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पटरी वालों से परेशान स्थायी दुकानदार!

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कोरोना-काल में दिल्ली के बाज़ारों का हाल बेहाल है। कोरोना वायरस से बचाव के लिए धरातल पर दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जा रहा है। कोरोना-काल में माफिया-राज का बोलबाला बढ़ा है, जो बाज़ारों में अपने तरीके से सारे नियम-कायदों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। तहलका संवाददाता ने बाज़ारों में व्यापारियों से बात की, तो उन्होंने बताया कि अब बाज़ारों में दिल्ली-एनसीआर के लोग शासन-प्रशासन के साथ साठ-गाँठ करके अवैध रूप से पटरी लगा रहे हैं। उन्हें दबंग लोग निजी स्वार्थ के लिए आसरा दे रहे हैं। अगर कोई दुकानदार इसका विरोध करता है, तो दबंग लडऩे को तैयार रहते हैं। मतलब बड़े व्यापारी पटरी वालों से डरकर व्यापार करने को मजबूर है। दिल्ली के सदर बाज़ार, चाँदनी चौक, लाजपत नगर बाज़ार और सरोजनी नगर मार्किट के स्थायी व्यापारियों का कहना है कि कोरोना-काल के पहले भी पटरी लगती रही हैं। लेकिन इस बार पटरी वालों की संख्या बढ़ गयी है। अगर यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो आने वाले दिनों में वर्षों से महँगी दुकानों में स्थायी व्यवसाय करने वालों का धंधा-पानी चौपट कर सकता है। व्यापारियों का कहना है कि त्यौहारों में ही उनका कुछ काम चलता है, रेहड़ी-पटरी वालों के चलते वह भी ठप-सा हो गया है। व्यापारियों का कहना है कि कोरोना-काल में जिनकी नौकरी गयी है, काम-धन्धे कमज़ोर हुए और जिनके पास काम नहीं है; दिल्ली के कुछ स्थानीय नेता स्थापित बाज़ारों में प्लानिंग के तहत उनका कब्ज़ा करवाने में लगे हैं। सरोजनी मार्केट के अध्यक्ष अशोक रंधावा का कहना है कि कोरोना-काल में छोटे-बड़े व्यवसायों में मंदी आयी है। त्यौहारी सीज़न में व्यापारियों को उम्मीद जगी कि कुछ काम चलेगा; पर अब उम्मीद इसलिए कम है, क्योंकि शासन-प्रशासन और पुलिस महकमे में पहुँच रखने वालों की मदद से दिल्ली-एनसीआर के बहुत-से नये-पुरने व्यापारी बाज़ारों में अवैध रूप से घुसकर पटरी लगा रहे हैं।

फेडरेशन ऑफ सदर बाज़ार ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश कुमार यादव का कहना है कि वह पटरी वालों के विरोध में नहीं हैं। क्योंकि पटरी वाले तो पहले भी पटरी लगाते रहे हैं; लेकिन अब बाज़ारों में माफियाराज की तरह लोगों ने आकर रेहड़ी-पटरी लगायी हैं, उससे उनका धंधा पनपेगा, या नहीं? ये तो नहीं कहा जा सकता है, मगर कोरोना ज़रूर पनपेगा और स्थायी व्यापारियों, दुकानदारों का धंधा चौपट होगा। क्योंकि अब पटरी वालों का कारोबार एक प्रकार से गोरखधंधे के रूप में पनप रहा है। चाँदनी चौक के व्यापारी रामदेव शर्मा का कहना है कि इसे सरकार की अनदेखी कहें या मिलीभगत; लेकिन इससे बाज़ारों में पटरी वालों का बोलवाला बढऩे के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था को भी बट्टा लग रहा है। क्योंकि स्थायी व्यापारी जीएसटी काटकर बिल देते हैं, जो सरकारी खाते में जाती है। वहीं रेहड़ी-पटरी वाले बिना बिल और जीएसटी के सामान बेचते हैं और खुद मोटा मुनाफा कमाते हैं।

पटरी वालों ने तहलका संवाददाता को बताया कि कोरोना-काल में छोटे गाँवों में धंधा कम हो रहा है। उनको मजबूरी में आकर दिल्ली जैसे शहर में पटरी लगाने को मजबूर होना पड़ रहा है। पटरी लगाने वाले संजीव कुमार और संतोष वर्मा का कहना है कि वे गाज़ियाबाद से आकर दीपावली के पर्व तक ही यहाँ पटरी लगाएँगे। हालाँकि यहाँ पर भी जैसे व्यापार की उम्मीद थी, वैसा व्यापार नहीं हो रहा है, पर करें क्या? दादरी से आकर सदर बाज़ार में पटरी लगाने वाले रमाकांत ने बताया कि सदर बाज़ार के बड़े व्यापारियों द्वारा जो विरोध किया जा रहा है, वह पूरी तरह से गलत है। क्योंकि उनके व्यापार पर किसी भी प्रकार का कोई आघात नहीं किया जा रहा है; बल्कि वह सदर बाज़ार से ही सामान खरीदकर पटरी पर बेच रहे हैं। रमाकांत ने बताया कि गाँवों में किसानों और गरीबों के पास नकदी के अभाव के चलते वहाँ पर काम नहीं है, जिसके कारण वह दिल्ली में पटरी लगा रहे हैं।

लाजपत नगर के व्यापारी बॉबी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों को आगाह कर रहे हैं, नसीहत दे रहे हैं कि न लॉकडाउन गया, न कि कोरोना का वायरस गया है। अभी सावधानी और सतर्कता की ज़रूरत है; फिर भी बहुत-से लोग नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। बिना मास्क के लोग घूम रहे हैं। पहले त्यौहारों में व्यवसाय ठीक-ठाक चलता था, तो कोई किसी का विरोध नहीं करता था। पर अब बिक्री कम होने के साथ-साथ रेहड़ी-पटरी वालों की भीड़ बढ़ गयी है, जो चिन्ता करने को मजबूर करती है। उनका कहना है कि कोरोना-काल में शहर, कस्बे और गाँवों में साप्ताहिक बाज़ार बन्द होने से वहाँ अपना व्यवसाय करने वाले अब दिल्ली के बाज़ारों में कब्ज़ा-सा कर चुके हैं, जो किसी भी तरह सही नहीं माना जा सकता। व्यापारी नेता विजय प्रकाश जैन का कहना है कि सरकार को कोई ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे बाज़ारों आराजकता न पनपे; क्योंकि मुश्किल से 10 फीसदी पटरी वाले ही जीएसटी बिल के साथ सामान खरीदते हैं। बाकी अन्य पटरी वाले खुला माल बिना बिल के खरीदकर औने-पौने दामों में बेंच रहे हैं। चाँदनी चौक से सलीम ने बताया कि साप्ताहिक बाज़ारों के बंद होने से पटरी लगाने वालों के बीच रोज़गार का संकट गहराया है, जो अब बड़े बाज़ारों में घुसपैठ करके काम-धंधा चला रहे हैं। सलीम का दावा है कि समस्या की जड़ यह है कि कई बड़े व्यापारियों ने अपने सामान को हर हाल में बेचने के लिए छोटे व्यापारियों और साप्ताहिक बाज़ार वालों से मिलकर बाज़ारों में पटरी लगवाने की तरकीब निकाली है; जो अपने आपमें एक नया ट्रेंड बनकर उभरी है। इसका छोटे दुकानदार और कुछ व्यापारी विरोध कर रहे हैं।

बच्ची के जन्म पर आप भी ले सकते हैं 11 हज़ार की मुफ्त एफडी सुविधा

जेनेक्स नामक संस्था अपने चाइल्ड डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत देश भर में कहीं भी बच्ची के जन्म पर 11 हज़ार रुपये के फिक्स डिपॉजिट (एफडी) की सुविधा उपलब्ध करा रही है। देश में लैंगिक समानता पर काम कर रही इस संस्था ने यह ऐलान बीती 17 अक्टूबर को करते हुए यह सुविधा अपनी वेबसाइट पर भी उपलब्ध करा दी है। इसका फायदा वे सभी अभिभावक ले सकेंगे, जो बच्ची के जन्म के 12 हफ्तों के अन्दर संगठन की वेबसाइट पर पंजीकरण कराएँगे। जन्म से पहले भी पंजीकरण कराया जा सकता है। यह सुविधा पूरे देश में बिल्कुल मुफ्त होगी। इसमें धर्म, सामाजिक स्थिति या किसी खास जगह की कोई पाबंदी नहीं है। इसके लिए किसी भी तरह का कोई शुल्क भी नहीं लिया जाएगा। इससे बच्चियों के साथ होने वाले भेदभाव को कम करने में मदद मिलेगी।

पहल का मकसद हर बेटी को 18 साल की उम्र में आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है। बालिग होने के बाद पंजीकृत बच्ची अपनी इस रकम का इस्तेमाल शिक्षा, कारोबार या विवाह में करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होगी। जेनेक्स के संस्थापक पंकज गुप्ता ने बताया कि हम अपने डेढ़ लाख नेटवर्क पार्टनरों के साथ मिलकर इस पहल को शुरू करने में गर्व महसूस कर रहे हैं। यह पहल अगली पीढ़ी को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बनाने की दिशा में छोटी, मगर बेहद अहम कदम साबित हो सकती है। पंकज गुप्ता कहते हैं कि कम्पनी इसके लिए किसी भी तरह की मदद (फंडिंग) विदेश से नहीं ले रही है और न ही अभिभावकों से ही कोई पैसा लिया जा रहा है।

कैसे कराएँ पंजीकरण

सुविधा का फायदा उठाने के लिए किसी को कोई शुल्क अदा नहीं करना है। पंजीकरण की प्रक्रिया भी पूरी तरह मुफ्त है। इसका फायदा उठाने के लिए अभिभावकों को 222.द्दद्गठ्ठद्ग3ष्द्धद्बद्यस्र.ष्शद्व पर पंजीकरण करना होता है। वेबसाइट पर जाने के बाद फ्री एफडी वाले लिंक पर क्लिक करके ज़रूरी औपचारिकताएँ पूरी करते ही आपकी लाडली के नाम से एफडी के तौर पर 11000 रुपये जमा हो जाएँगे। यह पहल 18 वर्ष की उम्र होने पर बालिकाओं को आर्थिक लिहाज़ से मज़बूत बनाने के लिए है। क्योंकि उस समय उनके पास खुद के पैसे होंगे। जेनेक्स के अनुसार, इससे बालिकाओं में आत्मविश्वास बढ़ेगा; साथ ही खुलकर ज़िन्दगी जीने और स्वच्छंद फैसला करने में भी उनको मदद मिलेगी। इससे न सिर्फ वे आर्थिक रूप से मज़बूत होंगी, बल्कि वे लडक़ों के साथ हर मुकाम पर कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल सकेंगी।

लडक़ी-लडक़े में फर्क किये जाने वाले इस देश में ऐसी पहल का आगाज़ करने वाले जेनेक्स के संस्थापक पंकज गुप्ता की तारीफ की जानी चाहिए। वह मानते हैं कि यह छोटा-सा कदम आने वाले समय में समाज में बड़े बदलाव की नींव साबित हो सकता है। इस अहम काम में अभिभावकों पर कोई वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा। पंकज बताते हैं कि इसके लिए ज़रूरी फंडिंग की भरपाई जेनेक्स और भारतीय हेल्थकेयर भागीदारों के ज़रिये की जाएगी।

स्वास्थ्य योजना का भी मिलेगा फायदा

बाल विकास कार्यक्रम के तहत पंजीकृत बच्चियों को एक मुफ्त स्वास्थ्य योजना का भी फायदा मिलेगा। जेनेक्स ग्लोबल स्टैंडर्ड के अनुसार, अगली पीढ़ी स्वस्थ हो, इसके लिए ज़रूरी है कि माँ की उचित देखभाल हो। इससे शिशु मृत्यु-दर में कमी लायी जा सकती है। माँ की उचित देखभाल से अगली पीढ़ी के फिट होने का रास्ता भी साफ होगा। जेनेक्स की सह-संस्थापक शीतल कपूर मानती हैं कि लडक़ी के रूप में पैदा होना अपने आपमें एक विशेषाधिकार है। देश में कई जगह इसे लक्ष्मी का रूप भी माना जाता है। इस लक्ष्मी को आर्थिक रूप से मज़बूती प्रदान करने के लिए ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। भारत में रोज़ाना 73 हज़ार से अधिक बच्चे पैदा होते हैं और जेनेक्स अगली पीढ़ी की देखभाल में बदलाव लाने का बीड़ा उठाने को तैयार है।

‘वायु प्रदूषण को रोकने में असफल सरकार’

राजधानी दिल्ली में गत पाँच-छ: वर्षों से बढ़ते प्रदूषण को लेकर जिस तरह से पराली जलाये जाने को दोषी माना जाना रहा है। दरअसल पराली उतनी दोषी नहीं है। क्योंकि पराली तो सदियों से किसान जलाते आ रहे हैं। बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम में असफल सरकारें एक-दूसरे पर आरोपबाज़ी करके अपनी ज़िम्मेदारी से बच रही हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना है कि दिल्ली में पराली से प्रदूषण सिर्फ चार फीसदी है, शेष 96 फीसदी प्रदूषण स्थानीय समस्याओं- जैसे कूड़ा-करकट के जलाने, टूटी-फूटी सडक़ें, धूल और वाहनों की वजह से है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि दिल्ली में प्रदूषण के बढऩे का प्रमुख कारण पराली का जलाया जाना है; जिसके लिए पंजाब और हरियाणा सरकारों का दोष है। हालाँकि मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में प्रदूषण के विरुद्ध अभियान चलाकर लोगों को जागरूक कर रहे हैं।

एक सच्चाई यह भी है कि दिल्ली-एनसीआर में जिस तरह से प्राकृतिक संशाधनों का दोहन हो रहा है, उस पर सरकारें (मतलब केंद्र और राज्य सरकारें) अनजान बनी हुई हैं। इससे हटकर बढ़ते प्रदूषण को लेकर हो-हल्ला करने वाले पहलुओं पर गौर करें, तो उसके पीछे एक सुनियोजित तरीके से वायु शुद्धिकरण के नाम पर (एयर प्यूरिफिकेशन) बड़ा व्यापार भी हो रहा है। साथ ही चिकित्सकीय उपकरणों के सहारे कुछ लोग वायु प्रदूषण बचाव का तरीका बताकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। इन्हीं तामाम पहलुओं पर तहलका संवाददाता ने पड़ताल की तो, पराली से वायु प्रदूषण होने के पीछे कुछ और ही माजरा दिखा।

जानकारों का कहना है कि दिल्ली एनसीआर में वायु प्रदूषण का मामला तबसे है, जबसे बाहनों की संख्या में इज़ाफा हुआ है। इन वाहनों से जो ज़हरीला धुआँ निकलता है, उस पर सरकार पूरी तरह से चुप है। पिछले पाँच-छ: साल से दिल्ली में आम आदमी पार्टी और केंद्र में भाजपा की सरकारें बनी हैं, तबसे प्रदूषण को लेकर कुछ ज़्यादा ही शोर-शराबा हो रहा है। लेकिन प्रदूषण कम करने के लिए धरातल पर कोई कारगर काम नहीं हुआ है, जिसके कारण लोगों को ज़हरीलें हवाओं में साँस लेने को मजबूर होना पड़ रहा है। दिल्ली यूनिवर्सिटी की सहायक प्रो. शुचि वर्मा का कहना है कि दिल्ली में बमुश्किल चार से पाँच फीसदी तक ही प्रदूषण पराली की वजह से है; बाकी प्रदूषण खेतों की मिट्टी, सडक़ों की धूल, दिल्ली-एनसीआर में कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ, जगह-जगह कूड़े-कचरे के जलाये जाने और खासकर पुराने वाहनों से होता है। अगर समय रहते इन कारणों पर गौर न किया गया, तो आने वाले वर्षों में भयावह परिणाम सामने आएँगे।

पर्यावरण के जानकार डॉ. दिव्यांग गोस्वामी का कहना है कि पराली को ही वायु प्रदूषण को लेकर ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। पराली के साथ-साथ अन्य स्रोतों को कंट्रोल करना ज़रूरी है; जो सालों-साल से वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। पराली को लेकर ही इतना हो-हल्ला क्यों होता है? जबकि किसान अक्टूबर से लेकर नवंबर में ही पराली जलाते हैं; साल भर तक जो प्रदूषण होता है, उस पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती?

प्रादेशिक मौसम पूर्वानुमान केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. कुलदीप श्रीवास्तव का कहना है कि वायु प्रदूषण के बढऩे के तीन कारण हैं, जिनमें एक कारण पराली का जलाया जाना है। दूसरा कारण कल-कारखानों का धुआँ और भवनों का निर्माण और तीसरा कारण वाहनों से निकलने वाला धुआँ है। जब तक इन तीनों कारणों पर रोक नहीं लगेगी, तब प्रदूषण पर काबू पाना मुश्किल होगा। डॉ. कुलदीप का कहना है कि तेज़ हवा चलने और लगभग दो घंटे तेज़ बारिश होने से हवा में और पेड़ों पर जमा धूल के कण साफ हो जाएँगे, जिससे प्रदूषण पर कंट्रोल होगा। उन्होंने बताया कि सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषण के बढऩे कारण तापमान का कम होना और हवा का कम चलना है; जिससे हवा के कण जम जाते हैं। हवा में तेज़ गति न होने से वाहनों और निर्माणाधीन भवनों की धूल आसानी से हट नहीं पाती है, जिसके कारण प्रदूषण जमा हो जाता है। जैसे ही तापमान बढ़ेगा और तेज़ हवा चलेगी, तो प्रदूषण धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा।

चौंकाने वाली बात यह है कि इन दिनों दिल्ली-एनसीआर में वायु शुद्धिकरण के नाम पर एयर प्यूरिफेशन के उपकरणों की बिक्री जमकर हो रही है। बताते चलें पिछले पाँच-छ: वर्षों से एयर प्यूरिफेशन का बाज़ार तेज़ी से पनपा है। इसमें प्राइवेट कम्पनियाँ, जो सरकारी कार्यालयों व अस्पतालों से लेकर प्राइवेट अस्पतालों और कार्यालयों में जमकर एयर प्यूरिफेशन के नाम पर उपकरण लगा रही हैं; मोटा मुनाफा कमा रही हैं। अब तो घरों में भी ये उपकरण तेज़ी से लगना शुरू हो गये हैं। एयर प्यूरिफेशन के नाम पर सरकारी और कॉर्पोरेट ऑफिसों में ठेके से लगाये जा रहे हैं, तो घरों में बाज़ारों से इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकानों से खरीदकर लगाये जा रहे हैं। इस समय वायु प्रदूषण के नाम पर मचे कोहराम के चलते नये-नये एयर प्यूरिफेशन के प्रोडक्ट बाज़ार में माइक्रो बेव के नाम पर बेचे जा रहे हैं। दिल्ली के लाजपत नगर और चाँदनी चौक में इन प्रोडक्टों की खरीददारी जमकर हो रही है। यही हाल मेडिकल स्टोरों में है; वहाँ पर नेबुलाइज़रों की बिक्री भी हो रही है। क्योंकि दमा और अन्य श्वसन रोगियों को बढ़ते प्रदूषण के कारण तकलीफ बढ़ी है। एयर प्यूरिफेशन के बारे में ए.के. आरोड़ा का कहना है कि सही मायने में एयर प्यूरिफेशन का काम बैक्टीरिया और वायरस से बचाव के लिए है। पर लोगों ने बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए अपने बचाव के लिए इसका उपयोग शुरू कर दिया है। इस बारे में मैक्स अस्पताल के हार्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि वायु प्रदूषण से हार्ट और दमा रोगियों को ज़्यादा खतरा रहता है। बचाव के तौर पर हमें धूल भरे और प्रदूषित क्षेत्र में जाने से बचना चाहिए और मुँह पर मास्क लगाकर ही निकलना चाहिए; क्योंकि प्रदूषित वायु से फेफड़ों को क्षति होती है।

अंबेडकर कॉलेज के छात्र सुनीत कुमार और जोगेश अहिरवार का कहना है कि दिल्ली-एनसीआर के अलावा अन्य राज्यों में क्यों प्रदूषण नहीं है? क्या वहाँ पराली नहीं जलायी जाती है? वहाँ भी जलायी जाती है। लेकिन दिल्ली जैसी सियासत नहीं होती है और न ही दिल्ली-एनसीआर जैसे बाज़ार हैं, जो वायु शुद्धिकरण के नाम पर अपना कारोबार कर सकें। छात्रों का कहना है कि अगर सरकार ने प्रदूषण को रोकने के लिए कारगर कदम नहीं उठाये, तो आने वाले दिनों में लोगों को दमघोंटू ज़हरीली हवा में साँस लेने को मजबूर होना पड़ेगा।

कम्पनियों की ज़रूरत के हिसाब से कोर्स तैयार करेगी दिल्ली सरकार

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में बड़ी बेबाकी से कहा कि हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को रोज़गार के लिए तैयार नहीं करती। उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली विधानसभा ने बच्चों को नौकरी देने के लिए ‘स्किल एंड एंटरप्रेन्योरशिप यूनिवसिर्टी’ विधेयक पारित किया था। इस विश्वविद्यालय में बच्चों को नौकरी लायक कौशल (स्किल) देकर ऐसा प्रशिक्षण कराएँगे, ताकि उन्हें विश्वविद्यालय से बाहर निकलते ही फौरन नौकरी मिल सके। इसी तरह जो बच्चे व्यवसाय करना चाहते हैं, उन बच्चों को हम व्यवसाय करने के लिए तैयार करेंगे।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने ये विचार ‘दिल्ली कौशल एवं उद्यमिता विश्वविद्यालय’ की पहली बोर्ड बैठक की अध्यक्षता के दौरान व्यक्त किये। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस विश्वविद्यालय का पहला सत्र अगले साल शुरू होने की उम्मीद है। उनका मानना है कि मोहल्ला क्लीनिक और डोर-स्टेप डिलीवरी की तरह यह विश्वविद्यालय भी कौशल शिक्षा का एक वैश्विक मॉडल बनेगा। खैर, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। बहरहाल मुख्यमंत्री का कहना है कि इस विश्वविद्यालय में बच्चों को जो भी कोर्स पढ़ाया जाए, वह कोर्स पहले कम्पनियों को दिखाया जाना चाहिए; कम्पनियों की सलाह अवश्य लेनी चाहिए; इससे युवाओं को रोज़गार मिलने में मदद मिलेगी। कौशल व उद्यमिता को लेकर कम्पनियों के आला अधिकारियों के इनपुट बहुत महत्त्व रखते हैं। विश्वविद्यालय के बोर्ड सदस्य को ऐसे कोर्स डिजाइन करने चाहिए, ताकि छात्रों को विश्वविद्यालय से निकलने के बाद कम्पनियाँ कहें कि हम इनको नौकरी देने के लिए तैयार हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि तकनीक लगातार एडवांस हो रही है और ऐसे दौर में जो इंसान जितना तकनीक में पारंगत होगा, उसके लिए रोज़गार मिलना उतना ही आसान होगा। आजकल कम्पनियाँ ऐसे लोगों को नौकरी देने में प्राथमिकता दिखा रही हैं, जो मल्टी-स्किल्ड यानी बहुआयामी कौशल वाले हैं। कई कम्पनियाँ बाहर से प्रशिक्षित टीम को हायर करके अपने स्टाफ को प्रशिक्षण भी दिलाती हैं। दरअसल तकनीक अपने हिसाब से दुनिया और रोज़गार के परिदृश्य को बदल रही है। श्रम बाज़ार में जिस तरह के कौशल सम्पन्न युवाओं की इस समय ज़रूरत है, वह माँग के अनुपात में बहुत ही कम है; खासतौर पर दक्षिण एशिया में। ध्यान देने वाली बात यह है कि दक्षिण एशिया के पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा श्रम बल है; लेकिन यहाँ के करीब आधे युवा ऐसी शिक्षा व कौशल-प्रशिक्षण पाने से दूर हैं, जो 2030 में रोज़गार के लिए ज़रूरी है। द ग्लोबल बिजनेस कोएलिशन फॉर एजुकेशन, द एजुकेशन कमिशन और यूनिसेफ के आँकड़ों के अनुसार, अनुमानत: दक्षिण एशिया के 46 फीसदी युवा अच्छी नौकरी पाने के लिए ज़रूरी कौशल को हासिल किये बिना ही स्कूल छोड़ देते हैं। डाटा के अनुसार, युवाओं की अगली पीढ़ी को 21वीं सदी के कार्यों के लिए ज़रूरी कौशल के वास्ते तैयार करने में दक्षिण एशिया वैश्विक औसत से काफी पीछे हैं। अनुमान लगाया गया है कि दक्षिण एशिया वैश्विक औसत से नीचे रहेगा।

नौकरी के योग्य नहीं होते आधे युवा

यूनिसेफ की कार्यकारी निदेशक हेनरिता फॉर का कहना है कि हर रोज़ करीब एक लाख दक्षिण एशियाई युवा श्रम बाज़ार में दाखिल होते हैं; उनमें से करीब आधे 21वीं सदी की नौकरियाँ पाने से दूर हैं। दक्षिण एशिया नाज़ुक मोड़ पर है। इसके पास सीमित समय है; जिसमें यह अपने प्रतिभावान व सक्षम युवाओं से उल्लेखनीय जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा सकता है। लाखों को गरीबी से बाहर निकाला जा सकता है। ऐसा करने में असमर्थ होने पर आर्थिक वृद्धि लडख़ड़ायेगी; निराशा बढ़ेगी। दक्षिण एशिया की आबादी करीब 1.8 अरब है और इस आबादी का लगभग आधा हिस्सा 24 साल की आयु के नीचे का है; जिसका नेतृत्व भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कर रहे हैं। दक्षिण एशिया में 2040 तक विश्व का सबसे अधिक युवा श्रम बल होगा। इस आबादी का इस क्षेत्र को लाभ हो सकता है; क्योंकि यह क्षेत्र को जीवंत व उपयोगी अर्थ-व्यवस्था की ओर ले जाने वाली क्षमता का मौका प्रदान करता है। इसलिए दक्षिण एशिया को कौशल विकास के संदर्भ में अधिक सचेत होने की ज़रूरत है। यदि कौशल विकास में मज़बूत निवेश किये जाते हैं, तो आने वाले दशकों में क्षेत्र मज़बूत अर्थ-व्यवस्था में वृद्धि बनाये रखने के साथ-साथ शिक्षा व कौशल के क्षेत्रों में भी अवसरों के विस्तार की उम्मीद है।

यूनिसेफ का एक सर्वे यह भी बताता है कि युवाओं को आधुनिक अर्थ-व्यवस्था के लिए कैसे तैयार किया जा रहा है। यूनिसेफ का दक्षिण एशिया के 32,000 युवा लोगों के बीच कराया गया यह सर्वे 24 साल के नीचे के युवाओं के सरोकारों के बारे में बताता है कि उन्हें आधुनिक अर्थ-व्यवस्था के लिए कितनी अच्छी तरह से तैयार किया जा रहा है। सर्वे के अनुसार, दक्षिण एशिया में बहुत से युवा लोग महसूस करते हैं कि उनकी शिक्षा व्यवस्थाएँ पुराने ढंग की हैं; जो उन्हें रोज़गार के लिए तैयार नहीं करतीं। वे कार्य अनुभव में कमी (26 फीसदी), रोज़गार को बेहतर बनाने वाली सेवाओं के अपर्याप्त (23 फीसदी को कोई सहयोग नहीं मिला, अधिकतर को सीमित सहयोग मिला या बृहद सहयोग नहीं मिला) होने के बारे में उल्लेख करते हैं, और कहते हैं कि रिश्वत / माँग / भेदभावपूर्ण और भर्ती की अनुचित परम्पराएँ (44 फीसदी) रोज़गार पाने की राह में मुख्य अड़चनें हैं। यही नहीं स्नातक की डिग्री होने के बावजूद युवाओं को इन अड़चनों का सामना करना पड़ता है। दक्षिण एशिया की विकसित होती अर्थ-व्यवस्था में युवाओं के रोज़गार के मौके तभी हो सकते हैं, जब वे खुद को हुनरमंद बनाएँ। मगर जो हुनरमंद होना चाहते हैं, उनकी राह में कई रुकावटें हैं। इसकी ओर सरकार को ध्यान देने की ज़रूरत है, इसके अलावा जो अपना धंधा शुरू करना चाहते हैं; उसे स्थापित चाहते हैं; उनकी सपोर्ट के लिए मौज़ूदा व्यवस्था तंत्र अतिरिक्त कदम उठाने को तैयार नहीं है। उन्हें सीमित सपोर्ट मिलती है या नहीं मिलती। युवाओं को कर्ज़ लेने के लिए बेवजह परेशान, हतोत्साहित किया जाता है। व्यापार की रजिस्ट्री कराने में भी दिक्कतें खड़ी कर दी जाती हैं। यहाँ पर लैंगिक पूर्वाग्रह से भी सामना होता है। शिक्षा व कौशल प्रशिक्षण प्रणाली और श्रम बाज़ार विशेष तौर पर युवा महिलाओं के प्रति विवाह की अपेक्षाएँ, सुरक्षा सरोकार और लैंगिक रूढि़वादिता के चलते पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। दक्षिण एशिया में जब शिक्षा व रोज़गार की बात आती है, तो विकलांग युवा सबसे हाशिये पर रहने वाले और बाहर रखे गये समूहों में से एक हैं। कुछ क्षेत्रों में नौकरियों में स्थानीय युवाओं के द्वारा प्रेरणा व भागीदारी की कमी के चलते प्रवासी मज़दूरों की माँग बढ़ जाती है। निर्माण व हाथ से किये जाने वाले काम की नौकरियाँ ऐसे उदाहरण हैं; जहाँ इन नौकरियों के मूल्य को लेकर बनी धारणा में कौशल पहल से अधिक बदलाव लाने की ज़रूरत है। वक्त की माँग यह भी है कि पुराने मुद्दों को नयी सोच, नये प्रयास से हल करने की ज़रूरत है।

गाँवों में भी पहुँचे तकनीक

अब गाँवों को महज़ खेती के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। फिर खेती करने के लिए भी नयी-नयी तकनीक विकसित की जा रही हैं; उनकी जानकारी व उसमें कौशल हासिल करना समय की माँग है। प्रशिक्षण तक गाँव की पहुँच, श्रम बाज़ार की ज़रूरतों से मिलान करता कौशल प्रशिक्षण और तकनीकी कौशल वृद्धि के साथ मेल खाता सॉफ्ट स्किल्स विकास, जैसे कि संचार, टीम प्रबन्धन। यह भी जानना ज़रूरी है कि कहाँ निवेश आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा दे सकते हैं? नियोक्ता का मुनाफा बढ़ा सकते हैं, बेरोज़गारी को कम कर सकते हैं और युवा कर्मचारियों के श्रम व कौशल के उच्च लाभ को प्रेरित कर सकते हैं। हाल ही में आयोजित ग्रैंड चैलेंजेज सम्मेलन के उदघाटन कार्यक्रम के मौके पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भविष्य विज्ञान व नवाचार में निवेश करने वाले समाजों का होगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए विज्ञान व नवाचार में पहले से ही निवेश करना होगा। समाज का भविष्य इसी से आकार लेगा। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भविष्य को कभी भी अदूरदर्शी तरीके से निर्धारित नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि नवाचार को सहयोग और आम लोगों की भागीदारी द्वारा आकार दिया जाना चाहिए। तकनीक, विज्ञान में नवाचार व नये प्रयोगों पर ज़ोर दिया जा रहा है। और इसमें कौशल हासिल करने के लिए युवाओं को जागरूक, प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रम बनाने पर ज़ोर है।

संकट की स्थिति से कैसे निपटा जाए

ग्लोबल व्यवसाय कोएलिशन फॉर एजुकेशन नामक संगठन का मानना है कि यह संकट की स्थिति है। दक्षिण एशिया में युवा कौशल के फासलों का सामना करने के लिए सरकारी निवेश, व्यवसाय समुदाय से प्रतिबद्धता, नागरिक समाज से योगदान की ज़रूरत है, और बढ़ी तेज़ी से बदलते रोज़गार बाज़ार के लिए नयी पीढ़ी को सफलतापूर्वक तैयार करने के परिप्रेक्ष्य से भी। एक अन्य रिपोर्ट युवा कौशल के फासलों को एड्रस करने के लिए बड़ी बाधाओं की पहचान करती है। इसमें अन्य बाधाओं में शिक्षा की निम्न गुणवत्ता और उपानुकूलतम व्यावसायिक प्रशिक्षण शामिल है, जो विद्याार्थियों को श्रम बाज़ार की माँग के अनुरूप वांछित कौशल का स्तर प्रदान नहीं करती हैं। सभी देशों को यह समझने की बहुत ज़रूरत है कि युवा ज़रूरत के अनुरूप शिक्षा या कौशल हासिल नहीं करने और नौकरी नहीं पाने को लेकर काफी चिन्तित व निराश भी हैं। हम सब जानते हैं कि काम की दुनिया तेज़ी से बदल रही है। कोविड-19 महामारी के कारण बीते सात महीनों से घर से काम करना सामान्य और आम हो गया है। देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने तो वर्क फ्रॉम एनीवेयर वाला कॉन्सेप्ट (कहीं से भी काम) अपना लिया है।

कई दिग्गज टेक कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को घर से ही काम करने के लिए फर्नीचर खरीदने के लिए पैसा तक दे रही हैं। यदि सरकारें बेहतर और आधुनिक शिक्षा में निवेश करती हैं और व्यापार युवाओं के लिए श्रम बाज़ार में दाखिल होने के बेहतर मौके प्रदान करते हैं, तो दक्षिण एशिया विश्व के लिए एक उदाहरण स्थापित कर सकता है; लेकिन यह तभी सम्भव है, जब सरकारें इसे प्राथमिकता दें और इस दिशा में ठोस कदम उठाती नज़र आएँ।

हिन्दू धर्म को समझना (9) – माया : जीवन का समावेशी साधन

पिछले दो लेखों में हमने माया के उन पहलुओं पर ज़्यादा बात की थी, जिसमें अवधारणा को लेकर चीज़ें थीं; जैसा कि पूर्वी दुनिया में विचार के लगभग सभी स्कूलों में जाना जाता है। सभी सिद्धांत, दर्शन, दृष्टिकोण अपने-अपने तरीके से प्रासंगिक और सच्चे हैं; क्योंकि सभी में सत्य है। हालाँकि उनके खण्डित आधार में रूप में। अब हम  माया की गूढ़ नहीं, बल्कि बाह्य अभिव्यक्तियों के बारे में बात करेंगे।

यह समझने के लिए कि वास्तव में माया क्या है? इसकी बाह्य अभिव्यक्ति में हमें संदर्भित करना होगा कि प्रकृति में क्या अस्तित्व में है और वास्तव में यह आंतरिक रूप से क्या है? शायद आडंबरपूर्ण भौतिकीकरण और आंतरिक वास्तविकता में यह अन्तर माया की अतृप्ति का प्रतीक है।

प्रकृति का हवाला देते हुए कार्बन द्वारा सबसे सामान्य और आसानी से समझ में आने वाला उदाहरण प्रदान किया जाता है; जिसकी लागत में सबसे सस्ता रूप कोयला कहलाता है। अन्य महँगा रूप ग्रेफाइट है; जिसे छात्र लोग सीसा पेंसिल के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महँगी लागत के साथ इसके एक और रूप को हीरा कहा जाता है। हीरा, अपनी ज़बरदस्त खूबसूरती के बावजूद, ग्रेफाइट के षट्भुजी यान जितना दिलचस्प नहीं है। क्योंकि हम तीन आयामी अंतरिक्ष में रहते हैं, और हीरे में प्रत्येक परमाणु एक पूर्ण समन्वय द्वारा अंतरिक्ष में तीनों दिशाओं में घिरा हुआ है। नतीजतन हीरे की जाली के अन्दर एक परमाणु के लिए इस 3-डी दुनिया में किसी और चीज के साथ सामना करना बहुत मुश्किल है; क्योंकि सभी दिशाएँ पहले से ही उठायी गयी हैं।

एक दृष्टि से जब रासायनिक रूप से परीक्षण किया जाता है, सभी शुद्ध और सरल कार्बन तत्त्व हैं; फिर भी ये सभी संस्करण एक अलग उद्देश्य की पूर्ति करते हैं और व्यावसायिक रूप से अलग-अलग मूल्य वाले होते हैं। लगभग सभी साधक, जो स्तम्भ से लेकर विभिन्न पवित्र स्थानों पर जाने के लिए दौड़ते हैं, सभी प्रकार के स्वघोषित गुरुओं और मनीषियों के चरणों में अपना माथा टेकते हैं, यह समझने के लिए कि माया कैसे, कहाँ और क्या है? दिव्य की वास्तविक अभिव्यक्ति इसके विराट रूप, इसके  चारों ओर देखने में विफल रहती है; चाहे वह विकसित हो या आधा पका हुआ; नास्तिक या यहाँ तक कि एक अज्ञानी ही।

कोयला, ग्रेफाइट और हीरे के उपरोक्त सभी मामलों में प्राथमिक सामग्री रासायनिक रूप से समान है, फिर भी इन सभी और इस तत्त्व की कई और अधिक भौतिकताएँ उनके भौतिक गुणों, सामान्य जीवन में उनकी उपयोगिता और मूल्य में अन्तर के आधार पर भिन्न हैं। क्यों और कैसे? वैज्ञानिक अपने अति उत्साह में यह कहते हैं कि यह पर्यावरणीय कारकों के कारण है; जो प्रत्येक भिन्नता के अन्तिम रूप या अंतरिक्ष में इसके परमाणुओं की व्यवस्था (अंतरिक्ष में स्थिति) के कारण होता है। भौतिक गुणों में इस तरह के असंख्य अन्तर, इसके उपयोग और वाणिज्यिक मूल्य, अंतरिक्ष में स्थिति के कारण है। हालाँकि आंतरिक और रासायनिक रूप से यह एक ही तत्त्व है; माया के आश्चर्य, इसके विराट रूप में परमात्मा की वास्तविक अभिव्यक्ति के अलावा कुछ भी नहीं है; लेकिन केवल यदि कोई इसकी सराहना करना चाहता है और दिव्य के प्रति श्रद्धा में सिर झुकाता है।

इस कथन के साथ आगे बढ़ते हुए, इस तत्त्व कार्बन के बारे में बात करते हैं, जो जीवन का पर्याय है। इसकी केंद्रीय भूमिका इस तथ्य के कारण है कि इसमें चार सम्बन्ध साइटें हैं, जो अणुओं की लम्बी, जटिल शृंखलाओं के निर्माण की अनुमति देती हैं। इसके अलावा कार्बन बॉन्ड को ऊर्जा की एक मामूली मात्रा के साथ बनाया और तोड़ा जा सकता है, जो हमारी कोशिकाओं में गतिशील कार्बनिक रसायन विज्ञान के लिए अनुमति देता है। यह तत्त्व हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के अन्य तत्त्वों के साथ है, जिसमें आश्चर्यजनक रूप से सभी ज्ञात प्रोटीन शामिल हैं। विडंबना यह है कि रासायनिक रूप से इन चार प्राथमिक तत्त्वों में मुख्य रूप से शामिल सभी प्रोटीन, असंख्य गुणों और रूपों को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार अंतरिक्ष में क्रम परिवर्तन और संयोजन के उनके बहुरूपदर्शक पैटर्न के साथ किसी भी सामान्य व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। यह सभी तर्कों से परे है कि जब मूल सामग्री एक ही व्यक्तिगत रूप से अपरिवर्तनीय रासायनिक, भौतिक गुण और सभी परिस्थितियों में हमेशा होती है, तो इस चौपाया से बाहर अन्य तत्त्व या तत्त्वों के साथ संयोजन करके भी इस तरह के विविध भौतिक और रासायनिक उत्पादों के साथ गुण अपनी भव्यता और विविधता दिखाते हैं, यह आश्चर्य का विषय है। यह विशुद्ध रूप से क्रिया में माया है, जो समय और फिर से भगवान कृष्ण द्वारा उनकी अभिव्यक्ति के रूप में संदर्भित की जाती है।

हममें से कितने लोग महसूस करते हैं कि जीवन ब्रह्मांड में मौज़ूद है; क्योंकि तत्त्व कार्बन में कुछ असाधारण गुण हैं। माया से प्रभावित हर कोई मानता है कि पौधे मिट्टी से बाहर निकलते हैं; लेकिन वास्तव में उनका अधिकांश पदार्थ हवा से आता है। ऊपर से सूर्य के प्रकाश और कार्बन डाइ ऑक्साइड से पानी और खनिजों को मिश्रित करके, हरे पौधे पृथ्वी को आकाश से जोड़ते हैं। प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से उत्पादित सेल्यूलोज और अन्य कार्बनिक यौगिकों के थोक में भारी कार्बन और ऑक्सीजन परमाणु होते हैं, जो पौधे कार्बन डाइ ऑक्साइड के रूप में सीधे हवा से लेते हैं। कार्बन और ऑक्सीजन के अन्य असंख्य अणुओं से टकराकर कार्बन का हमारा परमाणु पत्ती में प्रवेश करता है।

यह एक बड़े और जटिल अणु का पालन करता है, जो इसे सक्रिय करता है, और एक साथ आकाश से निर्णायक संदेश प्राप्त करता है- सौर प्रकाश के एक पैकेट के चमकते रूप में। एक पल में एक मकड़ी द्वारा पकड़े गये कीट की तरह यह अपने ऑक्सीजन से अलग हो जाता है, हाइड्रोजन के साथ जुड़ता है और (ऐसा कोई सोचता है) फॉस्फोरस, और अन्त में एक शृंखला में डाला जाता है, चाहे लम्बी या छोटी कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन यह जीवन की शृंखला है। यह सब तेज़ी से, मौन में, वायुमंडल के तापमान और दबाव पर, और तेज़ी से होता है। इस प्रकार एक लकड़ी के टुकड़े का वज़न लगभग पूरी तरह से हवा से आता है। जब चिमनी में लकड़ी का एक टुकड़ा जलाया जाता है, तो ऑक्सीजन और कार्बन डाइ ऑक्साइड में और एक बार जुड़ जाते हैं, और आग की रोशनी और गर्मी में हम सौर ऊर्जा का एक हिस्सा वसूल करते हैं; जो लकड़ी बनाने में चला गया। क्या यह दिलचस्प नहीं है? तत्त्व कार्बन में तीन आयामी दुनिया में रासायनिक रूप से स्थिर दो-आयामी, एक-परमाणु-मोटी झिल्ली बनाने वाली यह प्रतिभा है।

मानव शरीर का करीब 96 फीसदी द्रव्यमान केवल चार तत्त्वों से बना है- ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन; जिसमें बड़ी मात्रा में जल भी शामिल है। तत्त्व कार्बन के अलावा किसी भी मानव शरीर के वज़न के अनुसार पानी के रूप में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन अपने आप 60 फीसदी के आसपास बनते हैं, जिसमें अनिवार्य रूप से केवल ऑक्सीजन और हाइड्रोजन शामिल होते हैं। पानी के बिना जीवन की कल्पना करना व्यावहारिक रूप से असम्भव है। माया के नाटक के इस चतुर्थांश का चौथा तत्त्व नाइट्रोजन कई कार्बनिक अणुओं में पाया जाता है; जिसमें प्रोटीन बनाने वाले अमीनो एसिड और डीएनए बनाने वाले न्यूक्लिक एसिड शामिल हैं। शेष चार फीसदी फॉस्फोरस, कैल्शियम, पोटेशियम और सल्फर जैसे तत्त्वों की आवर्त सारणी का एक विरल नमूना है, जो मांसपेशियों, नसों आदि के समुचित कार्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए माना जाता है। इसके अलावा 60 और केमिकल भी शरीर में पाये जाते हैं; लेकिन मैग्नीशियम, जस्ता, ताँबा, बोरान, सेलेनियम, मैगनीज, मोलिब्डेनम आदि से अच्छी तरह से अध्ययन और दस्तावेज़ किये गये तत्त्वों को छोडक़र, उनमें से सभी अन्य जो कर रहे हैं, वह अभी भी अज्ञात है। यह पाया जाता है कि जब तत्त्व फॉस्फोरस कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के चार अन्य प्रमुख तत्त्वों में शामिल हो जाता है, जिसे अन्य प्रसिद्ध लेकिन अभी तक आकर्षक, निर्माण ब्लॉक डीएनए और आरएनए कहे जाते हैं; जिसके बारे में हर गली में आज व्यक्ति बात करता है; अस्तित्त्व में आते हैं।

सीएचओ और एनके शरीर के 96 फीसदी हिस्से में उपर्युक्त चतुर्थांश के अलावा, कैल्शियम मानव शरीर में सबसे आम खनिज है। यह लगभग सभी हड्डियों और दाँतों में पाया जाता है। मांसपेशियों की सिकुडऩ और प्रोटीन विनियमन जैसे शारीरिक कार्यों में कैल्शियम की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वास्तव में शरीर हड्डियों से कैल्शियम खींचेगा (ऑस्टियोपोरोसिस जैसी समस्याओं का कारण),  यदि किसी व्यक्ति के आहार में पर्याप्त तत्त्व नहीं है।

फास्फोरस मुख्य रूप से हड्डी में पाया जाता है। लेकिन अणु एटीपी में भी पाया जाता है; जो रासायनिक प्रतिक्रियाओं को चलाने के लिए कोशिकाओं में ऊर्जा प्रदान करता है। लोहे, फास्फोरस, आयोडीन, सोडियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, जस्ता, सेलेनियम, ताँबा, मैगनीज, क्रोमियम, मोलिब्डेनम और क्लोरीन जैसे अन्य तत्त्व भी शरीर के उचित कार्य के लिए वांछित हैं और इन्हें प्रमुख पोषक तत्त्व कहा जाता है। कई अन्य तत्त्व हैं- सिलिकॉन, बोरान, निकल, वैनेडियम और शीशा, जिन्हें जैविक भूमिका निभाने के लिए माना जाता है; लेकिन इन्हें सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

तत्त्व पोटेशियम एक महत्त्वपूर्ण इलेक्ट्रोलाइट के रूप में कार्य करता है। यह दिल की धडक़न को नियंत्रित करने में मदद करता है और नसों में विद्युत संकेतन के लिए महत्त्वपूर्ण है, जबकि तत्त्व सोडियम एक अन्य इलेक्ट्रोलाइट के रूप में कार्य करता है, जो तंत्रिकाओं में विद्युत संकेतन के लिए महत्त्वपूर्ण है। यह शरीर में पानी की मात्रा को भी नियंत्रित करता है। तत्त्व सल्फर में दो अमीनो एसिड पाये जाते हैं, जो प्रोटीन को अपना आकार देने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। एक तत्त्व के रूप में क्लोरीन आमतौर पर शरीर में एक नकारात्मक आयन के रूप में पाया जाता है; जिसे क्लोराइड कहा जाता है। यह इलेक्ट्रोलाइट तरल पदार्थों के एक सामान्य संतुलन को बनाये रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है। मौलिक मैग्नीशियम कंकाल की संरचना और चतुर्भुज के अन्य तत्त्वों के साथ मांसपेशियों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह 300 से अधिक आवश्यक चयापचय प्रतिक्रियाओं में भी आवश्यक है। एक तत्त्व के रूप में आयरन लगभग सभी जीवित जीवों के चयापचय में एक प्रमुख तत्त्व निभाता है। यह हीमोग्लोबिन में भी पाया जाता है; जो लाल रक्त कोशिकाओं में ऑक्सीजन वाहक है। फ्लोरीन, हैलोजन समूह का एक अन्य तत्त्व दाँतों और हड्डियों में पाया जाता है। दाँत क्षय को रोकने के बाहर, यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कोई महत्त्व नहीं रखता है।

इस चतुर्भुज में से एक या एक से अधिक तत्त्वों के साथ जुड़ा हुआ तत्त्व जस्ता है। हालाँकि निशान में पाये जाने वाले जीवन के सभी रूपों के लिए एक आवश्यक ट्रेस तत्त्व के रूप में कार्य करता है। कई प्रोटीनों में जिंक फिंगर्स नामक संरचनाएँ होती हैं; जो जीन को विनियमित करने में मदद करती हैं। विकासशील देशों में जिंक की कमी से बौनापन पैदा होता है। इसी तरह जस्ता, तत्त्व कॉपर की विभिन्न जैविक प्रतिक्रियाओं में एक; अन्य महत्त्वपूर्ण इलेक्ट्रॉन दाता के रूप में खेलता है। दिलचस्प है कि पर्याप्त ताँबे के बिना, लोहा शरीर में ठीक से काम नहीं करेगा। आयोडीन, एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व आवश्यक रूप से थायराइड हार्मोन बनाने के लिए आवश्यक है; जो चयापचय दर और अन्य सेलुलर कार्यों को नियंत्रित करता है। आयोडीन की कमी, जिससे गाइटर और मस्तिष्क क्षति हो सकती है; दुनिया भर में एक महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्या है। तत्त्व सेलेनियम, चौगुनी में किसी एक या अधिक तत्त्वों के साथ मिलकर, कुछ एंजाइमों के लिए आवश्यक है; जिसमें कई एंटी-ऑक्सीडेंट भी शामिल हैं। जानवरों के विपरीत पौधों को जीवित रहने के लिए सेलेनियम की आवश्यकता नहीं होती है; लेकिन वो इसे अवशोषित करते हैं, इसलिए सेलेनियम युक्त मिट्टी में उगाये गये पौधों से सेलेनियम के ज़हर के कई मामले हैं।

तत्त्व क्रोमियम, जिसका शरीर में 0.0000024 फीसदी तत्त्व माना जाता है; इंसुलिन के साथ मिलकर चीनी के स्तर को विनियमित करने में मदद करता है; लेकिन सटीक तंत्र अभी भी पूरी तरह से समझा नहीं गया है। तत्त्व मैगनीज शरीर का केवल 0.000017 फीसदी माना जाता है। यह कुछ एंजाइमों के लिए आवश्यक माना जाता है, विशेष रूप से जो माइटोकॉन्ड्रिया की खतरनाक ऑक्सीडेंट से रक्षा करते हैं- वह जगह जहाँ कोशिकाओं के अन्दर प्रयोग करने योग्य ऊर्जा उत्पन्न होती है। मोलिब्डेनम शरीर का सिर्फ 0.000013 फीसदी माना जाता है और लगभग सभी जीवन रूपों के लिए आवश्यक है। मनुष्यों में सल्फर को एक उपयोगी रूप में बदलना महत्त्वपूर्ण है। नाइट्रोजन-फिक्ंिसग बैक्टीरिया में, नाइट्रोजन को एक उपयोगी रूप में बदलना महत्त्वपूर्ण है। अन्त में तत्त्व कोबाल्ट शरीर के एक 0.000.0021 फीसदी का गठन विटामिन बी12 में निहित है, जो प्रोटीन निर्माण और डीएनए विनियमन में महत्त्वपूर्ण है।

माया के गूढ़ पहलुओं में विलीन होने के बाद हममें से हर एक को ज्ञात मूल तत्त्वों के साथ गूढ़ दृष्टिकोण को ध्यान में रखा गया है ताकि माया की अंतर्निहित भव्यता को उजागर किया जा सके। कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन और नाइट्रोजन जैसे तत्त्वों से युक्त मुख्य चार स्तम्भों के संदर्भ दिये गये हैं; जो कि वास्तव में असंख्य तरीकों से जीवन के उचित पोषण और निरंतरता के लिए एक और 60 या अधिक तत्त्वों द्वारा तैयार किये गये हैं। फिर भी उनके संचयी वैभव में स्टेरॉयड, प्रोटीन, हीमोग्लोबिन, क्लोरोफिल आदि जैसे अन्य प्रसिद्ध पदार्थों के सन्दर्भ में मायावी माया का अभेद्य पहलू अगले लेख में बताया जाएगा।

दिल्ली की तर्ज पर बचाया जाए देश का पर्यावरण

मुंबई की आरे कॉलोनी में पिछली सरकार की सहमति से ढाई हज़ार पेड़ों की कटाई शुरू हुई थी, जिसका वहाँ के लोगों ने विकट विरोध किया था। पुलिस ने विरोध करने वाले लोगों पर लाठियाँ भी बरसायी थीं। यह सब पिछली सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट के लिए किया गया था। अब जब आरे कॉलोनी के 2141 यानी 98 फीसदी पेड़ कट चुके हैं, तब मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट आरे कॉलोनी से कांजुर मार्ग पर शिफ्ट कर दिया गया है। इतना ही नहीं, अब प्रदर्शनकारियों के खिलाफ दर्ज केस भी वापस होंगे। हालाँकि यह वर्तमान त्रिकोणीय सरकार ने किया है।

यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई की आरे कॉलोनी में जब पिछली भाजपा सरकार में इन पेड़ों को काटने का आदेश पारित हुआ, तब कॉलोनी के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया; जिसके एवज़ में उन पर उलटी लाठियाँ पड़ीं, उनमें से कई को गिरफ्तार किया गया और उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किये गये। मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट के लिए यहाँ पूरे दो हज़ार पाँच सौ पेड़ों को काटे जाने की अनुमति दी गयी थी; जो कि पर्यावरण के लिहाज़ से पूरी तरह गैर-कानूनी काम था। लेकिन आजकल की यह रीति बन गयी है कि अब सत्ता में बैठे लोग अपनी ताकत के नशे में बड़ी आसानी से अवैध को वैध और वैध को अवैध ठहरा देते हैं और उनको कोई भी कानून नहीं रोक पाता। अगर जनता इसका विरोध भी करती है, तो उसे पिटाई, जेल और मुकदमों के झंझट के सिवाय कुछ नहीं मिलता। हाल ही में तीन नये कृषि कानूनों को लागू करने के मामले में केंद्र सरकार और हाथरस कांड में उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन की मनमानी इसके दो सबसे ताज़ा उदाहरण हैं। आरे कॉलोनी में भी यही हुआ, वहाँ भी अब से ठीक एक साल पहले अक्टूबर के महीने में पुलिस ने पेड़ काटने के खिलाफ विरोध कर रहे करीब 200 प्रदर्शनकारियों पर डंडे बरसाये और उन्हें हिरासत में लेकर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किये। इसके अलावा बाहरी लोग वहाँ न आ सकें, इसके लिए आरे कॉलोनी में आने वाले सभी रास्ते बन्द करके वहाँ के पूरे इलाके में धारा-144 लगा दी थी। सवाल यह है कि क्या यह पर्यावरण के लिहाज़ से ठीक था? जो जुर्म करें, वही बेकुसूरों पर लाठियाँ बरसाएँ, यह कहाँ का और कौन-सा कानून है?

इसका मतलब साफ है कि कानून से ऊपर अब ताकत का स्थान है। वैसे उस समय कि खबरों और सूचनाओं की मानें, तो फणनवीस सरकार पर आरोप लगे थे कि यह सब कुछ वह कुछ माफिया की मिलीभगत से कर रही है। हैरत की बात यह थी कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने मेट्रो डिपो बनाने के लिए पेड़ों की कटाई रोकने सम्बन्धी याचिकाएँ खारिज कर दी थीं। यानी कानून भी सत्तासीनों के हाथ की कठपुतली बन जाता है। अब जब वहाँ शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस, शिवसेना तथा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) की त्रिकोणीय सरकार है; आरोपी बनाये गये सभी प्रदर्शनकारियों पर से मुकदमे वापस होंगे और मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट कांजुर मार्ग पर शिफ्ट कर दिया गया है। इस पर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने प्रतिक्रिया दी है कि इसका मतलब प्रोजेक्ट जल्दी पूरा नहीं होगा। इस पर वह ट्रोल हो रहे हैं।

वैसे जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार बनी थी, तभी उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ दिन बाद हरित कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों को वापस लेने की घोषणा की थी; जिसे केबिनेट ने अब मंज़ूरी दी है। इतना ही नहीं, शपथ ग्रहण के दूसरे दिन ठाकरे ने आरे में बनने वाले मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी।

ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी पास करने वाला पहला राज्य बना दिल्ली

हाल ही में दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक में ट्री ट्रांसप्लांटेशन (पेड़ स्थानांतरण) की पॉलिसी को मंज़ूरी मिल चुकी है। इससे दिल्ली अब ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी को लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस पॉलिसी के बारे में बताया कि ट्री ट्रांसप्लांटेशन पॉलिसी के तहत विकास कार्य में बाधा बन रहे 80 फीसदी पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया जाएगा; उन्हें काटा नहीं जा सकेगा। जिस भी कम्पनी / एजेंसी को ट्रांसप्लांटेशन का काम दिया जाएगा, उसे ये सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा ट्रांसप्लांट किये जाने वाले 80 फीसदी पेड़ ज़िन्दा रहने चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस कम्पनी / एजेंसी को ठेका दिया जाएगा, उसके भुगतान से नुकसान की राशि काट ली जाएगी, 80 फीसदी से अधिक पेड़ों के जीवित रहने पर ही उसे भुगतान किया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी सरकार की कोशिश है कि एक पेड़ का भी नुकसान न हो, फिर भी कहीं-कहीं पेड़ काटे जाते हैं। अब इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। अभी तक नियम था कि एक पेड़ काटने के बदले में 10 पौधे रोपे जाएँ। लेकिन पौधे कई साल में पेड़ बन पाते हैं, इसलिए पेड़ों को भी न काटा जाए। कम-से-कम 80 फीसदी पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया जाए और साथ में एक पेड़ ट्रांसप्लांट के बदले भी कम-से-कम 10 नये पौधे भी लगाये जाएँ। सब कुछ सुनिश्चित करने के लिए दिल्ली सरकार डेडीकेटेड ट्री ट्रांसप्लांटेशन सेल और स्थानीय समिति बना रही है। स्थानीय समिति ट्रांसप्लांट हुए पेड़ों की जाँच और निगरानी करने के साथ सही ट्रांसप्लांटेशन होने पर प्रमाण पत्र देगी। इसके अलावा जिस एजेंसी को पेड़ों के ट्रांसप्लांटेशन का काम दिया जाएगा, उसका ट्रैक रिकॉर्ड चेक किया जाएगा कि उसने अब तक जो पेड़ ट्रांसप्लांट किये हैं, उनमें 80 फीसदी से अधिक पेड़ जीवित रहे या नहीं।

हाल ही में दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी (डीटीयू) में पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया गया है। ट्रांसप्लांटेशन का काम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की निगरानी में अक्टूबर में शुरू हुआ था। डीटीयू में नयी इमारत का निर्माण होना है। यहाँ से ट्रांसप्लांट किये जाने वाले कुल 111 पेड़ों में से सर्वाधिक 46 कदंब के, 15 जामुन के, 14 पापड़ी के, 10 पेड़ कचनार के, 12 पेड़ नीम के, पाँच कनेर के, दो अलस्टोनिया के और एक-एक शीशम, अमलताश, मचकन तथा सर्फ के पेड़ हैं। इन पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने में 7,59,700 रुपये की लागत आयेगी। यानी एक पेड़ पर औसत

6,844 रुपये खर्च हो रहे हैं। हालाँकि ट्रांसप्लांटेशन की यह लागत भी अलग-अलग है, जैसे 30 सेंटीमीटर तक के परिधि वाले एक पेड़ पर 2800 रुपये, 31 से 50 सेंटीमीटर तक परिधि वाले एक पेड़ पर 5,000 रुपये, 51 से 125 सेंटीमीटर वाले पेड़ पर 7,100 रुपये और 126 से 200 सेंटीमीटर तक वाले पेड़ पर 9,200 रुपये की लागत आ रही है। सभी भारी पेड़ों की ट्रांसप्लांटेशन से पहले छंटाई करनी होती है। उसके बाद तने के आधार के पास ज़मीन में पर्याप्त परिधि व गहराई में मशीन से खुदाई की जाती है, फिर जड़ों की मिट्टी को सँभालकर जेसीबी हाईड्रा क्रेनों व ट्रकों की मदद से उन्हें दूसरे स्थान पर लगाने के लिए ले जाया जाता है। जहाँ पेड़ को लगाया जाता है, वहाँ पहले से ही उसी आकार का गड्ढा खोदकर रखा जाता है।

ट्रांसप्लांटेशन पर विवाद भी

इधर दिल्ली के डीटीयू में पेड़ों का ट्रांसप्लांटेशन पर विवाद छिड़ गया है। ट्री एक्सपर्ट और लेखक प्रदीप कृषन ने दिल्ली सरकार के इस काम को गलत मौसम में ट्रांसप्लांट करने की प्रक्रिया बताया है। उन्होंने कहा है कि नीम, अमलतास और जामुन जैसे पेड़ों का ट्रांसप्लांटेशन जनवरी के करीब होना चाहिए था, यह मौसम उनके ट्रांसप्लांट के अनुकूल नहीं है। इसके लिए उन्होंने डीएमआरसी द्वारा असोला में ट्रांसप्लांट किये गये पेड़ों का उदाहरण दिया, उन्होंने कहा कि वो पेड़ जीवित नहीं रह पाये। उन्होंने यह भी कहा कि प्रगति मैदान में भी 1713 पेड़ों का ट्रांसप्लांट किया गया था, जिनमें केवल 36 पेड़ ही जीवित रह सकने की स्थिति में हैं। कृषन ने इस प्रक्रिया को काफी महँगा और कम फायदे वाला बताया है। इस काम के ठेकेदार अशोक कुमार का दावा है कि उनके द्वारा पहले किया गया ट्रांसप्लांटेशन काफी सफल रहा है। उन्होंने कहा कि रानी बाग में एक अस्पताल के निर्माण के दौरान पीडब्ल्यूडी के साथ मिलकर 30 पेड़ ट्रांसप्लांट किये थे। इसके अलावा वल्लभगढ़ में 125 पेड़ और एनडीएमसी के 17 पेड़ ट्रांसप्लांट किये गये, जिनमें 90 फीसदी से अधिक जीवित रहे।

देश में अब तक कहाँ-कहाँ ट्रांसप्लांट हुए हैं पेड़

ऐसा नहीं है कि दिल्ली पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने वाला पहला राज्य है, इससे पहले दूसरे राज्यों में भी पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं। हालाँकि दिल्ली में जो विधेयक पास हुआ है, यह देश में पहली बार हुआ है। वैसे तो दिल्ली में ही इससे पहले कई जगह पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं, लेकिन इसके अलावा हरियाणा के वल्लभगढ़, इंदौर (मध्य प्रदेश),  गुजरात आदि में पेड़ ट्रांसप्लांट किये जा चुके हैं। वैसे भारत में पेड़ों के ट्रांसप्लांटेशन की शुरुआत 2016 में ही हो चुकी थी। भारत में इस तकनीक को आईआईटी ने अंजाम दिया था।

दिल्ली ही नहीं, पूरे देश में है पेड़ों की कमी

पर्यावरण और इंसानों को पेड़ों की आवश्यकता के आधार पर देखें तो एक व्यक्ति पर कम-से-कम 64 पेड़ होने चाहिए; जबकि देखा गया है कि कहीं-कहीं 64 परिवारों पर भी एक पेड़ नहीं है। दिल्ली के अलावा भारत के कई शहरों में कई कॉलोनियाँ ऐसी हैं, जिनमें पेड़ों का बेहद अभाव है। वहीं भारतीय गाँवों में फिर भी पेड़ हैं। एक सर्वे के मुताबिक, करीब तीन दशक पहले भारत में अब से दोगुने से ज़्यादा पेड़ थे। देश में पेड़ों की इतनी तेज़ी से कटाई चिन्तित करती है। सन् 2018 में जारी नेचर जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में एक व्यक्ति के लिए ओसतन करीब 422 पेड़ मौज़ूद हैं; लेकिन भारत में यह संख्या बहुत कम, सिर्फ 35 है। जबकि रूस में सबसे ज़्यादा एक व्यक्ति पर करीब 641 पेड़ मौज़ूद हैं।

रोकना होगा पेड़ों का अवैध कटान

भारत में आज भी जंगलों का अवैध कटान जारी है। कई जगह तो पेड़ों के कटान को लीगल करार दिलवाकर वन विभाग और प्रशासन आदि की सहमति से काटा जाता है। इसी तरह अवैध कटान भी वन विभाग और स्थानीय प्रशासन की जानकारी में ही होते हैं और यह सब चंद पैसों के लालच में चंद लकड़ी माफिया से मिलीभगत करके किया-कराया जाता है। हर राज्य में दिल्ली की तरह पेड़ न काटने पर कानून बनना चाहिए, ताकि हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सके।

लोगों को पेड़ लगाने के लिए किया जाए प्रोत्साहित

भारत के गाँवों में अधिकतर घरों के आँगन में किसी-न-किसी चीज़ का पेड़ अब भी मिल जाता है। हालाँकि शहरों में भी पुराने घरों में या किसी-किसी बड़े घर में पेड़ मिल जाते हैं। यह बहुत अच्छी बात है। केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को चाहिए कि वे लोगों को अपने-अपने घरों में या घरों के आसपास पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित करें। जिन घरों में पेड़ लगाने की जगह न हो, उन घरों में अधिक-से-अधिक फुलवारी या छोटे कद के वो पेड़ लगाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो गमलों में लग सकते हों।

दिल्ली व अन्य शहरों में लगभग सभी सडक़ों के दोनों किनारों पर अतिक्रमण रहता है। ऐसी सभी सडक़ों पर से अतिक्रमण हटवाकर वहाँ दोनों तरफ पोधरोपण किया जाना चाहिए, ताकि भारतीय शहर हरे-भरे हो सकें। हमारा पर्यावरण जितना शुद्ध होगा, हम उतने ही स्वस्थ होंगे। आज जितना पैसा हर व्यक्ति अपनी बीमारी में लगाता है, अगर उसका 15 फीसदी भी पेड़ लगाने में खर्च कर दे, तो उसके बीमार होने की सम्भावना कम हो जाए।

गाँवों में शिक्षा की ज्योति जला रहा जेएसओ

शिक्षा के बाज़ारीकरण के इस दौर में जब अनेक लोग प्राइवेट स्कूल-कॉलेज खोलकर मोटी कमायी कर रहे हैं, कुछ लोग तथा संगठन अपने दम पर उन बच्चों को शिक्षा और शैक्षणिक सुविधाएँ मुहैया करा रहे हैं, जो सुविधा और संसाधनहीन हैं। कहने का मतलब है कि देश के अनेक गरीब बच्चों को ऐसे लोग या संगठन शिक्षा के संसाधन मुहैया करा रहे हैं; ताकि ये बच्चे भी पढ़-लिखकर अपने जीवन को बेहतर बना सकें। इन प्राइवेट स्कूलों और यहाँतक कोचिंग सेंटरों का धंधा इसी बाज़ारीकरण के चलते पनप रहा है, जिसकी एक वजह ग्रामीण क्षेत्र के अधिकतर सरकारी स्कूलों में बेहतर पढ़ाई का न होना भी है। आज देश के छोटे-छोटे गाँवों में भी प्राइवेट स्कूल खुले मिल जाएँगे। लेकिन गाँवों के लाखों बच्चे उच्च स्तर की शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। इसके दो कारण हैं, पहला है अधिकतर गाँवों में उच्च स्तरीय शिक्षण संस्थानों का अभाव और दूसरा गरीबी। ऐसे में हरियाणा में जमींदारा छात्र सभा (जेएसओ) नाम का संगठन गाँवों के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए आगे आया है। जेएसओ ने गाँवों में आधुनिक लाइब्रेरियाँ खोलनी शुरू कर दी हैं। यह लाइब्रेरियाँ इतनी आधुनिक हैं कि इनके आगे कई सरकारी लाइब्रेरियाँ भी फीकी हैं। इन लाइब्रेरियों में छोटी कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा और विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु किताबें मौज़ूद हैं। इतना ही नहीं इस संगठन द्वारा खोली गयी लाइब्रेरियों में कम्प्यूटर, जेनरेटर और पढऩे वालों के लिए स्वच्छ पानी आदि की पूरी व्यवस्था की गयी है।

जमींदारा छात्र सभा के प्रमुख इंद्र्रजीत बराक ने इसे शुरू किया है, जिसमें और भी कई पदाधिकारी तथा सदस्य अपने-अपने स्तर पर आर्थिक तथा अन्य तरह की मदद कर रहे हैं। इंद्रजीत बराक, नवीन चहल और मीत मान ने बताया कि लाइब्रेरी बनाने से पहले गाँव जेएसओ इसके लिए गाँव को गोद लेता है। उन्होंने और संगठन के बाकी सदस्यों ने पहले मालकोष गाँव को गोद लिया और फिर गाँव में यह लाइब्रेरी बनायी। बराक के अनुसार, हम देश भर में ऐसे सदस्य बना रहे हैं, जो समर्थ हैं और गाँवों के ही नहीं शहरों के भी गरीब बच्चों की शिक्षा में कुछ योगदान करना चाहते हैं। सदस्य बनाने के बाद हम ऐसे लोगों से लाइब्रेरी निर्माण में सहयोग की अपील करते हैं और हमें इस काम में सभी की कुछ-न-कुछ मदद मिल भी रही है। उन्होंने कहा कि अभी लाइब्रेरी बनाने की शुरुआत हमने के मालकोष गाँव, चरखी दादरी से की है। इस लाइब्रेरी में आरम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तरीय शिक्षा तथा प्रतियोगी परीक्षाओं तक की अधिक-से-अधिक किताबों के अलावा कम्प्यूटर की सुविधा भी है। बच्चों के बैठने की अच्छी व्यवस्था इस लाइब्रेरी में की गयी है। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन और कोरोना की वजह से हम थोड़ा पिछड़ गये; लेकिन फिर भी अब तक हरियाणा में तीन लाइब्रेरी बनकर तैयार हो चुकी हैं, जिनमें जल्द ही झज्जर ज़िले भुरावास गाँव और लोहारू ज़िला के बराहलू गाँव में भी बाकी दो लाइब्रेरी भी सुचारू हो जाएँगी। इसके अलावा जल्द ही ज़्यादा-से-ज़्यादा गाँवों में ज़्यादा-से-ज़्यादा लाइब्रेरियाँ बनाने की दिशा में काम किया जाएगा। इंद्रजीत बराक ने बताया कि मालकोष गाँव की लाइब्रेरी गाँव के लोगों की एक समिति बनाकर तैयार की गयी है। इसके लिए हमने सरकार से कोई भी मदद नहीं ली है। हमारा उद्देश्य गाँवों के बच्चों को बेहतरीन शिक्षा के लिए प्रेरित करना और उन्हें पढ़ाई के संसाधन उपलब्ध कराना है।

इंद्रजीत बराक कहते हैं कि अभी लाइब्रेरी बनाने का काम हरियाणा से शुरू हुआ है, जिसे हम दूसरे राज्यों में ले जाएँगे और ग्रामीण लोगों को प्रेरित करेंगे कि वह इस मुहिम में हिस्सा लें, ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करके अपना भविष्य उज्ज्वल कर सकें। उन्होंने कहा कि हमारा लक्ष्य ज़मीनी स्तर पर बेहतर काम करने का है। जमींदारा छात्र संगठन के महासचिव मीत मान बताते हैं कि गाँवों में लाइब्रेरियाँ बनाना एक बहुत ही ज़रूरी तथा खास कदम है, जो कि आज के समय की माँग है। उन्होंने कहा कि जल्द ही पूरे राज्य (हरियाणा) में इसी तरह की एक आधुनिक लाइब्रेरी हर गाँव में खोलने का जेएसओ का लक्ष्य है; ताकि गाँवों के बच्चे पढ़-लिख सकें और धर्म, भाषा, क्षेत्र तथा ज़ात-पात के नाम पर खेली जा रही गन्दी राजनीति का शिकार होने से बचे रहें और एक सही दिशा में चलकर एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण करें। संगठन के प्राथमिक सदस्य मालकोष गाँव के निवासी नवीन चहल ने बताया कि किसानों और मज़दूरों के बच्चों की पढ़ाई में कई अड़चने आती हैं, जिन्हें हम बहुत ज़्यादा तो दूर नहीं कर पा रहे हैं; लेकिन गाँव के बच्चों की पढ़ाई न रुके इसके लिए लाइब्रेरी बना रहे हैं, जिनमें गाँवों के बच्चे बिना कोई फीस दिये पढ़ सकते हैं। जब हमने गाँव वालों के सामने यह बात रखी, तो अनेक लोगों ने खुशी-खुशी जो भी सम्भव हो सकी, मदद की। अब मालकोष गाँव की इस लाइब्रेरी में कम्प्यूटर और एकेडमिक किताबें हैं। लाइब्रेरी में पंचायत के सहयोग से इन्वर्टर, बैट्री और सोलर पैनल की व्यवस्था करवा दी गयी है, ताकि बिजली न होने पर बच्चों की पढ़ाई में कोई दखल न पड़े। हम लोग हर 15 दिन में लाइब्रेरी के सम्बन्ध में एक सामाजिक बैठक करते हैं, जिसमें यहाँ पढऩे वाले बच्चों को देश के वर्तमान हालात से अवगत कराया जाता है। चहल बताते हैं कि पहले-पहल इस लाइब्रेरी में बहुत कम बच्चे पढऩे आते थे; लेकिन अब बच्चे की संख्या काफी हो गयी है; यहाँ तक कि पड़ोस के गाँवों के बच्चे भी अब लाइब्रेरी में पढऩे आते हैं। लाइब्रेरी में किसी बच्चे से कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। हमने कोई सरकारी मदद भी अब तक नहीं ली है। उन्होंने कहा अब शहरों तक में बहुत-सी सरकारी लाइब्रेरियों की दशा खराब होती जा रही है। आज अनेक सरकारी लाइब्रेरियाँ केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए खड़ी हैं, उनमें कई लाइब्रेरियाँ ऐसी हैं, जिनमें आधुनिक कुछ भी नहीं है; वो जैसी वर्षों पहले थीं, आज भी वैसी ही हैं। इसके अलावा गाँव के बच्चों के लिए उन लाइब्रेरियों में जाना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि वो बहुत दूर होती हैं। इसलिए मालकोष की इस लाइब्रेरी को हम गाँव के बच्चों के लिए नयी रोशनी की किरण भी कह सकते हैं। इस लाइब्रेरी में बच्चों को किताबी ज्ञान देने के अलावा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी मज़बूत किया जा रहा है, ताकि वह देश की तरक्की में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकें।

बराक ने बताया कि 2013 में मालकोष गाँव में सांसद निधि से एक छोटा-सा पंचायत घर बनाया गया था, जिसका उद्देश्य पंचायत आदि की बैठक आयोजित करना था। लेकिन यह पंचायत घर कई साल से जर्जर हालत में था, जिसकी मरम्मत नहीं हो रही थी। हमने वर्तमान पंचायत समिति से इस पंचायत घर को जेएसओ के नाम अधिकृत करवाया, जिसके बाद इसकी मरम्मत करवाकर, बिजली, पानी, शौचालय और अन्य सुविधाएँ मुहैया कराकर इसे लाइब्रेरी का रूप दे दिया गया। इस काम में अनेक दिक्कतें भी आयी; मसलन शुरू में यह एक राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था, लेकिन किसान बिजेन्द्र चहल और अन्य समझदार लोगों की मदद से इस लाइब्रेरी का काम पूरा हुआ और अब इसमें अनेक बच्चे पढ़ते हैं। उन्होंने कहा कि बड़ी बात यह है कि मालकोष गाँव में आज भी मूलभूत सुविधाओं की कमी है, गाँव में पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद हमने और ग्रामीणों ने मिलकर इस गाँव को एक आधुनिक लाइब्रेरी दी है, जो यहाँ के बच्चों का भविष्य उज्ज्वल करने में सहयोग करेगी। उन्होंने कहा कि बड़े सम्मान की बात है कि इस गाँव के हर परिवार का कोई-न-कोई सदस्य सेना में है; लेकिन यह भी अफसोस है कि गाँव का एक भी खिलाड़ी राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर का नहीं है, जिसके लिए बच्चों को अब प्रेरणा भी दी जा रही है। बराक ने कहा कि संविधान के रचयिता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का सपना था कि गाँव-गाँव में शिक्षा की ज्योति जले और हर बच्चा शिक्षित हो। यह लाइब्रेरी बाबा साहब के सपने को साकार करने में मील का पत्थर साबित होगी। आज जब कोरोना वायरस के चलते स्कूल-कॉलेज बन्द हैं और डिजिटल पढ़ाई हो रही है, तब अधिकतर गाँवों के बच्चे, खासकर गरीबों के बच्चे सुविधाओं के अभाव में ऑनलाइन पढ़ाई से वंचित रह रहे हैं। ऐसे बच्चों के लिए भी यह लाइब्रेरी काफी महत्त्वपूर्ण है।

बता दें कि बराक बिल्डिंग मैटेरियल का व्यवसाय करते हैं और अभी तक जमींदारा छात्र सभा संगठन में हर तरह के सहयोग से लेकर वह काफी कुछ कर चुके हैं। उन्होंने बताया कि जेएसओ में अब 10 हज़ार से भी अधिक सदस्य हैं, जिनकी संख्या बढ़ाने के लिए मुहिम चालू है, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा गाँवों में लाइब्रेरियाँ खोली जा सकें। उन्होंने बताया कि संगठन का मकसद गरीब बच्चों को लाइब्रेरी के ज़रिये वे किताबें और सुविधाएँ मुहैया कराना है, जिनके अभाव में वे पढ़ नहीं पाते। अभी इस कड़ी में एक लाइब्रेरी शुरू हुई है और दो अन्य लाइब्रेरियाँ बनकर तैयार हैं; लेकिन भविष्य में इस मुहिम को पूरे देश में ले जाने की योजना है, जिसे इस संगठन से जुड़ रहे लोगों की मदद से पूरा किया जाएगा।

ऑनलाइन खरीदारी में सावधानी की दरकार

भारत में अक्टूबर से दिसंबर तक त्योहारों का महीना होता है। इन 3 महीनों में हर महीने कोई-न-कोई त्योहार मनाया जाता हैं। पहले दशहरा, फिर दीवाली व छठ, उसके बाद क्रिसमस और फिर न्यू ईयर। तीनों महीने लोग जमकर खरीदारी करते हैं। आजकल ऑनलाइन शॉपिंग का चलन है। इसमें लोगों को दूकान जाने की ज़रूरत नहीं होती है। शॉपिंग मोबाइल पर ही हो जाता है। ई-कारोबारी इन महीनों में अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। इस साल सभी के जीवन में कोरोना वायरस का ग्रहण लगा हुआ है। फिर भी अनलॉक का 5वाँ चरण शुरू होने के कारण आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं। कल-कारखानों में काम शुरू हो गये हैं। स्व-रोज़गार करने वाले फिर से अपने काम में व्यस्त हो गये हैं।  वैसे कोरोना महामारी के कारण ज़्यादा गहमागहमी रहने की उम्मीद नहीं है। फिर भी आमजन के मन-मस्तिष्क पर त्योहारों का खुमार तो ज़रूर रहेगा। ई-कारोबारी चाहते हैं कि इस साल भी वे अरबों-खरबों का कारोबार करें। ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ, मसलन, टाटा क्लिक, एजियो, मैक्स, शॉपर स्टॉप, लाइफस्टाइल, मिंत्रा, जाबोंग, फ्लिपकार्ट, एमेजॉन आदि अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से आकर्षक छूट देने की पेशकश करने वाले हैं। दुर्गा पूजा के बाद भी सेल-महासेल का दौर चलता रहेगा; क्योंकि दीवाली में कारोबारी सबसे ज़्यादा मुनाफा कमाते हैं। वैसे ग्राहकों को ऑनलाइन शॉपिंग के दौरान सावधान रहने की भी ज़रूरत है, क्योंकि इसमें धोखाधड़ी की बहुत ज़्यादा गुंजाइश होती है। ऑनलाइन बाज़ार में सावधानी हटने पर, ठगे जाने की सम्भावना रहती है।

ई-कारोबारी और ग्राहकों की तैयारी

ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ सेल-महासेल कर रही हैं। ई-कारोबारी खाद्य पदार्थ, एनर्जी ड्रिंक्स, फिल्टर कॉफी, बीन बैग्स, एलेक्सा, इलेक्ट्रॉनिक आइटम, होम अपलायंस सहित आमजन की ज़रूरत की हर चीज़ सेल-महासेल में बेचने के लिये तैयार हैं। कोई भी ई-कारोबारी इस मौका को अपनी मुट्ठी से फिसलने नहीं देना चाहता है। पिछले साल ई-कारोबारियों ने इन 3 महीनों में करोड़ों-अरबों की कमायी की थी। वैसे, ग्राहक भी ऑनलाइन बाज़ार लगने का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। छूट का अधिकतम लाभ लेने के लिए ग्राहक सेल-महासेल के दौरान स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, एक्सिस बैंक और एचडीएफसी बैंक का क्रेडिट कार्ड रखते हैं, क्योंकि ई-कारोबारी घोषित छूट से अतिरिक्त छूट इन क्रेडिट कार्डों के ज़रिये तुरन्त देते हैं। यह छूट 5 से 10 फीसदी तक होता है। इसलिए जिनके पास इन बैंकों के क्रेडिट कार्ड नहीं होते हैं, वे अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से क्रेडिट काड्र्स माँगकर ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं।

सस्ते के चक्कर में ज़्यादा खरीदारी

आमतौर पर ऐसे सेल-महासेल की समय-सीमा होती है। ई-कारोबारी ज़्यादा-से-ज़्यादा फायदा उठाने के लिए त्योहारी सीज़न में हर रोज छूट का विज्ञापन प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देते हैं। इन विज्ञापनों में यह लिखा हुआ होता है कि अमुक तिथि के बाद छूट का लाभ नहीं मिलेगा। कई बार तो ई-कारोबारी उत्पादों की कीमत को एमआरपी से ज़्यादा दिखाकर उस पर छूट देते हैं, ताकि छूट का प्रतिशत ज़्यादा दिखे। यह भी देखा जाता है कि सेल-महासेल के दौरान कुछ ही वस्तुओं पर छूट दी जाती है और यह दिखाया व बताया जाता है कि उन उत्पादों का स्टॉक सीमित है। कहीं स्टॉक खत्म न हो जाए, इस डर से ग्राहक जल्दबाज़ी में उक्त उत्पादों को अधिक कीमत पर खरीद लेते हैं।

ई-कारोबारियों की रणनीति

ई-कारोबारी उत्पादों को ज़्यादा-से-ज़्यादा बेचने के लिए ग्राहकों को तरह-तरह के उपायों से लुभाने की कोशिश करते हैं, जिनमें कूपन कोड, रेफरल पॉइंट्स, जानबूझकर स्टॉक को सीमित दिखाना आदि हैं। ग्राहकों को लुभाने के लिए उन्हें एसएमएस और मेल भेजा जाता है। कई बार उन्हें फोन भी किया जाता है। अक्सर देखा जाता है कि ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के पोर्टल पर मोबाइल कुछ सेकेंड में बिक जाते हैं। मोबाइल खरीदने वाले अपने को भाग्यशाली समझते हैं। वहीं निर्धारित समयावधि में मोबाइल नहीं खरीद पाने वाले ग्राहक अपनी िकस्मत को कोसते हैं। बहुत सारे दूसरे उत्पाद भी इसी तर्ज पर बेचे जाते हैं; लेकिन वास्तव में मोबाइल बिकने की जो संख्या बतायी जाती है, वह गलत होती है। इस तरह की रणनीति ग्राहकों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए अपनायी जाती है। यह भी देखा गया है कि ऑनलाइन कारोबारी पुराने मोबाइल, टैब और लैपटॉप को मरम्मत कराकर बेचते हैं, जिनकी कीमत में अन्तर नये उत्पादों से बहुत ज़्यादा नहीं होता है। अनेक बार धोखे में ग्राहक ऐसे पुराने उत्पादों को भी खरीद लेते हैं। ऐसे उत्पाद जल्द ही खराब हो जाते हैं।

एमआरपी के साथ छेड़छाड़

उत्पादों को बेचने के लिए ई-कारोबारी कई तरह के नुस्खे आजमाते हैं। जिन उत्पादों को उन्हें बेचना होता है, उन्हें वे लोकप्रिय बना देते हैं। कई बार उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ फर्ज़ी सर्वे का सहारा लेती हैं। फिर तथाकथित लोकप्रिय उत्पादों पर वे भारी-भरकम छूट की पेशकश करती हैं; जबकि नहीं बेचने वाले उत्पादों की कीमत ज़्यादा दिखायी जाती है; ताकि लोग तथाकथित लोकप्रिय उत्पादों को ही खरीदें। गौरतलब है कि छूट देने के बाद भी ई-कारोबारी उत्पादों को उनकी वास्तविक कीमत पर ही बेचते हैं। खरीदे हुए उत्पादों की कीमत मिटा देने के मामले भी देखे जाते हैं। ग्राहक मिटायी हुई कीमत वाले उत्पाद मिलने पर हैरान-परेशान रहता है; क्योंकि ऐसे उत्पाद को लौटाना सम्भव नहीं होता है।

मुफ्त या सस्ती डिलीवरी के नाम पर कमायी

ई-कारोबारी मुफ्त या सस्ती डिलीवरी के भी पैसे लेते हैं। वे इसके लिए कूपन जैसे- प्राइम, गोल्ड, सिल्वर आदि बेचते हैं। जो ग्राहक ऐसे कूपन खरीदते हैं, उन्हें ई-कारोबारी ज़्यादा छूट देने की पेशकश करते हैं। अगर कोई ग्राहक ऐसे कूपन नहीं खरीदता है, तो उन्हें उत्पादों की डिलीवरी 7 से 15 दिनों में की जाती है। कभी-कभी डिलीवरी में एक महीने का भी समय लग जाता है। ऐसे उत्पाद ऑनलाइन भुगतान करने के बाद ही डिलीवर किये जाते हैं। पैसे अधिक समय तक फँसे रहने से ग्राहकों को ब्याज का नुकसान होता है।

सामान बदलने या लौटाने के अपारदर्शी नियम

ऑनलाइन बाज़ार से खरीदे गये बहुत सारे उत्पाद ऐसे होते हैं, जिन्हें ई-वाणिज्यिक कम्पनियाँ न तो बदलती हैं और न ही वापस लेती हैं। उत्पाद के खराब निकलने पर ग्राहक को कस्टमर केयर अधिकारी उत्पाद के सर्विस सेंटर जाने के लिए कहते हैं। वहाँ उत्पाद की केवल मरम्मत की जाती है। ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के बहुत सारे नियम-कानून अपारदर्शी होते हैं, जिनकी जानकारी ग्राहकों को नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर बहुत सारे उत्पादों में एश्योर्ड लिखा होता है। ऐसे उत्पादों की डिलीवरी में परेशानी नहीं होती है। कुछ उत्पादों को ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के ज़रिये खुदरा विक्रेता सीधे ग्राहकों को बेचते हैं। ऐसे उत्पादों के डिटेक्टिव रहने पर ग्राहक को स्वयं विक्रेता को उत्पाद वापस करना पड़ता है और धन वापसी के लिए महीनों फालो-अप करना पड़ता है, तब जाकर उनके पैसे वापस मिल पाते हैं। अगर ग्राहक पड़ा-लिखा नहीं है, तो उनके पैसे डूब भी जाते हैं।

ग्राहक सेवा प्रभावी नहीं

ई-वाणिज्यिक कम्पनियों का कस्टमर केयर सिस्टम (ग्राहक सेवा) प्रभावी नहीं है। कस्टमर केयर अधिकारी को अपने कम्पनी के दिशा-निर्देशों की जानकारी नहीं होती है। ई-वाणिज्यिक कम्पनियों के आला अधिकारियों के फोन नम्बर भी बेवसाइट पर उपलब्ध नहीं होते हैं। कस्टमर केयर अधिकारी भी बड़े अधिकारी का नम्बर उपलब्ध नहीं कराते हैं। फोन करने पर आमतौर पर हर बार कस्टमर केयर अधिकारी बदल जाते हैं। अगर किसी ग्राहक को कोई समस्या होती है, तो उन्हें हर बार नये सिरे से कस्टमर केयर अधिकारी को पूरी कहानी सुनानी पड़ती है। कस्टमर केयर हेल्पलाइन पर मेल करने से भी समस्या का समाधान नहीं निकल पाता है। मेल में एक बात को बार-बार दोहराया जाता है। ऑनलाइन चैट या व्हाट्सएप पर चैट करने से भी समस्या का समाधान नहीं निकल पाता है। फालो-अप करने से ही समस्या का समाधान निकल जाता है; लेकिन इसमें समय बहुत लगता है। अनेक बार ग्राहकों के पैसे डूब भी जाते हैं।

प्रभावी कानून का अभाव

फिलहाल अपने दोयम दर्जे के उत्पाद बेचने के लिए ई-कारोबारी वैसे यूट्यूबर की मदद लेते हैं। जिनके करोड़ों सब्सक्राइबर होते हैं। यूट्यूबर खराब उत्पाद को भी अच्छा बताते हैं, जिससे उपभोक्ता झाँसे में आ जाता है। ऐसे ई-कारोबारी आमतौर पर उत्पाद को बेचने के बाद वापस नहीं करते हैं। ऐसे उत्पादों को एक्सचेंज करना भी आसान नहीं होता है। अमूमन, ग्राहक बिना टम्र्स एंड कंडीशन देखे ऐसे ई-कारोबारियों से ऑनलाइन खरीदारी कर लेते हैं और उत्पाद को देखने के बाद वे अपना सिर पीट लेते हैं; क्योंकि फोटो से कपड़े या दूसरे उताप्दों की गुणवत्ता को पहचानना सम्भव नहीं होता है। कई बार ऑनलाइन दिखाये गये उत्पाद की जगह दूसरे उत्पाद की डिलिवरी कर दी जाती है, जिन्हें ई-कारोबारी वापस नहीं लेते हैं। एथेनिक प्लस ऐसा ही कपड़ों का एक ऑनलाइन विक्रेता है, जो दोयम दर्जे के वस्त्रों को अधिक कीमत में बेच रहा है। जब ग्राहक पुलिस की शरण में जाते हैं तो वे ई-कारोबारियों के खिलाफ कार्रवाई करने में अपनी असमर्थता जताते हैं; क्योंकि हमारे देश में अभी भी मामले में कारगर कानून का अभाव है। स्पष्ट कानून नहीं होने की वजह से ग्राहक उपभोक्ता फोरम या अन्य अदालतों की शरण में भी नहीं जा पाते हैं।

इसमें दो-राय नहीं है कि ग्राहक पहले से समझदार हुए हैं; लेकिन अभी भी अधिकांश ग्राहक ई-वाणिज्यिक कम्पनियों की लाभ कमाने की रणनीति को नहीं समझ पाते हैं और उनके जाल में फँसकर अपनी मेहनत की कमायी को जाया कर देते हैं। आजकल बाज़ार में कुकरमुत्ते की तरह ऑनलाइन विक्रेता आ गये हैं, जिनमें से अधिकांश का मकसद होता है- ठगी के ज़रिये अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना। इसलिए ग्राहकों को अनजान ऑनलाइन विक्रेताओं से बचने के अलावा अपने लालच पर भी नियंत्रण करना चाहिए; क्योंकि धोखाधड़ी करने वाले ऑनलाइन विक्रेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अभी भी देश में स्पष्ट और पारदर्शी कानून का अभाव है।

सेल हो या महासेल, साल भर चलती रहती है। अक्टूबर में दशहरा के लिए महासेल चली, अब नवंबर में दीपावली, फिर छठ, फिर क्रिसमस और फिर न्यू ईयर। कोरोना-काल में तो ग्राहकों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है, क्योंकि अभी अधिकांश लोग आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं। पैसा व्यर्थ में जाया हो जाने के बाद आसानी से दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता है। इसलिए हमें बिना किसी दबाव के समझदारी एवं ज़रूरत के अनुसार खरीदारी करनी चाहिए।

दीवार तो टूटी, लेकिन दिल क्या वाकई जुड़े?

तकरीबन 31 साल हुए, जर्मनी को विभाजित करती दीवार को तोड़े हुए। यह दीवार टूटी तो नवंबर 1989 को। एक साल लगा कागज़ पूरे करने में। दीवार के टूटने पर दोनों ओर के नागरिकों की खुशी का पारावार नहीं था। जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। पूरी दुनिया अचभ्भे मेें थी। एक नया इतिहास बना था। दीवार का टूटना और देश का एकीकरण विकास की असीम सम्भावना की ओर संकेत कर रहा था। जिसमें जर्मनी न केवल अखंड, बल्कि और मज़बूत होने का संकल्प ले रहा था। यह खुशी उस संकल्प की थी, जो 3 अक्टूबर, 1990 की याद दिलाता है जब हज़ारों परिवार जो विभाजित हो गये थे; अब फिर एक हो रहे थे। सुख-दु:ख बाँटने का संकल्प ले रहे थे। बड़ी तादाद उन प्रेमियों की थी, जो अपने जीवन के बड़े हिस्से को निरर्थक पाने बैठे थे। उनके चेहरे पर अब उम्मीद की नयी चमक थी।

जर्मनी में बर्लिन ऐतिहासिक शहर है। यहीं है वह मशहूर बैंडेनबर्ग गेट। यह बड़ा ही भव्य गेट है। कई दशकों तक इस उत्तर से पश्चिम जर्मनी और पूर्व जर्मनी के नागरिकों के आने-जाने पर रोक रही। अब यह गेट जर्मनी की एका और आज़ादी की खुशी का प्रतीक है। इसी गेट पर आज आते हैं हाथों में बैनर-पोस्टर लिये मूक प्रदर्शनकारी। तमाम यूरोपियन यूनियन में शामिल विभिन्न देशों के बच्चों के साथ यहीं बड़ा प्रदर्शन करके क्लाइमेट चेंज के खतरे बताये थे ग्रेटा धनबर्ग ने। उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि यहीं से मिली। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बर्लिन शहर भी 1945 में बँट गया था। शहर के बीच कँटीले तार लग गये थे। पूर्व से पश्चिम को दीवार के ज़रिये बँट गया था। यह सिर्फ बँटवारा नहीं था। यह एक देश को पूँजीवाद और माक्र्सवाद में बाँटना था। एक ही शहर के नागरिकों पर यानी एक तरफ आज़ादी और दूसरी तरफ शोषण। दो अलग-अलग विचारधाराएँ। अलग-अलग विचारधाराओं का दबाव।

जर्मन राष्ट्रीय एकता समारोह किसी एक शहर में नहीं, बल्कि देश की राजधानी के अलावा उन तमाम शहरों में मनाये जाते हैं। खासकर जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में लगातार इज़ाफा होता दिखता है। बान में एक छात्रा कैथरीरन ने बताया कि यह समारोह देश की एकता और प्रगति का प्रतीक है, साथ ही यह हमारी खुशी और हमारे इतिहास से जुड़ा है। इसलिए घर-घर उल्लास, उत्साह और शालीनता के साथ अपनी खुशी का इज़हार अनोखे तरीके से करते हैं।

हर साल राष्ट्रीय समारोह बर्लिन से शुरू होता है फिर फ्रैंकफर्त (जर्मनी का प्रमुख वैश्विक केंद्र, जो सम्पन्न है व्यावसायिक, सांस्कृतिक शैक्षणिक, पर्यटन और यातायात में) हनोवर, लेपजिग, डुसेलडर्फ आदि शहरों में बड़ी ही धूमधाम से कम-से-कम तीन दिन तो चलता है। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। संगीत और नृत्य के कार्यक्रम होते हैं। लोगों की रुचियों के लिहाज़ से विभिन्न संग्रहालय, पार्क, रेस्तरां, चिडिय़ाघर, बाज़ार आदि खुले रहते हैं। सभी मिलजुलकर नाचते-गाते, खाते-पीते हैं और अपने सम्पर्क का दायरा बढ़ाते हैं। इस मौके पर विभिन्न दूकानों पर नये-नये उत्पाद भी बाज़ार में अपना आकर्षण बिखेरते दिखायी देते हैं।

एकता समारोहों का केंद्र राजधानी बर्लिन होता है। वहाँ संसद के ऊपरी सदन से इसकी शुरुआत होती है। इस मौके पर चांसलर एंजेला मारकेल ने कहा कि विस्थापितों की समस्या को सभी यूरोपीय देशों को जानते हुए उसके समाधान में परस्पर सहयोग करना होगा। दीवार का टूटना और लोगों का आपस में मिलना जर्मनी के लिए ऐतिहासिक है। आज यह समारोह सिर्फ सरकारी नहीं रहा है। जनता पूरे महीने अलग अलग शहरों की सडक़ों पर मुख्य बाज़ारों, पार्कों, होटलों और रेस्तरां में विभिन्न रंगारंग कार्यक्रमों के साथ समारोह मनाती है।

कोरोना वायरस से यूरोप में फैली महामारी का असर जर्मनी में भी हैै, पर उतना भयावह नहीं है। वहाँ भी मास्क पहनने पर युवा आसानी से राज़ी नहीं होते। इसके खिलाफ कई प्रदर्शन भी हुए। लेकिन समारोह में भागीदारी जताने में कहीं कोई कमी नहीं आयी। पुलिस और प्रशासन अलबत्ता हर पल चौकस रहा। जर्मनी का यह त्योहार कई मायनों में अनोखा है। जर्मन बुद्धिजीवी, राजनीति, समाज-संस्कृति में रुचि लेने वाले राजनीतिक बड़ी बारीकी से इस पर नज़र रखते हैं। वे यह समझने की कोशिश करते हैं कि इस समारोह को मनाने की पीछे क्या-क्या वजह हैं? पूर्व और पश्चिमी जर्मनी में वैचारिक मतभेद नागरिकों में थे। ऐसे में क्या बदलाव दिखा?

लेकिन बदलाव दिखा। पिछले 30 साल में खुद विकास करने की चाह ने, आज़ाद रहने, लोकतंत्र को मानने ने एक स्वस्थ, जागरूक मज़बूत जर्मनी को बनाया। जर्मन इतिहास के पन्नों को सँभालते हुए जर्मन एका का बनाये रखते हुए कमज़ोर, परेशान लोगों के साथ पिछले 30 साल में विकास किया। यह बताते हैं समाजशास्त्री डॉक्टर जार्गन मोरहार्ड। इतिहास है, जब पश्चिम जर्मनी यानी फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी (जीडीआर) जर्मन उैयानी पूर्वी जर्मनी थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी दो भाग हुआ। यह विभाजन 155 किलोमीटर लम्बी दीवार के ज़रिये हुआ, जिससे बर्लिन वाल रहा। हज़ारों परिवारों ने विभाजन को झेला। आखिर वह घड़ी आयी, जब सारे चेक पोस्ट दोनों देशों के बीच की सीमाओं पर खोल दिये गये। दोनों देशों के नागरिकों के चेहरे खिले। आपसी मेल-जोल बढ़ा। सबने मिलकर एक नये जर्मनी का निर्माण शुरू किया। गरीबी-अमीरी मुद्दा नहीं रहा। परस्पर सहयोग, परिश्रम और वैचारिक आदान प्रदान से देश में खुशहाली आयी।

जर्मनी में बर्लिन एक ऐसा शहर है, जहाँ आधुनिकता के बावजूद इतिहास के पन्ने हमेशा जीवंत दिखते हैं। इतिहास में हमने सँजोये रखा। उससे सीखते हुए विकास करते हैं भारतीय छात्र सूर्यनाथ जो जर्मन भाषा में एडवांस स्टडी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि कैसे वे पढ़ाई भी करते हैं और जर्मन साहित्य, इहितास और विभिन्न विचारधाराओं को बर्लिन मेंं पैदल घूमते हुए जानते-समझते रहे हैं। जब बर्लिन दीवार टूटी, तो बर्लिन में बने हुए 368 मीटर ऊँचे टीवी टॉवर फरनेशटर्म को गिरा देने की बात हुई। लेकिन उसे बरकरार रखा गया और वहीं से जर्मनी ने प्रसारण व्यवस्था जारी रखी। इसे जर्मन वास्तुकला का एक प्रयोग मान कर दुरुस्त रखा गया।

जब राष्ट्रीय एकता समारोह होते हैं और जाड़ों में कोलोन, बोन मेें कार्निवाल की अगवानी का सिलसिला होता है, तो बर्लिन में ऐतिहासिक स्थलों पर भी रोशनी की झालरें जगमगाती हैं। बड़ी ही सावधानी से इतिहास को चित्रों, तब के प्रतीकों आदि को बड़े ही आकर्षक तरीके से विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित रखा गया है। आप बर्लिन के कठिन दौर को रेख्ता- बर्लिनर डोम, और ओरिएनबर्गर स्ट्रास में घूमते हुए पहचान सकते हैं। बेहद पुराने, और बीती शताब्दी के लम्हों को (वे अच्छे हों या बुरे) उन सबको बर्लिन ने सहेजा है। देखते-समझते हुए आप गुज़रे हुए को आज की चुनौतियों के साथ जान-समझ सकते हैं।

अक्टूबर का पूरा महीना भी जर्मनी के पुराने और नये स्वरूप की झलकी देने के लिए पर्याप्त नहीं है। हालाँकि यह कोशिश रही है कि बर्लिन को उसकी सांस्कृतिक, वैचारिक और ऐतिहासिक पहचान बनाये रखते हुए जर्मन इतिहास और संस्कृति को एक जगह पेश किया जाए। बर्लिन में ईस्ट साइड गैलरी में टूटी दीवार के वे हिस्से आज भी सुरक्षित हैं, जिन पर तब के पश्चिमी जर्मनी के परिवारों के सदस्यों ने अपनी व्यथा को दीवार ही बड़ा कैनवास मानकर रंगों से ग्रैफिटी बनायी। दीवारों पर सिर्फ चित्र नहीं, कविताएँ भी हैं और कार्टून भी। सारी दुनिया के बुद्धिजीवियों के लिए आज भी ऐसी प्रसतुति चुनौती हैं। वे तब के मानव की मानसिक यातना और सोच का धरातल महसूस कर सकते हैं। बुद्धिजीवियों के लिए अनेक म्मूरल और ग्रैफिटी को देखते हुए तब के मानव की यातना और सोच का एक धरातल महसूस किया जा सकता है। जर्मन लोगों ने बर्लिनर माडर 1961-1989 को आज भी सुरक्षित रखा है। जिसे देखकर दुनिया भर के लोग बीते इतिहास की खौफनाक दरिंदगी का एक अहसास ले सकते हैं। बर्लिन वाल आज प्रतीक है उन असंख्य विभाजित परिवारों के अपने जन के बिछड़ जाने का। आज की जर्मन नौजवान पीढ़ी, बर्लिन वाल की ग्रैफिटी देख कर यह अनुमान लगा सकती है कि वे दिन कितने भयावह रहे होंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में हज़ारों गुमनाम यहूदी लोगों को यातनाएँ देते हुए मार दिया गया। उनकी स्मृति में भी बर्लिन में होलोकॉस्ट मेमोरियल है; जहाँ वाहतुकला के ज़रिये एक विशाल स्थल में श्रद्धांजलि दी गयी है। एक अलग संग्रहालय है, जहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध की दुर्लभ तस्वीरें, ढेरों नाम और वाकये हैं; साथ ही तब के जर्मनी के अंदर मचे नाजी तांडव की तस्वीरें हैं, जिन्हें देखकर मानवता शर्मसार हो जाती है। नेशनल यूनिटी-डे के बहाने आप कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर की जब 9 नवंबर, 1989 की सारी रात पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी के नागरिकों की भीड़ हाथ में हथौड़ा और छेनी से उस मायावी दीवार को ढहा दिया; क्योंकि इस दीवार ने उस मायावी दीवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और प्रेमियों को मिलने से रोक दिया था। वह पीड़ा थी आज़ादी की। वह पीड़ा थी सही मायने में लोकतंत्र को बचाये रखने की। वह पीड़ा थी गरीब और कमज़ोर के काम करने और प्रगति की ओर बढऩे के लिए आज़ादी की। और इसके बाद दोनों जर्मनी एक हों इसके सारे प्रयास शासकीय तौर पर हुए। यूरोप की जनता ने इस एकीकरण को उचित माना।

लगातार संघर्षों के बावजूद जर्मन जनता ने अपनी मेहनत, सोच और विचारधाराओं का सम्मान करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में विकास किया। यह विकास बताता है कि निरंतर सहयोग से कितना कुछ हासिल हो सकता हैै। बर्लिन में ही एक पार्क में कार्ल माक्र्स और फ्रेडरिक एंगेल्स की भव्य मूर्तियाँ हैं। उनके सामने चित्रों से सजे पैनेल पर दूसरे विश्वयुद्ध का ब्यौरा है और दुनिया के विभिन्न देशों में पूँजीवादी और माक्र्सवादी विचारधारा को टकराव की कहानी दी हुई हैं, जिन पर दुनिया भर में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुए संघर्ष का धुँधलाता ब्यौरा सचित्र है। लोग आते हैं पढ़ते हैं। एक छोटी-सी बच्ची हाथों में एक छोटा-सा गुलदस्ता लिये आती है। वह मूर्तियों के पास ज़मीन पर उसे रखती है। कुछ देर खड़ी रहती है। फिर भागकर अपने परिवार के साथ दूर कहीं ओझल हो जाती है।

एकता की मिसाल

दुनिया बुरे लोगों की बदौलत नहीं, बल्कि अच्छे लोगों की बदौलत चल रही है। क्योंकि अगर बुरे लोगों की वजह से दुनिया चल रही होती, तो यहाँ हर तरफ हाहाकार मची होती। वैसे आजकल बहुत-से बुरे लोग भी दुनिया के अनेक देशों, राज्यों और क्षेत्रों पर हुकूमत कर रहे हैं। यही वजह है कि अब बुरे लोग सरेआम वीभत्सता, दरिंदगी, हैवानियत, शैतानियत, वहशत, पशुता और पागलपन की सारी हदें पार कर देते हैं। लेकिन मैं फिर भी कहूँगा कि यह दुनिया अच्छे लोगों की वजह से ही चल रही है; और चलती रहेगी। हाँ, यह अलग बात है कि कुछ बुरे लोगों की वजह से हर काल, हर शतक, हर दशक, यहाँ तक कि हर रोज़, हर पल, कहीं-न-कहीं खून-खराबा होता रहा है, होता रहेगा; झगड़े होते रहे हैं, होते रहेंगे; सत्ता-सुख, शारीरिक सुख, ऐश-ओ-आराम के लिए छीना-छपटी, मार-काट, लूटपाट, अत्याचार होते रहे हैं, होते रहेंगे। यह सदियों से होता रहा है। इसे रोकना इतना आसान नहीं, या कहें कि इसे रोकना शायद ईश्वर के भी हाथ में नहीं; और अगर है, तो वह समय से पहले इसमें दखल नहीं देना चाहता। लेकिन हम अगर चाहें, तो इसे रोक भी सकते हैं।

क्योंकि इंसानियत को ज़िन्दा रखने के लिए दुनिया में धर्म, सत्य और अच्छाई का रास्ता बनाया गया है; ईश्वर की महानता, उसकी व्यापकता, उसकी ताकत, उससे जीव के, खासकर हमारे जन्म-जन्मांतर के रिश्ते को हमें बचपन से समझाया गया है। भले ही हममें से ही कुछ लोगों ने इस दुनिया को नरक बनाकर रखा है, लेकिन हम अगर संकल्प लें, तो इसे रोक सकते हैं।

न जाने कैसे-कैसे लोग हैं? जो दूसरों की रोटी छीनकर खुश होते हैं; दूसरों की लाशों पर जश्न मनाते हैं; दूसरों की हार को अपनी जीत समझते हैं और दूसरों के रोने पर हँसते हैं। ऐसे लोगों के चलते हम बार-बार शर्मसार होते रहते हैं। ऐसे लोग कुछ भी हों, ओहदे और पैसे में कितने भी बड़े और ताकतवर हों; मेरी नज़र में महापापी, परजीवी और नीच ही हैं। मुझे सन् 1990-91 की एक घटना याद आती है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में एक युवक की दिनदहाड़े हत्या कर दी गयी। हत्या का आरोप एक मुस्लिम युवक पर आया। उसे जेल भी हुई। दरअसल गाँव में मज़हबी टकराव हो चुका था और बात इतनी बढ़ गयी थी कि हिन्दुओं और मुसलामनों में लाठियाँ तक चलीं। इनमें मुस्लिम समुदाय का एक लडक़ा पहलवानी करता था और एक साथ कई लठैतों को मार-गिराने की हिम्मत रखता था। वह यूँ तो फिज़ूल किसी से झगड़ा नहीं करता था, लेकिन एक दिन खेतों में उसका दो हिन्दू युवकों से किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया और उसने दोनों को पीट डाला। बस उसके अगले ही दिन, उनमें से एक की लाश जंगल में पड़ी पायी गयी। ज़ाहिराना तौर पर आरोप मुस्लिम युवक पर आना था, सो आया। करीब चार साल बाद वह जमानत पर बाहर आया। उसके आते ही गाँव में फिर वही लड़ाई-झगड़े का माहौल पनप गया। जिस पक्ष के युवक की हत्या हुई थी, उसके दो भाई उसे जान से मारने की फिराक में लग गये। इसी गाँव में उन दिनों एक छोटा-सा मन्दिर भी था। इस मन्दिर में एक बाबा बड़ी शान्ति और सादगी से रहते थे। लेकिन गाँव के कुछ सुलपा (चिलम) पीने वाले लोग बाबा के पास आया-जाया करते थे या फिर पूजा करने आने वाली महिलाएँ, लड़कियाँ बाबा को खुराक आदि दे जाया करती थीं। बाबा को हत्या की सारी कहानी मालूम थी। दरअसल सुलपा पीने वालों के ज़रिये उन्हें गाँव की कई भेदिया बातें बैठे-बिठाये पता लगती रहती थीं। हिन्दू युवक की हत्या की सही जानकारी भी उन्हें इसी तरह मिली। हुआ यूँ- जिस युवक की हत्या हुई, वह पढऩे में काफी तेज़ था; लेकिन पिछड़े समाज से था। वहीं गाँव में उच्च वर्ग के एक अध्यापक थे, जो अपने ही गाँव के जूनियर हाई स्कूल में पढ़ाते थे। अध्यापक को गाँव के लोग और बच्चे माससाब कहकर पुकारा करते थे। यह माससाब देखने में बड़े मीठे और सीधे थे; लेकिन गाँव के दूसरे बच्चों को पढ़ते-बढ़ते देखना इन्हें बिल्कुल रास नहीं आता था। उनका सोचना था कि अगर पिछड़े तबके के बच्चे पढ़-लिख गये, तो उनके इकलौते लडक़े की हैसियत और इज़्ज़त कम होने लगेगी। दूसरा जिस युवक की हत्या हुई, वह माससाब के लडक़े से काफी योग्य था। यह बात माससाब को और भी अखरती थी। सो उन्होंने मौका देख जंगल में अकेले गये पिछड़े वर्ग के उस निर्दोष युवक की हत्या करा दी।

एक दिन देर शाम के समय मृतक के दोनों भाई बाबा के पास आये। उन्हें सुलपा पीना था। पहली बार नशा करने की कोशिश में मन्दिर आये थे; क्योंकि उन्हें मुस्लिम युवक से बदला लेना था। बाबा ने आश्चर्य से उन्हें देखा और नशा न करने की नसीहत दी। लेकिन गर्म खून कहाँ मानने वाला था, सो कह दिया बाबा आज चाहे जो कीमत ले लो, पर सुलपा की दम लगवा दो; आज भगवान शिव की कृपा से कोई बड़ा काम करना है; आप आशीर्वाद दीजिए।

बाबा बड़े मृदुभाषी और मन को पढ़ लेने वाले थे, सो उन्होंने भाँप लिया और प्यार से कहा- ‘होता है बेटा! भाई के जाने का गम बहुत बड़ा होता है। यह गम दुश्मन को मार देने पर भी नहीं जाता।’ बस फिर क्या था, दोनों के मन का गुबार निकल पड़ा। एक ने आँखें नम करते हुए कहा- ‘बाबा! उस कटुआ को नहीं छोड़ेंगे; उसने हमारे घर में मातम किया है।’ बाबा निष्पक्ष और शान्ति-प्रिय थे, सो उन्होंने किसी और अनहोनी की आशंका से दोनों को किसी की हत्या न करने की कसम देते हुए सब कुछ बता दिया। दोनों युवकों ने बाबा के पैर पकड़ लिए और पूछा- ‘बाबा! माससाब का क्या करें?’ बाबा ने कानून का सहारा लेने की सलाह दी। पीडि़तों के कहने पर पुलिस ने दोबारा हत्या की फाइल खोल दी; जाँच हुई। बाबा की बात सही पायी गयी। माससाब को जेल हुई। गाँव में पंचायत हुई। बाबा ने दोनों मज़हबों के लोगों को समझाया कि एकता से रहो, इसी में सबका भला है। उसके बाद गाँव में कभी कोई मज़हबी झगड़ा नहीं हुआ।