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भारत में घटने लगी प्रजनन दर

हिन्दू महिलाओं की कुल प्रजनन दर घटकर 1.94, मुस्लिम महिलाओं की 2.2, ईसाई महिलाओं की 1.88, सिख महिलाओं की 1.61 और जैन महिलाओं की 1.6 हो गयी है। भारत के लिए इसके क्या मायने हैं? बता रहे हैं भारत हितैषी :-

भारत ने इस मायने में इतिहास बना दिया है कि जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के सरकारी प्रयास आख़िर वांछित परिणाम दिखा रहे हैं। प्रजनन दर प्रतिस्थापन स्तर से भी नीचे चली गयी है। प्रजनन दर में गिरावट की इस गति का भारत जैसे देश के लिए सकारात्मक अर्थ संकेत हैं, क्योंकि इससे देश की जनसंख्या अब 2030 तक चीन से अधिक नहीं हो सकती है।

प्रजनन क्षमता में यह गिरावट सभी समुदायों में देखी जा रही है। नवीनतान आँकड़ों के मुताबिक, हिन्दू महिलाओं की कुल प्रजनन दर 1.94 है और मुस्लिम महिलाओं के लिए यह 2.2 है, जबकि ईसाई समुदाय की प्रजनन दर 1.88, सिख समुदाय 1.61, जैन समुदाय 1.6 और बौद्ध और नव-बौद्ध समुदाय 1.39 है। सीधे शब्दों में कहें, तो यह एक एकल परिवार में बच्चों की औसत संख्या है।

प्रतिस्थापन स्तर की उर्वरता उस स्तर का प्रतिनिधित्व करती है, जिस पर जनसंख्या बिलकुल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने आप को बदल लेती है। इस प्रकार यदि यह स्तर पर्याप्त रूप से लम्बी अवधि तक बना रहता है, तो शून्य जनसंख्या वृद्धि होती है। अधिकांश देशों में यह दर लगभग 2.1 बच्चे प्रति महिला है। हालाँकि यह मृत्यु दर के साथ मामूली रूप से भिन्न हो सकती है। प्रतिस्थापन स्तर की उर्वरता शून्य जनसंख्या वृद्धि को तभी बढ़ावा देगी, जब मृत्यु दर स्थिर रहे और प्रवास का कोई प्रभाव न पड़े।

भारत में अधिक जनसंख्या एक बड़ी चुनौती रही है और देश में ग़रीबी, बेरोज़गारी और निरक्षरता जैसी अधिकांश समस्यायों का एक बड़ा कारण है। नमूना पंजीकरण प्रणाली डाटा 2020 के अनुसार, भारत की सामान्य प्रजनन दर (एक वर्ष में 15-49 के प्रजनन आयु वर्ग में प्रति 1,000 महिलाओं पर जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या) में पिछले एक दशक में 20 फ़ीसदी की गिरावट आयी है।

गिरावट की इस दर का मतलब है कि भारत विश्व स्तर पर सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने के लिए चीन को पछाड़ नहीं पाएगा। नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, औसत सामान्य प्रजनन दर सन् 2018 से सन् 2020 के बीच 68.7 है, जबकि सन् 2008 सन् 2010 के बीच यह 86.1 थी। गिरती प्रजनन दर को कई संरचनात्मक हस्तक्षेपों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, जैसे कि शादी की उम्र में वृद्धि, महिलाओं में साक्षरता दर में सुधार, और आधुनिक गर्भनिरोधक विधियों की आसान और व्यापक उपलब्धता आदि।

नमूना पंजीकरण प्रणाली डाटा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुरूप है, जिसमें भारत की कुल प्रजनन दर (प्रजनन आयु की प्रति महिला जन्म दर) 2015-16 की 2.2 से गिरकर 2019-2021 में 2.0 हो गयी है।

हालाँकि कुल प्रजनन दर में गिरावट एक समान नहीं है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह शहरी क्षेत्रों में 15.6 फ़ीसदी की तुलना में 20.2 फ़ीसदी है। एक ग्रामीण महिला का टीएफआर 2.2 है, जबकि एक शहरी महिला का 1.6 है। इसलिए यह तर्क दिया जा सकता है कि सामाजिक और आर्थिक विकास तो राष्ट्रीय स्तर पर प्रजनन दर में गिरावट को प्रेरित कर रहे हैं। वहीं साक्षरता, आर्थिक सशक्तिकरण, महिलाओं की जागरूकता में असमानता है, जिससे विसंगतियाँ बढ़ रही हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (14 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करते हुए) में चंडीगढ़ में कुल प्रजनन दर 1.4 से लेकर उत्तर प्रदेश में 2.4 तक देखी गयी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश को छोडक़र कई राज्यों ने प्रजनन क्षमता का प्रतिस्थापन स्तर (2.1) हासिल कर लिया है।

रिपोर्ट बताती हैं कि दो से ऊपर की कुल प्रजनन दर वाले पाँच राज्य बिहार, मेघालय, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और मणिपुर थे। हरियाणा, असम, गुजरात उत्तराखण्ड और मिजोरम 1.9 पर कुल प्रजनन दर दो थी। छ: राज्य- केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा 1.8 पर थे। इसके अलावा 1.7 में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, नागालैंड और त्रिपुरा थे, जबकि इस सर्वेक्षण में पश्चिम बंगाल में टीएफआर सबसे कम 1.6 था।

आँकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशक में सभी धार्मिक समुदायों में मुसलमानों की प्रजनन दर में सबसे तेज़ गिरावट आयी है। आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू और कश्मीर ने सभी राज्यों में सामान्य प्रजनन दर में सबसे ज़्यादा गिरावट दर्ज की है।

अपनी प्रजनन क्षमता में गिरावट के बावजूद भारत में अभी भी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। हालाँकि बड़ी या तेज़ी से गिरावट, जनसंख्या वृद्धि दर अनुमानित 1.9 फ़ीसदी प्रति वर्ष है। दुनिया के केवल तीन देशों नाइजीरिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश में  विकास की उच्च दर है।

प्रजनन क्षमता में गिरावट का श्रेय साक्षरता, शहरीकरण, औद्योगीकरण, आधुनिक संचार और परिवहन और महिलाओं की स्थिति में वृद्धि को दिया जाता है। सरकारी परिवार नियोजन सेवाओं की उपलब्धता ने भी प्रजनन क्षमता में गिरावट में योगदान दिया है। शहरी क्षेत्रों में प्रजनन क्षमता में तेज़ी से गिरावट आयी है, जो कि 1,00,000 से अधिक लोगों की आबादी वाले शहरों में केंद्रित हैं।

केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री भारती प्रवीण पवार के अनुसार, समग्र गर्भनिरोधक प्रसार दर (सीपीआर) देश में 54 फ़ीसदी से बढक़र 67 फ़ीसदी हो गयी है। लगभग सभी राज्यों / संघ राज्य क्षेत्रों में गर्भ निरोधकों के आधुनिक तरीक़ों का उपयोग भी बढ़ा है। परिवार नियोजन की अधूरी ज़रूरतों में 13 फ़ीसदी से नौ फ़ीसदी की महत्त्वपूर्ण गिरावट देखी गयी है। अतीत में भारत में एक प्रमुख मुद्दा बनी रही रिक्ति की अधूरी आवश्यकता अब घटकर चार फ़ीसदी से भी कम रह गयी है। भारत में संस्थागत जन्म 79 फ़ीसदी से बढक़र 89 फ़ीसदी हो गये हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी लगभग 87 फ़ीसदी जन्म स्वास्थ्य सुविधाओं में होता है और शहरी क्षेत्रों में यह 94 फ़ीसदी है। जनसंख्या वृद्धि स्वास्थ्य और मृत्यु दर में सुधार के लिए ज़िम्मेदार है। जीवन प्रत्याशा बढक़र 60 वर्ष हो गयी है और शिशु मृत्यु दर घटकर 74 प्रति 1,000 हो गयी है।

राष्ट्रीय परिवार के पाँचवें दौर के निष्कर्षों के अनुसार, कुल प्रजनन दर, जो कि किसी भी महिला से उसके जीवनकाल में पैदा होने वाले बच्चों की औसत संख्या है; 2015-16 के 2.2 से घटकर 2019-21 में 2.0 हो गयी थी। स्वास्थ्य सर्वेक्षण या एनएफएचएस-5। भारत की दो की कुल प्रजनन दर वर्तमान में प्रति महिला 2.1 बच्चों की प्रजनन क्षमता के प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है। इस बीच निम्न-प्रतिस्थापन प्रजनन क्षमता अंतत: नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि और लम्बी अवधि में जनसंख्या के कम होने का परिणाम है। 1992-93 और 2019-21 के बीच भारत की कुल प्रजनन दर 3.4 बच्चों से घटकर 2.0 बच्चे रह गयी। कुल प्रजनन दर सिक्किम में प्रति महिला 1.1 बच्चों से लेकर बिहार में प्रति महिला तीन बच्चों तक है। एनएफएचएस-5 के अनुसार, पाँच राज्यों को प्रजनन क्षमता का प्रतिस्थापन स्तर 2.1 प्राप्त करना अभी बा$की है। ये राज्य बिहार (2.98), मेघालय (2.91), उत्तर प्रदेश (2.35), झारखण्ड (2.26) और मणिपुर (2.17) है।

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की कुल प्रजनन दर 1992-93 में 3.7 बच्चों से घटकर 2019-21 में 2.1 बच्चे रह गयी है। शहरी क्षेत्रों में महिलाओं में यह गिरावट 1992-93 में 2.7 बच्चों से 2019-21 में 1.6 बच्चों की थी। सभी एनएफएचएस सर्वेक्षणों में कमोबेश सभी जगह (रहने वाली जगह) प्रजनन दर 20-24 वर्ष की आयु में चरम पर होती है, जिसके बाद इसमें लगातार गिरावट आती है। एक और दिलचस्प पहलू यह था कि महिलाओं के स्कूली शिक्षा के स्तर के साथ प्रति महिला बच्चों की संख्या में गिरावट आयी है। बिना स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं में औसतन 2.8 बच्चे होते हैं, जबकि 12 या अधिक वर्षों की स्कूली शिक्षा वाली महिलाओं के बच्चों की औसत संख्या 1.8 है।

उत्तर प्रदेश के हर गाँव में टंकी से मिलेगा पानी

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार अपनी छवि चमकाने का हर सम्भव प्रयास कर रही है। प्रदेश में बढ़ते अपराध एवं महँगाई की ओर भले ही उनका ध्यान न हो, मगर योगी आदित्यनाथ लोगों में ऐसा सन्देश देना चाहते हैं कि वह जनता के लिए काम कर रहे हैं। इस बार जब योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए योगी ने एक एक करके कई योजनाओं की घोषणा कर डाली। योगी की इन योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का पुनरुद्धार, पौधरोपण एवं ग्रामीण क्षेत्रों में ही घर घर में टंकी का पानी पहुँचाने की योजनाएँ प्रमुख हैं।

योगी सरकार की ये तीनों ही योजनाएँ कब तक पूर्ण होंगी एवं उनसे ग्रामीणों को कितना लाभ होगा, यह तो योजनाओं के पूर्ण होने के बाद ही पता चलेगा; मगर वर्तमान में तीनों ही योजनाओं पर काम हो रहा है। मिलक क्षेत्र के एक अधिकारी ने बताया कि कई गाँवों में टंकियाँ बनकर तैयार हो चुकी हैं, जबकि कई गाँवों में बोरिंग हो चुके हैं अथवा हो रहे हैं। यह काम शीघ्रता के साथ पूरे प्रदेश में चल रहा है, ताकि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए शुद्ध पानी उपलब्ध कराया जा सके। मीरगंज क्षेत्र के कुछ गाँवों के लोगों ने कहा कि उनके यहाँ 40 फुट से लेकर 70 फुट तक पानी प्रदूषित हो चुका है। इस पानी को थोड़ी देर भी रख दो, तो पीला पड़ जाता है। गहरा बोरिंग कराने में लगभग 60 से 70,000 रुपये लगते हैं। ऐसे में यदि सरकारी टंकी लगती है तथा घर-घर स्वच्छ पेयजल मिलने लगेगा, तो अच्छा रहेगा।

एक गाँव की ग्राम प्रधान के पति प्रदीप ने बताया टंकियों के निर्माण के बाद लगभग दो किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन बिछायी जाएगी। अभी तो कुछ जगह टंकियाँ बन चुकी हैं। कुछ जगह बोरिंग हो गये हैं। कुछ जगह होने हैं; तो कुछ जगह पाइप लाइन बिछायी जा रही है। इस योजना से हर घर के दरवाज़े पर पानी की टोंटी लगेगी। टंकियाँ लगने का कार्य सरकारी भूमि पर हो रहा है। अभियंता, क्षेत्रीय अधिकारी, लेखपाल, ग्राम प्रधान भूमि की सीमांकन कर रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। टंकियाँ लगने के बाद इन्हें चलाने के लिए नियुक्तियाँ की जाएँगी तथा जो लोग इन्हें चलाएँगे, उनको राज्य वित्त आयोग से प्राप्त धनराशि में से मनरेगा के वित्त कोष में से ग्राम प्रधान के माध्यम से 2,000 रुपये महीने का भत्ता दिया जाएगा।

गाँव-गाँव में पानी की टंकियाँ लगने की कुछ लोग प्रशंसा कर रहे हैं, तो कुछ लोग इसे भविष्य में घाटे का सौदा बताकर इसकी निंदा कर रहे हैं। गुलडिय़ा गाँव के गोविंद शर्मा का कहना है कि इससे ग्रामीणों को पीने योग्य पानी मिलने की सम्भावना है, मगर किस मूल्य पर? प्रश्न तो यह है। ठिरिया निवासी हरीश गंगवार कहते हैं कि गाँव में टंकियों से पानी लेने की ज़रूरत तो तब होती, जब यहाँ पानी की कमी होती। यहाँ तो जहाँ भी बोरिंग करो, वहीं पानी है। हर घर में नल लगे हुए हैं। लगभग 35-40 फ़ीसदी लोगों के यहाँ तो पानी की मोटर लगी हुई हैं। इसलिए जहाँ पानी की कमी है, वहाँ सरकार को पानी पहुँचाना चाहिए। ऐसी योजनाएँ कारगर नहीं होती हैं।

प्रदेश में भूजल की स्थिति

उत्तर प्रदेश में भूमिजल की निकासी बड़ी मात्रा में होती है। इसकी वजह यह है कि प्रदेश में कृषि क्षेत्र 694.35 लाख हेक्टेयर है, जबकि मानव निवास क्षेत्र इसके सातवें हिस्से से भी कम है। मगर उत्तर प्रदेश में घटता भूजल एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा है। प्रदेश के कई स्थानों पर पानी की समस्या पैदा हो रही है। बुंदेलखण्ड में पानी की कमी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ऐसे स्थानों पर पानी की व्यवस्था करने का प्रयास सराहनीय है। मगर प्रश्न यह है कि जहाँ भूमि में जल ही नहीं है अथवा अत्यधिक गहराई में है, वहाँ टंकियों के माध्यम से योगी सरकार पानी की व्यवस्था कैसे करेगी?

कुल मिलाकर टंकियाँ लगने की कार्ययोजना वर्ष 2021 में ही बन गयी थी। इसके तहत भूजल के प्रभावी प्रबन्धन हेतु भूगर्भ जल विभाग को प्रदेश की भूजल सम्पदा के सर्वेक्षण, अनुसंधान, नियोजन, विकास एवं प्रबंधन के लिए उत्तरदायी बनाया गया था। इस योजना में भूजल दोहन पर नियंत्रण, भूजल संरक्षण एवं जल संचय करने की व्यवस्था है। अब उत्तर प्रदेश भूगर्भ जल (प्रबंधन और विनियमन) अधिनियम-2019 बनने के बाद इस पर पिछले छ:-सात महीने से युद्धस्तर पर काम हो रहा है।

भूजल दोहन पर लगेगा प्रतिबंध?

एक ग्राम प्रधान ने नाम प्रकाशित न करने की प्रार्थना करते हुए बताया कि यह सरकार आम लोगों से उन संसाधनों छीन लेना चाहती है, जिन पर उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। भाजपा सरकार अगर सीधे-सीधे भूजल दोहन पर रोक लगाएगी, तो इसका विरोध होगा और सरकार गिर जाएगी अथवा उसे भविष्य में कोई नहीं चुनेगा। इसलिए उसने गाँव-गाँव में टंकियाँ लगानी शुरू कर दी हैं। इसे ग्रामीण लोग विकास समझ रहे हैं, किन्तु प्रदेश के भोले-भाले लोगों को नहीं पता कि भविष्य में वे भूमि से पानी नहीं निकाल सकेंगे। क्योंकि सरकार की योजना यही है कि आम लोगों, विशेषकर किसानों द्वारा भूजल दोहन पर रोक लगायी जाए; तथा उन्हें जब पानी की आवश्यकता हो, तो वे पानी सरकार से मोल लें। ऐसे में तत्काल की प्रसन्नता जीवन भर का रोना बन सकती है।

भविष्य में ख़रीदना पड़ेगा पानी?

योगी सरकार की योजनानुसार टंकियाँ लगने के बाद हर किसी को टंकियों की पाइपलाइन से पानी दिया जाएगा। कहा जा सकता है कि पानी सप्लाई से लेना होगा, जिसका भुगतान उसे भविष्य में बिजली बिल की तरह भी करना पड़ सकता है। इससे पानी को भी लोग तरस सकते हैं। क्योंकि पानी की सप्लाई एक टंकी से होगी। अगर कभी वह टंकी अथवा उसकी मोटर ख़राब हुई अथवा कभी बिजली देर तक नहीं आयी अथवा कहीं पाइपलाइन प्रभावित हुई, तो पानी की सप्लाई प्रभावित होगी।

वर्ष 2021 में बने अधिनियम को भूगर्भ जल के तहत सरकारी सूचना से पता चलता है कि इस योजना को गाँवों में सुचारू रखने के लिए ग्राम पंचायत भूजल उप समितियाँ बनी हैं, जिनके अध्यक्ष ग्राम प्रधान एवं सदस्य सचिव ग्राम पंचायत सचिव हैं। इनका काम ग्राम पंचायत भूगर्भ जल सुरक्षा होगा, जिसकी निगरानी ब्लॉक पंचायत भूजल प्रबंधन समितियाँ करेंगी। इनके अध्यक्ष ब्लॉक प्रमुख एवं सदस्य सचिव खण्ड विकास अधिकारी होंगे। इनका काम विकासखण्ड स्तर पर भूगर्भ जल का संरक्षण एवं घरेलू एवं कृषि भूजल उपभोक्ताओं का पंजीकरण करना होगा। इनके ऊपर निगरानी के लिए नगर निगम जल प्रबंधन समितियाँ होंगी, जिनके अध्यक्ष नगर प्रमुख अथवा नगर पालिका प्रमुख एवं सदस्य सचिव नगर आयुक्त अथवा अधिशासी अधिकारी होंगे। इनका काम सतही जल एवं भूगर्भ जल के स्रोतों का संयोजन एवं प्रबंधन कराना होगा।

इन सबके ऊपर जनपद भूजल प्रबंधन परिषद् अध्यक्ष के रूप में ज़िला अधिकारियों एवं सदस्य सचिव के रूप में ज़िला विकास अधिकारियों को नियुक्त माना जाएगा। इनका काम ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत, म्युनिसिपल तथा राज्य स्तरीय भूजल प्रबंधन एवं नियामक प्राधिकरण से आवश्यक समन्वय स्थापित करना। उपभोक्ताओं का पंजीकरण, अनापत्ति निर्गत करना तथा ड्रिलिंग एजेंसी का पंजीकरण करने के साथ-साथ भूजल प्रदूषण के रोकथाम के उपाय करना, किसी भी व्यावसायिक, औद्योगिक एवं अन्य लाभ के उपयोग पर रोक के लिए भूगर्भ जल दोहन अधिनियम की धारा-39 एवं 40 के अंतर्गत कार्रवाई करना होगा।

इन सबके ऊपर उत्तर प्रदेश राज्य भूजल प्रबंधन एवं नियामक प्राधिकरण अध्यक्ष के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार का मुख्य सचिव एवं सदस्य सचिव के रूप में उत्तर प्रदेश के भूगर्भ जल विभाग के निदेशक को नियुक्त किया जाएगा। इनका काम अधिसूचित या ग़ैर-अधिसूचित क्षेत्रों में वर्गीकृत करना, भूजल निकास की सीमा तय करना, भूजल प्रदूषण की रोकथाम कराना तथा जनपदीय भूजल शिकायत निवारण अधिकारी के निर्णय से क्षुब्ध व्यक्ति की शिकायत का समाधान करना होगा।

हाल में टंकियों से पानी लेने के लिए जो नियम बना है, उसमें घरेलू उपभोक्ताओं का पंजीकरण नि:शुल्क होगा। कहा तो यह जा रहा है कि इन्हें टंकियों से पानी भी घर पर लगने वाली टोंटी से नि:शुल्क ही मिलेगा। मगर कुछ जानकार कह रहे हैं कि भविष्य में शीघ्र ही इसका शुल्क देना होगा। वहीं व्यावसायिक, औद्योगिक अथवा अन्य लाभकारी उपयोग के लिए भूजल उपभोक्ताओं को पंजीकरण शुल्क 5,000 रुपये देना होगा। इसकी निर्गत अनापत्ति की वैधता केवल पाँच वर्ष होगी। अर्थात् पाँच वर्ष बाद शुल्क पुन: लिया जा सकता है। कृषि कार्यों के लिए अभी किसी शुल्क के बारे में पता नहीं चला है, मगर यह तो सत्य है कि कृषि कार्य के लिए सरकारी ट्यूबबेल अथवा नहर से $फसलों की सिंचाई करने पर शुल्क तो देना ही पड़ता है। ऐसे में स्पष्ट है कि इन टंकियों अथवा किसी अन्य सरकारी जल उपक्रम से सिंचाई करने पर शुल्क तो किसानों को भी देना ही पड़ेगा।

कहा जा रहा है कि इस योजना के तहत अगर कोई सरकार की टंकियों से पानी मिलने के बाद भी भूजल दोहन करता है अथवा सरकार द्वारा उपलब्ध पानी का दुरुपयोग करता है, तो उसे प्रथम अपराध हेतु दो लाख से पाँच लाख रुपये तक का आर्थिक दण्ड अथवा छ: माह से एक वर्ष का कारावास अथवा दोनों हो सकते हैं। अपराध की पुनरावृत्ति करने पर प्राधिकार पत्र निरस्त करते हुए दण्ड दोगुना कर दिया जाएगा।

वहीं भूजल प्रदूषण करने पर प्रथम अपराध हेतु पाँच लाख से 10 लाख रुपये का आर्थिक दण्ड अथवा दो वर्ष से तीन वर्ष तक का कारावास अथवा दोनों के तहत दण्डित किया जाएगा। वहीं भूजल प्रदूषण हेतु अपराध की पुनरावृत्ति पर यह दण्ड दोगुना कर दिया जाएगा। अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के निवासियों के लिए भविष्य में किस प्रकार से पानी मिल सकेगा?

भ्रष्टाचार एवं अकर्मण्यता के केंद्र बनते विश्वविद्यालय

जनवादी परम्परा के लेखक मुक्तिबोध अपनी ‘साहित्यिक डायरी’ में लिखते हैं- ‘दिल्ली से प्रांतीय राजधानियों तक जो अवसरवाद, अनाचार और भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उसके लिए हमारे बुज़ुर्ग ज़िम्मेदार थे।’

असल में जिन्हें समाज को ईमानदारी की सीख और संस्कार देने थे, उन्होंने भ्रष्टाचार और अनाचार को प्रश्रय दिया। वर्तमान में इस कुव्यवस्था से संस्कार प्रदाता और व्यक्तित्व निर्माणक शिक्षण संस्थान भी अतिशप्त हैं। कुछ समय पूर्व उच्च शिक्षण संस्थान के प्राध्यापकों की योग्यता का एक विद्रूप दृश्य तब देखने को मिला, जब तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में विश्वविद्यालय सेवा आयोग से चयनित असिस्टेंट प्रोफेसरों से कुलपति ने पूछा कि बेरोज़गारी क्या है? बेरोज़गारी दर क्या है? मौलिक अधिकार कितने और कौन-कौन से हैं? शिक्षा का अधिकार क्या है? अब तक संविधान में कितनी बार संशोधन हुआ है? इन सामान्य स्तर के प्रश्नों का उत्तर देने में असिस्टेंट प्रोफेसरों के पसीने छूट रहे थे। निकट ही उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में नवनियुक्त शिक्षक ठीक ढंग से प्रार्थना पत्र नहीं लिख पा रहे थे। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग में भर्तियों में हुई धाँधली पर आन्दोलनरत प्रतियोगी छात्रों की शिकायत और जाँच की माँग को सरकार लगातार अनसुनी कर रही है। ज़रा कल्पना कीजिए कि जिन अयोग्य तथाकथित शिक्षकों की विषय की समझ ही अपर्याप्त है, वे विद्यार्थियों को क्या पढ़ाएँगे? देश के भविष्य का निर्माण कैसे करेंगे?

इस दूरावस्था के मूल कारण नियुक्ति में होने वाला भ्रष्टाचार, उच्च शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक दख़ल, भाई-भतीजावाद, धन के आधार पर नियुक्ति आदि हैं। नियुक्तियों में राजनीतिक दख़ल का ज्वलंत उदाहरण केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के निजी सचिव के.के. रागेश की पत्नी प्रिया वर्गीज का कन्नूर विश्वविद्यालय द्वारा मलयालम भाषा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का मामला है। प्रिया वर्गीज का शोध स्कोर मात्र 156 था, जबकि द्वितीय स्थान पर नामित हुए प्रत्याशी को 651 अंक प्राप्त थे। साक्षात्कार में द्वितीय स्थान पर आये उम्मीदवार को कुल 50 में से 32 अंक मिले, वहीं प्रिया वर्गीज को मात्र 30 अंक। विवाद बढऩे पर केरल उच्च न्यायालय ने प्रिया की नियुक्ति पर रोक भी लगा दी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को समन (नोटिस) जारी किया। ग़ौरतलब है कि प्रिया के पति रागेश माकपा के छात्र संगठन एसएसआई के प्रमुख एवं माकपा के सांसद रहे हैं। यह कोई पहला मामला या अपवाद नहीं है। सभी दलों की सरकारें ऐसे ही अपने-अपने लोगों की नियुक्तियाँ करती-कराती रही हैं। अल्लामा इकबाल ने शायद ऐसे ही धूर्त और पतित शिक्षितों के लिए लिखा है :-

‘तेरी बेइल्मी ने रख ली, बेइल्मों की शान।

आलिम-फ़ाज़िल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान।।’

अब प्राध्यापकों के भीतर पिछले दो दशकों से विशेष रूप से फैल चुके राजनीतिक सक्रियता के मर्ज के व्यसन से शिक्षक समाज बुरी तरह संक्रमित हो चुका है। गिरते राजनीतिक स्तर और सोशल मीडिया के दौर में ऊल-जुलूल बयान देना, टीवी डिबेट, मीडिया चैनलों के कार्यक्रमों और विभिन्न आयोजनों में तर्कहीन, लक्ष्यहीन, ध्येयहीन बहसबाज़ी और बयानबाज़ी करना प्राध्यापकों का शौक़ बन चुका है। महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के अतिथि प्राध्यापक द्वारा सोशल मीडिया पर नवरात्रि जैसे पवित्र त्योहार के विषय में आपत्तिजनक पोस्ट करना इसकी एक झलक है। हालाँकि इसकी उन्हें सज़ा मिली; लेकिन यह बयान उनकी विकृत मानसिकता को दर्शाता है। इससे पहले लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक एसोसिएट प्रोफेसर ने काशी विश्वनाथ मन्दिर पर विवादित बयान दिया। आख़िर उच्च शिक्षकों को यह ध्यान क्यों नहीं रहता कि विद्यालय, महाविद्यालय (कॉलेज) और विश्वविद्यालय शिक्षा के मन्दिर हैं, राजनीति और सामाजिक विघटनवाद की गन्दगी फैलाने के अखाड़े नहीं। छोटे शहरों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की यह स्थिति है, तो देश की राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दख़ल की सहज कल्पना की जा सकती है। वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालय ऐसे तत्त्वों का गढ़ बनते जा रहे हैं, जिन्हें न अपने पद की गरिमा का ख़याल है, न समाज को गुमराह करने की अपनी हरकतों पर शर्म है, न शासन-प्रशासन का भय है और न ही राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का भान।

एक से डेढ़ लाख तक की मोटी तनख़्वाह पाने वाले इन आधुनिक गुरुओं की अकर्मण्यता का आलम यह है कि इनका एक बड़ा वर्ग समय से कॉलेज आना, नियमित कक्षाएँ लेना ज़रूरी नहीं समझता। शोध छात्रों के फाइलों के काम निपटाने के लिए प्रोफेसर्स की कौन कहे काम आगे बढ़ाने के लिए क्लर्क और चपरासी से लेकर फाइलों पर हस्ताक्षकर करने के एवज़ में विभागाध्यक्ष तक छात्रों से नोटों से भरे लिफ़ाफ़े लेते हैं। ये कोई निराधार आरोप नहीं है। सम्भव है कि आप अपने नज़दीकी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में जाकर जाँच करें, तो इससे भी विद्रूप स्थिति का सामना करना पड़े।

उदाहरणस्वरूप स्वनामधन्य मगध विश्वविद्यालय में किसी भी कोर्स की पढ़ाई पूरी करने में निर्धारित समय से दोगुना लगता है। कुछ दिन पहले तीन साल से लम्बित परिणामों को लेकर सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने पटना में प्रदर्शन किया। जब विद्यार्थी राज्यपाल से मिलने राजभवन की ओर बढ़े, तब पुलिस ने उन्हें बल प्रयोग करके रोक दिया। कुछ छात्राओं ने रोते हुए पुलिसकर्मियों का पैर भी पकड़े और विश्वविद्यालय प्रशासन की प्रताडऩा के जारी रहने पर आत्महत्या की बात भी कही; लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। युवाओं के भविष्य को रौंदने वाले शिक्षण संस्थान की इस अकर्मण्यता एवं निर्लज्जता की वीभत्सता को समझना होगा।

प्रसंगवश बताते चलें कि इसी मगध यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर राजेंद्र प्रसाद अपने भ्रष्टाचार के कारनामों को लेकर सुर्ख़ियों में रहे थे। यूनिवर्सिटी में ख़रीदारी के नाम पर 30 करोड़ रुपये से ज़्यादा के ग़लत इस्तेमाल को लेकर उनके आवास, बोधगया के दफ़्तर और गोरखपुर स्थित घर पर छापेमारी हुई। गोरखपुर के उनके घर से 70,00,000 की भारतीय नक़दी, क़रीब 5,00,000 की विदेशी मुद्रा के अलावा 15,00,000 रुपये के ज़ेवर बरामद हुए। ज़मीन के कई काग़ज़ात, बैंक खातों में नक़दी और लॉकर में रखी दौलत अलग।

शिष्य को पुत्र के और शिष्या को पुत्री के समकक्ष मानने वाले भारतीय शिक्षण-परम्परा में प्राध्यापक वर्ग के नैतिक पतन की एक बानगी बोकारो के एक महाविद्यालय के उस प्रोफेसर की हरकत से पता चलती है, जिसने स्नातक अन्तिम वर्ष की छात्रा से अश्लील हरकत की और उसके मोबाइल में अश्लील वीडियो भेजे। प्रकरण सामने आने के बाद कई अन्य छात्राओं ने ऐसे उत्पीडऩ की शिकायत की। हालाँकि प्रोफेसर को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन शिक्षा प्राप्त करने आयी इन छात्राओं पर इसका कितना बुरा असर पड़ा होगा, किसी को इसका अंदाज़ा है? यह कोई पहली या एकमात्र घटना नहीं है, बल्कि ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। सरकार और प्रशासनिक स्तर पर तो शिक्षण संस्थानों में बदलाव की उम्मीद छोड़ ही दें। लेकिन अगर किसी विश्वविद्यालय का कुलपति या उप कुलपति निजी स्तर पर सुधार का प्रयास करे, तो प्राध्यापकों से लेकर कर्मचारी तक अपने संगठनों के बल पर एकत्रित होकर आन्दोलन पर उतर आते हैं। एक समय विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के कैंपस में छात्र राजनीति के आवरण में बढ़ रही अराजकता एवं गुंडागर्दी को रोकने के लिए जिस तरह लिंगदोह कमेटी की सिफ़ारिशों ने एक अवरोधक का कार्य किया और छात्र राजनीति की दशा-दिशा बदल दी। उसी प्रकार प्राध्यापकों एवं विश्वविद्यालय कर्मचारियों की वर्तमान कार्यशैली के विरुद्ध भी किसी निर्णायक और नियंत्रणकारी प्रयास की आवश्यकता है।

देश में प्राध्यापकों की नियुक्ति में भी ए.पी.आई. स्कोर महत्त्वपूर्ण होता हैं, जिसका निर्धारण शैक्षणिक योग्यता के अतिरिक्त शोध पत्रों का प्रकाशन, शिक्षा के क्षेत्र में प्राप्त सम्मान आदि से होता है। लेकिन अब इसके मानक भी समुचित एवं प्रामाणिक नहीं हैं। इसी वजह से अब शिक्षकों की भर्ती में धाँधली हो रही है। कई प्रकार की अनाम संस्थाएँ पैसा बटोरने के लिए सम्मान समारोह और शोधशालाएँ आयोजित करवाकर अपात्रों को प्रमाण-पत्र वितरित करतीं हैं, जिनके आधार पर परीक्षार्थी की योग्यता निर्धारित होती है। इसके लिए 1,500 रुपये से 5,000 रुपये या उससे अधिक का शुल्क भी वसूलती हैं। शोध पत्रों के प्रकाशन के लिए प्री-रिव्यू और यूजीसी केयर लिस्ट जर्नल की मान्यता है, जिसके सम्पादकों द्वारा शोधार्थियों से 2,000 रुपये से लेकर 10,000 रुपये तक वसूले जाते हैं। यही नहीं, 5,000 से 10,000 रुपये का शुल्क वसूलकर शोध-पत्र लिखने वाले को शोध प्रकाशित करवाने वाले गिरोह भी लूटते हैं। इन विसंगतियों के बीच बची-खुची कसर पैसा, पहुँच और राजनीतिक दबाव द्वारा पूरी हो जाती है।

ऊपर से जिस पीएचडी की डिग्री को ए.पी.आई. स्कोर में सबसे ज़्यादा अंक मिलते हैं, उसे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में ठेके पर पूरी करवाये जाने की बात सर्वविदित है। विसंगति देखिए कि एक प्रकाशित शोध-पत्र के लिए दो अंक दिये जाते हैं और दो अंक ही एक वर्ष शिक्षण के अनुभव पर दिये जाते हैं। विमर्श के लिए ऐसे और भी कई मसले हैं। हाल में यूजीसी के अध्यक्ष एम. जगदीश कुमार ने असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति के नये मानक घोषित करते हुए इस पर एक समिति गठित करने की घोषणा की है। यह एक राहत भरी बात है; लेकिन सकारात्मक परिवर्तन के लिए अभी लम्बे संघर्ष और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

देश में निम्न स्तर के शोधों को लेकर सरकार की लम्बे समय से शिकायत रही है। लेकिन उसे इसकी वजह भी जानने-समझने का प्रयास करने चाहिए और सरकारी संरक्षण में पल रहे विश्वविद्यालयों के भ्रष्ट तत्त्वों की जाँच करानी चाहिए। आज देश में लगभग 1,000 विश्वविद्यालयों और 40,000 से अधिक महाविद्यालयों के होते हुए भी ग्लोबल टैलेंट कॉम्पिटिटिव इंडेक्स के 132 देशों की फ़ेहरिस्त में भारत का स्थान 72वाँ क्यों है? दुनिया की महाशक्ति होने का दावा करने वाले भारत में उच्च शिक्षा गृहण करने वाले विदेशी छात्रों की हिस्सेदारी महज़ एक फ़ीसदी क्यों है? जाहिर है कि उच्च शिक्षा की दुरावस्था और धीमी गति ही इसका परिणाम है और यह भारत की उच्च शिक्षा नीति के मूलभूत दोषों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज अनैतिकता से भरे ये शैक्षणिक केंद्र और शिक्षक नैतिकतावादी, चरित्रवान विद्यार्थी और देश को समर्पित भले नागरिक कैसे तैयार कर रहे हैं? यह चिन्ता का विषय है।

(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

स्वागत योग्य फ़ैसला

उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की नियुक्ति की मज़ूरी यूजीसी का बेहतर क़दम

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में प्राध्यापकों की नियुक्ति की पात्रता निर्धारित करने वाली संस्था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने हाल ही में विश्वविद्यालय तथा कॉलेज स्तर पर प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की नियुक्ति के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी है। यूजीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश के अनुसार, अब देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में पेशेवर विशेषज्ञों को प्रैक्टिस के प्रोफेसर्स के रूप में बिना औपचारिक अकादमिक योग्यता के (बिना पीएचडी एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा पास किये) नियुक्त किया जा सकेगा। इस व्यवस्था के तहत उम्मीदवार को अपने क्षेत्र में विशिष्टता हासिल होनी चाहिए तथा उसके पास 15 साल का कार्य अनुभव होना चाहिए। अभी तक उच्च शिक्षण संस्थानों में प्राध्यापकों की नियुक्ति के लिए नेट या पीएचडी होना ज़रूरी होता था।

इस नियुक्ति का आशय उच्च शिक्षण में व्यावहारिक अनुभव को तवज्जो देना है। ऐसा माना जा रहा है कि इस व्यवस्था से फैकल्टी के स्तर पर विविधता आएगी और छात्रों को प्रैक्टिस के प्रोफेसर्स द्वारा वर्तमान समय में नौकरी के लिए ज़रूरी स्किल्स का पता चलेगा। सम्बन्धित दिशा-निर्देशों के अनुसार, किसी भी संस्थान में कुल स्वीकृति पदों के 10 फ़ीसदी पद प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के होंगे। यह संस्थानों को तय करना होगा कि वे किस क्षेत्र से विशेषज्ञों को लेना चाहते हैं। इस व्यवस्था के तहत इंजीनियरिंग, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वाणिज्य, उद्यमिता, क़ानून, फाइन आट्र्स, मीडिया, सिविल सेवा, सशस्त्र बलों और लोक प्रशासन जैसे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को लाया जाएगा। यूजीसी के दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रैक्टिस के प्रोफेसर को एक ख़ास समय अवधि के लिए ही नियुक्त किया जाएगा। नियुक्त प्राध्यापक अधिकतम चार वर्ष तक किसी भी उच्च शिक्षण संस्थान में पढ़ा सकेंगे। प्रैक्टिस के प्रोफेसर्स पाठ्यक्रम के निर्माण में अपनी भूमिका निभाने के साथ-साथ शोध परियोजनाओं पर भी कार्य कर सकते हैं।

भारतीय मीडिया में भले ही प्रैक्टिस के प्रोफेसर पर अब बातें होनी शुरू हुई हों; लेकिन पश्चिमी देशों के विभिन्न क्षेत्रों के टॉप संस्थानों में यह व्यवस्था पहले से ही प्रचलन में है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों तथा भारतीय प्रबंधन संस्थानों में इस तरह की व्यवस्था पहले से ही प्रचलन में है। लेकिन यूजीसी की तरफ़ से इनकी नियुक्ति को हरी झण्डी मिलने के बाद देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में यह योजना व्यापक स्तर पर देखने को मिलेगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि उच्च शिक्षण संस्थानों में इस व्यवस्था के तहत सिद्धांत एवं अभ्यास के एक साथ समायोजन से छात्रों को इसका लाभ मिलेगा।

21वीं सदी में शिक्षा के क्षेत्र में बदलते परिवेश को देखते हुए प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस पद का समायोजन समय की माँग है। हालाँकि कई विद्वानों के मन में इनकी नियुक्ति की पारदर्शिता को लेकर संशय है। ऐसे में बेहतर होता कि साक्षात्कार और लिखित परीक्षा दोनों के संयोजन के माध्यम से इन्हें चुना जाता। केवल साक्षात्कार के माध्यम से चयन में एक तो अनावश्यक अभ्यर्थियों की भीड़ बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ़ ऐसा सम्भव है कि जिस संस्थान में प्रैक्टिस के प्रोफेसर की नियुक्ति की जा रही हो, वहाँ के प्रशासन प्रमुखों से कोई अभ्यर्थी साँठगाँठ करके नौकरी पाने की जुगत करे; जैसा कि अभी तक देश के कई उच्च शिक्षण संस्थानों में होते आया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का जोर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर है और प्रैक्टिस के प्रोफेसर्स की नियुक्ति इसको मज़बूती देगी तथा छात्रों में नवाचार की भावना को प्रोत्साहित करेगी। यह दु:खद बात है कि देश के सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों में आज भी असिस्टेंट प्रोफेसर्स, एसोसिएट प्रोफेसर्स तथा प्रोफेसर्स के कई पद रिक्त हैं, जिसका सीधा सम्बन्ध गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से जुड़ा है।

आज देश में कई सरकारी संस्थान ऐसे हैं, जिनमें न तो नियुक्तियाँ समय से होती हैं और न ही वे यूजीसी के दिशा-निर्देशों को गम्भीरता से पालन करते हैं। ऐसे में यूजीसी को नये सिरे से सभी सरकारी संस्थानों को एक नोटिस जारी करके उन पर दबाव बनाना चाहिए, ताकि एक निश्चित समय सीमा के अन्दर नियुक्तियाँ हो सकें और बिना बाधा के गुणवत्तापूर्ण शिक्षण जारी रहे। केंद्र तथा सभी राज्य सरकारों को भी इस ओर शीघ्रता से ध्‍यान देने की ज़रूरत है।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

उत्तर प्रदेश में शिक्षा की दशा

उत्तर प्रदेश में सरकारी विद्यालयों की दशा किसी प्रदेशवासी से छिपी नहीं है। योगी आदित्यनाथ सरकार इन विद्यालयों के सुधार में तो लगी है मगर बड़े अनोखे रूप से। योगी आदित्यनाथ सरकार का यह अनोखा रूप सरकार के प्राइमरी जूनियर विद्यालयों को निजी विद्यालयों को गोद देने का है। योगी आदित्यनाथ सरकार का कहना है कि शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव करने के लिए उसने एक प्रयोग किया है। इसका सकारात्मक नतीजा शीघ्र ही देखने को मिलेगा।

एक निजी विद्यालय के संचालक एवं प्राधानाध्यक प्रेमपाल गंगवार कहते हैं कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने सरकारी विद्यालयों को गोद देने का जो निर्णय किया है, उससे निजी विद्यालयों के संचालकों को प्रसन्नता है कि उन्हें सरकार विद्यालयों को भी संचालित करने का अवसर प्राप्त होगा। उनका कहना है कि प्रदेश में निजी विद्यालयों के विद्यार्थियों का ज्ञान सरकारी विद्यालयों के बच्चों के ज्ञान से कहीं अच्छा है। निजी विद्यालयों के बच्चों का परीक्षा परिणाम भी सरकारी विद्यालयों के बच्चों से अच्छा आता है। ऐसे में अगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निजी विद्यालयों पर सरकारी विद्यालयों में सुधार का भरोसा जताया है, तो यह निजी विद्यालयों के संचालकों एवं अध्यापकों के लिए गौरव की बात है।

नाम प्रकाशित न करने प्रार्थना करते हुए एक सरकारी प्राइमरी विद्यालय के अध्यापक ने कहा कि सरकार जो भी करे, उसे ठीक कहना सरकारी अध्यापकों की मजबूरी तो हो सकती है, मगर कोई भी सरकारी अध्यापक सरकार के इस निर्णय से प्रसन्न नहीं है। क्योंकि सरकारी अध्यापकों को सरकार निकम्मा समझ रही है, तभी उसने निजी विद्यालयों के हाथों में सरकारी विद्यालय सौंपने का निर्णय लिया है। यह तो सरकारी अध्यापकों की योग्यता एवं शिक्षा पर उँगली उठाने जैसी बात है। इसके अतिरिक्त सरकारी अध्यापकों में असुरक्षा की भावना जन्म ले रही है कि कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में योगी सरकार सरकारी विद्यालयों में रिक्त पड़े पदों पर भर्तियां ही न करे तथा सरकारी अध्यापकों को भी ठेंगा दिखा दे।

विदित हो कि योगी आदित्यनाथ सरकार सरकारी प्राइमरी जूनियर विद्यालयों को गोद लेने का आदेश जारी कर चुकी है। सूत्रों की मानें तो बेसिक शिक्षा परिषद् के विद्यालयों के कायाकल्प के लिए सरकार अब निजी कम्पनियों के कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी, सामुदायिक सहयोग, प्रतिष्ठित एवं इच्छुक व्यक्तियों से सहयोग ले सकती है। इसका एक अर्थ यह निकलता है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के पास अब विद्यालय चलाने के लिए बजट नहीं है अथवा उसकी नीयत इन विद्यालयों के निजीकरण की है। क्योंकि अगर निजी विद्यालय सरकारी विद्यालयों को गोद लेंगे, तो भविष्य में सरकारी विद्यालयों में पढऩे वाले बच्चों को भी निजी विद्यालयों की तरह ही मोटा शुल्क देकर पढ़ाई करनी पड़ सकती है।

अगर उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यालयों पर दृष्टिपात करें, तो पता चलता है कि इन विद्यालयों में पूर्ण सुविधाओं का नितांत अभाव है। कई विद्यालय भवन जर्जर अवस्था में हैं। अधिकतर विद्यालयों में बच्चों के बैठने की समुचित व्यवस्था नहीं है। बच्चियों के लिए शौचालयों की व्यवस्था भी कई विद्यालयों में बहुत अच्छी नहीं है। अध्यापकों की भी सरकारी विद्यालयों में कमी है। मिड-डे मील में पौष्टिकता की कमी के अतिरिक्त भोजन विवरणिका के अनुसार बच्चों के भोजन की व्यवस्था भी अधिकतर विद्यालयों में अच्छी नहीं है। इस बारे में कई समाचार भी प्रकाशित हो चुके हैं।

पिछले महीने ही उत्तर प्रदेश के कुछ सरकारी विद्यालयों द्वारा रद्दी के भाव 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से किताबें बेचने का आरोप भी लगा था। इसके अतिरिक्त सरकारी विद्यालयों के बच्चों को पाठ्य सामग्री का वितरण भी पूरी तरह नहीं हो सका है। पिछले महीने जब बच्चों को पाठ्य सामग्री वितरण न होने के समाचार प्रकाशित हुए, तो सरकार ने दावा किया कि 92 प्रतिशत किताबें वितरित हो चुकी हैं, केवल आठ प्रतिशत किताबों का वितरण शेष है।

अब सरकारी विद्यालयों को गोद लेने का निर्णय लेते हुए योगी आदित्यनाथ सरकार ने 27 सुविधाओं की सूची जारी की है। प्रश्न यही है कि निजी विद्यालयों के संरक्षण में जाने पर क्या सरकारी विद्यालयों में सुधार हो सकेगा?

बच्चों का जीवन बर्बाद कर रहे वीडियो गेम

पाँच साल का एक बच्चा दिल्ली के एक मॉल में अपने माता-पिता के साथ एक दुकान से दूसरी दुकान घूमता दिखायी देता है। कुछ देर बाद वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है और किसी चीज़ को ख़रीदने की जिद करने लगता है। माता-पिता वह ख़रीदने से मना कर देते हैं, तो वह बच्चा वीडियो गेम (ऑनलाइन खेल) खेलने के लिए उनसे मोबाइल माँगता है। माता-पिता एकाध बार उसे समझाते हैं और फिर उसे मोबाइल देकर अपने को आज़ाद महसूस करने लगते हैं।

दरअसल बच्चों का ऐसा व्यवहार इन दिनों अपवाद नहीं है। चारों ओर यही दिखायी देता है। वीडियो गेम बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं। ऐसे गेम्स से होने वाले लाभ और हानि को लेकर बहुत कम लोग चिन्तित हैं। वहीं समाज, माता-पिता, अध्यापक वर्ग और शोधार्थियों की इसे लेकर अलग-अलग राय है। अभिभावकों का एक वर्ग मानता है कि वीडियो गेम बच्चों को सीखने, मुश्किलों से बाहर निकलने के लिए तैयार करते हैं। वहीं एक वर्ग का मानना है कि $फायदे की तुलना में इनके नुक़सान अधिक हैं।

ग़ौरतलब है कि वीडियो गेम का उद्योग लगभग तीन दशक पुराना है। पहले कम्प्यूटर स्कूलों, शैक्षणिक संस्थानों व कार्यालयों में होते थे। छात्र उनका इस्तेमाल सीमित समय के लिए ही करते थे। कम्प्यूटर गेम का इस्तेमाल शैक्षाणिक कौशल को विकसित करने के लिए किया जाता था। मगर जैसे-जैसे कम्प्यूटर, इंटरनेट का विस्तार होता चला गया, बच्चों और किशोरों तक इसकी पहुँच आसान होती चली गयी। बाद में घर-घर तक इनकी पहुँच हुई ही थी कि धीरे-धीरे मोबाइल हर हाथ तक पहुँचने गया। अब साइबर कैफे के साथ-साथ मोबाइल के ज़रिये बच्चे, किशोर और यहाँ तक कि काफ़ी संख्या में युवा, प्रौढ़ और बुज़ुर्ग लोग भी वीडियो गेम मोबाइल और कम्प्यूटर पर खेलते दिखते हैं। यही कारण है कि वीडियो गेम का धंधा भी ज़ोर पकड़ता जा रहा है। वीडियो गेम डवलेपर हर महीने दर्ज़नों वीडियो गेम का निर्माण करते हैं। बच्चों की इन नये-नये गेम्स, ख़ासकर हिंसक, आक्रामक गेम खेलने में रुचि बढ़ती जा रही है। कई बच्चे तो दिन-रात वीडियो गेम खेलते हैं और अभिभावक व अध्यापक इस पर कोई ख़ास नियंत्रण नहीं रख पाते।

बच्चों में अधिक ऊर्जा होती है। लिहाजा वे लम्बे समय तक मोबाइल और कम्प्यूटर स्क्रीन के सामने बैठे रहते हैं। इससे उनकी भूख भी मरती है। उनमें फास्ट फूड खाने के अलावा चिड़चिड़ापन भी बढ़ रहा है और पढ़ाई करने में अरुचि पैदा हो रही है। माता-पिता इस ओर ख़ास ध्यान नहीं देते। अगर देते हैं, तो सिर्फ़ अपने आस-पास चर्चा तक ही सीमित रखते हैं। टैबलेट, स्मार्ट फोन की उपलब्धता के चलते तकनीक के इस युग में वीडियो गेम बच्चों के लिए मज़ेदार व मनोरंजन के साधन बन चुके हैं। वीडियो गेम डेवलेपर बच्चों के लिए ऐसे गेम बनाने लगे हैं, जिनकी उन्हें बार-बार खेलने की लत पड़ जाए। वीडियो गेम खेलने के आदि अधिकतर बच्चे कई-कई घंटे उन्हें खेलने में बिताते हैं, जिससे उनकी आँखें भी ख़राब हो रही हैं। बच्चों के लिए रोमाचंक ऑनलाइन गेम की बाज़ार में बहुत माँग है। क्योंकि जो बच्चे एक बार गेम खेलने के चक्कर में पड़ जाते हैं, तो वे उसमें उलझे रहते हैं और शारीरिक श्रम वाले खेलों और पढ़ाई से कतराने लगते हैं। इसकी वजह यह है कि वे इन गेम में ही अपनी दुनिया तलाशने लगते हैं। वे इन गेम में जैसा हीरो हो, ख़ुद को वैसा ही समझने लगते हैं।

हालाँकि कुछ गेम तो ऐसे हैं, जो बच्चों के सकारात्मक बौद्धिक विकास में मददगार हो सकते हैं; लेकिन अधिकतर वीडियो गेम उनके बौद्धिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। ख़ासकर जिन शूटर वीडियो गेम्स में बच्चों पर ग़ुस्सैल और हथियार चलाने का इच्छुक बनाते हैं।

सात साल के बेटे की माँ डॉ. शुभ्रा का कहना है कि आजकल बच्चों को पालना आसान नहीं है। माता-पिता इस तकनीक के युग में पसोपेश में हैं कि बच्चों को तकनीक के इस्तेमाल करने की इजाज़त कब दें और किस तरह से उस पर निगरानी भी बनाये रखें? शिक्षा से सम्बन्धी गेम बच्चों को उनके विषय समझने में सहायक सिद्ध होती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि अच्छे वीडियो गेम खेलने से बच्चों, किशोरों में जीवन की मुश्किल को हल करने का गुर आता है। लेकिन सवाल यह है कि अच्छे गेम का फ़ीसद कितना है? यह भी देखा जाना चाहिए कि गेम कितना भी अच्छा क्यों न हो, उससे बच्चे की आँखों कमज़ोर होने, भूख कम लगने, शारीरिक विकास कम होने और देर तक बैठे रहने से बीमार होने का ख़तरा तो बढ़ेगा ही। मोटापा बढऩे के साथ-साथ उनमें मधुमेह (शुगर) का ख़तरा बढऩे लगता है। भारत में मोटे व मधुमेह से ग्रस्त लोगों की संख्या बढ़ रही है। यही नहीं बच्चे मानसिक रोगों के भी शिकार हो रहे हैं। उन्हें अकेलापन, अवसाद घेर लेता है। वे ग़ुस्सैल, हिंसक और आक्रामक बन जाते हैं। इसके साथ ही उन्हें कोल्ड ड्रिंक्स पीने, नशीली दवाएँ लेने, सिगरेट व शराब पीने, च्यूइंगम व गुटखा चबाने आदि की लत घेर लेती है। मोबाइल फोन से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें बहुत नुक़सान पहुँचाती हैं। इससे उनमें तनाव बढ़ता है, जो उन्हें एक और बुरी लत की ओर खींचता है। इनसे ब्रेन ट्यूमर व कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली स्थित एम्स के एक अध्ययन से ख़ुलासा हुआ कि 10 साल तक के बच्चों द्वारा अधिक समय तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने से उनमें ब्रेन ट्यूमर का ख़तरा 33 फ़ीसदी तक बढ़ सकता है।

ग़ौरतलब है कि दो से पाँच साल के बच्चे का दिमाग़ का विकास तेज़ गति से होता है यानी उसका दिमाग़ विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि तकनीक का असर छोटे बच्चों पर बड़ों की तुलना में अधिक तेज़ी से पड़ता है। परिणामस्वरूप उनका विकास उन बच्चों की तरह नहीं हो पाता, जो वीडियो गेम से दूरी बनाकर रखते हैं। वीडियो गेम खेलने वाले बच्चों की लत से आजकल अभिभावकों, अध्यापकों और समाज का संवेदनशील तबक़ा बहुत परेशान है। क्या इस पर सरकार कोई नियम या क़ानून बना सकती है कि बच्चों का जीवन बर्बाद करने वाले वीडियो गेम नहीं बनाये जाने चाहिए, ताकि उनका भविष्य सुरक्षित रह सके। वीडियो गेम डेवलपर विलियम स्यू का कहना है कि मैं 13 साल से वीडियो गेम्स बना रहा हूँ। मेरी कम्पनी अब तक 50 से अधिक मोबाइल गेम बना चुकी है। इन्हें 100 करोड़ से अधिक बार डाउनलोड किया जा चुका है। इससे मुझे 800 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा की कमायी हुई है। लेकिन में अपनी बेटियों को कभी वीडियो गेम नहीं खेलने दूँगा। क्योंकि वीडियो गेम की लत नशे की हद तक हो जाती है। मुझे नहीं लगता कि माँ-बाप अपने बच्चों को इससे दूर रखने के लिए पर्याप्त सावधानी बरत पा रहे हैं। मैं वीडियो गेम के नशे से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ। हम बच्चों या बड़ों में इसी नशे को प्रोत्साहित करते हैं। उन्हें नशेड़ी बना देते हैं।’

विलियम स्यू अपने इस कथन के ज़रिये क्या सन्देश देना चाहते हैं, यह साफ़ है। लेकिन सवाल यह है कि अभिभावक और समाज इससे क्या सीख लेते हैं? विलियम स्यू की सलाह है कि माता-पिता को वीडियो गेम्स से होने वाले नुक़सानों के बारे में जानें और कम-से-कम ख़राब वीडियो गेम व अधिक देर तक वीडियो गेम खेलने से अपने बच्चों को रोकें। वे बच्चों की आदतों को लेकर जागरूक रहें, उनकी मोबाइल पर रहने की आदतों व उसके समय को ट्रैक करें। गूगल का डिजिटल वेलबीइंग या एप्पल के स्क्रीन टाइम फीचर से स्क्रीन टाइम बैलेंस की आदत डालें।

बच्चों को इस बुरी लत से बचाने में अध्यापक भी एक अहम भूमिका निभा सकते हैं। क्योंकि बच्चों के दिमाग़ में अध्यापकों की अच्छी छवि होती है और वे उनकी बात आसानी से मानते हैं। साथ ही स्कूल में बच्चों को दूसरे शारीरिक श्रम वाले खेल खिलाकर, पढ़ाई में आनन्दित करने वाले तरीक़े अपनाकर बच्चों का ध्यान वीडियो गेम से हटा सकते हैं। इसके अलावा वे बच्चों के अभिभावकों से संवाद करके बच्चों के घर में समय व्यतीत करने की जानकारी लेकर उन्हें अपना समय सही तरीक़े से इस्तेमाल करने के उपाय बताकर उन्हें भविष्य के ख़तरों से सतर्क करने का काम कर सकते हैं।

सभी जानते हैं कि बच्चे चंचल होते हैं और बहुत जल्दी उनका ध्यान बँटाया जा सकता है। ऐसे में अगर अभिभावक और अध्यापक चाहें, तो उनका जीवन सुधार सकते हैं और लापरवाही करके बिगाड़ भी सकते हैं। बच्चों का सही मार्ग-दर्शन करना कोई चुनौती नहीं है, बल्कि उन्हें पहले बिगाडक़र फिर सुधारना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए देश के भविष्य बच्चों पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी होता है।

बिगड़ रहा पृथ्वी का जीवन चक्र

तेज़ी से घट रही है चीलों, गिद्धों समेत कई पशु-पक्षियों की संख्या

जीवन चक्र पृथ्वी पर तमाम जीवधारियों के बीच चलने वाला ऐसा एक चक्र है, जिससे प्रकृति में जीवन चक्र (सन्तुलन) बना रहता है। लेकिन अब ये सन्तुलन बिगडऩे लगा है, जिसकी वजह से बीमारियाँ, प्राकृतिक आपदाएँ बढऩे लगी हैं। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है पृथ्वी पर साफ़-सफ़ाई करने वाले व अन्य जीवधारियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है।

विज्ञान की भाषा में कहें, तो शाकाहारी जीवधारियों को छोडक़र सभी जीवधारी एक-दूसरे का भोजन भी हैं। इसे प्रकृति का सन्तुलन कहते हैं। लेकिन अब पृथ्वी पर कई तरह के जीवों की संख्या लगातार तेज़ी से घट रही है, जिसके चलते असन्तुलन बढऩे के साथ-साथ आये दिन नयी-नयी बीमारियाँ पनप रही हैं।

प्रकृति ने अपने बनाये हर जीव को इतना सक्षम बनाया है कि वे अपना निर्वाह कर सकें। इंसान इन जीवों में सबसे ज़्यादा समझदार और सक्षम है। लेकिन इंसान लालच में इतना अंधा हो चुका है कि आज वह बिना आधुनिकता की चाहत में प्राकृतिक नुक़सान करता जा रहा है। इससे इंसान ख़ुद भी मुसीबतों से घिरता जा रहा है और दूसरे जीवों को भी संकट में डाल रहा है। इस प्राकृतिक बिगाड़ और बर्बादी के प्रति इंसानों ने अपनी आँखें बन्द करके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और तेज़ कर दिया है।

दूसरी तरफ़ ऐसे जीव भी हैं, जो केवल अपना पेट भरने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वो प्रकृति के मित्र बने हुए हैं और उसे किसी भी प्रकार कोई नुक़सान नहीं पहुँचा रहे हैं। वहीं इंसान केवल अपने विषय में सोच रहा है। बहुत-ही कम ऐसे इंसान हैं, जो प्रकृति और दूसरे जीवों की रक्षा को अपना धर्म समझते हैं। ज़्यादातर को दूसरे जीवों की चिन्ता ही नहीं है। यही वजह है कि धरती पर से कई जीव विलुप्त हो चुके हैं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं। हमें विलुप्त हो रहे जीवों की सुरक्षा के बारे में सोचना चाहिए, ताकि प्रकृति को सुरक्षित रखा जा सके।

चील और गिद्ध

चील और गिद्ध दो ऐसे मांसाहारी पक्षी हैं, जो अधिकतर मरे हुए जीवों का मांस ही खाते हैं। हालाँकि ज़िन्दा जीवों में चील साँपों, पक्षियों, मछलियों और छोटे जानवरों को और गिद्ध फ़सल बर्बाद करने वाले कीटों और बहुत मजबूरी में मछलियों को भी खाना पसन्द करते हैं। बाक़ी ज़िन्दा जीवों का शिकार करते इन्हें शायद ही देखा जाता हो। मांसाहारियों में भी चील और गिद्ध ही ऐसे जीव हैं, जो सभी प्राणियों का मांस खा सकते हैं। अफ्रीका के गिद्ध तो सभी मांसाहारियों से आगे हैं। चील अपने भोजन में 20 से 30 फ़ीसदी और गिद्ध अपने भोजन में 70 से 90 फ़ीसदी हड्डियाँ तक खा सकते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया के सभी मांसाहारी जीव मिलकर 47 फ़ीसदी मांस का भक्षण करते हैं, जबकि बाक़ी 53 फ़ीसदी मांस का भक्षण चील और गिद्ध करते हैं। चीलों और गिद्धों में हड्डियाँ पचाने की भी क्षमता होती है। इन दोनों जीवों को इंसानों का मित्र कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों ही पक्षी उन जीवों और उस मांस को खाकर नष्ट कर देते हैं, जो कि लोगों के लिए घातक होता है। अगर कोई मरा हुआ जीव या मांस कहीं सड़ रहा हो, तो ये दोनों ही पक्षी और इनके साथ में कौवे ऐसे मांस को खाकर विषाणुओं और रोगाणुओं के फैलने की सम्भावना को ख़त्म कर देते हैं।

हज़ारों मीटर ऊँची उड़ान भरने में माहिर ये दोनों पक्षी आसमान की उस ऊँचाई तक जा सकते हैं, जहाँ तक हेलीकॉप्टर भी नहीं पहुँचता और अगर दूसरे पक्षियों को उस ऊँचाई पर छोड़ दो, तो उनकी मौत हो जाएगी। गिद्ध की उड़ान को सन् 1973 में रूपेल्स वेंचर ने आइवरी कोस्ट में 37,000 फीट रिकॉर्ड किया था। गिद्ध की तरह ही चील और बाज भी ऊँची उड़ानें भरने वाले पक्षी हैं। लेकिन गिद्ध के बारे में कहा जा सकता है कि गिद्ध एक ही बार में उड़ान भरकर 1,000 किलोमीटर की दूरी तक तय कर सकता है।

गिद्ध के पंख 1.8 मीटर से 2.9 मीटर तक चौड़े और बेहद मज़बूत होते होते हैं, जबकि चील के पंख 1.5 मीटर से 2.3 मीटर तक लम्बे होते हैं। इन दोनों जीवों में चील का हमला गिद्ध से भी तेज़ होता है, लेकिन दोनों का हमला इतना ख़तरनाक होता है कि ये दोनों पक्षी अपनी टक्कर से शेर को भी गिरा सकते हैं। किसी जीव पर इनकी हमले की रफ़्तार क़रीब 200 किलोमीटर प्रति घंटे से लेकर 350 किलोमीटर प्रति घंटे की हो सकती है।

जीव वैज्ञानिकों चिन्ता जताते हैं कि अगर ये दोनों महाबलशाली पक्षी धरती पर नहीं रहे, तो इंसानों का जीवन भी दुश्वार हो जाएगा। पिछले एक दशक के दौरान भारत, नेपाल, श्रीलंका, चीन और पाकिस्तान में गिद्धों की संख्या 95 फ़ीसदी तक कम हुई है। देखने में आ रहा है कि जैसे-जैसे ये दोनों पक्षी विलुप्त होते जा रहे हैं, इंसानों में रोग बढ़ते जा रहे हैं।

इनके विलुप्त होने के मुख्य कारणों में पशुओं की प्राकृतिक मौत से ज़्यादा उनका काटा जाना, पशुओं को विषैली दवाएँ खिलाना और फ़सलों पर कीटनाशकों का उपयोग करना है। इन पक्षियों के शिकार में भी तेज़ी आयी है। बिजली के तारों, विषैली गैसों और बढ़ते तापमान से भी इनकी मौत का कारण बने हैं। प्रकृति प्रेमियों, जीव वैज्ञानिकों और सरकारों को इन दोनों पक्षियों के बचाव के साथ-साथ इनकी संख्या बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।

गैंडा और हाथी

गैंडों और एशियाई हाथियों की संख्या भी कम हो रही है। भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में हाथियों की कम होती संख्या चिन्ता का विषय है। साल 1986 से एशियाई हाथी को आई.यू.सी.एन. रेड लिस्ट में लुप्तप्राय प्राणी के रूप में दर्ज हो चुके हैं। पिछले क़रीब 75 सालों में हाथियों की संख्या में 50 फ़ीसदी की गिरावट आयी हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह हाथियों का तेज़ी से हो रहा शिकार है। साल 2003 में जंगली हाथियों की संख्या क़रीब 41,000 से 52,000 के बीच आँकी गयी थी। अब कहा जा रहा है कि इनकी संख्या 40,000 से भी कम रह गयी है। हालाँकि एक अनुमान के मुताबिक, भारत में जंगली हाथियों की संख्या क़रीब 26,000 से 28,000 के बीच है, जो एशिया के हाथियों की कुल संख्या का 60 फ़ीसदी है।

वहीं सुमात्रन गैंडों की संख्या पाँच दशक पहले क़रीब 800 थी और अब यह घटकर 275 से भी कम रह गये हैं। फ़िलहाल दुनिया में जीवित गैंडों की पाँच प्रजातियाँ मौज़ूद हैं। आज गैंडों की घटती आबादी ने अध्ययनकर्ताओं और जीव वैज्ञानिकों में चिन्ता पैदा की है। डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में कहा गया है कि गैंडे की संख्या में 20 लाख वर्षों से निरंतर लेकिन धीरे-धीरे कमी आयी है।

उल्लू और कठफोड़वा

भारत में उल्लू को धन की देवी लक्ष्मी की सवारी कहा जाता है। लेकिन यही उल्लू अब यहाँ तेज़ी से कम हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण इन पक्षियों की भारी संख्या में तस्करी होना है। काला जादू करने वाले इस जीव के अंगों का इस्तेमाल करने के लिए इसकी हत्या कर देते हैं। कहा जाता है कि उल्लू की क़ीमत 200 रुपये से कई लाख रुपये तक हो सकती है।

हरे पेड़ को काट देने वाली मज़बूत चोंच वाले कठफोड़वा पक्षी की प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है। साल 2021 में अमेरिका के मछली और वन्यजीव सेवा विभाग ने इसे विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया है। भारत में भी इनकी प्रजाति पर ख़तरा मंडरा रहा है। सफ़ेद उल्लू की प्रजाति तो बिलकुल विलुप्त हो चुकी है।

विलुप्त होने की ओर प्रजातियाँ

एक अध्ययन बताता है कि दुनिया में कुल 5,583 ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन प्रजातियों में 26 नयी प्रजातियों को सन् 2017 में शामिल किया गया था। इन प्रजातियों को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास की ज़रूरत है। हालाँकि इन प्रजातियों को बचाने के लिए वैज्ञानिक और जीव प्रेमी कई क़दम उठा रहे हैं; लेकिन जीवों को बचाने का प्रयास करने वालों की संख्या में उन्हें मारने वाले शिकारियों की संख्या कई गुना ज़्यादा है। सन् 2016 में आईयूसीएन ने अनुमान जताया था कि धरती पर बढ़ते प्रदूषण और समुद्रों में गिरायी जा रही निरंतर गन्दगी से मछलियों की संख्या भी कम हो रही है।

दवा के नाम पर ज़हर

गुणवत्ताहीन कफ सिरप से 66 बच्चों की मौत पर लीपापोती से उठ रहे सवाल

पश्चिमी अफ्रीकी देश गाम्बिया में 66 बच्चों की मौत के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की गम्भीर चेतावनी से हरियाणा की मेडेन फार्मास्यूटिकल लिमिटेड कम्पनी विवाद में फँस गयी है। इस कम्पनी की चार दवाइयाँ- प्रोमेथजाइन ओरल सोल्यूशन, कोफोक्समालिन बेबी कफ सिरप, मेकआफ बेबी कफ सिरप और मैगरिथ रन कोल्ड सिरप अफ्रीकी देश गाम्बिया के 66 बच्चों की मौत की वजह बनी। 66 में से 60 बच्चों की मौत की वजह गुर्दे (किडनी) में ख़राबी साबित हुई है। यह सब शुरुआती जाँच में नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लेबोरेटरी में पूरे परीक्षण के बाद साबित हुआ है। जाँच में कम्पनी की इन चार दवाओं में डाइथेलेन ग्लायकोल और ऐथेलन ग्लायकोल की मात्रा मानकों से कहीं ज़्यादा पायी गयी। दोनों रसायनों का स्तर घटिया होने या मानक से ज़्यादा का मिश्रण करना बेहद ख़तरनाक होता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देशों में डाइथेलेन और ऐथेलेन का दवाओं में इस्तेमाल प्रतिबन्धित है; लेकिन भारत में ऐसा नहीं है।

बता दें कि सन् 2020 में भी हिमाचल प्रदेश की डिजिटल विजन नामक फार्मास्यूटिकल कम्पनी द्वारा बनाये गये कफ सिरप में इन्हीं दोनों रसायनों के ज़्यादा इस्तेमाल होने के चलते जम्मू क्षेत्र के 11 से ज़्यादा बच्चों की मौत कुछ महीनों के अंतराल में हुई। जाम्बिया में भी कमोबेश ऐसा ही हुआ है। ये मौतें अगस्त तक हो चुकी हैं; लेकिन सिलसिला कब से शुरू हुआ, इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विस्तृत जानकारी नहीं दी है।

ये दवाइयाँ बच्चों को सर्दी-खाँसी आदि ठीक करने के लिए दी जाती हैं; लेकिन दवा ख़राब होने पर पेट दर्द, सिर दर्द, उल्टी,डायरिया और पेशाब आने में दिक़्क़त होती है। बच्चे की तबीयत सँभलने के बजाय धीरे-धीरे ख़राब होती चली जाती है। आख़िरकार गुर्दे (किडनी) फेल होने या अन्य कारण से मौत हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट से मेडेन फार्मास्यूटिकल कम्पनी पर गम्भीर लापरवाही का ख़ुलासा होता है। कम्पनी का देश और विदेशों में बड़ा कारोबार है। कुंडली (सोनीपत) में इकाई है और पिछले 32 वर्षों से दवा निर्माण में लगी है। सवाल यह है कि निर्यात होने वाली ये दवाइयाँ केंद्रीय लेबोरेटरी में कैसे पास हो गयीं? मतलब स्पष्ट है कि दवाओं की गुणवत्ता और मानकों का पूरा ख़याल नहीं रखा गया। ज़ाहिर है कि दवा बनाने के मानक अगर बिगड़ जाएँ, तो वह ज़हर बन सकती है। इससे रोगी को घातक नुक़सान होने के अलावा उसकी जान भी जा सकती है। इसलिए किसी भी दवा कम्पनी में बनने वाली दवाइयों की जाँच कड़ी होनी चाहिए। बाहर जाने वाली दवाओं की भी जाँच होनी चाहिए, क्योंकि इससे देश की छवि जुड़ी होती है। विदेशों में इसका बड़ी सख़्ती से पालन किया जाता है; लेकिन हमारे यहाँ मानकों से समझौता कर लिया जाता है, जिसका परिणाम गाम्बिया जैसी घटना के रूप में आज हमारे सामने है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन को अन्य देशों से भी ऐसी घटनाओं के सामने आने की आशंका है। मेडेन फार्मा कम्पनी गाम्बिया में इन दवाओं का निर्यात करती आ रही है; लेकिन वहाँ से अन्य पड़ोसी देशों में ये दवाइयाँ जा सकती हैं। ऐसी आशंकाओं को देखते हुए गाम्बिया में इन दवाओं के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन प्रमुख टेड्रोस अदनोम धेब्रेयियम के ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया को मामले से अवगत कराने के बाद देश में भी हडक़म्प सा मच गया है। मेडेन कम्पनी हरियाणा के जिला सोनीपत के कुंडली में है। लिहाज़ा राज्य सरकार की पूरी जवाबदेही है। स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज ने मामला प्रकाश में आते ही चारों दवाइयों के नमूने कोलकाता की सेंट्रल ड्रग लैब में भेजने की बात कही। जाँच रिपोर्ट आने के बाद सरकार की ओर से कार्रवाई की जाएगी। कम्पनी विशेष तौर पर ये दवाइयाँ निर्यात करती है; लेकिन क्या राज्य या देश के किसी हिस्से में भी इनकी बिक्री हो रही है? इसकी भी जाँच करायी जाने की बात की गयी है।

मेडेन फार्मा लिमिटेड सन् 1990 से दवा निर्माण के कार्य में है। इस कम्पनी में केप्सूल, इंटेजेक्शन, सिरप, ओंटमेट्स और टेबलेट आदि बनाये जाते हैं। देश-विदेश में कम्पनी का अच्छा कारोबार है। कम्पनी मालिकों के पास तीन दशक से ज़्यादा का अनुभव है। इसके चलते कम्पनी के पास डब्लूएचओ-जीएमपी और आईएसओ-9001 है। यह सर्टिफिकेट दवा निर्माण में सभी अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानकों का पालन करने वाली कम्पनी को दिया जाता है। कम्पनी की वेबसाइट पर इसका विशेष तौर पर उल्लेख किया गया है और इसकी फोटो भी अपलोड की गयी है।

तीन दशक पुरानी यह कम्पनी दर्ज़नों तरह की दवाइयाँ बनाती है। यह पहला और बड़ा मामला है, जब सीधे तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किसी कम्पनी की दवाइयों पर उँगली उठायी है। ज़ाहिर है, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने तौर पर पूरी जाँच के बाद इस कम्पनी पर गम्भीर आरोप लगाये हैं, तो कोलकाता की सेंट्रल ड्रग लैब की रिपोर्ट अलग कैसे आ सकती है? दवा निर्माण और उनके निर्यात में भारत बहुत आगे है। विकसित देशों में यहाँ की दवाइयाँ बड़े स्तर अमेरिका और अन्य विकसित देशों में जाती हैं। समय-समय पर अमेरिका की एफडीए जैसी एजेंसी हमारे यहाँ की कम्पनियों की इकाइयों की जाँच करती है और $खामी पाये जाने पर रोक लगाने जैसी कार्रवाई करती है। इन कम्पनियों को एफडीए के कड़े मानकों से गुज़रना होता है और इसमें किसी तरह की कोई नरमी नहीं बरती जाती; क्योंकि दवाओं के उपयोग से आख़िर सवाल मरीजों की ज़िन्दगी का जुड़ा होता है।

गाम्बिया में बड़े स्तर पर हुई बच्चों की मौत से देश की छवि को भी धक्का लगा है। देश की प्रतिष्ठा से जुड़े इस मामले की गम्भीरता को इसी से समझा जा सकता है कि घटना प्रकाश में आते ही तुरन्त ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया ने हरियाणा स्टेट रेगुलेटरी अथॉरटी से इस बारे में जवाब तलब कर लिया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से स्पष्ट किया गया है कि मेडन फार्मा लिमिटेड की उक्त चारों दवाइयाँ गाम्बिया में ही निर्यात की गयी है। ये विशेषतौर पर निर्यात की जाने वाली दवाइयाँ हैं, इसलिए देश में इनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कम्पनी की चार दवाइयों की पूरी जाँच के बाद इन्हें ही मौत की वजह माना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी पुष्टि हो चुकी है, लिहाज़ा कोई सन्देह नहीं रह जाता। लेकिन हमारे देश में ही अभी इसकी जाँच होनी बाक़ी है।

आज तमाम तरह की बीमारियों से दुनिया भर के ज़्यादातर लोग जूझ रहे हैं, जिसके चलते देश-विदेश में दवाइयों का कारोबार हज़ारों करोड़ रुपये का है। इसीलिए दवा कम्पनियाँ लाइसेंस और सर्टिफिकेट हासिल करने के लिए बहुत कुछ करती हैं।

इस समय भारत में 3,000 से ज़्यादा दवा निर्माता कम्पनियाँ और 10,000 से ज़्यादा इनकी इकाइयाँ हैं। इन सबके मानकों को ध्यान में रखना तो बड़ी चुनौती है ही, इनसे साँठगाँठ करने वाले ड्रग्स जाँच विभागों की निगरानी करना भी एक कठिन काम है। लेकिन यह होना चाहिए। संसाधनों की कमी के चलते नियमों की अनदेखी और मिलीभगत से बहुत कुछ होता है। दवा निर्माण क्षेत्र में दवा बनाने के मानकों और गुणवत्ता से किसी तरह का समझौता नहीं किया जाना चाहिए, वरना जम्मू और गाम्बिया जैसी घटनाएँ होती रहेंगी।

“गाम्बिया में 66 बच्चों की मौत गम्भीर घटना है। केंद्र सरकार के निर्देश के बाद मामले की जाँच शुरू कर चारों दवाइयों के नमूने कोलकाता की सेंट्रल लैब भेजे जाएँगे। रिपोर्ट आने और आरोप सही साबित होने के बाद कड़ी कार्रवाई की जाएगी, चाहे कोई कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो। अगर सैंपल में कुछ भी ग़लत मिलता है, तो कड़ी कार्रवाई की जाएगी। किसी को भी बख़्शा नहीं जाएगा। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया और केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग को लगातार अपडेट दिया जा रहा है।”

अनिल विज

गृह और स्वास्थ्य मंत्री, हरियाणा

प्राकृतिक सम्पदा के दुश्मन

अवैध कारोबार के खेल में मज़ाक़ बनकर रह गया जल, जंगल, ज़मीन बचाओ का नारा

15 नवंबर, 2000 को बिहार से अलग हुआ झारखण्ड खनिज सम्पदा के कारण देश में प्रसिद्ध है। लेकिन अकूत प्राकृतिक सम्पदा के मालिक इस राज्य की एक बड़ी आबादी आज तक ग़रीब है। ये ग़रीब लोग आज भी जल, जंगल, ज़मीन की सुरक्षा को लेकर अपने नारों के साथ विकास की कल्पना में डूबते-उतरते रहते हैं। हक़ीक़त इससे परे है। उनके पैरों तले ये जल, जंगल, ज़मीन कब और कितने खिसक गये, इसकी जानकारी उन्हें है ही नहीं।

दरअसल यही खनिज सम्पदा उसके लिए अभिशाप बन गयी है। बड़े पैमाने पर माफ़िया, बिचौलिये और दुनिया भर के पूँजीपति इस राज्य की सम्पदा का इतनी बेदर्दी से दोहन कर रहे हैं कि यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य ख़त्म होता जा रहा है। अवैध कारोबार माफ़िया का ख़ूख़ार खेल है, जिसमें आड़े आने वालों की हत्या करने तक से कोई नहीं हिचकता। पत्थर के कारोबार के कारण पहाड़ विलुप्त होते जा रहे हैं। ज़मीन के भीतर से कोयला, लौह अयस्क और बेशक़ीमती पत्थर निकालने के लिए पेड़-पौधे, यहाँ तक कि जंगल-झाड़ भी साफ़ होते जा रहे हैं। बालू निकालने के लिए नदियों का दोहन हो रहा है। इस खेल में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होने और लालफ़ीताशाही का साथ मिलने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा न्यायालय में फाइल चार्जशीट से भी इन सभी बातों की पुष्टि अब होने लगी है।

कोयले की काली कमायी

झारखण्ड में काले हीरे यानी कोयले का अवैध कारोबार कोई नया नहीं है। राज्य की ज़मीन के अन्दर दबी इस अकूत सम्पदा पर कई फ़िल्में भी बनी हैं। इसे लेकर वर्चस्व की लड़ाई को भी समय-समय देखा गया है। एकीकृत बिहार यानी जब झारखण्ड अलग नहीं हुआ था, तब भी कोयले के अवैध खनन का मामला उठा था। कोयले के अवैध कारोबार को लेकर सन् 1990 में बेरमो के प्रख्यात मज़दूर नेता व पूर्व विधायक स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद सिंह ने तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री को एक पत्र में लिखा था कि दक्षिण बिहार के कोयला खदानों से हर साल डेढ़ अरब रुपये के कोयले की चोरी होती है। उस समय उनके दावे पर काफ़ी शोर मचा था। जाँच भी हुई थी; लेकिन रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। झारखण्ड बनने के बाद कोयले के अवैध कारोबार का यह बाज़ार बढ़ता गया।

लौह अयस्क का धन्धा

कोयला के बाद लौह अयस्क का अवैध कारोबार भी काली कमायी का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। सारंडा इलाक़े में पाये जाने वाले लौह अयस्क या लाल मिट्टी की कहानी भी कम रोचक नहीं है। यहाँ अवैध खनन की जाँच के लिए सीबीआई से लेकर शाह आयोग तक बना; लेकिन बड़े मालिकों का कुछ नहीं हुआ। राज्य के विभिन्न ज़िलों से लौह अयस्क ओडिशा और बंगाल के साथ सीमा पार चीन तक पहुँचाया जाता है। इस अवैध खनन ने झारखण्ड के लोगों को बेघर किया। जंगलों को नष्ट कर दिया। पूँजीपतियों, माफ़िया और इससे जुड़े लोगों ने अरबों की कमायी की।

ग़ायब हो गये दर्ज़नों पहाड़

संताल क्षेत्र से एक-एक करके पहाड़ ग़ायब होते जा रहे हैं। वहाँ के रहने वाले लोग बताते हैं कि पिछले 22 वर्षों में इस इलाक़े के दर्ज़नों पहाड़ ग़ायब हो गये। साहिबगंज, दुमका, पाकुड़ व संताल के अन्य इलाकों से पहाड़ से पत्थर तोडक़र निकलाने का कारोबार धड़ल्ले से चलता है। यह पत्थर देश के अन्य हिस्सों तक नहीं बांग्लादेश तक भेजा जाता है। इसका ख़ुलासा ईडी ने भी किया है। ईडी ने साहिबगंज में एक बड़े जहाज़ को ज़ब्त किया। इस जहाज़ पर अवैध रूप से ट्रकों पत्थर लादकर भेजा जाता था। पत्थर का अवैध कारोबार इतना फैल गया कि हर तरफ़ क्रेशर मशीन दिखती हैं। छोटे-छोटे स्तर पर भी लोग इससे जुड़ गये हैं। इसी तरह राज्य की नदियों से बालू का अवैध खनन बदस्तूर जारी है। जिस वजह से नदियों की स्थिति दयनीय है।

बेशक़ीमती पत्थरों पर नज़र

राज्य की ज़मीन के अन्दर हीरा, पन्ना, प्लेटिनम, लिथियम, क्रोमियम, निकेल, मून स्टोन, ब्लू स्टोन समेत कई दुर्लभ और बेशक़ीमती खनिज छिपे हैं। सरकार अभी तक कोयला, लोहा और बॉक्साइट को लेकर अटकी हुई है। इस तरफ़ ध्यान नहीं है। वैध तरीक़े से इसकी नीलामी और खनन शुरू नहीं हुआ। जबकि इसके अवैध कारोबारी इन बेशक़ीमती पत्थरों को निकालकर चाँदी काट रहे हैं। सूत्रों की मानें तो झारखण्ड से निकलने वाले पन्ना की चमक जयपुर की जौहरी मंडी तक है। एक अनुमान के मुताबिक, केवल पन्ना का ही 800 करोड़ रुपये सालाना का अवैध कारोबार होता है। अन्य बेशक़ीमती खनिज सम्पदा के कारोबार का अंदाज़ा भी इसी से लगाया जा सकता है।

करोड़ों का कारोबार

राज्य में इन दिनों ईडी की कार्रवाई तेज़ है। ईडी अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग की जाँच कर रही है। ईडी ने गिरफ़्त में आये लोगों के बारे में न्यायालय में दाख़िल चार्जशीट और प्रेस विज्ञप्ति में 1,000 करोड़ के अवैध खनन का ज़िक्र किया है। यह कितने दिन या कितने महीने में हुआ है?

इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। एक बात साफ़ है कि चूँकि ईडी पत्थर के अवैध खनन का जाँच कर रहा, इसलिए यह रकम केवल पत्थर खनन से सम्बन्धित होगी। चूँकि राज्य में कोयला, अभ्रक, लौह अयस्क आदि का भी अवैध कारोबार चल रहा, इसलिए काली कमायी का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है।

एक ग़ैर-सरकारी संगठन द्वारा एकत्र आँकड़ों से पता चलता है कि झारखण्ड में खनिजों के अवैध कारोबार में हर महीने क़रीब 965 करोड़ रुपये से अधिक का लेन-देन होता है। इसमें अकेले कोयले का योगदान क़रीब 350 करोड़ रुपये का है। लौह अयस्क का 200 करोड़ रुपये और पत्थर का 200 करोड़ रुपये से ज़्यादा का हर महीने का अवैध कारोबार है। इसी तरह बालू, अभ्रक, अन्य बेशक़ीमती खनिजों का 200 करोड़ रुपये से अधिक का अवैध कारोबार है। अभ्रक का पूरा कारोबार सरकार की नज़रों में अवैध है।

इसी तरह बेशक़ीमती पत्थरों का कारोबार भी पूरा का पूरा अवैध ही है। हालाँकि कुछ जानकारों का कहना है कि सभी तरह के अवैध खनन का कारोबार कितने का होता है, इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता है। यह कारोबार मनी लॉन्ड्रिंग का मुख्य स्रोत है। ईडी ने भी अपनी जाँच में मनी लॉन्ड्रिंग का भी ज़िक्र किया है।

गठजोड़ से हो रहा अवैध खनन

ईडी ने मनरेगा घोटाला से जाँच शुरू किया। जैसे-जैसे जाँच बढ़ी, मनरेगा घोटाला पीछे छूटता गया और अवैध खनन व मनी लॉन्ड्रिंग का मामला उभरता गया। ईडी के गिरफ़्त में राज्य के वरिष्ठ अधिकारी, कारोबारी, राजनीति से जुड़े लोग आने लगे। निलंबित आईपीएस पूजा सिंघल, कारोबारी अमित अग्रवाल, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा, राजनीतिक और ब्यूरोक्रेसी में पैठ रखने वाले बच्चू यादव व प्रेम प्रकाश जैसे लोग गिरफ़्त में आये, तो परत-दर-परत अवैध कारोबार के राज़ खुलने लगे।

राज्य के कई नेता, अधिकारी और कारोबारी ईडी के रडार पर हैं, जो कभी भी गिरफ़्त में आ सकते हैं। ईडी ने न्यायालय में गिरफ्तार लोगों के ख़िलाफ़ पाँच हजार से अधिक पन्नों का चार्ज शीट फाइल किया है। इसमें ईडी ने अवैध खनन और मनी लॉन्ड्रिंग का ज़िक्र किया है। दूसरी बात ईडी ने यह भी कहा है कि इस अवैध खनन को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। तीसरी बार ईडी ने इसमें कई बड़े नेताओं और अधिकारियों के शामिल होने की आशंका जाहिर की है। इन सभी बातों ने झारखण्ड में खनिज सम्पदा के अवैध खनन और नेता-अधिकारी गठजोड़ की पुष्टि कर दी है।

पिस रही जनता

जल, जंगल, ज़मीन को अपना जीवन मानने वाली झारखण्ड की जनता इस माफ़िया तंत्र की चक्की में पिस रही है और उसे चौतरफ़ा घाटा हो रहा है। वैध तरीक़े से खनन में केंद्र व राज्य सरकार कई बातों का ध्यान रखती है। विकास के लिए निर्माण कार्य के साथ-साथ पर्यावरण का भी ख़याल रखा जाता है। सरकार को राजस्व भी मिलता है, जिससे विकास के कई काम होते हैं और जनता तक लाभ पहुँचता। अवैध खनन के कारोबार में राजस्व का घाटा तो है ही, जनता को कोई लाभ भी नहीं मिलता।

अवैध खनन की गहराई ज़मीन के अन्दर इतनी है कि कभी-कभार प्रशासनिक कार्रवाई में छोटी-छोटी मछलियाँ तो फँसती हैं; लेकिन बड़ी मछलियों तक जाँच की आँच भी नहीं पहुँचती। नेता, अफ़सर और बाहुबली गठजोड़ इस अवैध कारोबार को सींचता है। खनिज सम्पदाएँ अब अकूत नहीं रहीं। बेशुमार दोहन से इनके भण्डार भी तेज़ी से घट रहे हैं। लिहाज़ा प्रकृति के समक्ष पारिस्थतिकी तंत्र के सन्तुलन का संकट गहराने के साथ बड़ी आबादी के जीने का अधिकार भी ख़तरे में पड़ता जा रहा है। क्योंकि प्रकृति के ख़ज़ाने लूट लिये जाएँगे तो संविधान के अनुच्छेद-21 में दिये गये जीने के अधिकार के प्रावधान का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। इसलिए अवैध खनन को योजनाबद्ध तरीक़े से रोकना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो झारखण्ड वासियों की जल, जंगल, ज़मीन बचाओ सिर्फ नारा ही रह जाएगा।

प्रतिभा की अनदेखी

हर चीज़ की एक उम्र होती है। खेल में तो यह बात बहुत क़ायदे से लागू होती है। प्रतिभा अवसर देती है। लेकिन प्रतिभा होते हुए भी समय पर अवसर न मिले, तो प्रतिभा को कुंद होने में कितना वक़्त लगता है। क्रिकेट की बात करें, तो कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो प्रतिभावान होते हुए भी समय पर अवसर न मिलने से अँधेरे में खो गये। यह सिलसिला दशकों से चल रहा है और आज भी यही स्थिति है। बात करते हैं क्रिकेट की। एक खिलाड़ी उमरान मलिक हैं। कह सकते हैं कि आज की तारीख़ में देश में सबसे तेज़ गेंद उमरान ही फेंकते हैं। उम्र है 22 साल। हालाँकि तेज़ गेंदबाज़ी में उम्र मायने रखती है। क्योंकि तकनीक के साथ-साथ इसमें शारीरिक ताक़त भी ज़रूरी होती है। उमरान दोनों ही चीज़ें कर लेते हैं। यानी उनकी गेंदों में गति भी है और स्विंग भी। उनकी उम्र है कि उन्हें राष्ट्रीय टीम में अवसर दिया जाए। लेकिन न जाने क्यों ऐसा हो नहीं रहा। दुनिया की सबसे अमीर क्रिकेट संस्था होते हुए भी शायद बीसीसीआई के पास योजना की कमी है।बी

हाल के महीनों में उमरान ने बताया है कि उनके पास देश के लिए खेलते हुए अपनी गति से क्रिकेट की दुनिया के दिग्गजों को छका सकने की क़ुव्वत है। आईपीएल में दुनिया भर के दिग्गज हिस्सा लेते हैं और इसके पिछले संस्करण में उमरान ने कितना कमाल किया था, सभी जानते हैं। उनकी गति कई बार बल्लेबाज़ों को भयभीत करती है और कई बार अपनी स्विंग से वह कब विकेट बिखेर देते हैं, यह बल्लेबाज़ को भी समझ नहीं आता। उमरान को बेहतर कोच की देखरेख में और तराशे जाने से वह देश की गेंदबाज़ी की पूँजी बनने की क्षमता रखते हैं; यह बात क्रिकेट के जानकार ही कह चुके हैं।

पड़ोसी देश पाकिस्तान, जहाँ क्रिकेट के चयन को लेकर कई तरह की राजनीतियों के आरोप लगते हैं; वहाँ भी तेज़ गेंदबाज़ हर दौर में भारत के मुक़ाबले बेहतर रहे हैं। कारण यह है कि वहाँ तेज़ गेंदबाज़ों को सही समय पर अवसर दिये जाते हैं। भारत में ऐसा नहीं होता। उमरान को बेझिझक शुद्ध तेज़ गेंदबाज़ की श्रेणी में रखा जा सकता है। उनकी अधिकतम गति 157 किलोमीटर प्रति घंटा (केएमपीएच) मापी गयी है, जबकि टीम के रेगुलर तेज़ गेंदबाज़ जसप्रीत बुमराह 153.26 केएमपीएच है। पिछले क़रीब एक दशक की बात करें, तो इन दोनों के अलावा इरफ़ान पठान 153.7, मोहम्मद शमी 153.3, नवदीप सैनी 152.85 और इशांत शर्मा 152.6 और उमेश यादव 152.5 केएमपीएच की गति से गेंद फेंकते रहे हैं।

आईपीएल में उमरान की टीम सनराइजर्स हैदराबाद (एसआरएच) के गेंदबाज़ी कोच डेल स्टेन, जिनके दक्षिण अफ्रीका की तरफ़ से खेलते हुए टेस्ट मैचों में 439 विकेट सहित तीनों फार्मेट में 699 अंतरराष्ट्रीय विकेट हैं, वह भी उमरान की गति के मुरीद हैं। स्टेन उमरान को लम्बी रेस का घोड़ा बताते हैं। ख़ुद स्टेन ने 155.7 केएमपीएच की अधिकतम गति से गेंद फेंकी है और अपने समय में उनकी गति बल्लेबाज़ों को भयभीत करती थी।

आज दुनिया में तीव्रतम गेंद फेंकने वाले न्यूजीलैंड के लोकी फर्गुसन 157.3, दक्षिण अफ्रीका के एनरिक नॉरजे 156.22 और पाकिस्तान के शाहीन अफ़रीदी 157 केएमपीएच को गति के मामले में अपने उमरान ही टक्कर देते दिखते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारत में उमरान सबसे तेज़ हैं। ऐसे में उमरान को ज़्यादा अवसर और प्रोत्साहन और भी बेहतर गेंदबाज़ बना सकते हैं। जसप्रीत बुमराह और उमरान मलिक भारत के लिए गेंदबाज़ी की घातक जोड़ी बन सकते हैं। उनके अलावा मोहम्मद शमी, प्रसिद्ध कृष्णा, आवेश खान और मोहम्मद सिराज भी कम नहीं हैं। ये सब भी एक ताक़तवर पेस बैटरी बनने की क्षमता रखते हैं। लेकिन उमरान को अवसर नहीं मिल पा रहा।

जम्मू-कश्मीर के इस युवा ने कहा था कि देश की टीम में आना उनका सपना है। वह टीम में शामिल भी किये गये हैं; लेकिन तीन मैच ही उनके हिस्से आये हैं, जिसमें उनके दो विकेट हैं। उमरान ने पहला अंतरराष्ट्रीय मैच इसी साल 26 जून को डबलिन में आयरलैंड के ख़िलाफ़ खेला था, जिसमें उन्हें एक ही ओवर करने का अवसर मिला था। उनके पास अनुभव की कमी ज़रूर है; लेकिन प्रतिभा की नहीं।

ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ उमरान के मामले में हुआ है। इतिहास पर यदि नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि कई खिलाड़ी समय पर अवसर न मिलने के कारण फिर कभी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाये और अँधेरों में खो गये। कई बार होता यह है कि महत्त्वपूर्ण सीरीज या बड़े टूर्नामेंट के कारण प्रबंधन अनुभवी खिलाडिय़ों पर भरोसा करता है। वे नहीं भी चलें, तो भी उनसे उम्मीद ख़त्म नहीं होती, और यह सिलसिला चलता रहता है। चयनकर्ता उन पर भरोसा दिखाते जाते हैं और इस फेर में कई अच्छे युवा खिलाडिय़ों का भविष्य चौपट हो जाता है। बात कप्तान पर भी निर्भर होती है। धोनी को देखें, तो उनका स्पिनर्स पर ज़्यादा भरोसा रहता था। उन्होंने अपने समय में स्पिनर्स को ज़्यादा अवसर दिये। हालाँकि जब विराट कोहली कप्तान बने, तो उन्होंने तेज़ गेंदबाज़ों पर ज़्यादा भरोसा दिखाया। उनके समय में टीम के कोच रवि शास्त्री, जो ख़ुद एक स्पिनर थे; ने भी कोहली की सोच का हमेशा समर्थन किया।

रिकॉड्र्स पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि तेज़ गेंदबाज़ों ने विदेशी दौरों में भारत की जीत का प्रतिशत बढ़ाया है। हाल के वर्षों में जबसे देश में 145 केएमपीएच से ज़्यादा की गति वाले गेंदबाज़ देश में उभरे हैं। हमारी टीम ने विदशी दौरों में ज़्यादा मैच जीते हैं। सन् 2000 तक विदेशी दौरों में हमारी जीत का प्रतिशत आठ था, जो आज की तारीख़ में 45 से 50 के बीच रहता है।

निश्चित ही भारत के पास आज जो तेज़ गेंदबाज़ हैं, वे दुनिया के तेज़ गेंदबाज़ों को मज़बूत टक्कर देते हैं। चाहे गति का मामला हो या स्विंग या एक्यूरेसी का। वर्तमान में हमारे पास आठ ऐसे तेज़ गेंदबाज़ हैं, जो 150 के आसपास या उससे भी ऊपर की गति से गेंद फेंक रहे हैं। यहाँ तक कि शार्दुल ठाकुर और दीपक चाहर जैसे मध्यम तेज़ गेंदबाज़ भी 140 से 145 की गति से गेंद डालते हैं।

हाल के दशकों में जब स्पिनर्स टीम में दबदबा रखते थे, तब भारत की जीत का प्रतिशत कम था; लेकिन तेज़ गेंदबाज़ों ने इस खाई को कम किया है। सन् 2010 से सन् 2020 के बीच तेज़ गेंदबाज़ों ने 922 विरोधी खिलाडिय़ों के विकेट उखड़े, जबकि स्पिनर्स ने 877 विकेट। इस दौर में धोनी सन् 2014 तक कप्तान रहे, जिनका स्पिनर्स पर ज़्यादा भरोसा रहा। दिसंबर, 2014 में विराट कोहली ने जब टेस्ट टीम की कप्तानी सँभाली, तो तेज़ गेंदबाज़ों को अपेक्षाकृत ज़्यादा अवसर मिलने शुरू हुए। कोहली लगातार पाँच तेज़ गेंदबाज़ों के साथ खेलते रहे।

भारत में स्पिनर्स बनाम तेज़ गेंदबाज़ देखें, तो सन् 1971 से सन् 1980 के दौर में स्पिनर्स ने टेस्ट में 643, जबकि तेज़ गेंदबाज़ों ने महज़ 291 विकेट लिये। इसी तरह सन् 1981 से सन् 1990 के बीच यह आँकड़ा 546-528, सन् 1991 से सन् 2000 के बीच 517-471 और सन् 2000 से सन् 2010 के बीच 868-783 रहा। हालाँकि सन् 2011 से सन् 2021 के बीच तेज़ गेंदबाज़ 922 विकटों के मुक़ाबले स्पिनर्स 877 विकेट ही ले पाये। टेस्ट चैंपियनशिप, जिसमें भारत फाइनल तक पहुँचा; के कुल खेले 17 मैचों में भारतीय तेज़ गेंदबाज़ों ने 303 विरोधी बल्लेबाज़ों की किल्लियाँ उखाड़ीं।

उमरान को लेकर दिग्गज तेज़ गेंदबाज़ों के बयान ज़ाहिर करते हैं कि वह अच्छे बॉलर हैं और उन्हें अवसर मिलना चाहिए। डेल स्टेन ने उमरान से कहा था कि उन्हें लाइन-लेंथ की चिन्ता न करके स्ट्रेंथ पर ध्यान देना चाहिए। स्टेन की उमरान को सलाह है कि जितनी तेज़ डाल सकते हो, उतनी तेज़ी से गेंद डालो। उधर वेस्ट इंडीज के पूर्व तेज़ गेंदबाज़ इयान बिशप कहते हैं- ‘उमरान जैसे युवा गेंदबाज़ तेज़ी से सीखते हैं। इससे वे जल्दी अंतरराष्ट्रीय स्तर के लिए तैयार होते हैं।’

भारत के गतिमान

  1. उमरान मलिक 157 केएमपीएच
  2. जसप्रीत बुमराह 153.26 केएमपीएच
  3. मोहम्मद शमी 153.3 केएमपीएच
  4. नवदीप सैनी 152.85 केएमपीएच
  5. उमेश यादव 152.5 केएमपीएच
  6. प्रसिद्ध कृष्णा 152.22 केएमपीएच
  7. आवेश ख़ान 149 केएमपीएच
  8. मोहम्मद सिराज 145.7 केएमपीएच
  9. भुवनेश्वर कुमार 145 केएमपीएच

(गति केएमपीएच में)