अपराध-बोध

कुछ लोग अपनी नाकामी का भाँडा दूसरों पर फोड़कर ख़ुद को बचाने का प्रयास करते हैं। लेकिन ऐसा करने से न तो बहुत दिनों तक बचाव हो पाता है और न ही लम्बे समय तक सच्चाई छिप पाती है। अब तक राजनीति में यह खेल ख़ूब होता आया है। लेकिन अब मज़हबों में भी इस हथियार का इस्तेमाल कुछ कट्टरपंथी लोग करने लगे हैं। क्योंकि उनके पास नफ़रतें फैलाने का यही एकमात्र हथियार रह गया है।
एक दौर था, जब लोग एक-दूसरे के मज़हबों और उनके अनुयायियों को सम्मान देते थे। आज भी ऐसे अनेक लोग हैं, जो नफ़रत की आग में घी डालने की पूरी कोशिश में लगे हैं। नफ़रत की आग लगाकर उसमें घी डालने वाले ये लोग ऐसे लोगों से भी नफ़रत करते हैं, जो सच बोलते हैं; चाहे वे उनके अपने क़रीबी अथवा कुलीन क्यों न हों। हाल यह है कि अगर कोई मानवता और एकता की बात करे, तो अलग-अलग मज़हबों को मानने वालों के बीच नफ़रत फैलाने वाले लोग उनसे बेवजह या कहें कि जबरदस्ती की दुश्मनी करने लगते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया पर यह ख़ूब हो रहा है। एक तबक़ा विशेष नफ़रती अभियान चलाने में इतना मशगूल है कि उसे मोहब्बत-ओ-अख़लाक़ की बात करने वाले, कोरोना वायरस के पीडि़तों की जान बचाने वाले और इंसानियत की बात करने वाले अपने ही मज़हब के लोग दुश्मन और देशद्रोही दिखायी दे रहे हैं। हैरत होती है, जब ऐसे लोग ख़ुद को सच्चा देशभक्त, जन-हितैषी और समाज तथा मज़हब का रक्षक कहते हैं। ऐसे लोगों के हाथ से ख़ून-ख़राबा भी होता है, तो वे इसे अपना परम् कर्तव्य और धर्म-पुण्य का काम मानते हैं। वहीं दूसरा व्यक्ति सही मायने में इंसानियत का काम करता है, तो उसे ग़लत और अधर्मी ठहराते हैं। ख़ैर ऐसे लोगों की वजह से दुनिया नहीं चलती, दुनिया प्यार और व्यवहार से ही चलती है, जहाँ सभी मज़हबों के लोगों को एक साथ मिलकर एक-दूसरे के हितों को ध्यान में रखकर काम करना होता है। इन दिनों देश भर में फैले कोरोना वायरस के चलते न जाने कितने ही लोगों की जान चली गयी। लेकिन इस महामारी से लाखों लोगों ने कई शिक्षाएँ लीं, जिनमें तीन प्रमुख हैं। एक- प्रकृति से खिलवाड़ मत करो और उसे हरा-भरा रखो। दो- ज़िन्दगी बहुत बहुमूल्य है; इसलिए किसी की जान मत लो। और तीन- नफ़रतों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है; इसलिए मोहब्बत
से जीओ और दूसरों को जीने दो।
इसमें एक सीख कि नफ़रत से कुछ हासिल नहीं होगा; का एक उदाहरण इस बार मेरी नज़र में स्पष्ट तौर पर आया। जिसमें एक मज़हब विशेष का युवक, जो कि पिछले पाँच-छ: साल से सोशल मीडिया पर चलने वाले नफ़रत के विश्वविद्यायल का हिस्सा था; अब नफ़रतों की जगह मोहब्बत बाँट रहा है और लोगों से हाथ जोड़कर कहता फिर रहा है कि हम नफ़रत करके बहुत दिनों तक ज़िन्दा नहीं रह सकते, इसलिए किसी से भी नफ़रत मत करो।
इस युवक में इतना बड़ा परिवर्तन ऐसे ही नहीं आया। इसने कोरोना वायरस नाम की महामारी में अपने पिता को खोया है। वास्तव में युवक में इस बात से भी परिवर्तन नहीं आया होता, अगर उसके पिता को उसके कुलीनों, उसके मज़हब के पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने काँधा दिया होता। उत्तर प्रदेश के रहने वाले इस युवक के दिल में इंसानियत तब घर कर गयी, जब उसे अकेला पाकर उसके पिता को काँधा देने के लिए दूसरे मज़हब के लोग तन से ही नहीं, मन और धन से भी आगे आये। पिता के अन्तिम संस्कार के बाद से इस युवक ने दूसरे मज़हब के इन लोगों से ऐसा रिश्ता क़ायम किया है, मानो वे उसके सगे-सम्बन्धी हों। आज इस युवक से बात करने पर यही सुनने को मिलता है कि दूसरे मज़हब के लोगों को कोसना, उनसे नफ़रत करना हमारा पागलनपन है, और कुछ नहीं।
देर से और अपने पिता को खोकर इस युवक को नफ़रत बाँटने का अपराध-बोध हुआ और यह बात समझ में आयी; लेकिन आयी तो सही। कई लोगों को इतनी छोटी बात जीवन भर समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि इस तरह नफ़रत करने वाले लोग एक ही मज़हब में हैं। पूरी दुनिया में हर मज़हब में इस तरह के लोगों का हुर्ज़म है। ऐसे लोगों की वजह से अच्छी सोच के लोग भी परेशानी में आ जाते हैं। फिर भी अगर कोई जीवन में नफ़रत करना छोड़कर मोहब्बत बाँटता है, तो उसे लोग भी मुआफ़ कर देते हैं और शायद ईश्वर भी। मज़हबी किताबों में यह बात कही गयी है कि दूसरों से प्रेम करो और ईश्वर की शरण में जाओ। मज़हबों के हिसाब से ऐसा माना जाता रहा है कि पापी-से-पापी भी अगर जीवन के किसी मोड़ पर लोगों और दूसरे जीवों से दया, प्रेम और करुणा करने लगता है और ईश्वर की शरण में चला जाता है, तो उसे ईश्वर क्षमा कर देता है। लेकिन मज़हब के नाम पर कट्टरता की अफीम खाकर कुछ लोग यह बात आजीवन नहीं समझते और दूसरों को दु:ख पहुँचाने, उनका जीवन ख़राब करने के साथ-साथ अपना भी लोक-परलोक ख़राब कर लेते हैं। मैंने अपने जीवन में कई ऐसे लोगों की अन्त में बुरी दशा होते देखी है, जिन्होंने आजीवन दूसरों की राह में काँटे बोये; दूसरों को नफ़रत और हिक़ारत की नज़र से देखा। अन्त में उन्हें लोगों ने नफ़रत ही वापस की और जीवन के बाद भी धिक्कारते दिखे। क्या फ़ायदा ऐसे जीवन का? वहीं अच्छाई करने वालों के लिए उनके जाने के बाद ग़ैरों के भी आँसू निकलते देखे गये।
एक विद्वान ने अच्छे और बुरे लोगों की परिभाषा बड़े संक्षिप्त में इस तरह कही- ‘जिसकी पीठ पीछे अच्छाई ज़्यादा लोग करें, वह अच्छा ज़्यादा है; और जिसकी पीठ पीछे बुराई ज़्यादा लोग करें, वह बुरा ज़्यादा है।’ यह बात छोटी है, लेकिन सच्ची है।