेगा। 2018 में प्राकृतिक कारणों या कुछ अन्य कारणों से 194 मौतें हुईं।

इसमें प्राकृतिक रूप से होने वाली मौतों में अधिक उम्र का हो जाने के कारण मृत्यु, बीमारी के कारण मौत और वर्चस्व की लड़ाई भी शामिल हैं। जबकि हममें से कई ने प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन का हवाला देते हुए इसे अपनाया है। कई संरक्षणवादी वन विभाग के प्रयासों पर सवाल उठाते हैं और वे इस तरह की मौतों को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते हैं। तथ्य यह है कि प्राकृतिक कारण और अन्य छोटे कारक भी भारत में अनेक तेंदुओं की मौतों की वजह बनते हैं।

ये भारत में तेंदुओं की मौतों का कारण हैं, पर यह सवाल उठता है कि देश में इतनी अधिक संख्या में तेंदुओं की मौत को रोकने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

दुर्घटनाएँ

हालाँकि यह आश्चर्य से कम नहीं है कि तेंदुओं की मौत की प्रमुख वजहों में से एक दुर्घटना भी है।  अकेले 2018 में दुर्घटनाओं की वजह से 74 तेंदुओं ने अपनी जान गँवायी। सामान्य सड़क हादसों से सख्त यातायात कानून लागू करके रोका जा सकता है। इनमें से अधिकांश दुर्घटनाएँ राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के अन्दर होती हैं। ऐसी दुर्घटनाएँ होने पर वहाँ के बुनियादी ढाँचे को दोषी ठहराया जाता है। हम वन्यजीवों के लिए प्राकृतिक आवास बनाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि ऐसी जगह पर लोगों की मौज़ूदगी ने हमेशा वन्यजीवों के लिए खतरा पैदा किया है। बिजली के खम्भे, बाड़, रेलवे ट्रैक, अभयारण्यों के भीतर की सड़क जैसी संरचनाएँ ऐसे हादसों की मुख्य केंद्र बनती हैं।

पिछले साल, महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में रेलवे ट्रैक पार करने के दौरान एक ट्रेन से बाघ के तीन शावक कट गये थे। पिछले साल ओडिशा में बिजली के लटकते तारों की चपेट में आने से सात हाथियों की मौत हो गयी थी। यह घटना ओडिशा के ढेंकनाल जंगल में हुई थी।

बचाव के उपाय

ऐसे जानवरों की मौतों की रोकथाम के लिए नीतियों में कुछ बदलाव के साथ मौज़ूदा प्रावधानों में का सख्ती से क्रियान्ववयन करने की आवश्यकता है। सबसे महत्त्वपूर्ण है अवैध शिकार के लिए कड़ी सज़ा हो। यह पहला आवश्यक कदम है, क्योंकि अवैध शिकार और शिकार के कारण तेंदुओं की एक तिहाई मौतें होती हैं। सख्त सज़ा और बेहतर सज़ा दर से शिकारियों में खौफ पैदा किया जा सकता है।

अवैध शिकार के मामलों में सज़ा की दर महज़ 5 फीसदी ही है, जबकि सज़ा को एक दुर्लभ विसंगति माना जाता है। जाँच एजेंसियों को बेहतर बुनियादी ढाँचा प्रदान करना और बेहतर अभियोजन सुनिश्चित करके सज़ा दर को बढ़ाया जा सकता है। आज शिकारियों को कानून का खौफ नहीं है, इसके पीछे सज़ा दर का कम होना है। इसलिए सज़ा प्रक्रिया में सुधार, नियत प्रक्रिया के साथ शिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके बचाव किया जा सकता है। लीनियर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काबू पाने की भी ज़रूरत है। लीनियर इन्फ्रास्ट्रक्चर का मतलब हाईवे, रेलवे लाइन, बिजली के तार व अन्य बुनियादी ढाँचे से है, जो जानवरों के प्राकृतिक आवास से होकर गुज़रता है। इन पर ज़रूरी उपाय अपनाकर ऐसी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। प्राकृतिक गलियारों का निर्माण प्रस्तावित किया गया है। ये गलियारे एलिवेटेड कॉरिडोर मानव आबादी को जोडऩे के लिए वन क्षेत्र में सीधे सम्पर्क के बिना तैयार किये जाएँगे। इसके अलावा नये रेलवे और सड़क की परियोजनाएँ ऐसे तैयार की जा रही हैं, ताकि इन प्राकृतिक गलियारों से पशुओं को किसी तरह का नुकसान न हो।

गाँवों का पुनर्वास और उपयुक्त मुआवज़ा प्रदान करना साथ-साथ चल सकता है। वे गाँव जो बफर ज़ोन के अंतर्गत आते हैं या जो वन्यजीव अभयारण्यों के बेहद करीब हैं, उन्हें मानव-पशु संघर्ष को रोकने के लिए अन्य जगह पर स्थानांतरित किया जाना चाहिए। इसके लिए उचित मुआवज़ा प्रदान करके ग्रामीणों को स्थानांतरित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। साथ ही, बफर ज़ोन का विस्तार करके भी इस तरह के होने वाले संघर्षों से बचा जा सकता है। यदि तेंदुओं को ट्रैकिंग कॉलर के माध्यम से लाइव समय में ट्रैक किया जाए, तो उनकी सेहत पर नज़र रखी जा सकती है। अगर कोई तेंदुआ पास की मानव बस्ती में पहुँच जाता है, वन अधिकारी इसे रोक सकते हैं या ग्रामीणों को चेतावनी जारी कर सकते हैं। इसके अलावा ट्रैकिंग के ज़रिये तेंदुए के बीमार होने पर उसके उचित इलाज की व्यवस्था कर सकते हैं।

तेंदुओं का गाँवों में पहुँचने का प्रमुख कारण अभयारण्यों में लोगों की ज़्यादा भीड़ पहुँचना है। इससे शिकार और क्षेत्र के दायरे को लेकर विवाद की स्थिति पैदा होती है। तेंदुओं के लिए उचित नियोजन के ज़रिये यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कोई भी प्राकृतिक आवास बिग कैट से भरा नहीं है। मानव-पशु संघर्ष को रोकने और स्थानीय लोगों को सशक्त बनाने का एक तरीका यह है कि ऐसे संरक्षित क्षेत्रों के आसपास इकोटूरिज्म को बढ़ावा दिया जाए। इससे स्थानीय लोगों को भी संरक्षण के प्रयासों में सक्रिय योगदान करने की प्रेरणा मिलेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण उपायों में से एक है- जिस पर हर संरक्षणवादी का ध्यान केंद्रित है, वह यह कि तेंदुओं के संरक्षण के लिए एक उचित नीति तैयार की जाए। इसके अलावा हमें तेंदुओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में भी बदलाव लाना होगा। हालाँकि उनकी अन्य बिग कैट की तुलना में अधिक संख्या हो सकती है, लेकिन यह इस राजसी जानवर के प्रति ढीले रवैये को सही नहीं ठहराता है।

हालाँकि, समाचार और रिपोर्टों से पता चलता है कि तेंदुओं की आबादी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है। इनकी मौतों में वृद्धि हमें आश्चर्यचकित करती है, राजसी प्राणी को भविष्य में कैसे बचाया जा सकता है? जब हमें खुशखबरी मिलती है, तो वन्यजीव संरक्षण की चल रही लड़ाई के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकते हैं। कुछ समस्याएँ ज़रूर हैं, लेकिन सबका समाधान भी है, इसलिए भारत में वन्यजीवों के बेहतरी के लिए समाधान पर काम करने का लक्ष्य बनाएँ।

समय से पहले सयाने हो रहे बच्चे

एक समय था, जब बच्चों को सबसे पहले घर में रिश्तों की पहचान बतायी जाती थी; हाथ जोड़कर नमस्ते, प्रणाम और चरण स्पर्श की तहज़ीब सिखायी जाती थी। स्कूल जाते-जाते बच्चा इतना जान जाता था कि बड़ों के सामने किसी भी तरह की गलती नहीं होनी चाहिए और एक डर रहता था उनके अन्दर कि कोई डाँट न दे; कोई मार न दे। अब ज़माना बदल गया है। अब बच्चा एक साल का भी नहीं हो पाता उसे हम हाय-हेलो सिखाते हैं। रिश्तों के नाम पर घर के चन्द लोगों का ही उससे परिचय कराते हैं और पैर छूना, नमस्ते, प्रणाम तो जैसे बच्चों के लिए हम छूत की बीमारी समझते हैं। बच्चा तीन साल का भी नहीं होता, उसे किड्स स्कूल में भेज देते हैं। फिर नर्सरी में, उसके बाद केजी में और जब तक वह पढऩे लायक हो पाता है, उसके कन्धों पर तीन-चार किलो का बस्ता लाद देते हैं। हम बच्चे को माँ को मॉम या मामा सिखाने लगे हैं और पिता को डैड, वह भी बिना यह सोचे कि इन शब्दों का अर्थ क्या है? इससे इतर भी एक दुर्भाग्य की बात यह है कि उसे हम एक साल का होते-होते मोबाइल से भी परिचित कराने लगते हैं। टीवी है ही, फ्रिज भी है ही, बच्चों को नुकसान पहुँचाने के लिए। हम यह नहीं कह रहे कि बच्चे इस आधुनिक युग में पिछड़े रहें, लेकिन उन्हें इन उपकरणों से होने वाली हानियों से तो बचा सकते हैं। हालाँकि, आजकल के अत्याधुनिक उपकरणों से बच्चे काफी कुछ सीख भी रहे हैं, जो ज़रूरी है। हम यह भी कह सकते हैं कि आजकल के बच्चे उम्र से पहले ही सयाने हो रहे हैं। तो क्या हम यह मान लें कि अगर बच्चों को जन्म के कुछ ही समय बाद से इन उपकरणों से परिचित नहीं कराएँगे, तो वे होशियार नहीं होंगे। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है।

पढ़ाई के बोझ के साथ बढ़ रहा तनाव

आजकल के बच्चों में न केवल पढ़ाई का बोझ बढ़ रहा है, बल्कि बस्ते के बढ़ते बोझ के साथ तनाव भी बढ़ रहा है। ऊपर से आजकल 100 प्रतिशत नम्बर लाने का तनाव भी बच्चों पर हावी होता जा रहा है। लेकिन इससे क्या हासिल हो रहा है? क्या आज के बच्चे स्वस्थ भी रह पा रहे हैं? क्या ऐसे में उनकी शारीरिक ग्रोथ ठीक से हो पा रही है? यहाँ तक कि अनेक बच्चों की तो बचपन से ही आँखें कमज़ोर होती हैं। उन्हें खेलने की उम्र में ही बस्ते का बोझ और पढ़ाई का तनाव एक तरह से खोखला करने लगता है। भारत में बच्चों को इस बोझ और तनाव से बचाना आज बहुत ज़रूरी है, अन्यथा यह भविष्य की पीढिय़ों के लिए ठीक नहीं रहेगा।

तनाव से घट रही उम्र 

बुजुर्ग बताते हैं कि उनके ज़माने में बच्चा जब 8-10 साल के हो जाता था, तब वह पहली कक्षा में पढऩे जाता था। यह बात आज भी जापान में लागू होती है। वहाँ 8 साल से पहले किसी बच्चे को स्कूल नहीं भेजा जाता। यही कारण है कि वहाँ बुढ़ापे की मृत्यु दर औततन 95 साल है। वहीं, भारत में बुढ़ापे की मृत्यु दर 65 से 70 साल है। आपने कई बार सुना होगा कि पहले के हमारे बुजुर्ग 100 साल से भी अधिक उम्र तक जीते थे। तो क्या यह मान लिया जाए कि आठ साल के बाद पढ़ाई का बोझ बच्चों पर डालने से ज़िन्दगी लम्बी होगी? यह बात अभी तक किसी भी वैज्ञानिक या मनोचिकित्सक ने दावे से तो नहीं कही है, लेकिन यह ज़रूर कहा है कि कम उम्र में दिमाग पर ज़ोर पडऩे से अनेक रोग होने के साथ-साथ शारीरिक विकास में अवरोध पैदा होता है।

कम उम्र के जीनियस बच्चे

आपने हरियाणा के झज्जर ज़िले के कौटिल्य बच्चे का नाम तो सुना ही होगा। यह बच्चे का दिमाग छ: साल में ही इतना तेज़ था कि यह गूगल से पहले हर सवाल का जवाब देने में सक्षम पाया गया। इसी तरह बिहार का एक बच्चा और एक बच्ची पिछले साल सुॢखयों में आये। इन बच्चों को भी अनेक सवालों के जवाब ऐसे रटे हुए हैं, जैसे कोई आईएएस की तैयारी करने वाले किसी विद्यार्थी को रटे होते हैं। सोशल मीडिया पर आये दिन ऐसे अनेक बच्चों के वीडियो आ रहे हैं, जो किसी को भी हैरत में डाल सकते हैं। दरअसल, एक तरफ जो सॉफ्टवेयर और एप नुकसानदायक साबित हो सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ इन सॉफ्टवेयर और एप से बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है। इसके लिए हमें बच्चों की मदद करनी होगी। तब बच्चे न केवल काफी ज्ञान वाले और क्षमता से अधिक योग्य हो सकते हैं। इसे हम कह सकते हैं कि उम्र से पहले सयाने हो सकते हैं। बड़ी परीक्षा पास कर सकते हैं। किसी की मदद कर सकते हैं। किसी को रास्ता दिखा सकते हैं। यहाँ तक कि बड़ों से भी बेहतर मशविरे दे सकते हैं। हाल ही में अमेरिका में एक 9 साल के बच्चे ने अपने से छ: साल छोटे अपने चचेरे भाई की जान बचाकर सबको अचम्भित कर दिया। इस बच्चे ने यूट्यूब से जान बचाने की तकनीक सीखी थी। इसी तरह वैंकुवर के फ्रैंकलिन एलीमेंट्री स्कूल में पढ़ रहा दूसरी कक्षा का बाल छात्र केओनी चिंग अपने दोस्तों के लन्च का खर्च उठाता है। आठ साल के इस बच्चे की पूरी दुनिया में तारीफ हो रही है।

बच्चों पर स्मार्टफोन और टैबलेट

मीडिया रेगुलेटर ऑफकॉम ने अपनी सालाना रिपोर्ट ‘द एज ऑफ डिजिटल इंडिपेंडेंस’ में बताया है कि ब्रिटेन में साल 2019 में 9 से 10 साल के अपना स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ 10 साल की उम्र के 50 फीसदी बच्चे स्मार्टफोन का इस्तेमाल करते हैं। इतना ही नहीं, ब्रिटेन में महज़ तीन से चार साल के 24 फीसदी बच्चों के पास टैबलेट हैं। इनमें से 15 फीसदी बच्चे टैबलेट को बिस्तर पर इस्तेमाल करते-करते सोते हैं। यह बच्चे देर रात तक जागने के आदी होते जा रहे हैं। भारत की बात करें, तो यहाँ 12 साल से कम उम्र के 16 फीसदी बच्चों के पास फोन हैं, जिनमें तकरीबन 11 फीसदी के पास स्मार्ट फोन हैं। वहीं तकरीबन 70 फीसदी बच्चे अपने अभिभावकों का फोन इस्तेमाल करने की कोशिश में रहते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 10 साल से अधिक उम्र के अधिकतर बच्चे स्मार्ट फोन का इस्तेमाल सोशल मीडिया के लिए करते हैं। जबकि 18 फीसदी बच्चे सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।

इंटरनेट के नुकसान और फायदे

यह बात कई बार उठायी जा चुकी है कि बच्चों के द्वारा इंटरनेट के इस्तेमाल पर तब तक प्रतिबन्ध होना चाहिए, जब तक कि उन्हें इसके इस्तेमाल की समझ नहीं आ जाती। लेकिन यह बात सिर्फ कही जाती रही है, इसके लिए उपाय न तो अभी तक भारत सरकार ने किये हैं और न ही यहाँ की किसी राज्य सरकार ने। लेकिन जितनी जल्दी हो सके, इस तरह का कोई कानून बनना चाहिए। हाल ही में संसद में बच्चों को पोर्नोग्राफी से दूर रखने की बात उठी। इसके लिए कई सुझाव भी दिये गये, लेकिन अभी तक अश्लील सामग्री बच्चों की पहुँच से दूर नहीं की गयी है। भले ही इंटरनेट पर बहुत कुछ ऐसा है, जो आपको बच्चों को दुनिया का जीनियस बच्चा बना सकता है, लेकिन इसके इतर बहुत कुछ ऐसा भी है, जो बच्चों का भविष्य बर्बाद भी कर सकता है।

जैसा कि सभी जानते हैं कि आजकल के माता-पिता बच्चों को न तो बहुत समय दे पाते हैं और न ही उन पर ठीक से नज़र रख पाते हैं। ऐसे में मुमकिन है कि आपका बच्चा बिगड़ रहा हो! क्योंकि बचपन में गलत चीज़ें बहुत जल्दी असर करती हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि सरकार के अलावा लोगों को भी अपने-अपने बच्चों की पहुँच से अश्लील सामग्री को दूर रखने की कोशिश करनी होगी, ताकि वे उम्र से पहले गलत तरीके से सयाने न हों। अगर माँ-बाप, अध्यापक और दूसरे बड़े लोग बच्चों को इंटरनेट का सही इस्तेमाल करना सिखाएँ, तो बच्चे इंटरनेट से घर बैठे अपने ज्ञान को बढ़ाकर दुनिया भर में प्रसिद्धि पाने के साथ-साथ पैसा भी कमा सकते हैं। लेकिन इसके लिए हमें बच्चों को इंटरनेट के सही इस्तेमाल की सीख देनी होगी।

बच्चों की रुचि

इंटरनेट पर किस काम में कितने बच्चों की रहती है रुचि? इस बात का खुलासा 2019 में हुई एक सर्वे रिपोर्ट में हुआ है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में 80 फीसदी बच्चे वीडियो ऑन डिमांड देखने में रुचि रखने लगे हैं। रिपोर्ट में इसे बच्चों के लिए खतरनाक भी बताया गया है। वहीं, व्हाट्सअप में रुचि रखने वाले बच्चों की संख्या 62 फीसदी है, जो हमें चौंकाने के लिए काफी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 5 से 15 साल की उम्र की 48 फीसदी लड़कियाँ और इसी उम्र के 71 फीसदी लड़के ऑनलाइन गेम (खेल) खेलने में रुचि ले रहे हैं। इसमें कई खेल ऐसे हैं, जो इन बच्चों को न केवल तनाव की ओर धकेल रहे हैं, बल्कि कई बच्चे तो आत्महत्या तक कर रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 5 से 15 साल के बीच के 99 फीसदी बच्चे टीवी देखने में भी रुचि रखते हैं। जबकि 27 फीसदी बच्चे इंटरनेट के ज़रिये पढ़ाई करते हैं। वहीं, इसी उम्र के 27 फीसदी बच्चे स्मार्ट स्पीकर और 22 फीसदी बच्चे रेडियो सुनते हैं। हालाँकि इसमें कुछ फीसदी बच्चे मिले-जुले रूप से कई-कई चीज़ों में रुचि रखते हैं।