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एम सी डी चुनाव को लेकर पोस्टर वार तेज

राजधानी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव को लेकर भले ही 8 महीने का समय बचा हो पर, दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और आप पार्टी के बीच पोस्टर वार शुरू हो गया है। जहां तहां एक राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दल पर भ्रष्ट्राचार से लेकर दंगा भड़काने तक के आरोप लगा रहे है। बताते चलें एम सी डी के चुनाव मार्च अप्रैल 2022 में है। लेकिन चुनाव को लेकर हलचल तेज हो गयी है।

कोरोना काल चल रहा है। राजनीतिक दल, सस्ते भोजन से लेकर , कोरोना के मरीजों को सहायता और जहां तहां सामाजिक कार्यकर्ता सम्मेलन करने में लगें है। जानकारों का मानना है। कि 15 अगस्त से राजनातिक दल और भी तेज कार्यक्रम करना शुरू कर देंगे। ताकि लोगों के बीच उनकी सियासी जमीन बनी रही रहे। भाजपा के नेता संतोष कुमार ने बताया कि आने वाले दिनों में दिल्ली में एम सी डी चुनाव को लेकर हलचल तेज हो जायेगी। भले ही एम सी डी चुनाव को लेकर राष्ट्रीय नेता अनदेखा करें पर, मौजूदा राजनीति में और कोरोना काल में एम सी डी के चुनाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि दिल्ली की सियासत में एम सी डी के चुनाव का अपना अलग ही महत्व है। बताते चलें इस बार का एम सी डी चुनाव भाजपा और आप पार्टी के बीच हो सकता है। जबकि दिल्ली में कांग्रेस अपनी वापसी और उपस्थिति के लिये अभी जोर आजमाइस कर रही है।

कांग्रेस के नेता अजीत सिंह का कहना है कि कांग्रेस के कार्यकाल में हुये काम और विकास को दिल्लीवासी याद करते है।जबसे दिल्ली विधानसभा और दिल्ली नगर निगम में कांग्रेस चुनाव हारी है। तब से दिल्ली में विकास काम रूक गया है। अब दिल्ली वाले फिर से कांग्रेस को मौका देंगे।दिल्ली की सड़को से लेकर जगह भाजपा और आप पार्टी के बीच एक दूसरे पर भ्रष्ट्राचार के आरोप वाले पोस्टरों से भरे पड़े है।  

बैंकों में क्यों पड़े हैं बेदावा करोड़ों रुपये?

हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने एक सर्कुलर नंबर आरबीआई/2021-22/37, डीओआर.डीईए.आरईसी.सं. 16/30.01.002/2021-22 जारी किया था। सभी बैंकों को दिये गये आरबीआई के निर्देश ने जमाकर्ताओं के खातों में जमा राशि पर अदावी (दिये जाने वाले) ब्याज को प्रभावित करते हुए हज़ारों करोड़ रुपये के हेरफेर से ढक्कन हटा दिया है, जो कि बेदावा (लावारिस) पड़ा हुआ है और आरबीआई के जमाकर्ता शिक्षा और जागरूकता कोष (डीईएएफ) में स्थानांतरित कर दिया गया है।
इस ख़ुलासे के मुताबिक, क़रीब 82,025 करोड़ रुपये की एक भार-भरकम निवेशक धन राशि बेकार पड़ी हुई है। खातों में पड़े दावा न किये गये इस धन पर एक मज़बूत मामला बनाता है, जिसे बैंकों को पहले ही सार्वजनिक करना चाहिए था। परिवार के सदस्यों के साथ निवेश की जानकारी के आरबीआई के नियम के मुताबिक, यदि 10 साल तक की अवधि के लिए कोई बैंक खाता निष्क्रिय रहता है, तो उस पैसे को डीईएएफ को हस्तांतरित किया जा सकता है। बैंकिंग क़ानून अधिनियम-2012 (संशोधित), जिसमें धारा-26(ए) को सम्मिलित किया गया है; के मुताबिक, बैंकिंग विनियमन अधिनियम-1949 अनुभाग रिजर्व बैंक को सशक्त करता है कि बैंक जमाकर्ता की राशि को डीईएएफ में स्थानांतरित कर सकता है।

कितनी राशि कहाँ पड़ी बेदावा?
1. दावा न किये गये बैंक खातों में 18,381 करोड़ रुपये पड़े हैं।
2. बीमा कंपनियों के पास 15,167 करोड़ रुपये पड़े हैं।
3. निष्क्रिय म्यूचुअल फंड पॉलियों में 17,880 करोड़ रुपये पड़े हैं।
4. आईईपीएफ में 4,100 करोड़ रुपये का लाभांश पड़ा है।
5. भविष्य निधि खातों में 26,497 करोड़ रुपये पड़े हैं।

जीवन अनिश्चितताओं से भरा है और दुर्भाग्य कभी भी आ सकता है। हाल ही में कोरोना वायरस महामारी ने दिखा दिया कि जीवन कितना अप्रत्याशित है। हालाँकि आप बुरे समय की भविष्यवाणी नहीं कर सकते, फिर भी आप निश्चित रूप से अनुमान लगा सकते हैं। इसलिए निवेश के मामले में ऐसे क़दम उठाने चाहिए, ताकि किसी कठिन परिस्थिति से निपटने के लिए आपके क़रीबी आपकी की मदद कर सकें। किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर आपके द्वारा किये गये निवेश का पैसा आपके परिजनों को मिल सके, इसके लिए हमें सभी निवेशों का विवरण अपने परिजनों के साथ साझा करना चाहिए।
दरअसल आरबीआई के चीफ जनरल मैनेजर थॉमस मैथ्यू ने 11 मई, 2021 को सभी बैंकों को एक परिपत्र भेजा था। उन्होंने बैंकों को सलाह दी कि ब्याज वाली जमा राशियों पर देय ब्याज की गणना करें। आरबीआई को हस्तांतरित बैंकों की रिपोर्ट के मुताबिक, 30 जून, 2018 तक चार फ़ीसदी प्रति वर्ष की दर से; 01 जुलाई, 2018 से 10 मई, 2021 तक 3.5 फ़ीसदी और 11 मई, 2021 से तीन फ़ीसदी की दर से भुगतान पर खाताधारकों की दावेदारी बनती है। हालाँकि आरबीआई के आँकड़ों के मुताबिक, खातों में साल-दर-साल जमा होते गये दावा न किये गये धन पर ब्याज राशि में बढ़ोतरी हुई है, जो कि दावा न की गयी सालाना राशि के आधार पर क़रीब 28 फ़ीसदी की वृद्धि के साथ पिछले वर्ष तक 4,307.19 करोड़ रुपये से 18,379.52 करोड़ रुपये तक हो गयी है। आरबीआई के आँकड़ों से पता चलता है कि दावा न की गयी जमाराशियों में दिसंबर, 2019 के अन्त तक क़रीब 34 फ़ीसदी की वृद्धि हुई थी। यह राशि दिसंबर, 2018 के अन्त तक 4.79 करोड़ रुपये और दिसंबर, 2019 के अन्त तक 6.41 करोड़ रुपये थी।
दरअसल हम अपने परिवारों के साथ हमारी दिनचर्या से लेकर जीवन के अन्य महत्त्वपूर्ण निर्णयों तक सब कुछ साझा करते हैं। हम उनके विचार भी लेते हैं; जैसे कि हमें मासिक ख़रीदारी की योजना कब बनानी चाहिए? या छुट्टियाँ बिताने के लिए हमारी अगली यात्रा किस जगह के लिए होनी चाहिए? हालाँकि ज़्यादातर लोग इससे बचते हैं; लेकिन फिर भी अपने सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से अधिकतर में अपने परिवार को शामिल करते ही हैं।
कई बार कुछ लोग जीवन के काफ़ी अनसुलझे पहलुओं, जैसे- वित्त (धन सम्बन्धी) आदि विषयों पर, जिसमें वे पूरी तरह शामिल होते हैं, तो भी; परिजनों से बहुत गहराई से चर्चा नहीं करते हैं। ऐसे लोग परिवार के सदस्यों के साथ वित्तीय मामलों और निर्णयों पर चर्चा करने को अक्सर महत्त्वहीन और अनावश्यक मान लेते हैं और ऐसे ही लोगों के पैसे जगह-जगह फँसे रह जाते हैं। जैसे- बैंकों में, किसी को दिये क़र्ज़ के रूप में आदि-आदि। लेकिन यह ज़रूरी है कि हम अपने वित्त सम्बन्धी हर पहलू पर परिजनों या परिवार में किसी ख़ास को ज़रूर बताएँ; उसकी सलाह लें।
आपको अपने वित्तीय मामलों पर चर्चा करने की आवश्यकता को पहचानने में निम्नलिखित बिन्दुओं से मदद मिलेगी :-

प्रियजनों के हित में


वित्तीय नियोजन में हमें अपने जीवनसाथी को शामिल करना चाहिए। लेकिन हमारे देश में ज़्यादातर आर्थिक फ़ैसले पैसा कमाने वाले या परिवार का मुखिया ही लेते हैं। इस प्रक्रिया में जीवनसाथी (आमतौर पर पत्नी) के विचारों पर ध्यान में नहीं दिया जाता है।
हो सकता है कि पत्नी या पति के पास वित्तीय ज्ञान या उसमें रुचि न हो। हालाँकि यह अप्रासंगिक हो सकता है। लेकिन अपनी वित्तीय योजनाओं की योजना बनाते या समीक्षा करते समय आपको अपने जीवनसाथी को शामिल करना बेहद ज़रूरी होना चाहिए। क्योंकि हो सकता है कि वित्तीय योजना बनाते समय आपके जीवनसाथी द्वारा दी गयी जानकारी आपके लिए फ़ायदेमंद और आश्चर्यचकित कर देने वाली हो। क्योंकि आपके और आपके जीवनसाथी के अन्तिम लक्ष्य के रूप में बच्चों को शिक्षित करना, उनका करियर बनाना, उनके शादी-विवाह करना, उनके और अपने लिए सेवानिवृत्ति पर ख़र्च और आपात चिकित्सा स्थिति में ख़र्च के लिए बचत करना; यही विकल्प (सामान्य सोच के हिसाब से) होते हैं।
निवेश विवरण साझा करने से आपके जीवनसाथी को आपके द्वारा जमा किये गये धन बारे में पता रहता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि जीवनसाथी इस बारे में जागरूक रहे कि आपका कितना धन कहाँ पर है? इससे वह जमाकर्ता के दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में न रहने पर दस्तावेज़ों या बयानों के आधार पर उसके जमा अथवा किसी को दिये गये धन तक पहुँच सकता है। ऐसे में विकट परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में जीवनसाथी को दूसरों से पैसे उधार नहीं लेने पड़ेंगे। चूँकि निवेशक या जमाकर्ता की पत्नी या पति की उसके निवेश विवरण तक पहुँच है, इसलिए संकट के समय (विशेषकर निवेशक की मृत्यु के बाद) यह निर्णय उसके परिजनों को संकट मोचक के रूप में मदद कर सकता है।

आपात चिकित्सा की स्थिति में
आपात चिकित्सा स्थिति के समय में निवेशक या उसके किसी प्रियजन की देखभाल और अस्पताल में इलाज के लिए उसके जीवनसाथी या परिजन द्वारा देखभाल करने के लिए बेहतर और प्रभावशाली स्थिति के लिए धन की ज़रूरत होती है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा निवेश किया गया वह धन, जिसकी उन्हें जानकारी है; काम आ सकता है।
अगर किसी ने कोई जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले रखी है, तो वह भी चिकित्सा अथवा मृत्यु आदि के समय काम आ सकती है, जो आवश्यक काग़ज़ी कार्यवाही के बाद बीमा कम्पनी उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति (नॉमिनी) को प्रदान करती है।
यदि उसके पास चिकित्सा बीमा पॉलिसी नहीं है, तो उसका जीवनसाथी आसानी से तय कर सकता है कि वह उसके अथवा उसके द्वारा किये गये किन निवेशों से आपात या संकट की स्थिति में ज़रूरी ख़र्च कर सकता है।

नामांकन
नामांकन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें निवेशक किसी व्यक्ति (आमतौर पर परिवार के सदस्य) को नामांकित करता है; जो निवेशक की अनुपस्थिति में उसकी सम्पत्ति का सही दावा करने के लिए ज़रूरी है।
अपनी सभी सम्पत्तियों के लिए परिवार के किसी एक व्यक्ति या जीवनसाथी को नामांकित (नॉमिनेट) करने से आने वाली परेशानी में आसानी होगी। निवेशकर्ता की मृत्यु के मामले में उसके परिजनों या जीवनसाथी को उसके सभी बैंक खातों, निवेशों के बारे में जानकारी होने पर भौतिक सुख और लेन-देन में आसानी होती है। इससे जमाकर्ता के न होने पर उसके जीवनसाथी को किसी भी देनदार या लेनदार द्वारा कभी भी गुमराह नहीं किया जा सकता है।
नामांकन की स्थिति में अगर माता-पिता दोनों को कुछ होता है, तो पैसा निकालने, उसे ख़र्च करने, और चल-अचल सम्पत्ति को अपने नाम कराने या उस पर दावा प्रक्रिया में कोई दिक़्क़त नहीं होती है।

वित्तीय सुरक्षा और स्थिरता
बीमाधारक की मृत्यु के मामले में उसकी सावधि बीमा योजना (टर्म इंश्योरेंस पॉलिसी) के तहत दावा प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। अपने बीमा / बीमों का विवरण परिजनों के साथ साझा करने से बीमाधारक के जीवनसाथी और आश्रित परिवार को मज़बूत रखने में मदद मिलती है। इसलिए बिना किसी देरी के निवेशकर्ता को अपने परिजनों और ख़ासकर जीवनसाथी को वित्तीय सुरक्षा देने के लिए सभी निवेशों, बीमा योजनाओं की जानकारी दे देनी चाहिए।
इससे निवेशकर्ता के जीवनसाथी के नाम पर उसके न रहने पर या शारीरिक अपंगता के समय में उसके अपने निवेश को आसानी से स्थानांतरित कर दिया जाता है, ताकि वह उसका ज़रूरत पर उपयोग कर सके। इसके अलावा परिवार में स्थितरता लाने और उसे मज़बूत करने के लिए निवेश सूची का जीवनसाथी को पता होना उसके और परिवार के लिए एक बेहतर स्थिति साबित हो सकती है।

बच्चों में जागरूकता पैदा करें
आपमें से कई लोगों ने यह अनुभव किया होगा कि आज की पीढ़ी बहुत बुद्धिमान है और अपने जिज्ञासु कौशल के कारण तेजी से सीखने वाली है। आज स्कूल बच्चों को व्यक्तिगत वित्त के बारे में भी प्रशिक्षण दे रहे हैं और आपसे भी कह रहे हैं कि वित्तीय निवेश योजना लेते समय अपने बच्चों को शामिल करना अनिवार्य है। इसलिए आप परिवार के लिए निवेश करते समय लिए जा रहे निर्णयों में बच्चों को भी शामिल करें और उनके नाम से भी निवेश कुछ करें; चाहे आपकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। क्योंकि बच्चों के सामने वित्तीय अथवा निवेश चर्चाएँ उनके मन में जिज्ञासा पैदा करेंगी, जिससे उनकी निवेश करने की जानकारी में वृद्धि होगी, जो संकट की स्थिति से निकलने में उनकी मदद करेगी।
माता-पिता के रूप में आप पहले वित्तीय योजनाएँ बनाते हैं। लेकिन अपने बच्चों के बीच जागरूकता लाने से भले ही वे शुरू-शुरू में कुछ ग़लतियाँ करेंगे, जहाँ आपको उनका मार्गदर्शन करना है; लेकिन बाद में वे निवेश और बचत के मामले में होशियार हो सकते हैं।
बच्चे किसी भी परिवार की सबसे बड़ी सम्पत्ति होते हैं। माता-पिता की अनुपस्थिति में वे उन्हीं सपनों को सजाने-सँवारने की कोशिश करते हैं, जो माता-पिता ने देखे होते हैं या जिन विषयों में बच्चों को वे पारंगत कर चुके होते हैं। लेकिन पर्याप्त वित्तीय सुरक्षा नहीं होने पर उनके जीवन की गाड़ी के पटरी से उतरने का जोखिम रहता है। जो लोग (दम्पति) जीवन के इस महत्त्व को समझते हैं और परिवार की ज़रूरतों को पहचानते हैं, वे सशक्त और एक सफल निवेश की ज़रूरत को महसूस करते हुए उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग से अपने और बच्चों के भविष्य के लिए थोड़ी या ज़्यादा बचत ज़रूर करते हैं।

वित्तीय स्वतंत्रता
हालाँकि परिवार के सदस्यों को दिन-प्रतिदिन सँभालने के लिए केवल निवेश से ही काम नहीं चल सकता, इसके लिए उन्हें मासिक बजट और ख़र्च की भी ज़रूरत होती है। आपको अपने भी कुछ व्यक्तिगत ख़र्चों के लिए धन की ज़रूरत होती है और साथ ही जीवनसाथी को घर सँभालने तथा उसके और बच्चों के व्यक्तिगत ख़र्चों के लिए भी कुछ धन देना होगा, ताकि वे सब उसे ज़रूरत के हिसाब से ख़र्च कर सकें।
उदाहरण के लिए आप अपने जीवनसाथी को कुछ मासिक ख़र्चों का भुगतान करने दें। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आपका यह व्यवहार उसके अन्दर ऐसी भावना पैदा करेगा कि आप उसे परिवार की आर्थिक ख़र्चों की क्षमता को नहीं समझते और दीर्घकालिक रूप से परिजनों को आर्थिक रूप से स्वतंत्रा प्रदान करने में असमर्थ हैं; जो कि अच्छे रिश्तों के लिए बेहतर स्थिति नहीं है।
आज ज़्यादातर बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा उन्हें दैनिक उपयोग के लिए जेब ख़र्चे की ज़रूरत होती है। इसलिए उन्हें एक बजट दें और उनके स्वयं के ख़र्चों का भुगतान करने दें। इससे उनमें आत्मबल, आत्मसम्मान बढ़ेगा, निर्णय लेने की क्षमता बढ़ेगी। लेकिन बच्चों को उस पैसे को कहाँ ख़र्च करना है, इसमें उनकी मदद करें। इससे उनमें फ़िज़ूलख़र्ची से बचने और बचत करने की आदत भी पड़ेगी।

सामूहिक कार्य (टीम वर्क)
आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि वित्तीय मामलों में कुछ भी निर्धारित (मासिक बजट में से बचत और ख़र्चों की समीक्षा) करने के लिए आप अपने जीवनसाथी और बच्चों के साथ बैठक कर रहे हैं। ऐसा करने के लिए आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों से अनुशासन में रहकर एक सफल प्रयास करना होगा, ताकि परिवार के आर्थिक लक्ष्य पूरे हो सकें।
इसके लिए आपको परिवार के सभी सदस्यों से अनावश्यक ख़र्च न करने की अपील के साथ उनकी फ़िज़ूख़र्ची पर अंकुश लगाने के लिए भी परस्पर प्रयास करने होंगे; यह समझाते या अहसास दिलाते हुए कि परिवार के वित्तीय उद्देश्य क्या हो सकते हैं या होने चाहिए? लेकिन सदस्यों के बीच सामूहिक प्रयास, मिलकर कार्य करने और मिलकर काम करे बिना शायद ये सपने और सभी इच्छाएँ पूरी न हों।

वित्तीय विवरण साझा करें


आकर्षित करने वाली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पैसे के मामलों पर परिवार के साथ चर्चा करना कोई वर्जित या अनुचित विषय नहीं है। यदि आपने वित्तीय मामलों का ख़ुलासा अभी तक परिवार वालों से नहीं किया है, तो इससे पहले कि बहुत देर हो जाए और परिपक्वता के साथ तर्कसंगत रूप से परिजन इस पर चर्चा करें; यह ज़रूरी है कि आप उनके साथ सभी वित्तीय मुद्दों को साझा करना शुरू कर दें।
ऐसा एक मामला दर्ज किया गया, जब एक प्रमुख इक्विटी योजना के 25 वर्ष पूरे होने पर एक फंड हाउस (निवेशकर्ता कम्पनी) ने उन निवेशकों को लिखा, जो योजना में निवेश कर चुके थे। कुछ निवेशक निवेश को दो दशकों से अधिक समय होने के चलते उसे भूल गये थे। लेकिन बधाई-पत्र के कारण पूरी तरह से अप्रत्याशित परिणाम सामने आये; क्योंकि कम्पनी में निवेश करके भूले हुए निवेशक अगले कुछ हफ़्तों में वहाँ आने लगे और उनमें अपना पैसा प्राप्त करने की एक चौंकाने वाली हड़बड़ी देखी गयी।
यह एक ज्ञात तथ्य है कि भारत में निवेश योजनाएँ, जैसे- बैंक सावधि जमा, पीपीएफ, ईपीएफ और म्यूचुअल फंड सबसे लोकप्रिय बचत में से कुछ हैं। भले ही पिछले कुछ वर्षों में म्यूचुअल फंड में निवेश करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है; लेकिन निवेशकों के बीच कुछ अन्य योजनाएँ भी लोकप्रिय हैं।
इन योजनाओं में लम्बे समय से निवेश करते हैं और कई खाताधारक अपनी धनराशि को इन निवेश मार्गों के ज़रिये कई खाते में भी रखते हैं। दरअसल लम्बे निवेश कार्यकाल के कारण या कई खाते होने के कारण बहुत-से लोग अपनी बचत और निवेश के बारे में भूल जाते हैं।
हालाँकि अधिकांश पैसा रखने वाली संस्थाओं का दावा है कि एक निश्चित अवधि के बाद वे खाताधारकों अथवा निवेशकों को सूचित कर देती हैं। लेकिन इसके लिए निवेशकों को स्वयं भी उनके सम्पर्क में रहना होगा। क्योंकि सम्पर्क न होने या कई ग्राहकों के फोन नंबर, ईमेल आईडी या पते बदलने या उनकी मृत्यु या मानसिक कमज़ोर होने (सम्पर्क न होने या नामांकित व्यक्ति के न होने) के कारण कम्पनियाँ, सस्थाएँ और बैंक उनसे सम्पर्क करने में असमर्थ रहते हैं। इसी के चलते निवेशकों अथवा जमाकर्ताओं का धन वहाँ रह जाता है; जो कि लावारिश धन के रूप में पड़ा रहता है।
इस लावारिस धन को समय की निश्चित अवधि एक अलग सरकारी कोष में स्थानांतरित कर दिया गया है। खाताधारक और पॉलिसीधारक दावा कर सकते हैं कि उनके इस निवेशों से उनका पैसा सीधे उन्हें या उनके परिजनों, ख़ासकर नामांकित व्यक्ति को दिया जाए।
जमाकर्ता द्वारा दावा न किया गया धन अवेयरनेस फंड (डीईएफ), लावारिस बीमा, पीपीएफ और ईपीएफ का पैसा बैंक सावधि जमा से शिक्षा में ले जाया जाता है। ऐसे 10 साल से दावा नहीं किये गये निवेश और जमा धनराशि को वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष (एससीडब्ल्यूएफ), म्यूचुअल फंड, प्रोटेक्शन फंड (आईईपीएफ) और निवेशक शिक्षा में स्थानांतरित कर दिया गया है। ऐसे धन को बैंक डीईएएफ में जमा कर दिया जाता है, जो 10 साल तक लावारिस रहा हो। किसी भी बैंक खाते से दावा नहीं किये गये धन, जो परिचालन में नहीं है; के उपयोग के लिए इस योजना को सन् 2014 में बनाया गया था।
जमाकर्ताओं के हितों और उनकी जागरूकता का समर्थन करने के लिए ऐसे धन को 10 वर्ष या उससे अधिक अवधि के लिए तीन महीने के अन्दर डीईएएफ योजना के तहत जमा कर दिया जाता है। निवेशक 10 साल की समाप्ति के बाद या उस धन के हस्तांतरित होने के बाद भी अपनी राशि का दावा कर सकते हैं।
इस मामले में बैंक खाताधारक को भुगतान करेगा, जो कि डीईएएफ द्वारा बैंक को वापस कर दिया जाएगा। एससीडब्ल्यू फंड, पीपीएफ, डाकघर बचत खातों, ईपीएफ आरडी खातों और इसी तरह के अन्य खातों से जमा को बैंक वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष में रखता है। यह कल्याण कोष सन् 2015 में बनाया गया था, ताकि समाज कल्याण में किसी कारण से बेकार पड़ी लावारिस निधियों का उपयोग हो सके।
उदाहरण के लिए बीमा राशि के मामले में यदि निवेश के पैसे पर निवेशक द्वारा 10 साल के अन्त में दावा नहीं किया गया हो, तो फिर इसे वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष में स्थानांतरित कर दिया जाता है।

क्या करें?
1. परिवार को अपने सभी वित्तीय मामलों की जानकारी देते रहें।
2. सभी जमाओं में हमेशा एक नामांकित व्यक्ति (नॉमिनी) बनाकर रखें।
3. आय, ख़र्च और जमा पूँजी की एक सूची बनाकर रखें।
4. जब भी कोई बदलाव हो, विवरण को अद्यतन (अपडेट) करते रहें।
5. अपनी जमा राशि एक शाखा में रखें। यदि आप धन को कई बैंक या शाखाओं में रखते हैं, तो आप दावा न कर पाने वाली जमा के लिए रास्ता बना रहे हैं।
6. अपने ट्रेडिंग (व्यापार) और डीमैट (शेयर) खाते एक या दो दलालों के पास ही रखें। सम्भव हो तो उसे एक खाते में स्थानांतरित कर लें। बीच-बीच में अपनी बैंक, शाखा या दलाल कार्यालय में जाएँ या सम्पर्क करें और अपने निवेश व उसके रखरखाव की जानकारी लेते रहें। साथ ही वित्तीय मामलों में अद्यतन जानकारी अपने परिवार अथवा परिवार के प्रमुख सदस्यों अथवा जीवनसाथी को सूचित करते रहें।
7. एक छोटे-से वेतन अथवा शुल्क पर किसी अच्छे सलाहकार की मदद लेते रहें। इससे आपके भूल जाने की स्थिति में वह आपको आपके निवेशों की जानकारी मुहैया कराता रहेगा। साथ ही निवेशकर्ता के गुज़र जाने पर उसके परिवार को निवेश की जानकारी देगा और उसे निकाले अथवा हस्तांतरित करने में मदद करेगा।

स्टेम के क्षेत्र में माँग के मुताबिक नौकरियों के लिए नहीं मिल रहीं लड़कियाँ

इस बार संसद का मानसून सत्र में कोरोना वायरस, महँगाई, बेरोज़गारी, फोन हैकिंग और किसानों के मुद्दे पर बेशक हंगामा हो रहा है; लेकिन इसी शोर-शराबे के बीच 19 जुलाई को लोकसभा में देश में बीते तीन वर्षों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग व गणित (स्टेम) से स्नातक (ग्रेजुएशन) करने वालों की संख्या को लेकर एक सवाल पूछा गया।
इस सवाल में यह भी जोड़ा गया कि क्या देश में स्टेम से स्नातक करने वालों में लड़कों की संख्या लड़कियों से अधिक है? केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्री धमेंद्र प्रधान ने जो जवाब दिया, वह भारतीय समाज की लड़कियों के प्रति बनी कई रूढ़ धारणाओं में से एक के प्रति नज़रिये में आ रहे बदलाव को दर्शाता है।
केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्री ने सदन में ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के बीते तीन साल के आँकड़े साझा किये। उन्होंने बताया कि बीते तीन साल में स्टेम ग्रेजुएट लड़कों की तादाद में कमी आयी है; जबकि लड़कियों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। वित्त वर्ष 2017-18 में लड़कों की संख्या तक़रीबन 12.9 लाख थी, जो कि वित्त वर्ष 2019-20 में घटकर लगभग 11.9 लाख रह गयी। वहीं लड़कियों की संख्या इस अवधि में 10 लाख से बढ़कर लगभग 10.6 लाख तक पहुँच गयी।
विश्व बैंक का डाटा भी बताता है कि वर्ष 2018 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में स्टेम ग्रेजुएशन में 42.73 फ़ीसदी लड़कियाँ हैं; जो कि अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन से भी अधिक है। अमेरिका में स्टेम ग्रेजुएशन में लड़कियाँ 34 फ़ीसदी हैं, तो जर्मनी और ब्रिटेन में क्रमश: 27 और 38 फ़ीसदी हैं। बेशक भारत इस सन्दर्भ में शीर्ष पर है; लेकिन चिन्ता की बात यह है कि विज्ञान प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग व गणित (स्टेम) सम्बन्धित क्षेत्रों में महिला विज्ञानियों, प्रौद्योगिकीविद्, इंजीनियर व गणितज्ञों की संख्या महज़ 14 फ़ीसदी है। जबकि वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 28 फ़ीसदी है। स्वीडन में स्टेम ग्रेजुएट लड़कियाँ 35 फ़ीसदी हैं और इस क्षेत्र में नौकरी करने वालों में महिलाओं की भागीदारी 34 फ़ीसदी है, जो कि उल्लेखनीय है। भारत के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती महिलाओं को विज्ञान, प्रौद्यागिकी, इंजीनियर व गणित सम्बन्धी क्षेत्र में करियर को अपनाने व उसमें टिके रहने के लिए प्रोत्साहित करने की ही नहीं, बल्कि सकारात्मक नतीजे भी दिखाने की है।
इस क्षेत्र सम्बन्धित कार्यबल में लैंगिक असमानता एक बहुत बड़ा मुद्दा है, जिसे समझना और सुलझाना बेहद ज़रूरी है; अन्यथा समाज, देश और अर्थ-व्यवस्था को बहुत बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना होगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि समाज ने शिक्षा व श्रम को लिंग के आधार पर तय किया और इस आधार की भूमिका समाज की महिलाओं को लेकर बने पूर्वाग्रहों ने तैयार की। लड़कियों को सीमाओं में बाँधने का काम लोग पूर्वाग्रहों के चलते करते हैं, जो उनके मन में घर कर चुके हैं। लोग न केवल विज्ञान व प्रौद्याोगिकी को पुरुषों के साथ जोड़कर देखते हैं, बल्कि महिलाओं को पुरुषों की तरह कम्प्यूटर विज्ञानी व इंजीनियर वाले पद पर देख उसके प्रति नकारात्मक राय बना लेते हैं।
अक्सर महिलाओं को उनके पुरुष सहकर्मियों से कमतर आँका जाता है। यहाँ पर यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि जिस गति से दुनिया का डिजिटल युग में परिवर्तन हो रहा है, उस अनुपात में लड़कियों का विज्ञान व प्रौद्योगिकी में प्रतिनिधित्व बहुत कम है। अब समय साफ़ इशारा कर रहा है कि वर्तमान में अधिकतर नौकरियों के लिए बुनियादी विज्ञान, गणित और प्रौद्योगिकी के कौशल की अहम भूमिका है, जो आने वाले दिनों में और अहम होगी।
जनवरी, 2020 में एक रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में सन् 2016 से सन् 2019 के दरमियान स्टेम सम्बन्धी नौकरियों में 44 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ।
आर्थिक वृद्धि में जान फूँकने, ख़ासतौर पर कोविड-19 महामारी वाले मौज़ूदा परिदृश्य में भारत के लिए यह बहुत ही अहम हो जाता है कि उसके यहाँ काम करने वाले लोग स्टेम कौशल में निपुण हों। यही नहीं, प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने वाला नज़रिया भी होना चाहिए।
मुम्बई आईआईटी से इंजीनियरिंग करने वाले शुभांशु जैन, जो कि स्टार्टअप में भी काम करते हैं; का कहना है कि आईआईटी में बहुत-ही कम लड़कियाँ पहुँचती हैं। उसके बाद जब रोज़गार का सवाल आता है, तो लड़कियों की प्राथमिकताएँ अक्सर लड़कों से अलग हो जाती हैं।
नौकरी के सन्दर्भ में वे एक जगह से दूसरी जगह जाने से पहले कई बार सोचती हैं। सिर्फ़ शादीशुदा महिलाएँ ही इस विचार में नहीं अटकी रहतीं कि उनके परिवार का क्या होगा? बल्कि जो महिलाएँ हमसफ़र की तलाश कर रही होती हैं, वे भी इसी विचार में अपना करियर दाँव पर लगा देती हैं। उनकी तरक़्क़ी के रास्तों में कई बाधाएँ हैं, जिस पर नीति स्तर पर काम करने की दरकार है।

प्रोत्साहन के लिए कार्यक्रम
दरअसल भारत सरकार व राज्य सरकारों ने लड़कियों को स्टेम की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करने के मक़सद से कई कार्यक्रम शुरू किये और उसका परिणाम आज यह है कि लड़कियों की संख्या ने अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे विकसित देशों को इस सन्दर्भ में पीछे छोड़ दिया है। सरकार ने किरन नामक स्कीम शुरू की है, जो लड़कियों को स्टेम की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करती है। स्टेम में महिलाओं के लिए इंडो-यूएस फैलोशिप (अध्येतावृत्ति) शुरू की गयी। इसका मक़सद भारतीय महिला विज्ञानियों, इंजीनियर व प्रौद्योगिकीविद् को अमेरिका के प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थानों में तीन से छ: माह के शोध कार्य करने के लिए मौक़े प्रदान करना और उन्हें प्रोत्साहित करना है।
विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग ने स्टेम में पढ़ाई जारी रखने के लिए लड़कियों के लिए कई योजनाएँ बनायी हैं। समाज ने कुछ हद तक लड़कियों के लिए विज्ञान व प्रौद्योगिकी की पढ़ाई वाले विषयों को तो आत्मसात कर लिया है। इसके पीछे कई कारक काम कर रहे हैं। मगर यह समाज और सरकार के लिए स्टेम ग्रेजुएट लड़कियों की संख्या को लेकर गौरवान्वित होकर शान्त बैठने का समय नहीं है। इस समय रोज़गार बाज़ार की ज़रूरतों को देखते हुए समय की पुरज़ोर माँग यह है कि स्टेम सम्बन्धी नौकरियों में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए ठोस क़दम उठाये जाने चाहिए। स्टेम क्षेत्र वाली नौकरियों में इज़ाफ़ा हो रहा है और यह रुझान जारी रहेगा।
एक कम्पनी महिला कर्मचारी को अपने यहाँ नौकरी देने के लिए विशेष प्रस्ताव (ऑफर) तक प्रदान कर रही है। एक नियोक्ता कम्पनी में काम करने वाली एक युवती बताती है कि इस समय स्टेम और आईटी के क्षेत्र में पेशेवर लड़कियों की माँग बहुत है। आईटी क्षेत्र अपने कर्मचारियों, ख़ासतौर पर महिला कर्मचारियों को कई सुविधाएँ दे रहा है; ताकि वे वहाँ टिकी रहें।
भारत में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कम है। स्टेम क्षेत्र में भी उनकी भागीदारी महज़ 14 फ़ीसदी ही है। वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 28.8 $फीसदी है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशिल इंटलीजेंश (एआई) में तो पुरुषों का वर्चस्व है। दुनिया भर में एआई प्रोफसरों में 80 फ़ीसदी पुरुष हैं। गूगल व फेसबुक में एआई सम्बन्धित काम करने वालों में महिलाओं की संख्या सिर्फ़ 10 से 15 फ़ीसदी है। ऐसे क्षेत्रों में लैंगिक बराबरी के लिए चौतरफ़ा प्रयासों की दरकार है। परिवार, समाज, सरकार, निजी कम्पनियाँ व अन्य संस्थानों के सहयोग से ही आगे बढ़ा जा सकता है। भारत में मोबाइल इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली लड़कियों की संख्या लड़कों से 56 फ़ीसदी कम होने की सम्भावना है। आज के दौर में इंटरनेट पढ़ाई करने व ज्ञान हासिल करने का एक अहम ज़रिया है; लेकिन अपने देश में आज भी ऐसी ख़बरें अक्सर सामने आती हैं कि फलाँ गाँव की पंचायत ने अपने यहाँ की लड़कियों के द्वारा मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
हाल ही में धमेंद्र प्रधान ने ओ.पी. जिंदल विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कहा कि शिक्षा को कौशल विकास के साथ जोडऩे से सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के नये रास्ते खुलेंगे। कोरोना महामारी के कारण ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल को अपनाने की ज़रूरत का पता चला, जिससे सुनिश्चित होता है कि शिक्षा जारी रहेगी।
यह मोड़ शिक्षा और ज्ञान के प्रसार के तरीक़ों को रास्ता देता रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि इसलिए हमें भविष्य के लिए ऐसी योजना बनानी चाहिए, जो डिजिटल खाई को भर सके या डिजिटल असमानता को दूर कर सके। डिजिटल असमानता देश में अमीरों-ग़रीबों के बीच है; पुरुषों-महिलाओं के बीच है।
हालाँकि इस शिक्षा से ग़रीब तबक़े के बच्चे-बच्चियाँ वंचित रह सकते हैं। अब देखना यह है कि सरकार इस डिजिटल खाई को पाटने के लिए क्या ठोस क़दम उठाती है? सरकार व निजी संस्थाओं को स्टेम सम्बन्धी रोज़गार में अधिक-से-अधिक महिलाओं को नौकरी देने के लिए गम्भीरता और दिलचस्पी दिखानी होगी। महिलाओं को उनकी सुविधानुसार कौशल सम्बन्धित कार्यशालाओं और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए ख़ास इंतज़ाम करने होंगे। ऑटोमेशन से मानव नौकरियों पर ख़तरा मँडराने की ख़बरें आती रहती हैं और यह भी आशंका जतायी जा रही है कि आने वाले समय में इस कारण जिन लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं, उनमें पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक होगी।
महिलाओं को विज्ञान, प्रौद्योगिकी सम्बन्धित कौशल हासिल करने पर फोकस करना होगा, ताकि रोज़गार बाज़ार में वे बराबर बनी रहें और अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार से किसी भी दृष्टि में कमतर न दिखें। इस रोज़गार में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार को नीतिगत फ़ैसले लेने चाहिए और ऐसी रणनीतियाँ अपनानी चाहिए, जो समावेशी हों एवं फ़ासलों को पाटने वाली हों। लक्षित कार्यक्रमों के ज़रिये इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

बहकावे में नाबालिग़

कोरोना-काल में बढ़ी मानव तस्करी, झारखण्ड देश में 11वें स्थान पर

झारखण्ड के साहिबगंज ज़िले के बरहेट क्षेत्र की 13 साल की बच्ची नम्रता (बदला हुआ नाम) को कुछ दिन पहले दिल्ली से तस्करों के चंगुल से निकालकर घर वापस लाया गया। कोरोना संक्रमण के कारण उसके पिता की खेती-बाड़ी चौपट हो गयी। मानसिक तनाव के कारण शराब पीने लगे और चार महीने पहले मार्च में पिता का निधन हो गया। नम्रता के घर की पहले से ख़राब आर्थिक स्थिति और दयनीय हो गयी। नम्रता की दोस्त चाँदनी दिल्ली से गाँव आयी। नम्रता ने उसे अपनी समस्या बतायी।
चाँदनी ने नम्रता को दिल्ली में काम दिलाने का आश्वासन दिया। नम्रता दो अन्य परिचितों के साथ दिल्ली पहुँच गयी। वहाँ प्लेसमेंट एजेंसी के ज़रिये उसे एक घर में काम मिल गया। नम्रता ने बताया कि उसे काम के बदले पैसे नहीं मिले। उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा दी जाती थी। किसी तरह से वहाँ से वह भाग निकली। इसके बाद पुलिस और स्वयंसेवी संगठनों की मदद से कुछ दिन पहले घर लौटी है। इसी तरह जुलाई के पहले सप्ताह में पूर्व विधायक अमित महतो ने बेंगलूरु से संध्या (बदला हुआ नाम) को तस्करों के चंगुल से निकालकर वापस लाये हैं। संध्या पाँच साल से ग़ायब थी। इस दौरान उसे चार बार विभिन्न जगहों पर बेचा गया। वह दिल्ली से अलग-अलग जगहों से होते हुए बेंगलूरु पहुँच गयी थी। उसे हर तरह की प्रताडऩा का सामना करना पड़ा। ऐसी कहानी केवल नम्रता या संध्या की नहीं है। झारखण्ड में शायद ही किसी दिन मानव तस्करी की शिकार महिलाओं, लड़कियों या बच्चे-बच्चियों के बचाव की सूचना न मिलती हो। कई बार तस्करी कर ले जाते समय ही मामला पकड़ आ जाता है। 25 जुलाई को बचाव दल द्वारा चार युवतियों को दिल्ली से मुक्त कराकर पुनर्वास के लिए रांची
ले जाया गया।

झारखण्ड की स्थिति ख़राब
मानव तस्करी का जाल देश भर में फैला है, लेकिन झारखण्ड की स्थिति काफ़ी ख़राब है। नीति आयोग की हाल में आयी रिपोर्ट के अनुसार मानव तस्करी के मामले में झारखण्ड देश भर में 11वें स्थान पर है। भारत में 10 लाख की आबादी पर पाँच लोग मानव तस्करी के शिकार होते हैं। देश में मणिपुर 61 लोगों के साथ पहले स्थान पर है। वहीं गोवा 59 लोग, मिजोरम 45 और दिल्ली में प्रति 10 लाख पर 31 लोग मानव तस्करी के शिकार होते हैं। झारखण्ड में यह आँकड़ा प्रति 10 लाख में सात लोग हैं। झारखण्ड पहले से मानव तस्करी का मुख्य केंद्र रहा है। कोरोना-काल ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, माँ-बाप या अभिभावक साया छूटने के कारण मानव तस्करी बढ़ा है। अभी हाल में 24 जून को रांची हवाई अड्डे पर 19 नाबालिग़ बच्चों को तस्करी के शिकार होने से बचाया गया। इस वर्ष जनवरी से जून तक रांची हवाई अड्डे से ही 50 से अधिक लड़कियों को मानव तस्करों के चंगुल से छुड़ाया गया, जिनमें अधिकतर नाबालिग़ थीं। कोरोना-काल में मानव तस्करी की घटना बढऩे की आशंका केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों ने भी जतायी है। कुछ महीने पहले मानव तस्करी के मामलों में वृद्धि के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने विभिन्न राज्यों को परामर्श जारी किया है, जिसमें मानव तस्करी पर विशेष नज़र रखने के लिए निर्देश दिये गये हैं।

पैसे के लालच में कुकृत्य
कुछ लोग पैसे के लिए कुछ भी करने पर आमादा हो जाते हैं। मानव तस्करी जैसा कुकृत्य भी पैसे के लालची लोग करते हैं। इसकी शिकार लड़कियों, महिलाओं, बच्चों को भले ही कोई लाभ न मिलता हो; लेकिन तस्करों को इसके लिए अवैध रूप से जमकर लाभ मिलता है। पकड़े गये तस्करों के बयानों से पता चला है कि एक लड़के-लड़की की तस्करी पर 30 से 40 हज़ार रुपये मिलते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, झारखण्ड में मानव तस्करी का अवैध कारोबार करने वाले तस्करों की कमायी करोड़ों में है। राज्य पुलिस के आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 से लेकर अब तक 660 मामले राज्य के एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट थानों में दर्ज किये गये हैं। इनमें से मामलों में 300 चार्जशीट दायर हो चुकी हैं; जबकि 90 मामले बन्द हो चुके हैं और 135 मामले लम्बित हैं। सन् 2008 से लेकर अब तक कुल 350 पुरुष और 150 महिला तस्कर पुलिस के हत्थे चढ़े हैं।

प्लेसमेंट एजेंसी और परिचित ज़िम्मेदार
मानव तस्करी और तस्करों से युवतियों, महिलाओं, बच्चों के बचाव में लगे एनजीओ ऐक्शन अगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लोयटेशन इन इंडिया (अटसेक) के मुताबिक, झारखण्ड को मानव तस्करी का एक सोर्स राज्य के रूप में माना जाता है। झारखण्ड से हर साल 30 से 40 हज़ार बच्चे मानव तस्करी के शिकार होते हैं। इनमें से 10 फ़ीसदी बच्चे तो गुम ही हो जाते हैं। मानव तस्करी में प्लेसमेंट एजेंसी और बच्चों के नज़दीकी रिश्तेदार, दोस्त, स्थानीय परिचित व्यक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। दिल्ली देश की राजधानी होने के नाते मानव तस्करी का हब है। ज़्यादातर बच्चों को दिल्ली, कोलकाता, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, बेंगलूरु आदि जगहों पर भेजा जाता है। लड़कियों को 30 हज़ार से 1.5 लाख रुपये तक में बेचा जाता है। उन्हें कई तरह की यातनाएँ सहनी होती हैं। कुछ मामलों में ग़रीबी के कारण माता-पिता द्वारा भी बच्चे को भेजे जाने की बात सामने आती है। झारखण्ड में मानव तस्करी से जुड़े ज़्यादातर मामले सिमडेगा, गुमला, खूँटी व संथाल परगना के अलग-अलग ज़िलों से ही होते हैं।

सरकारें उठा रहीं क़दम


केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मानव तस्करी (रोकथाम, देखभाल एवं पुनर्वास) विधेयक-2021 का मसौदा तैयार किया है। इस पर विभिन्न पक्षों से सुझाव माँगे गये हैं। विधेयक में तस्करी के दोषी पाये जाने वाले व्यक्ति को कम-से-कम सात वर्ष क़ैद की सज़ा होगी, जिसे बढ़ाकर 10 वर्ष तक किया जा सकेगा। इसके अलावा दोषी पर कम-से-कम एक लाख रुपये से लेकर पाँच लाख रुपये तक का ज़ुर्माना भी लगाया जा सकेगा।
झारखण्ड सरकार लगातार मानव तस्करी रोकने की दिशा में क़दम उठा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मामले को लेकर गम्भीर हैं। अधिकारियों को मानव तस्करों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का आदेश दिया। इसी का नतीजा है कि फरवरी, 2021 में 14 नाबालिग़ों (12 लड़के एवं दो लड़कियों सहित) को छुड़ाया गया। पिछले महीने तमिलनाडु के तिरुपुर में फँसे आदिवासी लड़कियों और महिलाओं को वापस लाया गया। तस्करों के चंगुल से लाये गये लड़के-लड़कियों के पुनर्वास की व्यवस्था सरकार ने की है। झारखण्ड सरकार लगातार मानव तस्करी के ख़िलाफ़ क़दम उठा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरने समय-समय पर समीक्षा कर रहे हैं। राज्य में जहाँ से भी मानव तस्करी के शिकार बच्चों, नाबालिग़ लड़के-लड़कियों या युवतियों, महिलाओं की जानकारी मिलती है, उन्हें तस्करों के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास किया जा रहा है।
राज्य में अप्रैल, 2020 से मार्च, 2021 तक 199 लड़कियों को तस्करों के चंगुल से निकाला जा चुका है। वहीं अप्रैल, 2021 से अब तक 55 को तस्करों के चंगुल से छुड़ाया गया है। सरकार बचाव कार्य के बाद पुनर्वास की व्यवस्था भी कर रही है। राज्य सरकार का क़दम सराहनीय है। लेकिन मानव तस्करी की रोकथाम के लिए ये प्रयास पर्याप्त नहीं है। मानव तस्करी के पीछे के कारणों को तलाश कर उसके निदान की दिशा में और ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है; तभी झारखण्ड के माथे से मानव तस्करी का कलंक मिट पाएगा।


“झारखण्ड से मानव तस्करी के कलंक को मिटाना सरकार की प्राथमिकता है। मानव तस्कर रोधी इकाइयों की स्थापना का आदेश दिया गया है। ग्रामीण इलाक़ों में मानव तस्करी पर नज़र रखने के लिए राज्य भर में विशेष महिला पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति की जाएगी। बचाकर लाये गये पीडि़तों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था की गयी है। कोरोना संक्रमण से प्रभावित बच्चों की स्थिति का किसी को फ़ायदा नहीं उठाने दिया जाएगा। हम अपने बच्चों की देखभाल करेंगे। कोई भी बच्चा किसी भी प्रकार के अनुचित साधनों का शिकार नहीं होगा। सरकार जल्द ही ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए एक विस्तृत योजना लेकर आएगी। जिन्होंने दुर्भाग्य से अपने माता-पिता को खो दिया है।”
हेमंत सोरेन, मुख्यमंत्री, झारखण्ड

 

 

“मानव तस्करी का शिकार ज़्यादातर महिलाएँ, लड़कियाँ और बच्चे होते हैं। इनमें 80 फ़ीसदी 18 साल से कम उम्र की नाबालिग़ लड़कियाँ होती हैं। कई बार वे आत्मनिर्भर बनने और परिवार का भरण-पोषण करने की सोच के चलते दलालों के चंगुल में फँस जाती हैं। मानव तस्करी के 90 फ़ीसदी मामलों में क़रीबी रिश्तेदारों, परिचितों का हाथ होता है। पीडि़तों को जिस तरह की मानसिक यातनाओं से गुज़रना पड़ता है कि उनके काउंसलिंग और पुनर्वास करने में दो-तीन साल लग जाते हैं। मानव तस्करी पर रोक तभी लग सकती है, जब उन्हें अपने ही घर या ज़िले के आसपास जीवनयापन के लिए काम की व्यवस्था होगी।”
संजय मिश्रा, झारखण्ड प्रमुख, अटसेक

विवाह के अधिकारों पर फिर होगी बहस

फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा पति-पत्नी के बीच सम्बन्धों का मुद्दा

अगस्त, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों (जजों) की खंडपीठ ने जब निजता को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया था, तब यह माना गया था कि इसके राज्य व समाज दोनों पर ही दूरगामी प्रभाव आएँगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले को अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए कि इसी फ़ैसले को आधार बनाकर हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की ‘विवाह अधिकारों की बहाली सम्बन्धी’ धारा-9 को सर्वोच्च न्यायालय में ही फिर से चुनौती दे दी गयी।
अब इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ विचार कर रही है और अगर यह फ़ैसला भी वादियों के पक्ष में गया, तो इसके समाज पर अति-दूरगामी प्रभाव देखने को मिलेंगे।

क्या है धारा-9?


हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पति और पत्नी दोनों को ही विवाह के बाद साथ रहने का अधिकार देता है। लेकिन अगर किसी भी कारण से पति या पत्नी, दोनों में से कोई भी साथ रहने या फिर यौन सम्बन्ध बनाने से इन्कार कर देता है, तो इस अधिनियम की धारा-9 बीच में आती है।
इस धारा के तहत सम्बन्ध बनाने से इन्कार करने वाले के ख़िलाफ़ दूसरा पक्ष न्यायालय में जा सकता है और अगर न्यायालय उसके पक्ष में फ़ैसला दे देता है, तो इन्कार करने वाले को मजबूरन उसके साथ रहना ही होगा। अगर वह उस फै़सले को नहीं मानता, तो उसकी सम्पत्ति ज़ब्त की जा सकती है।
साफ़ है कि यह बात पति और पत्नी, दोनों पर समान रूप से लागू होती है। लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को ही न चाहते हुए भी पति के घर वापस जाना पड़ता है और बेमन होकर भी यौन सम्बन्ध बनाने पड़ते हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि पति के दुव्र्यवहार से तंग आकर पत्नी उससे अपने को अलग कर लेती है। तब पति इस धारा के तहत न्यायालय के ज़रिये उसे फिर अपने पास आने के लिए मजबूर करता है; और एक बार पत्नी के आ जाने के बाद पति अपने दाम्पत्य अधिकारों का दबाव डालकर, उसे उसकी इच्छा के विपरीत, यौन सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करता है।

धारा-9, धारा-22 ख़त्म करने की माँग
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, गाँधीनगर, गुजरात के दो छात्रों ओजस्व पाठक और मयंक गुप्ता ने इस जबरदस्ती को महिलाओं की निजता, दैहिक स्वायत्ता, सम्मान से जीने, स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए न्यायालय से अपील की है कि वह हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-9, विशेष विवाह अधिनियम की धारा-22 एवं सिविल प्रक्रिया संहिता के इनसे जुड़े कुछ प्रावधानों को ख़त्म करे।
उनके मुताबिक, किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश देने का अधिकार न्यायालय को नहीं दिया जा सकता।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में होने जा रही इस बहस को आज के बदलते माहौल में देखना-सुनना या जानना बेहद दिलचस्प होगा। कारण, इससे पहले सन् 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-9 को यह कहते हुए बरक़रार रखा था कि यह विवाह को टूटने से रोककर एक सामाजिक मक़सद को पूरा करती है।
यही नहीं, उसने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को भी ख़ारिज कर दिया था, जिसमें इस धारा को पूर्णतया रद्द कर दिया गया था। न्यायालय के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि किसी न्यायाधीश ने इस धारा को पूरी तरह रद्द कर दिया हो। सन् 1983 में टी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैया मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश पी. चौधरी ने ऐसा करते हुए अन्य बातों के अलावा निजता के अधिकार का भी हवाला दिया था। उनका यह भी कहना था कि पति या पत्नी की इतनी अधिक निकटता से जुड़े हुए मुद्दे को राज्य के किसी हस्तक्षेप से बेहतर है कि इसे उन्हीं (पति-पत्नी) पर छोड़ दिया जाए। तीसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि न्यायालय ने माना है कि ‘यौन सम्बन्ध’ बनाने पर मजबूर करने के महिलाओं पर ‘बहुत घातक प्रभाव’ होंगे।
इसी साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने हरविंदर कौर बनाम हरमंदिर सिंह चौधरी के मामले में इसके एकदम उलट फ़ैसला दिया। उसका कहना था कि यौन सम्बन्ध इस धारा का एकमात्र मसला नहीं है। यह राज्य के हित में है कि परिवार टूटें नहीं, वैवाहिक सम्बन्ध बने रहें और निभते रहें। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के फ़ैसले को सही मानते हुए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया।

महत्त्वपूर्ण होगी बहस
अब जब पिछले कुछ साल से निजता के अधिकार के अलावा, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा-497 को ख़त्म करके सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार के सन्दर्भ में महिलाओं को समानता का अधिकार दिया और समलैंगिकता अधिकारों को क़ानूनी जामा पहनाया, उसको देखते हुए वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर होने जा रही बहस काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। ख़ासकर इसलिए कि बाल-विवाह, पति द्वारा बलात्कार जैसे सामाजिक मुद्दों पर आगे की क़ानूनी राह का इससे पता चलेगा।

विवाह अधिकारों की बहाली


बात बाल विवाह की आयी, तो यह जानना और भी दिलचस्प है कि बाल विवाह निषेध क़ानून के बनने का रास्ता विवाह अधिकारों की बहाली या कहें कि पुनस्र्थापना सम्बन्धी एक मुक़दमे से ही निकला और वह भी 136 साल पहले।
हुआ यह कि महाराष्ट्र में दादाजी भीखाजी नाम के एक व्यक्ति ने सन् 1884 में अपनी पत्नी रुखमाबाई के ख़िलाफ़ न्यायालय में यह कहकर मुक़दमा दायर कर दिया कि वह बार-बार अनुरोध करने के बाद भी उसके घर नहीं आ रही, न उसके साथ रह रही है। न्यायालय उसके वैवाहिक अधिकारों के तहत उसके साथ रहने का आदेश दे।
रुखमाबाई की भीखा से शादी तब हुई थी, जब वह मात्र 11 साल की थी। इसके बाद पिता के घर में रहते हुए वह पढ़ाई करती रही। वह उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती थी और बचपन में उसकी सहमति के बिना की गयी उस शादी को मानने को तैयार नहीं थी।
ज़िला न्यायालय में मुक़दमा सुनवायी के लिए आया, तो आधे से ज्यादा अख़बार रुखमाबाई के ख़िलाफ़ बहसों से भर गये। सभी उसके रवैये के लिए उसकी शिक्षा को दोषी ठहरा रहे थे।
न्यायाधीश ने ज़्यादा बहस किये बिना ही रुखमाबाई के पक्ष में फ़ैसला दे दिया। लेकिन भीखाजी ने हार नहीं मानी और वह उच्च न्यायालय में गये। आमजन में यह सन्देश जा रहा था कि ब्रिटिश क़ानून हिन्दू समाज और उसके तौर-तरीक़ों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। यह लड़ाई जितनी भीखाजी और रुखमाबाई की थी, उससे कहीं ज़्यादा ब्रिटिश सरकार, समाज सुधारकों और उनके विरोधियों के बीच में थी। दबाव के बीच बम्बई उच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायालय के फ़ैसले को पलट दिया। यही नहीं, रुखमाबाई को मुक़दमे की सारी रक़म अदा करने और ऐसा नहीं करने पर छ: महीने की जेल की सज़ा का आदेश सुनाया। रुखमाबाई ने फ़ैसले को मानने से इन्कार करते हुए 2,000 रुपये का हर्ज़ाना देना तय किया। लोगों ने दिल खोलकर रुखमाबाई के लिए पैसे इकट्ठे किये।
दण्ड भुगताने के बाद जो पैसा बचा, उससे रुखमाबाई मेडिकल की पढ़ाई करने इंग्लैंड चली गयीं। लौटकर आयीं, तो वह देश की पहली महिला चिकित्सक के रूप में जानी गयीं। इस मामले के बाद लड़की के विवाह की आयु को लेकर पहले ब्रिटेन और फिर भारत में क़ानूनों में सुधार किया गया। लेकिन जहाँ तक विवाह अधिकारों की बहाली की बात है, उस क़ानून में कोई बदलाव नहीं आया और न सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस पर अभी तक अपना रुख़ बदला है। लेकिन रुखमाबाई ने अपनी दैहिक स्वायतता व इन्कार करने के अधिकार की रक्षा के लिए जो तर्क 136 साल पहले दिये थे, वो आज भी अपनी जगह उसी तरह और वहीं
खड़े हैं।

जाँच की आँच से खलबली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ताक़त का स्रोत क्या है? संघ का आधार नकारात्मक होता, तो दीर्घकाल तक ऊर्जा और प्रतिबद्धता उत्पन्न नहीं कर सकता था। स्पष्ट कहें, तो संघ अपनी विचारधारा को शुचिता और निष्ठा से जोड़कर परिभाषित करता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि संघ की शक्ति का पूरा लाभ भाजपा को मिलता है। इसलिए यश, अपयश का प्रभाव भी संघ पर पड़ता है। ऐसे में इससे जुड़े लोगों की राजनीतिक शैली और प्रक्रियाओं पर नियंत्रण भी आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि क्या संघ आरोप-प्रत्यारोप की तात्कालिक चुनौतियों के प्रति सतर्क है। ग्रेटर जयपुर की निलंबित मेयर सौम्या गुर्जर के कथित धतकर्मों ने इन सवालों में सेंध लगायी है। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा सौम्या गुर्जर कांड में उनके पति राजाराम और बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि ओमकार सप्रे की गिरफ़्तारी के साथ आरएसएस के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम की घेराबंदी ने प्रदेश की राजनीति में जबरदस्त हलचल पैदा कर दी है। इसकी शुरुआत पिछले पखवाड़े जिस हो-हल्ले से हुई, उसने बवंडर की शक्ल अख़्तियार कर ली है। एसीबी ने अभी निंबाराम के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की है। घूसख़ोरी के वीडियो में निंबाराम की मौज़ूदगी भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन गयी है।
भाजपा के उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ भड़के हुए अंदाज़ में कांग्रेस पर हमलावर हो रहे हैं कि यह सौदा सरकार को बहुत महँगा पड़ेगा। राष्ट्रवादी संगठन को बदनाम किया गया, तो इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ सड़क से संसद तक बिगुल बजा देंगे। एसीबी ने आख़िर प्रारम्भिक जाँच को मुक़दमे में तब्दील क्यों कर दिया? जबकि इसमें कोई शिकायत ही नहीं है। केवल कूटरचित वीडियो के आधार पर मुक़दमा दर्ज कर लिया गया। यह मामला ही झूठ का पुलिंदा है। उधर एसीबी के डायरेक्टर जनरल बी.एल. सोनी का कहना है कि रिश्वत की राशि पेश करने और माँगने की पुष्टि होने के बाद वीडियो में नज़र आ रहे राजाराम, ओमकार सप्रे और निंबाराम साफ़-साफ़ नज़र आ रहे हैं। उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया है। उधर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद डोटासरा अपनी ही सरकार पर हमलावर हो रहे हैं कि निंबाराम की गिरफ़्तारी में देरी किस बात को लेकर है? जबकि वीडियो में संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम की मौज़ूदगी साफ़ नज़र आ रही है। इस मामले में एसीबी सावधानी की बात करें, तो उसके दो क़दम जबरदस्त चर्चा में रहे। पहला, एसीबी ने राजस्थान राज्य विधि विज्ञान प्रयोगशाला से ऑडियो-वीडियो की तो जाँच करायी, जिसकी पुष्टि के लिए तेलंगाना एफएसएल से भी जाँच करायी; ताकि रिपोर्ट पर सवाल उठें, तो बचाव किया जा सके। दूसरा, एफएसएल की रिपोर्ट तो एसीबी को समयरहते मिल गयी थी, किन्तु सौम्या गुर्जर ने निलंबन सम्बन्धी प्रावधानों को उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी थी। ऐसे में उच्च न्यायालय के फ़ैसले का इंतज़ार ज़रूरी था। न्यायालय का फ़ैसला जब सौम्या गुर्जर के ख़िलाफ़ आया, तब जाकर एसीबी ने गिरफ़्तारी का क़दम उठाया।


अलबत्ता दोनों एफएसएल जाँचों का लब्बोलुआब समझें, तो बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि ने घूस की मोटी रक़म का प्रस्ताव दिया। राजाराम ने धमकाने के अंदाज़ में रिश्वत माँगी। उक्त मामले में प्रथम दृष्टया एक अन्य व्यक्ति की सहयोगात्मक उपस्थिति भी पायी गयी। स्पष्ट है कि यह अन्य व्यक्ति कौन था? भाजपा के उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ एफएसएल जाँच को लेकर उखड़े अंदाज़ में सरकार पर हमलावर हो रहे हैं कि जाँच केंद्रीय एफएसएल के बजाय तेलंगाना से क्यों करायी? उधर एसीबी सूत्रों का कहना है कि बीवीजी कम्पनी के जिस भी कर्मचारी ने वीडियो बनाया, उसने पहले 276 करोड़ के भुगतान सम्बन्धी बातचीत को मोबाइल पर रिकॉर्ड किया, फिर मुलाक़ात के दौरान वीडियो बनाया। सूत्रों का कहना है कि पाँच-छ: दिनों के अंतराल में उसने कुल तीन वीडियो और पाँच-छ: बार ऑडियो बनाये गये।
उधर उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने भी इस मामले में भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। उच्च न्यायालय ने सौम्या गुर्जर की याचिका ख़ारिज करते हुए साफ़ कह दिया कि सरकार की कार्रवाई मनमानी और द्वेषपूर्ण नहीं है। सौम्या गुर्जर ने एफआईआर रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय ने सौम्या गुर्जर को महापौर पद से निलंबन पर राहत देने से इन्कार कर दिया। साथ ही सरकार को छ: माह में न्यायिक जाँच पूरी करने को कहा है। भाजपा अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देने की तैयारी में है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और इस पूरे मामले की कमान सँभाल रहे अरुण चतुर्वेदी ने स्पष्ट किया कि न्यायालय के फ़ैसले पर कोई टिप्पणी नहीं बनती। अब पार्टी की क़ानूनी टीम की सलाह पर ही इस मामले में आगे बढ़ा जाएगा। इस मामले में बीवीजी कम्पनी बचाव के हर रास्ते पर दस्तक देती नज़र आ रही है। कम्पनी के वकील का कहना है कि सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में कमीशन और रिश्वत के लेन-देन की बात नहीं हो रही, बल्कि कम्पनी के सीएसआर फंड की दो फ़ीसदी रक़म को राम मंदिर निर्माण समिति और प्रताप फंड में देने की बातचीत हो रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला केवल सियासी मक़सद के लिए दर्ज किया गया है तथा वीडियो में काँट-छाँट और तथ्यों से छेड़छाड़ भी की गयी है। सूत्रों का कहना है कि सफ़ाई व्यवस्था में कमीशनख़ोरी का क़िस्सा कोई नयी बात नहीं है। सफ़ाई की कमान चाहे ठेके पर हो या ख़ुद निगम के हाथों में, कमीशनख़ोरी के आरोप लगते रहे हैं।
जानकारों का मानना है कि यह सिलसिला बन्द हो, तभी जयपुर की प्रतिष्ठा (रैंकिंग) सुधर सकती है। सफ़ाई व्यवस्था के मामले में जयपुर हमेशा फिसड्डी रहा है। व्यवस्था ने अपना चोला नहीं बदला, तो कमीशनख़ोरी की मुहावरेदार भाषा बार-बार नये गुल खिलाती रहेगी। जयपुर की प्रतिष्ठा बनाने के लिए कोई लाख चाहे, तो भी ऐसे सूरमा की तलाश नहीं की जा सकती।
इस मामले में कांग्रेस और भाजपा के फायरब्रांड नेताओं की बयानबाज़ी ने तूल पकड़ा, तो आख़िरकार संघ को अपनी चुप्पी तोडऩी पड़ी। संघ के राजस्थान कार्यवाह हनुमान सिंह राठौड़ ने क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम पर लगाये गये सारे आरोपों को निराधार बताते हुए कहा कि निहित सियासी स्वार्थ से प्रेरित होते हुए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। हालाँकि उन्होंने कहा कि मामले की जाँच में निंबाराम हर तरह से सहयोग देने को तैयार हैं। क़ानून में सम्मत कार्रवाई करने के सभी विकल्प खुले हुए हैं। उन्होंने कहा कि अलग-अलग समय और सन्दर्भ में की गयी बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग करके उन्हें अन्यर्थों में पेश किया गया है, जबकि इस मामले में किसी प्रकार की राशि का आदान-प्रदान नहीं हुआ है। इसे भ्रष्टाचार से जोड़कर अनर्गल आरोप लगाना निंदनीय है। बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि प्रताप गौरव केंद्र में सीएसआर फंड द्वारा सहयोग का प्रस्ताव लेकर निंबाराम के पास आये थे। निंबाराम के कहने पर कम्पनी प्रतिनिधियों ने दौरे की तिथि तय भी की; लेकिन वह वहाँ पर गये ही नहीं। ऐसे में जब लेन-देन की आग भड़की ही नहीं, तो सियासी धुआँ क्यों उठा? विश्लेषकों का कहना है कि फ़िलहाल तो जाँच के बाद ही पता चलेगा कि कौन सही है और कौन ग़लत।

जाँच की प्रतीक्षा करें : कस्वां


राजाराम प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम को आरोपी बनाये जाने के मामले में प्रतिकार की भाषा बोलने वाले नेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड़ पर हमलावर होते हुए प्रदेश कांग्रेस के उप सचिव रामसिंह कस्वां का कहना है कि निंबाराम की मौज़ूदगी में रिश्वत माँगे जाने का वीडियो जारी होने के बाद कहने को क्या रह जाता है? बावजूद इसके राठौड़ इसे राष्ट्रवादी संगठन के ख़िलाफ़ साज़िश क़रार दे रहे हैं। क्या यह हैरानी की बात नहीं है? रामसिंह कहते हैं कि एफएसएल रिपोर्ट में वीडियो की प्रमाणिकता की पुष्टि हो जाने के बावजूद इसे सियासी बैर-भाव बताने की कोशिश करना तो चोरी और सीनाजोरी जैसा हुआ। रामसिंह कहते हैं कि एक तरफ़ संघ द्वारा कहा जाता है कि उनका संगठन रचनात्मक कार्यों को लोकतांत्रिक आवाज़ देने का काम करता है। तो क्या संघ के पदाधिकारियों को इस मामले की गहराई नापने का काम नहीं करना चाहिए? कस्वां का कहना है कि फ़िलहाल तो इस प्रकरण में निंबाराम की भूमिका की जाँच हो रही है। इसलिए इसमें भाजपा नेताओं की उछल-कूद उचित नहीं है। यह कोरा सतही आलोचना का क़िस्सा नहीं है, बल्कि पड़ताल का विषय है कि आख़िर घूसख़ोरी के लेन-देन में निंबाराम क्यों नज़र आ रहे हैं? उनकी इस प्रकरण में क्या भूमिका है? उन्होंने वसुंधरा राजे के इस बयान पर कि अशोक गहलोत सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं; पलटवार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति या संगठन अपने काम से ख्यात और कुख्यात होता है। इसलिए जाँच की प्रतीक्षा तो करें। उन्होंने एक कविता ‘सत्य क्या है’ पढ़ी-
‘सूर्य छिपे अदरी-बदरी और चंद्र छिपे जो अमावस आये
पानी की बूँद पतंग छिपे और मीन छिपे इच्छा जल पाये
भोर भये जब चोर छिपे और मोर छिपे रितु सावन आये
कोटि प्रयास करे कित कोई, सत्य का दीप बुझे न बुझाये’

दुविधा में पायलट

राजनीतिक कलह की आग में जब भी शोले भड़कते हैं, तो शिकवा-शिकायतों की चिंगारियाँ उड़े बिना नहीं रहतीं। पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर भारी भीड़ जुटाकर चुपके से अपना दर्द साझा करते हुए सचिन पायलट ने अपना दावा फिर दोहरा दिया कि पार्टी के लिए अपना सब कुछ झोंकने के बावजूद मुझे क्या मिला? जब उन्होंने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, तभी अंदेशों के बादल उठने लगे थे कि मुख्यमंत्री न बन पाने की ख़लिश उन्हें बेचैन किये रहेगी। कुछ हफ़्तों बाद ही उनके और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच तनाव की ख़बरें रिसने लगीं।


इन अफ़वाहों को बल तब मिला, जब पायलट ने गहलोत के कामकाज को लेकर बेसिर-पैर की बातें शुरू कर दीं। असली सत्ता अपने पास नहीं होने का सन्ताप पायलट को भीतर-ही-भीतर कचोटता रहा। नतीजतन पायलट अपनी कुर्सी के ही क़ैदी बनकर रहे गये। पायलट लाख चाहें भी, तो इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि बिना कोई संघर्ष किये छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने सांसदी और केंद्रीय मंत्री की पाग पहनने के बाद प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री तक का ताज भी पहन लिया। गहलोत तो इस बात पर तंज कसने से भी नहीं चूके कि बिना संघर्ष के ही जब पायलट को इतना कुछ मिला, तो उन्हें इसकी क़द्र नहीं हुई। लेकिन उनकी सियासी जन्म कुण्डली का इससे ज़्यादा दु:खद वृतांत क्या हो सकता है कि पार्टी के मुखिया पद को ही उन्होंने लांछित कर दिया। विश्लेषकों का कहना है कि जब पार्टी का मुखिया ही लक्ष्मण रेखा लाँघ जाए, तो बाक़ी क्या रह जाता है? ताक़त दिखाने की बाज़ीगरी में पासे उलटे पडऩे के बाद सचिन एक बार फिर अपने समर्थकों को साथ लेकर पिछला रुतबा और ओहदा पाने के लिए घमासान में उलझे हैं। सचिन पायलट समर्थक पंजाब का उदाहरण देते हुए जोश से बोलते हैं कि जब वहाँ (पंजाब में) कार्यवाही हो गयी, तो राजस्थान में टालमटोल क्यों? लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थकों ने पायलट ख़ेमे पर हमलावर होते हुए दो-टूक कह दिया कि जिन लोगों ने पार्टी के साथ ग़द्दारी की और सरकार गिराने की कोशिश की, वे किस हक़ से हाईकमान पर दबाव बना रहे हैं?
विश्लेषकों का कहना है कि पायलट ने जिस तरह की मनमानी की, उससे पनपा तनाव अब शायद ही कम हो सके। वजह साफ़ है कि हर रोज़ कोई-न-कोई नेता आग में घी डालने वाली बयानबाज़ी करने से बाज़ नहीं आ रहा। तेवर जितेन्द्र सिंह ने भी दिखाये कि पार्टी हाईकमान ने पायलट से जो वादे किये हैं, उन्हें निभाया जाना चाहिए। प्रश्न है कि पायलट अपने पाँच से छ: विधायकों को मंत्री बनवाना चाहते हैं, जो कि सम्भव नहीं। इस घमासान के चलते जितिन प्रसाद की भाजपा में उड़ान से भी शोले भड़के। लेकिन यह शोले जल्द ही राख में तब्दील हो गये।
असल में मोदी सरकार ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को तो मंत्री पद से नवाज़ दिया; लेकिन जितिन प्रसाद देखते ही रह गये। सूत्रों का संकेत है कि पायलट को मनचाहा पद मिल पाना क़तई सम्भव नहीं है। जबकि समझा जाता है कि उन्हें पार्टी का महासचिव बनाकर किसी प्रदेश का प्रभारी बनाया जा सकता है। हालात जो भी हों, पायलट की इच्छा शान्त नहीं हो रही है और भौहें तनी हुई हैं। राजनीतिक सूत्रों की मानें, तो पायलट के आँगन में बड़े दावों वाला एक खेल खेला जा रहा है। ऐसे में अगर आने वाले वक़्त में पायलट फिसलकर भाजपा के आँगन में जा गिरें, तो ताज़्ज़ुब नहीं होना चाहिए। क्योंकि सियासी खेल में रिश्तों के नियम तय नहीं होते।

बुराइयों को संस्कार न बनने दें

पिछले साल से हमारी गली की एक बुज़ुर्ग़ महिला कुछ अजीब व्यवहार करती नज़र आ रही है। ख़ुद अधिकतर समय बिना मास्क के रहने वाली उक्त महिला किरायेदारों को देखकर इतनी दूर भागती है, जैसे मानो उनमें ही कोरोना वायरस हो। बहुत-से लोगों को उस बुज़ुर्ग महिला का यह बर्ताव बिल्कुल अच्छा नहीं लगता; भले ही कोरोना-काल में यह उनके भी हित में हो। वह इसलिए भी कि शारीरिक दूरी बनाकर रखना एक अलग बात है और कूदकर दूर भागना दूसरी बात। ताज़्ज़ुब यह है कि उक्त महिला गली में लगातार महिला पंचायत करती है और दिन-दिन भर कभी इसके, तो कभी उसके दरवाज़े पर भीड़ लगाकर बैठी रहती है। अभी हाल ही में उसके बेटे की शादी हुई है, जिसमें कोरोना वायरस से बचाव के लिए तय सभी सरकारी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ायी गयीं। ऐसे लोगों को क्या कहेंगे?
देखने में आया है कि जबसे कोरोना वायरस फैला है, तबसे लोग एक-दूसरे से खुलकर नहीं मिल रहे हैं। अब ज़्यादातर लोग हाथ मिलाने, पास बैठने, बात करने से घबराते दिख रहे हैं। मुझे यह लगता है कि यह कोरोना हम इंसानों बीच घृणा और भेदभाव फैलाने का एक साधन-सा बन चुका है, जिसे अगर इसी तरह बढऩे दिया, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम और हमसे ज़्यादा हमारे बच्चे पहले से ही उगी नफ़रत की खरपतवार और कँटीली झाडिय़ों को बढ़ाकर उनमें ख़ुद ही उलझ-उलझ कर अकेलेपन और असहयोग की पीड़ा से तड़पेंगे।
हम पहले से ही तमाम धर्मों, वर्णों, जातियों, भाषाओं, बोलियों, रंगों, वेशभूषाओं, त्योहारों, संस्कृतियों, खान-पान, रहन-सहन और क्षेत्रवाद जैसे पिंजरों में इस तरह क़ैद हैं कि लोग आपस में सरोकार होते हुए भी एक-दूसरे से भेदभाव और नफ़रत करते हैं। ऐसा सब नहीं करते। लेकिन जितने करते हैं, वह पूरे मानव समाज के जीवन को दुश्वार करने के लिए काफ़ी है। इन सब बीमारियों से निजात पाने का एक ही तरीक़ा है, और वह यह कि हमें सियासियों, कट्टवादियों और धार्मिक अन्धविश्वासों तथा उन्माद के चक्कर में पडऩे से बचना है। यह सही है कि हमें कोरोना वायरस नाम की इस महामारी से ख़ुद को और दूसरों को बचाने के लिए सुरक्षा उपायों का पालन करना होगा; लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम आपस में इतनी दूरी बढ़ा लें कि आने वाली पीढिय़ाँ इस दूरी को चलन समझकर जीवन में उतार लें और धीरे-धीरे यह चलन संस्कार बन जाए। क्योंकि जब कोई बुराई संस्कार बन जाती है, तो उससे लोगों को छुटकारा दिला पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन-सा हो जाता है। हम पहले से ही आपस में इतनी दूरियाँ बढ़ा चुके हैं कि पड़ोसियों तक से अब मतलब नहीं रखना चाहते, रिश्तेदारी हमें वही अच्छी लगती है, जो बहुत क़रीब की हो; हमारी ज़रूरत की हो। हाँ, अगर कोई पैसे से बड़ा हो जाता है, तो उसे ज़रूर हम जबरन अपना रिश्तेदार बताते-मानते हैं, भले ही उसकी नज़रों में हमारी कोई औक़ात हो या न हो।
कभी-कभी मैं विचार करता हूँ कि मानव समाज का यह माहौल हुआ कैसे? आपस में दूरियाँ बढ़ाने, एक-दूसरे को जीने न देने, परेशान करने, भेदभाव और नफ़रत करने की सीख हमें किसने दी? इस मामले में मेरा स्पष्ट मानना है कि इस तरह की सीख हमें धर्म के नाम पर आडम्बर करने वाले धर्म के ठेकेदारों और राजनीतिक चूल्हे पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले नेताओं ने दी है, जिसे हम आज तक नकार नहीं पा रहे हैं। जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि ये लोग सदियों से हमारा दोहन कर रहे हैं। लेकिन धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और अवसरवाद की अफीमों का नशा हमारे दिल-ओ-दिमाग़ पर इस तरह तारी है कि हम इसे छोडऩा ही नहीं चाहते। हमें धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? जबकि हम जानते हैं कि हमें अपने जीवन के निर्वाह के लिए ख़ुद ही परिश्रम करके अपना जीवन चलाना है। ख़ुद ही अपनी पहचान बनानी है; और ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता भी ख़ुद ही बनाना है; जो कि निश्छल, परम् ज्ञानी, निष्कपट, निर्मोही और निर्लोभी गुरु बताएगा या स्वयं ईश्वर ही दिखाएगा। फिर हमें इन ठगों के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? क्यों इनकी हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिए? क्यों इनके कहने पर भेदभाव, नफ़रत, लड़ाई-झगड़ा और पापकर्म करने चाहिए? क्यों मान लेना चाहिए कि धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थी जो कह रहे हैं, वही ठीक है? क्यों मान लेना चाहिए कि ये लोग ही सही हैं, बाक़ी सब कुछ और हर कोई ग़लत?
आपने कभी सोचा है कि ये जो धार्मिक और राजनीतिक लोग हमें आपस में बाँटकर रखते हैं और हमेशा बाँटकर रखना चाहते हैं; वे आपस में कितने एक हैं? कोरोना वायरस के भयाक्रांत संक्रमण के दौर में भी उनमें बेतक़ल्लुफ़ ताल्लुक़ात रहे। एक-साथ उठे-बैठे; अन्दरख़ाने पार्टियाँ कीं; बैठकें कीं; रैलियाँ कीं; यहाँ तक कि कई बिना मास्क के भी रहे। और आम लोगों ने बिना मास्क के डण्डे खाये, चालान कटवाये।
मैं यह नहीं कहता कि महामारी से बचने के लिए तय दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करना चाहिए; लेकिन नियम-क़ानून तो सभी के लिए समान हैं और रहने भी चाहिए। फिर भी अगर ऐसा नहीं है, तो भी जन-सामान्य को आपस में इतनी दूरियाँ नहीं बनानी चाहिए कि ये दूरियाँ भविष्य में भेदभाव और नफ़रत की बुनियाद बन जाएँ और आने वाली पीढिय़ाँ इन बुराइयों को एक संस्कार या संस्कृति मानकर अपनाने लगें।

शून्य से सत्ता में वापसी की क़वायद हरियाणा में फिर से ओमप्रकाश चौटाला के सक्रिय होने से बदल सकते हैं राज्य के राजनीतिक समीकरण

इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला के जेल से आने के बाद पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में नया जोश पैदा हो गया है। उन्हें लगता है कि बदली परिस्थिति में हरियाणा में इनेलो का युग फिर से लौट आएगा और यह सब चौटाला की वजह से सम्भव हो सकेगा। उम्र के इस दौर में उनसे इतनी ज़्यादा उम्मीदें लगाना बेमानी-सा लगता है; लेकिन उनकी सक्रियता को देखते हुए पार्टी के पहले से बेहतर स्थिति में आने की आशा है। उन्हें कुशल संगठनकर्ता और वक्ता के तौर पर आँका जाता है और कई बार वह इसे साबित भी कर चुके हैं।
दिल्ली-ग़ाज़ीपुर सीमा पर जाकर वह किसानों को खुला समर्थन दे चुके हैं। पार्टी पहले से ही किसान आन्दोलन की हिमायती रही है। राज्य के ऐलनाबाद से एकमात्र विधायक अभय चौटाला उनके समर्थन में अपनी सीट से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। यहाँ उपचुनाव होना है; लेकिन अभी इसकी घोषणा नहीं हुई है। अभय घोषणा कर चुके हैं कि अगर चुनाव आयोग से हरी झंडी मिलती है, तो उनके पिता (ओम प्रकाश चौटाला) ही मैदान में उतरेंगे। ऐलनाबाद इनेलो का गढ़ रहा है। लिहाज़ा इसमें कोई संशय नहीं कि पार्टी मुक़ाबले में सबसे आगे रहेगी। उपचुनाव में हार-जीत से ज़्यादा फ़र्क़ पडऩे वाला नहीं है; क्योंकि जो सीट पहले उसके पास थी, फिर से चली गयी और राज्य में पार्टी का फिर से प्रतिनिधित्व हो गया।
वैसे एक दौर में राज्य की प्रमुख पार्टी रही इनेलो अभी हाशिये पर ही है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने राज्य की 90 में से 81 सीटों पर प्रत्याशी उतारे केवल ऐलनाबाद से अभय चौटाला को ही जीत मिली। पार्टी प्रत्याशी बहुसंख्यक सीटों पर कहीं मुक़ाबले में नहीं रहे और मतों का फ़ीसद 2.44 रहा। इसके मुक़ाबले में इनेलो से अलग हुई जननायक जनता पार्टी (जजपा) को 10 सीटों पर जीत मिली और उसे 14.80 फ़ीसदी मत मिले। मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए जजपा ने भाजपा को समर्थन दिया और सरकार में शामिल हुई। पार्टी नेता दुष्यंत चौटाला राज्य के उप मुख्यमंत्री के तौर पर क़ाबिज़ हुए। कहा जा सकता है कि इनेलो का परम्परागत मत जजपा के हिस्से में आया।
इनेलो अब न केवल जजपा के वोट बैंक, बल्कि सत्ता में आने के लिए मतों की प्रतिशतता बढ़ाने की क़वायद में लगेगी। लोगों के समर्थन से इनेलो प्रमुख व राज्य पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का जोश दोगुना हो जाता है। वह लोगों से कहते हैं कि इस बार राज बणा द्यो, सारी क़सर काढ़ द्यँगा (एक बार इनेलो की सरकार बना दो, फिर तुम्हारी सारी क़सर पूरी कर दूँगा)।
ओमप्रकाश चौटाला पिता (पूर्व प्रधानमंत्री ताऊ देवीलाल) के भरोसेमंद रहे हैं और उनके दौर में पार्टी के संगठन का काम वही देखते थे। उन्हें कुशल संगठनकर्ता के तौर पर आँका जाता है। राज्य में ग्रीन ब्रिगेड उनके ही दिमाग़ की उपज थी। इस बिग्रेड का अपने दौर में अलग ही दबदबा रहा है। लेकिन अब सब कुछ छिन्न-भिन्न हो चुका है। शिक्षक भर्ती घोटाले में उन्हें 10 साल की सज़ा होने के बाद इनेलो में नेतृत्व को लेकर कलह शुरू हो गया। इनेलो में फूट न पड़े, इसके लिए चौटाला ने साम, दाम दण्ड, भेद की नीति भी अपनायी; लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। आख़िरकार उन्हें कठोर क़दम उठाते हुए बड़े बेटे अजय चौटाला को पार्टी से निष्कासित करना पड़ा। बता दें कि अजय भी शिक्षक भर्ती घोटाले में पिता के साथ ही जेल में सज़ा काट रहे थे। पिता की राजनीतिक विरासत को लेकर चौटाला परिवार में पहले भी कलह होता रहा है। देवीलाल की राजनीतिक विरासत पर किसका हक़ है? इसे लेकर काफ़ी कुछ हो चुका है। आख़िर यह ओमप्रकाश चौटाला के हिस्से में ही आयी। अब उनकी राजनीतिक विरासत और पार्टी के नेतृत्व पर बड़े बेटे अजय चौटाला और छोटे अभय चौटाला में मतभेद पैदा हो गये। अजय चौटाला ने निष्कासन के बाद जननायक जनता पार्टी (जजपा) बना ली। इसके बाद से इनेलो का पतन शुरू हुआ और जजपा का प्रभाव बढऩे लगा। दो दल बन गये; लेकिन आज भी देवीलाल की राजनीतिक विरासत सँभालने का दावा अलग-अलग किया जा रहा है।


ओमप्रकाश चौटाला के सामने सबसे बड़़ी चुनौती अब भी इनेलो के वोट बैंक को फिर से हासिल करने की रहेगी; लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है। किसान आन्दोलन में जजपा पर सरकार से अलग होकर उनके समर्थन में आने के बहुत-से प्रयास हुए; लेकिन सफल नहीं हो सके। चूँकि पार्टी सरकार में भागीदार है, लिहाज़ा भाजपा के साथ जजपा नेताओं का भी विरोध हो रहा है। विधायक घरों में कैद होकर रह गये हैं।
जेल से रिहा होने के बाद ओमप्रकाश चौटाला ने सबसे पहले किसान आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की थी। इनेलो का वोट बैंक ही किसान है, इसलिए चौटाला इससे अलग जाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। किसानों का समर्थन हासिल करने के बाद चौटाला पार्टी की मज़बूती के लिए प्रयासरत हैं। इनेलो से जजपा और अन्य दलों में गये पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को वापस लाना उनकी प्राथमिकता में है। अपने दौर में ओमप्रकाश चौटाला ने संगठन को मज़बूत किया, जिसकी वजह से वह कांग्रेस को टक्कर दे सकी। चौटाला पर संगठन को फिर से पहले जैसा रूप देने की ज़िम्मेदारी है; लेकिन उम्र के इस पड़ाव में क्या वह इतना बड़ा काम करने में सक्षम होंगे?
इनेलो महासचिव और पूर्व विधायक अभय चौटाला मानते हैं कि इनेलो को प्रमुख के नेतृत्व की ज़रूरत थी, जो अब पूरी हो गयी है। उन्होंने अपने तौर पर पार्टी को बचाने का प्रयास किया; लेकिन राजनीतिक स्वार्थ इसमें आड़े आ रहे थे। इनेलो चौधरी देवीलाल की विरासत को सँभाले हुए हैं और आगे भी यही सिलसिला जारी रहेगा। पार्टी का संगठन पहले से बेहतर हुआ है। पुराने नेता और कार्यकर्ताओं के फिर से अपने घर लौटने का चलन शुरू हो गया है। लोगों का
समर्थन मिल रहा है। पार्टी मज़बूत हो रही है। इनेलो सत्ता में आती है, तो ओमप्रकाश चौटाला ही मुख्यमंत्री बनेंगे। विधानसभा चुनाव अभी काफ़ी दूर है और उनके पास समय काफ़ी है। किसान आन्दोलन के चलते भाजपा और जजपा का राज्य में विरोध हो रहा है। आन्दोलन का नतीजा क्या होता है? इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है; लेकिन इनेलो को लगभग शून्य से ही शुरुआत करनी है। देखना यह है कि ओमप्रकाश चौटाला फिर से अपने को कुशल नेतृत्व से अलग-थलग पड़ी इनेलो को टक्कर देने वाली पार्टी बना पाते हैं या नहीं? उम्र के इस पड़ाव में उन्होंने चुनौती तो स्वीकार कर ली है; लेकिन सफलता कहाँ तक मिलती है? यह तो समय ही बताएगा। यह भी सच है कि हरियाणा की वर्तमान सरकार इन दिनों कई विवादों को लेकर फँसी हुई है। अव्वल तो उसे किसान ही घेरे हुए हैं। इसके इतर कई मद्दे ऐसे हैं, जिसके चलते उसे अगली बार मौक़ा मिलेगा या नहीं? यह उसे भी पता है।

 

फ़रीदाबाद के खोरी गाँव में हज़ारों लोग बेघर

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद फ़रीदाबाद ज़िले के खोरी गाँव के हज़ारों लोग बेघर हो गये हैं। सरकारी कार्रवाई का शुरुआत में कुछ विरोध हुआ; लेकिन भारी पुलिस बल ने कोई बाधा नहीं आने दी। अरावली वन क्षेत्र में किसी तरह का निर्माण अवैध है और यह गाँव उसी के तहत आता है। सरकार को न्यायालय के आदेश की पालना हर हालत में करनी थी। लिहाज़ा तय अवधि के बाद उसने कार्रवाई कर इसे अंजाम देना शुरू कर दिया है।
प्रतिबन्धित क्षेत्र में निर्माण कुछ महीनों में नहीं हो गया था। लोग 15-20 साल से यहाँ रह रहे थे। गाँव में बिजली और पानी तक की सुविधा सरकार ने मुहैया करा रखी है। अगर वन क्षेत्र में निर्माण हुआ, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है? उसी सरकार की, जो अब न्यायालय के आदेश की पालन कर उन्हें उजाड़ रही है। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण और फ़रीदाबाद नगर निगम के अधिकारियों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। ऐसी कॉलोनियाँ बनती ही आपसी मिलीभगत से हैं।
लोगों का आरोप है कि सरकारी आदमी पैसा लेकर सब काम करते रहे। शुरू में ही जब निर्माण काम शुरू हुआ, तभी रोक दिया जाता, तो आज उनकी मेहनत की कमायी पर पानी नहीं फिरता। हम लोगों ने मकान सरकार का विरोध करके नहीं बनाये, बल्कि उनकी मौन रज़ामंदी के चलते बनाये। जब सरकार सभी सुविधाएँ हमें मुहैया करा रही है, तो फिर हमें उजाड़ क्यों रही है? उन लोगों पर भी कार्रवाई का जाए, जिन्होंने हमें मंज़ूरी दिलाने के झूठे झाँसे देकर प्लॉट बेचे। हम लोग यहाँ कोई दो-चार साल से नहीं, बल्कि 10-15 साल से रह रहे हैं। हमारे मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड तक बने हुए हैं, जिसमें खोरी गाँव का ही पता लिखा हुआ है।
सरकार ने मकान गिराने के अभियान के बाद पात्र लोगों को फ्लैट देने की घोषणा की है; लेकिन इसमें शर्ते इतनी रखी गयी है कि ज़्यादातर लोग इसके दायरे में नहीं आएँगे। ऐसे लोग आख़िर कहाँ जाएँगे। सरकार ने योजना के तहत वर्ष 2003 से पहले रहने वालों, परिवार की तीन लाख रुपये वार्षिक आय से ज़्यादा न होने और परिवार प्रमुख का नाम बडख़ल विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची में होना अनिवार्य बनाया है। इससे तो कुछ प्रतिशत लोग ही सरकारी योजना का लाभ उठा सकेंगे। जिस सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सरकार ने गाँव पर कर्रवाई की है, अब उसी न्यायालय ने सभी लोगों को फ्लैट योजना के दायरे में लाने को कहा है। खोरी गाँव में ज़्यादातर मकान सन् 2010 के बाद ही बने हैं; लिहाज़ा प्रभावितों की संख्या काफ़ी है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2022 जातिगत समीकरण साधने में जुटीं पार्टियाँ

उत्तर प्रदेश की वर्ष 2017 में निर्वाचित वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 14 मई, 2022 को समाप्त हो रहा है। अर्थात् 2022 में देश के इस बड़े प्रदेश के विधानसभा चुनाव हैं, जो कि केंद्र की सत्ता में पहुँच बनाने से लेकर देश भर के राजनीतिक दृष्टिकोण से सभी राज्यों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। वैसे तो 2022 में पहले पाँच और फिर दो अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों की सम्भावना है; लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल अभी से आँधी की तरह तेज़ हो गयी है।
इस बड़े और लोकसभा की सबसे अधिक सीटों वाले प्रदेश में इस बार सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), आम आदमी पार्टी (आप), राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुखता से मैदान में उतरेंगी। इनमें लगभग सभी पार्टियाँ सक्रिय हो चुकी हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा ज़ोरशोर से भाजपा मैदान में दिखायी दे रही है। इस बड़े चुनाव में कौन जीतेगा और किस-किसको हार का मुँह देखना पड़ेगा, यह कहना-सुनना तो अभी अतिशयोक्ति होगी, अलबत्ता पार्टियों के अपने-अपने दावे ज़रूर सामने आ रहे हैं।


भाजपा का कहना है कि वह 300 से अधिक सीटें जीतकर फिर से सत्ता में वापसी करेगी। भाजपा नेता इस बात को पूरे विश्वास के साथ कह रहे हैं और इसके लिए वे प्रदेश में हुए ज़िला पंचायत अध्यक्ष और खण्ड (ब्लॉक) प्रमुख चुनावों में अपनी बड़ी जीत का उदाहरण दे रहे हैं। परन्तु यहाँ यह भी सच है कि ज़िला पंचायत के त्रिस्तरीय चुनावों में भाजपा को अपनी साख बचानी मुश्किल पड़ गयी थी; यहाँ तक कि उस पर ज़िला पंचायत से लेकर ब्लॉक प्रमुख तक सभी चुनावों में धाँधली और मारपीट के आरोप भी लगे हैं। सपा के नेता भी इस बार उत्तर प्रदेश में अपनी जीत पक्की बता रहे हैं। बाक़ी किसी ने इस तरह का दावा तो नहीं किया है, परन्तु भाजपा को हराने में योगदान ज़रूर देना चाहते हैं; सिवाय भाजपा समर्थित पार्टियों के। माना जा रहा है कि असदुद्दीन ओवैसी को सपा को हराने और भाजपा को जिताने के लिए मैदान में उतारा गया है। अगर हम पिछले दिनों हुए एक केंद्र शासित प्रदेश समेत पाँच राज्यों के चुनावों की बात करें, तो भाजपा ने बंगाल में भी असदुद्दीन ओवैसी को इसी तरह इस्तेमाल करने का प्रयोग-प्रयास किया था, परन्तु वह पूरी तरह विफल रही। यूँ तो भाजपा के शीर्ष नेता कह रहे हैं कि भाजपा पुरानी ग़लतियों से सीख लेकर उत्तर प्रदेश और बाक़ी राज्यों के चुनावों में उतर रही है, परन्तु उसका एक भी पैंतरा बंगाल चुनाव से इतर अभी तक तो दिखा नहीं है।

कोशिश अपनी-अपनी


लोगों को आगामी विधानसभा चुनाव में साधने की कोशिश में सभी पार्टियाँ अपनी-अपनी तरह से तैयारियों में जुटी हैं। भाजपा की बात करें, तो उसने ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव जीतने के अलावा पूरे प्रदेश में बैनर-पोस्टर अभियान छेड़ रखा है, जिनमें मुफ़्त वैक्सीन, किसानों का गन्ना भुगतान, जिसे किसान ग़लत बता रहे हैं; हज़ारों करोड़ की परियोजनाओं की घोषणाएँ कर दी गयी हैं। कोरोना महामारी से निपटने के लिए सरकार की तारीफ़ स्वयं प्रधानमंत्री काशी में कर चुके हैं; जबकि गंगा में मृत शरीर बहने की घटना और श्मशानों में शवदाह के लिए दो-दो दिन इंतज़ार के बुरे पल किसे याद नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेताओं तक ने अपने-अपने स्तर पर प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया है, जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी से की है। इसी तरह बसपा, सपा, कांग्रेस, रालोद, आप और एआईएमआईएम ने भी अपनी कमर कस ली है।

जातिगत जोड़तोड़
उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे सभी पार्टियाँ जातिगत तरीक़े से मतदाताओं को साधने में जुट रही हैं। भाजपा ने जहाँ केंद्रीय मंत्रिमंडल में पिछड़े, दलित और ब्राह्मण वर्ग से कुल सात मंत्रियों को जगह देकर तीनों वर्गों के लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की और उसके बाद कांग्रेस के ब्राह्मण चेहरा जितिन प्रसाद को अपनी ओर खींच लिया है। इससे भी भाजपा का ब्राह्मणों को साधने का नज़रिया साफ़ दिखायी देता है। वैसे भी अयोध्या में राममंदिर निर्माण की शुरुआत करके भाजपा ने काफ़ी हद तक ब्राह्मणों को अपनी ओर आकर्षित किया है।
इसके अलावा 23 जुलाई से बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन करके सभी दलों की नींद उड़ा दी है। अयोध्या से शुरू किये गये इस ब्राह्मण सम्मेलन की अगुवाई मायावती के क़रीबी सलाहकार, बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने की। इस सम्मेलन में अयोध्या में पूजा-पाठ के अलावा जय श्रीरा के नारे भी लगे। बसपा के बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी ब्राह्मणों को लुफाने की शुरुआत कर दी है। कांग्रेस का साथ भी अभी सभी ब्राह्मणों ने छोड़ा नहीं है।
राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि कोई बड़ी बात नहीं कि इस बार ब्राह्मण मतदाता बसपा की ओर चला जाए। जो भी हो, ख़ाली ब्राह्मणों के दम पर तो कोई भी चुनाव नहीं जीतेगा, हिलाज़ा हर दल को पिछड़ा और दलित वर्ग के साथ-साथ ब्राह्मणों और मुस्लिम वर्ग का साथ चाहिए।

जनसंख्या नियंत्रण क़ानून
उत्तर प्रदेश सरकार ने 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जनसंख्या नियंत्रण क़ानून की हवा देकर अपनी जीत का एक नया जाल फेंका है, जो कि उसी के लिए किसी सिरदर्द जैसा साबित हो सकता है। इस नये $कानून पर इन दिनों चर्चा इतनी अधिक है कि ग्रामीण इलाक़ों में भी लोग इस पर बहस कर रहे हैं।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि अगर चुनाव से पहले यह क़ानून पास हो जाता है, तो उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों इसका असर सरकार पर विपरीत पड़ सकता है। इस क़ानून में कहा गया है कि राज्य में दो से अधिक बच्चों के माता पिता को स्थानीय चुनाव लडऩे, सरकारी नौकरी और लोक कल्याणकारी जैसी 77 योजनाओं के लाभ नहीं मिलेंगे। परन्तु ख़ास बात यह है कि उत्तर प्रदेश की मौज़ूदा भाजपा सरकार के 304 में से 152 विधायकों के दो से अधिक बच्चे हैं। यहाँ तक कि कुछ विधायकों के चार से लेकर छ: बच्चे तक हैं। सिर्फ़ 103 विधायकों के दो बच्चे और 34 विधायकों के एक-एक बच्चा है।
बड़ी बात यह है कि सरकार ने गोरखपुर से जिस भाजपा सांसद रविकिशन के कन्धों पर संसद में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश करने का ज़िम्मा डाला, उनके ख़ुद चार बच्चे हैं। अगर इस क़ानून को पूरे देश में लागू कर दिया जाए, तो भाजपा के 186 सांसद इस क़ानून के दायरे में आ जाएँगे। भाजपा के नेता इस क़ानून को प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण का बड़ा हथियार मान रहे हैं, परन्तु इससे भाजपा के ख़ुद के पत्ते कटने वाले हैं।

मुद्दों की बात
उत्तर प्रदेश में इन दिनों चार मुख्य मुद्दे हैं। पहला किसान आन्दोलन, दूसरा सरकार का अब तक का कामकाज, तीसरा जातिगत आँकड़े और उन पर बनी रणनीतियाँ और चौथा कथित रामजन्म भूमि घोटाला। बात किसान आन्दोलन की करें, तो यहाँ कुछ सन्तुष्टि और कुछ असन्तुष्टि के हालात बने हुए हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि किसानों के इस प्रदेश में किसानों की नाख़ुशी भाजपा को बड़ा नुक़सान पहुँचा सकती है। सरकार के कामकाज की अगर बात करें, तो काफ़ी काम होने के बावजूद प्रदेश को अभी विकास कार्यों की बड़े पैमाने पर दरकार है, जो कि नहीं हुए हैं।
जातिगत आँकड़ों के हिसाब से जीत की कोशिश की अगर बात करें, तो भाजपा ने केंद्र की सत्ता में प्रदेश के तीन अनुसूचित जाति, तीन अन्य पिछड़ा वर्ग और एक सवर्ण को भेजकर अपनी जातिगत वोटबैंक की आँकड़ेबाज़ी ज़ाहिर कर दी है। बाक़ी की भाजपा और दूसरी पार्टियों की असली जातिगत आँकड़ेबाज़ी टिकट बँटवारे में दिखायी देगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश में अब तक लगभग सभी चुनाव जातिगत आधार पर जीते और हारे गये हैं। इधर आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपने काम के आधार पर मतदाताओं को लुभा रही है। उसके इस क़दम से दूसरी पार्टियों के कान खड़े हो गये हैं और वो भी काम की बात कर रही हैं। हालाँकि यह सच है कि जनता बहुत जल्दी सरकारों की नाकामियों और ग़लतियों को भूल जाती है, परन्तु इस बार देखना यह होगा कि उत्तर प्रदेश में इस बार ऊँट किस करवट बैठेगा?