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यासीन मलिक को उम्र क़ैद

कश्मीर में और सिकुड़ गयी अलगाववादी राजनीति की गली

जब दिल्ली की एनआईए अदालत 25 मई को जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख यासीन मलिक को दी जाने वाली सज़ा पर विचार कर रही थी, कश्मीर में यासीन मलिक के गृह क्षेत्र मैसूमा सहित श्रीनगर के कुछ हिस्सों में नाराज़गी पसर रही थी। नाराज़गी की हद यह थी कि वहाँ के बाज़ार तुरन्त बन्द हो गये। टेरर फंडिंग मामले में अदालत द्वारा यासीन मलिक को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाये जाने के बाद विरोध-प्रदर्शन जारी रहे। यासीन मलिक के गृह क्षेत्र मैसूबा में उसके समर्थकों ने हिंसक प्रदर्शन के अलावा पथराव भी किया, जिसके बाद पुलिस ने 10 लोगों को हिरासत में भी लिया। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आँसू गैस के गोले भी छोड़े। हालाँकि अगले दिन लोगों का ग़ुस्सा कुछ कम हो गया। इसकी वजह शायद यह रही होगी, क्योंकि उम्र क़ैद (आजीवन कारावास) को आमतौर पर मौत की सज़ा के मुक़ाबले कम माना जाता है और इसे उच्च न्यायालयों में भी चुनौती दी जा सकती है। यह सम्भावना रहती है कि हो सकता है कि वहाँ यह सज़ा कम हो जाए। बता दें कि उम्र क़ैद की सज़ा के अलावा यासीन पर 10 लाख का ज़ुर्माना भी लगाया गया है। हालाँकि यासीन को पहले मौत की सज़ा मिलने पर चर्चा चल रही थी; लेकिन उसके आचरण और गुनाह क़ुबूल करने की जेल की रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने उसे फाँसी की जगह उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी।

यासीन मलिक की भूमिका

कश्मीर मे यासीन मलिक की छवि एक शीर्ष अलगाववादी नेता की रही है। यासीन मलिक को शीर्ष अलगाववादी नेताओं- मीरवाइज़ उमर फारूक और सैयद अली गिलानी के साथ अलगाववादी तिकड़ी के नेताओं में गिना जाता है। बता दें कि गिलानी का पिछले साल सितंबर में निधन हो गया था। वह पूरी घाटी में एक व्यापक लोकप्रियता वाले अलगाववादी नेता रहे। लेकिन अन्य दो नेताओं के विपरीत यासीन मलिक को सन् 1989 में उग्रवादी संघर्ष के मुख्य कर्ताधर्ताओं में एक माना जाता है, और तबसे लेकर अब तक वह कश्मीर में आजादी के अभियान के केंद्र में है। यासीन मलिक ने अपने प्रमुख सहयोगियों- जावेद मीर, अशफाक मजीद वानी और अब्दुल हमीद शेख़ के साथ सन् 1989 में कश्मीर में सशस्त्र अभियान शुरू किया था। इनमें से आख़िरी दो की मौत हो चुकी है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में यासीन मलिक की प्रासंगिकता हमेशा से रही है, और शायद वहाँ के लोगों में उसकी प्रासंगिकता रहे भी। ऐसे में उम्र क़ैद की सज़ा केवल कश्मीरी अलगाववादी आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में यासीन के क़द को ही बढ़ाएगी। इस प्रकार यासीन की उम्र क़ैद की सज़ा कश्मीरियों के बीच शिकायत का एक स्थायी स्रोत रहेगा, जो कश्मीर की आज़ादी की उनकी भावना के लिए एक तरह से ईंधन का ही काम करेगा।

यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक है कि मलिक अलगाववादी आन्दोलन का सबसे प्रमुख धर्मनिरपेक्ष चेहरा रहे हैं और अतीत में पश्चिम को भी स्वीकार्य रहे हैं। इसलिए नई दिल्ली के लिए यासीन पर धार्मिक लेबल लगाकर उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना कठिन होगा कि वह कश्मीर को एक इस्लामिक राज्य बनाना चाहता है।

जहाँ तक कश्मीर में आतंकी अभियान का सवाल है, तो मलिक को उम्र क़ैद से उस पर कोई ख़ास असर पडऩे की सम्भावना नहीं लगती, क्योंकि वहाँ कई कारण ऐसे भी हैं, जिनके चलते आतंकी अभियानों के जारी रहने की आशंका है।
बता दें कि यासीन मलिक ने सन् 1994 में हथियार छोड़ दिये थे और शान्तिपूर्ण राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए गाँधीवादी अहिंसक तरीकों का पालन करने का फ़ैसला किया था।

एक उग्रवादी संगठन से जेकेएलएफ एक राजनीतिक संगठन बन गया। यद्यपि हुर्रियत की तरह मलिक ने भी चुनावी राजनीति से दूरी रखी। मलिक को अपने इस फ़ैसले से अकसर उन उग्रवादियों से आलोचना झेलनी पड़ी, जिन्होंने गाँधीवादी सिद्धांतों का पालन करने के लिए उस पर (मलिक पर) ताने कसे थे।

पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेताओं के समूह के बीच यासीन मलिक कश्मीर में एकमात्र प्रमुख स्वतंत्रता-समर्थक नेता है। वह क्रमश: मीरवाइज़ और दिवंगत गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत गठबंधन का हिस्सा भी नहीं है। लेकिन सन् 2016 में लोकप्रिय हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद अचानक तीनों को एक सामान्य कारण के लिए साथ आने को मजबूर होना पड़ा।

यासीन का पत्र

सन् 2020 में कश्मीर में स्थानीय मीडिया को एक पत्र जारी किया गया था, जिसमें यासीन ने उन कारणों का ज़िक्र किया था, जिनके चलते उन्हें बंदूक उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था- ‘मैंने 1987 (विधानसभा) के चुनाव में इस उम्मीद के साथ सक्रिय रूप से भाग लिया कि चुनावी प्रक्रिया से कश्मीर विवाद का समाधान हो जाएगा। लेकिन गिरफ़्तारी शुरू हो गयी और मुझे मतगणना हॉल से गिरफ़्तार कर लिया गया।’

मलिक ने इस पत्र में लिखा- ‘मुझे एक पूछताछ केंद्र भेजा गया। यातना दी गयी, जिससे मुझे ख़ून से सम्बन्धित संक्रमण हो गया। मैं पुलिस अस्पताल में था, जहाँ मुझे क्षतिग्रस्त हृदय वाल्व का पता चला था। मुझे और सैकड़ों सदस्यों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था। जेल से छूटने के बाद हमें य$कीन हो गया कि यहाँ अहिंसक लोकतांत्रिक राजनीतिक आन्दोलन के लिए कोई जगह नहीं है।’

सन् 1994 में हथियार छोडऩे के अपने फ़ैसले के बारे में लिखते हुए मलिक ने इस पत्र में कहा था- ‘ऐसा करना आसान नहीं था। यह वास्तव में एक सबसे ख़तरनाक और अलोकप्रिय निर्णय था। कई लोगों ने मुझे देशद्रोही घोषित कर दिया। जब कुछ उग्रवादियों ने मुझे अगवा कर लिया तो मैं चमत्कारिक रूप से अपनी जान बचाने में सफल रहा। मेरे कई सहयोगियों ने अपनी जान गँवायी। लेकिन मैं और जेकेएलएफ के सदस्य अपने फ़ैसले पर अडिग रहे और सभी बाधाओं के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष का रास्ता अपनाया।’

अलगाववाद की स्थिति

अब नयी योजना में जहाँ केंद्र ने घाटी के मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व जैसे $फारूक़ अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती को छोड़ दिया है, जो दोनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री हैं; मलिक और मीरवाइज़ जैसे अलगाववादी नेताओं को पूरी तरह से दूर किया जा रहा है। कश्मीर से निपटने के लिए नयी रणनीति के निकट और दीर्घकालिक राजनीतिक नतीजों का अनुमान लगाना जल्दबाज़ी होगी। लेकिन एक बात तय है कि इस नयी रणनीति के बाद अलगाववादी राजनीतिक नेताओं के लिए घाटी में जगह और सिकुड़ गयी है। सवाल यह है कि इस घटना से क्या कशमीर में अलगाववाद की कमर टूटेगी?

चिन्तन में कांग्रेस

संगठन को सक्रिय करने के लिए चिन्तन शिविर के फ़ैसलों पर बनी अमल की रणनीति

इसे कांग्रेस की त्रासदी ही कहेंगे कि जब उसके नेता चिन्तन शिविर में पार्टी को फिर से खड़ा करने और भविष्य की योजना बनाने की क़वायद कर रहे थे, उसके तीन बड़े नेताओं ने पार्टी को अलविदा कह दिया।
ऐसे मौक़े पर वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल, पंजाब में पार्टी के अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ और गुजरात के हार्दिक पटेल के पार्टी छोडऩे से निश्चित ही कांग्रेस की फ़ज़ीहत हुई है। इसके बावजूद कांग्रेस ने आने वाले समय के लिए देशव्यापी पद यात्रा और सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ आन्दोलन की जो रूप रेखा गढ़ी है, उससे कम-से-कम यह तो होगा कि पार्टी के नेता घरों से निकलकर लोगों के बीच जाएँगे और सरकार के ख़िलाफ़ एक माहौल बनाने की शुरुआत होगी, जिसकी ज़रूरत सारा विपक्ष महसूस कर रहा है। इसके अलावा पार्टी की योजना राष्ट्रीय चिन्तन शिविर की तर्ज पर राज्य स्तरीय नेताओं के लिए भी शिविर आयोजित करने की, ताकि कार्यकर्ताओं को देशव्यापी कार्यक्रम के लिए तैयार किया जा सके। राहुल गाँधी ने अपने भाषण में जब यह कहा कि जनता से हमारा सम्पर्क टूट गया है, तो नेताओं के चेहरे पर चिन्ता के भाव पढ़े जा सकते थे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल ने साफ़ तरीक़े से बात की और पार्टी की प्रमुख कमज़ोरियों को बेझिझक सामने रखा।

हाल के वर्षों में कांग्रेस ने सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ जो भी कार्यक्रम किये हैं, वह छिटपुट ही रहे हैं। कोई देशव्यापी आन्दोलन उसने नहीं किया, जबकि वह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसा नहीं कि विपक्ष के अन्य दल किसी आन्दोलन के लिए कांग्रेस पर निर्भर रहे हैं; लेकिन कांग्रेस ने लगातार विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद ख़ुद के लिए भी इस तरह की ज़हमत नहीं की। विपक्ष की बड़ी पार्टियों टीएमसी आदि को देखें, तो कांग्रेस के साथ भाजपा विरोधी मज़बूत फ्रंट बनाने में उसकी दिलचस्पी नहीं रही है।

ग़ैर-कांग्रेस विपक्षी दलों को यह भी लगता है कि कांग्रेस के मज़बूत होने से उनकी सत्ता वाले राज्यों में क्षेत्रीय दलों का ही नुक़सान होगा। भाजपा जहाँ मज़बूत है, वहाँ कांग्रेस मुख्य विपक्ष है या फिर क्षेत्रीय दल हैं। क्षेत्रीय दल अपना यह स्पेस किसी सूरत में कांग्रेस को नहीं देना चाहते। या फिर उसे कुछ सीटें देकर देकर अपने साथ जोडऩा चाहते हैं, ताकि वह उनके लिए ख़तरा न बने। यही कारण है कांग्रेस के थिंक टैंक को लगता है कि क्षेत्रीय दलों के पिछलग्गू बनने से ज़्यादा बेहतर है कि पार्टी को ज़मीन पर फिर से खड़ा किया जाए भले इसमें कुछ समय लग जाए।

यह इस बात से ज़ाहिर होता है कि पार्टी के नेता राहुल गाँधी ने चिन्तन शिविर के अपने भाषण में क्षेत्रीय दलों को विचारधारा-विहीन दल कहा। राहुल का कहना था कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही भाजपा का मुक़ाबला कर सकती है और वहीं उसका विकल्प है। कांग्रेस राज्यों में कमज़ोर हो चुकी है, पार्टी यह समझ रही है। चिन्तन शिविर में वरिष्ठ पार्टी नेताओं के भाषणों से यह साफ़ ज़ाहिर होता है। लेकिन अभी भी कांग्रेस इस स्थिति से बाहर आने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बुन पायी है। उसके वरिष्ठ नेता, असन्तुष्ट नेता और कार्यकर्ता भी, नेता कौन हो? इसमें ही उलझे हुए हैं। भाजपा ने अपने सोशल मीडिया अभियानों से कांग्रेस के छोटे-से-छोटे कार्यकर्ता तक के मन में यह भर दिया है कि राहुल गाँधी उसकी नैया पार नहीं लगा सकते या कांग्रेस के पास नेतृत्व का अकाल है।

भाजपा का अभियान इतना आक्रामक और सधा हुआ रहा कि उसने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार को प्रियंका गाँधी की नाकामी से जोड़ दिया था, जिन्होंने पार्टी के विधानसभा चुनाव अभियान को एक तरह अपने बूते चलाया था। वास्तव में यह सही नहीं है। कांग्रेस के पास नेतृत्व से ज़्यादा आज की तारीख़ में राजनीति और हौसले की कमी है। वह उस दिशा में चल रही है, जहाँ भाजपा उसे ले जाना चाहती है। कांग्रेस के कुछ नेता यह समझते हैं; लेकिन वह इस पर काम नहीं कर पा रहे।

ख़ुद राहुल गाँधी, जो मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कांग्रेस में सबसे ज़्यादा मुखर नेता हैं; अपने तौर पर पार्टी का नेतृत्व सँभालकर भाजपा और एनडीए सरकार के ख़िलाफ़ आक्रामक अभियान शुरू नहीं कर पाये। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की हार और कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की टिप्पणियों से वो आहत हुए थे, लिहाज़ा उन्होंने अपने पाँव पीछे खींच लिये।

कांग्रेस के एक सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘एक नेता को भावनात्मक नहीं होना चाहिए। पार्टी को उन पर भरोसा था। लेकिन हार के बाद उनके इस्तीफ़े से यह सन्देश गया कि राहुल गाँधी ने हार मान ली। सच्चाई यह नहीं थी। सच यह था कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के असहयोग वाले रवैये और चुनाव में पार्टी की हार पर टिप्पणियों से राहुल नाराज़ थे। हम आज भी मानते हैं कि नरेंद्र मोदी के बाद राहुल गाँधी ही सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उन्हें पार्टी का नेतृत्व सँभालकर भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा अभियान शुरू करना चाहिए। पार्टी के चिन्तन शिविर में नेताओं के भाषणों से यह तो ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस की दुर्दशा से वे चिन्तित हैं।’

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, शिविर में राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी के साथ भीतरी बैठकों में विभिन्न मुद्दों को लेकर बनाये गये ग्रुप्स के नेताओं ने पार्टी के रोडमैप को लेकर बातचीत की है। संगठन को मज़बूत करने पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। इसमें कहा गया कि राज्यों में पार्टी का आधार बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। यूपीए के अपने घटक जिन राज्यों में सत्ता में हैं, वहाँ भी पार्टी संगठन का नेतृत्व ऐसे नेताओं को देने पर ज़ोर दिया गया है, जो आक्रमक हों और पार्टी की नीतियों से गहरे से जुड़े हों।

कांग्रेस ने राज्यों में हाल में कुछ परिवर्तन किये हैं और नये अध्यक्षों की नियुक्ति की है। हालाँकि राष्ट्रीय स्तर पर बड़े फेरबदल का इंतज़ार है। सँभावना है कि नया पार्टी अध्यक्ष ही यह करेगा। तामिलनाडु / झारखण्ड जैसे जिन राज्यों में कांग्रेस सहयोगियों के साथ सरकार में है, वहाँ भी पार्टी मज़बूत नेतृत्व लाना चाहती है।

पार्टी के कुछ नेताओं को लगता है कि ऐसे राज्य जहाँ यूपीए के सहयोगी दलों की सरकारें हैं, उन्हें नहीं छेडऩा चाहिए। लेकिन पार्टी के एक बड़े धड़े का कहना है कि सभी राज्यों में अपने अस्तित्व को मज़बूत करना ज़रूरी है। यहाँ तक कि राहुल गाँधी भी मानते हैं कि यूपीए वाले राज्यों में सहयोगियों को नाराज़ किये बिना उनमें भी कांग्रेस को मज़बूत किया जाना ज़रूरी है।

चिन्तन शिविर के फ़ैसले

उदयपुर के चिन्तन शिविर में इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए रणनीति पर चर्चा की गयी। कुछ बड़े फ़ैसले भी पार्टी ने किये। कांग्रेस अध्यक्ष के लिए ‘सलाहकार समिति’, पार्टी में आंतरिक सुधार के लिए ‘टास्क फोर्स’ का गठन, गाँधी जयंती से ‘भारत जोड़ो’ पदयात्रा इनमें शामिल हैं। इसके अलावा पार्टी 15 जून से ज़िला स्तर के जन जागरण अभियान का दूसरा चरण शुरू करेगी। इसमें देश के आर्थिक मुद्दों को जनता के सामने लाया जाएगा। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कहा भी कि ‘हमारी यह प्रतिबद्धता है। कांग्रेस का नया उदय होगा। यह हमारा नवसंकल्प है।’

पार्टी ने जो एक और बड़ा फ़ैसला किया वह है ‘एक परिवार-एक टिकट’ का फॉर्मूला। पार्टी ने यह भी शर्त रखी है कि चुनाव लडऩे के इच्छुक परिवार के किसी अन्य सदस्य को टिकट तब मिलेगा, जब उसने कम-से-कम पाँच साल पार्टी के लिए काफ़ी काम किया हो। निश्चित ही इस फ़ैसले से गाँधी परिवार, जिसमें सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी पहले ही लोकसभा सदस्य हैं; के अलावा प्रियंका गाँधी का चुनाव लडऩे का रास्ता खुल जाएगा। प्रियंका सक्रिय राजनीति में सन् 2019 से हैं और 2024 तक उन्हें पाँच साल हो जाएँगे।
यह माना जाता है कि यदि सोनिया गाँधी अगला लोकसभा चुनाव नहीं लड़ती हैं, तो प्रियंका उनकी रायबरेली सीट से लड़ेंगी। वैसे हाल के दिनों में प्रियंका को राज्यसभा भेजने की बात भी होती रही है। कोई भी नेता किसी एक पद पर पाँच वर्ष से अधिक समय तक नहीं रहेगा। कार्यकाल समाप्त होने के बाद पदाधिकारियों को अपने पद से ख़ुद इस्तीफ़ा देना होगा।

इस निर्णय के पीछे यह सन्देश देने की कोशिश है कि पार्टी के नेता पद का लालच नहीं करते। कांग्रेस ने चिन्तन शिविर में समाज के कमज़ोर और उत्पीडि़त वर्गों का विश्वास जीतने के सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लेने का भी फ़ैसला किया है। इसके तहत संगठन के सभी स्तरों पर एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यकों को 50 फ़ीसदी प्रतिनिधित्व मिलेगा। साथ ही 50 वर्ष से कम आयु वालों के लिए पार्टी समितियों में 50 फ़ीसदी पद आरक्षित होंगे। ज़ाहिर है कांग्रेस भविष्य का नेतृत्व तैयार करने की तैयारी कर रही है। यह फार्मूला टिकट बँटवारे में भी लागू होगा। किसान आन्दोलन हाल तक भाजपा के लिए मुसीबत का कारण रहा है। यही कारण है कि भाजपा सरकार ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले ही योजनावद्ध तरीक़े से यह आन्दोलन ख़त्म करवा दिया था। यह अलग बात है कि किसानों की कुछ बड़ी माँगें फिर भी पूरी नहीं हुईं। अब कांग्रेस ने चिन्तन शिविर में यह फ़ैसला किया है कि जब वह सत्ता में वापस आएगी, तो किसानों के लिए एमएसपी को क़ानूनी गारंटी देगी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कांग्रेस और राहुल गाँधी दोनों किसानों की बात मज़बूती से करते रहे हैं। रोज़गार भी राहुल गाँधी का प्रिय विषय रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस ने अगले चुनावों में बेरोज़गारी को एक प्रमुख मुद्दा बनाने का फ़ैसला किया है।

मज़बूत होगा संगठन

शिविर में संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस की निर्णायक भूमिका तैयार करने के लिए जो मंथन हुआ, उसके बाद निश्चित ही जी-23 जैसे पार्टी के असन्तुष्ट भी ख़ामोश हो गये हैं। पार्टी अब अगले 90 से 180 दिन में देश भर में ब्लॉक, ज़िला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर सभी ख़ाली नियुक्तियों को भरकर जवाबदेही सुनिश्चित करेगी। सोनिया गाँधी से लेकर राहुल तक ने कहा कि संगठन और कांग्रेस के ज़मीनी कार्यकर्ता ही पार्टी की असली ताक़त हैं। संगठन मज़बूत करने के लिए ब्लॉक कांग्रेस के साथ-साथ मंडल कांग्रेस कमेटियों का भी गठन होगा। कांग्रेस में अभी तक मंडल समितियाँ नहीं होती थीं।

कांग्रेस संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर तीन नये विभागों का भी गठन करने जा रही है। इनमें पब्लिक इनसाइट डिपार्टमेंट अलग-अलग विषयों पर जनता के विचार जानने और नीति निर्धारण के लिए पार्टी नेतृत्व को फीडबैक देगा। दूसरा राष्ट्रीय ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट है, जो पार्टी की नीतियों, विचारधारा, दृष्टि, सरकार की नीतियों और मौज़ूदा ज्वलंत मुद्दों पर पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के व्यापक प्रशिक्षण की व्यवस्था करेगा। केरल स्थित राजीव गाँधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज से इस राष्ट्रीय ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट की शुरुआत होगी। तीसरा एआईसीसी स्तर पर इलेक्शन मैनेजमेंट डिपार्टमेंट होगा, जो हर चुनाव की तैयारी प्रभावशाली तरीक़े से कराने और अपेक्षित नतीजे दिला सकने की ज़िम्मेदारी लेगा।

कांग्रेस सभी पदाधिकारियों के प्रदर्शन की निगरानी के लिए एक मूल्यांकन विंग गठित करेगी। अब एआईसीसी के महासचिव (संगठन) के तहत अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी, प्रदेश कांग्रेस कमेटी, ज़िला कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारियों के कार्य का मूल्यांकन होगा, ताकि बेहतर काम करने वाले पदाधिकारियों को आगे बढऩे का मौक़ा मिले और निष्क्रिय पदाधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके। कांग्रेस का मुख्य राजनीतिक आक्रमण भाजपा-आरएसएस की विचारधारा पर रहेगा। साथ ही पार्टी भाजपा के छद्म राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद का अन्तर जनता को समझाएगी।
कांग्रेस उत्तर-पूर्व राज्यों पर ख़ास ध्यान देगी, जो एक दशक पहले तक कांग्रेस के मज़बूत समर्थक रहे हैं। इसके लिए वहाँ के सात राज्यों के लिए ‘नॉर्थ ईस्ट को-ऑर्डिनेशन कमेटी’ के अध्यक्ष को कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) का स्थायी आमंत्रित सदस्य बनाया जाए। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों में से कांग्रेस अध्यक्ष एक समूह का गठन करेंगी, जो समय-समय पर ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विषयों पर निर्णय लेने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष को सुझाव देंगे और उपरोक्त निर्णयों के क्रियान्वयन में मदद करेगा।

कांग्रेस ने भले संसदीय बोर्ड के सुझाव को नहीं माना; लेकिन हरेक राज्य में विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी के गठन का फ़ैसला उसने ज़रूर किया है। इसके अलावा कांग्रेस अब एआईसीसी और पीसीसी के सत्र साल में एक बार ज़रूर करेगी। ज़िला, ब्लॉक और मंडल समितियों की बैठक नियमित रूप से होगी और आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर ज़िला स्तर पर 9 अगस्त से 75 किलोमीटर लम्बी पदयात्रा का आयोजन किया जाएगा, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम के लक्ष्यों, त्याग और बलिदान की भावना प्रदर्शित होगी।

भाजपा से अब तक पिट रहे मीडिया और संचार विभाग को भी कांग्रेस मज़बूत करेगी। बदलते भारत में कांग्रेस के मीडिया और संचार विभाग के अधिकार क्षेत्र, कार्यक्षेत्र और ढाँचे में बदलाव कर व्यापक विस्तार किया जाएगा और मीडिया, सोशल मीडिया, डाटा, रिसर्च, विचार विभाग आदि को संचार विभाग से जोडक़र विषय विशेषज्ञों की मदद से और प्रभावी बनाया जाएगा।

अब क्या होगा?

पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नेताओं को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ दे सकती है। सचिन पॉयलट जैसे युवा नेता पार्टी में बेहतर पोजीशन में आ सकते हैं। राहुल गाँधी कह चुके हैं कि युवाओं और वरिष्ठ नेताओं को बराबर तरजीह दी जाएगी; लेकिन युवा बेहतर के हक़दार हैं। राहुल गाँधी ने शिविर में भारत जोड़ो के नये नारे के साथ पार्टी को कायाकल्प का मंत्र दिया। उन्होंने साफ़ कहा कि हम फिर जनता के बीच जाएँगे, उससे अपने रिश्ते मज़बूत करेंगे और ये काम शॉर्टकट से नहीं होगा। ये पसीना बहाने से होगा।
राहुल ने वरिष्ठ नेताओं से कहा कि वे डिप्रेशन में न जाएँ, क्योंकि लड़ाई लम्बी है। राहुल गाँधी ने कहा कि कांग्रेस में कौन-सी पोस्ट किसे मिल रही है? इस पर इंटरनल फोकस रहता है। अब इससे काम नहीं चलेगा। इससे बाहर भी फोकस करना होगा। राहुल ने कहा- ‘हमें बिना सोचे जनता के बीच जाना चाहिए। इससे पहले जनता से कनेक्शन (तारतम्य) टूट गया था, हमें उसे जोडऩा होगा। जनता समझती है। कांग्रेस पार्टी देश को आगे ले जा सकती है, देश में विकास कर सकती है।’
चिन्तन शिविर से साफ़ ज़ाहिर हो गया है कि पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में अब शायद ज़्यादा उठापटक न हो। राहुल गाँधी का दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनना लगभग तय है। प्रियंका गाँधी संगठन में कुछ वरिष्ठ नेताओं के साथ सलाहकार जैसी भूमिका में आ सकती हैं, जबकि बाक़ी राज्यों में नये अध्यक्ष बनाने की तैयारी है।

नेतृत्व ने साध लिये असन्तुष्ट

चिन्तन शिविर में कांग्रेस ने सिर्फ़ भविष्य की रणनीति ही नहीं बुनी, पार्टी नेतृत्व ने असन्तुष्ट धड़े जी-23 के नेताओं को भी साध लिया है। कांग्रेस में असन्तुष्टों का जो धड़ा राज्य सभा में न जा सकने की सम्भावना के कारण छटपटा रहा था, उसे पार्टी नेतृत्व ने राज्यसभा के ज़रिये ही सँभाल लिया। शिविर के बाद अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने पार्टी की तीन अहम कमेटियों में असन्तुष्ट धड़े के कुछ बड़े नेताओं को जगह दी, जिससे यह साबित हो गया कि यह नेता अब ख़ामोश हो गये हैं। इनमें से कुछ को राज्य सभा भेजने की तैयारी पार्टी ने कर ली है। पार्टी को चिन्तन शिविर से पहले सबसे बड़ी चिन्ता असन्तुष्टों को लेकर थी कि कहीं वो विरोध के स्वर न बुलंद करें।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी के कुछ बड़े नेताओं से सीडब्ल्यूसी की बैठक के बाद अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने को बैठकें की थीं, उनमें इस मसले पर उनसे विचार विमर्श किया गया। यह रास्ता निकाला गया कि कुछ महत्त्वपूर्ण नेताओं को पार्टी से बाहर जाने से रोका जाए और उन्हें राज्यसभा में या संगठन में जगह दी जाए।

चिन्तन शिविर के बाद सोनिया गाँधी ने जब पार्टी की तीन बड़ी समितियों की घोषणा की, तो असन्तुष्टों के सबसे बड़े दो नेताओं ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा को सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाने वाली ‘राजनीतिक मामलों की समिति’ में जगह देकर अहमियत दे दी और साथ ही असन्तुष्ट धड़े को भी कमज़ोर कर दिया। यह वह समिति है, जिसमें राहुल गाँधी, मल्लिकार्जुन खडग़े, अम्बिका सोनी, दिग्विजय सिंह, के.सी. वेणुगोपाल, जितेंद्र सिंह जैसे नेता शामिल किये गये हैं।

आज़ाद को जी-23 का नेता माना जाता था। इस धड़े के तीसरे बड़े नेता कपिल सिब्बल को उनके बयानों के कारण पार्टी ने ज़्यादा भाव नहीं दिया, जिसके चलते वह ख़ुद ही 16 मई को इस्तीफ़ा देकर पार्टी से बाहर हो गये। अब वह सपा के सहयोग से राज्य सभा जा रहे हैं।
एक और बड़े असन्तुष्ट नेता मुकुल वासनिक को ‘टास्क फोर्स 2024 समिति’ में जगह दी गयी। टास्क फोर्स में पी. चिदंबरम, मुकुल वासनिक, जयराम रमेश, के.सी. वेणुगोपाल, अजय माकन, प्रियंका गाँधी, रणदीप सिंह सुरजेवाला और सुनील कानूगोलु जैसे नेता शामिल हैं। इससे पहले पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को भी साध लिया गया था, जब उनके क़रीबी उदय भान को हरियाणा कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया।

पूर्व केंद्रीय मंत्री शशी थरूर को ‘भारत जोड़ो यात्रा के लिए केंद्रीय योजना समिति’ में जगह दे दी गयी। भारत जोड़ो यात्रा के लिए केंद्रीय योजना समिति में दिग्विजय सिंह, सचिन पायलट, रवनीत सिंह बिट्टू, के.जे. जॉर्ज, जोथी मणी, प्रद्युत बोरदोलोई, जीतू पटवारी, सलीम अहमद जैसे नेता शामिल हैं। ज़ाहिर है असन्तुष्टों में अब कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं बचा, जो इन नेताओं के बग़ैर गतिविधि चला सके। सुनील कानूगोलु जैसे राहुल गाँधी के क़रीबी को टास्क फोर्स में लेकर संकेत मिलता है कि राहुल गाँधी की टीम बनायी जा रही है। प्रशांत किशोर से बात नहीं बनने के बाद सुनील कानूगोलु का पार्टी की महत्त्वपूर्व समिति में आना इसलिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि वह भी चुनाव रणनीतिकार हैं। प्रशांत के विपरीत कानूगोलु ख़ामोशी से काम करने के लिए जाने जाते हैं। निश्चित ही आने वाले चुनावों में कांग्रेस के बीच उनकी भूमिका अहम रहेगी।

राज्यसभा की जंग

अगले महीने राज्यसभा की जिन 57 सीटों के लिए चुनाव होना है, उनमें से 11 सीटें कांग्रेस के हिस्से आ सकती हैं। हालाँकि इसके लिए सहयोगियों की मदद की ज़रूरत रहेगी। वैसे पार्टी ने 30 मई को 10 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी, जिसमें पी. चिदंबरम, मुकुल वासनिक, राजीव शुक्ला, रंजीत रंजन, अजय माकन, जयराम रमेश, विवेक तन्खा, इमरान प्रतापगढ़ी, रणदीप सुरजेवाला, प्रमोद तिवारी शामिल हैं। यह सभी जीत जाते हैं, तो उच्च सदन में उसके सदस्यों की संख्या 29 से बढक़र 33 हो जाएगी। पार्टी में ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता भी राज्यसभा सीट पर आँखें गड़ाये बैठे थे। पार्टी में पी. चिदंबरम (महाराष्ट्र), जयराम रमेश (कर्नाटक), अंबिका सोनी (पंजाब), विवेक तन्खा (मध्य प्रदेश), प्रदीप टम्टा (उत्तराखण्ड), कपिल सिब्बल (उत्तर प्रदेश) और छाया वर्मा (छत्तीसगढ़) का राज्यसभा का कार्यकाल पूरा हो रहा है। यदि राज्यों में कांग्रेस की सीटों का वर्तमान गणित देखा जाए, तो उसे राजस्थान से तीन, छत्तीसगढ़ से दो, महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा और मध्य प्रदेश से राज्यसभा की एक-एक सीट मिल सकती है। तमिलनाडु में सहयोगी डी.एम.के. और झारखण्ड में झामुमो उसे एक-एक सीट दे सकते हैं।

चिदंबरम गृह राज्य तमिलनाडु से राज्यसभा जाना चाहते हैं और हाल में उन्होंने द्रमुक नेता मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन से मुलाक़ात की थी। हालाँकि यहाँ पेच यह था कि राहुल गाँधी पार्टी के डाटा विश्लेषण विभाग प्रमुख प्रवीण चक्रवर्ती को तमिलनाडु से राज्यसभा भेजना चाहते थे। कर्नाटक से जयराम रमेश कतार में थे ही। वैसे रणदीप सुरजेवाला भी कर्नाटक की सीट पर नज़र रखे थे।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा को अब क्या पद देती है। हो सकता है उन्हें संगठन में महत्त्वपूर्ण ओहदे दिये जाएँ। मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र से भी कांग्रेस एक-एक सीट जीत सकती है। छत्तीसगढ़ से कांग्रेस दो सीटें जीतने की स्थिति है, जहाँ उसका विधानसभा में बम्पर बहुमत है।

जी-23 के निपटने से एक तरह से गाँधी परिवार के लिए पार्टी के भीतर चुनौती ख़त्म हो गयी है। सिब्बल, जिन्होंने गाँधी परिवार से बाहर का कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की वकालत की थी; को पार्टी नेतृत्व ने तरजीह दी ही नहीं। सोनिया गाँधी जिस तरह से सक्रिय हुई हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि नया अध्यक्ष बनने तक पार्टी में वही होगा, जो नेतृत्व चाहता है। सिब्बल के ज़रिये अन्य को भी सन्देश दे दिया गया है। सोनिया ने ऐसा 1998-99 में भी किया था, जब विदेश मूल को लेकर शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक अनवर की बग़ावत को इतनी चतुराई से निपटाया कि उन्हें पार्टी से बाहर जाकर फिर सोनिया गाँधी से हाथ मिलाना पड़ा।

नेतृत्व ने सबसे पहले हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को साधा। $िफलहाल 10 जनपथ के लम्बे समय तक वफ़ादार रहे ग़ुलाम नबी आज़ाद की नाराज़गी अभी दूर नहीं हो पायी है। उदयपुर के चिन्तन शिविर में आज़ाद और आनंद शर्मा जैसे नेताओं से सोनिया ने ख़ुद मुलाक़ात करके उन्हें पार्टी की समितियों में शामिल होने और राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दिया था। दोनों उसे ठुकरा नहीं सके। हालाँकि राज्यसभा में जाने की उनकी तमन्ना अधूरी रह गयी।

आक्रामक हो रही कांग्रेस

‘आठ साल, आठ छल’ नाम से पुस्तिका जारी करके कांग्रेस की सक्रियता का संकेत दिया है। इसमें महँगाई, बेरोज़गारी, अर्थ-व्यवस्था, आमदनी, सेना के हितों पर चोट, विकास बनाम नफ़रत, एससी, एसटी, ओबीसी के मसले और राष्ट्रीय सुरक्षा पर आँच जैसे अहम मुद्दों को लेकर मोदी सरकार पर हमला किया गया है। यह साफ़ है कि चिन्तन शिविर के बाद कांग्रेस काफ़ी बदली-बदली सी नज़र आ रही है और वह मोदी सरकार के प्रति अपना रुख़ आक्रामक कर रही है।


“संगठन में ढाँचागत बदलावों की ज़रूरत है। अभूतपूर्व परिस्थितियों का सामना अभूतपूर्व क़दम उठाकर ही किया जा सकता है। हम यही करने जा रहे हैं। हमें मिली नाकामयाबियों से हम बेख़बर नहीं है। न ही हम बेख़बर हैं कठिनाइयों के संघर्ष से, जिसका हमें सामना करना है। हम देश की राजनीति में पार्टी को फिर उस भूमिका में ले जाएँगे, जो पार्टी ने हमेशा निभायी है। इन बिगड़ते हालात में देश की जनता हमसे उम्मीद करती है। हम एक नये आत्मविश्वास, नयी ऊर्जा और प्रतिबद्धता से प्रेरित होकर सामने आएँगे।’’
सोनिया गाँधी
कांग्रेस अध्यक्ष


“मुझे कोई डर नहीं है। मैंने ज़िन्दगी में एक रुपया किसी से नहीं लिया। कोई भ्रष्टाचार नहीं किया। मैं सच बोलने से नहीं डरता हूँ। मैं लड़ूँगा और आप सब के साथ मिलकर लड़ूँगा। भाजपा से लड़ाई क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं लड़ सकतीं। यह लड़ाई केवल कांग्रेस ही लड़ सकती है। रीजनल पार्टियाँ भाजपा को नहीं हरा सकतीं, क्योंकि उनके पास विचारधारा नहीं है। वे अलग-अलग हैं। शॉर्टकट से कुछ नहीं होगा। पसीना बहाना होगा, तभी वापस जनता से जुड़ेंगे। हम पैदा ही जनता से हुए हैं, यह हमारा डीएनए है, यह संगठन जनता से बना है। हम फिर जनता के बीच जाएँगे। अक्टूबर में पूरी कांग्रेस पार्टी जनता के बीच जाएगी, यात्रा करेगी। जो जनता के साथ रिश्ता है, वह फिर से मज़बूत करेंगे। यही एक रास्ता है।’’
राहुल गाँधी
पूर्व अध्यक्ष

ज्ञानवापी : खींचतान के बीच अदालत के हाथ में फ़ैसला

वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग निकलने को लेकर जो खींचतान मची है, उसने पूरे देश में तर्क-वितर्क के दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल दिये हैं। इस मामले में उलझन एक ही है कि ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में मिला शिवलिंगनुमा पत्थर वास्तव में शिवलिंग है या नहीं? मगर एक उलझन से प्रश्न इतने खड़े हो गये हैं कि अब इनका उत्तर दे पाना वर्तमान में किसी के लिए सम्भव नहीं है। अदालतें भी इन प्रश्नों के उत्तर आसानी से नहीं दे सकेंगी। मगर फिर भी रहना तो अदालतों के सहारे ही होगा। मगर अदालतें तो एक महीने के लिए बन्द हो चुकी हैं, इसलिए अब फ़ैसला जुलाई में ही होगा।

इससे पहले ही जाँच के लिए मस्जिद परिसर को सील कर दिया गया था, जिसके बाद सर्वोच्च अदालत ने अपने एक आदेश में कहा कि मस्जिद में मिले शिवलिंग तथा उस हिस्से को सुरक्षा में लिया जाए और मस्जिद में नमाज़ पढऩे से किसी को न रोका जाए। देखना यह होगा कि अब तक अदालतों ने क्या-क्या कहा और किस तरह के फ़ैसले दिये। क्योंकि स्थानीय अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक पहुँचा यह मामला काफ़ी उलझ चुका है। ज्ञानवापी मस्जिद का मामला सबसे पहले स्थानीय अदालत में गया। प्रश्न यह भी है कि यह मामला उठा कैसे? नई दिल्ली की पाँच महिलाओं राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, सीता साहू, मंजू व्यास तथा रेखा पाठक ने 18 अगस्त 2021 को सिविल जज (सीनियर डिवीजन) की अदालत में इस मामले में एक याचिका लगायी। इस याचिका में उत्तर प्रदेश सरकार, स्थानीय ज़िलाधिकारी, पुलिस आयुक्त, अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी और काशी विश्वनाथ मन्दिर ट्रस्ट को पक्षकार बनाया गया। इन महिलाओं की ओर से दायर याचिका पर बीते 8 अप्रैल, 2022 को अदालत ने अजय कुमार मिश्र को अधिवक्ता आयुक्त नियुक्त किया और ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करके इसकी रिपोर्ट 10 मई तक अदालत में प्रस्तुत करने को कहा। बीती 6 को जाँच शुरू हुई।

7 मई को अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी ने अदालत में प्रार्थना पत्र देकर एडवोकेट कमिश्नर बदलने की माँग की। वादी पक्ष ने मस्जिद की बैरिकेडिंग करके उसके अन्दर तहख़ाने समेत अन्य स्थलों का निरीक्षण करने का स्पष्ट आदेश देने की अपील की। दोनों ही अपीलों पर तीन दिन सुनवाई चली। बाद में कड़ी सुरक्षा के बीच जाँच वीडियोग्राफी के साथ हुई और कुएँ में मिले पत्थर को जाँच टीम ने शिवलिंग बताया, जबकि मुस्लिम पक्ष ने इसे फ़व्वारा बताया। इसकी भी जाँच हुई और सवाल उठे कि अगर यह फ़व्वारा है, तो बिना बिजली के चलता कैसे था? सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर की अदालत ने सात पन्नों के आदेश में कहा कि कमीशन कार्यवाही स्थल पर अदालत के पूर्ववर्ती आदेश के तहत सम्बन्धित वादीगण, प्रतिवादी गण, अधिवक्ता आयुक्त, अधिवक्तागण, इनके सहायक तथा कमीशन कार्यवाही में शामिल व्यक्तियों को छोडक़र कोई भी अन्य व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं होगा।

इधर इससे पहले 14 मई को ही अंजुमन-ए-इंतज़ामिया मस्जिद वाराणसी की प्रबंधन समिति ने सर्वोच्च अदालत में याचिका लगा दी। याचिकाकर्ता के वकील हुजेफ़ा अहमदी ने ज्ञानवापी पर हक़ जताने को प्लेसेज ऑफ वरशिप अधिनियम-1991 के ख़िलाफ़ बताते हुए सर्वोच्च अदालत से तुरन्त सुनवाई की माँग की। इस पर अदालत ने फाइल देखने के बाद ही सुनवाई पर निर्णय देने की बात कही। सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश सूर्यकांत तथा न्यायाधीश पी.एस. नरसिम्हा की पीठ में हिन्दू पक्ष ने कहा कि उसे हलफ़नामा दाख़िल करने के लिए और समय दिया जाए। अदालत ने मुस्लिम पक्ष से पूछा कि आपको कोई दिक़्क़त है? इस पर मुस्लिम पक्ष के वकील हुज़ैफ़ा अहमदी ने दिक़्क़त होने से मना कर दिया, मगर निचली अदालत में दीवार तोडऩे और वज़ूख़ाने को लेकर सुनवाई का ज़िक्र किया। इसके बाद सर्वोच्च अदालत ने कहा कि हम आदेश जारी कर रहे हैं कि कोई भी कार्रवाही वाराणसी लोअर कोर्ट से न लिया जाए। साथ ही कहा कि शिवलिंग के दावे वाली जगह को सुरक्षित किया जाए। मुस्लिमों को नमाज़ पढऩे से न रोका जाए। सिर्फ़ 20 लोगों के नमाज़ पढऩे वाला ऑर्डर अब लागू नहीं। अब पीठ ने कहा है कि यह मामला जटिल तथा संवेदनशील है, इसीलिए इस मामले की सुनवाई कोई वरिष्ठ व तजुर्बेकार न्यायाधीश करें, तो बेहतर होगा। इससे स्पष्ट है कि अब सुनवाई सर्वोच्च अदालत की बड़ी पीठ करेगी।

इधर सर्वोच्च अदालत ने ज़िला न्यायाधीश से कहा है कि वह पहले मस्जिद कमेटी के उस आवेदन पर फ़ैसला लें, जिसमें हिन्दू पक्ष की याचिका को क़ानून के तहत सुनवाई के लायक नहीं कहा गया है। सर्वोच्च अदालत ने मस्जिद की वीडियोग्राफी और उसकी सर्वे रिपोर्ट लीक होने पर भी संज्ञान लेते हुए कहा कि लोकल कमिश्नर की रिपोर्ट से चुनिंदा चीज़ें लीक करके लोगों को भडक़ाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। केवल ट्रायल कोर्ट के जज ही रिपोर्ट खोल सकते हैं। इधर मामला इलाहाबाद उच्च अदालत में भी जा चुका है, जिस पर अभी इसी महीने सुनवाई होनी है।

पूजा स्थल अधिनियम-1991

देश में बने धार्मिक स्थलों को विवाद मुक्त करने के इरादे से सन् 1991 में तत्कालीन कांग्रेस प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव सरकार एक ऐसा क़ानून लेकर आयी, जिससे किसी एक धर्म के धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्म के लोग दावेदारी न कर सकें। इस क़ानून का नाम पूजा स्थल अधिनियम-1991 अर्थात् प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट-1991 है। इस अधिनियम के अनुसार, देश की आज़ादी अर्थात् 15 अगस्त, 1947 से पहले बने किसी भी धर्म के धार्मिक स्थल (मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च, मठ आदि) को किसी दूसरे धर्म के धार्मिक स्थल में नहीं बदला जा सकता। यदि कोई इस क़ानून का उल्लंघन करने का प्रयास करेगा, तो उस पर ज़ुर्माना होने के अलावा तीन साल तक की जेल की सज़ा हो सकती है। अयोध्या के बाबरी मस्जिद बनाम राम मन्दिर विवाद में भी इस क़ानून का हवाला दिया गया और अब ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग मिलने के दावे के मामले में भी इस क़ानून का हवाला दिया जा रहा है।

मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अगर ज्ञानवापी मस्जिद को तोडऩे या उसे बन्द कराने की अनुमति दी गयी, तो फिर पूजा स्थल अधिनियम-1991 का कोई मतलब नहीं रह जाएगा, क्योंकि वाराणसी में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद 500 साल से वहाँ है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि फिर तो इस मामले में मुश्किल होगी। मगर अदालत ने इसी क़ानून के अनुच्छेद-3 की चर्चा करते हुए कहा कि सर्वे के आदेश में ख़ामी नहीं थी, साथ ही यह क़ानून इस बात से नहीं रोकता कि किसी धर्मस्थल के चरित्र का पता न लगाया जाए। वर्तमान में ज्ञानवापी मस्जिद पर भारी सुरक्षाबल तैनात है और लोगों को अदालती फ़ैसले की प्रतीक्षा है।

पहले ही उठ चुका है विवाद

ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर पहला मुक़दमा सन् 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव के बीच चला। मगर इस मुक़दमे में दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में दावा किया था कि ज्ञानवापी मस्जिद तथा उसके आसपास की ज़मीनों पर उसका अधिकार है। हालाँकि निचली अदालत ने इसे मस्जिद की ज़मीन मानने से इन्कार कर दिया था। इसके बाद दीन मोहम्मद इलाहाबाद उच्च अदालत पहुँचा, जहाँ अदालत ने सन् 1937 में फ़ैसला सुनाया कि मस्जिद के ढाँचे को छोडक़र बाक़ी सभी ज़मीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का अधिकार है।
इसके उपरांत 14 अक्टूबर, 1991 तक मामला शान्त रहा। मगर 15 अक्टूबर, 1991 को एक याचिका काशी विश्वनाथ मन्दिर के पुरोहितों के वंशज पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे की ओर से दाख़िल की गयी। वादियों ने इस याचिका में कहा कि काशी विश्वनाथ के मूल मन्दिर को 2050 वर्ष पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। इसी मन्दिर के एक बड़े हिस्से को सन् 1669 में औरंगज़ेब ने तुड़वाकर यहाँ ज्ञानवापी मस्जिद में बदल दिया, इसलिए अदालत ज्ञानवापी परिसर में नये मन्दिर निर्माण और पूजा पाठ की अनुमति प्रदान करे। इतिहास की बात करें, तो 12वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक मोहम्मद गौरी से लेकर अकबर के पोते शाहजहाँ तक काशी विश्वनाथ मन्दिर को तोडऩे का प्रयास किया गया। इन्हीं वर्षों के बीच वाराणसी में मस्जिदों का निर्माण भी हुआ, जिसका वर्णन कई इतिहासकारों ने किया है। यह तो तय है कि मुस्लिम इस देश में बाहर से आये, जिससे यह भी तय है कि उनके द्वारा किये गये सभी निर्माण बाद में ही हुए होंगे। मगर यह भी सच है कि अब इस देश में कई धर्मों के लोग रहते हैं, इसलिए यहाँ विवादों को हवा देने से देश में अराजकता फैलने का डर है। हालाँकि लोगों में इस मुद्दे को लेकर तनातनी चल रही है।

तहलका के बड़े सवाल

 क्या मौज़ूदा सरकार ज्ञानवापी मस्जिद की आड़ लेकर 2024 के चुनाव जीतना चाहती है?
 क्या ज्ञानवापी का मामला अयोध्या मामले से बड़ा बनेगा?
 क्या ज्ञानवापी की भूमि का भी बँटवारा होगा?
 क्या देश में अन्य मस्जिदों को लेकर भी विवाद होगा?
 क्या कुतुब मीनार और ताजमहल का विवाद भी आगे बढ़ेगा?
 क्या सरकार धार्मिक मुद्दे उठाकर ज़मीनी मुद्दे दबाना चाहती है?
 क्या लोगों के लिए रोटी, रोज़गार से ज़्यादा ज़रूरी धर्म है?
 क्या धार्मिक स्थल बनाने भर से देश का भला हो जाएगा?

लोकतंत्र पर हावी होती नौकरशाही

नौकरशाही का आंग्ल भाषी पर्यायवाची ‘ब्यूरोक्रेसी’ फ्रेंच शब्द ‘ब्यूरो’ से लिया गया है, जो कि प्राय: सरकारी विभाग का परिचायक है। आगे चलकर इसका प्रयोग विशेष प्रकार की सरकार को चलाने के लिए सम्भवत: फ्रांसीसी क्रान्ति से पूर्व फ्रेंच सरकार के लिए किया जाता था। 19वीं शताब्दी में इस शब्द का नकारात्मक दृष्टिकोण सारे यूरोप में प्रचलित हो गया; जहाँ भी किसी सरकार एवं उसके अधिकारियों की निरंकुशता, रूढिग़त दृष्टिकोण, स्वेच्छाचारिता आदि को इस रूप में सम्बोधित किया जाता था। भारत में यह साम्राज्यवादी सत्ता का सबसे विकृत प्रतीक रहा है। औपनिवेशिक-काल में ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों के स्वीकृति दमन एवं शोषण का कार्यभार इसी तत्कालीन आई.सी.एस. वर्ग के ज़िम्मे था।

स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं में तत्कालीन आई.सी.एस. वर्ग के प्रति एक प्रकार की घृणा का भाव था। आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सन् 1934 से ही अपने विचारों में सिविल सेवा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण प्रदर्शित करने लगे थे। संविधान सभा के ज़्यादातर सदस्य इस पक्ष में थे कि इस दमनकारी ब्रिटिश सत्ता के अंग को उसकी सही जगह दिखा देनी चाहिए। तब सरदार पटेल इनकी ढाल बन गये और थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ इस संवर्ग को यथास्थिति प्राप्त हो गयी।

देश अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ, सत्ता बदली; लेकिन देश की अफसरशाही अपने आचार-विचार एवं सिद्धांतों में यथावत् रही, और आज भी है। भारतीय नौकरशाही सामान्यत: यथास्थितिवादी, रूढ़ एवं पुरानी परम्पराओं की हिमायती है। यह सामाजिक परिवर्तनों एवं समानतावादी वितरण के विरुद्ध है। आज भी इसका झुकाव विशिष्ट व्यक्तियों तथा समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग की तरफ़ होता है। भारतीय प्रशासन का सबसे निकृष्ट पक्ष आम आदमी के साथ उसके सम्बन्ध का है।

आज भी भारतीय जनता मतदान व्यवहार में एक ईमानदार, क्षमतावान, सहयोगपूर्ण रवैया एवं दोस्ताना सम्बन्ध रखने वाले प्रशासन की उम्मीद में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पिछले दो दशकों में नौकरशाही का भारत में असाधारण रूप से अनावश्यक प्रसार हुआ है। इसके साथ ही लालफ़ीताशाही की प्रवृति देश की बौद्धिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक आदि सभी संस्थाओं में फैल गयी है और इनकी क्षमता को कुंद कर रही है। इसके बेहद बुरे पहलू के रूप में केंद्रीय, राज्य स्तरीय और स्थानीय स्तर पर नौकरशाही पर सार्वजनिक धन का अत्याधिक अनावश्यक व्यय बढ़ा है।
एक विशेष बात यह है कि आज भी देश में यह ग़लतफ़हमी है कि नेता ही सबसे भ्रष्ट हैं। सच यह है कि भ्रष्टाचार के नये-नये प्रतिमान देश की नौकरशाही गढ़ रही है। झारखण्ड की खनन सचिव पूजा सिंघल इसकी एक नया उदाहरण बनी हैं। इसमें भी दो-राय नहीं कि भारत के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदार देश की नौकरशाही ही है। अगर प्रशासन के काम का दम्भ का मिथक टूटते देखना चाहते हैं, तो स्वच्छ भारत मिशन के उदाहरण को ही ले लीजिए। काग़ज़ों में ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त) हो चुके गाँवों में मूलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं।
जो लोग प्रशासनिक शक्ति से सुसज्जित (लैस) होकर भी जनता के लिए कुछ न कर सकें, वे राजनीति में आकर क्या बदलाव करना चाहते हैं? यह समझ से परे है। एक घिसापिटा वाक्य कि नेता कुछ करने नहीं देते, वो तो यहाँ नहीं चलेगा। क्योंकि स्वच्छ भारत मिशन सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी, उसकी भी क्या हालत की इन्होंने? प्रमाण के तौर पर उत्तर प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों को छोडि़ए, जिला मुख्यालयों से सटे गाँवों में इस योजना की वास्तविकता ख़ुद देख सकते हैं।

सन् 1964 में पंडित नेहरू ने अपनी असफलता को स्पष्ट करते हुए हुए कहा था- ‘मैं प्रशासन को नहीं बदल सका, यह अभी भी एक औपनिवेशिक प्रशासन है। औपनिवेशिक प्रशासन का जारी रहना, ग़रीबी की समस्या का समाधान करने मैं भारत की असमर्थता का एक प्रमुख कारण है।’
दुर्भाग्य है कि वर्तमान स्थिति भी नेहरू के दौर से भिन्न नहीं है। संवैधानिक प्रावधान के अंतर्गत अनुच्छेद-309, 310, 311 को प्रशासनिक अधिकारियों ने अपना सुरक्षा कवच बना रखा है एवं अदालती कार्रवाई को लम्बा खींचकर अपने लिए अवसर तलाशते आये हैं। लेकिन बीतते समय के साथ सत्ता एवं राजनेताओं का प्रश्रय भी इसमें जुड़ गया। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2005) ने तो प्रशासनिक अधिकारियों की अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करने और अनुशासनहीनता एवं दुराचरण को न्यूनतम करने, सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की पद्धति में विस्तृत परिवर्तन की सिफ़ारिश की थी।

कार्ल माक्र्स लिखते हैं- ‘नौकरशाह के लिए दुनिया, उसके द्वारा हेरफेर करने के लिए एक मात्र वस्तु है।’ पिछले दो दशकों से नौकरशाही को एक नया रोग लगा है- ‘राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी’। अब नौकरशाह नेतागिरी करते हुए विधायक, सांसद, मंत्री बनने की $ख्वाहिश पाले बैठे हैं। पिछले राजस्थान विधानसभा चुनावों को याद कीजिए, जब नौकरशाहों में होड़ लगी थी कि भाजपा या कांग्रेस किसी भी दल से टिकट पक्का हो और वे वी.आर.एस. या त्याग-पत्र देकर राजनीति में कूद पड़े। निकट सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों को ही देखिए, प्रशासनिक अधिकारियों में चुनावों में उतरने की होड़ लगी थी। सबसे ज़्यादा मारामारी भाजपा के टिकट के लिए थी और भाजपा ने इन्हें टिकट दिया भी। वैसे स्वतंत्र भारत में यह रोग पुराना था। लेकिन सन् 2014 के बाद यह रोग दुर्दम्य रूप में उभरा हैं, जिससे नौकरशाही त्वरित गति से विधायिका का हिस्सा बनी है और यह प्रक्रिया तेज़ होती जा रही है। नौकरशाही के इस रोग के उभार का मुख्य कारण राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व की तानाशाही भरी मानसिकता है।

ऐसा नहीं है कि नौकरशाही ने इससे पहले राजनीति में घुसपैठ नहीं की है, चाहे कांग्रेस की सरकारें हो या अन्य क्षेत्रीय दलों की सरकारें। वैसे इसकी शुरुआत आज़ादी के बाद नेहरू मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री सी.डी. देशमुख के आई.सी.एस. से अवकाश लेकर कांग्रेस में शामिल होने से ही हो गयी थी। उसके बाद से यह प्रक्रिया चलती रही। इंदिरा गाँधी के समय भी टी.एन. कौल, पी.एन. हक्सर, आर.एन. काव का सरकार में दबदबा था। किन्तु वर्तमान परिस्थिति थोड़ी भिन्न हैं। पिछले दौर में नौकरशाही जो पर्दे के पीछे थी, इस समय सरकार में सीधे दख़लअंदाज़ी करने की स्थिति में आ चुकी है। वर्तमान प्रधानमंत्री को नौकरशाहों के साथ सरकार चलाने का विशेष अनुभव हैं। गुजरात के अपने मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने नौकरशाहों के साथ मिलकर अपनी सरकार चलायी है। इसी अनुभव को उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में भी प्राथमिकता दी। सन् 2014 में सत्ता सँभालते ही उन्होंने सबसे पहला क़ानून में संशोधन पूर्व नौकरशाह नृपेंद्र मिश्र को प्रधान सचिव नियुक्त किये जाने के लिए ही किया। बाद में तो नौकरशाह सीधे मंत्रिमंडलों में नियुक्त किये जाने लगे। अब तो एक क़दम आगे बढ़ते हुए इन्हें टिकट वितरण में प्रमुखता दी जाने लगी है।

हरिशंकर परसाई ने लिखा है- ‘सबसे बड़ी मूर्खता है, इस विश्वास से लबालब भरे रहना कि लोग हमें वही मान रहे हैं; जो हम उन्हें मनवाना चाहते हैं।’ कार्य कुशलता, पेशेवर रवैया के नाम पर आज्ञाकारी नौकरशाहों को जिस तरह लोकतांत्रिक सरकार का हिस्सा बनाया जा रहा है। उससे लोग धीरे-धीरे समझ रहे हैं। ये सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप नहीं है। अगर प्रशासनिक अधिकारियों को ही संवैधानिक पदों पर बैठाना है, तो देश को संसदीय प्रक्रिया की क्या आवश्यकता है?

इस समय केंद्रीय मंत्रिमंडल में चार प्रमुख मंत्रालय- रेलवे, ऊर्जा, विदेश और आवास एवं शहरी मामले क्रमश: चार पूर्व नौकरशाहों अश्विनी वैष्णव, आर.के. सिंह, एस. जयशंकर एवं हरदीप पुरी के अधीन हैं। यही हाल उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल का है, जिसमें ए.के. शर्मा, असीम अरुण, राजेश्वर सिंह जैसे प्रशासनिक अधिकारी शामिल हैं। यह तो गनीमत है कि कुछ नौकरशाह भाजपा की लहर में चुनाव जीतकर आये हैं। किन्तु एक बड़ी संख्या ऐसे नौकरशाहों की भी है, जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में पिछले दरवाज़े से घुसाकर मंत्रिमंडल में ही नहीं, बल्कि पार्टी और संगठन के महत्त्वपूर्ण पदों पर तेज़ी से स्थापित किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि एस. जयशंकर या हरदीप पुरी जैसे नौकरशाह योग्य व्यक्ति होंगे; लेकिन उन्होंने न प्रत्यक्ष रूप से चुनाव में जनता का सामना किया है और न ही जनता उनके विचारों से अवगत है। ऐसे नौकरशाहों को राज्यसभा के माध्यम से यानी पिछले दरवाज़े से मंत्री पद पर नियुक्त करना तो लोकतंत्र में एक कुत्सित प्रयास ही माना जा सकता है।

नौकरशाही को चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए; क्योंकि यह कई तरह से लोकतंत्र के लिए घातक क़दम होगा। पहला, संवैधानिक मूल्यों का तकाज़ा है कि एक नौकरशाह को राजनीतिक विचारधारा के प्रति निरपेक्ष एवं निष्पक्ष होना चाहिए। किन्तु जो लोग अपनी नौकरी के दौरान ही त्वरित इस्तीफ़ा देकर राजनीतिक दलों में शामिल हो रहे हैं, उनके विषय में यह कैसे माना जाए कि वे अपने सेवा-काल में किसी दल विशेष के अनुकूल नहीं रहे होंगे? मुख्य प्रश्न यह है कि नौकरशाही की संविधान के प्रति आस्था एवं कर्तव्य भावना, जो पहले ही अपने न्यूनतम स्तर पर है; धीरे-धीरे शून्य हो जाएगी। कश्मीर काडर के आई.ए.एस. शाह $फैसल का उदाहरण लें, जिन्होंने नौकरी छोड़ राजनीतिक दल का गठन किया और जो राजनीतिक लाभ पाने के लिए इतने आतुर हो गये थे कि देश की सरकार के विरुद्ध शिकायत करने यू.एन. जा रहे थे। वे राजनीति छोड़ वापस आई.ए.एस. संवर्ग में लौट रहे हैं और सम्भवत: सरकार द्वारा भी इसकी अनुमति मिल गयी है। अब इनसे कौन-से प्रशासनिक शुचिता की उम्मीद की जा सकती है?

दूसरा, मंत्रिमंडल में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का होना आवश्यक है, जो कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे शीर्ष पदासीन नेताओं के निर्णयों का प्रतिवाद कर सकें, उन्हें सलाह दे सकें। एक जनप्रतिनिधि ही दूसरे जनप्रतिनिधि के ग़लत निर्णयों का विरोध करने की योग्यता रखता है। नौकरशाही में लीक पर चलने वाले ‘यस मैन’ किसी भी सरकार के मुखिया में अधिनायकत्व का भाव भरेंगे; क्योंकि किसी राजनेता के आभामंडल के तले निर्वाचित होने वाले ये नौकरशाही कभी भी अपने दल या सरकार प्रमुख की मुख़ालिफ़त करने का साहस नहीं करेंगे। लोकतंत्र में सत्ता के विरोध का साहस खोना जम्हूरियत की मौत जैसा होगा।

तीसरा, ये परम्परा जननेताओं के उभरने की भविष्य की उम्मीदों को कुंठित करती जाएगी। अपने दल के लिए सडक़ पर संघर्ष करने, अपना ख़ून-पसीना बहाकर अपना सर्वस्व राजनीति के लिए त्यागकर जनमानस को अपने साथ जोडऩे वाले नेताओं, कार्यकर्ताओं की अनदेखी करके जन-सरोकारों के आन्दोलनों से अनभिज्ञ तथा जी-हुजूरी करने वालों को संवैधानिक संस्थाओं एवं जनता पर उनके प्रतिनिधि के रूप में थोपना अनुचित है। इसमें वे नेता, जिन्होंने राजनीति को अपने जीवन के लम्बा व बहुमूल्य समय दिया है, उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है। यह राजनीतिक दलों द्वारा जन-नेताओं के विरुद्ध किया जाने वाला अन्याय एवं उनकी सामाजिक साधना का अपमान है। यह प्रक्रिया लोकतंत्र की मूल भावना का ह्रास भी कर रही है। हाँ, अगर नौकरशाह राजनीति में आना ही चाहते हैं, जो कि उनका संवैधानिक अधिकार हैं; तो उन्हें नौकरी त्यागने के न्यूनतम पाँच वर्ष के बाद ही चुनाव लडऩे की अनुमति दी जानी चाहिए।

भारतीय राजनीति का एक नया चलन है- अतीत की विपक्ष की सरकारों के कार्यकाल की ग़लतियों का उदाहरण देकर ख़ुद को तुलनात्मक रूप से बेहतर दिखाने का प्रयास करना। मसलन, अगर पिछले 60 साल में पुरानी कांग्रेस सरकारों ने अपने शासनकाल में नौकरशाही की भ्रष्टता को अनदेखा किया और उसे शासन पर हावी होने दिया, तो वर्तमान सरकार नौकरशाहों को सीधे मंत्रिमंडल में ही मंत्री के रूप में शामिल कर रही है। मंत्री पद पर वास्तविक अधिकार जनप्रतिनिधियों का है, जो जनता की नुमाइंदगी करते हैं। जनता द्वारा चुने हुए ये प्रतिनिधि जन आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। किन्तु इस तरह सीधे नौकरशाहों को उनकी वफ़ादारी के आधार पर मंत्रिमंडल पर लादना लोकतान्त्रिक संस्थाओं के साथ सरासर ज़्यादती है।

जलालुद्दीन रूमी कहते हैं- ‘अहंकार मनुष्य और ईश्वर के बीच में सबसे बड़ा पर्दा है।’ आज जो जनसमर्थन के ज्वार में एक-पक्षीय निर्णय करने वाले दलों और उनके शीर्ष नेतृत्व को जम्हूरियत की ख़ुदा ‘जनता’ के दिशाहीन होने का भ्रम हो गया है; उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस दिन भी जनता जागरूक हुई, उस दिन अर्श से फर्श की दूरी न्यूनतम समय में पूरी करा देगी।

(लेखक इतिहास व राजनीति के जानकार तथा शोध छात्र हैं।)

बेरहम फ़रमानों से कुम्हलाती बेटियाँ

राजस्थान में इन दिनों नयी उम्र की कलियाँ गाँव-ढाणियों के पंच परमेश्वरों के कोप से थर्रायी हुई हैं। फूल-सी मासूम ख़ुशबू पर पंचों का कहर महज़ इस बात को लेकर टूटा कि जाने-अनजाने में उसका पाँव टिटहरी के घोंसले पर पड़ गया और एक अण्डा फूट गया। नतीजतन पूरे गाँव में बवंडर उठ गया। दलितों के साथ गाहे-बगाहे होने वाली बदसलूकी की घटनाएँ राजस्थान में कोई नयी बात नहीं हैं। किन्तु यह घटना तो पूरी मानवता को ही शर्मसार करती है।

दलित रैगर समुदाय की बच्ची ख़ुशबू पहली बार स्कूल गयी थी, उसी दिन स्कूलों में बच्चों को दूध पिलाने की योजना की शुरुआत हुई थी। ख़ुशबू भी दूध लेने के लिए बच्चों की कतार में खड़ी थी, तभी टिटहरी का घोंसला उसके पाँव तले आ गया। एक मासूम बच्ची की मामूली भूल ने इस क़दर कोहराम मचाया कि आनन-फ़ानन में गाँव की पंचायत बैठी और बच्ची को जीव हत्या का दोषी मानते हुए जाति से बाहर निकालने का फ़रमान सुना दिया गया। पंच पटेलों ने तालिबानी तरीक़े से बालिका को सामाजिक बहिष्कार की सज़ा सुना दी, जो इसका अर्थ भी नहीं जानती। घर के बाहर बरसाती हवाओं के थपेड़ों और आँधी-पानी के बीच टीन शेड के नीचे रोती-बिलखती बच्ची ने एक दिन नहीं, बल्कि 10 दिन बिताये। उसे इस क़दर अछूत मान लिया गया कि उसे खाना भी दूर से फेंककर दिया जाता था, ताकि खाना देने वाला व्यक्ति उससे छू न जाए! उससे किसी के बात करने का तो प्रश्न ही नहीं था। परिवार के लिए हज़ार बंदिशें थीं। पंच पटेलों का विरोध करने का मतलब था कि बच्ची की सज़ा में और इज़ाफ़ा होता। पिता हुकुम चंद को पंच पटेलों ने ज़ुर्माने की बेडियों में जकड़ दिया। हुकुम चंद को हुक्म दिया गया कि वह पंच-पटेलों को एक किलो नमकीन और शराब की बोतल का नज़राना भेंट करे। यह घटना बूँदी ज़िले के हिंडोली उपखण्ड के ग्राम पंचायत सथूर में स्थित हरिपुरा गाँव की है।

कहते हैं कि पंचों में परमेश्वर बसते हैं और बच्चे परमेश्वर को सबसे ज़्यादा प्रिय होते हैं। लेकिन इस घटना ने इस अवधारणा पर कालिख पोत दी है। ये कैसे पंच परमेश्वर हैं, जिन्होंने अपने ऐश के लिए मासूम बच्ची को गहरे तक आहत कर दिया। उसकी असहनीय पीड़ा और उससे पैदा हुए सदमे से वह शायद ही कभी उबर पाये। 10 दिनों में भी बच्ची की मुक्ति तभी, हुई जब तत्कालीन ज़िला कलेक्टर महेश शर्मा को इस घटना की $खबर लगी। हालाँकि उनका कथन भी किताबी था- ‘गाँव वालों को अपने स्तर पर ही इससे निपट लेना चाहिए था।’

लेकिन जब पूरा गाँव ही निर्ममता का साक्षी था, तो कौन न्याय करता? बच्ची की मुक्ति को लेकर भी पंच पटेलों ने घंटों तक अजीब-ओ-ग़रीब रस्मों का पाखंड रचा। हद तो यह थी कि थानाधिकारी लक्ष्मण सिंह और अन्य अधिकारी उन्हें क़ानून का भय दिखाने की बजाय तमाशबीन ही बने रहे। वरिष्ठ पत्रकार निर्मल कुमार ने इसे बौद्धिक निर्धनता कहा। उन्होंने कहा कि बच्चे जंगल बुक तो पसन्द कर सकते हैं; लेकिन जंगलराज नहीं। मानवता जब पाखंड की मुट्ठी में क़ैद है, तो हम किस मुँह से आज़ादी का अमृतकाल मनाने जा रहे हैं?

अब मानवाधिकार आयोग इस घटना पर हाय-तौबा कर रहा है। आयोग के अध्यक्ष जस्टिस प्रकाश टाटिया यह तो कहा कि यह अत्यंत शर्मनाक और गम्भीर प्रकरण है। उन्होंने इस मामले में ज़िला कलेक्टर और ज़िला पुलिस अधीक्षक से रिपोर्ट भी तलब कर ली; लेकिन आज तक रिपोर्ट का कोई अता-पता नहीं है। न ही पंचों का अभी तक बाल बाँका हुआ है।

उदयपुर ज़िले की पंचायत समिति क्षेत्र की सलूंबर तहसील स्थित राजकीय बालिका उच्च प्राथमिक विद्यालय उथरदा में एक दलित छात्रा के साथ भी कुछ ऐसा ही सुलूक हुआ। वह उस समय दंग रह गयी, जब पोषाहार छू लेने भर से स्कूल की महिला रसोइया ने न सिर्फ़ पूरा पोषाहार ही फेंक दिया, बल्कि उसकी सात पुश्तों को गालियों से नोंच दिया। बात यहीं नहीं रुकी, अगले दिन उसे स्कूल में भी नहीं घुसने दिया। मामले ने तूल तब पकड़ा, जब घटना का वीडियो वायरल हुआ। हद तो यह है कि स्कूल के प्रधानाध्यापक शंकरलाल मीणा ने यह कहते हुए घटना पर लीपा-पोती कर दी कि हमने बच्ची के परिजनों को समझा दिया है कि अब ऐसा नहीं होगा। लेकिन एक गम्भीर घटना के लिए क़ुसूरवार महिला रसोइया और स्कूल में दाख़िल होने से रोकने वाले शिक्षकों का बाल भी बाँका नहीं हुआ।

उत्तर प्रदेश का सम्भावनाओं वाला बजट

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार-2.0 ने अपने इस कार्यकाल का पहला बजट 26 मई को पेश किया। वित्त मंत्री सुरेश खन्ना ने वित्त वर्ष 2022-23 के लिए कुल 6,15,518 करोड़ रुपये के बजट की घोषणा की है। भविष्य की सम्भावनाओं से भरपूर का यह बजट चालू वर्ष के लिए खींचे गये विकास के ख़ाके में कितना फिट बैठेगा? यह तो भविष्य ही बताएगा। मगर यह बजट उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे बड़ा बजट है, जो पिछले वित्त वर्ष 2021-22 के 5,50,270.78 करोड़ रुपये से भी 65,247.22 करोड़ रुपये ज़्यादा है। वित्त मंत्री सुरेश खन्ना ने $करीब डेढ़ घंटे में इस बार का बजट भाषण पढ़ा। इस बजट में कई छोटी-बड़ी घोषणाएँ भी की गयीं।

अगर इस बार के बजट को देखें, तो सबसे पहला प्रश्न यही उठता है कि योगी आदित्यनाथ सरकार के पास इतना पैसा आएगा कहाँ से? अगर राज्य की कुल वार्षिक आय की बात करें, तो वर्ष 2020-21 के मूल आय-व्यय अनुमानों में वर्ष के सभी प्रकार के लेन-देन का अनुमानित शु्द्ध परिणाम (-)98.95 करोड़ रुपये था। इसका अर्थ यह है कि प्रदेश में आय से अधिक व्यय है। ऐसे में इस बार भी इतने बड़े बजट के जुटने में आशंका तो स्वाभाविक रूप से उठती ही है। वित्त मंत्री ने कहा है कि वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में 39,181,10 लाख रुपये की नयी योजनाएँ सम्मिलित की गयी हैं। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास आदि के विकास का ख़ाका भी अपने बजट भाषण में खींचा।

नये रोज़गार बजट में पुराना राग

योगी आदित्यनाथ सरकार दो के वित्त मंत्री सुरेश खन्ना ने रोज़गार क्षेत्र में नये बजट को सुनने के इच्छुकों को पहले सरकार के पुराने काम गिनाने शुरू किये। उन्होंने कहा कि रोज़गार क्षेत्र में निजी निवेश के माध्यम से 1.81 करोड़ युवाओं को निजी क्षेत्र में रोज़गार उपलब्ध कराया गया, जबकि 60 लाख से अधिक युवाओं को स्वरोज़गार से जोड़ा गया। बीते पाँच वर्षों में प्रदेश में पारदर्शी और निष्पक्ष प्रक्रिया से 4.5 लाख युवाओं को सरकारी नौकरी दी गयी। कौशल विकास मिशन के माध्यम से 9.25 लाख से अधिक युवाओं को विभिन्न कार्यक्रमों में प्रशिक्षण दिया गया, जबकि 4.22 लाख युवाओं को विभिन्न कम्पनियों में सेवायोजित कराया गया। माध्यमिक शिक्षा में शिक्षक चयन के लिए साक्षात्कार की प्रक्रिया को समाप्त करके कुल 40,402 शिक्षकों का चयन किया गया है।

उन्होंने कहा कि आगामी पाँच वर्षों में सूचना प्रौद्योगिकी एवं इलेक्ट्रानिक्स उद्योग नीति के माध्यम से राज्य में 40,000 करोड़ रुपये का निवेश करके चार लाख रोज़गार सृजन का लक्ष्य रखा गया है। वहीं वित्त वर्ष 2022-23 में मनरेगा योजना के तहत 32 करोड़ मानव दिवस सृजित करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार ने इस वित्त वर्ष में मुख्यमंत्री ग्रामोद्योग रोज़गार योजना के माध्यम से 800 इकाई की स्थापना करके कुल 16,000 लोगों को रोज़गार देने का लक्ष्य रखा है। माध्यमिक शिक्षा क्षेत्र में 7,540 नये पदों का सृजन किया गया है। आगामी वर्षों में नियुक्ति के लिए चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में भी 10,000 नर्स के पद सृजित किये गये हैं।

शिक्षा क्षेत्र की योजनाएँ

शिक्षा क्षेत्र के लिए घोषणाएँ करते हुए शिक्षा मंत्री ने कहा कि आगामी पाँच वर्षों में 1,500 करोड़ की धनराशि से दो करोड़ स्मार्ट फोन व टैबलेट वितरित करने का लक्ष्य रखा है। युवाओं के बीच उद्यमशीलता एवं नवाचार को बढ़ावा देने के लिए उत्तर प्रदेश स्टार्टअप नीति-2020 के तहत पाँच वर्ष में प्रत्येक जनपद में न्यूनतम एक तथा कुल 100 इन्क्यूबेटर्स एवं 10,000 स्टार्टअप्स की स्थापना का लक्ष्य रखा गया है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे विद्यार्थियों को उनके घर के निकट ही कोचिंग की व्यवस्था के लिए मुख्यमंत्री अभ्युदय योजना के तहत 30 करोड़ रुपये की व्यवस्था प्रस्तावित है। प्रदेश के 16 असेवित जनपदों में निजी निवेश के माध्यम मेडिकल कॉलेजों की स्थापना हेतु पीपीपी नीति घोषित की गयी है। एमबीबीएस एवं पीजी पाठ्यक्रमों में सीटों में वृद्धि के लिए 500 करोड़ रुपये की व्यवस्था का प्रस्ताव है। 25 करोड़ रुपये से नर्सिंग कॉलेज की स्थापना होगी।
100.45 करोड़ रुपये से अटल बिहारी वाजपेयी चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ की स्थापना होगी। 14 जनपदों में निर्माणाधीन नये मेडिकल कॉलेजों के लिए 2,100 करोड़ रुपये का प्रस्ताव है। 113.52 करोड़ रुपये से गोरखपुर में आयुष विश्वविद्यालय की स्थापना होगी। वर्ष 2022-2023 में परिषदीय विद्यालयों में स्कूल चलो अभियान के अन्तर्गत दो करोड़ छात्रों के नामांकन का लक्ष्य है। कक्षा एक से आठ तक के छात्रों के खाते में सीधे पैसे भेजने के लिए 370 करोड़ रुपये की राशि का प्रस्ताव है। सैनिक स्कूलों के संचालन हेतु 98.38 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। 324.41 करोड़ रुपये से संस्कृत पाठशालाओं का उद्धार होगा।

राजकीय महाविद्यालयों में स्मार्ट क्लासेज की स्थापना हेतु 10 करोड़ रुपये की व्यवस्था का प्रस्ताव है। राजकीय महाविद्यालयों के निर्माणाधीन भवनों को पूर्ण किये जाने हेतु 200 करोड़ रुपये की व्यवस्था का प्रस्ताव रखा गया है। प्रदेश में 75 नये राजकीय महाविद्यालयों की स्थापना का कार्य प्रगति पर है। छात्रों को मु$फ्त ऑनलाइन संस्कृत प्रशिक्षण देने के लिए सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में ऑनलाइन संस्कृत प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया जाएगा। इसकी स्थापना के लिए 01 करोड़ 16 लाख रुपये की व्यवस्था का प्रस्ताव इस बजट में रखा गया है।
विद्यार्थियों को न्यू एज ट्रेड्स के अन्तर्गत चार पाठ्यक्रमों- डाटा साइंस एवं मशीन लर्निंग, इंटरनेट ऑफ थिग्स साइबर सिक्योरिटी और ड्रोन टेक्नोलॉजी के तहत शिक्षण प्रशिक्षण कराये जाएँगे। प्रदेश के 04 राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों को मॉडल आईटीआई के रूप में विकसित किया जाएगा। नवीन राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में से 31 को पीपीपी मॉडल से संचालित किया जाएगा। उत्तर प्रदेश कौशल विकास मिशन के तहत दो लाख युवाओं को प्रशिक्षण प्रदान किया जाएगा।

खेल क्षेत्र के लिए घोषणाएँ

वित्त मंत्री ने कहा कि वाराणसी में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम की स्थापना के लिए 95 करोड़ रुपये से भूमि क्रय का प्रस्ताव है। खेल के विकास एवं उत्कृष्ट कोटि के खिलाड़ी तैयार करने के लिए मेरठ के मेजर ध्यानचंद खेल विश्वविद्यालय पर 700 करोड़ रुपये का व्यय किया जाएगा। 75 जनपदों में खेलों इंडिया सेंटर्स की स्थापना करने का लक्ष्य रखा गया।

ग़रीबों को पक्की छत

प्रदेश में ग़रीबों को पक्की छत (पक्के घर) देने के लक्ष्य के तहत गाँवों में 7,000 करोड़ रुपये प्रधानमंत्री आवास योजना में एवं 508.63 करोड़ रुपये मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत व्यय किये जाएँगे। ग्राम्य विकास व पंचायतीराज के लिए 2022-23 में 44,290.84 करोड़ रुपये का प्रवधान है। वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार लोक कल्याण संकल्प पत्र का वादा पहले ही बजट में पूरा करेगी। मनरेगा योजना के तहत इसी वित्तीय वर्ष में 15,463 तालाबों और 5,882 खेल मैदानों को सँवारा जाएगा।

पंचायतों का बढ़ेगा बजट

प्रदेश में पंचायतों की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए केंद्र से मिलने वाली धनराशि के सापेक्ष राज्य सरकार भी 7,466 करोड़ रुपये देगी। इसके अतिरिक्त स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण के लिए 1,788.18 करोड़ रुपये, सम्पूर्ण परिवार सर्वेक्षण उत्तर प्रदेश योजना के लिए 10 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान योजना में पंचायतों के क्षमता संवर्धन, प्रशिक्षण व संरचनात्मक ढाँचा बनाने के लिए 539.86 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गयी है।

दुग्ध उत्पादन पर ध्यान

प्रदेश में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए दुग्ध संघों के पुनर्जीवन व सुदृढ़ता के लिए 60 करोड़ रुपये की व्यवस्था का प्रावधान है। मथुरा में 3,000 लीटर प्रतिदिन क्षमता का नया डेयरी प्लांट खोलने के लिए आठ करोड़ रुपये दिये जाएँगे। वाराणसी व मेरठ में ग्रीन फील्ड डेयरी प्लांट के लिए 79.82 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गयी है।

खाद्य उद्योग का उन्नयन

प्रदेश में असंगठित क्षेत्र की खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को प्रशिक्षण, नवीन तकनीक, विपणन एवं ऋण सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए 120.86 करोड़ रुपये की लागत से प्रधानमंत्री खाद्य उद्योग उन्नयन योजना प्रारम्भ की जाएगी। इसके अतिरिक्त सहकारिता विभाग में सहकारी संस्थाओं के माध्यम से किसानों को रियायती दरों पर ऋण उपलब्ध कराने के लिए 300 करोड़ रुपये से ब्याज अनुदान योजना शुरू होगी। साथ ही रासायनिक उर्वरकों के अग्रिम भण्डारण के लिए 150 करोड़ रुपये का प्रावधान है।

कैसे होगी पैसे की व्यवस्था?

वित्त मंत्री खन्ना ने वित्त वर्ष 2022-23 के बजट का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए पैसे की व्यवस्था कहाँ से होगी यह भी बताया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार की कुल अनुमानित प्राप्तियाँ 5,90,951.71 करोड़ रुपये की हैं। इन कुल अनुमानित प्राप्तियों में 4,99,212.71 करोड़ रुपये की आवक राजस्व के माध्यम से होगी। वहीं 91,739 करोड़ रुपये की अनुमानित पूँजीगत प्राप्तियाँ आने का अनुमान है। कराधान (टैक्स) प्रक्रिया से 3,67,153.76 करोड़ रुपये की प्राप्ति का अनुमान है। इसमें राज्य का स्वयं की कराधान अनुमानित 2,20,655 करोड़ रुपये है, जबकि केंद्रीय करों में राज्य का अंश 1,46,498.76 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

वित्त मंत्री ने पैसे की एक अनुमानित आवक का ब्योरा अपने भाषण में दिया। मगर यह आवक वित्त वर्ष 2022-23 के पेश बजट से का$फी कम है। ऐसे में प्रश्न यह है कि शेष बजट की व्यवस्था सरकार कहाँ से करेगी? क्योंकि अगर पैसा कम पड़ा, तो स्पष्ट है कि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकेगी, जिससे योगी आदित्यनाथ सरकार के पिछले कार्यकाल की तरह ही तमाम वादे फाइलों में ही दबे रह जाएँगे।
प्रश्न यह भी है कि क्या योगी आदित्यनाथ की सरकार एक ने पिछले वादों को पूरा किया है? योगी सरकार की पिछली पारी में भी शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण व शहरी विकास तथा रोज़गार देने के वादे जमकर किये गये। किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया गया, मगर किसी भी क्षेत्र में सन्तुष्टिपूर्ण कार्य नहीं हो सका।

विश्व बाल श्रम निषेध दिवस सरकार करे मजबूर बच्चों की फ़िक्र

बाल श्रम एक बड़ी सामाजिक समस्या है। इसी पर रोक के लिए पूरी दुनिया में हर साल 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाया जाता है। ठीक 20 साल पहले अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ ने बाल श्रम ख़त्म करने के उद्देश्य से आवश्यक कार्रवाई लिए वर्ष 2002 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाने की शुरुआत की थी। बता दें कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों द्वारा काम कराये जाने को बाल श्रम में रखा गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ का विश्व बाल श्रम निषेध दिवस मनाने का उद्देश्य ऐसे बच्चों को शिक्षा दिलाना और उन्हें जागरूक करना है।

बाल श्रम से बच्चों को मुक्त कराने और उनके अधिकार के लिए लडऩे वालों को दुनिया का श्रेष्ठ सम्मान नोबेल पुरस्कार दिया जाता है। भारतीय बाल अधिकार कार्यकर्ता और बाल-श्रम के विरुद्ध पक्षधर कैलाश सत्यार्थी को वर्ष 2014 में पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई के साथ नोबेल पुरस्कार मिला था। लेकिन अफ़सोस कि हिन्दुस्तान में बाल श्रम को ख़त्म नहीं किया जा सका। न ही नोबेल पुरस्कार पाने के बाद कैलाश सत्यार्थी का बाल श्रम से बच्चों को बचाने का पहले जैसा अभियान देश में देखने को मिला। हिन्दुस्तान में बाल श्रम का यह हाल है कि हर ढाबे, चाय की दुकान और अनेक फैक्ट्रियों में एक-दो बच्चे काम करते मिल जाएँगे। भले ही ये बच्चे मजबूरी में पढ़ाई की जगह नौकरी करते हैं; लेकिन इनकी परेशानी को लोग अमूमन नहीं समझते और न ही केंद्र सरकार व राज्य सरकारें इस ओर कोई खास ध्यान देती हैं। हालाँकि इस ओर केवल सरकारों को ही नहीं, बल्कि श्रम संगठनों, बाल संरक्षक संस्थाओं, नागरिकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, समाज, समाज सुधारकों, नेताओं, अभिनेताओं, धर्म गुरुओं, माँ-बाप और नियोक्ताओं, सबको ही ध्यान देने की ज़रूरत हैं। देश में 5 से 14 साल तक के 15 फ़ीसदी बच्चे मजबूरी में बाल श्रम का शिकार हैं।

बाल श्रम निषेध दिवस की थीम-2022

बाल श्रम निषेध की हर साल थीम तय की जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2019 में इसकी थीम ‘बच्चों को खेतों में काम नहीं, बल्कि सपनों पर काम करना चाहिए’ थी। इसी तरह वर्ष 2020 में इसकी थीम ‘बच्चों को कोरोना महामारी’ रखी गयी। वर्ष 2021 की थीम ‘कोरोना वायरस के दौर में बच्चों को बचाना’ रखी गयी थी। इस बार यानि 2022 में विश्व बाल श्रम निषेध दिवस की थीम ‘बाल श्रम को समाप्त करने के लिए सार्वभौमिक सामाजिक संरक्षण’ है। सवाल यह है कि क्या हर साल एक नयी थीम बनाने भर से बाल श्रम रुकेगा? क्योंकि विश्व बाल श्रम निषेध दिवस वाले दिन बच्चों को बचाने की मुहिम पर भाषण देने भर से यह समस्या ख़त्म नहीं होने वाली।

बाल श्रम के नुक़सान

बाल श्रम के नुक़सान केवल श्रम के चंगुल में फँसे बच्चों को ही नहीं होते, बल्कि समाज और देश को भी होते हैं। बच्चों के बाल श्रम में फँसने से उनकी ज़िन्दगी बुरी तरह या कुछ हद तक बर्बाद ज़रूर होती है। बाल श्रम के पीछे भयावह और दिल दहला देने वाली घटनाएँ भी सामने आती रहती हैं, जिनमें बच्चों के यौन शोषण से लेकर उनसे अवैध कार्य कराने तक के मामले सामने आते रहते हैं। इन सबके चलते श्रम करने वाले बच्चों का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास नहीं होता है और न ही वे जीवन में तरक़्क़ी कर पाते हैं। दरअसल बाल श्रम के पीछे निर्दयी और सामंतवादी विचारधारा का बड़ा हाथ है। कितने ही बच्चे बहुत मजबूरी में बचपन से ही नौकरी करने लगते हैं। अगर बच्चों से श्रम करवाने वाले लोग निर्दयी और सामंतवादी सोच के न हों, तो बाल श्रम को काफ़ी हद तक रोका जा सकता है। हमारे देश में आज भी व्यापक स्तर पर बच्चों अधिकारों का हनन कुछ लोग बाल श्रम के लालच में करते हैं। यही वजह है कि एगमार्क जैसे बाल श्रम के मानक अस्तित्व में आये।

जागरूकता के अभाव में लोग बाल श्रम को अनदेखा करते हैं और बच्चों से काम कराने वालों से कुछ नहीं कहते। सवाल यह है कि क़ानूनी तौर पर बालक कौन है? दुकान एवं स्थापना अधिनियम (फैक्ट्री अधिनियम)-1948 की धारा-2(2) में कहा गया है कि 15 वर्ष से कम उम्र वाले बच्चे से श्रम करवाना बाल श्रम है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि मां-बाप भी अपने बच्चों से कोई काम नहीं करा सकते। दरअसल भारतीय संविधान का अनुच्छेद-45 में 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चे को बाल यानि बालक माना गया है। हालाँकि गार्डन वर्कर एक्ट-1951 12 वर्ष से कम, खनन अधिनियम-1952 16 वर्ष से कम, महिलाओं एवं बालिकाओं में अनैतिक तस्करी के प्रतिषेध अधिनियम-1956 में 21 वर्ष से कम, बीड़ी और सिगरेट श्रमिक अधिनियम (रोज़गार दशाएँ) 1966 में 14 वर्ष से कम, किशोर न्याय (बालक के संरक्षण व ध्यान) अधिनियम-1986 में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को बालक माना गया है।

वर्ष 1989 में अपनाये गये बच्चों के अधिकारों पर अभिसमय-का अनुच्छेद-28, अनुच्छेद-32 और अनुच्छेद-34 में क्रमश: बच्चों को शिक्षा के अधिकार की लड़ाई, यौन शोषण और प्रताडऩा से संरक्षण की और श्रम के लिए मजबूर बच्चों को प्रशय देने की व्यवस्थाओं को सरकारों की ज़िम्मेदारी बताया गया है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अभिसमय-138 व 182 में भी बाल अधिकारों के संरक्षण पर जोर दिया गया है। बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) संशोधन अधिनियम-2006 में भारतीय दण्ड संहिता धारा 82 के तहत प्रावधान है कि 7 वर्ष या इससे कम उम्र के बच्चों को किसी भी अपराध में दण्डित करना वर्जित है। दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 125 में प्रावधान है कि संतान चाहे वैध हो या अवैध, वह भरण-पोषण व भत्ते की अधिकारी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अनुसार बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम-2001 में जोड़े गये नये अनुच्छेद-21 में कहा गया है कि राज्यों को 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की उम्र तक के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध करना होगा। अनुच्छेद-24 कहता है कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों से कारख़ाने, खान, परिसंकटमय गतिविधियों, निर्माण, रेलवे आदि में काम कराना निषिद्ध है। संविधान के अनुच्छेद-39 (ई) कहता है कि राज्यों का कर्तव्य है कि वे सुनिश्चित करें कि बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और उन्हें आर्थिक तंगी के चलते विवश होकर ऐसे श्रम के लिए न जाना पड़े, जो उनकी आयु एवं शक्ति के अनुकूल न हो। अनुच्छेद-39 (एफ) कहता है कि बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ एवं शैशव से लेकर किशोर अवस्था तक शोषण से, नैतिक और आर्थिक परित्याग से उनका संरक्षण हो।

इसी प्रकार 86वें संविधान संशोधन के अधिनियम-2001 में मूल कर्तव्यों के अध्याय में एक अन्य खण्ड 51 (के) जोड़ा गया, जिसमें यह प्रावधान है कि 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करना उनके माता-पिता या अभिभावकों का कर्तव्य है।

बाल श्रम कराने पर सज़ा कितनी?

बाल श्रम कराना क़ानूनी अपराध की श्रेणी में आता है। बावजूद इसके बहुत-से लोग, जो किसी-न-किसी व्यवसाय से जुड़े होते हैं, बच्चों से काम कराते हैं। इन लोगों का तर्क होता है कि उन बच्चों की मजबूरी पर तरस खाकर ये उन्हें काम देते हैं, लेकिन सच यह भी है कि कम पैसे में ज़्यादा काम के लालच में कई लोग बच्चों को काम पर रखते हैं। हालाँकि इसमें यह भी कारण है कि कई बच्चों के कंधों पर अपने घर की बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। इनमें कई बच्चे अनाथ होते हैं, तो कई के घर में कोई बड़ा कमाने वाला नहीं होता या कमाने योग्य नहीं होता। ऐसे में सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि वे ऐसे बच्चों को चिह्नित करके उनके रहने, खाने और पढ़ाने की व्यवस्था करें। आज भारत में लाखों बच्चे बाल श्रम की भट्ठी में तप रहे हैं, जिन्हें वहाँ से निकालकर उनका भविष्य बनाने की महती ज़रूरत है। बच्चों से श्रम कराने वालों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि ऐसा करने पर उन्हें एक साल की जेल से लेकर कम-से-कम 10,000 रुपये के ज़ुर्माने का प्रावधान है। धारा 14 के तहत ज़ुर्माने की राशि को बढ़ाकर 20,000 रुपये भी किया जा सकता है।

आयोग व समितियाँ

हमारे देश में बाल श्रम तथा श्रम पर अब तक कई आयोगों और समितियों का गठन हो चुका है; लेकिन बाल श्रम को ख़त्म नहीं किया जा सका है। बाल श्रम सम्बन्धी समिति की संस्तुति पर केंद्र सरकार ने श्रम मंत्रालय के अंतर्गत बाल श्रम पर विशेष केंद्रीय सलाहकार बोर्ड का गठन किया है, जिसका काम बाल श्रम की समीक्षा करना और सलाह देना है। श्रम पर राष्ट्रीय आयोग 1969 व बाल श्रम पर समिति 1981 की रिपोर्टों में हिन्दुस्तान में बाल श्रम के कारणों व परिणामों की जाँच की गयी है।
इसके अलावा सन् 1974 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नीति की घोषणा की, 1975 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति का प्रस्ताव पारित करने के साथ राष्ट्रीय बाल बोर्ड का गठन किया, 1987 में बच्चों पर राष्ट्रीय नीति बनी, जिसमें कहा गया कि बच्चे देश की सबसे महत्त्वपूर्ण और क़ीमती सम्पत्ति हैं। इसके अलावा बाल श्रम पर राज्यों ने भी समितियों और आयोगों का गठन किया हुआ है। लेकिन बाल श्रम पर प्रतिबंध आज तक नहीं लग सका। कोरोना महामारी में रोज़गार के अभाव और घर में किसी कमाने वाले की मृत्यु के बाद बाल श्रम में बढ़ोतरी होना कोई बड़ी बात नहीं। इसलिए सरकार को देश भर में बाल श्रमिकों की संख्या जानने के लिए सर्वे कराना चाहिए, ताकि बाल श्रमिकों को एक बेहतर जीवन दिया जा सके।

हिन्दुस्तान में बाल श्रम अधिनियम

बाल श्रम के निराकरण के लिए कई वैधानिक प्रावधान किये गये। इनमें से कुछ प्रावधान इस प्रकार हैं :-
 कारख़ाना अधिनियम-1948
 न्यूनतम मजदूरी अधिनियम-1948
 गार्डन वर्कर अधिनियम-1951
 अपरेंटिसशिप अधिनियम-1961
 मोटर वाहन अधिनियम-1961
 खनन अधिनियम-1952
 दुकान एवं स्थापन अधिनियम-1961
 शिशु अधिनियम-1961 (यथासंशोधित, 1978)
 बीड़ी व सिगरेट श्रमिक अधिनियम-1966
 बँधुआ श्रम प्रणाली अधिनियम-1976
 बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) अधिनियम-1986
 किशोर न्यायालय अधिनियम-1986
 किशोर न्याय (बच्चों की देख रेख एवं संरक्षण) अधिनियम-2000

सावधानी से होगा मंकी पॉक्स से बचाव

कोरोना वायरस जैसी महामारी का दुनिया में अभी भी ख़ौफ़ है। इसी बीच अब मंकी पॉक्स जैसी संक्रमित बीमारी लोगों में भय फैला रही है। डॉक्टरों का कहना है कि मंकी पॉक्स एक संक्रामक बीमारी है। अगर लापरवाही बरती गयी, तो यह भी कहर बरपा सकती है। कोरोना वायरस अभी मौज़ूद है। ऐसे में मंकी पॉक्स से बचाव ज़रूरी है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि सबसे पहले सन् 1958 में बंदरों में यह वायरस पाया गया था। तभी से इसका नाम मंकी पॉक्स रखा गया है। उसके बाद सन् 1970 में यह वायरस अफ्रीका के 10 देशों में पाया गया। सन् 2003 में अमेरिका में मंकी पॉक्स का कहर रहा। इसके बाद सन् 2017 में नाइजीरिया में मंकी पॉक्स ने कहर बरपाया। अब मौज़ूदा समय में फिर से अमेरिका कनाडा और अफ्रीका के कई देशों में मंकी पॉक्स का कहर है। इन देशों में मंकी पॉक्स को लेकर अलर्ट जारी किया गया है। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि मंकी पॉक्स को लेकर भारत को भी सावधान रहने की ज़रूरत है, क्योंकि यह संक्रमित बीमारी है और तेज़ी से एक से दूसरे में फैलती है।

मैक्स अस्पताल साकेत के कैथ लैब के डायरेक्ट व हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि भले ही मंकी पॉक्स ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है; लेकिन कोरोना-काल के चलते हमें सावधान रहने की ज़रूरत है। उनका कहना है कि अगर बुख़ार के साथ मांसपेशियों में दर्द के साथ सूजन हो, तो उसे नज़रअंदाज़ न करें। हृदय रोगियों के हाथ-पैरों में अगर चकत्ते के साथ-साथ घबराहट और बेचैनी हो, तो उसे नज़रअंदाज़ न करें। डायबिटीज और रक्तचाप के रोगियों को यह वायरस ज़्यादा नुक़सान पहुँचा सकता है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि मंकी पॉक्स ने भले ही अभी भारत में दस्तक न दी हो; लेकिन यह संक्रमित बीमारी है। भारतीय लोगों का दुनिया में आना-जाना है, इसलिए मंकी पॉक्स का कहर भारत में आ सकता है। मंकी पॉक्स हाथ-पैरों से फैलता है, फिर पूरे शरीर में चकत्ते के साथ छोटी-छोटी फुंसियाँ होने लगती हैं। कई बार तो ये बड़े घाव में बदल जाती हैं। अगर आँखों के पास ये घाव बड़े हो जाएँ, तो आँखों की रोशनी भी जा सकती है। इसलिए शुरुआती दौर में ही मंकी पॉक्स के इलाज की ज़रूरत है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि भारत बड़ी जनसंख्या वाला देश है। इसलिए यहाँ संक्रमण तेज़ी से फैलने का डर है। मंकी पॉक्स का कोई टीका भी दुनिया में कहीं उपलब्ध नहीं है। यह छोटी माता (स्मॉल पॉक्स) का बड़ा रूप है। इसलिए छोटी माता के लिए बनी वैक्सीन से ही इसका इलाज हो सकता है।

दिल्ली सरकार के स्टेट प्रोग्राम ऑफिसर डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि कोरोना वायरस जैसी बीमारी से दुनिया जूझ ही रही है। उस पर मंकी पॉक्स वायरस की दस्तक हमें सतर्क करती है। मंकी पॉक्स जैसी बीमारी को जागरूकता तथा सावधानी से हराया जा सकता है। भारत के कई राज्यों के कुछ गाँवों में अंधविश्वास का ज़्यादा बोलवाला है, इसलिए मंकी पॉक्स को लोग बड़ी माता या चिकन पॉक्स का प्रकोप मानकर स्वयं इलाज करने लगते हैं। साथ ही छाड़-फूँककर इलाज करने लगते हैं, जो ठीक नहीं है। हालाँकि मंकी पॉक्स लेकर घबराने की ज़रूरत नहीं है। सावधानी के साथ-साथ संक्रमित और भीड़भाड़ वाली जगहों से बचने की ज़रूरत है।

डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि लोग अज्ञानता के कारण अपनी बीमारी को छिपाने लगते हैं। इससे बीमारी बढऩे के साथ-साथ दूसरों में संक्रमण का ख़तरा बढ़ जाता है।

बताते चलें कि, मंकी पॉक्स को लेकर भारतीय स्वास्थ्य महकमा चौकन्ना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि मंकी पॉक्स उन देशों में फैल रहा है, जहाँ पहले कभी मंकी पॉक्स नहीं फैला है। ऐसे में सभी देशों को मंकी पॉक्स को लेकर सावधानी बरतने की ज़रूरत है; क्योंकि इस बीमारी की चपेट में बच्चे, युवा और बुज़ुर्ग सभी आ सकते हैं।

हैदराबाद मुठभेड़ मामला

कठघरे में पुलिस, चलेगा मुक़दमा?

हैदराबाद मुठभेड़ मामले में पुलिस की छवि पर एक बार फिर सवाल उठे हैं। इन सवालों को नज़रअंदाज़ इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सवाल देश की शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने उठाये हैं और हैदराबाद में सन् 2019 में हुई मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। याद दिला दें कि 27 नवंबर, 2019 में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से सटे शादनगर में रात के वक़्त 27 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक का अपहरण करने के बाद उसके साथ बलात्कार किया गया और फिर उसकी जलाकर हत्या करने के बाद उसके अधजले शव को दंरिदों ने एक पुल के नीचे फेंक दिया था।

इस घटना के ख़िलाफ़ जन-आक्रोष फूटा और वहाँ की पुलिस ने आनन-फानन में इस मामले में शामिल चारों अभियुक्तों को 6 दिसंबर, 2019 को गिर$फ्तारी के बाद कथित मुठभेड़ में मार गिराया। तेलंगाना पुलिस के अनुसार, वह इन चारों अभियुक्तों को अपराध वाली जगह पर लेकर गयी थी, जहाँ उन्होंने भागने की कोशिश की और फिर पुलिस पर हमला करने की भी कोशिश की। इस दौरान जवाबी कार्रवाई में चारों अभियुक्त पुलिस की गोली के शिकार हो गये। पुलिस का कहना था कि उसने आत्मरक्षा के लिए गोलियाँ चलायीं। देश में आम लोगों ने इस घटना में पुलिस की तारीफ़ की; लेकिन कई सामाजिक संगठनों ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया। मामला न्यायालय पहुँचा, और अब शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया है। 20 मई को पैनल ने सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी है और हैदराबाद की इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार देने के साथ-ही-साथ इस मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मामला चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से दावा किया गया था कि दुष्कर्म और हत्या के आरोपियों ने उनसे उनकी पिस्तौल छीन ली थी और भागने की कोशिश भी की थी। हालाँकि पुलिस अपने इस दावे को अदालत में साबित नहीं कर पायी।

सवाल यह भी उठता रहा है कि क्या पुलिस ने उन चारों आरोपियों को वारदात वाली जगह पर ले जाकर खुला छोड़ दिया था? क्या उन चारों को पहले भागने का मौक़ा दिया गया? क्या पैरों में गोली मारने की बजाय चारों को जान से मारना ही इकलौता विकल्प पुलिस को नज़र आया? पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से किये गये दावों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और मौक़े पर मिले सुबूत भी इसकी पुष्टि नहीं करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिसकर्मियों ने जानबूझकर गोलियाँ चलायी थीं और उन्हें पता था कि ऐसा करने पर उन लोगों की मौत भी हो सकती है। इसलिए यह मुठभेड़ फ़र्ज़ी है और पुलिस के दावे ग़लत प्रतीत होते हैं। पैनल की रिपोर्ट व यह मामला तेलंगाना उच्च अदालत को भेज दिया गया है। ग़ौरतलब है कि देश में पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं, इसके औचित्य को लेकर पक्ष व विरोध में दलीलों की कोई कमी नहीं है। एक लॉबी का मानना है कि पुलिस के हाथ बाँधने की ज़रूरत नहीं है, जबकि दूसरी लॉबी का कहना है कि पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर लोगों से उनके क़ानूनी अधिकार नहीं छीन सकती।

दरअसल मूल मुद्दा यह है कि भारत का क़ानून आत्मरक्षा के अधिकार के अंतर्गत आम आदमी को जितने अधिकार देता है, उतने ही अधिकार पुलिस को भी हासिल हैं। लेकिन अन्तर इतना है कि आम आदमी अगर आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारता है, तो उसमें आवश्यक रूप से एफआईआर दर्ज होती है; लेकिन पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारती है, तो उसे मुठभेड़ का नाम दे दिया जाता है। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि किसी भी आदमी की जान जाती है या वह गम्भीर रूप से घायल हो जाता है, तो उसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने 2014 में पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों व गम्भीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जाँच के लिए 16 दिशा-निर्देश जारी किये थे। ग़ौरतलब है कि भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन की बैंच ने इस फ़ैसले में लिखा था कि पुलिस मुठभेड़ के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिए इन 16 नियमों का पालन किया जाना चाहिए। इन 16 नियमों में प्रमुख हैं- जब कभी भी पुलिस को किसी तरह की आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, तो वह या तो लिखित में हो जो ख़ासतौर पर केस डायरी की शक्ल में हो या फिर किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिये हो। धारा-176 के तहत पुलिस फायरिंग में हुई हर एक मौत की मजिस्ट्रियल जाँच होनी चाहिए। इसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजना भी ज़रूरी है। अगर किसी भी आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है या फिर पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की गोलीबारी की जानकारी मिलती है और उसमें किसी के मर जाने की सूचना आये, तो इस पर फ़ौरन धारा-157 के तहत अदालत में एफआईआर दर्ज करनी चाहिए। इस पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जाँच सीआईडी या दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम से करवाना ज़रूरी है। जब तक स्वतंत्र जाँच में किसी तरह का सन्देह सामने नहीं आता है, तब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जाँच में शामिल करना ज़रूरी नहीं है। हाँ, घटनाक्रम की पूरी जानकारी बिना देरी किये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य मानवाधिकार आयोग के पास भेजना ज़रूरी है।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत सम्मान से जीने का अधिकार निहित है। इसने यह भी व्यवस्था दी थी कि पुलिस मुठभेड़ में किसी के मारे जाने से क़ानून के शासन तथा आपराधिक न्यायप्रणाली की विश्वसनीयता आहत होती है। न्यायमूर्ति लोढा ने अपने उस फ़ैसले में कहा था अनुच्छेद-21 में निहित गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है और यहाँ तक कि सरकार भी इस अधिकार का हनन नहीं कर सकती। अनुच्छेद-21 के तहत मिले अधिकार एवं संविधान के अन्य प्रावधानों के समान ही कई और संवैधानिक प्रावधान भी निजी स्वतंत्रता, सम्मान और मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं। पर सवाल यह है कि नागरिकों के जीवन एवं निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ में मौत की घटनाएँ जारी हैं। ग़ौरतलब है कि गत फरवरी में ही सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पाँच वर्षों में देश में कुल 655 पुलिस मुठभेड़ हत्याएँ हुई हैं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 191 हतयाएँ हुई हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 117, असम में 50, झारखण्ड में 49, ओडिशा में 36 व बिहार में 22 ऐसी घटनाएँ हुई हैं।
दरअसल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मार्च, 1997 में इस सन्दर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे। जैसे कि जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस मुठभेड़ की जानकारी मिले, तो वह फ़ौरन इसे रजिस्ट्रर में दर्ज करे। जैसे ही ऐसी कोई जानकारी मिले व जाँच में किसी तरह का सन्देह पैदा हो, तो उसकी जाँच करना ज़रूरी है। अगर जाँच में पुलिस अधिकारी दोषी पाये जाते हैं, तो मारे गये लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।

यही नहीं, सन् 2010 में भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बनाये गये नियमों की सूची में कुछ और नियम भी जोड़ दिये थे। 12 मई, 2010 को इस आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायाधीश जी.पी. माथुर ने कहा था कि पुलिस को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि बहुत से राज्यों में इस सन्दर्भ में आयोग के नियमों का पालन नहीं होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है। त्वरित न्याय के नाम पर आरोपियों को अदालत में अपनी बात रखने का मौक़ा भी नहीं दिया जाता। आत्मरक्षा के नाम पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ का सिलसिला कब तक जारी रहेगा। समाज को भी गहन आत्म-चिन्तन करना चहिए कि आख़िर वह क्यों कई मर्तबा पुलिस के ऐसे काले कारनामों के साथ खड़ा नज़र आता है। जैसे कि हैदराबाद के ही इस कथित मुठभेड़ के मामले में वहीं की जनता ने पुलिस वालों की शान में फूल बरसाये थे और साफ़तौर पर सन्देश दिया था कि न्याय ऐसे ही होना चाहिए।

महँगाई पर मामूली छूट का तडक़ा

बेअसर साबित होगी महँगाई से मामूली राहत, उठाने होंगे ठोस क़दम

जब भी देश में महँगाई बढ़ती है, तो सरकार बढ़ती महँगाई के लिए कई कारणों को ज़िम्मेदार बताती है। लेकिन महँगाई घटने का श्रेय लेने में देर नहीं लगाती। जैसे पेट्रोल, डीजल, सीएनजी और रसोई गैस के दामों के साथ-साथ अन्य वस्तुओं के बढ़ते दामों के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया गया। लेकिन अब जब कुछ महीनों में कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने की आहट आनी लगी और महँगाई का विरोध चौतरफ़ा होने लगा, तो सरकार ने महँगाई कुछ कम करने की जुगत निकाली। इससे कुछ उपभोक्ताओं को कुछ राहत तो मिली; लेकिन सरकार ने इसका सारा श्रेय लेने में देर नहीं की। मामूली महँगाई कम करने में जो सियासी माहौल बनाया गया है, उसका चर्चा लोगों में है।

पेट्रोल-डीजल और गैस पर आर्थिक मामलों के जानकारों ने ‘तहलका’ बताया कि मौज़ूदा दौर में जो सियासी माहौल चल रहा है, उसमें धरातल पर कम आँकड़ों पर ज़्यादा खेल चल रहा है। इसका लाभ पूँजीपतियों को मिल रहा है। महँगाई में थोड़ी-सी राहत भी उसी का हिस्सा है। पूँजीपति जानते हैं कि कब महँगाई बढऩी है और कब कम होनी है।

आर्थिक मामलों के जानकार विभूति शरण ने बताया कि देश में बढ़ती महँगाई के चलते सरकार के जन प्रतिनिधियों को जनता के कोप-भाजन का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार के ही लोगों का सरकार पर दबाव है। उनका मानना है कि अगर समय रहते महँगाई पर क़ाबू नहीं पाया गया, तो चुनाव में इसके परिणाम जो भी हों; लेकिन जनमानस को क्रोधवश सडक़ों पर उतरने को देर नहीं लगेगी। तब स्थिति को सँभालना मुश्किल होगा और विपक्ष को मौक़ा मिलेगा। इन्हीं तमाम पहलुओं पर सरकार ने सियासी गुणा-भाग करके महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए थोड़ी-सी राहत दी गयी है। इसके तहत केंद्र सरकार ने डीजल, पेट्रोल और उज्ज्वला योजना के तहत दिये जाने वाले गैस सिलेंडरों के दामों में कटौती की है। पेट्रोल 9 रुपये 50 पैसे और डीजल 7.00 रुपये सस्ता किया है। विभूति शरण का कहना है कि डीजल और पेट्रोल के दामों में कमी करने को लेकर सरकार मानना है कि इससे परिवहन ख़र्च और खाद्य वस्तुओं में कमी आने की उम्मीद है।

दिल्ली स्थित चाँदनी चौक के व्यापारी तथा आर्थिक मामलों के जानकार विजय प्रकाश जैन का कहना है कि दुनिया में बढ़ती महँगाई का एक माहौल बनाया जा रहा है। अगर तर्कसंगत अध्ययन किया जाए, तो साफ़ नज़र आता है कि महँगाई जानबूझकर लादी गयी है, ताकि समाज का एक बड़ा वर्ग कमज़ोर हो और उन पूँजीपतियों को लाभ मिले सके, जो सरकार के इशारों पर चलते हैं। विजय प्रकाश जैन का कहना है कि ख़ुदरा और थोक महँगाई के बढऩे से सरकार की चिन्ता बढ़ गयी थी और सरकार पर शुल्क कटौती का दबाब इसलिए बढ़ गया था, क्योंकि रिजर्व बैंक का कहना था कि अगर तेल की क़ीमतें कम नहीं की गयीं, तो महँगाई को क़ाबू पाना मुश्किल होगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम किये गये हैं।

देश में बढ़ती महँगाई को लेकर देश के शहरों से लेकर गाँवों तक जो माहौल बना हुआ है, उसे देखकर और भाँपकर सरकार सहम रही थी। वित्त मंत्रालय से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि सरकार सत्ता के नशे में इस क़दर चूर है कि वो न तो किसी की सुनने को राज़ी है, न जनता की परेशानी समझने को तैयार है। लेकिन सरकार के प्रतिनिधियों का दबाब इस क़दर था कि अगर गाँवों की जनता को अपने पाले में लाना है, तो निश्चित तौर पर उज्ज्वला गैस के दामों को कम करना होगा। नहीं तो गाँवों का जो माहौल सरकार के पक्ष में बना है, उसको बिगडऩे में देर नहीं लगेगी। इसलिए अब उज्ज्वला योजना के लगभग नौ करोड़ लाभार्थियों को साल में 12 सिलेंडर पर 200 रुपये प्रति सिलेंडर की सब्सिडी मिलेगी। कुल मिलाकर उज्ज्वला योजना के माध्यम से सरकार ने बढ़ती महँगाई को कम करने का प्रयास भर ही किया है।
दिल्ली के व्यापारियों का दावा है कि महँगाई से थोड़ी राहत भर दी गयी है। आँकड़ों में उलझानों का प्रयास किया गया है। दिल्ली के व्यापारी संतोष अग्रवाल का कहना है कि देश में सटोरियों का बोलबाला है, जो महँगाई के लिए काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। अगर देश में महँगाई को रोकना है, तो सटोरियों को रोकना होगा। उनका कहना है कि कब देश में महँगाई कम होगी और कब बढ़ेगी? इसका सारा ख़ाका सटोरियों के पास पहले से होता है। इससे देश के सटोरी जमकर पैसा कमाते हैं। संतोष अग्रवाल का कहना है कि सट्टा और सटोरी के खेल में कुछ राजनीतिक लोगों का हाथ है, जिससे देश में महँगाई का खेला चलता रहता है।

बताते चलें, देश में खाद्य पदार्थ पर ही नहीं, कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिस पर महँगाई की मार न हो। महँगाई की मार का सबसे ज़्यादा असर शिक्षा और स्वास्थ्य पर पड़ा है। स्कूली बच्चों को पाठ्य सामग्री (स्टेशनरी) को ख़रीदना मुश्किल हो रहा है। सरकारी अस्पतालों में आसानी से इलाज न होने से मरीज़ों को निजी अस्पतालों में इलाज कराने में दिक़्क़त हो रही है। जानकारों का कहना है कि देश में कार्पोरेट अस्पतालों का जो चलन बढ़ा है, उससे पीछे देश के पूँजीपतियों का पैसा लगा है। इसी तरह प्राइवेट स्कूलों में भी पैसा लगा है। उनका कहना है कि डीजल और पेट्रोल के दाम जब बढ़ रहे थे, तब स्कूली बस वालों ने किराया बढ़ाया था और अस्पताल वालों ने एम्बुलेंस का किराया जमकर बढ़ाया था। लेकिन डीजल और पेट्रोल के दाम कम हुए हैं, तो उनका बढ़ा हुआ किराया वापस होना चाहिए। इस पर सरकार को ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है। अन्यथा महँगाई से राहत वाली बात जुमला ही साबित होगी।

चौंकाने वाली बात तो यह है कि निजी वाहन वालों को पेट्रोल-डीजल के कम दामों का लाभ तो मिलेगा; लेकिन जो ट्रांसपोर्टरों ने दाम बढ़ाये हैं, उसको अब कम कैसे किया जाएगा? इस पर सरकार को ही सख़्त क़दम उठाने होंगे। नहीं तो पेट्रोल-डीजल के दामों को कम करने का जनमानस को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं मिलेगा। जनता पहले की तरह ही महँगा समान ख़रीदने को मजबूर ही रहेगी।

ट्रांसपोर्टर विमल सिंधू ने बताया कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढऩे के चलते जो किराया-भाड़ा बढ़ाया था, उसकी आड़ में बड़े कारोबारियों ने जमकर लूटा है। यह लूट आज भी जारी है। क्योंकि ट्रांसपोर्टरों ने बढ़े हुए किराये को फिक्स कर दिया है। अब जब पेट्रोल-डीजल के दाम कम हो गये हैं, तो ट्रांसपोर्टर किराया-भाड़ा कम कर रहे हैं कि नहीं। इस तरफ़ सरकार को ही ध्यान देना होगा। अन्यथा महँगाई को कम होने वाला खेल आँकड़ों में ही उलझा रह जाएगा और आम जनता महँगाई की मार से नहीं उभर पाएगी।

आम आदमी पार्टी के समर्थक पंकज सेठ का कहना है कि देश की मौज़ूदा सियासत एक नये अंदाज़ में चल रही है, जहाँ पर सिर्फ़ डरावना वातावरण बनाया जा रहा है और आँकड़ों को खेल खेला जा रहा है। इस खेल में भोली-भाली जनता उलझी हुई है। क्योंकि सरकार के पास बहाना है कि देश में कोरोना महामारी के चलते काफ़ी नुक़सान सरकार को उठाना पड़ा है और अब यूक्रेन-रूस में युद्ध चल रहा है, जिससे देश की आर्थिक हालत पटरी से उतर रही है। सरकार उसे पटरी पर ला रही है।

गाँव से लेकर शहर तक के कई लोगों ने ‘तहलका’ को बताया कि चौतरफ़ा महँगाई की मार से देश का ग़रीब जूझ रहा है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसके दाम न बढ़े हों। अगर सरकार प्रत्येक वस्तु के दामों पर $गौर करे और इन वस्तुओं के दामों को कम करे, तब तो महँगाई से लोगों से राहत मिल सकती है, अन्यथा पेट्रोल-पेट्रोल के दामों में कमी करके एक वातावरण ज़रूर बनाने सरकार को राहत मिलेगी कि बढ़े हुए दामों को कम किया है, जिसका सियासी लाभ उसको मिल सकता है।

कुल मिलाकर हाल ही में महँगाई से जो मामूली राहत सरकार ने दी है, वो बेअसर साबित होगी, क्योंकि यह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है। बता दें कि पिछले महीने थोक महँगाई दर रिकॉर्ड ऊँचाई 15.8 फीसदी पर पहुँच गयी थी, जिसके बाद महँगाई को लेकर व्यापारी वर्ग और कुछ अर्थशास्त्रियों ने चिन्ता व्यक्त की थी।