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पीएफआई पर नकेल

पाँच साल के प्रतिबन्ध से टूटी आतंक को पालने वाले संगठन की कमर

सन् 2006 में दक्षिण भारत के तीन मुस्लिम संगठनों का विलय करके बने संगठन पॉपुलर फ्रंट आफ इण्डिया (पीएफआई) पर आख़िर नकेल डाल दी गयी। टेरर (आतंकी) फंडिंग का आरोप झेल रहे पीएफआई पर हाल के हफ़्तों में ताबड़तोड़ छापे पड़े हैं और उसके कई पदाधिकारियों को गिरफ़्तार किया गया है। पीएफआई तो तभी आशंका के घेरे में आ गया था, जब सन् 2012 में केरल में ओमन चांडी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने उच्च न्यायालय को सूचित किया था कि पीएफआई प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) का दूसरा रूप है, जिस पर सन् 2006 में यूपीए सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। पीएफआई सन् 2012 में ही केंद्र सरकार और एजेंसियों के रडार पर आ गया था। अब मोदी सरकार ने पीएफआई पर शिकंजा कसते हुए संगठन को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर पाँच साल का प्रतिबन्ध लगा दिया है।

केरल सरकार के न्यायालय को दिये हलफ़नामे में कहा गया था कि पीएफआई कार्यकर्ताओं पर हत्या के 27 मामले दर्ज हैं। बता दें जिन तीन मुस्लिम संगठनों का विलय करके पीएफआई अस्तित्व में आया था, वे तीनों संगठन सन् 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बने थे। इनमें केरल का नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट, कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी और तमिलनाडु का मनिथा नीति पसराई शामिल थे। ‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि देश की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी एनआईए छापों में मिले साक्ष्यों के आधार पर राज्यों में पुलिस के ज़रिये अलग-अलग एफआईआर दर्ज करवा रही है।

दरअसल काफ़ी पहले से पीएफआई के ख़िलाफ़ एक दर्ज़न से ज़्यादा मामलों की जाँच कर रही है। वह 350 से ज़्यादा आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दाख़िल कर चुकी है। पीएफआई के ख़िलाफ़ मनी लॉन्ड्रिंग के मामले भी प्रवर्तन निदेशालय की तरफ़ से दायर किये हैं। इनकी जाँच अभी जारी है।

सरकार ने पीएफआई के ख़िलाफ़ जो कार्रवाई की है, वह यूएपीए अर्थात् ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम के तहत की है। इस क़ानून का मुख्य उद्देश्य आतंकी गतिविधियों को रोकना होता है। इसके तहत पुलिस ऐसे आतंकियों, अपराधियों या संदिग्ध लोगों को चिह्नित करती है, जो आतंकी गतिविधियों में शामिल होते हैं; आतंकी गतिविधि के लिए लोगों को तैयार करते हैं; या फिर ऐसी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। ऐसे मामलों में एनआईए यानी राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) के पास काफ़ी शक्तियाँ हैं। इसी क़ानून के तहत पीएफआई और उसके सहयोगी संगठनों के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों और सरकार ने की है।

सरकार ने प्रतिबन्ध वाला क़दम टेरर फंडिंग मामलों में पीएफआई नेताओं पर दो दौर के बड़े देशव्यापी छापों के बाद उठाया। सरकार का कहना था कि पीएफआई कई आपराधिक आतंकी मामलों में शामिल रहा है। अभी तक की जाँच में सामने आया है कि पीएफआई के लोग बार-बार हिंसक और विध्वंसक गतिविधियों में शामिल रहे हैं। साथ ही पीएफआई के कई संस्थापक सदस्य सिमी के नेता रहे हैं और उसका सम्बन्ध जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश से भी रहा है। भारत में दोनों ही संगठन प्रतिबन्धित हैं।

पीएफआई के ख़िलाफ़ देश भर में पिछले कई दिन से छापेमारी चल रही थी, जिसके बाद ये बड़ी कार्रवाई की गयी। पीएफआई पर छापेमारी के दौरान कई अहम सुबूत एजेंसियों के हाथ लगे हैं। इनमें टेरर लिंक के आरोप भी शामिल हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक पीएफआई से जुड़े 270 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। यह छापे देश के 23 राज्यों में मारे गये, जिनमें केरल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, दिल्ली, महाराष्ट्र, असम और मध्य प्रदेश भी शामिल हैं। सबसे ज़्यादा 75 लोगों को कर्नाटक से हिरासत में लिया गया। एजेंसी की तरफ़ से कहा गया है कि पीएफआई धनशोधन और विदेश से वैचारिक समर्थन प्राप्त करने के अलावा देश के अधिकारों और देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा ख़तरा बन रहा था।

याद करें, तो पीएफआई का गठन 2006 में हुआ था। जाँच एजेंसियों की छापेमारी के बाद मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि पीएफआई देश के 23 राज्यों में सक्रिय है। देखें तो, पीएफआई का विस्तार ही सिमी पर प्रतिबन्ध लगने के बाद हुआ। कर्नाटक और केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों में संगठन की ख़ासी पकड़ उजागर हुई है। इन छापों के बाद प्रदर्शन भी देखने को मिले, जिससे ज़ाहिर होता है कि पीएफआई किस स्तर पर सक्रिय था। पीएफआई ने अल्पसंख्यकों के अलावा दबे-कुचलों को सशक्त बनाने के नाम पर आन्दोलन शुरू किया और फिर अपने असली काम में जुट गया, जिसमें देश के ख़िलाफ़ लोगों को तैयार करना और आतंकी फंडिंग शामिल थी।

कैसे कसा शिकंजा?
पीएफआई पर शिकंजा कसने की शुरुआत तब हुई, जब बिहार के फुलवारी शरीफ़ में इसका मोड्यूल पकड़ा गया। इसके बाद गृह मंत्री अमित शाह ने पीएफआई के देशव्यापी नेटवर्क को ध्वस्त करने को लेकर एक्शन प्लान बनाने और टेरर फंडिंग पर शिकंजा कसने के लिए एजेंसियों को निर्देश दिये थे। इसी दौरान यह भी जानकारी सामने आयी थी कि पीएफआई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले की योजना बना रहा है। फुलवारी शरीफ़ में जो दस्तावेज़ तैयार किये गये उनमें ‘गज़वा-ए-हिन्द का लक्ष्य-2047’ रखा गया था। यह माना जाता है कि यह लक्ष्य भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए था।

पीएफआई के दस्तावेज़ों से एजेंसियाँ को तुर्की, पाकिस्तान और मुस्लिम देशों से मदद (टेरर फंडिंग) के सुबूत भी मिले हैं। ज़ाहिर है पीएफआई देश के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर तबाही की तैयारी कर रहा था। फुलवारी शरीफ़ की घटना के बाद पीएफआई पर नकेल कसने के लिए केंद्र और राज्य एजेंसियों को जोड़ा गया और एनआईए को नोडल एजेंसी का ज़िम्मा मिला।

एनआईए ने तेज़ी से काम करते हुए राज्यों के एंटी टेररिस्ट स्क्वाड और स्पेशल टास्क फोर्स के प्रमुखों के साथ बैठकें करके पीएफआई की गतिविधियों से जुड़ी तमाम जानकारी साझा करने को कहा। इसके बाद जो जानकारियाँ सामने आयीं, वो उसके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई के लिए पुख़्ता आधार बनीं। ईडी को भी जाँच में शामिल किया गया, क्योंकि मामला अवैध रूप से विदेशी धन आने का भी था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, रिसर्च अन्य एनालिसिस विंग (रॉ), आईबी, एनआईए के बड़े अधिकारी उन बैठकों में जुटे, जिन्हें गृह मंत्री शाह ने बुलाया था। पूछताछ में ज़ाहिर हुआ कि पीएफआई हत्याओं और जबरन वसूली के मामलों में शामिल है। अगस्त के आख़िर में एक बैठक के बाद ईडी को पीएफआई की फंडिंग, विदेश से मदद और अवैध लेन-देन से जुड़ी शुरुआती रिपोर्ट तैयार करने की ज़िम्मेदारी दी गयी। राज्य पुलिस को योजना में शामिल किया गया।

इसके बाद छापों की घड़ी आयी, जिसे गुप्त नाम ऑपरेशन ऑक्टोपस दिया गया। इसके बाद पूरी तैयारी के साथ छापे मारे गये और संदिग्ध लोगों को गिरफ़्तार कर कड़ी पूछताछ की गयी। पहली देशव्यापी छापेमारी 22 सितंबर को एक साथ 11 राज्यों में हुई। ईडी, एनआईए और राज्यों की पुलिस ने 11 राज्यों से पीएफआई से जुड़े 106 लोगों को अलग-अलग मामलों में गिरफ़्तार किया। एनआईए ने पीएफआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओएमएस सलाम और दिल्ली अध्यक्ष परवेज़ अहमद को गिरफ़्तार किया।

कुछ लोगों को एनआईए के दिल्ली हेडक्वार्टर लाया गया। गृह मंत्री अमित शाह ने देश भर में पीएफआई के ख़िलाफ़ जारी रेड को लेकर एनएसए, गृह सचिव और डीजी एनआईए के साथ बैठक की। गिरफ़्तार पीएफआई केडर और कट्टरपंथी नेताओं से पूछताछ में जो ख़ुलासे हुए, वो एजेंसियों के लिए ख़ासे चौंकाने वाले थे। इसमें यह भी ज़ाहिर हुआ कि पीएफआई ने देश भर में अपना ख़ुफ़िया तंत्र विकसित कर लिया था। उसकी इंटेलिजेंस विंग हर ज़िले में काम कर रही थी, जो जासूसी कर सूचनाएँ एकत्र करती थी।

सहयोगियों पर भी शिकंजा
केंद्र सरकार ने पीएफआई के जिन सहयोगियों पर भी प्रतिबन्ध लगाया है, उनमें रिहैब इंडिया फाउंडेशन (आरआईएफ), कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई), ऑल इंडिया इमाम काउंसिल (एआईआईसी), नेशनल कंफेडरेशन ऑफ ह्यूमन राइट ऑर्गेनाइजेशन (एनसीएचआरओ), नेशनल वूमेंस फ्रंट, जूनियर फ्रंट, एम्पावर इंडिया फाउंडेशन और रिहैब फाउंडेशन, केरल शामिल हैं। अब देश में राष्ट्रव्यापी प्रतिबंधित संगठनों की संख्या 43 हो गयी है।

चीतों पर चिन्तन

यह सन् 2009 की बात है। तब नरेंद्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उस समय दो जोड़ी चीते सिंगापुर प्राणी उद्यान से गुजरात के जूनागढ़ स्थित देश के प्राचीनतम सक्करबाग़ प्राणी उद्यान (साल 1863 में स्थापित) में लताये गये थे। इन चीतों के बदले एक एशियाई शेर और दो शेरनियाँ सिंगापुर प्राणी उद्यान को दिये गये थे।
12 साल की उम्र के बाद प्राकृतिक कारणों से चीतों की इन दोनों जोड़ों की मौत हो गयी। आख़िरी चीते की मृत्यु सन् 2017 में हुई। तब 63 साल के बाद चीते भारत लौटे थे। लिहाज़ा अब 70 साल बाद चीतों के देश में लौटने का दावा सही प्रतीत नहीं होता। भारत के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में आठ चीतों को लाने का सभी ने, ख़ासकर वन्य संरक्षण प्रेमियों ने स्वागत किया है। लेकिन यह भी सच है कि इवेंट मैंनेजमेंट के इस ज़माने में आठ चीतों को लाने की प्रक्रिया को राजनीतिक प्रचार का हिस्सा बना दिया गया। जबकि सच यह है कि परियोजना चीता की शुरुआत सन् 2009 में यूपीए की सरकार के समय हुई और उस पर सारा काम हो गया था; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बाद यह परियोजना ठन्डे बस्ते में चली गयी।

छानबीन बताती है कि जूनागढ़ के 84 हेक्टेयर में फैले सक्करबाग़ प्राणी उद्यान के एक आधिकारिक नोट में यह कहा गया है कि भारत से एशियाई चीतों के विलुप्त होने की आधिकारिक घोषणा सन् 1952 में हुई थी। नोट के मुताबिक, इस प्रजाति के चीते अब सिसिर्फ़ ईरान में ही हैं। नोट में आगे कहा गया है कि अस्सी के दशक में भारत के एक से ज़्यादा प्राणी उद्यानों में विदेश से कुछ अफ्रीकी चीते लाये गये थे। हालाँकि उनके आहार, विपरीत पर्यावरण स्थितियों और प्रजनन सम्बन्धी दिक़्क़तों के चलते उनकी आबादी बढ़ाने में सफलता हासिल नहीं हो सकी।

यह दिलचस्प बात है कि सन् 2009 में हुए प्रयास के पीछे भी भारत में विलुप्त चीता प्राजति के संरक्षण की इच्छा और कोशिश उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ही थी। रिकॉर्ड के मुताबिक, 24 मार्च, 2009 को मोदी की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक समारोह करके जूनागढ़ के सक्करबाग़ प्राणी उद्यान में दो जोड़ी चीतों को सिंगापुर प्राणी उद्यान से लाया गया था। उस मौक़े पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने मीडिया से कहा था कि यह देश में चीतों के सफलतापूर्वक प्रजनन कराने के राज्य सरकार के प्रयासों का हिस्सा है।

दरअसल सिंगापुर प्राणी उद्यान ने सन् 2006 में अफ्रीकी चीतों के बदले सक्करबाग़ प्राणी उद्यान से एशियाई शेरों को उन्हें देने का प्रस्ताव रखा और अगस्त में केंद्रीय चिडिय़ाघर प्राधिकरण ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। विपरीत पर्यावरण स्थितियों के बावजूद उद्यान के अधिकारियों के बेहतर प्रबंधन और उचित देखभाल का असर था कि यह जोड़े 12 साल की आयु तक जीवित रहे।

हालाँकि उद्यान के उस समय सहायक निदेशक नीरव मकवाना के एक नोट के मुताबिक, तीन साल बाद (2012) तक इन जोड़ों का मिलन नहीं करवाया जा सका। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी आबादी में वृद्धि की कोशिशें सिरे नहीं चढ़ीं। आधिकारिक नोट कहता है कि स्कॉटलैंड के एक विशेषज्ञ भ्रूणविज्ञानी की देख-रेख में किये जाने वाले प्रजनन के सहायक प्रयास का प्रस्ताव लागू ही नहीं किया गया। बता दें इस उद्यान में 1,300 से अधिक वन्य प्राणी हैं और हर साल क़रीब 12 लाख लोग उद्यान में इन वन्य प्राणियों को देखने आते हैं।

कब शुरू हुआ अभियान?

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल में बताया गया है कि चीते भारत में हमेशा से रहे हैं। हालाँकि धीरे-धीरे ये लुप्त होते गये। पर्यावरण विशेषज्ञ दिव्य भानु सिंह की पुस्तक ‘द एंड ऑफ अ ट्रेल-द चीता इन इंडिया’ में बताया गया है कि मुगल बादशाह अकबर के पास 1,000 चीते थे। उनके मुताबिक, अकबर के बेटे जहाँगीर ने चीतों के ज़रिये 400 से ज़्यादा हिरण पकड़े। भारत में 20वीं शताब्दी की शुरुआत से भारतीय चीतों की आबादी में तेज़ी से गिरावट आयी और यह कुछ सैकड़ों तक सीमित हो गये। सन् 1918 से 1945 के बीच 200 चीते आयात किये गये; लेकिन इसके बावजूद सन् 1940 के दशक में चीतों की संख्या इतनी कम हो गयी कि इनका शिकार कमोवेश बन्द हो गया।

रिपोट्र्स बताती हैं कि सन् 1947 में कोरिया के राजा रामानुज प्रताप सिंहदेव ने देश के आख़िरी तीन चीतों का शिकार कर दिया। इसके बाद 67 साल (2009 तक) भारत में चीते नहीं दिखे। सन् 1952 में स्वतंत्र भारत में वन्यजीव बोर्ड की पहली बैठक में जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मध्य भारत में चीतों की सुरक्षा को विशेष प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए इनके संरक्षण के लिए साहसिक प्रयोगों का सुझाव दिया था।

बाद में सन् 1970 के दशक में सरकार ने विदेश से चीते भारत लाने पर विचार शुरू किया। इंदिरा गाँधी की सरकार के समय एशियाई शेरों के बदले में एशियाई चीतों को भारत लाने के लिए ईरान के शाह के साथ बातचीत शुरू की हुई। हालाँकि बाद में भारत सरकार ने ईरान में एशियाई चीतों की कम आबादी और अफ्रीकी चीतों के साथ इनकी अनुवांशिक समानता को ध्यान में रखते हुए अफ्रीकी चीते लाने का फ़ैसला किया।

चीतों को भारत लाने की कोशिशें सन् 2009 तेज़ हुईं। गुजरात सरकार के दो जोड़ी चीते लाने के अलावा केंद्र सरकार की तरफ़ से इस मामले में गम्भीर कोशिश शुरू हुई। अब जिस परियोजना चीता का श्रेय आज मोदी सरकार ले रही है, उसकी शुरुआत सन् 2008-09 में मनमोहन सिंह की यूपीए की सरकार के दौरान हुई थी। उस समय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश अफ्रीका के इसके लिए चीता आउटरीच सेंटर की यात्रा की। सन् 2010 और सन् 2012 के बीच 10 स्थलों का सर्वेक्षण किया गया।

मध्य प्रदेश में कूनो राष्ट्रीय उद्यान नये चीतों को लाकर रखने लिए तैयार माना गया, क्योंकि इस संरक्षित क्षेत्र में एशियाई शेरों को लाने के लिए भी काफ़ी काम किया गया था। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 300 करोड़ रुपये ख़र्च कर चीतों को बसाने की योजना को औपचारिक रूप दे दिया था; लेकिन सन् 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस परियोजना पर रोक लगा दी थी और क़रीब सात साल बाद सन् 2020 में न्यायालय ने यह रोक हटायी।

भारत में चीते लाने की योजना तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की थी। यदि सर्वोच्च न्यायालय की रोक नहीं लगी होती, तो देश में 10 साल पहले ही चीते आ गये होते। सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2010 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) की अर्जी पर सुनवाई शुरू की थी, जिसमें नामीबिया से अफ्रीकी चीतों को भारत में लाने की अनुमति माँगी गयी थी। न्यायालय ने तब भारत में चीते फिर बसाने के लिए विशेषज्ञों का एक पैनल गठित किया। तब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि वह ख़ुद परियोजना की निगरानी करेगी।

पैनल ने चीतों को बसाने के लिए तीन स्थानों मध्य प्रदेश में कूनो पालपुर, गुजरात में वेलावदार राष्ट्रीय उद्यान और राजस्थान में ताल छापर अभयारण्य की सिफ़ारिश की। कूनो राष्ट्रीय उद्यान मूल रूप से मध्य प्रदेश में गुजरात के एशियाई शेरों को रखने के लिए तैयार किया गया था। हालाँकि बाद में यह चीतों के पुनर्वास की शुरुआत के लिए पसन्दीदा स्थान बन गया।

सरकार ने जब इस परियोजना को मंज़ूरी दी, तब मंत्रालय ने अदालत की तरफ़ से बनाये पैनल के सदस्यों वन्यजीव विशेषज्ञ एम.के. रंजीत सिंह, एक अमेरिकी आनुवांशिकी विज्ञानी स्टीफन ओ ब्रायन और सीसीएफ के लारी मार्कर से विचार-विमर्श करने के बाद सन् 2010 में नामीबिया से 18 चीतों को मँगाने का प्रस्ताव किया था।

चीतों की क़ीमत और उनका ख़र्च

आपको जानकार आश्चर्य होगा कि औपनिवेशिक-कालीन स्रोतों के मुताबिक, उस ज़माने में एक प्रशिक्षित चीते की क़ीमत 150 रुपये से 250 रुपये के बीच थी। वहीं जंगल से पकड़े गये किसी चीते की क़ीमत 10 से 20 रुपये के बीच थी। लेकिन आज के दौर में एक शावक (चीते के छोटे बच्चे) की क़ीमत भी 3,00,000 से 16,00,000 रुपये के बीच है। अब मोदी सरकार जो आठ चीते भारत लायी है, उन पर 96 करोड़ का ख़र्च आया है। पर्यावरण और वन मंत्रालय के मुताबिक, इस परियोजना की स्पोर्ट के लिए इंडियन ऑयल ने भी अतिरिक्त 50 करोड़ रुपये देगा, जिसमें आठ करोड़ की पहली किश्त उसने दे दी है। विशेष रूप से बने विमान में क़रीब 8,000 किलोमीटर का सफ़र कर यह चीते भारत आये, जिनमें से तीन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कूनो उद्यान में छोड़ा। इनमें तीन मादा हैं। कूनो राष्ट्रीय उद्यान में अधिकतम तापमान 42 डिग्री, जबकि न्यूनतम छ: से सात डिग्री सेल्सियस तक रहता है, जिसे चीतों के लिए मुफ़ीद माना जाता है। चीता ह$फ्ते में एक बार ही शिकार करता है और उसे एक बार में सात से आठ किलो मटन चाहिए होता है। ख़बर आयी थी कि इन चीतों को खाने के लिए 200 के क़रीब हिरन / चीतल कुनो पार्क में छोड़े जा रहे हैं, जिस पर ख़ासा बवाल हुआ। कभी अपने शिकार को साझा न करने वाले चीते को महीने में चार और साल में 50 जानवर चाहिए होते हैं। कूनो पार्क के पास नदी होने से पानी की प्रचुर मात्रा उपलब्ध है। एक चीते को पालने में 5,00,000 से 14,00,000 रुपये तक का सालाना ख़र्च होता है।

कौशल विकास समय की माँग

कुछ सप्ताह पूर्व कोर्सेरा द्वारा वैश्विक कौशल रिपोर्ट (ग्लोबल स्किल्स रिपोर्ट) 2022 जारी की गयी, जिसमें भारत को समग्र कौशल दक्षता के मामले में 68वाँ स्थान मिला है। अगर बात एशिया स्तर पर करें, तो भारत को 19वाँ स्थान हासिल हुआ है। इस रिपोर्ट को भारतीय मीडिया में वैसी तवज्जो नहीं मिली, जैसी मिलनी चाहिए थी। इस रिपोर्ट के अनुसार, डाटा विज्ञान में देश की दक्षता सन् 2021 की 38 फ़ीसदी से घटकर सन् 2022 में 26 फ़ीसदी हो गयी है, जो कुल 12 रैंक की गिरावट है। वहीं दूसरी तरफ़ देश में प्रौद्योगिकी प्रवीणता का स्तर 38 फ़ीसदी से बढक़र 46 फ़ीसदी हो गया है। इसमें भारत ने अपनी रैंकिंग को छ: स्थान तक मज़बूत किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, यूरोपीय देश स्विट्जरलैंड में सबसे अधिक कुशल शिक्षार्थी हैं। डेनमार्क और बेल्जियम जैसे विकसित यूरोपीय देश भी कुशल शिक्षार्थियों की संख्या की दृष्टि से टॉप देशों में शामिल हैं। भारतीय राज्यों में पश्चिम बंगाल कौशल दक्षता के मामले में अन्य राज्यों से बहुत आगे है। देश में डिजिटल कौशल दक्षता का उच्चतम स्तर दिखाते हुए इसने कर्नाटक जैसे प्रौद्योगिकी कौशल राज्य को भी पीछे छोड़ दिया है।

कोर्सेरा की इस रिपोर्ट से हमें यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि विश्व के अलग-अलग देशों में कौशल अर्जित करने में बड़ा अंतराल है। भारत जैसे विशाल देश जहाँ जनसंख्या की लिहाज़ से दुनिया में सबसे ज़्यादा आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती हैं, वहाँ लोगों को ख़ासकर युवा वर्ग को डिजिटली कौशल बनाना समय की माँग है। हाल ही में भारत समेत पूरी दुनिया में विश्व युवा कौशल दिवस मनाया गया। भारतीय सन्दर्भ में हमें इस दिवस का महत्त्व अच्छे से समझना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारत के शहरों में तो डिजिटल व्यवस्था काफ़ी मज़बूत हुई है और इसका फ़ायदा शहरी समाज को मिल भी रहा है; लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में हमें हालात को बेहतर करने होंगे।
भारत सरकार ने सन् 2015 में डिजिटल इंडिया कार्यक्रम शुरू किया था, जिसका प्रमुख उद्देश्य भारतीय समाज को डिजिटल रूप से सशक्त बनाना तथा इसे ज्ञान अर्थ-व्यवस्था में बदलना था, ताकि आम लोगों की ज़िन्दगी को बेहतर और आसान बनाया जा सके। इस कार्यक्रम के माध्यम से महानगरों से लेकर पंचायतों तक छोटे-बड़े सरकारी विभागों को डिजीटल रूप से विकसित करने पर ज़ोर दिया गया। डिजिटल व्यवस्था के कारण आज शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग, प्रशासन, कृषि, पर्यटन, बाज़ारीकरण इत्यादि क्षेत्रों में बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं। देश में ई-क्रान्ति से आज डिजिटल भुगतान और ऑनलाइन व्यापार बहुत आसान हो गये हैं। ऑनलाइन एजुकेशन स्टार्टअप्स को नयी रफ़्तार मिली है। हालाँकि ग्रामीण क्षेत्र में इंटरनेट की धीमी रफ़्तार, डिजिटल निरक्षरता तथा लगातार बिजली की कटौती कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर शीघ्र ध्यान देने की ज़रूरत हैं।

कोरोना-काल में भारत समेत सैकड़ों देशों में काम करने के तरीक़ों में व्यापक परिवर्तन देखने को मिले हैं। इस दरमियान डिजिटाइजेशन की तरफ़ दुनिया तेज़ी से बढ़ी है और एक प्रकार की हाइब्रिड कार्य संस्कृति पनपी है, जिसने सभी देशों को बुनियादी डिजिटल व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए बाध्य किया है। यूनेस्को समेत कई बड़े संस्थानों के पहले के रिपोट्र्स यह बताते हैं कि भारत में शिक्षित युवा वर्ग की एक बड़ी आबादी जॉब पाने की योग्यता नहीं रखती। देश के अलग-अलग क्षेत्रों की कई नियोक्ता कम्पनियों को अक्सर शिकायत होती हैं कि यहाँ के युवा वर्ग में मार्केट के हिसाब से ज़रूरी स्किल्स नहीं होते।
आज के इस तकनीक आधारित समय में नौकरी पाने की लालसा रखने वाले भारतीय युवा वर्ग को यह बात स्पष्टता से समझने की ज़रूरत है कि नये कौशल अर्जित करने से ही उन्हें नौकरी मिल पाएँगी तथा वे अपने करियर में लम्बे समय तक टिके रह पाएँगे। देश के नागरिकों ख़ासकर ग्रामीण युवा वर्ग को चाहिए कि केंद्र तथा राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे फ्री ऑनलाइन तथा ऑफलाइन स्किल्स ओरिएंटेड कोर्सेज से जुडक़र ट्रेनिंग लें और अपने भविष्य को बेहतर बनाएँ।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

सत्ता का दुरुपयोग

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने बीसीसीआई को अपने संविधान में संशोधन करने की इजाज़त दे दी। इसके बाद अब बीसीसीआई के सचिव जय शाह का पुन: अगले तीन वर्षों तक अपने पद पर बने रहना सुनिश्चित हो गया है। बात छोटी-सी है, और प्रथमदृष्टया सामान्य लगती है। लेकिन इसके निहितार्थ स्वार्थी सत्ता की गहरी जड़ें हैं। ऐसी कौन-सी विशिष्ट परिस्थितियाँ थीं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह को इस लाभ के पद पर बनाये रखने के लिए बीसीसीआई को नियमों में बदलाव को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ा। देश के लिए अब तक यह समझ पाना अत्यंत दुष्कर है कि गृहमंत्री अमित शाह के बेटे होने के अतिरिक्त जय शाह में ऐसी कौन-सी क़ाबिलियत या दिव्य गुण है, जिसके चलते उन्हें बीसीसीआई के सचिव पद पर प्रतिष्ठित किया गया है। जय शाह ने तो क्रिकेट या सार्वजनिक जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि भी हासिल नहीं की है।

स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के समक्ष दो बड़ी चुनौतियों- भ्रष्टाचार और परिवारवाद की चर्चा की। लेकिन समस्या यह है कि प्रधानमंत्री और भाजपा वंशवाद एवं भ्रष्टाचार का विरोध तो चाहते हैं, परन्तु अपनी सुविधानुसार। जिस भाजपा में अनुराग ठाकुर, पूनम महाजन, पंकज सिंह, पंकजा मुंडे, पीयूष गोयल, निर्मला सीतारमण, रविशंकर प्रसाद, धर्मेंद्र प्रधान, विजय गोयल जैसे नेता वंशवाद की एक विस्तृत पैदावार हैं; कम-से-कम उसे तो वंशवाद और परिवारवाद की आलोचना करने का नैतिक अधिकार नहीं ही है। भाजपा की रीति-नीति से प्रतीत होता है कि कांग्रेस, सपा, राजद आदि विपक्षी दलों का वंशवाद देश के लिए चुनौती है और भाजपा का परिवारवाद लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान कर रहा है। सत्य तो यही है कि चाहे किसी भी दल द्वारा प्रश्रय दिया गया हो; लेकिन वंशवाद-परिवारवाद भारत के लिए दुर्दम्य रोग बन चुका है। इधर देश की नौकरशाही संस्थागत भ्रष्टाचार के निरंतर नये मानक बना रही है। लेकिन सुशासन का नारा बुलंद करती सरकार इस पर मौन साधे बैठी है। इसका नमूना देखिए, वार्षिक रिपोर्ट-2021 में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने भ्रष्टाचार के मामले में सरकारी विभागों के रवैये पर नाराज़गी जताते हुए कहा था कि विभिन्न सरकारी विभागों ने भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों को दण्डित करने की उसकी सिफ़ारिशों को नहीं माना; जबकि इनमें अनियमितताओं और ख़ामियों के गम्भीर मामले सामने आये थे। यही नहीं, उत्तराखण्ड से लेकर उत्तर प्रदेश तक के लोक सेवा आयोगों में कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार सिर चढक़र बोल रहे हैं। नियुक्तियों में धाँधलियों के द्वारा संघर्षशील युवाओं के भविष्य को पैरों तले रौंद रहे इन भ्रष्ट महकमों को ईडी और सीबीआई के जाँच के अंतर्गत कब लाया जाएगा? उत्तर प्रदेश में पशुपालन विभाग में हुए करोड़ों के घोटाले और सरकारी अधिकारियों के स्थानांतरण में हुई गड़बडिय़ों के दोषियों को कब दण्डित किया जाएगा? ऐसे कई यक्ष प्रश्न हैं।

ग़ौर करें, तो 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने कमोबेश पूर्व की कांग्रेसी सरकारों की उसी कार्यशैली को अपना लिया है, जिसकी वह स्वयं हमेशा आलोचना करती रही है। मसलन अपनी सुविधानुसार नियमों को तिलांजलि दे देना। भाजपा ने सत्ता में आते ही नृपेंद्र मिश्र को सचिव बनाने के लिए नियमों में बदलाव करवाया। वास्तव में यह बहुमत के दुरुपयोग का उदाहरण है।

अब डॉ. शाह फैसल के मामले को ही लीजिए; इस पूर्व आईएएस ने नौकरी छोडक़र जब राजनीति शुरू की, तब अनुच्छेद-370 के विरोध में वह इतने दुराग्रही हो गये कि भारत सरकार विरोधी पक्ष को लेकर तुर्की आदि शत्रु देशों और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में जाने का प्रयास करते हुए दिल्ली हवाई अड्डे पर पकड़े गये। उन्हें पीएसए के तहत गिरफ़्तार किया गया। जून, 2020 में रिहाई के पश्चात् उन्होंने राजनीति से किनारा किया और मोदी सरकार की नीतियों की प्रशंसा करते हुए वापस नौकरशाही में लौटने की इच्छा जतायी। अब केंद्र सरकार ने उन्हें संस्कृति मंत्रालय में उप सचिव नियुक्त किया है। कल्पना कीजिए कि अगर कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल की सरकार द्वारा यह किया गया होता, तो पूरी भाजपा राष्ट्रवाद का ध्वज और तुष्टिकरण विरोधी नारे के साथ सरकार पर टूट पड़ी होती। लेकिन दिव्य शक्ति सम्पन्न मोदी सरकार ने यह निर्णय अगर किया है, तो अवश्य ही इसमें कोई गूढ़ रहस्य होगा। फिर इस पर आम अज्ञानी जनता कैसे प्रश्न उठा सकती है?

दूसरा उदाहरण देखें, एक क्रिकेट मैच के दौरान गृहमंत्री के बेटे एवं बीसीसीआई के सचिव जय शाह ने तिरंगे के प्रति कैसा क्षुद्र व्यवहार किया, यह पूरे देश ने देखा। यदि अमित शाह के बेटे के बजाय किसी ग़ैर-भाजपा नेता के बेटे या किसी ग़ैर-हिन्दू ने राष्ट्रीय ध्वज हाथ में लेने से इनकार किया होता, तब भाजपा पूरे देश को राष्ट्रवाद सिखाती। लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी के सारे बयानवीर और तथाकथित राष्ट्रवादी एकदम मौन रहे। वर्तमान में सरकार की नीतियाँ विरोधाभासों से भरी हैं। एक तरफ़ डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने एवं कैशलेस इकोनॉमी के गुण गाये जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ़ प्रत्येक यूपीआई ट्रांजेक्शन पर शुल्क लागू करने की बातें हो रही हैं। ऐसे ही एक तरफ़ मेक इन इंडिया और स्वदेशी उद्योग विस्तार के दावे हैं और दूसरी तरफ़ चीनी उत्पादों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। पिछले पाँच वर्षों के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत का चीन से व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। सन् 2017 में यह 51 अरब डॉलर था, जो सन् 2021 में बढक़र 69.4 अरब डॉलर हो गया था। भारत के मोबाइल बाज़ार के 50 फ़ीसदी से अधिक हिस्से पर चीनी कम्पनियों का ही क़ब्ज़ा है। उस पर सीमा विवाद को लेकर भाजपा कुछ नहीं बोलती, सिवाय एकाध बार चीन को देख लेने की घोषणा के। गोवंश संरक्षण के मुद्दे पर भाजपा का रुख़ सदैव आक्रामक रहा है, बल्कि इस मुद्दे ने भाजपा के चुनावी अभियानों को धार दी है। परन्तु लम्पी वायरस के कहर से पूरे उत्तर भारत में तड़प-तड़पकर मर रही गायों की सुध लेने की न सरकार में किसी को फ़ुर्सत है और न ही उन तथाकथित गोरक्षकों को, जिन्होंने सन् 2014 में केंद्र में मोदी सत्ता स्थापित होने के बाद तीन-चार साल तक लोगों को पीटा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में गायों की बड़ी आबादी मिटाकर वीगन मूवमेंट एवं अमेरिकी सोया मिल्क खपत बढ़ाने के लिए मानव निर्मित लम्पी वायरस एफएमडी वैक्सीनेशन के ज़रिये गायों में प्रसारित किया गया है। लेकिन सरकार आश्चर्यचकित रूप से अनभिज्ञ बनी बैठी है।

बीती 15 अगस्त के अपने अभिभाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि कभी-कभी हमारी प्रतिभाएँ भाषा के बन्धनों में बँध जाती हैं। यह ग़ुलामी की मानसिकता का परिणाम है। हमें हमारे देश की हर भाषा पर गर्व होना चाहिए। किन्तु विडम्बना देखिए कि हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान की रक्षा का नारा देती यही सरकार प्राथमिक शिक्षा तक में अंग्रेजी थोपने में लगी है। और देश को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा की स्थापना का दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है। भाजपा सरकार के कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता बढ़ती गयी है। दूसरी ओर प्रशासन के भारतीयकरण पर तक़रीरें हों रहीं हैं। केंद्र सरकार और भाजपा देश में फैली समस्याओं से अपरिचित नहीं हैं; लेकिन फिर भी वह इनके प्रति उदासीन बनी हुई है। सम्भवत: कहीं-न-कहीं निरंतर चुनावी विजय ने पार्टी नेताओं को घमण्ड से भरते हुए सत्ता में रहने का एक निश्चिंत भाव पैदा कर दिया है। इसकी सबसे प्रमुख वजह भाजपा को मिलने वाला अंधसमर्थन है।

दरअसल पार्टी के पास हिन्दुत्व का ब्रह्मास्त्र है, जिसने अब तक उसे पिछले आठ वर्षों से चुनावी संघर्ष में लगातार बढ़त दिला रखी है। इसी के चलते पार्टी यह मुग़ालता पाल बैठी है कि उसे प्राप्त यह बहुमत स्थायी रूप ले चुका है। किन्तु यदि ऐसे ही पार्टी का सैद्धांतिक भटकाव जारी रहा, तो जल्द उसका पतन शुरू हो सकता है। क्योंकि लोकतंत्र में बहुमत या जनसमर्थन कभी भी स्थायी नहीं होता। भाजपा को यह समझना होगा कि अब तक जिन राजनीतिक कुप्रथाओं की वह आलोचना करती रही है, उससे बढक़र नकारात्मक परम्पराएँ स्थापित करने के उसके ही कृत्य भविष्य में पार्टी को जनता के कटघरे में खड़ा करेंगे। तब भाजपा की भी वैसी ही स्थिति होगी, जैसी आज कांग्रेस की है कि वह अपनी ऐतिहासिक ग़लतियों के लिए मुँह छुपाये फिर रही है और जनाधार तलाश रही है। बहुमत के दुरुपयोग के कारण महत्त्वपूर्ण पक्ष का सिकुडऩा और संघर्षहीन विपक्ष भी हैं। यहाँ सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी विपक्ष की थी, जो आम जनता को सरकार के भटकाव से परिचित कर उसे अपने विरोध से जोड़ता, ताकि सत्ता को चेताया जा सके। लेकिन विपक्ष स्वयं ही दिशाहीन एवं किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसका नेतृत्व ऐसे अयोग्य वंशवाद के उत्पाद नेताओं के पास है, जिनको जन-सरोकारों से जुड़े मामलों को न जानने की फ़र्सत है और न ही उनमें कोई रुचि। उनका स्वार्थ अपना अस्तित्व बचाने में और उनकी ऊर्जा येन केन प्रकारेण सत्ता पाने की जुगत में ख़र्च हो रही है। अत: सरकार और सत्ता का प्रभाव सर्वत्र फैलना स्वाभाविक ही है।

रही बात नरेन्द्र मोदी की, तो श्रीममद्गवद्गीता में अर्जुन द्वारा भगवान कृष्ण से किया गया प्रश्न याद आता हैं :-

‘अयति: श्रद्धयोपेतो योगात्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।’

अर्थात् हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है, जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है; किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता? यह प्रश्न मोदी के कार्य-व्यवहार के लिए सटीक है। उनकी राजनीति अब आत्मकेंद्रित हो चुकी है। विशेषकर प्रधानमंत्री के रूप में उनकी दूसरी पारी पर ग़ौर करें, तो वह आत्ममुग्ध एवं अति-स्वकेंद्रित नज़र आते हैं। उनकी ऊर्जा अपने आभामण्डल के विस्तार के प्रयास में अधिक लगी हुई है। सम्भवत: वह ख़ुद को इतिहास-पुरुष साबित करने की जद्दोजहद में लगे हैं। कहीं-न-कहीं उन्हें स्वयं के अपराजेय होने का भान हो गया है। लेकिन सर्वोच्चता की स्थिति सदैव नहीं रहती। यूनानी राजनीतिज्ञ पोलीबियस इस अवधारणा के समर्थक हैं कि इतिहास के क्रम में विकास तथा विनाश का नियम शाश्वत्, सर्वव्यापी एवं अटल है। लोकतंत्र में किसी सत्ता को बहुमत और जनसमर्थन की प्राप्ति का अर्थ स्वेच्छाचारिता एवं अधिनायकवाद की स्वीकृति क़तई नहीं होता। यदि किसी भी लोकप्रिय सरकार को यह भ्रम होता है, तो इसका अर्थ है कि उसने लोकतांत्रिक मूल्यों एवं जनशक्ति की अवधारणा को ठीक से आत्मसात नहीं किया है। इसी देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ऐसी ही ग़लतफ़हमी के शिकार होने का दण्ड भुगत चुकी है। इतिहास वर्तमान के लिए बहुत बड़ी सीख होता है। लेकिन यह उसी के लिए सार्थक है, जो इससे ग्रहण करने की क्षमता रखता हो। अन्यथा इतिहास द्वारा ख़ुद को दोहराने की उक्ति सर्वविदित ही है।

(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

विश्व और राष्ट्रीय डाक दिवस पर विशेष बचानी होगी डाक की साख

सूचनाओं का आदान-प्रदान इंसानों में ही नहीं, बल्कि धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के प्राणियों में होता है। फ़र्क़ यह है कि अन्य प्राणी सिर्फ़ आमने-सामने रहकर ही अपनी ही प्रजाति के दूसरे प्राणियों से अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करने में सफल होते होंगे; लेकिन इसमें वो पूरी तरह सफल होते होंगे, इसमें भी सन्देह है। लेकिन इस आदान-प्रदान के लिए इंसानों के पास कई तरह की सुविधाएँ मौज़ूद हैं, जैसे- बोली, लेखन, इशारा, हावभाव आदि। इन सबमें भाषा सबसे मज़बूत सम्प्रेषण का ज़रिया है। यही वजह है कि इंसान अपनी बात कहीं दूर-दराज़ के इलाक़े में बैठे व्यक्ति को भी पहुँचा सकता है।

इसी व्यवस्था के तहत इंसानों ने दूर बैठे किसी व्यक्ति को सन्देश पहुँचाने के लिए अपने आरम्भ-काल से ही कोई-न-कोई तरीक़ा निकाल रखा है। राजतंत्र के दौर में दूसरे राजाओं के पास दूतों द्वारा सन्देश भेजने की परम्परा रही, जबकि जनता में सन्देश पहुँचाने के लिए ढोलची संदेशवाहक होता था, जो गली-गली घूम-घूमकर ढोल या नगाड़ा पीटकर लोगों में सन्देश दिया करता था।

जब राजतंत्र का धीरे-धीरे अन्त होने लगा, तो डाक व्यवस्था की शुरुआत हुई। हालाँकि यह व्यवस्था पहले जर्मनी में शुरू हुई, फिर भारत में और फिर पूरी दुनिया में। सन् 1990 के दशक में जब इंटरनेट की शुरुआत हुई, तब यह चर्चा शुरू हो गयी थी कि 120 वर्षों से ज़्यादा समय से चली आ रही सूचना संचार की जीवन रेखा बनी डाक व्यवस्था दुनिया से ख़त्म हो जाएगी। हालाँकि पूरी तरह नहीं, तो एक बड़े स्तर तक यह बात बिल्कुल सही साबित हुई। आज जिसके लिए डाक व्यवस्था का शुभारम्भ हुआ यानी सन्देश सम्प्रेषण का काम डाक घरों से 80 फ़ीसदी तक उठ चुका है।

देखने में आया है कि इंटरनेट से केवल डाक सेवा ही ख़त्म नहीं हुई, बल्कि लोगों की भावनाएँ भी मरी हैं। लोगों की लिखने-पढऩे की आदत में बदलाव आया है। लेकिन हो सकता है कि दुनिया में कुछ ऐसे गाँव भी होंगे, जहाँ के कुछ लोग अभी भी चिट्ठी लिखते होंगे और कुछ लोग चिट्ठी के इंतज़ार में रहते होंगे। लेकिन कभी यह डाक सेवा ही एक मात्र ऐसी सेवा थी, जिससे हर इंसान जुड़ा हुआ था।

बता दें अंतरराष्ट्रीय डाक सेवा दिवस 9 अक्टूबर, 1969 को शुरू हुई। वहीं भारतीय डाक दिवस 10 अक्टूबर को मनाया जाता है। इससे ऐसा लगता है, जैसे भारत में डाक व्यवस्था एक दिन बाद शुरू हुई। लेकिन ऐसा नहीं है। भारत में पहला डाक घर इससे भी पहले साल 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने कोलकाता (तब कलकत्ता) में खोला था। भारतीय सीमा के बाहर पहला डाक घर दक्षिण गंगोत्री, अंटार्कटिका में साल 1983 में शुरू हुआ।

सन् 1986 में स्पीड पोस्ट की शुरुआत भारत में हुई, जबकि सन् 1980 में भारतीय डाक सेवा ने मनी ऑर्डर की शुरुआत की। हालाँकि भारत में डाक सेवा की स्थापना सन् 1766 में ही लार्ड क्लाइव ने कर दी थी। वहीं 9 अक्टूबर, 1874 को स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में दुनिया के 22 देशों के बीच एक सन्धि हुई, जिसके बाद यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन का गठन किया गया था। 1 जुलाई, 1876 को भारत यूनिवर्सल पोस्टल यूनियन की सदस्यता लेने वाला पहला एशियाई देश बना। सन् 1852 में स्टाम्प टिकट की शुरुआत हुई।

इस तरह सन् 2022 में आते-आते इस बार हम भारतीय डाक सेवा का 248वें राष्ट्रीय डाक सेवा दिवस में प्रवेश कर चुके हैं। जबकि विश्व डाक दिवस का यह 148वाँ साल है, यानी भारतीय डाक व्यवस्था दुनिया की डाक व्यवस्था से भी 100 साल पुरानी कही जाए, तो गलत नहीं होगा। हालाँकि भारत से भी पहले सन् 1,600 में जर्मनी की सरकार ने ड्यूश पोस्ट नाम से डाक सेवा की शुरुआत की थी, जिसका मुख्यालय बॉन में आज भी है। इस तरह डाक सेवा शुरू करने का श्रेय जर्मनी को जाता है। लेकिन इससे पहले भी भारत में राजा-महाराजा दूतों के द्वारा लिखित सन्देश भिजवाते थे, जो कि एक प्रकार की डाक सेवा ही थी।

ऐसे में अगर यह कहा जाए कि डाक सेवा का आइडिया भारतीय संस्कृति की देन है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जहाँ तक डाक घर स्थापित करने की बात है, तो भारत में इसकी स्थापना के एक साल बाद सन् 1775 में अमेरिका में यूएस मेल नाम से इसकी स्थापना हुई। आज भले ही इंटरनेट ने भारतीय डाक सेवा को बड़ा नुक़सान पहुँचाया है। लेकिन इस व्यवस्था को भारतीय सम्प्रेषण का एक अभिन्न अंग ही कहा जाएगा, क्योंकि आज भी डाकघरों के ज़रिये काफ़ी काम होते हैं। साथ ही समय के साथ-साथ डाकघरों ने अपनी कार्यप्रणाली में काफ़ी बदलाव किया है।

दिलचस्प है कि भारतीय डाक व्यवस्था में पिनकोड का बड़ा महत्त्व है। पिन कोड में पिन का मतलब पोस्टल इंडेक्स नंबर होता है, जिसकी शुरुआत पता आसानी से ढूँढने और समझने के लिए 15 अगस्त, 1972 को केंद्रीय संचार मंत्रालय में एक अतिरिक्त सचिव श्रीराम भिकाजी वेलणकर ने की थी। इससे पहले चिट्ठियों के भटकाव की शिकायतें बहुत रहती थीं। छ: अंकों के पिन कोड ने सही पते पर चिट्ठी, मनी ऑर्डर और दूसरी डाक सेवाओं को पहुँचाने में बड़ी मदद की।

क्या बन्द हो जाएँगे डाकघर?
बहुत-से लोगों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या भविष्य में डाक घर बन्द हो जाएँगे? तो इसका जवाब है- नहीं। क्योंकि डाक घर अब केवल चिट्ठी भेजने का काम ही नहीं करते, बल्कि मनी ऑर्डर, रजिस्ट्री, एफडी, सावधि जमा, बीमा, सामान की डिलीवरी, बैंकिंग और आधार आदि में परिवर्तन व सुधार में सहयोग भी करते हैं।
हालाँकि भारतीय डाक घरों को समय के हिसाब से और अधिक आधुनिक होने की आवश्यकता है, जिसके लिए उन्हें अपने काम की गति को और बढ़ाना होगा। इसमें भारत सरकार को डाक घरों की मदद की करनी चाहिए। साथ ही डाक घरों में रिक्त पदों के लिए भरना होगा। डाक घरों की बेकार पड़ी बिल्डिंगों को दोबारा चालू करना होगा। शहरों से लेकर दूर-दराज़ के ग्रामीण इला$कों तक इसे इंटरनेट की मज़बूत सेवा की तरह नये-नये फीचर्स के साथ मज़बूती प्रदान करनी होगी।

मोबाइल से आगे क्या?
सवाल यह है कि कि दिन-रात नयी-नयी खोजों में लगे वैज्ञानिकों के आविष्कार इस दुनिया का बहुत कुछ दे रहे हैं, तो बहुत कुछ छीनकर बर्बाद भी कर रहे हैं। मोबाइल इसमें दोनों तरह की भूमिका निभा रहा है। आज मोबाइल एक ऐसा आवश्यक हथियार बन चुका है, जिसके ब$गैर किसी का भी रहना मुश्किल हो चुका है, तो वहीं वह उपभोक्ता के लिए ही घातक सिद्ध हो रहा है।

अब लोग सोच रहे हैं कि क्या कभी मोबाइल से आगे भी कुछ ऐसा भविष्य में उनके हाथ में होगा, जो इसे भी ख़त्म कर देगा? क्योंकि जब लोगों के पास डाक व्यवस्था नयी-नयी थी, तब किसी ने नहीं सोचा था कि रेडियो, टीवी और टेलीफोन जैसी भी कोई व्यवस्था कभी सामने आएगी। जब लोगों के पास रेडियो, टीवी और टेलीफोन की व्यवस्था थी, तब किसी ने नहीं सोचा था कि लोगों के पास कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट जैसी कोई चीज़ भविष्य में होगी। और आज जब इंटरनेट लोगों के पास है, तो उसकी गति और सुविधा बढ़ाने के लिए 2जी से लेकर 9जी तक का आविष्कार हो चुका है। अब सवाल यह है कि क्या भविष्य में इससे भी आगे की चीज़ इंसान के पास होगी।

कुरियर बनाम डाकघर

आजकल एक होड़ कुरियर और डाकघरों के बीच छिड़ी हुई है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सामान पहुँचाने के मामले में कुरियर सेवा ने डाक सेवा को कहीं पीछे छोड़ रखा है। लेकिन आज भी डाक सेवा पर लोगों का जो भरोसा बना हुआ है, वो कुरियर सेवा के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है। साथ ही कुरियर सेवा डाक सेवा के मुक़ाबले कहीं महँगी है। ऐसे में अगर डाक घर अपनी सामान पहुँचाने की सेवाओं को और मज़बूत तथा तेज़ कर दें, तो डाक घरों की आय में भी वृद्धि होगी, साथ ही उनके पास काम ज़्यादा होगा और वो कुरियर सेवा को मात दे सकेंगे। लेकिन इसके लिए डाक व्यवस्थापकों और सरकार में इच्छा शक्ति होनी बहुत ज़रूरी है।

देखने वाली बात यह है कि आज डाक घरों के पास कई तरह के काम करने की परमीशन हैं, जबकि कुरियर वालों के पास केवल सामान इधर-से-उधर पहुँचाने की ही सुविधा है, फिर भी इस एक काम के दम पर कुरियर सेवा ने पिछले 14-15 वर्षों में जितना पैसा कमाया है, उतना डाक सेवा ने नहीं कमाया है। ऐसे में डाक व्यवस्थापकों और सरकार को इस बारे में सोचना तो चाहिए।

साइबर अपराधियों का आसान निशाना हैं महिलाएँ

पंजाब में एक निजी यूनिवर्सिटी में हाल में सामने आये एमएमएस मामले ने सरकार और समाज के सामने यह गम्भीर सवाल उठा दिया है कि साइबर अपराधियों के लिए महिलाएँ अभी भी आसान लक्ष्य क्यों हैं? इसके लिए क़ानून आदि को लेकर बता रहे हैं सनी शर्मा :-

साइबर क्राइम आज के समय में एक गम्भीर समस्या बन गया है। हैकिंग, मॉर्फिंग, सेक्सटॉर्शन, निजता का उल्लंघन विभिन्न प्रकार के साइबर अपराध होते हैं। साइबर क्राइम की चपेट में सबसे ज़्यादा महिलाएँ और बच्चे हैं। 29 अगस्त, 2022 को जारी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2019 के मुक़ाबले सन् 2021 में साइबर अपराध की घटनाओं की संख्या में 18.4 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है; लेकिन महिलाओं के ख़िलाफ़ ऐसे मामलों की संख्या में उल्लेखनीय रूप से 28 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है।

डाटा कहता है कि सन् 2021 में रिपोर्ट की गयी 52,974 घटनाओं में से 10,730 घटनाएँ, जो कुल अपराध का 20.2 फ़ीसदी हैं; महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामलों के रूप में दर्ज की गयीं। डाटा से पता चलता है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ साइबर अपराधों में मुख्य रूप से साइबर ब्लैकमेलिंग, धमकी, साइबर पोर्नोग्राफी, अश्लील यौन सामग्री की पोस्टिंग / प्रकाशन, साइबर स्टॉकिंग, बदमाशी, मानहानि, मॉर्फिंग और नक़ली प्रोफाइल बनाने के उदाहरण शामिल हैं।

हालाँकि एनसीआरबी के आँकड़ों के अनुसार, पंजाब महिलाओं के ख़िलाफ़ साइबर अपराध के मामले में शीर्ष राज्यों में शामिल नहीं था। लेकिन पिछले साल नारकोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस (एनडीपीएस) अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में पंजाब फिर से अपराध दर (प्रति लाख जनसंख्या) की सूची में सबसे ऊपर है, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आँकड़ों में कहा गया है। विवरण के अनुसार, पंजाब में 2021 में 32.8 फ़ीसदी अपराध दर (प्रति लाख जनसंख्या) दर्ज की गयी, जो देश में सबसे अधिक थी। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब की अनुमानित जनसंख्या सन् 2021 में 304.04 लाख थी और इस वर्ष के दौरान राज्य में एनडीपीएस अधिनियम के 9,972 मामले दर्ज किये गये थे।

महिलाओं के ख़िलाफ़ साइबर अपराध बेखौफ़ होकर रुक-रुककर होते रहते हैं। सन् 2001 में रितु कोहली का मामला भारत में साइबर स्टॉकिंग का पहला मामला था। पीडि़ता ने एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत की, जो इंटरनेट पर चैट करने के लिए अपनी पहचान का इस्तेमाल कर रहा था। उसने आगे शिकायत की कि अपराधी उसका पता ऑनलाइन भी बता रहा था और अश्लील भाषा का इस्तेमाल कर रहा था। उसके सम्पर्क विवरण भी लीक हो गये थे, जिसके कारण विषम घंटों में बार-बार कॉल आती थी। नतीजतन आईपी पते के आधार पर पुलिस ने पूरे मामले की जाँच की और आखिरकार अपराधी मनीष कथूरिया को गिरफ़्तार कर लिया।

पुलिस ने रितु कोहली का शील भंग करने के आरोप में भारतीय दण्ड संहिता की धारा-509 के तहत मामला दर्ज किया है। लेकिन भारतीय दण्ड संहिता की धारा-509 केवल एक महिला के अस्मिता पर हमले या अपमान के उद्देश्य से एक शब्द, हावभाव या कार्य को सन्दर्भित करती है और जब वही चीज़ें इंटरनेट पर की जाती हैं, तो उक्त धारा में इसके बारे में कोई उल्लेख नहीं है।

भारत के साइबर क़ानूनों में न तो साइबर स्टॉकिंग के लिए कोई विशेष प्रावधान था और न ही महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई अन्य धारा। अनुभाग में उल्लिखित शर्तों में से कोई भी साइबर स्टॉकिंग के तहत नहीं आता है। इस प्रकार रितु कोहली के मामले ने सरकार को पूर्वोक्त अपराध के सम्बन्ध में और उसी के तहत पीडि़तों की सुरक्षा के सम्बन्ध में क़ानून बनाने की तत्काल आवश्यकता के प्रति सचेत किया।

परिणामस्वरूप सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2008 (आईटीएए 2008) में धारा-66(ए) जोड़ी गयी। यह धारा एक अवधि के लिए कारावास का प्रावधान करती है, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है। इसके तहत संचार सेवा आदि के माध्यम से आपत्तिजनक सन्देश भेजने के लिए ज़ुर्माना लगाया जा सकता है।

लेकिन क्या विभिन्न अधिनियम महिलाओं को साइबर अपराध से बचाने के लिए पर्याप्त हैं? इस पर अभी भी सवालिया निशान है। अतीत में राजस्थान की एक निजी यूनिवर्सिटी में एक शिक्षिका को उसके अन्तिम वर्ष के छात्रों द्वारा धमकी दी गयी थी कि या तो वह उनके अंक बढ़ाएँ या वे छात्र समूहों में उनके निजी वीडियो प्रसारित करेंगे। शिक्षिका ने पुलिस को सूचना दी। जाँच में सामने आया कि वीडियो स्वयं रिकॉर्ड किये गये थे और उसी यूनिवर्सिटी में अन्तिम वर्ष के छात्र (अपने प्रेमी) को भेजे गये थे। उसने उन्हें अपने दोस्तों के साथ साझा किया, जो शिक्षिका को ब्लैकमेल कर रहे थे।

एक अन्य मामले में एक महिला को व्हाट्स ऐप पर अपनी 13 वर्षीय बेटी की एक निजी तस्वीर मिली, जिसमें एक सन्देश के साथ उसकी इसी तरह की तस्वीरों की माँग की गयी थी। सन्देश भेजने वाले ने लिखा कि अगर उसने मना किया, तो उसकी बेटी की तस्वीर इंटरनेट पर वायरल हो जाएगी। सन्देश एक अंतरराष्ट्रीय वर्चुअल नंबर से आये थे। पुलिस ने नाबालिग़ के प्रेमी के आईपी एड्रेस को ट्रैक किया, जिसने ख़ुलासा किया कि लडक़ी ने ख़ुद उसे ये तस्वीरें माँगने पर भेजी थीं।

एक अन्य मामले में 10वीं कक्षा की लडक़ी और उसके प्रेमी (कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र) ने सम्भोग करते हुए अपना वीडियो शूट किया। उसके प्रेमी का मानना था कि वह उसे धोखा दे रही है। इसी प्रतिशोध से उसने यह वीडियो लडक़ी के पिता को इस सन्देश के साथ भेजा- ‘आपकी बेटी मेरे प्रति वफ़ादार नहीं है।’

लडक़ी ने उसे आईने के सामने शूट की गयी 100 से अधिक निजी तस्वीरें भेजी थीं, और वह उन्हें फेसबुक पर निजी फोटो फोल्डर में सहेजता रहा। पुलिस ने उसके सोशल मीडिया अकाउंट से सभी तस्वीरें हटा दीं और सुनिश्चित किया कि उसके पास कोई बैकअप नहीं है।

राज्य पुलिस के साइबर सेल पर साइबर अपराध की ऑनलाइन सूचना दी जा सकती है। इन्हें ष्4ड्ढद्गह्म्ष्ह्म्द्बद्वद्ग.द्दश1.द्बठ्ठ पर भी रिपोर्ट किया जा सकता है। आईटी अधिनियम-2000 में कोई विशेष प्रावधान नहीं हैं, जो विशेष रूप से महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध से निपटते हैं; जैसा कि भारतीय दण्ड संहिता, या उस मामले के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता के प्रावधान हैं।

हाल में सरकार ने साइबर अपराधों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए एक रोड मैप तैयार करने के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया। समूह की सिफ़ारिशों के आधार पर सरकार द्वारा महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ साइबर अपराध (सीसीपीडब्ल्यूसी) योजना को मंज़ूरी दी गयी है। जिन अपराधों को विशेष रूप से महिलाओं के ख़िलाफ़ लक्षित किया जाता है, उन्हें साइबर-स्टॉकिंग, साइबर मानहानि, साइबर-सेक्स, अश्लील सामग्री का प्रसार और किसी के गोपनीयता डोमेन में अतिक्रमण के रूप में गिना जा सकता है; जो आजकल बहुत आम है।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा-67 प्रकाशन, प्रसारण और इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रसारित और प्रकाशित करने वाली किसी भी सामग्री को यौन रूप से स्पष्ट कार्य या आचरण को दण्डनीय बनाती है। इसका मतलब है कि भारत में साइबर पोर्नोग्राफी देखना गैर-क़ानूनी नहीं है। केवल ऐसी सामग्री को डाउनलोड करने, देखने और संग्रहित करने से कोई अपराध नहीं होता है। यह कैसा विरोधाभास है?

रोज़गार के झाँसे में परोसी बेरोज़गारी

राजनीति में सब जायज़ नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता है, तो यह लोकतंत्र की हत्या करने का एक षड्यंत्र है। यह उसी जनता को मारने का षड्यंत्र है, जिसने नेताओं को चुनकर इसलिए आला अधिकारियों से भी ऊपर का दर्जा दिया है, ताकि वे आला अधिकारियों को भ्रष्टचार करने से रोकें और जनसेवा करें। इसलिए राजनीति में योग्यता को नहीं, बल्कि जनसमर्थन को वरीयता दी गयी है। ऐसा माना जाता है कि जनसमर्थन उसी को ज़्यादा मिलता है, जो ज़्यादा अच्छा और ईमानदार होता है। लेकिन आज के नेताओं को भ्रष्टाचार का जन्मदाता कहा जाए, तो ग़लत नहीं होगा। इन नेताओं की ग़लतियों और कुकर्मों की सज़ा अगर जनता समय रहते उन्हें नहीं देती है, तो उसे इसके बेहद भयंकर परिणाम भुगतने ही होंगे। आजकल एक बड़ा वर्ग अपनी ऐसी ही ग़लती की सज़ा भुगतने की स्थिति में आ चुका है। आने वाले दिनों में इसका पछतावा और भी ज़्यादा लोगों को होगा, यह तय है। तेज़ी से लोगों का रोज़गार छिन रहा है। व्यापारिक क्षेत्र में मंदी की मार है। महँगाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इतने पर भी सरकार अपनी पीठ थपथपाने में लगी है।

हाल ही में जारी हुए सीएमआई के आँकड़े इस बात का संकेत हैं। इन आँकड़ों के अनुसार, देश पिछले चार वर्षों में चार करोड़ रोज़गार छिन चुके हैं। कहना ही होगा कि हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने की बात कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्मचारियों की संख्या 45 करोड़ से घटाकर 41 करोड़ कर दी है। यह आरोप प्रो. अरुण कुमार का है। प्रो. अरुण कुमार ने कहा है कि सरकारी बयानों में कहा जा रहा है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था छ: या पाँच फ़ीसदी की रफ़्तार से बढ़ रही है। लेकिन वास्तव में आर्थिक विकास दर पाँच, छ: या सात फ़ीसदी की दर से नहीं, बल्कि शून्य फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। प्रो. अरुण कुमार ने कहा है कि सरकारी आँकड़ों में असंगठित क्षेत्र के आँकड़े शामिल ही नहीं किये जाते हैं, जबकि असंगठित क्षेत्र ही सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ है। उन्होंने कहा है कि जिस दिन विकास दर में असंगठित क्षेत्र के आँकड़े उसमें जोड़ लिये जाएँगे, तो पता लग जाएगा कि विकास दर शून्य या एक फ़ीसदी है। प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि वास्तव में अर्थ-व्यवस्था की विकास दर पाँच फ़ीसदी से भी कम है।

प्रो. अरुण कुमार से पहले भी एक अर्थशास्त्री ने पिछले साल आरोप लगाया था कि मोदी सरकार ने सात वर्षों में सात करोड़ लोगों के रोज़गार छीन लिये। इसके साथ ही मोदी सरकार ने कई साल से रोज़गार के सही आँकड़े भी पेश नहीं किये हैं। मोदी के कार्यकाल में सरकारी विभागों में ख़ाली पड़े कई पदों पर भर्ती प्रक्रिया के लिए प्रपत्र (फॉर्म) ख़ूब भरवाये गये हैं। लेकिन उनके माध्यम से एक मोटी रक़म जमा करके परीक्षाएँ ही नहीं करायी गयी हैं। यदि कहीं परीक्षा हो गयी है, तो वहाँ परिणाम घोषित नहीं किये गये हैं। कहीं-कहीं साक्षात्कार नहीं लिया गया है। इसे बेरोज़गारों से सरकार द्वारा कमायी करना कहें, तो ग़लत नहीं होगा।

आँकड़े बताते हैं कि असंगठित क्षेत्र में 94 फ़ीसदी कर्मचारी काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र से 45 फ़ीसदी उत्पादन होता है। इसका मतलब यह है कि अगर रोज़गार घट रहे हैं, तो उत्पादन भी घट रहा है। असंगठित क्षेत्र में कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा है। लेकिन सबसे ज़्यादा दुर्दशा का शिकार आज यही क्षेत्र है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार के नोटबंदी और जीएसटी जैसे बेअक़्ली वाले फ़ैसलों से असंगठित क्षेत्र बुरी तरह से ढह गया। गिरती जीडीपी के बारे में अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बोल चुके हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी बोल चुके हैं। सरकार के फ़ैसले से नाराज़ होकर तो उन्होंने इस्तीफ़ा तक दे दिया था। हाल यह है कि नोटबंदी से न तो कालाधन आया। न आतंकवाद की कमर टूटी। ऐसे ही न ही जीएसटी से व्यापार में पारदर्शिता आयी। न लोगों पर दोहरे-तिहरे टैक्स की मार पडऩी बन्द हुई। न महँगाई घटी। कई बैंक डूब गये। कुछ के घाटे पर पर्दा डालने के लिए उन्हें दूसरी बैंकों में मर्ज कर दिया गया। आँकड़ों के अनुसार, एक साल में स्विस बैक में भारतीयों का पैसा 1.5 गुना हो गया है। सन् 2020 के अन्त तक भारतीयों के स्विस बैंक में 20,700 करोड़ रुपये थे, जो कि मंदी, कोरोना और नोटबंदी के बाद भी वर्ष 2021 में ही लगभग 4,800 करोड़ रुपये हो गया था। इतने पर भी कई उद्योगपति भारतीय बैंकों से लाखों करोड़ का ऋण लेकर भाग गये। अब अडाणी को मोटा क़र्ज़ बैंकों ने दे रखा है। वर्तमान में अडाणी समूह की सात कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध हैं। इनमें से वित्त वर्ष 2021-22 के अन्त तक छ: कम्पनियों पर 2.3 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ था। इसमें शुद्ध क़र्ज़ 1.73 लाख करोड़ रुपये है। कहा जा रहा है कि इनमें से कभी भी कोई भी कम्पनी दिवालिया हो सकती है। ऐसा हुआ तो कोई न कोई बैंक भी ध्वस्त होगी।

इधर आँकड़े कह रहे हैं कि असंगठित क्षेत्र के आठ प्रमुख उद्योगों की वृद्धि दर 7.3 फ़ीसदी से घटकर 2.1 फ़ीसदी हो चुकी है। इससे उत्पादन घटा है और असंगठित क्षेत्र संकट में आ गये हैं। सन् 2021 में केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में एक सवाल के जवाब में 30 नवंबर 2021 तक के आँकड़े पेश किये। उन्होंने कहा कि देश भर में सन् 2014 के बाद से अभी तक क़रीब 2,800 विदेशी कम्पनियाँ भारत से बोरिया-बिस्तर लेकर जा चुकी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सन् 2014 से 2021 तक 10,756 विदेशी कम्पनियाँ भारत में स्थापित भी हुई हैं। साथ ही 30 नवंबर, 2021 तक कुल 12,458 विदेशी कम्पनियाँ भारत में सक्रिय थीं।

नौकरी जाने के आँकड़े इतने ज़्यादा हैं कि उनका रिकॉर्ड सरकार के पास नहीं है। साथ ही भारत में हर वर्ष 18 से 21 साल के तक़रीबन 4.3 करोड़ युवा नौकरी के लिए तैयार होते हैं। इन युवाओं को सरकारी नौकरी मिलना तो दूर, असंगठित क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिल रही है।

मोदी सरकार से पहले वित्त वर्ष 2012-13 में निवेश की दर 37 फ़ीसदी की दर से बढ़ी थी। लेकिन अब निवेश की दर 30 फ़ीसदी से भी काफ़ी नीचे पहुँच चुकी है। जबकि भारत की मुद्रा का विदेशी निवेश और कालेधन में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

कराधान की बात करें तो जीएसटी लागू होने के दौरान लगभग 1.2 करोड़ लोगों ने इस नयी व्यवस्था के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था। लेकिन जीएसटी फाइल करने वालों की संख्या सिर्फ़ 70 लाख ही है। सरकार ने जीएसटी के माध्यम से ज़्यादा टैक्स जमा करने के विचार से जीएसटी प्रक्रिया में अब तक 1,400 से ज़्यादा बदलाव भी कर लिये, तब भी टैक्स भरने वालों की संख्या नहीं बढ़ सकी।

कांग्रेस का आरोप है कि मोदी सरकार ने सात वर्षों में 12 करोड़ युवाओं का रोज़गार छीना है। अब एक बार फिर मोदी अगले डेढ़ साल में 10 लाख नौकरियाँ देने का वादा कर चुके हैं। उन्होंने ट्वीट के ज़रिये सभी केंद्रीय विभागों और मंत्रालयों को आदेश दिया है कि वे अगले डेढ़ साल में 10 लाख युवाओं को नौकरी दें। इसी साल सेना में अग्निपथ योजना के तहत अग्नि वीरों की भर्ती भी हुई है। लेकिन इस घोषणा के अनुसार, 75 फ़ीसदी अग्निवीर चार साल बाद बाहर कर दिये जाएँगे। पिछले साल ही सरकारी आँकड़ों में कहा गया था कि सेना में सवा लाख से ज़्यादा पद रिक्त पड़े हैं।

वित्त वर्ष 2020-2021 तक के आँकड़े देखने पर पता चलता है कि मंत्रालयों और विभागों में कुल 9,79,327 पद ख़ाली थे। सन् 2014 के बाद से बीते आठ वर्षों में सरकारी नौकरियों के लिए कुल 22,05,99,238 (22 करोड़, 5 लाख, 99 हज़ार 238) आवेदन आये। जबकि सरकार ने केवल 0.3 फ़ीसदी अर्थात् 7,22,311 (7 लाख, 22 हज़ार, 311) लोगों को स्थायी नौकरी दी है।

अगर यही रफ़्तार नौकरी जाने की रही और 0.3 फ़ीसदी की दर नौकरी देने की रही, तो अगले 20 वर्षों में भारत में केवल 10-12 फ़ीसदी लोगों की ही नौकरी बचेगी।

हिजाब नहीं, बदलाव चाहती हैं महिलाएँ

इन दिनों ईरान और हिजाब ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा हुआ है। 13 सितंबर को इस्लामिक देश ईरान की राजधानी तेहरान में वहाँ की मोरल पुलिस ने एक 22 साल की युवती महसा अमीनी को इसलिए हिरासत में ले लिया, क्योंकि उसने हिजाब नहीं पहना हुआ था। पुलिस हिरासत में लिये जाने के तीन दिन बाद यानी 16 सितंबर को महसा की मौत हो गयी। इस मौत से आक्रोशित ईरानी लोग विरोध-प्रदर्शन करने लगे, जो कि अभी भी जारी हैं। अब हिजाब की अनिवार्यता के विरोध में ईरान में विरोध-प्रदर्शनों ने उग्र रूप ले लिया है। महिलाएँ इस विरोध को लेकर फ्रंट पर हैं; लेकिन पुरुष भी उनका साथ दे रहे हैं। प्रदर्शन करने वाली महिलाओं की माँग है कि हिजाब की अनिवार्यता ख़त्म कर देनी चाहिए। उन्हें इस बात की आज़ादी होनी चाहिए कि वे हिजाब पहनें या नहीं।

हिजाब की अनिवार्यता का क़ानून उनके लिए बेडिय़ों जैसा है। ईरान के विभिन्न शहरों में महिलाओं द्वारा चौराहे पर अपने हिजाब जलाने व अपने बाल काटने वाली तस्वीरें बहुत वायरल हो रही हैं। वहाँ की महिलाओं का मानना है कि हिजाब उनके व्यक्तित्व को कमज़ोर करता है। हिजाब उनसे उनकी पहचान छीनता है। महिलाएँ हिजाब क़ानून, मॉरल पुलिस के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही हैं। वे आज़ादी के अधिकार की माँग कर रही हैं। उनका कहना है कि महिलाओं को क्या पहनना है, और क्या नहीं पहनना है, इसका चयन करने का अधिकार उनके ही पास होना चाहिए, न कि सरकार यह फ़ैसला करे। वैसे किसी भी देश के पास यह अधिकार नहीं होना चाहिए।

ग़ौरतलब है कि ईरान में शरिया क़ानून लागू है। ईरान में सन् 1930 के दशक में शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन था। रज़ा पहलवी का महिलाओं के प्रति कट्टरवादी नज़रिया नहीं था। उन्होंने महिलाओं के हिजाब पहनने पर रोक लगा दी थी। 70 के दशक तक ईरान में महिलाएँ पश्चिमी सभ्यता वाले कपड़े भी आराम से पहनती थीं। हालाँकि कई महिलाएँ हिजाब भी पहनती थीं, पर स्वेच्छा से; उन पर कोई दबाव नहीं था और न ही नक़ाब आज की तरह ड्रेस कोड का अनिवार्य हिस्सा था।

दरअसल सन् 1979 में वहाँ इस्लामिक क्रान्ति हुई, और पहलवी राजवंश सत्ता से बाहर कर दिया गया। फिर वहाँ के कट्टरपंथी नेता अयातुल्ला ख़ोमैनी के अधीन एक धार्मिक गणतंत्र की स्थापना हुई। क्रान्ति का विरोध करने वालों को सख़्त सज़ाएँ दी गयीं। यहाँ तक कि राजा पहलवी को ईरान छोडक़र भागना पड़ा। अयातुल्ला ख़ोमैनी ने कड़ा शरिया क़ानून लागू कर दिया और महिलाओं की आज़ादी पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिये गये। इस तरह ईरान ने सन् 1981 में एक अनिवार्य हिजाब क़ानून पारित किया। इस्लामी दण्ड संहिता के अनुच्छेद-638 में कहा गया है कि महिलाओं के लिए सार्वजनिक रूप से या सडक़ पर हिजाब के बिना दिखायी देना अपराध है। इस्लामिक क्रान्ति के बाद लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष से घटाकर 13 वर्ष कर दी गयी। ईरान में विवाहित महिलाएँ अकेले देश नहीं छोड़ सकती हैं। नौ साल से अधिक आयु वाली लड़कियों और महिलाओं के लिए ड्रेस कोड का पालन अनिवार्य है। इसके तहत उन्हें हिजाब से सिर, चेहरा, गर्दन और बालों को ढकना अनिवार्य है।

इसके साथ ही घर से बाहर निकलने पर उनके बदन पर ढीले कपड़े होने चाहिए। इसका उल्लघंन करने पर महिलाओं को सज़ा देने व आर्थिक ज़ुर्माने का भी प्रावधान है। सज़ा के तौर पर उन्हें कोड़े भी मारे जा सकते हैं। लड़कियाँ और महिलाएँ इसका पालन सख़्ती से कर रही हैं या नहीं, यह देखने के लिए या यह कहें कि महिलाओं के मन में इस क़ानून का ख़ौफ़ पैदा करने के लिए ईरान की सरकारत ने नैतिक (मोरल) पुलिस की स्थापना की और उसे काफ़ी अधिकार भी दे दिये। ऐसी पुलिस का स्टॉफ पुलिस वैन में सार्वजनिक सथलों पर गश्त लगाकर महिलाओं की निगरानी करता है। उसका काम यह देखना है कि लड़कियों व महिलाओं का पहनावा क़ानून का उल्लघंन करने वाला तो नहीं है। पुलिस पर यह भी सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी डाली गयी है कि हर लडक़ी, महिला उचित कपड़ों में ही बाहर निकले। वह लड़कियों और महिलाओं से सवाल कर सकती है कि उनके बाल हिजाब से बाहर क्यों दिखायी दे रहे हैं? उन्होंने चमकीले / भडक़ीले / तंग / बदन दिखाने वाले कपड़े क्यों पहने हुए हैं? इस पुलिस के जवान इस प्रकार की कमी या आरोप में किसी भी महिला या युवती को हिरासत में ले सकते हैं। महसा अमीनी को भी तेहरान में मॉरल पुलिस ने 13 सितंबर को ड्रेस कोड का उल्लघंन करने के आरोप में ही हिरासत में लिया था। पुलिस का कहना है कि उसका हिजाब ड्रेस कोड के अनुरूप नहीं था, जबकि उसकी माँ ने पत्रकारों को बताया कि उनकी बेटी के कपड़े हमेशा नियमों के अनुरूप थे।

ईरान के सुरक्षा बलों ने एक बयान जारी कर कहा कि हिजाब नियमों पर सरकारी शैक्षिक प्रशिक्षण प्राप्त करते समय महसा अचानक गिर गयी, उसे दिल का दौरा पड़ा और उसकी मौत हो गयी। ईरान के वर्तमान राष्ट्रपति इब्राहिम रायसी भी ड्रेस कोड को लेकर बहुत सख़्त हैं। रायसी को देश के रूढि़वादी अभिजात वर्ग का समर्थन हासिल है। राष्ट्रपति रायसी ने इसी साल जुलाई में हिजाब और शुद्धता क़ानून को नये प्रतिबंधों के साथ लागू करने के लिए एक आदेश पारित किया था। सरकार ने अनुचित हिजाब पर सख़्ती करने के साथ ही हील्स पहनने के ख़िलाफ़ एक आदेश भी जारी किया था। ईरान में महिलाएँ पिछले कुछ समय से अनिवार्य हिजाब नीति का विरोध कर रही हैं। और राष्ट्रपति रयासी हिजाब विरोधी आन्दोलन को इस्लामी समाज में नैतिक भ्रष्टाचार का एक संगठित प्रचार मानते हैं।

मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, 12 जुलाई, 2022 को ईरान की अभिनेत्री रोश्नो को हिजाब नहीं पहनने पर गिरफ़्तार किया गया। कई दिनों तक उसे यातनाएँ दी गयीं और फिर नेशनल टीवी पर उनसे माफ़ी मँगवायी गयी। ख़बर यह भी है कि पिछले कुछ महीनों से ईरान में कड़े ड्रेस कोड को अमल कराने के लिए महिलाओं की गिरफ़्तारी के मामले बढ़े हैं। कई महिलाओं ने इस बात को सरकारी टीवी चैनल के कैमरे पर स्वीकार किया है। वैसे ईरान में हिजाब के ख़िलाफ़ विरोध का मुद्दा नया नहीं है। वर्ष 2014 में हिजाब के ख़िलाफ़ माय स्टील्थ फ्रीडम नामक फेसबुक पेज बनाया गया। इस पेज के ज़रिये एकत्रित हुई महिलाओं ने सोशल मीडिया पर मेरी गुम आवाज़, मेरा कैमरा, मेरा हथियार जैसी कई पहल कीं।

मई, 2017 में व्हाइट वेडनेस-डे यानी सफ़ेद बुधवार अभियान चलाया गया। इस अभियान से जुड़ी महिलाएँ सफ़ेद पोशाक में हिजाब के विरोध में प्रदर्शन करती हैं। वर्तमान में इस अभियान से दुनिया भर के क़ेरीब 70 लाख लोग जुड़े हुए हैं और इनमें से 80 फ़ीसदी ईरानी हैं। ईरान में हिजाब के ख़िलाफ़ जारी वर्तमान विरोध-प्रदर्शन सन् 2019 के बाद से सबसे बड़ा बताया जा रहा है। सन् 2019 का विरोध-प्रदर्शन ईंधन की क़ीमतों की वृद्धि को लेकर था। दुनिया के 195 देशों में से 57 देश मुस्लिम बहुल हैं। इन 57 देशों में से आठ में शरिया का कड़ाई से पालन होता है। केवल ईरान व अफ़ग़ानिस्तान ऐसे दो देश हैं, जहाँ हिजाब पहनना अनिवार्य है। इसका उल्लंघन करने पर सख़्त सज़ा दी जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि हिजाब के ख़िलाफ़ मुहिम राजनीतिक और धार्मिक तानाशाही पर चोट है, न कि धर्म के ख़िलाफ़। ईरान में हिजाब पहनने की अनिवार्यता के विरोध में प्रदर्शन जारी है, तो भारत के कर्नाटक सूबे में हिजाब को जबरन हटाने का विरोध मुद्दा बना हुआ है।

ग़ौरतलब है कि सितंबर माह में कर्नाटक हिजाब विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 10 दिन तक चली लम्बी सुनवाई के बाद फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। सर्वोच्च न्यायालय तय करेगा कि कर्नाटक में स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी का फ़ैसला सही है, या नहीं। कर्नाटक सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश हेमंत गुप्ता की पीठ से कहा कि कक्षा में हिजाब पहनना मौलिक अधिकार नहीं है। स्कूल के बाहर, स्कूल बस में और स्कूल परिसर में हिजाब पहनने पर रोक नहीं है। यह रोक सिर्फ़ कक्षाओं में ही है। अब सब की निगाहें सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर टिकी हैं और उम्मीद की जा रही है कि यह फ़ैसला 16 अक्टूबर या उससे पहले आ सकता है।

उधर ईरान में महिलाओं ने हिजाब की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ अपने कड़े तेवरों से ईरान की कट्टरपंथी सरकार के समक्ष मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। यही नहीं, महिला प्रतिनिधियों की हिजाब के साथ राजनयिक बैठकों में शिरकत करने पर ईरानी महिलाएँ पश्चिमी देशों को फटकार लगा रही हैं। उनका मानना है कि हिजाब अनिवार्यता को ख़त्म करने के लिए ईरान की सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की भी ज़रूरत है।

अब भाजपा की कसौटी पर कैप्टन

पंजाब लोक कांग्रेेस के भाजपा में विलय से मौज़ूदा राज्य की राजनीति में किसी उलटफेर की सम्भावना नहीं है। कभी कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के भाजपा में शामिल होने के कई अर्थ हैं। वह पंजाब लोक कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और भाजपा मंख भी हैं। हालाँकि कुछ माह पहले गठित अमरिंदर की इस पार्टी का कोई वुजूद नहीं है। लिहाज़ा यह कहना कि विलय से भाजपा को मज़बूती मिलेगी, ठीक नहीं होगा। कैप्टन के साथ दो पूर्व सांसद और आधा दर्ज़न पूर्व विधायक भी भाजपाई हो गये हैं। इससे पहले कांग्रेस के चार पूर्व मंत्री भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। निकट भविष्य में कई और वरिष्ठ कांग्रेसी भी कैप्टन की वजह से भाजपा में आ सकते हैं। कैप्टन की पत्नी और पटियाला से कांग्रेस की सांसद परणीत कौर अभी पार्टी में बनी हुई हैं। वे कब तक कांग्रेस में बनी रह सकती हैं। देर-सबेर उन्हें भी हाथ छोडक़र कमल थामना ही होगा।

दरअसल कांग्रेस से भाजपा में आये पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक और वरिष्ठ नेता भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं, बल्कि अपनी उपेक्षा और सत्ता से दूरी के चलते अपने आका से भविष्य की उम्मीद लेकर आये हैं। सवाल यह है कि क्या वे पार्टी की विचारधारा को भी अपना सकेंगे? अगर ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो उनके लिए कम-से-कम भाजपा में ज़्यादा अवसर नहीं होंगे। कुछेक को छोडक़र कोई जनाधार वाला नेता नहीं है। कांग्रेस से भाजपा में थोक में शामिल हुए नेताओं में ज़्यादातर कैप्टन के समर्थक हैं। कांग्रेस में कैप्टन के बिना उनका कोई महत्त्व नहीं था। पार्टी में उनकी उपेक्षा होती इससे बेहतर क्यों नहीं पार्टी ही बदल ली जाए?

निकट भविष्य में भाजपा राज्य में अपने आधार को मज़बूत कर सकती है और शीर्ष नेतृत्व भी यही चाहता है। राज्य से 13 लोकसभा की सीटें हैं और भाजपा छ: से ज़्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है। फ़िलहाल यहाँ से सन्नी देओल गुरदासपुर से और सोमप्रकाश होशियारपुर से सांसद हैं। विधानसभा चुनाव में जिस तरह से आम आदमी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी है, उस लक्ष्य को पाना आसान भी नहीं है। लेकिन संगरूर लोकसभा उप चुनाव में आम आदमी पार्टी प्रत्याशी की हार और अकाली सिमरनजीत सिंह मान की जीत भाजपा को कुछ उम्मीद बँधाती है। इन्हीं सब बातों को देखते हुए भाजपा पंजाब में अपने संगठन को मज़बूत और सशक्त नेतृत्व जैसे पहुलओं को ध्यान में रख रही है।

संगठनात्मक रूप से मज़बूत मानी जाने वाली भाजपा के पास पंजाब में कोई जनाधार वाला नेता नहीं है। कैप्टन यह कमी पूरी कर सकते हैं। सितंबर, 2021 में कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन को जिस तरह से अपमानित कर मुख्यमंत्री नहीं रहने दिया, वह टीस उनके मन में रही। कैप्टन को कांग्रेस में नहीं; लेकिन राज्य का राजनीति में सक्रिय रहना था। लिहाज़ा उन्हें कोई विकल्प तलाशना ही था। उन्हें भाजपा में ही कुछ सम्भावना दिखी। लिहाज़ा उनकी शीर्ष नेतृत्व से निकटता बढ़ी। विधानसभा चुनाव भी कैप्टन की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर लड़ा। तभी से कयास लगने लगे थे कि देर-सबेर कैप्टन भाजपा में जाएँगे। लेकिन उनसे पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ भाजपा में शामिल हो गये।

कभी अकाली दल से राजनीति में आये कट्टर कांग्रेसी कैप्टन में नेतृत्व की क्षमता ज़रूर है; लेकिन उम्र के जिस दौर से वह गुज़र रहे हैं, उसमें उनकी सक्रियता ही आड़े आएगी। ऐसे में वह भाजपा के लिए कितने कारगर साबित होंगे, यह वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों से स्पष्ट होगा। चूँकि विधानसभा चुनाव तो इसी वर्ष हुए हैं और कैप्टन और उनकी पार्टी का प्रदर्शन शून्य रहा है। पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से अपमानित अपनी रणनीति से सन् 2002 और सन् 2017 में कांग्रेस को सत्ता में लाने का श्रेय उन्हें ही है। क्या कुछ वैसा करिश्मा वह वर्ष 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए कर सकते हैं?

कैप्टन को भाजपा में अहम ज़िम्मेदारी ज़रूर दी जाएगी। वह केंद्रीय राजनीति में जाने के इच्छुक नहीं हैं, इसलिए उन्हें प्रदेश स्तर पर अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। उनके अलावा कभी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ की योग्यता को देखते हुए ज़िम्मेदारी दी जाएगी। जाखड़ और कैप्टन में तालमेल अच्छा रहा है, लिहाज़ा वह पार्टी को मज़बूती देंगे। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा शीर्ष नेतृत्व पंजाब में पार्टी को आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले में खड़ा करना चाहता है। पूर्व मंत्रियों, विधायकों और वरिष्ठ नेताओं के पाला बदल से कांग्रेस कमज़ोर हुई है, भाजपा इसी का फ़ायदा उठाना चाहती है। दो सांसद और दो विधायकों वाली भाजपा लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। अगर ऐसा हो सका, तो हरियाणा की तरह भाजपा पंजाब में अपने बूते ही चुनाव लड़ेगी।

फरवरी में हुए विधानसभा चुनाव से पहले शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ उसका गठजोड़ रहा है। भाजपा सत्ता में भी भागीदार रही है; लेकिन बावजूद इसके पार्टी का आधार शहरों तक ही सीमित रहा है। आज भी पंजाब में भाजपा का जनाधार शहरों तक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी कहीं नहीं दिखती। तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शिअद ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था। कभी हरियाणा में भी भाजपा सहयोगी दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती रही है; लेकिन अब वह अपने दम पर मैदान में उतरती है। क्या पता शीर्ष नेतृत्व पंजाब में भी हरियाणा जैसे पहलू को देख रही हो; लेकिन इसके लिए ज़मीनी स्तर पर बहुत मेहनत करने की ज़रूरत है।

पंजाब में कभी कांग्रेस और अकाली दल ही आमने-सामने रहते थे। फिर मुक़ाबले में भाजपा को बल मिला और मामला त्रिकोणीय हो गया। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले में आने से अब मुक़ाबला त्रिकोणीय नहीं, बल्कि चतुर्कोणीय में बदल गया, जो आगे और दिलचस्प होगा। इस समय प्रदेश में सबसे मज़बूत स्थिति में आम आदमी पार्टी है। अब सरकार के कामकाज पर उसका भविष्य निर्भर करता है। पहला झटका उसे संगरूर उप चुनाव में देखने को मिल चुका है। भगवंत मान के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी संगरूर लोकसभा चुनाव सीट ख़ाली हो गयी थी। आम आदमी पार्टी को जीत में कोई संशय नहीं लग रह था; लेकिन नतीजा अप्रत्याशित रहा और यहाँ से अकाली दल मान (अमृतसर) के सिमरनजीत सिंह मान विजयी रहे।

विधानसभा चुनाव के बाद आप के लिए यह सबसे बड़ा झटका रहा। वैसे भी सरकार की लगभग छ: माह के शासनकाल में भगवंत मान सरकार की कोई विशेष उपलब्धि नहीं दिख रही है। पंजाब में आप के विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त का मामला भी चल रहा है; लेकिन ऐसे आरोपों में ज़्यादा दम नहीं दिखता। 117 में से 92 विधायक आम आदमी पार्टी के हैं। कितने लोगों की ख़रीद-फ़रोख़्त की जा सकती है? इससे भाजपा को क्या हासिल हो जाएगा? उसके पास तो दो विधायक और कांग्रेस के पास 18 जबकि बहुमत के लिए 59 का जादुई आँकड़ा चाहिए। हाँ, यह आम आदमी पार्टी में फूट पैदा करने और सरकार को अस्थिर करने का कोई प्रयास ज़रूर हो सकता है।

पंजाब में भाजपा को पाँव जमाने के लिए गाँवों तक पहुँचना होगा, इसके बिन नेतृत्व चाहे जो करे, अच्छे नतीजे देना मुश्किल का काम है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस से आये इन नेताओं की वजह से पार्टी की पंजाब में पैठ और आधार मज़बूत होने और लोकसभा चुनाव में आधी से ज़्यादा सीटों पर क़ाबिज़ होने की बात कहीं सपना न बनकर रह जाए। फ़िलहाल भाजपा का विधानसभा चुनाव में वोट फ़ीसदी केवल 6.6 फ़ीसदी है, जबकि इसके मुक़ाबले में आम आदमी पार्टी का 42.01 फ़ीसदी, कांग्रेस का 22.98 फ़ीसदी और शिरोमणि अकाली दल का 18.38 फ़ीसदी है। भाजपा को कमोबेश पंजाब में शून्य से ही शुरुआत करनी है और इसके लिए ज़ोरदार नेतृत्व की ज़रूरत है। पंजाब में अब भी भाजपा को शहरी पार्टी माना जाता है, जबकि राज्य में वही पार्टी सत्ता हासिल करती है, जिसका गाँवों में भरपूर आधार होता है। अभी लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल से ज़्यादा का समय है। इस दौरान पार्टी संगठन में कैप्टन और उनके समर्थकों को क्या और कैसी ज़िम्मेदारी मिलती है, यह देखने की बात होगी।

अगर कैप्टन और सुनील जाखड़ के अलावा कई पूर्व मंत्रियों को संगठन में कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दी जाती है, तो इससे पार्टी को अपनी जड़े जमाने में मदद मिलेगी। वर्ष 2024 लोकसभा चुनाव के नतीजे बता देंगे कि कैप्टन और उनके समर्थकों की बदौलत पंजाब में भाजपा ने अपना आधर कितना मज़बूत किया है। जब जब कांग्रेस में कैप्टन को फ्री हैंड मिला है, उन्होंने अच्छे नतीजे दिखाये हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह तो कैप्टन समेत थोक में आये कांग्रेसियों की वजह से पार्टी को भविष्य में मज़बूत होता देख रहे हैं।

मन्दिर तो है, मूर्ति और पुजारी ग़ायब!

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मन्दिर एवं आरती को लेकर पूरे प्रदेश में हंगामा मचा पड़ा है। संत महंत से बुलडोजर बाबा बनने के बाद अब योगी भगवान बने गोरखपुर मठ के महंत एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इतनी निंदा हुई कि वह अपनी इस पूजा-अर्चना पर चुप्पी भले ही साधे रहे, मगर पुलिस को सक्रिय अवश्य कर दिया। अब पुलिस मन्दिर बनाकर योगी की पूजा करने वाले प्रभाकर मौर्य को सिद्दत से ढूँढ रही है।

कहा जा रहा है कि प्रभाकर ने राम नगरी से केवल 15 किलोमीटर दूर स्थित पूराकलंदर थाना क्षेत्र के अयोध्या-प्रयागराज हाईवे के किनारे स्थित कल्याण भदरसा मजरे में अपने ही चाचा की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके उसे हड़पने की नीयत से उस पर योगी आदित्यनाथ का मन्दिर बना डाला। मगर उसके इस भगवान ने उसकी रक्षा नहीं की। अब मन्दिर से मुख्यमंत्री योगी की मूर्ति भी नदारद है। पुलिस की दबिश के बाद अब प्रभाकर मौर्य के पिता ने भी उसकी ग़लतियों को स्वीकार कर लिया है।

इधर योगी की आरती एवं पूजा-अर्चना पर घमासान मचा हुआ है। कुछ लोग इसे उचित ठहरा रहे हैं, तो कुछ अनुचित। प्रश्न यह उठने लगा है कि कहीं योगी तो इतने महत्त्वाकांक्षी नहीं हो गये कि अब वह लोगों के भगवान बनना चाहते हैं? इस बारे में एक निजी महाविद्यालय के प्राध्यापक प्रदीप कहते हैं कि जीवन में ऊँचा उठने की आकांक्षा तो सबकी होती है, मगर भगवान बनने की आकांक्षा कुछ ही लोगों को होती है। हिन्दू शास्त्रों में भगवान से अपनी तुलना करने अथवा भगवान बनने की आकांक्षा करने वालों को राक्षस कहा गया है। मगर यह घोर कलियुग है। यहाँ जो जितना बड़ा पापी है, वही लोगों की दृष्टि में भगवान है। कोई व्यक्ति भगवान तभी बनता है, जब वो सामाजिक बन्धनों से ऊपर उठकर समाज की सेवा करता है। इस प्रकृति की विभूतियों को लोग अपना भगवान मानने लगते हैं, यह एक अलग बात है। मगर यहाँ न तो कोई सामाजिक बन्धनों से ऊपर उठा है एवं न ही समाज की सेवा में लगा है। यहाँ जो कुछ भी हो रहा है, वो अपने लाभ, स्वार्थ एवं सुख के लिए राजनीति से प्रेरित है।

नाम प्रकाशित न करने की विनती करते हुए एक स्थानीय भाजपा नेता ने योगी आदित्यनाथ की आरती व पूजा-अर्चना पर कहा कि देखिए, हम तो साधारण व्यक्ति हैं। अगर हमें इस स्तर की राजनीति आती होती, तो हम भी कम-से-कम मंत्री तो होते ही। हम तो आरएसएस की विचारधारा से प्रभावित भारतीय जनता पार्टी के एक छोटे से सिपाही हैं तथा पार्टी की सेवा में जुटे हुए हैं। किन्तु योगी आदित्यनाथ को इस प्रकार की गतिविधियों पर स्वयं ध्यान देते हुए उनका मन्दिर बनाने वालों के अतिरिक्त आरती एवं पूजा-अर्चना करने वालों की कड़ी फटकार लगानी चाहिए। इससे उनका क़द और भी ऊँचा हो जाता। हालाँकि वह इस प्रकार के ढकोसलों से कोसों दूर रहने वाले एक बड़े सन्त हैं एवं ऐसी हरकतें स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि ऐसा नहीं करने से उनकी गरिमा को बड़ी ठेस पहुँचेगी।

इस वर्तमान समय में उन्हें इस बात का ध्यान है कि वह अब प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं तथा उनके सिर पर पूरे प्रदेश के विकास का दारोमदार है। प्रदेश में हो रहे अपराधों पर उन्हें ध्यान देने की आवश्यकता है। दूसरी बार भी सत्ता मिलने के बाद भी अगर वह कान में तेल डालकर बैठे रहेंगे, तो उन पर काम न करने वाले मुख्यमंत्री का ठप्पा लगते देर नहीं लगेगी। इस वर्तमान में प्रदेश में बहुत सारे काम करने को पड़े हैं। योगी को इस वर्तमान में उन पर ध्यान देने की परम् आवश्यकता है। जनता में जो उनका मान-सम्मान एवं उनके प्रति जो विश्वास है, अभी उसे बनाये रखने में ही उनकी भलाई है।

एक भाजपा कार्यकर्ता ओंमकार ने कहा कि नरेंद्र मोदी जी, योगी आदित्यनाथ इस राष्ट्र की आन, बान और शान हैं। वह हम सबके लिए पूज्यनीय तो हैं ही, देश के लिए कल्याणकारी भी हैं। अगर योगी ख़ुद इससे नाराज़ हैं, तो यह उनकी महानता है।

भौजीपुरा के कमुआ गाँव के मास्टर नंदराम कहते हैं कि सदियों से एक कहावत चली आ रही है कि चमत्कार को नमस्कार है। योगी आदित्यनाथ कई प्रकार से चमत्कृत हैं। आज वह जिसके सिर पर हाथ रख दें, उसके वारे-न्यारे हो जाएँगे। इसका कारण उनका प्रदेश का मुख्यमंत्री होना तो है ही, भविष्य में उनके प्रधानमंत्री बनने की बात चलने का भी है। अब ऐसे शहद लगे मुँह को कौन नहीं चाटेगा? योगी की आरती एवं पूजा-अर्चना करने वाले उस पुजारी ने भी यही किया है। सभी जानते हैं कि जिसकी सरकार देश अथवा किसी प्रदेश में बनती है, उसके हाथ में इतना कुछ होता है कि वह मनचाहे रूप से अपनों को लाभ पहुँचा सकता है। सम्भव है कि पुजारी ने भी ऐसा ही कुछ सोचा हो कि अगर योगी आदित्यनाथ उन पर कृपा कर दें, तो उसके भी ठाठ हो जाएँ।

चौधरी यशवंत सिंह कहते हैं कि जनता में जिन देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा है, वो उनकी पूजा करती है। अगर कोई एक पुजारी कहीं छोटा-सा मन्दिर बनवाकर किसी नेता की आरती करने लगे अथवा पूजा करने लगे, तो इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। यह सब कोई नया खेल नहीं है। योगी से पहले मोदी का भी मन्दिर बना था तथा उसमें पूजा भी हुई थी। मगर नरेंद्र मोदी ने चतुराई दिखाते हुए अपनी मूर्ति पूजा पर रोक लगाते हुए मूर्ति को ढकवा दिया। योगी को भी यहाँ इसी समझदारी से कार्य करने की आवश्यकता है। अगर वो अपने प्रति इस तरह के काम करने वालों को नहीं रोकेंगे, तो इससे उन्हीं की हानि होगी। क्योंकि जनता के भगवान हिन्दू ग्रंथों में वर्णित भगवान हैं। अत: जनता अचानक आदमी के रूप में मिले किसी भगवान को कभी स्वीकार नहीं कर सकती।

बहेड़ी के गाँव गौंटिया के मन्दिर के पुजारी सन्त कमलेश्वर जी कहते हैं कि यह अपनी-अपनी आस्था का प्रश्न हो सकता है कि कौन, किसकी पूजा कर रहा है? मगर हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि कोई आदमी भगवान बनने के योग्य तभी हो सकता है, जब वह अंतर्यामी होने के साथ साथ सभी से बैर-भावना भुलाकर सबको गले से लगाये एवं सबका भला करे। अगर योगी में ये तीनों लक्षण हों, तो उन्हें भगवान मानने में कोई आपत्ति नहीं है। अन्यथा उन्हें पुजारियों से कहना चाहिए कि वे उस एक परमपिता परमात्मा की उपासना करें, जिसने सबको रचा है।

जो भी हो किसी व्यक्ति विशेष की पूजा-अर्चना एवं आरती करना सबके मन को तो नहीं भाया है। जो लोग इसे पसन्द कर रहे हैं, उनके अपने तर्क हैं तथा जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, उनके अपने तर्क हैं। यह मुद्दा धार्मिक है, इसके चलते इस पर अपनी कोई टिप्पणी उचित नहीं है। देखना है कि योगी आदित्यनाथ अपनी इस पूजा-अर्चना एवं आरती के राजनीति में किस प्रकार उपयोग करते हैं? जनता जनार्दन इसे किस रूप में स्वीकार अथवा अस्वीकार करती है। योगी आदित्यनाथ को तो शायद यह रास आया नहीं।