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दमन का क़ानून

इस अंक में ‘तहलका की आवरण कथा देशद्रोह के क़ानून और वर्षों से इसका दुरुपयोग कैसे किया गया है; के बारे में है। एक मीडिया हाउस के रूप में हम स्वतंत्र और निडर पत्रकारिता की वकालत करते रहे हैं। हाल के वर्षों में पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए देशद्रोह के तहत मामले दर्ज किये गये हैं। वास्तव में सरकारों द्वारा राजद्रोह के प्रावधानों का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया है। एक स्वतंत्र और निडर मीडिया एक जीवंत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। इसी सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के हाल के दो फ़ैसले आशा की एक किरण जगाते हैं। यह खुशी की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय सरकार के कामकाज की आलोचना करने के मीडिया के अधिकार के साथ खड़ा हो गया है। पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री को निशाना बनाने वाली उनकी कथित टिप्पणियों के लिए दर्ज देशद्रोह के मामले को रद्द करते हुए अदालत ने फ़ैसला सुनाया कि ‘केवल जब शब्दों या अभिव्यक्तियों में सार्वजनिक अव्यवस्था या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी पैदा करने की घातक प्रवृत्ति या इरादा हो, तो ही धारा-124(ए) (देशद्रोह) और आईपीसी की धारा-505 (सार्वजनिक शरारत) के तहत क़दम उठाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘एक नागरिक को सरकार द्वारा किये गये उपायों की आलोचना करने या टिप्पणी करने का अधिकार है; की टिप्पणी के साथ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में देशद्रोह के मामले को ख़ारिज करने के एक दिन बाद एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस फ़ैसले का स्वागत किया। यह कहते हुए कि ‘यह निर्णय देशद्रोह के मामलों से पत्रकारों की रक्षा के महत्त्व को रेखांकित करता है। एडिटर्स गिल्ड ने ‘स्वतंत्र मीडिया और लोकतंत्र पर राजद्रोह क़ानूनों के ख़राब प्रभाव को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की चिन्ताओं की सराहना की। इसमें कहा गया है- ‘गिल्ड इन कठोर और पुरातन क़ानूनों को निरस्त करने की माँग करता है, जिनका किसी भी आधुनिक उदार लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि औपनिवेशिक युग के क़ानून के दायरे और मापदण्डों की व्याख्या की आवश्यकता है; विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के अधिकार के सम्बन्ध में, जो देश में कहीं भी किसी भी सरकार के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रसारित या प्रकाशित कर सकता है। इस मामले में अदालत ने दो तेलुगु समाचार चैनलों को संरक्षण दिया था, जिन पर आंध्र प्रदेश सरकार के ख़िलाफ़ विचार प्रसारित करने के लिए राजद्रोह क़ानून के तहत मामला दर्ज किया गया था। आंध्र प्रदेश पुलिस ने 14 मई को राज्य की कोविड-19 से निपटने के लिए बनायी गयी प्रबन्धन नीति की निंदा करने के लिए दो पत्रकारों के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा-124(ए), 153(ए) और 505 के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी।
यह दो निर्णय अब मीडियाकर्मियों को देशद्रोह के आरोप के साथ पकड़े जाने के डर के बिना अपना काम करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। क्योंकि इस क़ानून का अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडियाकर्मियों के ख़िलाफ़ दुरुपयोग किया गया है और उन पर नियमित अंतराल में देशद्रोह का आरोप लगाया जाता रहा है। हाल में कुछ पत्रकारों के साथ यही हुआ; क्योंकि उन्होंने सत्ता के ख़िलाफ़ टिप्पणियाँ की थीं। जो कोई भी सत्ता के कामकाज से असहमति जताता है, उस पर राजद्रोह क़ानून के तहत मामला बनाया जा सकता है। यह उचित तो नहीं कहा जा सकता। इसमें आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। निश्चित ही ऐसे हालत में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए।

चरणजीत आहुजा

षड्यंत्र के ड्रोन

जम्मू क्षेत्र में ड्रोन हमला और उनकी निरंतर उपस्थिति सुरक्षा के लिए बड़ा ख़तरा

जम्मू हवाई अड्डे के तकनीकी क्षेत्र में ड्रोन से हमला सुरक्षा की एक बड़ी चूक तो है ही, सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी गम्भीर चिन्ता का विषय है। ‘तहलका’ की छानबीन बताती है कि जम्मू हवाई अड्डे के आसपास भवनों का जंगल सुरक्षा के लिहाज़ से बड़ा ख़तरा बन गया है। हवाई अड्डा नियमावली में जो नियम हैं, उन नियमों का पालन नहीं हुआ है, जिससे इन मकानों से कोई भी अवांछित गतिविधि कर सकता है। हवाई अड्डे से जितनी दूरी पर मकान का निर्माण होना चाहिए, उससे कम दूरी में ये मकान हैं। जानकारी के मुताबिक, जो सुरक्षा एजेंसियाँ छानबीन कर रही हैं, उसमें भी यह सामने आया है कि इन्हीं में से किसी मकान से ड्रोन की गतिविधि संचालित होने की इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। सुरक्षा एजेंसियाँ ड्रोन से हमले को गम्भीर ख़तरा मान रही हैं और इससे निपटने की तैयारियाँ भी शुरू कर दी गयी हैं। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि कुछ महीने पहले पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने बाक़ायदा एक पत्र के ज़रिये केंद्र सरकार को ड्रोन गतिविधियों के प्रति सचेत किया था। इसके बावजूद इस ओर ध्यान नहीं दिया गया और आख़िरकार जम्मू हवाई अड्डे के तकनीकी क्षेत्र में ड्रोन से हमला हो गया। हालाँकि ड्रोन का इस्तेमाल करके आतंकी संगठनों के भारत को निशाना बनाने की कोशिशों का मसला भारत ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भी उठाया है।
रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक, ड्रोन के रूप में भारत के सामने एक नया सुरक्षा ख़तरा पैदा हुआ है। उन्होंने चेताया है कि ड्रोन के ज़रिये सीमा पार बैठे आतंकवादी भारत में महत्त्वपूर्ण ठिकानों को निशाना बना सकते हैं। यह पहली बार है, जब भारत में किसी सैन्य प्रतिष्ठान को निशाना बनाने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया गया है।
हालाँकि सच यह भी है कि जम्मू क्षेत्र में सीमा पास पहली बार ड्रोन 2013 में देखा गया था। तब वहाँ ड्रोन का मलवा पड़ा मिला था। जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) दिलबाग सिंह की इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि ड्रोन सीमापार से उड़कर यहाँ आये हों और अपना काम करने के बाद लौट गये हों। जम्मू हवाई अड्डे की घटना के बाद जाँच में यह भी सामने आ रहा है कि ड्रोन तवी नदी के ऊपर से उड़ान भरकर भेजे गये।
फॉरेंसिक एनालिसिस (न्यायिक जाँच) का यह आकलन है कि हमले में इस्तेमाल किया गया विस्फोटक आरडीएक्स था, जिससे हमले की गम्भीरता को समझा जा सकता है। जाँच में पाया गया है कि विस्फोटक भले एक सामान्य यंत्र (डिवाइस) लगता है, लेकिन ज़मीन के सम्पर्क में आते ही उसका असर काफ़ी
प्रभावी था।
वैसे जाँच एजेंसियाँ अभी तक इस बात को लेकर अँधेरे में हैं कि वास्तव में ड्रोन आया कहाँ से? एक अनुमान यह जताया गया है कि हवाई अड्डे के आसपास के घरों में से किसी घर से ड्रोन उड़ाया गया। ड्रोन हमला करके वापस कहाँ से गया, इसकी भी कोई ठोस जानकारी अभी तक नहीं है। सुरक्षा अधिकारियों के मुताबिक, पिछले कुछ मामलों की जाँच से यह सामने आया है कि हथियार गिराने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल सीमा पार से किया गया। इक्का-दुक्का मौक़ों पर ऐसे ड्रोन भारत ने मार गिराये हैं। यदि जम्मू हवाई अड्डे के आसपास के क्षेत्र का जायज़ा लिया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि वहाँ सुरक्षा को ख़तरे में डालने की हद तक मकान नज़दीक हैं। पहले की कुछ जाँच रिपोट्र्स में इन मकानों को हवाई अड्डे, जहाज़ों और यात्रियों के अलावा सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए ख़तरा बताया जा चुका है।
जानकारों के मुताबिक, इस ख़तरे को कम करने के लिए जो उपाय किये गये हैं, वो नाकाफ़ी हैं। इनमें ऐसे बहुत से मकान किराये पर रहते हैं। सभी पर तो शक नहीं जताया जा सकता; लेकिन वहाँ सुरक्षा के लिए ख़तरा तो है ही। पुलिस वहाँ किरायेदारों के सत्यापन के लिए किरायेदार जाँच-प्रपत्र मकान मालिकों को देती तो है, मगर इस पर बहुत नियमपूर्वक अमल नहीं होता। इस प्रपत्र में किरायेदार की फोटो सहित उसकी पूरी जानकारी सम्बन्धित पुलिस थाने में देनी ज़रूरी होती है। जम्मू-कश्मीर के डीजीपी दिलबाग सिंह कहते हैं कि मामले की जाँच अभी चल रही है। हमें जो जानकारी मिलती है, उसे अन्य सुरक्षा एजेंसियों से साझा करते हैं। पुलिस ने महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों को आतंकवादी संगठनों से नये ख़तरे के बारे में अवगत करा दिया है। सभी अहतियाती क़दम उठाये गये हैं। डीजीपी दिलबाग सिंह ने यह भी कहा कि जनता को जम्मू-कश्मीर में ड्रोनों का अनधिकृत इस्तेमाल नहीं करने के सम्बन्ध में आम चेतावनी जारी कर दी गयी है। ऐसा होने पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
हालाँकि सच यह है कि सन् 2018 में ड्रोन को लेकर भारत में नये दिशा-निर्देश आये थे और बाद में भी इनमें कुछ संशोधन किये गये हैं। डीजीसीए के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, 250 ग्राम से ऊपर वज़न वाला ड्रोन रिहायशी इलाक़ों में बिना मंज़ूरी के नहीं उड़ाया जा सकता। हवाई अड्डे या हेलीपैड के पाँच किलोमीटर के दायरे में ड्रोन नहीं उड़ाया जा सकता। संवेदनशील क्षेत्र या उच्च स्तरीय सुरक्षा वाले क्षेत्र में ड्रोन उड़ाने की पाबंदी है। यहाँ तक कि सरकारी कार्यालयों, सैन्य क्षेत्र में ड्रोन उड़ाना वर्जित है।
हालाँकि ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, हाल के वर्षों में इनमें से कुछ नियमों को ताक पर रखकर ड्रोन उड़ाये जाते रहे हैं और भारत में ड्रोन के इस्तेमाल का प्रचलन बढ़ा है। भारत में कई स्टार्टअप कम्पनियाँ हैं, जो अपना काम ड्रोन की मदद से करती हैं। सच यह है कि ड्रोन बहुत तेज़ी से भारतीय अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं। खेती से लेकर स्मार्ट सिटी के सर्वे तक में ड्रोन तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे ड्रोन, जिनका वज़न 250 ग्राम से दो किलो के बीच होता है और जिसमें कैमरा भी सक्रिय होता है। ऐसे ड्रोनों को उड़ाने के लिए पुलिस की मंज़ूरी आवश्यक होती है, जिनका वज़न दो किलो से ज़्यादा होता है या फिर जो 200 फिट से ज़्यादा ऊँचाई पर उड़ सकते हैं। ऐसे ड्रोन उड़ाने के लिए अनुज्ञा-पत्र (लाइसेंस), उड़ान योजना (फ्लाइट प्लान) के साथ-साथ पुलिस अनुमति (परमीशन) और कई मामलों में डीजीसीए की अनुमति लेनी ज़रूरी होती है। बिना डीजीसीए की अनुमति के 25 किलो से ऊपर के ड्रोन को उड़ाना ग़ैर-क़ानूनी है। ऐसे में सीमा के भीतर आकर (यदि ड्रोन पाकिस्तान की तरफ़ से भेजा गया) ड्रोन भारत के एक सैन्य क्षेत्र में आकर हमला कर जाए और किसी को ड्रोन की कोई ख़बर न मिले, यह भी अचम्भे वाली बात ही है। इस घटना से यह भी ज़ाहिर हुआ है कि इस तरह के हमले के तरीक़े के लिए भारत को तैयारी करनी होगी। वैसे तो हवाई अड्डा क्षेत्र में ऐसे सेंसर (जाँच यंत्र) और यंत्र हैं, जो तत्काल अवांछित गतिविधि की जानकारी दे देते हैं या अलर्ट कर देते हैं; लेकिन ड्रोन का पकड़ में न आना भी अपने आप में हैरानी की बात है।
भारत की बात करें, तो यह तथ्य सामने आया है कि ड्रोन का इस्तेमाल नक्सली भी कर रहे हैं। अब तक हथियारों, गोला-बारूद और मादक पदार्थों को लाने के लिए ही ड्रोन का इस्तेमाल होता था; लेकिन जम्मू हवाई अड्डे की घटना ज़ाहिर करती है कि इनका इस्तेमाल बम गिराने के लिए किया जाने लगा है, जो गम्भीर चिन्ता का विषय है। ज़ाहिर है देश की सुरक्षा और कड़ी करने के अलावा इसकी रणनीति में बदलाव की सख़्त ज़रूरत महसूस होने लगी है। सुरक्षा जानकारी यह भी बताती है कि भारत के ख़िलाफ़ जासूसी के लिए ड्रोन का इस्तेमाल पाकिस्तान सीमा से लेकर नेपाल और चीन की सीमा पर भी हो रहा है। हाल के महीनों में सुरक्षा एजेंसियों ने इसकी जानकारी साझा की है।
याद रहे जून के आख़िर में जम्मू में भारतीय वायु सेना के अड्डे पर रात के समय दो ड्रोन से विस्फोटक गिराये गये थे। इस घटना में दो जवान मामूली रूप से घायल हो गये थे। देश में किसी ऐसे महत्त्वपूर्ण स्टेशन पर ड्रोन से किया गया यह पहला हमला है। ड्रोन से गिराये गये विस्फोटक का पहला विस्फोट रात क़रीब 1:40 बजे के आसपास हुआ; जबकि दूसरा विस्फोट क़रीब छ: मिनट बाद हुआ।

ढाई साल में दिखे 314 ड्रोन


‘तहलका’ के जुटाये आँकड़ों के मुताबिक, भारत में ड्रोन से जासूसी की गतिविधियाँ पिछले क़रीब 23 महीनों में, जबसे जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 निरस्त को निरस्त किया गया है; काफ़ी बढ़ी हैं। हालाँकि भारत में पहली बार ड्रोन गतिविधि सन् 2013 में संज्ञान में आयी थी। जम्मू के अलावा पंजाब और गुजरात भी ड्रोन गतिविधियों का केंद्र रहा है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, जम्मू से लेकर गुजरात तक पिछले 12 महीनों में ही 103 बार (10 जुलाई, 2021 तक) संदिग्ध ड्रोन गतिविधि देखी गयी हैं। सुरक्षा संस्थाओं ने इस साल जुलाई तक ड्रोन गतिविधियों को लेकर जो रिपोर्ट तैयार की है, उसके मुताबिक ख़ासतौर पर जम्मू और पंजाब की पश्चिमी सीमा पर 2019 में 167, पिछले साल 77 और इस साल अब तक क़रीब 70 दफ़ा ड्रोन देखे गये हैं। अब यह बड़ा सवाल है कि इतने बड़े पैमाने पर ड्रोन गतिविधि उजागर होने के बावजूद इसे रोकने या विफल करने के लिए क्या किया गया?

विदेशी हाथ!
अभी जाँच में यह साफ़ नहीं है कि ड्रोन के हमले में क्या हुआ? लेकिन यह संकेत मिल रहे हैं कि इसके पीछे पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई का हाथ है। अभी तक यह भी माना जा रहा था कि यह किसी आतंकी संगठन का काम है; लेकिन जाँच अधिकारी इस सम्भावना को नकार नहीं रहे कि इस घटना के पीछे सि$र्फ आईएसआई भी हो सकती है। इस हमले की जाँच केंद्रीय गृह मंत्रालय पहले ही एनआईए को सौंप चुका है और यह काफ़ी आगे बढ़ चुकी है। उधर इस घटना के आसपास बिहार-नेपाल सीमा पर आठ ड्रोन मिलने की घटना भी गम्भीर है। एसएसबी के जवानों ने पूर्वी चंपारण ज़िले में नेपाल सीमा पर एक कार से आठ ड्रोन और इतने ही कैमरे ज़ब्त किये थे। कार सवार तीन लोगों को गिरफ़्तार किया गया था। एक और घटना में सेना के जवानों ने रत्नुचक-कालूचक स्टेशन के ऊपर उड़ रहे दो ड्रोन गोलीबारी करके नष्ट कर दिये। इसे भी सैन्य प्रतिष्ठान पर हमले की एक कोशिश बताया गया है। अब जम्मू-कश्मीर में ड्रोन हमलों की आशंका के बीच प्रमुख केंद्रों के आसपास सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है।

मोदी का चुनावी मंत्रिमंडल

The President, Shri Ram Nath Kovind, the Vice President, Shri M. Venkaiah Naidu, the Prime Minister, Shri Narendra Modi and other members of Council of Ministers at the Swearing-in Ceremony, at Rashtrapati Bhavan, in New Delhi on July 07, 2021.

 2024 के लोकसभा चुनाव में युवा टीम के साथ मैदान में होंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
 12 बड़े मंत्रियों की छुट्टी कर 43 नये मंत्रियों को मंत्रिमंडल में जगह देकर दिया सन्देश

साल 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए देश के फिर से चुनावी मोड में आने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अब सिर्फ़ तीन साल बाक़ी हैं। अगले बड़े चुनावों को देखते हुए, हाल में प्रधानमंत्री ने पहले अपने 52 मंत्रियों के प्रदर्शन की महीने भर समीक्षा की उसके बाद 12 बड़े मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाते हुए कुछ पुराने और बाक़ी नये सहित कुल 43 मंत्रियों को विस्तार में जगह देकर अपना जम्बो क़ुनबा 79 मंत्रियों का कर लिया है। इनमें काफ़ी युवा मंत्री हैं, जिससे मंत्रिमंडल की औसत आयु भी 58 साल के आसपास हो गयी; जो पहले 61 साल थी। इसमें जातिगत और राज्यवार समीकरणों का काफ़ी ख़याल रखा गया है, जिसका कारण अगले साल होने वाले पाँच राज्यों (पहले गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश) के चुनाव हैं। इसके बाद इसी साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। बता दें कि गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखण्ड विधानसभाओं का कार्यकाल मार्च, 2022 में समाप्त होगा। वहीं, उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल मई, 2022 तक और गुजरात तथा मणिपुर का विधानसभा कार्यकाल दिसंबर, 2022 तक चलेगा।
ज़ाहिर है 12 मंत्रियों को बाहर कर नये मंत्रियों को सन्देश दिया गया है कि मंत्रियों काम करना होगा या शायद उनकी नाकामी से बचाव का रास्ता निकाला गया है। मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के 7वें वर्ष में हैं और उन्होंने अभी-अभी कोरोना वायरस की दूसरी लहर की चुनौती का सामना किया है, जिसमें अस्पतालों में बिस्तरों, ऑक्सीजन, दवाओं और वैक्सीन की भीषण कमी के कारण हज़ारों लोगों की जान चली गयी। यही नहीं, महामारी से अर्थ-व्यवस्था तबाह हुई, मोदी सरकार के तीन विवादित कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का आन्दोलन जारी है; जबकि चीन और पाकिस्तान के साथ सीमाओं पर तनातनी अभी भी बनी हुई है।

मुद्दों से अवगत प्रधानमंत्री ने सबसे पहले जून और जुलाई के शुरू में एक समीक्षा अभ्यास किया और अपने 52 मंत्रियों से मुलाक़ात की। एकमात्र मंत्री जो प्रधानमंत्री से नहीं मिल सके, वह रमेश पोखरियाल निशंक थे, क्योंकि तब वह कोरोना संक्रमण से पीडि़त थे। प्रधानमंत्री ने अपने 52 मंत्रियों को 10 उप-समूहों में विभाजित किया और प्रत्येक समूह के साथ हर दिन 6-7 घंटे तक बैठकें कीं, जहाँ प्रत्येक मंत्री ने 2019 में सौंपे गये कार्यों और दो वर्षों के दौरान हासिल किये गये लक्ष्यों का ब्यौरा दिया। जानकारी के मुताबिक, प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रालयों को किया था कि उनमें से प्रत्येक को कम-से-कम दो से तीन परियोजनाओं के साथ सामने आना होगा, जिन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले लोगों के सामने पेश किया जा सकता हो। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि मंत्रालयों को अगस्त, 2023 तक सभी परियोजनाओं को पूरा करना होगा; क्योंकि 2024 एक चुनावी वर्ष होगा।
विशेषज्ञ बताते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भारत के फिर से चुनावी मोड में आने से पहले मोदी के पास दो साल से अधिक का समय है। क्या वह विनिर्माण को बढ़ावा देने, मुद्रास्फीति पर लग़ाम कसने और बेरोज़गारों को रोज़गार प्रदान करने के लिए आर्थिक एजेंडे पर निर्भर करेंगे। इसमें से अधिकांश चीज़ें कोरोना वायरस की एक और लहर की सम्भावना को कम करने और इस वित्तीय वर्ष में अर्थ-व्यवस्था में नुक़सान की सम्भावना को कम करने और टीकाकरण में तेज़ी लाकर महामारी को नियंत्रित करने पर निर्भर करती हैं। ये चीज़ें 2024 के चुनावों का सामना करने के लिए मोदी को छवि में बदलाव का आधार दे सकती हैं।
निश्चित ही आगे एक ऊबड़-खाबड़ रास्ता है। बेशक, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता देवेंद्र फडणवीस ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की एनसीपी प्रमुख शरद पवार से मुलाक़ात के बाद कहा कि विपक्ष की किसी भी रणनीति के बावजूद, मोदी 2024 में फिर से प्रधानमंत्री होंगे; क्योंकि वह लोगों के दिलों पर राज करते हैं। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि उनका सपना ‘बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट’ 2023 तक पूरा हो जाए। इसी तरह विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जी-20 शिखर सम्मेलन की तैयारियों पर प्रकाश डाला, जिसकी मेजबानी भारत पहली बार 2023 में करेगा। राम मंदिर निर्माण को भी लम्बे समय से लम्बित सभी मुद्दों को हल करने के एक प्रमुख उदाहरण के रूप में दिखाया जाएगा।
समीक्षा में कुछ मंत्रालयों, विशेष रूप से दूरसंचार और शिक्षा, के ख़राब प्रदर्शन की बात सामने आयी थी। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने वहाँ बदलाव किया है। एक विचार था कि भविष्य के नेताओं को विकसित करने के लिए युवा चेहरों को लाया जाए। इसे भी मूर्त रूप विस्तार में दिया गया है। मंत्रिमंडल विस्तार निश्चित ही 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रधानमंत्री का युद्ध टीम गठित करना था। वास्तव में मोदी-2.0 ने तीन तलाक़ पर क़ानून के बाद राजनीतिक प्रतिक्रिया देखी। इसके बाद जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को आश्चर्यजनक रूप से हटाना और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करना और फिर नागरिकता संशोधन विधेयक लाना भी राजनीतिक प्रतिक्रिया के लिहाज़ से बड़ी मुद्दे बने। हालाँकि आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के सरकार के प्रयासों का उलटा असर हुआ, कृषि सुधारों ने किसानों को सड़कों पर ला दिया, श्रम सुधारों ने भी उलटा सरकार पर ही हमला किया और 2019 का बहु-प्रचारित नागरिकता संशोधन अधिनियम अभी भी नियमों के बनने की प्रतीक्षा कर रहा है। साथ ही भारत को विश्व फार्मेसी घोषित करने के कुछ दिनों के भीतर सरकार दुनिया को टीके और चिकित्सा उपकरणों के स्रोत के लिए परिमार्जन कर रही थी; क्योंकि कमी के कारण पूरी स्वास्थ्य प्रणाली लडख़ड़ा रही थी। पश्चिम बंगाल के चुनावों में भाजपा की हार ने मोदी और शाह की अजेयता को झकझोर कर रख दिया है। चुनाव परिणाम ने 2024 के आम चुनाव में भाजपा से आगे निकलने की विपक्षी उम्मीदें जगा दी हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा में तैरती लाशों की कहानियों और इससे उपजे ग़ुस्से ने सरकार को राजनीतिक असुरक्षा से भर दिया।
मोदी-ढ्ढढ्ढ की स्थिति अचानक यूपीए-ढ्ढढ्ढ जैसी लग रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयला ब्लॉक आवंटन और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया था। भाजपा के लिए चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में जहाँ अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में आम आदमी पार्टी द्वारा बनाये गये रास्ते और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों में हालिया उलटफेर और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कोरोना महामारी से निपटने के तरीक़े से लगता है कि भाजपा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करके मुख्य चुनावी लाभ की उम्मीद कर रही थी।
प्रधानमंत्री ने आत्मानिभर भारत पर ज़ोर दिया है, तो उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि इससे अक्षम घरेलू उद्योग की रक्षा के लिए उच्च शुल्क बाधाएँ खड़ी न हों। यह सिर्फ़ भारत को निर्यात बाज़ार में कम प्रतिस्पर्धी बनाएगा। साल 2024 में भाजपा को सत्ता में बनाये रखने के लिए मोदी को महामारी से बुरी तरह प्रभावित लोगों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के अलावा रोज़गार और आर्थिक विकास पर भी काम करना होगा। इस साल (2021 में) उन्हें यह प्रदर्शित करना होगा कि उन्होंने महामारी के कारण होने वाली असमानताओं को कम करते हुए भारतीय अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती से ठीक होने की राह पर रखा है।
भारतीय अर्थ-व्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है और कम-से-कम 2024 में अगले आम चुनावों तक मज़बूत आर्थिक सुधार की किसी भी सम्भावना के लिए बहुत कम उम्मीद की जा रही है। यहाँ तक कि भारत के आर्थिक प्रदर्शन से कहीं पीछे चलने वाली दक्षिण एशिया की अधिकांश क्षेत्रीय अर्थ-व्यवस्थाएँ, अब आगे चल रही हैं; ख़ासकर बांग्लादेश की अर्थ-व्यवस्था। महामारी से पहले 2019 के लिए भारत की युवा बेरोज़गारी दर 23 फ़ीसदी को छू गयी थी। 2020 में इसका वार्षिक जीडीपी प्रदर्शन -8.0 फ़ीसदी तक गिर गया, जो सभी विकासशील देशों में सबसे ख़राब है। जबकि 2020 में बांग्लादेश 3.8 फ़ीसदी की दर से बढ़ा। सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक रहने वाले देश भारत के लिए ये आँकड़े हैरान और चिन्तित करने हैं।
ख़ैर, प्रधानमंत्री की 52 मंत्रियों के साथ हुई बैठकों का लब्बोलुआब यह था कि 2024 के आम चुनाव में मोदी की युग पुरुष और विकास पुरुष के रूप में छवि उभारी जाए। अब विस्तार के बाद नये मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में मंत्रियों को लक्ष्य तय करने और उन्हें समय पर पूरा करने का आदेश दिया गया है। इसका उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले लोगों को मोदी सरकार के काम को दिखाना है। प्रधानमंत्री का ज़ोर सभी मंत्रालयों पर अगस्त 2023 तक सभी परियोजनाओं को पूरा करने का है; क्योंकि 2024 एक चुनावी वर्ष होगा। इससे मोदी सरकार की 2024 के आम चुनाव के लिए पूरी तैयारी की तत्परता उजागर होती है, ताकि विपक्ष पर बढ़त बनायी जा सके। हालाँकि पश्चिम बंगाल चुनावों में भाजपा की हार, महामारी से निपटने पर सवालिया निशान, देश में देखी जा रही आर्थिक गिरावट और देश की सीमाओं पर बढ़ते तनाव, 2024 के आम चुनाव की भाजपा की यात्रा को कठिन बना सकते हैं। फ़िलहाल सभी की निगाहें इस बात पर हैं कि नयी मंत्रिमंडलीय टीम 2024 के आम चुनाव के लिए मोदी की उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है?

राजनीतिक लक्ष्य साधने की क़वायद
मोदी मंत्रिमंडल में विस्तार अगले साल के पाँच विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2024 तक होने वाले सभी विधानसभा चुनावों और ख़ासकर लोकसभा चुनाव को नज़र में रखकर किया गया है। मोदी ने अपने नये मंत्रिमंडल में जिस तरह पाँच चुनावी राज्यों के जातिगत लक्ष्य साधने की कोशिश की है, उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि पश्चिम बंगाल में बुरी हार के बाद भाजपा नेतृत्व कितना बेचैन है। लिहाज़ा भाजपा का यह दावा मज़ाक़ ही लगता है कि यह विस्तार सरकार की दक्षता को और बढ़ाने के लिए है। यह शुद्ध रूप से उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में कुछ ख़ास वर्गों को प्रतिनिधित्व देकर राजनीतिक लक्ष्य साधने की क़वायद से ज़्यादा कुछ नहीं है। उलटे एक साथ 12 मंत्रियों को सरकार से बाहर करने से यह सन्देश जनता में गया है कि पिछले दो साल से यह अप्रभावी मंत्री बोझ बनकर सरकार में थे। इन मंत्रियों में रविशंकर प्रसाद, हर्षवर्धन, प्रकाश जावेड़कर, सन्तोष गंगवार, सदानंद गौड़ा जैसे बड़े नाम शामिल हैं। वैसे तो मोदी सरकार की कई विफलताएँ भी हैं। फिर भी मोदी ने युवा चेहरे लेकर जनता को लुभाने का प्रयास किया है। लेकिन इसके लिए सरकार को उन्हें रोज़गार भी देना होगा। दलित-पिछड़ों पर मोदी ने मेहरबानी बरती है, जो यह संकेत करती है कि भाजपा को इस वर्ग की नाराज़गी का डर है। मोदी मंत्रिमंडल में अब 79 हो गयी है। पहले इनकी संख्या 52 थी।

झुकना तो सरकार को ही पड़ेगा

तीन नये कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों को आन्दोलन करते हुए क़रीब आठ महीनों का समय हो चुका है; लेकिन केंद्र सरकार ने शुरू से ही किसानों की माँगों को मानने के बजाय उन्हें दबाने का प्रयास किया है। किसानों को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से तोडऩे के प्रयास के बाद अब सरकार उनके आन्दोलन को जातिगत रूप से बाँटने की कोशिश में लग गयी है। हालाँकि यहाँ भी उसे कामयाबी नहीं मिली है। हाल यह है कि सत्ता से जुड़े लोग किसान आन्दोलन में आकर किसानों से मारपीट करने तक से नहीं चूके है, ताकि किसी तरह उनका आन्दोलन कमज़ोर किया जा सके। इन दिनों किसान आन्दोलन किस दशा में है और आगे की उसकी दिशा क्या होगी? इन सवालों के जवाब हर कोई चाहता है। किसानों का कहना है कि केंद्र की भाजपा सरकार सत्ता के मद में इस क़दर चूर है कि उसको देश के किसान आज सबसे बुरे लग रहे हैं। किसानों ने सरकार की मनमानी को बर्दास्त नहीं किया है, नये काले कृषि क़ानूनों के विरोध में आवाज़ उठायी है और सरकार को बता दिया है कि उनकी खेती-बाड़ी हड़पने की नीति को वे सफल नहीं होने देंगे।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कहना है कि सरकार ने सारे हथकंडे अपना लिये, डरा-धमका लिया, फिर भी किसानों का आन्दोलन कमज़ोर नहीं हुआ है। सरकार लगातार बड़े-बड़े सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में पूँजीपतियों के हवाले करती जा रही है। देश को पूँजीपतियों को सौंपने लिए एक सुनियोजत तरीक़े से काम किया जा रहा है। किसानों की ज़मीनों को हड़पने के लिए भी सरकार ने तमाम चालें चल रही है; लेकिन किसानों ने सरकार की मंशा को भाँपकर उसकी देश और किसान-विरोधी नीतियों को देश के सामने रख दिया। आज जब देश-दुनिया में किसानों के मामले में केंद्र सरकार की बदनामी हो रही है, तो सत्ताधारियों में बौखलाहट है। राकेश टिकैत ने साफ़ कहा कि किसान का बेटा हूँ किसानों के अधिकारों की ख़ातिर सरकार से आर-पार की लड़ाई करने पड़े, तो तैयार हूँ।
किसान आन्दोलन में बैठे किसान श्याम किशोर यादव ने कहा कि 2022 में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और उत्तराखण्ड सहित सात राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में देश के किसान सरकार की किसान-विरोधी और देश-विरोधी नीतियों को जनता के सामने रखेंगे। क्योंकि देश में अन्नदाताओं के साथ सरकार जो अत्याचार कर रही है, उसको लेकर किसान और उनके परिजन पीड़ा में हैं। उन्होंने कहा कि 19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले संसद सत्र के दौरान देश भर के 500 से अधिक किसान संगठन के प्रत्येक संगठन से कम-से-कम पाँच किसान देश की राजधानी में संसद भवन, जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से लेकर अन्य प्रमुख जगहों पर धरना-प्रदर्शन करेंगे। इस दौरान किसानों की एकता से सरकार को परिचित कराया जाएगा, ताकि उसे पता चल सके कि उसने किसानों की एकता को तोडऩे के लिए जो प्रयास किये थे, वे व्यर्थ हैं।
किसान महिला सुशीला देवी ने कहा कि जबसे देश आज़ाद हुआ है, तबसे देश में तमाम सरकार आयीं और गयीं; लेकिन ऐसी सरकार पहली बार देखी है, जो किसानों को बर्बाद करने पर तुली है। किसानों की माँगों और अधिकारों को किसी भी सरकार ने अभी तक नहीं टाला है; लेकिन यह सरकार किसानों का अहित करने पर तुली है और टस-से-मस नहीं हो रही है; जबकि किसानों की आन्दोलन के दौरान सैकड़ों किसानों की मौत भी हुई है। गोलीकांड और अग्निकांड तक हुए हैं। उनमें भी जानें गयी हैं। इतने पर भी सरकार किसानों की उपेक्षा कर रही है। सुशीला देवी ने कहा कि सरकार की नीयत में खोट है। आने वाले दिनों में किसानों के परिवार वाले भी धरने पर बैठेंगे, जिसमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल होंगे। किसान उदय गिल का कहना है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश को किसानों के राज्य के नाम से जाना जाता है। किसानों ने ठाना है कि इन दोनों राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबक़ सिखाया जाएगा। जब तक भाजपा सरकार सत्ता में नहीं आयी थी, तब तक किसानों के हित में और महँगाई के विरोध में बोलती रही है; लेकिन जैसे ही इस पार्टी की सरकार को किसानों ने कुर्सी सौंपी और वह पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में आयी, तो मनमानी करने लगी और किसानों की ज़मीन को हड़पने के लिए काम करने लगी। इसी तरह महँगाई से जनता बेहाल है। पैट्रोल-डीजल तेलों के दामों में आग लगी है। सरकार अब कुछ नहीं बोल रही है। किसानों का डीजल के बिना खेती का काम नहीं हो सकता। इसलिए किसानों को परेशान करने के लिए डीजल-पैट्रोल के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। किसान नेता और वकील चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने बताया कि जब किसानों ने 26 नवंबर से दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन शुरू किया था। तब सरकार ने किसानों की माँगों और आन्दोलन को हल्के में लिया और सोचा कि मौसम की मार, थोड़ी धमकी और पुलिस के अत्याचार से भाग जाएँगे; लेकिन किसान हर मौसम और हर अत्याचार के बावजूद भी जुटे रहे। अब तानाशाही सरकार को उनसे असुविधा हो रही है, तो वह आन्दोलन ख़त्म करने के लिए नये-नये हथकंडे अपना रही है।
बता दें कि किसान आन्दोलन को तोडऩे और बदनाम करने की साज़िश के तहत गाज़ीपुर में बैठे किसानों के साथ जो मारपीट हुई, उससे भी देश के लोगों और किसानों में ग़ुस्सा है। भाकियू नेता राकेश टिकैत और बाल्मीकि समाज के नेता योगेश महरोलिया ने बताया कि किसानों के आन्दोलन को तोडऩे के लिए भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मंच पर जबरन चढ़कर तोडफ़ोड़ की और किसानों से हाथापाई की। बाल्मीकि सामाज को एक साज़िश तक तहत बदनाम करने की चाल चली थी, जो बाल्मीकि समाज के लोगों ने नाकाम कर दी है। योगेश महरोलिया ने बताया कि बाल्मीकि समाज किसानों के साथ है और रहेगा; क्योंकि बाल्माकि समाज इस देश की धरती पर रहता है, इस धरती का अनाज खाता है, किसानी करता है और किसानों के साथ रहता है। ऐसे में किसानों का विरोध, उनके साथ मारपीट और तोडफ़ोड़ की बात सोच ही नहीं सकता। बाल्मीकि समाज के नेता जुगल किशोर का कहना है कि जबसे किसान आन्दोलन ग़ीज़बपुर में चल रहा है, तबसे सत्ता से जुड़े लोगों की नाक में दम है; क्योंकि किसान हर रोज़ उनकी पोल खोल रहे हैं। इसीलिए भाजपा के लोग किसान आन्दोलन के बीच किसान बनकर आते हैं और उपद्रव करते हैं। उनका कहना है कि आन्दोलन को कमज़ेर करने के लिए तमाम ऐसे लोग आये हैं, जिनका किसानों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। लेकिन इससे किसान घबराते नहीं, सभी देश के किसान इसी तरह आन्दोलन को और मज़बूती देते रहेंगे। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बातचीत के प्रस्ताव पर राकेश टिकैत ने साफ़ कहा है कि वह (तोमर) बातचीत के लिए फिर शर्तें लगा रहे हैं, जो किसानों को मंज़ूर नहीं हैं।
ग़ाज़ीपुर में आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि अगर कृषि क़ानून वापस नहीं होते हैं, तो भाजपा की सरकार भी वापस नहीं होगी; चाहे वह राज्य में हो या केंद्र में। क्योंकि किसान किसी भी क़ीमत पर अपनी माँ समान धरती से समझौता नहीं कर सकते। उनका कहना है कि हम धरती पुत्र हैं और ज़मीन हमारी माँ है, जिसका सीना चीरकर हम देश के हर बेटे-बेटी का पेट भरते हैं। अगर हमसे खेती-किसानी छिन जाएगी, तो हम ही नहीं, पूरा देश परेशान होगा; जिसके संकेत मिलने लगे हैं। किसानों ने लाठियाँ खायी हैं। मौतें देखी हैं। ऐसे में अब हमने सोच लिया है कि हमारी भी जान चली जाए, तो चली जाए; लेकिन किसान आन्दोलन बिना कृषि क़ानूनों के वापस हुए शान्त नहीं होगा। उनका मानना है कि जब किसान सरकार बना सकते हैं, तो उसे गिरा भी सकते हैं। किसान परमबीर ने कहा कि सरकार ने किसानों पर जो लांछन लगाये हैं कि यह किसानों का आन्दोलन नहीं है; फलाँ का है, फलाँ का है; उन लांछनों का जवाब किसान अब सरकार को देंगे। चाहे इसके लिए कितने भी ज़ुल्म सहने पड़ें। अब झुकना तो सरकार को ही पड़ेगा।

मनरेगा प्रवासी मजदूरों के लिए बनी जीवनदान : गुजरात सरकार

गुजरात सरकार की ओर से पिछले हफ्ते मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) प्रवासी मजदूरों के लिए यह एक नई जिंदगी देने वाली साबित हुई है। कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते श्रमिक काम से महरूम हो गए, ऐसे में उनके खाने के लाले पड़ गए। मजबूरी में श्रमिकों को अपने गांवों में लौटना पड़ा था। ऐसे में उनके लिए मनरेगा जैसी अहम योजना मील का पत्थर साबित हुई।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कृषि क्षेत्र ने प्रवासी श्रमिकों को काम का अवसर मुहैया कराया और संकट के समय में लोगों ने खेतीबाड़ी को प्राथमिकता दी और इसे बढ़ावा भी दिया जाना चाहिए। रिपोर्ट में दाहोद के आदिवासी जिले के गांवों के विशिष्ट उदाहरणों का हवाला देते हुए कहा गया है कि राज्य सरकार को मनरेगा को लेकर फिर से रणनीति बनाना चाहिए। यूपीए सरकार के दौरान 2006 में शुरू की गई दुनिया की इस अहम योजना की अहमियत कोविड काल में साबित हुई। यह रिपोर्ट ऊर्जा, उत्सर्जन, जलवायु और विकासात्मक दृष्टिकोण के आधार पर तैयार की गई है। इसमें राज्य सरकार की ओर से जलवायु परिवर्तन विभाग की भूमिका रही और आईआईएम अहमदाबाद और आईआईटी गांधीनगर का भी सहयोग मिला।

रिपोर्ट के अनुसार, पिछले साल कोविड -19 के दौरा अचानक लॉकडाउन के बाद, लगभग एक लाख प्रवासी श्रमिक दाहोद में अपने गाँव लौट आए। इसमें बताया गया है कि राज्य सरकार की ओर से रोजगार के अवसर के तौर पर मनरेगा विकल्प बनी और गांव में लौटे लोगों को काम मिलने के बाद उनकी जिंदगी आसान हुई।

दाहोद के ग्रामीण इलाकों में छोटे जोत वाले और सिंचाई की सुविधा नहीं होने के चलते प्रवासी श्रमिकों ने मनरेगा के तहत अपना नाम पंजीकृत करा। हालांकि वे शहरों में रहकर कमाई करने की तुलना में मनरेगा के तहत मजदूरी न्यूनतम 224 रुपये प्रतिदिन मिली, लेकिन संकट के समय में परिवार पालने के लिए यह रकम भी बेहद कारगर और अहम साबित हुई।

रिपोर्ट में कहा गया है कि मनरेगा ने काम के अवसर देने के साथ ही लोगों के बीच सकारात्मक भूमिका अदा की। प्रवासी श्रमिकों ने अपने छोटे से खेत में मक्के की खेती की, जो उनके परिवार का भरण पोषण करने के लिए पर्याप्त साबित हुई। इसके अलावा उन्होंने मनरेगा के तहत खुद को नामांकित करके अलग से कुछ रकम की कमाई कर ली। ऐसे ही अन्य मजदूरों को भी काम करने का मौका मिल गया जो शहरों में जाकर अन्य तरह के काम किया करते थे।

गुजरात के दाहोद में मनरेगा के तहत 2.38 लाख श्रमिक जुड़े जो राज्य के किसी भी जिले में सबसे ज्यादा हैं। इसके बाद भावनगर में 77,659 और नर्मदा में 59,208 मजदूरों ने पंजीकरण कराया। इसके अलावा खेतीबाड़ी में काम करके कोविड काल में श्रमिकों ने थोड़ी बहुत आय अर्जित की ताकि वे अपना और परिजनों का पेट पाल सकें।

सौराष्ट्र में प्रवासी श्रमिकों के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसे मजदूर सूरत में हीरा क्षेत्र से जुड़े थ  और गांवों में भूमि जोत वाले प्रवासी परिवारों ने खेती करने के विकल्प चुना। बाकी लोगों ने खुद को खेतिहर मजदूर के तौर पर खुद को समर्पित कर दिया। सूरत में काम करने वाले 12 लाख से अधिक श्रमिक सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात से हैं जो हीरा को तराशने या इससे जुड़े अन्य कामों में लगे रहते थे।

कोविड-19 से जुड़े उपकरणों पर जीएसटी कम किया, काऊंसिल की बैठक में कई अहम फैसले

जीएसटी काउंसिल की 44वीं बैठक में शनिवार को कई अहम फैसले किये गए। इसमें ब्लैक फंगस और कोरोना इलाज से जुड़े उपकरण और दवाइयों पर जीएसटी दर तर्कसंगत करने को लेकर मंत्री समूह (जीओएम) की सिफारिशों को जीएसटी काउंसिल ने मंजूर कर लिया है। कोविड की वैक्सीन पर 5 फीसदी जीएसटी जारी रखने का फैसला हुआ है।
दिल्ली में यह बैठक केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में हुई। याद रहे 28 मई को जीएसटी काउंसिल की बैठक में मास्क, पीपीई किट, टेस्टिंग किट, वेंटिलेटर और वैक्सीन समेत कोविड-19 से जुड़ी जरूरी वस्तुओं पर जीएसटी में राहत के लिए आठ मंत्रियों के एक समूह का गठन किया गया था। इस समूह ने 7 जून को अपनी रिपोर्ट दी थी।
आज की बैठक के बाद वित्त मंत्री सीतारमण ने कहा – ‘ब्लैक फंगस की दवाओं पर टैक्स में कटौती का फैसला किया गया है। इसके अलावा कोरोना से जुड़ी दवाओं और एंबुलेंस समेत अन्य उपकरणों पर भी टैक्स की दरों में कटौती की गई है। कोविड की वैक्सीन पर 5 फीसदी जीएसटी जारी रखने का फैसला हुआ है। जीएसटी दरों में यह कटौती सितंबर तक लागू रहेगी।’
सीतारमण ने बताया कि बैठक में रोगियों के आने-जाने में इस्तेमाल होने वाले वाहन यानी एंबुलेंस पर टैक्स की दरों में भारी कटौती की गई है। काउंसिल ने एंबुलेंस पर जीएसटी की दर को घटाकर 12 फीसदी करने का फैसला किया है। अभी तक एंबुलेंस पर 28 फीसदी जीएसटी वसूला जा रहा है। ब्लैक फंगस के इलाज में तोसिलिजुमब और एम्फोथ्रेसिन-बी का इस्तेमाल होता है। काउंसिल ने इन दवाओं पर जीएसटी बसूल न करने का फैसला किया है।
वित्त मंत्री ने जो जानकारी दी है उसके मुताबिक ऑक्सीमीटर पर जीएसटी 12 फीसदी से घटाकर 5 फीसदी, वेंटिलेटर पर 12 से घटाकर 5 फीसदी,
रेमडेसिविर पर 12 फीसदी से 5 फीसदी, मेडिकल ग्रेड ऑक्सीजन पर 12 फीसदी  से घटाकर 5 फीसदी, बीपैप मशीन पर टैक्स 12 से घटाकर 5 फीसदी जबकि  ऑक्सीमीटर पर भी 12 फीसदी से घटाकर 5 फीसदी किया गया है।

पंजाब में राजनीतिक हलचल; अकाली-बसपा गठबंधन बना, कांग्रेस के कदम का इन्तज़ार  

पंजाब में विधानसभा चुनाव को अभी करीब एक साल है लेकिन वहां राजनीतिक गतिविधियां अचानक तेज होती दिख रही हैं। कांग्रेस में चल रही लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जहा सोनिया गांधी की बनाई कमेटी ने अपनी रिपोर्ट उन्हें सौंप दी है, भाजपा और अकाली दल भी सूबे में सक्रिय हो गए हैं। अकाली दल ने भाजपा से छिटकने के बाद अगले साल के चुनाव के लिए शनिवार को आनन-फानन मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से गठबंधन कर सीटों का बटबारा भी कर लिया। किसान आंदोलन से बदली पंजाब की राजनीति में अकाली दल और भाजपा के अलावा केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) लिए निश्चित ही बड़ी चुनौतियाँ विधानसभा चुनाव में रहेंगी।
पहले बात अकाली दल-बसपा के गठबंधन की करते हैं। पंजाब में कुल 117 सीटें हैं  को अकाली दल ने 20 सीटें दी हैं। सत्ता से बाहर आने के बाद अकाली दल में काफी बेचैनी रही है। पार्टी को चला रहे पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को डर है कि अगले चुनाव में भी पार्टी की हार उन्हें बहुत महंगी पड़ सकती है, लिहाजा वे अभी से जीत सकने वाले तमाम उपाय आजमाना चाह रहे हैं।
भाजपा से उसका गठबंधन टूट चुका है लेकिन अगले चुनाव तक क्या स्थिति बनेगी, अभी कहना मुश्किल है। हो सकता है परिस्थितियां देख दोनों फिर साथ आ जाएँ। वैसे शनिवार को अकाली दल और बसपा का समझौता हुआ है, उसमें इतनी गुंजाइश है कि भविष्य में यदि भाजपा से अकाली दल के रिश्ते बेहतर हों तो भाजपा को 20-21 सीटें वह दे सकता है।
गठबंधन के बाद अकाली दल अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने भले कहा कि आज पंजाब की राजनीति में एक नया दिन है, उन्हें पता है कि किसान आंदोलन से उपजी राजनीति अभी भी उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है। अकाली दल ने पिछले साल जब मोदी सरकार से नए कृषि कानूनों को लेकर नाता तोड़ा था, तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि इससे पहले केबिनेट की जिस बैठक में इन कृषि बिलों को मंजूरी दी गयी थी, उसमें अकाली दल की मंत्री हरसिमरत कौर उपस्थित थीं। हरसिमरत सुखबीर बादल की पत्नी हैं।
इससे पहले 1996 में बसपा और एसएडी दोनों ने गठबंधन में लोकसभा चुनाव लड़ा था और 13 में से 11 सीटों पर जीते थे। हालांकि, अब हालत बदले हुए हैं। पंजाब की आबादी में करीब 33 फीसदी दलित हैं जिनपर बदल की नजर है। यह दलित ज्यादातर (73 फीसदी) ग्रामीण इलाकों में हैं। हालांकि, भाजपा और कांग्रेस भी इन पर नजर रखे हुए हैं।
मायावती ने बसपा महासचिव सतीश मिश्रा शुक्रवार को चंडीगढ़ भेजा था। और आज दोनों दलों में गठबंधन हो गया। अकाली-बसपा गठबंधन का सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को होगा, जिसे अकाली दल से बाहर आने के बाद अभी ज़मीन तैयार करनी है। आप के तीन विधायक हाल में कांग्रेस में चले गए थे, लिहाजा उसके लिए भी संकट कम नहीं है। हो सकता है भाजपा दूसरे दलों से तोड़फोड़ करे, जैसा कि उसने दूसरे प्रदशों में चुनावों से पहले किया है।
अब हो सकता है कांग्रेस कमेटी की सिफारिश के आधार पर किसी दलित को पंजाब में उपमुख्यमंत्री बना दे। नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर कांग्रेस आलाकमान का फैसला आने वाला है। सिद्धू भी उपमुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। कांग्रेस किसी दलित को उपमुख्यमंत्री बना देती है तो निश्चित ही इससे अकाली दल परेशान होगा। उसका बसपा से मिलकर बनाया दलित कार्ड इससे फ्लॉप हो सकता है।
कांग्रेस का किसान आंदोलन के वक्त कुछ ऐसा रोल रहा है कि वे उससे सबसे कम नाराज दिखते हैं। यदि वह चुनाव से पहले दलित समुदाय को उपमुख्यमंत्री पद का तोहफा दे देती है तो जाहिर है यह उसका ट्रम्प कार्ड होगा। इससे अकाली दल अगले चुनाव में कांग्रेस पर दलितों की ‘अनदेखी’ का आरोप नहीं लगा पायेगा। अकाली दल ने कांग्रेस के फैसले से पहले ही बसपा से समझौता करके शायद राजनीतिक चूक की है। उसे इन्तजार करना चाहिए था ताकि उसके फैसले का ज्यादा इम्पैक्ट होता।
जहाँ तक कांग्रेस की बात है सोनिया गांधी की कमेटी की रिपोर्ट पर अमल का सबको इन्तजार है। हो सकता है कांग्रेस पंजाब में किसी गैर सिख दलित को उपमुख्यमंत्री बना दे। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है। सिद्धू अगले चुनाव में प्रचार समिति का अध्यक्ष बनने को भी एक ऑप्शन के रूप में कमेटी के सामने रख चुके हैं। देखते हैं क्या फैसला आता है।

उत्तर प्रदेश में सियासी हलचल तेज,15 अगस्त के बाद चुनावी रंग में दिखेगा

भले ही उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में 7-8 महीने से कम समय बचा हो पर, सियासी हलचल दिन पर दिन तेज होती जा रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से मिलने के बाद उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायकों में उथल- फुथल मची हुई है।

विधायकों ने तहलका संवाददाता को बताया कि जब से पश्चिम बंगाल में भाजपा की करारी हार हुई है । तब से आलाकमान से लेकर प्रदेश भाजपा के नेता बड़ी ही सूझबूझ से सियासी चाल चल रहे है। एक विधायक ने बताया कि राजनीति में कब क्या हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि कुछ विधायकों के टिकट कटने की संभावना अधिक है। प्रदेश की राजनीति के जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में भाजपा, सपा,बसपा और कांग्रेस के नेताओं का एक दूसरे दलों में आने-जाने का सियासी खेल खेला जायेगा। जिसके लिये अभी से जोड़ तोड़ का सियासी ताना बाना बनना और बनाना शुरू हो गया है।

भले ही अभी ये राजनीतिक चालें चर्चा में ना हो । लेकिन जैसे ही चुनावी विसात बिछनी शुरू होगी त्यों ही नये –नये चहरे एक दल से दूसरे दल में जाने में देर नहीं करेंगे। माना जा रहा है कि इस बार का चुनाव किसी भी दल के लिये एक तरफा का चुनाव नहीं है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अभी से जोड़-तोड़ की राजनीति में लगें हुये है। दिल्ली से लखनऊ तक नेतओं का आना –जाना अब हर रोज तेज हो रहा है। बताते चलें कोरोना के कहर की गति कम होते ही और 15 अगस्त के बाद उत्तर प्रदेश पूरी तरह से चुनावी रंग में दिखने लगेगा।

बंगाल में भाजपा की पहली बड़ी विकेट गिरी, मुकुल रॉय टीएमसी में शामिल हुए

भाजपा को शुक्रवार को बंगाल में तगड़ा झटका लगा है। उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय अपने बेटे सुभ्रांशु रॉय सहित ममता बनर्जी की उपस्थिति में टीएमसी में  शामिल हो गए। विधानसभा चुनाव से पहले मुकुल रॉय को भाजपा में मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता था लेकिन भाजपा टीएमसी से बुरी तरह हार गयी थी।
मुकुल नवम्बर 2017 में टीएमसी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। उन्हें जनाधार वाला नेता माना जाता है। मुकुल रॉय से प्रधानमंत्री मोदी ने फोन पर पिछले हफ्ते तब बात की थी जब उनकी पत्नि इलाज के लिए अस्पताल में थीं। मुकल ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से आज लंबी चर्चा  के बाद टीएमसी में शामिल हो गए।
उनके टीएमसी में शामिल होने के समय ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी भी थे जिन्होंने मुकुल रॉय को पार्टी का पटका पहनाया और गले लगाया। टीएमसी में शामिल होने के बाद मुकुल रॉय ने कहा – ‘घर में आकर अच्छा लग रहा है। बंगाल ममता बनर्जी का है और रहेगा। मैं भाजपा में नहीं रह पा रहा था।’
उधर ममता बनर्जी ने कहा – ‘मुझे खुशी है कि मुकुल घर लौटे हैं। भाजपा में गए कई और नेता वापस आना चाहते हैं। हमने कभी भी किसी की पार्टी नहीं तोड़ी। हमने एजेंसियों का इस्तेमाल नहीं किया और जो आना चाहते हैं वही पार्टी में आ रहे हैं।  सिर्फ इमानदार नेताओं के लिए टीएमसी में जगह है।’
ममता ने कहा कि जिन्होंने पार्टी की आलोचना की, भाजपा और पैसे के लिए चुनाव से पहले जिन्होंने पार्टी को धोखा दिया उनकी वापसी नहीं होगी। वे गद्दार हैं। कुछ समय से मुकुल रॉय ने भाजपा से दूरी बना ली थी। ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी दो जून को मुकुल रॉय की बीमार पत्नी को देखने के लिए अस्पताल पहुंचे थे।

डीजल –पेट्रोल के दामों में हो रही बढोत्तरी के विरोध में एनएसयूआई का प्रदर्शन

पेट्रोल और डीजल के दामों में हो रही लगातार बढ़ोत्तरी के विरोध में नेशनल स्टूडेंट यूनियन आँफ इंडिया (एनएसयूआई) के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने केन्द्र सरकार की जनविऱोधी नीतियों के विरोध में प्रदर्शन किया। प्रदर्शन का नेतृत्व एनएसयूआई दिल्ली के प्रदेश अध्यक्ष कुनाल सहरावत ने किया।  प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुये कहा कि जब से मोदी सरकार आयी है । तब से देश में लगातार महंगाई लगातार बढ़ रही है।उन्होंने कहा कि अगर ऐसे ही डीजल –पेट्रोल के दाम लगातार बढ़ते रहेगे तो गरीबों को पेट्रोल-डीजल भरवाने के लिये लोन लेना पड़ेगा। आज देश के एक-एक नागरिक को तेल भरवाने के लिये तेल निकल रहा है। उन्होंने कहा कि अगर तेलों  के दामों में बढ़ोत्तरी वापस नहीं हुई तो आंदोलन तेज होगा। इस अवसर अमरीश कुमार ने कहा कि सरकार देश में हर मोर्चे पर असफल है।

गरीबों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है। युवाओं को रोजगार नहीं मिल  रहा है। और केन्द्र की मोदी सरकार लोगों को गुमराह करने में लगी है। देश का किसान आज अपने अधिकारों और कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहा है।किसानों की मांगों को माना नहीं जा रहा है। जिससे किसानों को काफी परेशानी हो रही है।उनका कहना है कि मोजी सरकार सत्ता के नशे में इस कदर मस्त है कि उसे गरीबों और किसानों की परेशानी दिख नहीं रही है। एनएसयूआई अब सरकार की नीतियों के विरोध में व्यापक आंदोलन करेगी। जब तक दामों की बढ़ोत्तरी वापस नहीं हो जाती है।