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केंद्र की कोशिशों पर भारी दीदी

धारा-356 की आड़ में क्या मोदी सरकार बंगाल में जनता के बहुमत से चुनी गयी सरकार को साम्प्रदायिक हिंसा के आरोपों की आड़ में गिरा देने की कोशिश कर रही है? केंद्र सरकार के इरादे बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के ममता बनर्जी सरकार पर लगातार आरोप लगाने से भी ज़हिर होते हैं। ज़्यादातर राजनीतिक जानकार मानते हैं कि केंद्र के लिए ऐसा करना बिल्कुल आसान नहीं है और यदि उसने ऐसा कुछ किया, तो उलटा भाजपा को ही इसका बड़ा राजनीतिक नुक़सान होगा, जो कि होने भी लगा है।

इसमें कोई दो-राय नहीं हाल के वर्षों में केंद्र की सत्ता के बूते भाजपा ने राज्यपालों का जमकर वहाँ की चुनी सरकारों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया है। इसके कई उदहारण हैं। या तो सरकारें गिरा दी गयीं, या उनके मंत्री-विधायक तोड़ लिये गये, या फिर सत्ता दलों के ग़ैर-भाजपा नेताओं के यहाँ अपनी एजेंसियों से छापे डलवाकर उन्हें डराने की नीति अपनायी गयी। बंगाल में भी कुछ दिन पहले टीएमसी नेताओं के ख़िलाफ़ इसी नीयत से सीबीआई कार्रवाई को देखा जा रहा है। दरअसल भाजपा किसी भी क़ीमत पर बंगाल में सत्ता चाहती थी और उसकी यह इच्छा आज भी मरी नहीं है। कुछ भाजपा नेता बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की लगातार माँग कर रहे हैं। जबकि वहाँ बड़े बहुमत से टीएमसी की सरकार चुनी जा चुकी है।

कोविड-19 के मामले बढऩे और हर रोज़ बढ़ती मौतों के बावजूद भाजपा के प्रमुख स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह लगभग अन्तिम समय तक प्रचार करते रहे। नैतिकता और आदर्शवाद का ढोल पीटने वाली भाजपा के लिए चुनाव प्रचार में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ मोदी से लेकर शाह, प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और कई अन्य दिग्गजों ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसका इनमें किसी को ज़रा भी मलाल नहीं है। बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ ज़रूरत से ज़्यादा सक्रिय दिख रहे हैं। कमोवेश हर दिन उनका कोई-न-कोई बयान ममता सरकार के ख़िलाफ़ आ जाता है। बहुत-से राजनीतिक जानकार इसे ग़ैर-संवैधानिक मानते हैं। उनका विचार है कि केंद्र और राज्यपाल को इससे बचना चाहिए।

राज्यपाल जगदीप धनखड़ के एक ट्वीट के ज़रिये दिये बयान पर नज़र डालते हैं- ‘चुनाव के बाद जिस तरह से हिंसा हो रही है, वह मानवता को शर्मसार कर रही है। पुलिस कुछ नहीं कर रही है। फलस्वरूप लोगों का साहस बढ़ रहा है। यह पूरी तरह से विपक्ष को दण्डित करने के लिए किया जा रहा है।  राज्यपाल की भाषा साफ़तौर पर ऐसी है, मानो वह ममता सरकार के ख़िलाफ़ एक ज़मीन तैयार कर रहे हैं। पुलिस, प्रशासन और ममता सरकार के ख़िलाफ़ बोलते हुए राज्यपाल धनखड़ सिर्फ़ बयान ही नहीं देते, बल्कि उनके साथ अक्सर वीडियो भी अपलोड करते हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी टैग करते हैं।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि मोदी सरकार यदि ममता बनर्जी सरकार को गिराने की कोशिश करती है, तो देश भर में इसका बहुत ग़लत सन्देश जाएगा, जिससे पहले ही ख़राब हो रही भाजपा की छवि को और नुक़सान होगा। इससे विपक्ष भी एकजुट हो जाएगा। देश में धारा-356 की आड़ में राज्य सरकारों को गिराने का सिलसिला कोई नया नहीं है। सन् 1977 में जनता पार्टी जब आपातकाल के बाद सत्ता में आयी, तो उसने राज्यों में कांग्रेस की सरकारों को धारा-356 का इस्तेमाल करके ही गिरा दिया था। इसके दो साल बाद ही सन् 1980 में जनता ने जब इंदिरा गाँधी को दोबारा सत्ता सौंप दी, तो उन्होंने भी जनता सरकार की लाइन पकड़ी और कई राज्य सरकारों को समय से पहले बर्ख़ास्त कर बदला लिया। यह सिलसिला उसके बाद भी दोहराया गया। अब कुछ उसी तर्ज पर मोदी सरकार के राडार पर बंगाल सरकार है। ममता ऐसे किसी भी क़दम के ख़िलाफ़ मोदी सरकार को चेता चुकी हैं। भाजपा की लिए एक दिक़्क़त ज़रूर है कि बंगाल में उसके अपने ही कई नेता ममता सरकार को गिराने की किसी भी कोशिश के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। उनका मानना है कि बंगाल की जनता का मिज़ाज बाक़ी प्रदेशों से अलग है और वह इस तरह के क़दम को कभी भी स्वीकार नहीं करेगी। इसका भाजपा उलटा नुक़सान हो सकता है।

इधर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने भाजपा के नेताओं के उन बयानों पर नज़र रखने के लिए तीन सदस्यीय एक समिति बनायी है, जो ममता सरकार के प्रति नरम रुख़ जता रहे हैं। इस समिति के गठन के कुछ घंटे बाद ही वरिष्ठ भाजपा नेता राजीव बनर्जी ने ममता बनर्जी सरकार गिराने को लेकर अपनी ही केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त टिप्पणी कर दी। उन्होंने साफ़ कहा कि जनता के बहुमत से चुनी सरकार को धारा-356 की आड़ में गिराना बहुत ग़लत होगा।

राजीव बनर्जी ने ट्विटर पर यह तक कहा- ‘चुनाव बाद भड़की हिंसा की वजह से बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाना जनादेश का अपमान होगा। जनता ने बड़े बहुमत से सरकार चुनी है। अगर धारा-365 के ख़तरे से मुख्यमंत्री का लगातार विरोध किया गया, तो वह इसे अच्छी तरह से नहीं लेंगे।’

भाजपा में ही बाग़ी भी ऐसा कोई असंवैधानिक क़दम उठाने के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। कुछ नेताओं का मानना है कि धारा-356 का इस्तेमाल करके ममता सरकार को गिराने का सुझाव सुवेंदु अधिकारी जैसे कुछ नेताओं का है।

मोदी-ममता का बैठक-टकराव

चुनाव नतीजों के बाद ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच पहला बड़ा टकराव तब हुआ, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बंगाल चक्रवात यास से हुए नुक़सान की समीक्षा बैठक करने पहुँचे और उसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर देरी से पहुँचने का आरोपलगा। हालाँकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ़ से कहा गया कि प्रधानमंत्री के आने के कारण उनके हेलीकॉप्टर को 25 मिनट देरी से उतरने की इजाज़त मिली। बैठक को लेकर जो विवाद राष्ट्रीय सुर्ख़िया बना वह मुख्य सचिव अलापन बंदोपाध्याय से जुड़ा है। केंद्र ने अलापन को लेकर सख़्त रुख़ दिखाया और उनसे जवाबतलबी कर दी। यही नहीं, केंद्र ने सेवानिवृत्ति वाले दिन (31 मई) उनका दिल्ली तबादला आदेश जारी कर दिया। मुख्यमंत्री ममता ने इसका विरोध किया और अलापन को कार्यमुक्त करने से साफ़ मना कर दिया। दरअसल अलापन को ममता के अनुरोध पर केंद्र सरकार ने तीन माह की अतिरिक्त सेवा (एक्सटेंशन) की स्वीकृति दी थी। लेकिन केंद्र के आदेश के बीच अलापन ने 31 मई को ही सेवानिवृत्ति ले ली और ममता ने उन्हें अपना सलाहकार बनाने का ऐलान करके सबको चौंका दिया। निश्चित ही इस मामले को ममता-केंद्र टकराव से जोड़कर देखा गया। लेकिन इस तरह आदेश पारित करके किसी अधिकारी को बुलाना भी केंद्र के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

फिर दिल्ली का घेराव करेंगें किसान

हरियाणा में आन्दोलनकारी किसानों की गिरफ़्तारी पर बवाल 7 जुलाई से दिल्ली की सीमाओं पर विरोध-प्रदर्शन होगा तेज़

 

पिछले साल केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन के दौरान बनाये गये तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहा किसान आन्दोलन अब दोबारा उफान पर आने वाला है। किसान संगठनों की मानें, तो किसान फिर से दिल्ली घेराव के लिए निकल पड़े हैं और 26 जून को राजभवन का घेराव करेंगे।

दरअसल कोरोना महामारी, लॉकडाउन और कुछ राज्यों में विधानसभा और कुछ राज्यों में पंचायत चुनावों के चलते किसान दिल्ली की सीमाओं से कम होकर दूसरे राज्यों और गाँवों में फैल गये थे। अब दोबारा किसान संगठन दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन को तेज़ करने की तैयारी में जुट गये हैं। तीनों कृषि क़ानूनों को बने 5 जून को एक साल पूरा हो गया है। किसान आन्दोलन को भी लगभग इतना ही समय हो चुका है और क़ानूनों के विरोध को इससे भी अधिक समय। लेकिन दिल्ली घेराव और देशव्यापी आन्दोलन को 26 मई को छ: महीने पूरे हुए थे। सरकार ने इन क़ानूनों को 18 महीने के टाल रखा है; लेकिन न तो उन्हें रद्द किया है और न लागू कर पायी है। कृषि क़ानूनों के विरोध में दिल्ली से लेकर देश और दुनिया भर में किसानों के पक्ष में लोग खड़े हुए और सरकार पर कृषि क़ानूनों को वापस लेने का दबाव बनाया। दिल्ली की सभी सीमाओं पर लगातार आन्दोलन का असर यह हुआ कि देश भर के किसान यहाँ जुटने लगे। विपक्षी दलों ने भी किसानों का साथ दिया। जब सरकार नहीं झुकी, तो गाँव-गाँव में जागरूकता फैलाने का आह्वान किया गया।

इसके बाद हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में 5 जून को किसानों ने भाजपा नेताओं, सांसदों और विधायकों का घेराव किया। सबसे ज़्यादा हरियाणा में 45 से ज़्यादा जगह पर भाजपा-जजपा नेताओं के आवास और कार्यालयों का घेराव कर किसानों ने नये कृषि क़ानूनों की प्रतियाँ फूँकीं। किसानों ने भाजपा-जजपा के 6 मंत्रियों, 7 सांसदों और 17 विधायकों के आवासों का घेराव किया और कृषि क़ानून तथा सरकार विरोधी नारे लगाये। हिसार में सबसे बड़ा किसान प्रदर्शन हुआ। यहाँ किसानों ने 8 सांसदों-विधायकों के आवासों को घेरा। मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के आवासों के घेराव के दौरान पुलिसकर्मियों ने बलपूर्वक किसानों को रोका, जिससे उनके बीच मामूली झड़प हुई। कुछ किसानों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसकेबाद किसानों ने प्रदर्शन और तेज़ कर दिया, जिससे सरकार को गिरफ़्तारर किसानों को रिहा करना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में भी किसानों ने कुछ नेताओं के घर के बाहर प्रदर्शन की कोशिश की, लेकिन वहाँ पुलिस पहले से ही अलर्ट थी और किसानों को आवास तक नहीं पहुँचने दिया गया। हालाँकि एक-दो जगह किसान नेताओं के आवासों तक पहुँचने में सफल रहे। वहीं पंजाब में भी किसानों ने कुछ सांसदों, विधायकों के आवासों का घेराव किया। हाल यह था कि भाजपा नेता एक तरह से नज़रबन्द हो गये थे। इधर पंचकूला में किसानों ने तीन जगह पर जाम लगाकर कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया। बता दें कि इससे पहले किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन के छ: महीने पूरे होने पर कालादिवस मनाया था।

अब देश भर के किसान एक बार फिर दिल्ली की सभी सीमाओं पर जुटेंगे। राज्यों से किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर बुलाया जाएगा। किसान नेताओं का कहना है कि दिल्ली समेत कई राज्यों में लॉकडाउन खुल चुका है। अब दोबारा किसान दिल्ली की सीमाओं पर जमेंगे और कृषि क़ानूनों के वापस होने तक वापस नहीं होंगे। वैसे बता दें कि किसान कोरोना वायरस जैसी महामारी के दौरान भी दिल्ली की सीमाओं से हटे नहीं हैं। लेकिन बड़ी संख्या में वे सीमाओं पर नहीं रहे हैं। किसान नेताओं के अनुसार, आन्दोलन कभी ख़त्म नहीं हुआ, लेकिन कोरोना के चलते दिल्ली की सीमाओं पर अदला-बदली करके किसान जुटे रहे। अब फिर से किसान सीमाओं पर उसी तरह जुटेंगे, जैसे पहले जुटे थे। किसानों का दावा है कि इस बार वे केंद्र सरकार को झुकाकर यानी तीनों कृषि क़ानूनों को वापस कराकर ही दम लेंगे। आन्दोलन को किसान इसलिए भी दोबारा तेज़ करना चाहते हैं, क्योंकि उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में बहुत-ही कम समय बचा है। ऐसे में अगर आन्दोलन तेज़ होता है, तो भाजपा को बड़ा नुक़सान होना तय है। किसान नेता कहते हैं कि पंजाब और हरियाणा में जून के अन्त तक धान की पौध की रोपाई पूरी हो जाएगी। इससे किसानों के पास समय भी निकल आएगा और सभी राज्यों से दिल्ली की सीमाओं पर बड़ी संख्या में किसान जुट सकेंगे।

किसानों की अगली रणनीति क्या है? यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन सरकार किसानों की दोबारा बड़े आन्दोलन की किसानों की तैयारी को लेकर सरकार के कान खड़े हो गये हैं।

हाल ही में भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिले। ममता बनर्जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वह पूरी तरह किसानों के साथ हैं। केंद्र सरकार किसान आन्दोलन का असर देख चुकी है और समझ चुकी है कि जब तक किसान आन्दोलन समाप्त नहीं होगा, उसके लिए मुसीबतें खड़ी होती रहेंगी। लेकिन इसे सरकार की ज़िद कहें या तानाशाही कि वह किसानों की एक नहीं सुन रही है। क्योंकि किसानों ने सरकार द्वारा दिये गये बातचीत के हर प्रस्ताव को स्वीकार किया और हर बार संयुक्त किसान मोर्चा के किसान नेता केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की अगुवाई वाली बैठक में हिस्सा लेने पहुँचे। लेकिन क़रीब एक दरज़न बार की वार्तालाप का नतीजा शून्य निकला और सरकार ने कृषि क़ानून वापस लेने की किसानों की माँग सिरे से ख़ारिज कर दी। 22 जनवरी के बाद से इस मुद्दे पर सरकार से बातचीत बन्द है। सरकार ने किसानों से निपटने की हर सम्भव कोशिश भी है और उन पर बल प्रयोग भी किया है। छ: महीने के किसान आन्दोलन में सैकड़ों किसान शहीद हो गये हैं। अचम्भित करने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंजाब हरियाणा में जियो टॉवर तोड़े जाने पर अफ़सोस तो संसद में जताया था, लेकिन सैकड़ों किसानों के शहीद होने पर एक भी शब्द नहीं बोला। इतना ही नहीं भाजपा नेताओं ने किसानों को आतंकवादी और $खालिस्तानी तक कहा और उनके साथ देश के दुश्मनों जैसा व्यवहार किया। हालाँकि सरकार को इस अनसुनी का भारी ख़ामिज़ा भुगतना पड़ा है और आगे भी भुगतना पड़ सकता है।

इधर भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता एवं संयुक्त किसान मोर्चा के नेता राकेश टिकैत ने दावा किया है कि केंद्र की मोदी सरकार किसान आन्दोलन को दिल्ली की विभिन्न सीमाओं से हटाकर जींद स्थानांतरित करवाना चाहती है, किन्तु उसकी चाल को किसान कामयाब नहीं होने देंगे। हम दिल्ली को किसी सूरत में नहीं छोड़ेंगे। वहीं हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि उन्हें शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर कोई आपत्ति नहीं है; लेकिन क़ानून को अपने हाथ में लेने वालों से सख़्ती से निपटा जाएगा।

वैसे मनोहर लाल खट्टर अपनी इस बात पर कभी टिके नहीं रहे हैं। याद कीजिए वो दिन जब हरियाणा के किसान शान्तिपूर्वक मार्च निकाल रहे थे और हरियाणा सरकार ने उन पर लाठी चार्ज करा दिया था, जिसके बाद हरियाणा के किसानों ने देश भर में आन्दोलन का आह्वान किया था और कुछ ही महीनों बाद किसानों ने दिल्ली की सीमाओं का रुख़ किया था। तब भी हरियाणा की खट्टर सरकार ने किसानों पर पानी की बोछार करवायी थी, हाईवे ख़ुदवाया था, आँसू गैस के गोले फिकवाये थे और वैरिकेट लगवाये थे। आज वही मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के मुँह से शान्ति पूर्वक आन्दोलन करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई न करने की बात शोभा नहीं देती। वहीं केंद्र सरकार ने भी किसान आन्दोलन कुचलने के का$फी प्रयास किये थे। लेकिन किसानों ने हार नहीं मानी और अब लड़ाई आरपार की है।

उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन में ढील लापरवाही बरत रहे लोग

उत्तर प्रदेश में अब तालाबंदी (लॉकडाउन) में काफ़ी हद तक ढील दी जा चुकी है। प्रदेश सरकार ने 01 जून से 600 से कम सक्रिय मामलों वाले ज़िलों में अनलॉक की घोषणा कर दी है। हालाँकि रात्रि निषेधाज्ञा (नाइट कफ्र्यू) और सप्ताहांत निषेधाज्ञा (वीकेंड कफ्र्यू) पूरे प्रदेश में लागू रहेगा। दुकानें और व्यावसायिक संस्थान आदि खोलने के लिए नये दिशा-निर्देश सरकार ने जारी कर दिये हैं। शाम 7:00 बजे से सुबह 7:00 बजे तक रात्रि निषेधाज्ञा लगायी गयी है और शनिवार व रविवार को सप्ताहांत तालाबंदी लागू हो गयी है। लेकिन सरकार द्वारा सप्ताह में पाँच दिन दी गयी थोड़ी ढील का लोग बड़ा फ़ायदा उठाने लगे हैं। लोग बेधड़क सड़कों पर उतरने लगे हैं।
फ़िलहाल जिन जनपदों में 600 से मरीज़ों से कम मामले आने लगेंगे, तो वहाँ यह ढील जारी रहेगी। लेकिन अगर किसी ज़िले में 600 से अधिक मामले आने लगेंगे, तो फिर से वहाँ पूर्ण तालाबंदी कर दी जाएगी। दूसरी तरफ़ कोरोना वायरस की तीसरी लहर को लेकर प्रदेश सरकार बड़ी तैयारी की दावा कर रही है। लेकिन समाजचिन्तक और जागरूक लोग कह रहे हैं कि जो सरकार दूसरी लहर से लोगों को नहीं बचा सकी, वह तीसरी लहर से लोगों को कितना बचा पाएगी, इसमें सन्देह है।
कोरोना की दूसरी लहर में जान गँवाने वाले फतेहगंज के संतोष के परिजन कहते हैं कि उन्हें सरकारी इलाज पर भरोसा ही नहीं है। सही से इलाज न मिलने के चलते उनके घर का जवान बेटा चला गया। समाजसेवी और कोरोना के प्रति जागरूकता फैलाने वाले रामौतार नेताजी कहते हैं कि जिस सरकार के राज्य में गंगा में लाशें बह रही हों, उससे बीमारी में इलाज की क्या उम्मीद की जा सकती है? रामौतार ने कहा कि उन्होंने अपनी 52 साल की उम्र में किसी सरकार को इतना नाकारा नहीं देखा कि गंगा में लाशें फेंकी जा रही हों और सरकार गंगा किनारे दफ़्न शवों के कफ़न हटवा रही हो। उन्होंने कहा कि हिन्दुत्व की रक्षा का दम्भ भरने वाली यह पहली सरकार है, जिसके राज्य में मृत हिन्दुओं के शवों का अन्तिम संस्कार तक ठीक से नहीं हो पा रहा है। सोचिए उन लोगों के दिलों पर क्या बीत रही होगी, जिनके घरों में मातम पसरा हुआ है। किसी के घर में कमाने वाले की मौत हो गयी है; कहीं बुजुर्ग बेसहारा हो गये हैं; कहीं बच्चे अनाथ हो गये हैं; तो कहीं पूरा का पूरा घर अकाल मौत के मुँह में समा गया है। सरकार केवल अपनी तारी$फ के पोस्टर लगाने में व्यस्त है। गाँवों में कोरोना फैल चुका है, कोरोना की दूसरी लहर में लाखों लोग मर गये और सरकार के द्वारा तीसरी लहर को लेकर बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं।
अगर पूछने लग जाओ, तो लोगों की शिकायतों का कोई अन्त नहीं है। लेकिन इन दिनों उत्तर प्रदेश के क्या हालात हैं? इसकी चर्चा से पहले पिछले दिनों लगातार क़रीब दो महीने तक रही तालाबंदी में क्या हुआ? इसकी चर्चा ज़रूरी है। यह इसलिए भी ज़रूरी है; क्योंकि योगी के रामराज्य वाले प्रदेश में व्यवस्था का सरकारी ढोल कितना बेसुरा बज रहा है, इसकी पड़ताल ज़मीनी हक़ीक़त पर करने से पता चलता है कि पूर्ण तालाबंदी के समय उत्तर प्रदेश में क्या हालात रहे और अब अल्प तालाबंदी में क्या हालात हैं?

बरातों की रौनक़
यह एक बड़ी सच्चाई है कि बहुत लोगों ने कोरोना के डर से शादी-ब्याह टाल दिये। बहुत लोगों ने बड़ी सादगी से शादी-ब्याह कर लिये। मगर यह भी सच है कि बहुत लोगों ने पूरे धूमधाम से शादी-ब्याह पूर्ण तालाबंदी में किये। अगर कहीं पुलिस ने कोई सख़्ती बरती भी, तो ले-देके मामला रफ़ादफ़ा कर दिया गया। वहीं अगर किसी रसूख़दार के यहाँ शादी-ब्याह हुआ, तो पुलिस की हैसियत ही क्या कि कुछ कहे। 01 जून से पहले ही कई शादी-ब्याह ऐसे देखे गये, जिनमें अधिकतार बराती-घराती बिना मास्क के दिखे, सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाते भी दिखे, और तो और निश्चित 20 लोगों से अधिक लोग बरात में शामिल होते देखे गये; जैसे सामान्य दिनों में अक्सर नागिन डांस करते दिखायी देते हैं। ऐसी कई बरातों के गवाह पूरे प्रदेश में बहुत-से लोग होंगे, जिनमें से संजीव (बदला हुआ नाम) इसी तरह के बराती थे। संजीव ने बड़े जोश से बताया कि उनके एक रिश्तेदार की शादी थी; पूरे धूमधाम से हुई। किसी ने कुछ नहीं कहा। बरात में 50 मेहमान तो होंगे ही। लड़की वालों ने भी बड़ी आवभगत की, ख़ूब दहेज दिया। संजीव की बात सुनकर आश्चर्य हुआ कि अगर प्रदेश में तालाबंदी थी, तो यह बरातों का दौर कैसे चल रहा है; वह भी सरकारी दिशा-निर्देशों
को तोड़कर।

चुपके-चुपके दुकानदारी
अभी पूरी तरह से अनलॉक की स्थिति नहीं है और न ही पूरे प्रदेश में तालाबंदी रह गयी है, मगर अनलॉक किये गये शहरों में दुकानें और व्यावसायिक संस्थान खोलने की अनुमति केवल सुबह 7:00 बजे के बाद से शाम को 6 बजकर 59 मिनट तक ही है। वहीं जहाँ अभी कोरोना के ज़्यादा मामले आ रहे हैं, वहाँ दुकानों को खोलने में इतनी भी छूट नहीं है। ऐसी जगहों पर सुबह 9:00 बजे से शाम 6:00 बजे तक ही दुकानों को खोलने की अनुमति है। इसके अलावा दुकानों पर सोशल डिस्टेंसिंग के पालन के सख़्त आदेश हैं। लेकिन पूर्ण तालाबंदी से लेकर अब के अधूरे अनलॉक तक अधिकतर दुकानदार अपना घर चलाने की जुगत में तालाबंदी के नियमों को तोड़ते दिखे हैं।
भौजीपुरा के एक गाँव के एक दुकानदार ने बताया कि सामान भी न बेचें तो क्या करें? लोगों को भूखा मरते भी तो नहीं देख सकते और न अपने परिवार को भूखा मार सकते हैं। सरकार का क्या है, उसे तो आदेश पास करना है, एक बार ज़ुबान हिलायी और हो गया। उसे भूख से मरते लोग दिखायी कहाँ देते हैं। दुकानदार भी इंसान हैं। इसलिए 7:00 बजे के बाद शटर गिराकर दुकान के पास या थोड़ी दूर बैठ जाते हैं। ग्राहक कभी भी आ सकता है। अब अगर किसी के घर में आटा नहीं होगा, तो क्या उसे आटा देने से मना कर दिया जाएगा? उसके घर में बच्चे बड़े भूखे रहेंगे, तो शैतान भी रो पड़ेगा। इसलिए दुकानदार ग्राहक के आने पर चुपके से शटर उठाकर सामान दे देते हैं। क्योंकि अगर खुलेआम सामान बेचेंगे, तो 5,000 का ज़ुर्माना भरना पड़ेगा। पूर्ण तालाबंदी के समय में भी कुछ दुकानदार दुकान खोलते रहे हैं। लेकिन पुलिस की नज़रों से बचकर, चोरी-छिपे ही कहीं-कहीं ऐसा होने की ख़बरें सुनने में आयीं। पड़ताल करने पर ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। दुकानों के खुलने खुलाने के सिलसिले में पड़ताल करते समय पता चला कि जिन दुकानदारों की दुकानें उनके ख़ुद के घरों में हैं, उन्होंने दुकानों का सामान घरों में रख लिया है और सुबह जल्दी व रात को घर से सामान की बिक्री कर रहे हैं। इसकी वजह पूछने पर एक दुकानदार ने कहा कि क्या सारी बंदिशें ग़रीब दुकानदारों पर ही लागू होती हैं। बड़े-बड़े लोगों पर, नेताओं पर तो कोई नियम लागू
नहीं होता।

जानलेवा शराब


उत्तर प्रदेश में पूर्ण तालाबंदी के समय में भी कई शराब भट्ठियों पर शराब के शौक़ीनों की लम्बी-लम्बी लाइनों को देखा गया, मगर कहीं किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। हालाँकि अस्पतालों और शमशान घाटों पर भी लम्बी-लम्बी क़तारें देखी गयीं, मगर वो लोगों की एक मजबूरी थी। योगी सरकार द्वारा शराब की बिक्री पर रोक नहीं लगाने से कई सवाल खड़े होते रहे हैं, मगर अलीगढ़ में हुए ज़हरीली शराब से हुई मौतों को लेकर बवाल मच गया। बड़ी बात यह है कि अलीगढ़ में किसी कच्ची शराब माफिया की वजह से यह हादसा नहीं हुआ है, बल्कि सरकारी शराब की दुकान पर देसी शराब बेचने से हुआ है। सवाल यह है कि सरकारी शराब के ठेके पर देसी ठर्रा में ज़हर किसने मिलाया? क्या इसके पीछे राजनीतिक लोगों और माफियाओं का गठजोड़ है? अगर ऐसा नहीं है, तो ऐसा कैसे हुआ कि सरकारी ठेके पर ज़हरीली शराब बेची गयी? मामला जो भी हो, ज़िले के उन 108 लोगों को तो वापस नहीं लाया जा सकता, जिनकी जान शराब माफिया ने ले ली।
अगर यह हादसा किसी अवैध शराब माफिया की वजह से हुआ होता, तो दूसरी बात थी, मगर यहाँ तो सरकारी ठेके पर ही लोचा हुआ है। यह अलग बात है कि पुलिस ने इस शराब मृत्युकांड के मुख्य आरोपी एक लाख के इनामी ऋषि शर्मा, अनिल चौधरी और विपिन यदव समेत तक़रीबन 62 लोगों आरोपी को गिरफ़्तार किया गया है। मगर ख़ास बात यह है कि ऋषि शर्मा, जो सरकारी ठेके पर ही ज़हरीली शराब का धन्धा कर रहा था और मुख्य आरोपी है; भाजपा नेता है। उसके इस काले धन्धे ने क़रीब 108 लोगों की जान ले ली, जबकि कई बीमार हो गये।
बताया जा रहा है कि ऋषि के अवैध रूप से बने फार्म हाउस को प्रशासन ने जेसीबी से ध्वस्त करा दिया है। एक और सूचना के मुताबिक, अलीगढ़ ज़िले के 521 शराब ठेके में 390 ठेकों में इनकी शराब पहुँच रही थी। सीधी-सी बात है कि इतनी बड़ी संख्या में सरकारी ठेकों पर बिना शासन-प्रशासन की मिलीभगत के तो ज़हरीली शराब नहीं पहुँच सकती।

पश्चिम बंगाल भाजपा में तूफान

मुकुल रॉय ने दिया पहला झटका, पार्टी के 2019 से पहले की स्थिति में पहुँचने का ख़तरा

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा नेतृत्व ने भले कई दाँव चले, लेकिन नतीजे बताते हैं कि वो सब उलटे पड़े। चाहे प्रधानमंत्री मोदी का ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने वाला अंदाज़ हो, चाहे पार्टी के ‘चाणक्य’ कहे जाने वाले अमित शाह के प्रयोग। दरअसल बंगाल की राजनीति भाजपा के लिए एक ऐसे भूत की तरह हो गयी है, जो चुनाव हो जाने के डेढ़ महीने बाद भी उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। बंगाल में भाजपा कहाँ तो टीएमसी और ममता बनर्जी को बर्बाद करने चली थी, अब ख़ूद बर्बाद होने के कगार पर है। उसके संगठन में जबरदस्त विद्रोह की स्थिति है और काफ़ी संख्या में जीते हुए विधायक तक फिर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ममता पाने के लिए बेचैन हैं।

वरिष्ठ नेता मुकुल रॉय ने अपने बेटे शुभ्रांशु के साथ 11 जून को टीएमसी में वापसी करके इसकी शुरुआत कर दी। सारे घटनाक्रम ने दिल्ली में भाजपा की नींद उड़ाकर रख दी है। भाजपा बंगाल में सत्ता में न आने से इतनी बेचैन है कि उसके नेता ममता सरकार की बम्पर बहुमत से चुनी गयी सरकार पर साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप लगाकर उसे धारा-356 के तहत बर्खास्त करने और बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की माँग कर रहे हैं।

लेकिन ममता बनर्जी चुनाव से लेकर अब तक उसके दिग्गजों पर बहुत भारी पड़ी हैं। मुख्य सचिव अलापन के मामले से लेकर भाजपा के कुनबे के बिखरने की स्थिति आ जाने तक ममता ने भाजपा को दिखा दिया है कि उनसे पंगा लेना भारी पड़ता है। दूसरे भाजपा के चुनाव से पहले टीएमसी से आये सुवेंदु अधिकारी जैसे नेता को पुराने नेताओं से ज़्यादा तरजीह देकर भाजपा विधायक दल का नेता बनाने से तो मानो बंगाल में भाजपा दो गुटों में बँट गयी है। सुवेंदु का विरोध करने वाले नेता कहीं ज़्यादा मज़बूत और ज़मीन से जुड़े हुए हैं और सभी अब टीएमसी में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

राजस्थान में गहलोत सरकार गिराने में नाकाम रहने का उदाहरण छोड़ दें, तो पिछले छ:-सात साल में भाजपा को ऐसी मार कहीं नहीं पड़ी है, जैसी बंगाल में पड़ रही है। उसके 77 विधायक चुनाव जीते और ऐसा लग रहा है कि जो वह ख़ुद दूसरे राज्यों में करती रही है, वही सब कुछ ख़ुद-ब-ख़ुद अब उसके साथ बंगाल में हो रहा है। उसके कई विधायक बग़ावत के मूड में हैं। पार्टी ज़मीनी स्तर पर खोखली दिख रही है; क्योंकि उधार के जिन लोगों के साथ उसने चुनावी वैतरणी पार करने की सोची थी, वही अब उससे छिटकने को उतावले हैं। अगर ये सब चले गये, तो बंगाल में भाजपा फिर वहीं आ खड़ी होगी, जहाँ वह 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले खड़ी थी।

बंगाल में भाजपा की इस हालत से निश्चित ही पार्टी नेतृत्व की स्थिति कमज़ोर हो रही है। भाजपा नेतृत्व को जैसे मज़बूत दबदबे का अहसास हाल के वर्षों में राज्य इकाइयों पर होने से रहा है, उसका भ्रम बंगाल में टूट गया है। बंगाल की हालत से साफ़ हो गया है कि भाजपा नेतृत्व के ख़ौफ़ जैसा कुछ भी वहाँ के नेताओं में नहीं है। वे खुलकर बोल रहे हैं। इससे दूसरे राज्यों में भी बग़ावत का रास्ता खुल सकता है, जहाँ वह अपनी मनमर्ज़ी चलाती रही है। बहुत साल पहले यही सब कांग्रेस में भी होना शुरू हुआ था और आज हालत यह है कि सत्ता से बाहर कांग्रेस नेतृत्व को राज्य नेताओं की बहुत-सी माँगों के आगे झुकना पड़ता है।

सिर्फ़ अपनी चलाने के आदी भाजपा के शीर्ष नेताओं को अनुमान तक नहीं था कि बंगाल में उसे ऐसी दिक़्क़त झेलनी पड़ेगी। न यह ख़बर थी कि राज्य के नेताओं पर उसकी बात और ख़ौफ़ का कोई असर नहीं रहेगा। इस स्थिति से खिन्न भाजपा नेतृत्व अब बंगाल में प्रभारी बदलने की तैयारी में है। सम्भव है कि वह कैलाश विजयवर्गीय की छुट्टी करके स्मृति ईरानी को यह ज़िम्मा सौंपे; जिन्हें अभी तक इस तरह के बड़े राज्य का प्रभारी होने का कोई अनुभव नहीं है। माना जाता है कि बंगाली होने के कारण स्मृति बंगाली बोल लेती हैं। इसी के चलते उन्हें तरजीह दी जा सकती है। ज़ाहिर है ज़िम्मा मिला, तो स्मृति के सामने बड़ी चुनौती होगी।

भाजपा के शीर्ष नेता अमित शाह ने जिस तरह बंगाल चुनाव प्रचार में भाजपा को 200 से ज़्यादा सीटें मिलने का दावा किया था, उससे नेताओं के बीच तो माहौल बदला, मगर जनता पर इसका कोई असर नहीं हुआ। जनता को पता था कि किसको चुनना है। लिहाज़ा जब नतीजे आये, तो उन सभी नेताओं को बड़ा झटका लगा, जो बड़ी उम्मीद के साथ भाजपा में गये थे। इससे पहले टिकट वितरण के दौरान भी बंगाल में भाजपा में बहुत बेचैनी थी। दिल्ली में बैठकर जिस तरह टिकट बँटे और पार्टी के ज़मीनी और मूल कार्यकर्ताओं को किनारे किया गया, उससे तय हो गया था कि ये नेता-कार्यकर्ता टीएमसी से आये उम्मीदवारों की मदद नहीं करेंगे। वे खुलकर इन भाजपा उम्मीदवारों को ‘टीएमसी की बी टीम’ बता रहे थे।

भाजपा की मुसीबत

भाजपा के सामने निश्चित ही अब 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले वाली कमज़ोर स्थिति में चले जाने का गम्भीर ख़तरा है। नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा की बंगाल विधानसभा चुनाव में यह स्थिति तब हुई है, जब उसके पास ब्रांड मोदी और शाह जैसे चेहरे थे और उनके नाम पर ही चुनाव लड़ा गया था। दोनों के नाम पर वोट न मिलने की असफलता ने भाजपा में बेचैनी भर दी है। भाजपा के भीतर अभी से कहा जाने लगा है कि आज से तीन साल बाद देश की राजनीति क्या स्वरूप लेगी, क्या पता? लिहाज़ा भविष्य में कई राज्यों में भाजपा के कमज़ोर होने का ख़तरा है। बंगाल में भाजपा के क़रीब ढाई दर्ज़न  विधायक बाग़ी मूड में दिख रहे हैं। वे ममता की छाँव में वापस जाना चाहते हैं।

मुकुल रॉय की वापसी से इन विधायकों के टीएमसी में आने की सम्भावनाएँ और प्रबल हो चली हैं। कुछ तो बहुत ही भावनात्मक अंदाज़ में ममता को याद कर रहे हैं और भाजपा में जाने की ग़लती के लिए उनसे माफ़ी भी माँग रहे हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय चुनाव के बाद से ही पार्टी से नाराज़ थे। यह नाराज़गी उनकी पत्नी के बीमार पडऩे पर भाजपा नेतृत्व द्वारा टीएमसी से पहले हालचाल न लेने से और भी बढ़ गयी। उनके बेटे शुभ्रांशु तो पहले से ही भाजपा से ख़फ़ा थे। सुभ्रांशु ने तृणमूल में जाने का साफ़ संकेत भी दे दिया था। भाजपा भले इन कयासों को अफ़वाह बताती रही; लेकिन सच यही है कि अब बंगाल की स्थिति ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका दी है।

कुछ दिन पहले सुभ्रांशु रॉय ने जब अपनी एक सोशल मीडिया पोस्ट में मोदी की केंद्र में सरकार को निशाने पर लिया था, तो हंगामा मच गया था। सुभ्रांशु ने फेसबुक पर लिखा- ‘जनता की चुनी गयी सरकार की आलोचना करने के बजाय आत्मनिरीक्षण करना बेहतर है।’ उनकी यह टिप्पणी सीधे भाजपा नेतृत्व पर थी। सुभ्रांशु की माता अस्पताल में भर्ती हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को उनका हाल जानने अस्पताल भेजा।

इससे भाजपा ख़ेमे में खलबली मच गयी; क्योंकि $खुद भाजपा के किसी बड़े नेता ने सुभ्रांशु की अस्वस्थ माँ (मुकुल रॉय की पत्नी) का हाल जानने की ज़हमत नहीं उठायी। जैसे ही अभिषेक के अस्पताल जाने की ख़बर मीडिया में आयी, कुछ घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री मोदी ने फोन करके मुकुल से उनकी पत्नी का हाल जाना। भाजपा के कई और विधायक भी हैं, जो टीएमसी में जाने की बात खुलकर कह रहे हैं। सरला मुर्मु, पूर्व विधायक सोनाली गुहा और फुटबॉलर से राजनेता बने दीपेंदु विश्वास दोबारा टीएमसी में जाने की बात कह चुके हैं। मुर्मु को टीएमसी ने हबीबपुर से टिकट दिया था; इसके बावजूद उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। इसी प्रकार पूर्व विधायक सोनाली गुहा भी घर वापसी के इंत•ाार में हैं। उन्होंने ममता बनर्जी को पत्र लिखकर कहा कि जिस तरह मछली पानी से बाहर नहीं रह सकती, वैसे ही मैं आपके बिना नहीं रह पाऊँगी, दीदी। फुटबॉलर से राजनेता बने दीपेंदु विश्वास ने भी ममता को पत्र लिखकर टीएमसी में शामिल होने की इच्छा जतायी है। अमोल आचार्य और पूर्व विधायक प्रबीर घोषाल का भी नाम इस सूची में है। चुनाव की घोषणा से पहले और बाद में जिस तरह कुछ महीने के भीतर टीएमसी के 50 से अधिक नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया था, तो एकबारगी लगा था कि माहौल भाजपा के पक्ष में हो रहा है; क्योंकि दलबदल करने वालों में 33 तो टीएमसी के विधायक ही थे। शायद इन सभी को पक्का भरोसा हो गया था कि भाजपा ही चुनाव जीतेगी। लेकिन अब भाजपा के विधायकों के ही नहीं, कुछ सांसदों की भी टीएमसी में जाने की बड़ी चर्चा है। इस स्थिति ने भाजपा को बड़ी चिन्ता में डाल दिया है; क्योंकि उसे पता है कि ऐसा हुआ, तो पार्टी बंगाल में सिकुड़ जाएगी।

पश्चिम बंगाल में भाजपा अब प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष और आलाकमान की तरफ़ से विधानसभा में बनाये गये नेता प्रतिपक्ष सुवेंदु अधिकारी के बीच बँट गयी है। बंगाल के पुराने भाजपा नेताओं का कहना है कि जैसी स्थिति बनी है, उससे इन नेताओं में बेचैनी है और आने वाले समय में सभी घर बैठ जाएँ या टीएमसी में चले जाएँ, तो हैरानी नहीं होगी।

हार के बाद बंगाल में भाजपा की स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है। ज़मीनी कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जाने की तैयारी में हैं। पुराने लोग सुवेंदु अधिकारी को आलाकमान की तरफ़ से अचानक इतना महत्त्वपूर्ण बना देने से बहुत नाराज़ हैं। लेकिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इसे समझ नहीं रहा है।

दिलीप घोष के नेतृत्व में ही बंगाल भाजपा ने 2019 में लोकसभा की 18 सीटें जीती थीं। एक भाजपा नेता का कहना है कि अब नेतृत्व ने बंगाल में भाजपा को तृणमूल की बी टीम बना दिया है। बहुत-से पुराने नेताओं को यह स्थिति मंज़ूर नहीं है। लिहाज़ा उनमें बेचैनी है। भाजपा नेताओं का यह भी कहना है कि भले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा को कोई सीट नहीं मिली। लेकिन उनकी स्थिति हमेशा यही रहेगी; यह सोचना बड़ी भूल होगी। क्योंकि बंगाल में उनका अपना जनाधार है। और यदि भाजपा कमज़ोर हुई, तो इन दोनों को ही इसका फ़ायदा होगा।

ममता का लक्ष्य

‘तहलका की जानकारी के मुताबिक, ममता बनर्जी भाजपा में अपनी तर$फ से कोई तोडफ़ोड़ नहीं करेंगी। न ही वह भाजपा के लोगों को टीएमसी में लेने की जल्दी में हैं। उन्हें बहुत अच्छी तरह पता है कि यह लोग ज़्यादा दिन तक भाजपा में नहीं रह पाएँगे, लिहाज़ा इंतज़ार किया जाए।

टीएमसी में कुछ नेता मानते हैं पार्टी को चुनाव के समय धोखा देने वालों को वापस नहीं लेना चाहिए। लेकिन पार्टी के कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि भाजपा यदि टूट जाती है, तो बंगाल में उसकी शक्ति क्षीण पड़ जाएगी। लिहाज़ा आने वालों को आने देना चाहिए, भले ही उन्हें कोई पद न देने की शर्त पर वापस लिया जाए। हालाँकि इसके लिए जल्दबाज़ी न करके भाजपा में भगदड़ मचने देनी चाहिए। बंगाल बड़ा राज्य है और सन् 2019 के आम चुनाव में भाजपा की सीटें 300 के पार जाने में बंगाल ने भी बड़ी भूमिका निभायी थी। ऐसे में बंगाल जैसे बड़े राज्य में भाजपा के कमज़ोर होने का मतलब लोकसभा चुनाव में उसका घाटा होना होगा। दूसरे ममता बनर्जी को यदि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी ख़ेमे की धुरी बनना है, तो उन्हें अपने राज्य में भाजपा को कमज़ोर करना ही होगा।

विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी हार देकर ममता ने पहला युद्ध जीत लिया है और निश्चित ही लोकसभा चुनाव से पहले वह भाजपा को अपने गृह राज्य में कमज़ोर कर देना चाहेंगी। ऐसे में भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल में अस्तित्व की चुनौती पैदा हो जाएगी, जिसका असर दूसरे राज्यों में भी होगा।

ममता का लक्ष्य अब 2024 के लोकसभा चुनाव हैं। भले इसमें अभी तीन साल हैं, पर दीदी अभी से भाजपा को पटखनी देने की तैयारी करना चाहती हैं। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था, तो इसका सबसे बड़ा नुक़सान टीएमसी को ही हुआ था।

इसलिए सम्भवत: ममता बनर्जी भाजपा के विधायकों और बड़े नेताओं के साथ कार्यकर्ताओं को भी पार्टी में लेने की कोशिश में रहेंगी। भाजपा के कार्यकर्ताओं के टूटने से उसका इन्हीं लोगों के कारण बना ज़मीनी आधार भी कमज़ोर पड़ जाएगा। भाजपा के कमज़ोर होने से जनता के सामने विकल्प का सवाल रहेगा और ममता इसका लाभ उठाने की स्थिति में आ जाएँगी।

नहीं भूलना चाहिए कि यदि भाजपा ने टीएमसी से बड़े पैमाने पर नेताओं को नहीं तोड़ा होता, तो चुनाव में उसके पास हर विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवार तक नहीं होते। असम जैसे राज्य में भाजपा ऐसा कर चुकी है और वहाँ आज दो बार से उसकी सरकार है। लेकिन बंगाल में उसका यह तरीक़ा नाकाम हो गया।

बैठक से नदारद होने का मतलब

भाजपा के नेताओं, विधायकों, सांसदों के टीएमसी में जाने की बातें तब साबित हो गयी थीं, जब विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद 8 जून को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आयोजित भाजपा की पहली बड़ी बैठक में भाजपा के कई बड़े चेहरे नहीं दिखे। इनमें अब टीएमसी में आ चुके मुकुल रॉय और राजीव बनर्जी जैसे नाम भी शामिल हैं।

बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष ने भले ही इसे ‘चिन्ता जैसी कोई बात नहीं कहा; लेकिन सच यह है कि पार्टी में बेचैनी है। मुकुल रॉय ने पत्नी के बीमार होने को न आने का कारण बताया। साथ ही कहा कि उन्हें बैठक की सूचना नहीं दी गयी थी। प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य के पिता के निधन की बात कही। राजीव बनर्जी के भी व्यक्तिगत कारण गिनाये गये। याद रहे राजीव बनर्जी विधानसभा चुनाव से पहले जनवरी, 2021 तक (भाजपा में शामिल होने से पहले) ममता सरकार में वन मंत्री थे।

कोलकाता में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी ने ‘तहलका से बातचीत में कहा- ‘यह सच है कि सुवेंदु अधिकारी को नेता प्रतिपक्ष बनाने से भाजपा में बग़ावत तेज़ हुई है। भाजपा के पुराने लोग टीएमसी से आये नेताओं को क़तई पसन्द नहीं करते। दूसरे चुनाव नतीजों से ममता बनर्जी बहुत ताक़तवर हो गयी हैं, जिससे भाजपा के कई नेताओं को लगता है कि ममता का विरोध लम्बे समय तक नहीं किया जा सकता।’

12वीं की बोर्ड परीक्षा उलझन को सुलझाने का प्रयास

देश भर में 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के होने, न होने की चर्चा गरम है। पिछले साल से बोर्ड परीक्षाएँ रुकने से बच्चों का भविष्य ख़राब हो रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री ने सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा रद्द कर दी है। लेकिन इसमें भी एक विकल्प यह है कि जो छात्र परीक्षा देना चाहें, वे दे सकते हैं। परिणाम कई राज्यों के बोर्डों ने परीक्षा की तैयारी भी कर ली है, तो कई सरकारों ने सीबीएसई की तर्ज पर बोर्ड परीक्षाओं को रद्द कर दिया है। इस बीच छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने 12वीं कक्षा की परीक्षा घर बैठे कराकर एक बेहतर पहल की है। क्योंकि इससे 12वीं व इससे पूर्व की कक्षाओं में पढऩे वाले विद्यार्थियों का साल ख़राब नहीं होगा। सभी राज्यों की सरकारों को इससे सीख लेनी चाहिए। क्योंकि कोरोना वायरस का प्रकोप कब तक रहेगा, यह कोई नहीं जानता। देश भर में 12वीं की परीक्षा को लेकर चल रही उथल-पुथल पर मंजू मिश्रा की रिपोर्ट :-

इन दिनों कोरोना महामारी के चलते सभी बोर्ड परीक्षाएँ टलती जा रही हैं। अधिकतर राज्यों में 10वीं की परीक्षा रद्द की जा चुकी है और उसके परिणाम तैयार किये जा रहे हैं। कहीं-कहीं रिज्लट घोषित भी हो चुके हैं। ये परिणाम छात्रों के पिछले तीन साल के परीक्षा परिणाम के रिकॉर्ड के हिसाब से तैयार किये जा रहे हैं। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) समेत कुछ राज्यों के बोर्डों द्वारा ऐसा ही कुछ 12वीं के बच्चों के लिए भी सोचा जा रहा है। इसमें समस्या यह है कि कुछ बच्चों को अच्छे अंक मिल सकते हैं, तो वहीं कुछ के साथ अन्याय भी हो सकता है। कोरोना महामारी के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद सीबीएसई की परीक्षा रद्द करने की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि छात्रों की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है। इसके बाद सोशल मीडिया और मीडिया चैनल्स पर लोग सवाल उठाने लगे कि जब देश में सब कुछ चल रहा है। तालाबंदी (लॉकडाउन) में भी काफ़ी हद तक छूट दी जा चुकी है। कोरोना महामारी के बीच तमाम राज्यों में चुनाव भी हुए, जिनमें ख़ुद प्रधानमंत्री और उनके मातहत नेता लाखों की भीड़ जुटाकर रैलियाँ करते रहे; तो बच्चों की परीक्षाएँ क्यों रद्द की जा रही हैं?
इस बीच छत्तीसगढ़ सरकार और छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीजीबीएसई) ने एक अलग ही पैटर्न पर 12वीं की परीक्षा करा ली है। सीजीबीएसई ने घर बैठे अभ्यर्थियों की 12वीं कक्षा की परीक्षा ले ली है। इस परीक्षा के लिए सीजीबीएसई ने अभ्यर्थियों को पाँच प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिकाएँ घर ले जाकर पाँच दिन में हल करके छठे दिन अपने-अपने विद्यालय / कॉलेज में उत्तर पुस्तिकाएँ लाकर जमा करने की छूट दी थी। छत्तीसगढ़ में सीजीबीएसई के अंतर्गत आने वाले सभी माध्यमिक विद्यालयों और कॉलेजों ने 01 जून से 05 जून तक सुबह 10 :00 बजे तक शाम 4:00 बजे तक परीक्षा सामग्री बाँटी गयी, जबकि 06 जून से 11 जून तक उत्तर पुस्तिकाएँ छात्र-छात्राओं ने जमा कीं। लेकिन सूचना मिली है कि कई बच्चों ने घर पर प्रश्न पत्र हल करने की छूट पर भी दो पन्ने में ही सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिये हैं।

किस-किस बोर्ड ने रद्द कीं परीक्षाएँ

देश में जारी कोरोना संकट के बीच सीबीएसई समेत कई राज्य बोर्डों ने अपने-अपने यहाँ 12वीं की परीक्षा रद्द कर दी हैं। सीबीएसई की परीक्षा रद्द करने के निर्णय के बाद काउंसिल फॉर द इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्जामिनेशन (सीआईएससीई) और इंडियन स्कूल सर्टिफिकेंट (आईएससी) के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी ने भी 12वीं बोर्ड की परीक्षाएँ रद्द कर दी हैं, जिसकी सूचना काउंसिल की ओर से जारी कर दी गयी है। इनसें से कई राज्य के बोर्ड 12वीं के नतीजे घोषित करने की तैयारी कर रहे हैं। 10वीं यानी हाई स्कूल के परिणाम कई बोर्ड पिछले तीन वर्ष के छात्र-छात्राओं के रिकॉर्ड के हिसाब से घोषित कर चुके हैं और बाक़ी भी यही करेंगे।
12वीं की परीक्षा रद्द होने के बाद अब सबसे बड़ा सवाल परिणाम-2021 के फॉर्मूले को लेकर है। सीबीएसई ने परिणाम का फॉर्मूला तैयार करने के लिए 13 सदस्यीय समिति का गठन किया है, जिसने 12वीं के छूटे हुए विद्यार्थियों के लिए प्रोजेक्ट और प्रैक्टिकल ऑनलाइन माध्यम से कराने और 28 जून तक अंक जमा करने के निर्देश दिये। बता दें कि देश भर में सीबीएसई 12वीं की परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या 14 लाख 30 हज़ार से भी अधिक है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शिक्षामंत्री और अधिकारियों के साथ बैठक के बाद यह निर्णय लिया 12वीं में लगभग आठ लाख परीक्षार्थियों की परीक्षा फीस वापस की जाएगी। हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड में प्रदेश भर में कुल 2,544 परीक्षा केन्द्रों पर क़रीब 6,67,234 परीक्षार्थियों को शामिल होना था। गुजरात माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत 6.83 लाख विद्यार्थियों को 12वीं की परीक्षा देनी थी। सभी राज्यों के बोर्डों के छात्रों को मिला लिया जाए, तो कुल परीक्षार्थियों की संख्या क़रीब 1.5 करोड़ है।
पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड (पीएसईबी) की 12वीं परीक्षा 2021 के आयोजन या रद्द होने के सम्बन्ध में अब तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है। लेकिन यहाँ भी 12वीं बोर्ड परीक्षा रद्द की जा सकती है। ग़ौरतलब है कि पंजाब बोर्ड ने 10वीं की परीक्षा रद्द कर दी थी। बोर्ड ने आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर 10वीं कक्षा का परिणाम तैयार किया था। परिणाम की घोषणा 17 मई, 2021 को की गयी थी। वहीं बिहार के शिक्षा मंत्री ने केंद्र सरकार को सुझाव दिये हैं कि सीबीएसई और बिहार बोर्ड की परीक्षाएँ ऑनलाइन संचालित करायी जाएँ, तो ज़्यादा बेहतर होगा।

क्या होगा 12वीं परिणाम का फार्मूला

जिस-जिस बोर्ड की 12वीं की परीक्षा रद्द की गयी है, वहाँ सीधे परिणाम घोषित किये जाएँगे, जो कि विद्यार्थी के तीन साल के परीक्षा रिकॉर्ड के आधार पर होंगे। लेकिन इस तरह परीक्षा परिणाम घोषित करने पर जहाँ कई बच्चों को योग्यता से अधिक अंक मिलने की उम्मीद बढ़ जाएगी, वहीं कई प्रतिभा सम्पन्न विद्यार्थियों का कम अंक आने की वजह से भविष्य ख़राब हो सकता है; क्योंकि हायर एजुकेशन में जाने के लिए 10वीं और 12वीं में अंकों का फ़ीसद बहुत मायने रखता है। कई तरह के कोर्सेज और डिग्री, डिप्लोमा ऐसे हैं, जिनमें कम अंक वाले विद्यार्थियों को प्रवेश मिलता ही नहीं है। ऐसे में यदि किसी विद्यार्थी के पूर्व की कक्षाओं में किसी कारणवश कम अंक आये हैं और उसने इस साल बहुत अच्छी तैयारी की है, तो उसे इस बार भी अच्छे अंक नहीं मिल सकेंगे, जिससे उसे मनचाहे विषय या क्षेत्र में प्रवेश नहीं मिल सकेगा। अमूमन होता यही है कि पिछली कक्षाओं में कम अंक लाने वाले बहुत-से बच्चे अगली परीक्षा की तैयारी कड़ी मेहनत के साथ करते हैं। इसके अलावा यह भी सम्भव है कि कुछ अध्यापक जातिवाद, क्षेत्रवाद देखकर विद्यार्थियों को अंक दें। क्योंकि भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाले अध्यापक विद्यार्थियों का नाम देखकर उन्हें अंक दे सकते हैं।
जैसा कि सभी जानते हैं कि पूरे देश में 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम जारी कर दिये हैं, जबकि कुछ बोर्ड परीक्षा परिणाम जल्द ही जारी करेंगे। माना जा रहा है कि सभी परिणाम 15 जुलाई तक आ सकते हैं। सीबीएसई जल्द ही 10वीं का परिणाम घोषित करेगा। इवैल्यूएशन क्राइटेरिया के अनुसार, 10वीं कक्षा में विद्यार्थी का मूल्यांकन कुल 100 अंकों के लिए किया जाएगा, जिसमें 20 अंक इंटरनल असेसमेंट के लिए और 80 अंक स्कूल द्वारा साल भर में आयोजित की गयी विभिन्न परीक्षाओं में उसकी परफॉर्मेंस के आधार पर दिये जाएँगे। इसी तरह 12वीं बोर्ड की परीक्षा रद्द करने वाले बोर्ड भी परिणाम घोषित करेंगे, ताकि 12वीं के विद्यार्थी अपना भविष्य बना सकें।
सीबीएसई बोर्ड में कार्यरत वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि देश में कोरोना वायरस ने शिक्षा को तहस-नहस कर दिया है। लेकिन उन बच्चों के पास अब भी परीक्षा देने का विकल्प है, जो परीक्षा देना चाहते हैं। सीबीएसई की ओर से इसके लिए एक अधिसूचना भी जारी की गयी है। लेकिन परीक्षा की तिथि तय नहीं है। शायद कोरोना ख़त्म होने तक परीक्षा न हो। वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने परीक्षा को रद्द करने के लिए केंद्र के फ़ैसले पर सन्तोष जताया है। लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि अब इस मामले में और देर न की जाए। न्यायालय ने यह भी पूछा है कि विद्यार्थियों को अंक या ग्रेड देने का क्या मापदण्ड (क्राइटएरिया) है? इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने दो सप्ताह का समय दिया है। वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अदालत के दिशा-निर्देश पर परीक्षा परिणाम जल्द-से-जल्द घोषित किये जाने की तैयारी चल रही है, ताकि विद्यार्थी आगे की पढ़ाई कर सकें।

कुछ विद्यार्थियों ने जतायी आपत्ति

10वीं के परिणाम को लेकर कई बोर्डों के लाखों विद्यार्थी अपने अंकों को लेकर असन्तुष्ट हैं और उन्होंने आपत्ति जतायी है। कुछ विद्यार्थियों का दावा है कि उनके अंक बहुत कम आये हैं। ऐसे बहुत-से विद्यार्थियों ने उन्हें उनकी योग्यतानुसार अंक देने या फिर बहुतों ने उनकी परीक्षा लेने को कहा है। कुछ बोर्डों ने इस बात को स्वीकार करते हुए परीक्षा दोबारा लेने की बात कही है। लेकिन परीक्षा की कोई तारी$ख निर्धारित नहीं की है। अगर सब कुछ ठीक रहा, तो सीबीएसई के असन्तुष्ट विद्यार्थियों की परीक्षा 15 जुलाई से 26 अगस्त हो सकती है। वहीं परीक्षा न होने से कुछ विद्यार्थी, जिनके फेल होने की उम्मीद थी, वे पास हो सकते हैं; बल्कि अच्छे अंकों से भी पास हो सकते हैं।

छत्तीसगढ़ में घर बैठे परीक्षा

छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीजीबीएसई) द्वारा घर बैठे पाँच दिन में 12वीं के विद्यार्थियों से परीक्षा लेने की योजना लोगों को हैरान कर सकती है। लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार और सीजीबीएसई की इस पहल को एक बेहतरीन $कदम माना जाना चाहिए। क्योंकि कोरोना महामारी की इस घड़ी में यही एक विकल्प बेहतर हो सकता था। हालाँकि राज्य के भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा (भाजयुमो) के सदस्यों ने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी है और इस तरह घर पर ली गयी परीक्षा को रद्द करने के लिए एक ज़िलाधिकारी के माध्यम से वहाँ की राज्यपाल अनुसूइया उइके को ज्ञापन सौंपा है।
बता दें कि सीजीबीएसई ने 10वीं के छात्रों के आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर कक्षा 10 का परिणाम पहले ही घोषित कर दिया है। इस साल प्रदेश के सभी 4 लाख 61 हज़ार 093 छात्र यानी 100 फ़ीसदी छात्र उत्तीर्ण हुए हैं। बोर्ड ने परीक्षा में प्राप्त अंकों से असन्तुष्ट बच्चों से अगले साल की परीक्षा में बैठने की सलाह दी है। सूत्र बताते हैं कि इस बार की अंक तालिकाओं में कोरोना और घर बैठे परीक्षा का ज़िक्र होगा।
इधर छत्तीसगढ़ में हुई अनोखी परीक्षा के बारे में वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी विकास वर्मा ने कहा कि प्रतिभा परीक्षा की मोहताज नहीं होती। बताया कि उन्होंने इस अजब-गजब परीक्षा को जीवन में पहली बार देखा और बड़े नज़दीक से इसके बारे में जाना। विकास वर्मा कहते हैं कि ऐसा पहली बार देखकर पहले तो यही ख़्याल आया कि काश हमारे समय में भी ऐसा हुआ होता, तो हमने भी गद्गद् होकर परीक्षा दी होती।
शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़ के प्रिंसिपल एच.के. जायसवाल ने बताया कि छत्तीसगढ़ में क़रीब 12वीं के 2 लाख 86 हज़ार छात्र हैं। अगर इस तरह परीक्षा का निर्णय शिक्षा मंत्रालय और बोर्ड नहीं लेता, तो इतने बच्चे उच्च शिक्षा में जाने से वंचित रह जाते। क्योंकि इसके अलावा कोई चारा न तो सरकार के पास था और न शिक्षा विभाग के पास और न कॉलेजों के पास। प्रिंसिपल एच.के. जायसवाल ने बताया कि उनके कॉलेज में 12वीं के क़रीब 350 विद्यार्थी हैं और सभी परीक्षा दे चुके हैं। उन्होंने कहा कि हमने हमेशा बच्चों को बहुत अच्छी तरह पूरी ईमानदारी से शिक्षा दी है। लेकिन कोरोना वायरस के चलते उचित तरीक़े से बच्चों की शिक्षा नहीं पायी है, फिर भी ऑनलाइन पढ़ाई लगातार जारी रही है और हमारे सभी टीचरों ने बड़ी मेहनत से कोरोना-काल में बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाया है। हमने परीक्षा से पहले भी बच्चों को पूरी ईमानदारी से प्रश्न-पत्र हल करने को कहा था और हमें उम्मीद है कि हमारे कॉलेज के बच्चों ने घर पर भी पूरी ईमानदारी से प्रश्न-पत्र हल किये होंगे। घर पर नक़ल करने की सम्भावना पर प्रिंसिपल एच.के. जायसवाल ने कहा कि देखिए नक़ल की सम्भावना से पूरी तरह तो इन्कार नहीं किया जा सकता, मगर बच्चों को यह भी मालूम है कि केवल एक परीक्षा नक़ल से पास कर लेने से भविष्य नहीं बनता। इसलिए ज़्यादातर बच्चों ने पूरी ईमानदारी से यह परीक्षा दी होगी। उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन तो होगा ही। अध्यापक भी काफ़ी अनुभवी होते हैं, उत्तर पुस्तिका देखकर पता चल जाता है कि किस विद्यार्थी ने कितनी ईमानदारी से प्रश्न-पत्रों को हल किया है। इस तरह की परीक्षा का प्रयोग पिछले साल ओपन बोर्ड भी कर चुका है; क्योंकि तब भी कोरोना-काल के चलते स्कूलों-कॉलेजों में परीक्षाएँ नहीं हो सकी थीं।
शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़ के वायोलॉजी के लेक्चरर डॉ. विनोद दुबे, ने बताया कि देश में कोरोना वायरस का प्रकोप कब तक रहेगा? यह कोई भी नहीं बता सकता। अभी कोरोना की दूसरी लहर ख़त्म नहीं हुई है और तीसरी लहर का डर लोगों को सता रहा है। देश की सरकार और राज्यों सरकारों में भी इसे लेकर काफ़ी भय साफ़ दिखायी दे रहा है। ऐसे में पढ़ाई और परीक्षाओं को बहुत लम्बे समय तक स्थगित करना तो उचित नहीं है। क्योंकि इससे विद्यार्थियों का भविष्य ख़राब होगा। इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार और बोर्ड के इस फ़ैसले की सराहना की जानी चाहिए। डॉ. विनोद दुबे कहते हैं कि एक मात्र 12वीं की परीक्षा रुक जाने से नीचे की सभी कक्षाओं के बच्चों का साल ख़राब होता और जितने साल इन बच्चों को रोका जाता, उतनी ही देरी बाक़ी बच्चों को अगली कक्षा में लाने में होती। ऐसे में कक्षाएँ ख़ाली न होने से नर्सरी और कक्षा एक में नये बच्चों को भी प्रवेश नहीं मिलता, जिससे इन बच्चों का भविष्य भी ख़तरे में पड़ता।

“छात्रों का स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण है और इससे किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया जा सकता।”
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

 


“मुझे ख़ुशी है कि सीबीएसई 12वीं की परीक्षा रद्द कर दी गयी है। हम अपने बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर काफ़ी चिन्तित थे। परीक्षा रद्द होने से बहुत बड़ी राहत मिली है।”
अरविंद केजरीवाल,
मुख्यमंत्री, दिल्ली

मीडिया पर चाबुक

पत्रकारों व लोगों पर राजद्रोह के नाम पर दर्ज होते मामले सत्ता की बेचैनी ज़ाहिर करते हैं

देश में हाल के वर्षों में जिस तरह राजद्रोह के मामले दर्ज करने की सत्ता की प्रवृत्ति बढ़ी है, उससे मीडिया की आवाज़ को कुचलने के षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश होता है। इनमें से ज़्यादातर मामले अदालतों में झूठे साबित हुए हैं या उन्हें ग़लत तरीक़े से राजद्रोह की धारा के तहत रखने के कारण अदालतों ने ख़ारिज किया है। हाल में देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी कहा है कि राजद्रोह से सम्बन्धित भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) की व्याख्या करने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है सत्ता के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ से बेचैन होकर जिस तरह राजद्रोह को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए एक औज़ार के रूप में सत्ताधीश इस्तेमाल कर रहे हैं, वह उचित नहीं। इसे लेकर बड़ी बहस छिड़ गयी है कि क्या अब इस धारा को लेकर पुनर्विचार किया जाना चाहिए? इसी को लेकर विभिन्न पहलुओं को छूती विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने पहले 31 मई और फिर 3 जून को राजद्रोह से जुड़े दो अलग-अलग मामलों में ऐतिहासिक टिप्पणियाँ की हैं। एक में सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकार विनोद दुआ पर एक मामले में लगे राजद्रोह के आरोपों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि सन् 1962 में राजद्रोह को परिभाषित करने वाले ‘केदार नाथ सिंह फ़ैसले के तहत हर पत्रकार को सुरक्षा मिलनी चाहिए। उनके ख़िलाफ़ दायर एफआईआर भी रद्द करने का सर्वोच्च अदालत ने आदेश दिया। दूसरे मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राजद्रोह से सम्बन्धित क़ानून की व्याख्या का समय आ गया है। अदालत ने तेलगू चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह से सम्बन्धित मामले में दण्डात्मक कार्रवाई पर रोक लगाते हुए यह टिप्पणी की। चैनल ने उत्तर प्रदेश में एक पुल से एक शव को राप्ती नदी में फेंके जाने वाला वीडियो दिखाया था, जिसे लेकर उस पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के सीनियर जज न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान तीखा तंज कसते हुए सवाल किया कि क्या उस फुटेज को दिखाने के लिए न्यूज चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा किया गया। मीडिया की आवाज़ दबाने के लिए राजद्रोह और देशद्रोह के मामलों को जिस ग़लत तरीक़े से एक हाथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे लेकर सर्वोच्च अदालत के उपरोक्त फ़ैसले बहुत अहम हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में इन मामलों की सुनवाई जब हुई, उससे डेढ़ महीना पहले 20 अप्रैल को जारी 2021 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत को 180 देशों में बेहद कमज़ोर

142वाँ स्थान मिला था। ज़ाहिर है देश में जिस तरह मीडिया की स्वतंत्रता को छीनने हो रही है, वो इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है। लेकिन मीडिया के लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और देशद्रोह जैसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ ग़ौर करने लायक हैं और इनसे सरकार को सबक़ लेने की ज़रूरत है। देश में पत्रकारों, कार्यकर्ताओं राजनीतिक विरोधियों पर राजद्रोह के मामले दर्ज होने की संख्या में बढ़ोतरी सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ज़यादा हुई है।

दो साल के राजद्रोह या देशद्रोह के ऐसे मामलों पर अदालत के फ़ैसलों से ज़ाहिर हो जाता है कि यह महज़ परेशान करने, आवाज़ दबाने या ग़लत इरादे से किये गये थे। सन् 2019 में देश में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज हुए और इनमें 96 लोगों को गिरफ़तार किया गया। इन 96 में से 76 लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गयी और 29 को बरी कर दिया गया। इन सभी आरोपियों में से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया। इसी तरह सन् 2018 में जिन 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल दो लोगों को ही अदालत ने दोषी माना। इससे ज़ाहिर हो जाता है कि राजद्रोह को एक हथियार के रूप में आवाज़ कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल के महीनों में राजदीप सरदेसाई, सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पाण्डेय, ज़फर आग़ा, परेश नाथ, अनंत नाथ और विनोद के. जोस जैसे पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह क़ानून के तहत मामले दर्ज किये गये हैं या एफआईआर दर्ज की गयी हैं। विनोद दुआ वाले मामले में तो सर्वोच्च अदालत ने सख़्त टिप्पणी की ही है, टीवी चैनलों वाले मामले में भी अदालत का रुख़ सख़्त दिखा है। पत्रकारों पर देशद्रोह की धारा के तहत मामले दर्ज किये जाने के ख़िलाफ़ विभिन्न पत्रकार संगठन भी आवाज़ उठा चुके हैं। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, प्रेस एसोसिएशन, इंडियन वूमन प्रेस कॉर, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन जैसे संगठनों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला बताया है।

‘द सिटिजन की एडिटर-इन-चीफ सीमा मुस्तफ़ा इस मामले में कहती हैं कि पत्रकारों के लिए यह सबसे कठिन दौर है। ऐसे दौर में पत्रकारिता कैसे की जा सकती है। ये मामले सिर्फ़ पत्रकारों को डराने के लिए नहीं हैं, बल्कि अपना काम करने वाले हर व्यक्ति को डराने के लिए हैं। मुस्तफ़ा की बात से मामले की गम्भीरता को समझा जा सकता है। देश में चल रहे किसान आन्दोलन और उससे पहले पिछले साल एनआरसी के ख़िलाफ़ आन्दोलन के दौरान भी मामले बनाते समय राजद्रोह की धारा का खुलकर इस्तेमाल किया गया। पिछले साल तब एक मामला बहुत सुर्ख़ियों में आया था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में उनके गोद लिए गाँव की सही तस्वीर दिखाने पर एक न्यूज वेबसाइट की संपादक और मुख्य संपादक पर एफआईआर दर्ज कर दी गयी थी।

स्क्रोल.इन नाम की न्यूज वेबसाइट की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा और मुख्य संपादक के ख़िलाफ़ वाराणसी पुलिस ने एक महिला की शिकायत पर तब एफआईआर दर्ज की गयी, जब सुप्रिया ने प्रधानमंत्री मोदी के गोद लिए गाँव डोमरी में लॉकडाउन के दौरान लोगों के हालत पर एक रिपोर्ट लिखी। इस रिपोर्ट में काफ़ी लोगों से बातचीत की गयी थी; लेकिन एक महिला माला देवी ने आरोप लगाया कि उनके बारे में जो लिखा गया है, वह तथ्य नहीं हैं। उन्होंने पत्रकार पर एफआईआर दर्ज की। हालाँकि पत्रकार अपनी रिपोर्ट पर दृढ़ रहीं।

विनोद दुआ का मामला

मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में अलग-अलग जगह एफआईआर दर्ज करायी गयी थी। हिमाचल में एक भाजपा नेता ने उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की थी। विनोद दुआ पर आरोप लगाया कि उन्होंने फ़र्ज़ी ख़बर (फेक न्यूज) फैलायी। हिमाचल में उनके ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर में देशद्रोह की धारा जोड़ी गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष सुनवाई के दौरान राज्य सरकार को निर्देश दिया कि 6 जुलाई तक उनकी गिरफ़्तारी नहीं हो सकती। इस दौरान मामले की जाँच की जा सकती है। दुआ के ख़िलाफ़ इस मामले का चौरतरफ़ा विरोध देखने को मिला और पत्रकार संगठन भी उनके समर्थन में आगे आये। विनोद दुआ को 3 जून को सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी राहत मिली, जब सर्वोच्च न्यायालय ने उनके ख़िलाफ़ हिमाचल प्रदेश में दर्ज राजद्रोह के मुक़दमे को ख़ारिज कर दिया। उनके वकील विकास सिंह ने एक वीडियो जारी कर बताया कि दुआ को सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिली है। हालाँकि कोर्ट ने दूसरी माँग को नहीं माना कि एफआईआर करने से पहले एक समिति का गठन होना चाहिए।

विनोद दुआ पर अपने यूट्यूब चैनल पर वीडियो के ज़रिये लोगों को भड़काने का मामला दर्ज किया गया था। दुआ पर देशद्रोह सहित भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था और भाजपा नेता ने दावा किया था कि दुआ ने 30 मार्च, 2020 को अपने 15 मिनट के यूट्यूब शो में अजीबोग़रीब आरोप लगाये थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट पाने के लिए ‘मौतों और आतंकी हमलों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने दुआ के ख़िलाफ़ दर्ज राजद्रोह और देशद्रोह के मामले को निरस्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी पत्रकारों को केदारनाथ सिंह फ़ैसले के तहत संरक्षित किया है जिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण फ़ैसला माना जाएगा। दुआ के ख़िलाफ़ उनके यूट्यूब कार्यक्रम के सम्बन्ध में 6 मई को शिमला के कुमारसेन पुलिस स्टेशन में भाजपा के एक नेता श्याम ने एफआईआर दर्ज करायी थी। याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम ‘द विनोद दुआ शो’ में प्रधानमंत्री मोदी को लेकर विवादित टिप्पणी की, जो साम्प्रदायिक घृणा को भड़का सकती थी और इससे अशान्ति और साम्प्रदायिक वैमनस्य की स्थिति पैदा हो सकती थी। इससे पहले कोर्ट ने कहा था कि दुआ को इस मामले के सम्बन्ध में हिमाचल प्रदेश पुलिस द्वारा पूछे जा रहे किसी भी पूरक सवाल का जवाब देने की ज़रूरत नहीं है।

इससे डेढ़ महीना पहले न्यूज वेबसाइट ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन पर उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दो एफआईआर दर्ज की गयीं। आरोप लगाया कि उन्होंने लॉकडाउन के बावजूद अयोध्या में होने वाले एक कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ के शामिल होने सम्बन्धी बात छापकर अफ़वाह फैलायी। द वायर का कहना था कि इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री का जाना सार्वजनिक रिकॉर्ड और जानकारी का विषय है, इसलिए अफ़वाह फैलाने जैसी बात यहाँ लागू ही नहीं होती। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की इस कार्रवाई पर काफ़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली। बड़ी संख्या में देश के क़ानूनविद्, पत्रकार-लेखक, शिक्षाविद्, अभिनेता और कलाकार सामने आये। इन क़रीब 3000 बुद्धिजीवियों ने एक साझा वक्तव्य जारी किया, जिसमें उन्होंने इसे सीधे प्रेस की आज़ादी पर हमला बताया।

अन्य पत्रकारों पर मामले

पत्रकारों के अलावा मीडिया (प्रिंट / इलेक्ट्रॉनिक) के ख़िलाफ़ हाल की महीनों में राजद्रोह के मुक़दमे दर्ज करने की मानों बाढ़-सी आ गयी है। साल के पहले महीने मीन में नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर के साथ-साथ छ: पत्रकारों पर भी राजद्रोह का मामला दर्ज किया। मामला एक शिकायत के आधार पर दर्ज किया गया, जिसमें थरूर और पत्रकारों के सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण को राजधानी दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था। इससे पहले पिछले साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और तीन अन्य पर राजद्रोह समेत अन्य धाराओं में मामले दर्ज किये थे। यह मामले तब दर्ज किये गये जब कप्पन कथित सामूहिक दुष्कर्म मामले की ज़मीनी रिपोर्टिंग करने हाथरस जा रहे थे।

अक्टूबर में ही मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वाँगखेम के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। उन्हें दो साल पहले भी राजद्रोह की धारा के तहत मामला दर्ज करके गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत आरएसएस, मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ टिप्पणी करने के लिए गिरफ़्तार किया गया था। मणिपुर उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2019 में उनके ख़िलाफ़ आरोपों को ख़ारिज कर दिया था, जिसके बाद उन्हें उन्हें जेल से रिहा करना पड़ा।

इससे पहले इसी साल टूलकिट मामला भी बहुत सुर्ख़ियों में रहा था। इस मामले में आरोपी दिशा रवि पर राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था। इसी साल फरवरी में दिशा को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने जमानत दे दी थी। कोर्ट ने पुलिस की कहानी और दावों को ख़ारिज करते हुए कहा था कि पुलिस के कमज़ोर सुबूतों के चलते एक 22 साल की लड़की जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, उसे जेल में रखने का कोई मतलब नहीं है।

दिशा मामले में भी कोर्ट की टिप्पणियाँ ग़ौर करने लायक हैं। जमानत देते हुए कोर्ट ने पुलिस के सभी आरोपों और दावों के ख़ारिज कर दिया और कहा कि व्हाट्स ऐप ग्रुप बनाना, टूल किट एडिट करना अपने आप में अपराध नहीं है। महज़ व्हाट्स ऐप चैट डिलीट करने से उसे पीजीएफ संगठन से जोडऩा ठीक नहीं। ये ऐसा सुबूत नहीं है, जिससे अलगाववादी सोच साबित हो। कोर्ट ने कहा कि टूलकिट या उसके हाईपर लिंक में देशद्रोह जैसी कोई सामग्री नहीं। सरकार से किसी बात कर सहमत न होने पर किसी को देशद्रोह के आरोप में जेल में नहीं डाला जा सकता। लोकतांत्रिक देश में अपनी बात रखने का हर किसी को मौलिक अधिकार है। असन्तोष का अधिकार दृढ़ता में निहित है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियन्स की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएँ नहीं हैं। एक नागरिक के पास क़ानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। ये समझ से बाहर है कि प्रार्थी ने अलगाववादी तत्त्वों को वैश्विक धरातल (प्लेटफॉर्म) कैसे दिया।

सरकार की खिंचाई

विनोद दुआ के मामले से चार दिन पहले 31 मई को सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया में दिखायी गयी एक फुटेज को लेकर सरकार पर बहुत व्यंगात्मक टिप्पणी करते हुए खिंचाई की। यह मामला उत्तर प्रदेश में एक पुल से एक शव को राप्ती नदी में फेंके जाने वाले वीडियो को दिखाने को लेकर था, जिसके ख़िलाफ़ टीवी चैनल पर राजद्रोह का मामला दारज किया गया था। न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कोविड-19 से सम्बन्धित एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय बेंच इस मामले की स्वत: संज्ञान लेकर सुनवाई कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि एक न्यूज रिपोर्ट में एक शव को नदी में फेंकते हुए दिखाया गया था। हमें नहीं पता कि अभी तक उस न्यूज चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर लिया गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना वायरस से सम्बन्धित मामलों में सोशल मीडिया पर मदद माँगने वालों के ख़िलाफ़ सरकारों के रवैये की पहले भी आलोचना की है। इससे पहले 30 अप्रैल को सुनवाई के दौरान अदालत ने साफ़ किया था कि सोशल मीडिया पर महामारी से सम्बन्धित अपनी शिकायतें बयाँ करने वाले नागरिकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की जा सकती।

न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अगुवाई वाले बेंच ने कहा था कि अधिकारियों की ओर से होने वाली ऐसी कार्रवाई को अदालत का अवमानना माना जाएगा। इस बेंच में उनके अलावा न्यायाधीश एल. नागेश्वर राव और न्यायाधीश रवींद्र भट भी शामिल हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले कोविड-19 को लेकर मदद के नाम पर सोशल मीडिया पर झूठी अपील करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त दीवानी (सिविल) और आपराधिक कार्रवाई करने को कहा था, जिस पर अदालत ने ऐसी किसी भी कार्रवाई के ख़िलाफ़ हिदायत दी थी। इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर आईपीसी की धारा-124(ए) की विस्तृत व्याख्या की ज़रूरत बतायी, जिसके तहत देशद्रोह को अपराध माना गया है। अदालत पहले ही आंध्र प्रदेश के दो समाचार चैनलों- टीवी5 और एबीएन न्यूज के ख़िलाफ़ आंध्र प्रदेश पुलिस की ओर से दायर देशद्रोह के मामले से सुरक्षा दे चुकी है। इन चैनलों ने वाईएसआर कांग्रेस के नेता की ओर से कोविड मैनेजमेंट को लेकर राज्य सरकार के ख़िलाफ़ ‘आपत्तिजनक भाषण’ दिखाया था। इस पर जजों ने ये भी कहा था कि यही समय है कि हम देशद्रोह की सीमा तय करें। याद रहे इसी साल पहली मार्च को अदालत ने इसी तरह श्रीनगर से सांसद और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ एक याचिका ये कहकर ख़ारिज कर दी थी कि सरकार की राय से अलग राय ज़ाहिर करना ‘देशद्रोह’ नहीं कहला सकता।

अब्दुल्ला ने अनुच्छेद-370 के मुद्दे पर चीन और पाकिस्तान से कथित तौर पर मदद माँगने की बात कही थी। अदालत ने इस मामले में याचिकाकर्ता पर 50,000 रुपये का ज़ुर्माना भी लगा दिया था। बता दें कि देशद्रोह क़ानून की वैद्यता को चुनौती देने वाली एक पीआईएल पर बीती पहली मई को अदालत ने केंद्र सरकार से जवाब भी माँगा है। यह याचिका मणिपुर और छत्तीसगढ़ के दो पत्रकारों ने डाली है, जिसमें कहा गया है यह क़ानून फ्रीडम ऑफ स्पीच के प्रावधानों का उल्लंघन है। यहाँ बता दें कि जाने माने वकीलों, पत्रकारों और अकादमिकों के एक समूह अनुच्छेद-14 की तरफ़ से जारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले पाँच साल में देश में औसतन 28 फ़ीसदी के हिसाब से हर साल राजद्रोह के मामलों में भारत में वृद्धि देखी गयी है।

याद रहे राजद्रोह पर 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वैसे तो इस धारा को बनाये रखा; लेकिन उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर देने से मना कर दिया। लेकिन इस धारा की सीमा तय कर दी। कोर्ट ने साफ़ कर दिया कि सिर्फ़ सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता। जिस मामले में किसी भाषण या लेख का मक़सद सीधे-सीधे सरकार या देश के प्रति हिंसा भड़काना हो, उसे ही इस धारा के तहत अपराध माना जा सकता है। बाद में सन् 1995 में बलवंत सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ालिस्तान के समर्थन में नारे लगाने वाले लोगों को भी इस आधार पर छोड़ दिया था कि उन्होंने सिर्फ़ नारे लगाये थे।

राजद्रोह के चर्चित मामले

26 मई, 1953 को फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह ने बिहार के बेगूसराय में एक भाषण दिया था। राज्य की कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ दिए गए उनके इस भाषण के लिए उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया।

साल 2012 में कानपुर के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संविधान का मज़ाक़ उड़ाने के आरोप में गिरफ़्तार किया था। इस मामले में त्रिवेदी के ख़िलाफ़ राजद्रोह सहित और भी आरोप लगाये गये। त्रिवेदी के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मुम्बई पुलिस को फटकार लगायी थी।

गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की माँग करने वाले कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल के ख़िलाफ़ भी राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था। जेएनयू में भी छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथी उमर ख़ालिद पर राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था।

दिवंगत पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के ख़िलाफ़ सन् 2015 में उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने राजद्रोह के आरोप लगाये थे। इन आरोपों का आधार नेशनल ज्यूडिशियल कमीशन एक्ट (एनजेएसी) को रद्द करने के सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले की आलोचना बताया गया।

हार्ड न्यूज पत्रिका के संपादक संजय कपूर कहते हैं कि पिछले सात साल में पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के मामले दर्ज करने की मानों होड़ लग गयी है। पत्रकारों को महामारी से जुड़ी ख़बरों, यहाँ तक कि बलात्कार जैसे जुर्म पर ख़बर करने के लिए भी गिरफ़्तार कर लिया गया है। संजय कपूर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के सचिव भी हैं, कहता हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार पत्रकारों को मिली अभिव्यक्ति की सुरक्षा के बारे में बताया है; लेकिन निचली अदालतें अक्सर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को नज़अंदाज़ करती आयी हैं। हमारी माँग है कि राजद्रोह जैसे क़ानून की सभ्य समाज में कोई जगह ही नहीं है, और समय आ गया है कि इसे अब भारतीय दण्ड संहिता से ही हटा दिया जाए।

कब, कहाँ ख़त्म हुआ

राजद्रोह क़ानून?

1. दक्षिण कोरिया में सन् 1988 में

2. इंडोनेशिया में सन् 2007 में

3. ब्रिटेन में सन् 2009 में

4. आस्ट्रेलिया में सन् 2010 में

5. स्काटलैंड में सन् 2010 में

राजद्रोह से सम्बन्धित आईपीसी की धारा-124(ए) की व्याख्या करने की ज़रूरत है। इस धारा के इस्तेमाल से प्रेस की स्वतंत्रता पर पडऩे वाले असर के मद्देनज़र भी इस व्याख्या की ज़रूरत है। हमारे विचार में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा-124(ए), 153(ए) और 505 के प्रावधानों के दायरे और मापदण्डों की व्याख्या की आवश्यकता होगी। ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के समाचार और सूचना पहुँचाने के सन्दर्भ में। इस व्याख्या का हिस्सा वे समाचार या सूचनाएँ भी होंगी, जिनमें देश के किसी भी हिस्से में प्रचलित शासन की आलोचना की गयी हो।

दो टीवी चैनलों के मामले में सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी

अदालतों में झूठे साबित हुए मुक़दमे

आधिकारिक आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि राजद्रोह के मामलों में दोष साबित होने की दर 2014 के 33 फ़ीसदी से गिरकर 2019 में तीन फ़ीसदी तक आ गयी है। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के आँकड़ों से यह भी ज़ाहिर होता है कि राजद्रोह के अधिकतर मामलों में चार्जशीट तक नहीं दायर हो पाती। देशद्रोह के आरोप के 80 फ़ीसदी मामलों में चार्जशीट दाख़िल नहीं हो पायी। इससे तो यही ज़ाहिर होता है की देश में अब राजद्रोह को आवाज़ कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है।

यदि नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों पर नज़र दौड़ायी जाए, तो ज़ाहिर होता है कि हाल के वर्षों में राजद्रोह के मामले बड़ी संख्या में दर्ज किये गये हैं। देश में वर्ष 2014 में मोदी सरकार आने के बाद वर्ष 2015 में 30, वर्ष 2016 में 35, वर्ष 2017 में 51, वर्ष 2018 में 70 और वर्ष 2019 में 93 मामले राजद्रोह के तहत दर्ज हुए। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि वर्ष 2019 में देश में राजद्रोह के जो 93 मामले दर्ज हुए, उसमें 96 लोगों को गिरफ़्तार किया गया; जिनमें से 76 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गयी और 29 को बरी कर दिया गया। इन सभी आरोपियों में से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया।

वर्ष 2018 में जिन 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें भी केवल दो लोगों को ही अदालत ने दोषी माना। ऐसे ही सन् 2017 में जिन 228 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 160 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से मात्र 4 लोगों को अदालत ने दोषी माना। एक साल पहले वर्ष 2016 में 48 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और उनमें से 26 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और केवल एक आरोपी को अदालत ने दोषी माना। वर्ष 2015 में इस क़ानून के तहत 73 गिरफ़्तरियाँ हुईं और 13 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई; लेकिन इनमें से एक को भी अदालत में दोषी नहीं साबित किया जा सका, जबकि वर्ष 2014 में 58 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। लेकिन सिर्फ़ 16 के ख़िलाफ़ ही चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल एक को ही अदालत ने दोषी माना।

वैसे वर्ष 2010 से वर्ष 2020 तक कुल 816 राजद्रोह के मामलों में 10,938 भारतीयों को आरोपी बनाया गया है। इनमें 65 फ़ीसदी मामले मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान एनडीए सरकार के समय में दर्ज किये गये। सन् 2010 से 2014 के बीच क़रीब चार साल में 3,762 भारतीयों के ख़िलाफ़ 279 मामले दर्ज किये गये। वहीं सन् 2014-2020 के बीच के छ: वर्षों में इससे क़रीब दोगुने 7,136 लोगों के ख़िलाफ़ 519 मामले दर्ज हुए। इन 10 वर्षों में सबसे ज़्यादा 65 फ़ीसदी (534) मामले पाँच राज्यों बिहार, कर्नाटक, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में दर्ज। बिहार में 168, तमिलनाडु में 139, उत्तर प्रदेश में 115, झारखण्ड में 62 और कर्नाटक में 50 मामले दर्ज किये गये।

अब 2021 में भी यह सिलसिला जारी है और दो दर्ज़न के क़रीब मामले दर्ज किये गये हैं; जिनमें कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ हैं। राजद्रोह के सबसे ज़्यादा 130 मामले यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में तब दर्ज हुए थे, जब कुंदन कॉलम न्यूक्लियर प्रोटेस्ट चल रहा था। इसके बाद सन् 2019 और सन् 2020 में सबसे ज़्यादा मामले दर्ज किये गये, जब देश भर में संशोधित नागरिकता क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन चल रहा था। वर्ष 2019 में 118 और वर्ष 2020 में 107 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2020 में दिल्ली दंगे, कोरोना संकट और हाथरस दुष्कर्म मामले की वजह से भी राजद्रोह क़ानून ख़ूब चर्चा में रहा। इसी साल मार्च में संसद में सरकार ने एक सवाल के जवाब में जानकारी दी थी कि पिछले 5 साल में देश में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (निवारक) अधिनियम (यूएपीए) के तहत 5,128 और देशद्रोह के आरोप में 229 मामले दर्ज हुए हैं।

आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 और 2019 के बीच यूएपीए के तहत क्रमश: 897, 922, 901, 1182 और 1126 मामले दर्ज किये गये थे। सन् 2018 में असम में यूएपीए के तहत 308 मामले दर्ज किये गये थे। मणिपुर में सन् 2015 में यूएपीए के तहत सबसे ज़्यादा 522 मामले दर्ज हुए सन् 2016 में 327, सन् 2017 में 330, सन् 2018 में 289 और सन् 2019 में 306 मामले दर्ज किये गये। सन् 2018 को छोड़कर इस अवधि के दौरान सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मणिपुर टॉप पर रहा। आँकड़ों के मुताबिक, इस उत्तर पूर्वी राज्य में कुल 1,786 मामले दर्ज हुए हैं, जो कि कुल दर्ज मामलों का 34.82 फ़ीसदी हैं।

गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने राज्यसभा सदस्य अब्दुल वहाब के सवाल के जवाब में सन् 2015 से 2019 की अवधि का डाटा सदन में शेयर किया। रेड्डी ने कहा कि यह डाटा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने संकलित किया है और यह 31 दिसंबर, 2019 तक का है। राजद्रोह के मामलों के मामले में बिहार 2015 में नौ ऐसे मामलों के साथ शीर्ष पर रहा। इसके बाद सन् 2016 में हरियाणा 12 मामलों के साथ, सन् 2017 में असम 19 मामलों के साथ, सन् 2018 में झारखंड 18 मामलों के साथ और सन् 2019 में कर्नाटक 22 मामलों के साथ शीर्ष पर रहा।

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन भी चिन्तित

भारत में पत्रकारों पर राजद्रोह के मामले दर्ज होने की संख्या से चिन्तित मीडिया की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले दो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा है। ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) और बेल्जियम स्थित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) ने अपने पत्र में कहा है कि पिछले कुछ महीनों में भारत के अलग-अलग हिस्सों में कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) के तहत राजद्रोह के आरोप लगाकर मामले दर्ज किये गये हैं। इनमें तीन साल तक की जेल की स•ाा का प्रावधान है। इन संगठनों ने कहा है कि भारत में पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगाकर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है, जो बहुत ही विचलित करने वाली बात है। संगठनों ने कहा कि कोरोना वायरस महामारी के फैलने के बाद इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ गयी है, जो यह दिखाता है कि महामारी की रोकथाम करने में सरकारों की कमियों को उजागर करने वालों की आवाज़ महामारी का ही बहाना बनाकर दबायी जा रही है। पत्र में इस सन्दर्भ में धवल पटेल के मामले और इसी तरह के कम-से-कम 55 मामलों का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की गयी है कि वह तुरन्त यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएँ कि पत्रकार बिना किसी उत्पीडऩ और सरकार की बदले की किसी कार्रवाई से डरे बिना अपना काम कर सकें।

राजद्रोह क़ानून क्या है और विधि आयोग ने क्या कहा?

 

ये क़ानून अंग्रेजों का बनाया क़ानून है। देश द्रोह का ये वो क़ानून है, जो 149 साल पहले भारतीय दण्ड संहिता में जोड़ा गया; यानी सन् 1870 में जब भारत अंग्रेजों का ग़ुलाम था। इसे सबसे पहले अंग्रेजों के शासन के दौरान सन् 1870 में लाया गया था। सन् 1898, सन् 1937, सन् 1948, सन् 1950 और सन् 1951 में इसमें संशोधन किये गये। इसे सन् 1958 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने और पंजाब उच्च न्यायालय ने तो असंवैधानिक क़रार दे दिया था।

अंग्रेजों ने ये क़ानून इसलिए बनाया, ताकि वो भारत के देशभक्तों को देशद्रोही क़रार देकर सज़ा दे सके। महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू ने उस दौर में देशद्रोह के इस क़ानून को आपत्तिजनक और अप्रिय क़ानून बताया था। लेकिन वो आज़ादी के पहले की स्थिति थी और पूरा देश स्वतंत्रता कि लड़ाई लड़ रहा था। उस परिस्थितियों की तुलना वर्तमान के दौर से नहीं की जा सकती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गये या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व से या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून से स्थापित सरकार के प्रति असन्तोष को भड़काने का प्रयास करता है, तो वह राजद्रोह का आरोपी है।

राजद्रोह एक ग़ैर-जमानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और ज़ुर्माना है। केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा-124(ए) के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह क़ानून की वैधता को बरक़रार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था। अदालत ने कहा था कि धारा-124(ए) केवल उन शब्दों को दण्डित करता है, जो क़ानून और व्यवस्था को बिगाडऩे की मंशा या प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं; या जो हिंसा को भड़काते हैं। आज तक इस परिभाषा को धारा-124(ए) से सम्बन्धित मामलों के लिए मिसाल के तौर पर लिया जाता रहा है।

हालाँकि हाल के वर्षों में यह विचार तेज़ी से मुखर हो रहा कि क्या राजद्रोह के क़ानून को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए? वैसे जुलाई, 2019 में राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा था कि देशद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत प्रावधान को ख़त्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का प्रभावी ढंग से मुक़ाबला करने के लिए प्रावधान को बनाये रखने की सख़्त ज़रूरत है। इसके अलावा भारतीय विधि आयोग (लॉ कमीशन) ने भी सन् 2018 में राजद्रोह को लेकर एक परामर्श पत्र जारी किया था।

राजद्रोह के क़ानून को लेकर आगे क्या रास्ता निर्धारित किया जाना चाहिए इस पर लॉ कमीशन ने कहा कि लोकतंत्र में एक ही गीत की किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं है और लोगों को अपने तरीक़े से अपने देश के प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और ऐसा करने के लिए सरकार की नीति में ख़ामियों की ओर इशारा करते हुए कोई रचनात्मक आलोचना या बहस की जा सकती है।

लॉ कमीशन ने कहा- ‘इस तरह के विचारों में प्रयुक्त अभिव्यक्ति कुछ के लिए कठोर और अप्रिय हो सकती है; लेकिन ऐसी बातों को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।’ लॉ कमीशन ने यह भी कहा- ‘धारा-124(ए) केवल उन मामलों में लागू की जानी चाहिए, जहाँ किसी भी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को उखाड़ फेंकने की है।’ लॉ कमीशन ने आगे कहा- ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।

सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए। देश या उसके किसी विशेष पहलू पर अपशब्द कह देना देशद्रोह नहीं माना जा सकता है।

अगर देश सकारात्मक आलोचना के लिए खुला नहीं है, तो यह आज़ादी से पहले और बाद के युगों के बीच का अन्तर दर्शाता है। अपने स्वयं के इतिहास की आलोचना करने का अधिकार और अपमान करने का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत संरक्षित अधिकार है; जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखण्डता की रक्षा के लिए आवश्यक है। इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।

असहमति और आलोचना जीवंत लोकतंत्र में नीतिगत मुद्दों पर एक मज़बूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं; और इसीलिए अनुचित प्रतिबन्धों से बचने के लिए स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर हर प्रतिबन्ध की सावधानीपूर्वक जाँच की जानी चाहिए।

यूनाइटेड किंगडम ने 10 साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त कर दिया था और ऐसा करते वक़्तकहा था कि वो देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता। उस धारा-124(ए) को बनाये रखना कितना उचित है, जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया था।

आज़ादी के इन सात दशकों में इस क़ानून को लेकर ख़ूब सियासत होती रही है। कांग्रेस ने तो एक बार अपने चुनावी घोषणा-पत्र में वादा कर दिया था कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए), जो देशद्रोह अपराध को परिभाषित करती है और जिसका दुरुपयोग हुआ है; को ख़त्म किया जाएगा।

तैयार हो रहा एक और सस्ता स्वदेशी कोरोना टीका कोरबेवेक्स

कोरोना महामारी की दूसरी लहर से मचे कोहराम और देश की लडख़ड़ाती स्वास्थ्य सेवाओं ने जिस प्रकार देशवासियों को उदास, निराश किया है। लोगों की जाने गयी हैं, उससे देश में भय का माहौल बना है। कोरोना की महँगी दवाओं, महँगे टीकों और इनके समेत ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी ने आम लोगों, ख़ासकर ग़रीबों को और परेशानी में डाल दिया है। ऐसे में आशा की किरण के रूप में एक और स्वदेशी टीका ‘कोरबेवेक्स’ बाज़ार में आने वाला है, जो अभी तक के टीकों में सबसे सस्ता होगा। इस टीके और कोरोना महामारी से बचाव के बारे में देश के जाने-माने डॉक्टरों और चिकित्सा विशेषज्ञों से बातचीत पर आधारित तहलका के विशेष संवाददाता राजीव दुबे की रिपोर्ट :-

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना का कहर कम ज़रूर कम हुआ है, लेकिन कोरोना वायरस अभी मौज़ूद है। ऐसे में कोरोना की तीसरी लहर से बचने-बचाने और कोरोना पर क़ाबू पाने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण और सुरक्षित तरीक़ा है कि शहरों से लेकर गाँवों तक हर हाल में टीकाकरण हो। डॉक्टर बंसल का कहना है कि देश के ग़रीब-से-ग़रीब लोगों तक वैक्सीन की पहुँच के लिए कोरबेवेक्स वैक्सीन का उत्पादन हैदराबाद की बायोलॉजिस्ट ई कम्पनी कर रही है।
भारत बायोटेक के कोवैक्सीन टीके के बाद यह देश का दूसरा स्वदेशी टीका है। भले ही इसे अभी बाज़ार में आने में समय लगेगा, पर इसके प्रति मरीज़ो, चिकित्सकों और आम लोगों की दिलचस्पी देखने में मिल रही है। लोगों में आशा जगी है कि सस्ता टीका ग़रीबों के लिए बनकर तैयार होने वाला है। डॉक्टर बंसल का कहना है कि वैक्सीन के साथ-साथ जब तक हमारी स्वास्थ्य सेवाएँ मज़बूत नहीं होंगी, तब तक हमें मामूली-से-मालूमी बीमारी से जूझना होगा। माना कि कोरोना वायरस पर क़ाबू पाने लिए टीकाकरण ज़रूरी है, लेकिन टीकाकरण करने के लिए तो डॉक्टरों और पैरामेडिकल कर्मचारियों को बढ़ाना होगा। कोरोना महामारी के दौरान जब शहरों की टूटती साँसों और अस्वस्थ स्वास्थ्य सेवाओं से देश में हाहाकार मची थी, तब देश के महानगरों में सरकारी और निजी अस्पतालों का हाल देश दुनिया ने देखा है। ऐसे में सरकार को टीकाकरण के साथ-साथ शहरों से लेकर गाँवों तक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करना होगा। ऑक्सीजन प्लांट के साथ डॉक्टरों की नियुक्तियाँ बड़े पैमाने पर करनी होंगी। देशी-विदेशी कोरोना टीके हासिल करना तो एक उपलब्धि हो सकती है, लेकिन स्वास्थ्य महकमे की सफलता नहीं। क्योंकि स्वास्थ्य महकमे में व्यापक सुधार की ज़रूरत है।
दवा कारोबार से जुड़े और फार्मा कम्पनी के डायरेक्टर अमरीश चावला का कहना है कि हैदराबाद की बायोलॉजिस्ट ई कम्पनी शुरू से ही ग़रीबों के लिए दवाएँ और टीके बनाने का काम करती रही है। सार्स जैसी बीमारी के लिए इसी कम्पनी ने सबसे सस्ता टीका दिया था। कम्पनी के इस प्रयास से ग़रीब आदमी तक को टीका लग सकता है। फ़िलहाल कोरोना टीकों के दाम तो सही-सही तय नहीं हुए हैं, लेकिन अनुमान है कि यह टीका 100 रुपये तक का मिल सकता है। अब सरकार को टीका हासिल करने के साथ देश में दवा कारोबारियों पर नज़र रखनी होगी, ताकि वे इसकी जमाख़ोरी करके कालाबाज़ारी न कर सकें। अमरीश चावला का कहना है कि बाज़ार में अभी कोरबेवेक्स आयी तक नहीं है, लेकिन ड्रग माफिया ने इसमें सेंध लगाने के लिए अपने एजेंट्स को तैयार कर रखा है। सेंधमारों का सबसे बड़ा गढ़ देश की राजधानी दिल्ली का दवा बाज़ार है। बताते चलें भारत सरकार ने 30 करोड़ टीकों के लिए ई कम्पनी को 1,500 करोड़ अग्रिम राशि भी दी है। अगस्त से दिसंबर महीने के बीच इन टीकों की आपूर्ति होने की सम्भावना है।
भारतीय ड्रग कंट्रोलर के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि कोरोना वायरस ने देश में तबाही मचायी हुई है। ऐसे में केंद्र सरकार का दायित्व यही बनता है कि वह देश की कम्पनी को प्रोत्साहन दे। टीकों पर शोध एवं विकास कार्य के लिए आर्थिक सहयोग करे। उसने यह किया भी है, जिससे देश में टीकाकरण कार्यक्रम में तेज़ी आयेगी। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि केंद्र सरकार पहले तो स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करे और फिर तेज़ी से टीकाकरण कार्यक्रम चलाए, ताकि कोरोना वायरस की तीसरी लहर दूसरी लहर की तरह तबाही न मचा सके।
एम्स के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि कई दवा कम्पनियाँ आज भी ऐसी हैं, जो सेवा भाव के आधार पर दवाओं का निर्माण करती हैं; क्योंकि उनका मक़सद सिर्फ़ पैसा कमाना नहीं होता है। कोरोना के पहले भी पहले सार्स, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियों के टीकों और दवाओं को इसी कम्पनी ने बनाया। दूसरी कम्पनियों को भी मोटी कमायी के चक्कर में न पड़कर मुनासिब मुनाफ़े के साथ सेवाभाव से इसी तरह काम करना चाहिए, जो कि देशहित में भी है।

पंजाब सरकार ने निजी अस्पतालों को वैक्सीन देने का फ़ैसला लिया वापस

पंजाब में कांग्रेस सरकार पर कोरोना वैक्सीन (टीका) निजी चिकित्सा संस्थानों को दोगुने से ज़्यादा दाम पर देने के आरोप लगे, जिससे पहले से पार्टी में गुटबाज़ी से परेशान कैप्टन अमरिंदर सिंह की मुश्किलें ज़्यादा बढ़ गयीं। ऐसा फ़ैसला मौज़ूदा हालात में बिल्कुल तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता; क्योंकि माँग के हिसाब से आपूर्ति बहुत कम है। यह फ़ैसला किस बैठक में किसने लिया? और किसके आदेश से हुआ? यह सरकार की ओर से अभी तक स्पष्ट नहीं किया गया है। स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू ने बताया कि उन्हें ख़ुद फ़ैसले की जानकारी नहीं थी।
उन्होंने सरकार के बचाव में कहा कि कुछ फ़ैसले ग़लत हो सकते हैं, जिनमें यह भी शामिल है। लिहाज़ा सरकार ने इसे तुरन्त प्रभाव से वापस ले लिया। उनके विभाग से जुड़ा कोई फ़ैसला सरकार करे और उन्हें इसकी जानकारी न हो ऐसा सम्भव नहीं है। सबसे पहले इस सन्दर्भ में जानकारी मुख्य सचिव विन्नी महाजन के ट्वीट के ज़रिये आया। इसके तुरन्त बाद विपक्षी दल शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने विरोध जताया। केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने सरकार के इस फ़ैसले को आम लोगों के हितों से खिलवाड़ बताया और कहा कि यह सरकार द्वारा राजस्व कमाने का ज़रिया है। कोरोना टीके की कमी का हवाला देकर केंद्र सरकार पर भेदभाव करने का आरोप लगाने वाले कैप्टन निजी अस्पतालों और चिकित्सा संस्थानों को टीका दें, तो ज़ाहिर है कि उनकी नीति स्पष्ट नहीं है।
पंजाब में मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा रही है। ऐसे में सरकार को टीकाकरण अभियान ज़्यादा मज़बूती से चलाना चाहिए; लेकिन यहाँ पहले दूसरा ही खेल हुआ। राज्य सरकार को कोवेक्सीन 400 रुपये की मिली, जबकि उसने निजी चिकित्सा संस्थानों को 1060 रुपये के हिसाब से दी। एक टीके पर 660 रुपये सरकारी ख़जाने में आये। इसे वैक्सीन कोष का नाम दिया गया है। आख़िर इस कोष में यह राशि लाने का मतलब क्या है? और इसका इस्तेमाल कहाँ और किस तौर पर किया जाना है? निजी चिकित्सा संस्थान टीका लगाने के 1560 रुपये ले रहे थे। कोरोना से बचाव के लिए एक छोटा-सा अमीर वर्ग सरकारी अस्पतालों की बजाय निजी चिकित्सा संस्थानों से वैक्सीन लेने वाला है। उन्हें ही ध्यान में रखकर सरकार ने ऐसा क़दम उठाया होगा; लेकिन इसके लिए मुनाफ़े का ध्येय नहीं होना चाहिए था। चूँकि ध्येय यह रहा इसलिए सरकार को इतनी आलोचना का सामना करना पड़ा। राज्य सरकार का अपना टीकाकरण अभियान काफ़ी मंद चल रहा है। इसकी वजह पर्याप्त मात्रा में कोरोना टीके उपलब्ध न होना बताया गया। जिस समय निजी चिकित्सा संस्थानों को टीके देने का फ़ैसला किया गया, उस दौरान राज्य में 80,000 टीके थे। उसमें से 42,000 टीके उन्हें दे दिये गये यानी आधे से ज़्यादा छोटे-से वर्ग के लिए और बाक़ी बहुसंख्यक वर्ग के लिए; जो टीके की प्रतीक्षा कर रहा है।
शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल कहते हैं कि स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू को फ़ैसले की जानकारी थी, इसमें उनका निजी हित भी हो सकता है। उनके विभाग से जुड़े ऐसे अहम फ़ैसले से उन्हें अलग कैसे रखा जा सकता है? इस मामले की जाँच होनी चाहिए, ताकि पता चल सके कि किसने कितना पैसा कमाया। टीकों के अलग-अलग दाम पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐतराज़ जताते हुए इसे पारदर्शी बनाने को कहा है। न्यायालय ने कहा कि सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक कम्पनी को केंद्र सरकार के लिए अलग दाम, राज्य सरकारों और निजी चिकित्सा संस्थानों के लिए अलग-अलग दाम तय नहीं करने चाहिए। इस सन्दर्भ में राहुल गाँधी एक देश एक दाम की माँग करते हैं। देश भर में मुफ़्त टीकाकरण की वकालत करते हैं, अच्छी बात है। लेकिन उनकी ही पार्टी की सरकारों पर केंद्र के इस अभियान को सही तौर पर न चलाने का आरोप लग रहा है।
राजस्थान में कांग्रेस सरकार पर टीकाकरण अभियान को सही तरीक़े से न चलाने के आरोप लगे हैं। वहाँ मुनाफ़ा कमाने के लिए निजी चिकित्सा संस्थानों को कोरोना टीके देने जैसा काम तो नहीं हुआ, लेकिन उनका इस्तेमाल नहीं किया गया; जबकि वहाँ माँग बहुत ज़्यादा थी। राज्य सरकार अपने तौर पर मुफ़्त टीकाकरण में फ़िलहाल सक्षम नहीं दिखती। इसके लिए केंद्र से मदद की दरकार है। पंजाब में भी दूसरी लहर के बाद जिस तरह से संक्रमण मामले बढ़े और मौतों का आँकड़ा बढ़ा, मुख्यमंत्री कैप्टन ने सरकार की ओर से मुफ़्त टीकाकरण की घोषणा कर दी। इसके लिए प्रयास भी हो रहे हैं; मगर टीके से मुनाफ़ा कमाने वाले फ़ैसले से वह बुरी तरह से घिर गये।
फ़ैसले पर सरकार की ओर से कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है; जबकि मुख्यमंत्री को इस सन्दर्भ में ज़रूर बताना चाहिए था। सरकार के फ़ैसला वापस लेने के बावजूद विपक्षी दलों का प्रदर्शन रुका नहीं है। वे स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिद्धू के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर कार्रवाई के पक्ष में हैं। मोहाली में उनके आवास के बाहर विपक्षी दलों का प्रदर्शन बताता है कि मुद्दा अभी गर्म है। बलबीर सिद्धू कहते हैं कि विपक्षी दल बेवजह राजनीति कर रहे हैं। महामारी के इस दौर में राजनीति करने की अपेक्षा उन्हें सरकार का सहयोग करना चाहिए। वे मानते हैं कि निजी चिकित्सा संस्थानों को वैक्सीन आपूर्ति का फ़ैसला ठीक नहीं था। सरकारें बहुत-से ऐसे फ़ैसले लेती हैं, जो जनहित में नहीं होते। इसका पता लगने के बाद उन्हें वापस भी लिया जाता है। हमारी सरकार ने भी ऐसा ही किया है। कितनी आपूर्ति की? कितना पैसा मिला? और वह किस खाते में गया? सब कुछ स्पष्ट है। इसमें किसी तरह का कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। केंद्र सरकार ग़ैर-भाजपाई राज्य सरकारों के साथ टीका वितरण में भेदभाव कर रही है। इसके बावजूद राज्य इस सन्दर्भ में पीछे नहीं है। अब तो केंद्र सरकार 75 फ़ीसदी टीके ख़रीदकर सीधे तौर पर 21 जून से टीकाकरण अभियान शुरू करेगी।
अब राज्य सरकारों की इसमें बहुत बड़ी भूमिका नहीं होगी। दोनों टीके लगाने का राष्ट्रीय औसत 5.0 $फीसदी है, जबकि पंजाब में यह 5.3 फ़ीसदी है। एक टीका लगाने में भी राज्य का प्रदर्शन राष्ट्रीय औसत 20.2 के मुक़ाबले 20.0 फ़ीसदी है। इस सन्दर्भ में कर्नाटक 25.7 फ़ीसदी और दोनों टीकों में 5.9 फ़ीसदी के साथ आगे है। राज्य में राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा मृत्यु दर होने के कारण केंद्र को आपूर्ति बढ़ानी चाहिए थी और इसकी माँग राज्य सरकार करती रही है। अब राज्य में स्थिति सँभल रही है; पर कैप्टन सरकार के लिए स्थिति ज़्यादा अनुकूल नहीं है।

अधिकतर टीके वापस


स्वास्थ्य मंत्री बलबीर सिंह सिद्धू के मुताबिक, निजी चिकित्सा संस्थानों को कोरोना टीकों की आपूर्ति के फ़ैसले की उन्हें जानकारी नहीं थी। चौतरफ़ा विरोध के बाद सरकार ने तुरन्त प्रभाव से फ़ैसला वापस ले लिया। कुछ $फीसदी को छोड़कर बाक़ी स्टाक वापस मिल गया है। यह सब पारदर्शी है। इसमें किसी तरह का भ्रष्टाचार नहीं हुआ है। विपक्षी दल बेवजह इसे मुद्दा बनाकर राजनीति कर रहे हैं। राज्य सरकार कोरोना संकट में बेहतर काम कर रही है। राज्य सरकार मुफ़्त टीकाकरण करने के लक्ष्य को तय समय में पूरा करेगी।

96 जन-प्रतिनिधियों पर दर्ज हैं मामले
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में रखी स्टेट्स रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में 96 मौज़ूदा और पूर्व सांसदों और विधायकों पर राज्य के विभिन्न थानों में मामले दर्ज हैं। इनमें से 12 फ़ीसदी मामलों में ही सुनवायी चल रही है, बाक़ी में अभी जाँच या रद्द करने की अर्जी पुलिस की ओर से दी गयी है। पंजाब में छ: जन प्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले भी हैं।
163 प्राथमिकी में से 118 में तो अभी जाँच ही चल रही है। यह कब तक चलेगी? कहना मुश्किल है। कोरोना-काल की वजह से भी जाँच में देरी हो रही है। 19 मामले ऐसे हैं, जिनमें कुछ पता नहीं चल रहा है। केवल 21 मामले अदालतों में विचाराधीन हैं। इन नेताओं में शिअद अध्यक्ष सुखबीर बादल और कांग्रेस सांसद रवनीत बिट्टू, विधायक सुखपाल सिंह खैरा, सुच्चा सिंह लंगाह, तोता सिंह, सिकंदर सिंह मलूका, मोहन लाल, गुलजार सिंह रणिके, वीरसिंह लोपोके, विक्रम सिंह मजीठिया, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा और परमिंदर सिंह ढींढसा जैसे नाम हैं। राज्य में सबसे ज़्यादा मामले बैंस बन्धुओं पर हैं। सिमरजीत सिंह बैंस पर 15 और उनके भाई बलविंदर सिंह बैंस पर छ: मामले हैं। पूर्व सांसद और अकाली दल (ए) के अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान पर सन् 2011 में दर्ज मामला भी प्रमुख है। ठीक इसी तरह हरियाणा में मौज़ूदा और पूर्व सांसदों और विधायकों पर 21 मामले दर्ज हैं। इनमें 15 विचाराधीन (अंडर ट्रायल) हैं, जबकि छ: मामलों में जाँच चल रही है।
चंडीगढ़ में पूर्व और मौज़ूदा सांसदों और विधायकों पर सात मामले दर्ज हैं। इनमें आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान, शिअद के राज्य सभा सदस्य बलविंदर सिंह भुदंड़, शिअद विधायक बिक्रम सिंह मजीठिया, आम आदमी पार्टी के विधायक अमन अरोड़ा, पूर्व शिअद सांसद प्रेमसिंह चंदूमाजरा, भाजपा नेताओं में तीक्ष्ण सूद, अरुण नारंग, मास्टर मोहन लाल, मदन मोहन मित्तल, मनोरंजन कालिया और विजय सांपला आदि शामिल हैं। इनसे जुड़े सभी मामलों की जाँच चल रही है। पुलिस की ओर से उच्च न्यायालय में बताया गया कि कोरोना की वजह से जाँच में देरी हो रही है। हरियाणा में सबसे ज़्यादा छ: मामले गुडग़ाँव से पूर्व विधायक रहे सुखबीर कटारिया पर हैं।

क्या प्रॉपर्टी में उछाल लाएगा नया किराया क़ानून?

मोदी सरकार लायी नया किराया क़ानून, अचल सम्पत्ति को किराये पर उठाने वालों को होगा फ़ायदा?

देश की राजधानी दिल्ली समेत दूसरे छोटे-बड़े शहरों लाखों मकान मालिकों के लिए मकान-दुकान किराये पर उठाना कमायी का बहुत बड़ा ज़रिया है। शहरों में ज़मीन-ओ-मकानों के आममान छूते दामों के चलते कितने ही लोग दूसरों की सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा करने की जुगत में रहते हैं। ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जो मकान-दुकान या अन्य तरह की प्रॉपर्टी पर अधिकार को लेकर अदालतों तक गये हैं। इनमें अनेक मामले किरायेदार और मकान मालिकों के बीच के रहे हैं।
दिल्ली जैसे शहर में अनेक किरायेदारों ने इसी तरह मकान-दुकान हड़पे हुए हैं। कई मकान मालिकों को लाखों रुपये देकर मकान-दुकान ख़ाली करवाने पड़े हैं। इसी के चलते 11 महीने का रेंट एग्रीमेंट अधिनियम बनाया गया। लेकिन आज तक किराये पर नियंत्रण नहीं लग सका है। कई मकान मालिक मनमर्ज़ी से किराये में वृद्धि करते रहते हैं। सन् 1948 में भारत सरकार ने किराया नियंत्रण क़ानून पास किया था। लेकिन इससे मनमाने ढंग से किराया वसूली पर लगाम न लग सकी। अब केंद्र सरकार कोरोना-काल में कई दूसरे क़ानूनों की तरह नया किराया क़ानून लेकर आयी है, जिसे ‘मॉडल टेनेंसी एक्ट’ का नाम दिया गया है।
सरकार का कहना है कि इससे मकान मालिकों और किरायेदारों के बीच तनाव ख़त्म होगा। अक्सर दोनों के बीच आपसी तालमेल में अभाव देखा गया है, जिसके चलते दोनों का झगड़ा अदालतों तक चला जाता है। मोदी सरकार के इस नये क़ानून के जो भी सियासी मायने निकाले जाएँ, लेकिन जानकारों का कहना है कि ज़मीन की गिरती क़ीमतों को बढ़ाने में ये नया क़ानून ज़रूर कारगर साबित हो सकता है। क्योंकि मौज़ूदा दौर में ज़मीन की गिरती क़ीमत से प्रॉपर्टी बाज़ार काफ़ी ठण्डा पड़ा हुआ है, जो देश की अर्थ-व्यवस्था के कमज़ोर होने का संकेत है। ऐसे में नया क़ानून उन मकान मालिकों को बल देगा, जो किरायेदारों की दुनिया में स्थापित है और जो स्तापित होने वाले हैं।
बताते चलें प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में मॉडल किरायेदारी अधिनियम के आशय के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी गयी है। इसके तहत सभी नये किराये के सम्बन्ध में लिखित समझौते की बात कही गयी है, जिसे सम्बन्धित ज़िला किराया प्रधिकार में पेश करना होगा। इस अधिनियम के तहत किरायेदारों को अधिकतम दो महीने का अग्रिम (एडवांस) किराया देना होगा। जबकि कॉमर्शियल सम्पत्ति के मामले में अधिकतम छ: महीने का अग्रिम किराया देना होगा। रखरखाव (मेंटीनेंस) और पानी-बिजली के बिल जैसे मामले आपसी सहमति पर ही निर्भर होंगे।
इस बारे में केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी का कहना है कि मकान मालिकों और किरायेदारों के बीच एक विश्वास स्थापित होगा, जिससे देश भर में आवासीय किराया सम्बन्धी क़ानूनी ढाँचे को व्यवस्थित करने में मदद मिलेगी। मॉडल किरायेदारी अधिनियम आगामी प्रभाव से लागू होगा और वर्तमान किरायेदारी व्यवस्था को प्रभावित नहीं करेगा।
इस नये क़ानून में सबसे अहम बात यह है कि इसके तहत प्रत्येक ज़िले में अलग किराया प्राधिकार, अदालत और न्यायाधिकरण का गठन किया जाएगा, जिससे मामलों को निपटाने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी। किराया और समय का निर्धारण मकान मालिक और किरायेदार की आपसी सहमति से ही होगा।
इस बारे में प्रॉपटी के जानकार हेमन्त कुमार प्रजापति ने बताया कि मौज़ूदा समय में महामारी और आर्थिक मंदी के चलते बाज़ार चौपट है। लोगों में एक भय है कि आगे क्या होगा? एक साल से अधिक समय हो गया है, महामारी के चलते बड़े-बड़े बिल्डरों का कारोबार ठप पड़ा है। ऐसे में अब ये नया क़ानून प्रॉपर्टी मालिकों को ताक़त देगा कि किरायेदार अब किरायेदार ही बनकर रहेंगे। नये क़ानून के आने से प्रॉपटीज में अपना पैसा लगाने वालों में ख़ुशी है; क्योंकि मकान के किराये का कारोबार भी किसी कार्पोरेट जगत से कम नहीं है। वर्तमान में शहरों में नहीं, बल्कि ज़िला स्तर और तहसील स्तर पर मकान, दुकान और मॉल सहित अन्य कार्पोरेट्स बड़े कारोबारी के रूप में उभरे हैं।
30 साल से प्रॉपर्टी का काम करने वाले इन्द्रजीत सिंह का कहना है कि नये क़ानून की क्या ज़रूरत थी? पहले भी कोई भी सम्पत्ति मालिक किरायानामा (रेंट एग्रीमेन्ट) और आपसी सहमति के बाद ही किसी के हवाले अपना मकान-दुकान करता था। कोई ज़ोर-जबदस्ती से न तो पहले किराये पर कोई मकान-दुकान ले-दे सकता था और न अब ले-दे सकता है। उनका कहना है कि सरकार ने नये क़ानून में ज़िला स्तर पर किराया प्राधिकार और अदालत और न्यायाधिकरण के गठन की बात कहीं है। इससे तो इतना ही होगा कि अधिक मामले अदालत तक जाएँगे, जबकि पहले आपसी सहमति से मामला न निपटने पर ही लोग अदालत जाते थे।
मकान मालिक सुदामा तिवारी का कहना है कि अभी तक मकान मालिक अपने जोखिम पर ही किराये पर मकान-दुकान देता था। कई बार दबंग लोग किराये पर रहते-रहते अपना अधिकार जमा लेते हैं। मकान-दुकान ख़ाली ही नहीं करते हैं। किराया तक देने में आनाकानी करने लगते हैं। जैसा कि अभी कोरोना-काल में लोग मकान-दुकान का किराया दिये बिना ही ख़ाली करके या ताले तक लगाकर चले गये हैं। ऐसे में न तो मालिक ताला तोड़ सकते हैं और न इसके लिए क़ानूनी कार्रवाई कर सकते हैं; क्योंकि अदालतें भी बन्द हैं। पुलिस के पचड़े में भी कोई मकान / दुकान मालिक नहीं पडऩा चाहता। जिसके चलते किरायेदार का मकान-दुकान पर क़ब्ज़ा-सा रहता है और यह भी उम्मीद नहीं रहती कि किराया मिलेगा भी या नहीं। अधिक समय तक रहने पर कई किरायेदार मकान-दुकान पर अपना अधिकार जताने लगते हैं। अब नये क़ानून आने से मकान मालिकों को राहत मिलेगी। किरायेदार प्रदीप कुमार का कहना है कि न तो सारे मकान मालिक एक जैसे सीधे होते हैं और न ही किरायेदार। अब नये किराये क़ानून आने से किरायेदारों के साथ-साथ मकान मालिकों की तानाशाही और मनमर्ज़ी पर रोक लगेगी। वे कभी बिजली-पानी के नाम पर, तो कभी साफ़-सफ़ाई के नाम पर किराये से अधिक वसूलते रहे हैं। अब लिखित में किरायेदारों और मकान मालिकों के बीच समझौता होने से पारदर्शिता आयेगी और उन लोगों के मंसूबे कामयाब नहीं होंगे, जो मकानों-दुकानों में क़ब्ज़ा करने की इच्छा से अचल सम्पत्ति को किराये पर लेते हैं।
एक किरायेदार शैलेंद्र ने कहा कि यह क़ानून मकान मालिकों के पक्ष में बना है, जो पहले से ही किरायेदारों का शोषण कर रहे हैं। अगर सही मायने में देखा जाए, तो किरायेदार ज़्यादातर ठगे जाते हैं, जिनके लिए कोई क़ानून लेकर नहीं आता। दिल्ली में छोटे-छोटे कमरों का किराया भी बहुत ज़्यादा होता है। उसके ऊपर से मकान मालिक पानी और बिजली के नाम पर मोटी कमायी करते हैं, जिसका उन पर दिल्ली में तो कोई ख़र्चा नहीं पड़ता। अधिकतर मकान मालिक किरायेदारों को हीनता की भावना से देखते हैं और अग्रिम किराया लेते हैं। कोई प्रमाण-पत्र उस पते पर नहीं बनवाने देते और अगर किसी किरायेदार का कोई मिलने-जुलने वाला, घर वाला या रिश्तेदार आ जाए, तो आपत्ति जताते हैं। इतना ही नहीं, पानी के उपयोग पर चिक-चिक करते हैं। अगर मकान या दुकान में कहीं कोई टूट-फूट हो जाए, तो किरायेदार को दोषी ठहराते हैं। शैलेंद्र ने बताया कि उनके एक जानकार दिल्ली में रहते हैं। तीन साल पहले वह लक्ष्मीनगर के एक मकान में रहते थे। उस मकान को लेने से पहले उन्हें दो महीने का अग्रिम किराया देना पड़ा। फिर उसमें पाबंदियाँ बहुत थीं। कोई आ नहीं सकता, रात को 10 बजे के बाद घर में नहीं घुस सकते। हर सप्ताह छत की सफ़ाई करनी है। बिजली का बिल 10 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से और पानी का 300 रुपये अलग से देना है। बड़ा वाहन नहीं रखना है। घर में शोर-शराबा नहीं करना है। तेज़ आवाज़ में रेडियो-टीवी नहीं चलाना है। अपने तल को, किचिन, बाथरूम को अच्छे स्तर के तरल (ल्यूकिड) से धोना है। यह सब सहते हुए उनके रिश्तेदार ने मेट्रो की सुविधा और बाज़ार नजदीक़ होने की वजह से ऊपरी तल (लास्ट फ्लोर) किराये पर ले लिया। एक दिन छत की चौहद्दी का पलास्तर किसी वजह से गिर गया, जिसके लिए मकान मालिक हमारे जानकार को दोषी ठहराने लगा और हर्ज़ाना माँगने लगा। झगड़े से बचने के लिए उन्होंने हर्ज़ाना तो भर दिया, लेकिन वहाँ से मकान ख़ाली कर दिया। उस मकान मालिक का दिमाग़ ख़राब क्यों था? क्योंकि लक्ष्मीनगर जैसी जगह पर किरायेदारों की कमी नहीं है। शायद यही वजह है कि दिल्ली जैसे शहर में ज़्यादातर मकान-दुकान मालिकों के दिमाग़ चौथे आसमान पर रहते हैं।
वहीं पहाडग़ंज निवासी मकान मालिक रंजीत ने बताया कि वह अपने किरायेदारों के साथ किसी तरह का दुव्र्यवहार नहीं करते। उनके मकान में दो कमरों के दो सेट हैं। पिछले लॉकडाउन में उनके दोनों किरायेदार अपने गाँव चले गये और अक्टूबर में लौटे। अभी भी उनका पूरा किराया नहीं मिला है, लेकिन उन्होंने कभी उनको तंग नहीं किया। बिजली बिल भी कई महीने का माफ़ कर दिया। वहीं मयूर विहार फेज-3 में किराये पर रहने वाली ज्योति ने बताया कि पिछले साल तालाबंदी (लॉकडाउन) में उनके पिता का काम पूरी तरह बन्द हो गया था, जो अभी तक ठीक से नहीं चल रहा है। लेकिन हमारे मकान मालिक ने एक दिन का भी किराया नहीं छोड़ा और बिजली-पानी का बिल भी नहीं छोड़ा। पिछले साल तीन महीने का किराया रुक जाने पर उसने हर रोज़ हम लोगों को तंग किया और बदतमीजी की। नये किराया क़ानून के बारे में पूछने पर ज्योति कहती हैं कि कोई भी सरकार किरायेदारों के हक़ में कभी काम नहीं करती है। यह क़ानून भी मकान मालिकों को ही फ़ायदा पहुँचाएगा।

अपराध-बोध

कुछ लोग अपनी नाकामी का भाँडा दूसरों पर फोड़कर ख़ुद को बचाने का प्रयास करते हैं। लेकिन ऐसा करने से न तो बहुत दिनों तक बचाव हो पाता है और न ही लम्बे समय तक सच्चाई छिप पाती है। अब तक राजनीति में यह खेल ख़ूब होता आया है। लेकिन अब मज़हबों में भी इस हथियार का इस्तेमाल कुछ कट्टरपंथी लोग करने लगे हैं। क्योंकि उनके पास नफ़रतें फैलाने का यही एकमात्र हथियार रह गया है।
एक दौर था, जब लोग एक-दूसरे के मज़हबों और उनके अनुयायियों को सम्मान देते थे। आज भी ऐसे अनेक लोग हैं, जो नफ़रत की आग में घी डालने की पूरी कोशिश में लगे हैं। नफ़रत की आग लगाकर उसमें घी डालने वाले ये लोग ऐसे लोगों से भी नफ़रत करते हैं, जो सच बोलते हैं; चाहे वे उनके अपने क़रीबी अथवा कुलीन क्यों न हों। हाल यह है कि अगर कोई मानवता और एकता की बात करे, तो अलग-अलग मज़हबों को मानने वालों के बीच नफ़रत फैलाने वाले लोग उनसे बेवजह या कहें कि जबरदस्ती की दुश्मनी करने लगते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया पर यह ख़ूब हो रहा है। एक तबक़ा विशेष नफ़रती अभियान चलाने में इतना मशगूल है कि उसे मोहब्बत-ओ-अख़लाक़ की बात करने वाले, कोरोना वायरस के पीडि़तों की जान बचाने वाले और इंसानियत की बात करने वाले अपने ही मज़हब के लोग दुश्मन और देशद्रोही दिखायी दे रहे हैं। हैरत होती है, जब ऐसे लोग ख़ुद को सच्चा देशभक्त, जन-हितैषी और समाज तथा मज़हब का रक्षक कहते हैं। ऐसे लोगों के हाथ से ख़ून-ख़राबा भी होता है, तो वे इसे अपना परम् कर्तव्य और धर्म-पुण्य का काम मानते हैं। वहीं दूसरा व्यक्ति सही मायने में इंसानियत का काम करता है, तो उसे ग़लत और अधर्मी ठहराते हैं। ख़ैर ऐसे लोगों की वजह से दुनिया नहीं चलती, दुनिया प्यार और व्यवहार से ही चलती है, जहाँ सभी मज़हबों के लोगों को एक साथ मिलकर एक-दूसरे के हितों को ध्यान में रखकर काम करना होता है। इन दिनों देश भर में फैले कोरोना वायरस के चलते न जाने कितने ही लोगों की जान चली गयी। लेकिन इस महामारी से लाखों लोगों ने कई शिक्षाएँ लीं, जिनमें तीन प्रमुख हैं। एक- प्रकृति से खिलवाड़ मत करो और उसे हरा-भरा रखो। दो- ज़िन्दगी बहुत बहुमूल्य है; इसलिए किसी की जान मत लो। और तीन- नफ़रतों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है; इसलिए मोहब्बत
से जीओ और दूसरों को जीने दो।
इसमें एक सीख कि नफ़रत से कुछ हासिल नहीं होगा; का एक उदाहरण इस बार मेरी नज़र में स्पष्ट तौर पर आया। जिसमें एक मज़हब विशेष का युवक, जो कि पिछले पाँच-छ: साल से सोशल मीडिया पर चलने वाले नफ़रत के विश्वविद्यायल का हिस्सा था; अब नफ़रतों की जगह मोहब्बत बाँट रहा है और लोगों से हाथ जोड़कर कहता फिर रहा है कि हम नफ़रत करके बहुत दिनों तक ज़िन्दा नहीं रह सकते, इसलिए किसी से भी नफ़रत मत करो।
इस युवक में इतना बड़ा परिवर्तन ऐसे ही नहीं आया। इसने कोरोना वायरस नाम की महामारी में अपने पिता को खोया है। वास्तव में युवक में इस बात से भी परिवर्तन नहीं आया होता, अगर उसके पिता को उसके कुलीनों, उसके मज़हब के पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने काँधा दिया होता। उत्तर प्रदेश के रहने वाले इस युवक के दिल में इंसानियत तब घर कर गयी, जब उसे अकेला पाकर उसके पिता को काँधा देने के लिए दूसरे मज़हब के लोग तन से ही नहीं, मन और धन से भी आगे आये। पिता के अन्तिम संस्कार के बाद से इस युवक ने दूसरे मज़हब के इन लोगों से ऐसा रिश्ता क़ायम किया है, मानो वे उसके सगे-सम्बन्धी हों। आज इस युवक से बात करने पर यही सुनने को मिलता है कि दूसरे मज़हब के लोगों को कोसना, उनसे नफ़रत करना हमारा पागलनपन है, और कुछ नहीं।
देर से और अपने पिता को खोकर इस युवक को नफ़रत बाँटने का अपराध-बोध हुआ और यह बात समझ में आयी; लेकिन आयी तो सही। कई लोगों को इतनी छोटी बात जीवन भर समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि इस तरह नफ़रत करने वाले लोग एक ही मज़हब में हैं। पूरी दुनिया में हर मज़हब में इस तरह के लोगों का हुर्ज़म है। ऐसे लोगों की वजह से अच्छी सोच के लोग भी परेशानी में आ जाते हैं। फिर भी अगर कोई जीवन में नफ़रत करना छोड़कर मोहब्बत बाँटता है, तो उसे लोग भी मुआफ़ कर देते हैं और शायद ईश्वर भी। मज़हबी किताबों में यह बात कही गयी है कि दूसरों से प्रेम करो और ईश्वर की शरण में जाओ। मज़हबों के हिसाब से ऐसा माना जाता रहा है कि पापी-से-पापी भी अगर जीवन के किसी मोड़ पर लोगों और दूसरे जीवों से दया, प्रेम और करुणा करने लगता है और ईश्वर की शरण में चला जाता है, तो उसे ईश्वर क्षमा कर देता है। लेकिन मज़हब के नाम पर कट्टरता की अफीम खाकर कुछ लोग यह बात आजीवन नहीं समझते और दूसरों को दु:ख पहुँचाने, उनका जीवन ख़राब करने के साथ-साथ अपना भी लोक-परलोक ख़राब कर लेते हैं। मैंने अपने जीवन में कई ऐसे लोगों की अन्त में बुरी दशा होते देखी है, जिन्होंने आजीवन दूसरों की राह में काँटे बोये; दूसरों को नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से देखा। अन्त में उन्हें लोगों ने नफ़रत ही वापस की और जीवन के बाद भी धिक्कारते दिखे। क्या फ़ायदा ऐसे जीवन का? वहीं अच्छाई करने वालों के लिए उनके जाने के बाद ग़ैरों के भी आँसू निकलते देखे गये।
एक विद्वान ने अच्छे और बुरे लोगों की परिभाषा बड़े संक्षिप्त में इस तरह कही- ‘जिसकी पीठ पीछे अच्छाई ज़्यादा लोग करें, वह अच्छा ज़्यादा है; और जिसकी पीठ पीछे बुराई ज़्यादा लोग करें, वह बुरा ज़्यादा है।’ यह बात छोटी है, लेकिन सच्ची है।