लोकतंत्र पर हावी होती नौकरशाही

नौकरशाही का आंग्ल भाषी पर्यायवाची ‘ब्यूरोक्रेसी’ फ्रेंच शब्द ‘ब्यूरो’ से लिया गया है, जो कि प्राय: सरकारी विभाग का परिचायक है। आगे चलकर इसका प्रयोग विशेष प्रकार की सरकार को चलाने के लिए सम्भवत: फ्रांसीसी क्रान्ति से पूर्व फ्रेंच सरकार के लिए किया जाता था। 19वीं शताब्दी में इस शब्द का नकारात्मक दृष्टिकोण सारे यूरोप में प्रचलित हो गया; जहाँ भी किसी सरकार एवं उसके अधिकारियों की निरंकुशता, रूढिग़त दृष्टिकोण, स्वेच्छाचारिता आदि को इस रूप में सम्बोधित किया जाता था। भारत में यह साम्राज्यवादी सत्ता का सबसे विकृत प्रतीक रहा है। औपनिवेशिक-काल में ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीयों के स्वीकृति दमन एवं शोषण का कार्यभार इसी तत्कालीन आई.सी.एस. वर्ग के ज़िम्मे था।

स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं में तत्कालीन आई.सी.एस. वर्ग के प्रति एक प्रकार की घृणा का भाव था। आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सन् 1934 से ही अपने विचारों में सिविल सेवा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण प्रदर्शित करने लगे थे। संविधान सभा के ज़्यादातर सदस्य इस पक्ष में थे कि इस दमनकारी ब्रिटिश सत्ता के अंग को उसकी सही जगह दिखा देनी चाहिए। तब सरदार पटेल इनकी ढाल बन गये और थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ इस संवर्ग को यथास्थिति प्राप्त हो गयी।

देश अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ, सत्ता बदली; लेकिन देश की अफसरशाही अपने आचार-विचार एवं सिद्धांतों में यथावत् रही, और आज भी है। भारतीय नौकरशाही सामान्यत: यथास्थितिवादी, रूढ़ एवं पुरानी परम्पराओं की हिमायती है। यह सामाजिक परिवर्तनों एवं समानतावादी वितरण के विरुद्ध है। आज भी इसका झुकाव विशिष्ट व्यक्तियों तथा समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग की तरफ़ होता है। भारतीय प्रशासन का सबसे निकृष्ट पक्ष आम आदमी के साथ उसके सम्बन्ध का है।

आज भी भारतीय जनता मतदान व्यवहार में एक ईमानदार, क्षमतावान, सहयोगपूर्ण रवैया एवं दोस्ताना सम्बन्ध रखने वाले प्रशासन की उम्मीद में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पिछले दो दशकों में नौकरशाही का भारत में असाधारण रूप से अनावश्यक प्रसार हुआ है। इसके साथ ही लालफ़ीताशाही की प्रवृति देश की बौद्धिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक आदि सभी संस्थाओं में फैल गयी है और इनकी क्षमता को कुंद कर रही है। इसके बेहद बुरे पहलू के रूप में केंद्रीय, राज्य स्तरीय और स्थानीय स्तर पर नौकरशाही पर सार्वजनिक धन का अत्याधिक अनावश्यक व्यय बढ़ा है।
एक विशेष बात यह है कि आज भी देश में यह ग़लतफ़हमी है कि नेता ही सबसे भ्रष्ट हैं। सच यह है कि भ्रष्टाचार के नये-नये प्रतिमान देश की नौकरशाही गढ़ रही है। झारखण्ड की खनन सचिव पूजा सिंघल इसकी एक नया उदाहरण बनी हैं। इसमें भी दो-राय नहीं कि भारत के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदार देश की नौकरशाही ही है। अगर प्रशासन के काम का दम्भ का मिथक टूटते देखना चाहते हैं, तो स्वच्छ भारत मिशन के उदाहरण को ही ले लीजिए। काग़ज़ों में ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त) हो चुके गाँवों में मूलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं।
जो लोग प्रशासनिक शक्ति से सुसज्जित (लैस) होकर भी जनता के लिए कुछ न कर सकें, वे राजनीति में आकर क्या बदलाव करना चाहते हैं? यह समझ से परे है। एक घिसापिटा वाक्य कि नेता कुछ करने नहीं देते, वो तो यहाँ नहीं चलेगा। क्योंकि स्वच्छ भारत मिशन सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी, उसकी भी क्या हालत की इन्होंने? प्रमाण के तौर पर उत्तर प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों को छोडि़ए, जिला मुख्यालयों से सटे गाँवों में इस योजना की वास्तविकता ख़ुद देख सकते हैं।

सन् 1964 में पंडित नेहरू ने अपनी असफलता को स्पष्ट करते हुए हुए कहा था- ‘मैं प्रशासन को नहीं बदल सका, यह अभी भी एक औपनिवेशिक प्रशासन है। औपनिवेशिक प्रशासन का जारी रहना, ग़रीबी की समस्या का समाधान करने मैं भारत की असमर्थता का एक प्रमुख कारण है।’
दुर्भाग्य है कि वर्तमान स्थिति भी नेहरू के दौर से भिन्न नहीं है। संवैधानिक प्रावधान के अंतर्गत अनुच्छेद-309, 310, 311 को प्रशासनिक अधिकारियों ने अपना सुरक्षा कवच बना रखा है एवं अदालती कार्रवाई को लम्बा खींचकर अपने लिए अवसर तलाशते आये हैं। लेकिन बीतते समय के साथ सत्ता एवं राजनेताओं का प्रश्रय भी इसमें जुड़ गया। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2005) ने तो प्रशासनिक अधिकारियों की अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करने और अनुशासनहीनता एवं दुराचरण को न्यूनतम करने, सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की पद्धति में विस्तृत परिवर्तन की सिफ़ारिश की थी।

कार्ल माक्र्स लिखते हैं- ‘नौकरशाह के लिए दुनिया, उसके द्वारा हेरफेर करने के लिए एक मात्र वस्तु है।’ पिछले दो दशकों से नौकरशाही को एक नया रोग लगा है- ‘राजनीति में प्रत्यक्ष भागीदारी’। अब नौकरशाह नेतागिरी करते हुए विधायक, सांसद, मंत्री बनने की $ख्वाहिश पाले बैठे हैं। पिछले राजस्थान विधानसभा चुनावों को याद कीजिए, जब नौकरशाहों में होड़ लगी थी कि भाजपा या कांग्रेस किसी भी दल से टिकट पक्का हो और वे वी.आर.एस. या त्याग-पत्र देकर राजनीति में कूद पड़े। निकट सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश के चुनावों को ही देखिए, प्रशासनिक अधिकारियों में चुनावों में उतरने की होड़ लगी थी। सबसे ज़्यादा मारामारी भाजपा के टिकट के लिए थी और भाजपा ने इन्हें टिकट दिया भी। वैसे स्वतंत्र भारत में यह रोग पुराना था। लेकिन सन् 2014 के बाद यह रोग दुर्दम्य रूप में उभरा हैं, जिससे नौकरशाही त्वरित गति से विधायिका का हिस्सा बनी है और यह प्रक्रिया तेज़ होती जा रही है। नौकरशाही के इस रोग के उभार का मुख्य कारण राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व की तानाशाही भरी मानसिकता है।

ऐसा नहीं है कि नौकरशाही ने इससे पहले राजनीति में घुसपैठ नहीं की है, चाहे कांग्रेस की सरकारें हो या अन्य क्षेत्रीय दलों की सरकारें। वैसे इसकी शुरुआत आज़ादी के बाद नेहरू मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री सी.डी. देशमुख के आई.सी.एस. से अवकाश लेकर कांग्रेस में शामिल होने से ही हो गयी थी। उसके बाद से यह प्रक्रिया चलती रही। इंदिरा गाँधी के समय भी टी.एन. कौल, पी.एन. हक्सर, आर.एन. काव का सरकार में दबदबा था। किन्तु वर्तमान परिस्थिति थोड़ी भिन्न हैं। पिछले दौर में नौकरशाही जो पर्दे के पीछे थी, इस समय सरकार में सीधे दख़लअंदाज़ी करने की स्थिति में आ चुकी है। वर्तमान प्रधानमंत्री को नौकरशाहों के साथ सरकार चलाने का विशेष अनुभव हैं। गुजरात के अपने मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने नौकरशाहों के साथ मिलकर अपनी सरकार चलायी है। इसी अनुभव को उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में भी प्राथमिकता दी। सन् 2014 में सत्ता सँभालते ही उन्होंने सबसे पहला क़ानून में संशोधन पूर्व नौकरशाह नृपेंद्र मिश्र को प्रधान सचिव नियुक्त किये जाने के लिए ही किया। बाद में तो नौकरशाह सीधे मंत्रिमंडलों में नियुक्त किये जाने लगे। अब तो एक क़दम आगे बढ़ते हुए इन्हें टिकट वितरण में प्रमुखता दी जाने लगी है।

हरिशंकर परसाई ने लिखा है- ‘सबसे बड़ी मूर्खता है, इस विश्वास से लबालब भरे रहना कि लोग हमें वही मान रहे हैं; जो हम उन्हें मनवाना चाहते हैं।’ कार्य कुशलता, पेशेवर रवैया के नाम पर आज्ञाकारी नौकरशाहों को जिस तरह लोकतांत्रिक सरकार का हिस्सा बनाया जा रहा है। उससे लोग धीरे-धीरे समझ रहे हैं। ये सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप नहीं है। अगर प्रशासनिक अधिकारियों को ही संवैधानिक पदों पर बैठाना है, तो देश को संसदीय प्रक्रिया की क्या आवश्यकता है?

इस समय केंद्रीय मंत्रिमंडल में चार प्रमुख मंत्रालय- रेलवे, ऊर्जा, विदेश और आवास एवं शहरी मामले क्रमश: चार पूर्व नौकरशाहों अश्विनी वैष्णव, आर.के. सिंह, एस. जयशंकर एवं हरदीप पुरी के अधीन हैं। यही हाल उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल का है, जिसमें ए.के. शर्मा, असीम अरुण, राजेश्वर सिंह जैसे प्रशासनिक अधिकारी शामिल हैं। यह तो गनीमत है कि कुछ नौकरशाह भाजपा की लहर में चुनाव जीतकर आये हैं। किन्तु एक बड़ी संख्या ऐसे नौकरशाहों की भी है, जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में पिछले दरवाज़े से घुसाकर मंत्रिमंडल में ही नहीं, बल्कि पार्टी और संगठन के महत्त्वपूर्ण पदों पर तेज़ी से स्थापित किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि एस. जयशंकर या हरदीप पुरी जैसे नौकरशाह योग्य व्यक्ति होंगे; लेकिन उन्होंने न प्रत्यक्ष रूप से चुनाव में जनता का सामना किया है और न ही जनता उनके विचारों से अवगत है। ऐसे नौकरशाहों को राज्यसभा के माध्यम से यानी पिछले दरवाज़े से मंत्री पद पर नियुक्त करना तो लोकतंत्र में एक कुत्सित प्रयास ही माना जा सकता है।

नौकरशाही को चुनावी राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए; क्योंकि यह कई तरह से लोकतंत्र के लिए घातक क़दम होगा। पहला, संवैधानिक मूल्यों का तकाज़ा है कि एक नौकरशाह को राजनीतिक विचारधारा के प्रति निरपेक्ष एवं निष्पक्ष होना चाहिए। किन्तु जो लोग अपनी नौकरी के दौरान ही त्वरित इस्तीफ़ा देकर राजनीतिक दलों में शामिल हो रहे हैं, उनके विषय में यह कैसे माना जाए कि वे अपने सेवा-काल में किसी दल विशेष के अनुकूल नहीं रहे होंगे? मुख्य प्रश्न यह है कि नौकरशाही की संविधान के प्रति आस्था एवं कर्तव्य भावना, जो पहले ही अपने न्यूनतम स्तर पर है; धीरे-धीरे शून्य हो जाएगी। कश्मीर काडर के आई.ए.एस. शाह $फैसल का उदाहरण लें, जिन्होंने नौकरी छोड़ राजनीतिक दल का गठन किया और जो राजनीतिक लाभ पाने के लिए इतने आतुर हो गये थे कि देश की सरकार के विरुद्ध शिकायत करने यू.एन. जा रहे थे। वे राजनीति छोड़ वापस आई.ए.एस. संवर्ग में लौट रहे हैं और सम्भवत: सरकार द्वारा भी इसकी अनुमति मिल गयी है। अब इनसे कौन-से प्रशासनिक शुचिता की उम्मीद की जा सकती है?

दूसरा, मंत्रिमंडल में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का होना आवश्यक है, जो कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे शीर्ष पदासीन नेताओं के निर्णयों का प्रतिवाद कर सकें, उन्हें सलाह दे सकें। एक जनप्रतिनिधि ही दूसरे जनप्रतिनिधि के ग़लत निर्णयों का विरोध करने की योग्यता रखता है। नौकरशाही में लीक पर चलने वाले ‘यस मैन’ किसी भी सरकार के मुखिया में अधिनायकत्व का भाव भरेंगे; क्योंकि किसी राजनेता के आभामंडल के तले निर्वाचित होने वाले ये नौकरशाही कभी भी अपने दल या सरकार प्रमुख की मुख़ालिफ़त करने का साहस नहीं करेंगे। लोकतंत्र में सत्ता के विरोध का साहस खोना जम्हूरियत की मौत जैसा होगा।

तीसरा, ये परम्परा जननेताओं के उभरने की भविष्य की उम्मीदों को कुंठित करती जाएगी। अपने दल के लिए सडक़ पर संघर्ष करने, अपना ख़ून-पसीना बहाकर अपना सर्वस्व राजनीति के लिए त्यागकर जनमानस को अपने साथ जोडऩे वाले नेताओं, कार्यकर्ताओं की अनदेखी करके जन-सरोकारों के आन्दोलनों से अनभिज्ञ तथा जी-हुजूरी करने वालों को संवैधानिक संस्थाओं एवं जनता पर उनके प्रतिनिधि के रूप में थोपना अनुचित है। इसमें वे नेता, जिन्होंने राजनीति को अपने जीवन के लम्बा व बहुमूल्य समय दिया है, उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है। यह राजनीतिक दलों द्वारा जन-नेताओं के विरुद्ध किया जाने वाला अन्याय एवं उनकी सामाजिक साधना का अपमान है। यह प्रक्रिया लोकतंत्र की मूल भावना का ह्रास भी कर रही है। हाँ, अगर नौकरशाह राजनीति में आना ही चाहते हैं, जो कि उनका संवैधानिक अधिकार हैं; तो उन्हें नौकरी त्यागने के न्यूनतम पाँच वर्ष के बाद ही चुनाव लडऩे की अनुमति दी जानी चाहिए।

भारतीय राजनीति का एक नया चलन है- अतीत की विपक्ष की सरकारों के कार्यकाल की ग़लतियों का उदाहरण देकर ख़ुद को तुलनात्मक रूप से बेहतर दिखाने का प्रयास करना। मसलन, अगर पिछले 60 साल में पुरानी कांग्रेस सरकारों ने अपने शासनकाल में नौकरशाही की भ्रष्टता को अनदेखा किया और उसे शासन पर हावी होने दिया, तो वर्तमान सरकार नौकरशाहों को सीधे मंत्रिमंडल में ही मंत्री के रूप में शामिल कर रही है। मंत्री पद पर वास्तविक अधिकार जनप्रतिनिधियों का है, जो जनता की नुमाइंदगी करते हैं। जनता द्वारा चुने हुए ये प्रतिनिधि जन आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। किन्तु इस तरह सीधे नौकरशाहों को उनकी वफ़ादारी के आधार पर मंत्रिमंडल पर लादना लोकतान्त्रिक संस्थाओं के साथ सरासर ज़्यादती है।

जलालुद्दीन रूमी कहते हैं- ‘अहंकार मनुष्य और ईश्वर के बीच में सबसे बड़ा पर्दा है।’ आज जो जनसमर्थन के ज्वार में एक-पक्षीय निर्णय करने वाले दलों और उनके शीर्ष नेतृत्व को जम्हूरियत की ख़ुदा ‘जनता’ के दिशाहीन होने का भ्रम हो गया है; उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस दिन भी जनता जागरूक हुई, उस दिन अर्श से फर्श की दूरी न्यूनतम समय में पूरी करा देगी।

(लेखक इतिहास व राजनीति के जानकार तथा शोध छात्र हैं।)