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भारतीय समुद्र पर बन चुका एक और पुल

मुंबई वालों को घंटों के ट्रैफिक से मुक्ति दिलाएगा ‘मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक’

भारत का अब तक सबसे लम्बा समुद्री पुल मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक (एमटीएचएल) क़रीब-क़रीब बन चुका है। 25 मीटर ऊँचा, क़रीब 2,300 मीट्रिक टन भारी और 22 किलोमीटर लम्बा यह समुद्री पुल इस पर चलने वालों को न केवल समुद्र की विशालता के कुछ हिस्से के दर्शन कराएगा, बल्कि जाम के झाम से लोगों को राहत देने के अलावा समय तथा ईंधन की बचत कराएगा।

इस पुल की योजना पाँच साल पहले मुंबई में जाम से निपटने तथा नवी मुंबई और मुंबई के बीच की दूरी तय करने के लिए बर्बाद होने वाले समय को बचाने के उद्देश्य से बनी थी और अब इसे तक़रीबन पूरा कर लिया गया है। समुद्र पर पानी से इसकी ऊँचाई क़रीब 25 फुट है। इस पुल से मुंबई शहर का नज़ारा बड़ी आसानी से देखा जा सकेगा और मुंबई शहर में बने कंकरीट के जंगल को निहारा जा सकेगा। फोर लेन और टू-वे के आधार पर डिजाइन किये जाने वाला यह समुद्री पुल भारत के अब तक के सबसे लम्बे पुलों में से एक होगा। इस पुल का निर्माण तक़रीबन 97 फ़ीसदी पूरा हो चुका है। संभवत: साल 2024 के चुनाव से पहले इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करें!

मुंबई ट्रांस-हार्बर लिंक नाम के इस विशाल समुद्र का पुल का 16.5 किलोमीटर हिस्सा समुद्र पर बना है, जबकि बाक़ी का 5.5 किलोमीटर हिस्सा ज़मीन पर बना है। इस पुल में 180 मीटर लम्बा ऑर्थोट्रॉपिक स्टील डेक (ओएसडी) स्थापित किया गया है। इस डेक की मदद से समुद्री जहाज़ों को पुल के नीचे से गुज़रने के दौरान नेविगेट किया जा सकेगा, ताकि समुद्री जहाज़ों पर किसी प्रकार का दबाव न पड़े और उनकी गति व दिशा में कोई परिवर्तन न हो सके। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पुल निर्माण की हरेक प्रक्रिया और गतिविधि पर नज़र रखे हुए हैं। उम्मीद की जा रही है कि साल 2024 के शुरू होने से पहले ही भारत के सबसे लम्बे इस समुद्री पुल को जनता के लिए खोल दिया जाएगा।

बता दें कि यह देश का ऐसा पहला पुल होगा, जिसे ओपन रोड टोलिंग (ओआरटी) प्रणाली सुविधा से लैस किया गया है। 22 किलोमीटर लम्बे इस पुल के निर्माण को तेज़ी से पूरा किया जा रहा है, जिससे मुंबई का सेवरी इलाक़ा और रायगढ़ का चिर्ले इलाक़ा सीधे-सीधे जुड़ जाएगा। अब तक सेवरी से चिर्ले जाने में क़रीब 2.5 से 3 घंटे का समय लगता है; लेकिन पुल के ज़रिये यह समय केवल 20 मिनट का हो जाएगा। यानी इतनी लम्बी दूरी तय करने में सिर्फ़ 20 मिनट लगा करेंगे।

मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एमएमआरडीए) की मानें तो भारत में पहली बार इतना आधुनिक पुल बन रहा है। पुल में ऑर्थोट्रॉपिक स्टील डेक (ओएसडी) का उपयोग भी पहली बार किसी पुल में किया जा रहा है। पूरे पुल में कुल 70 ऑर्थोट्रॉपिक स्टील डेक असैंबर करके लगाये जा रहे हैं। ज़्यादातर ऑर्थोट्रॉपिक स्टील डेक लग चुके हैं। ये ऑर्थोट्रॉपिक स्टील डेक जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और म्यांमार में बने हैं, जिन्हें समुद्र के रास्‍ते भारत के करंजा पोर्ट के असेंबली यार्ड तक लाया गया है।

इस पुल से गुज़रने वाले वाहनों को टोल सिस्टम से मुक्ति नहीं होगी, यानी गुज़रने वालों को टोल टैक्स भरना होगा, लेकिन राहत की बात यह है कि इस पुल पर ओपन टोलिंग सिस्टम लगाया जाएगा, जिसकी मदद से वाहन चालकों को टोल भरने के लिए कहीं रुकने की आवश्यकता नहीं होगी, बल्कि चलते-चलते टोल टैक्स कट जाएगा।

समुद्र पर बन रहे इस पुल को लेकर मुंबई के लोगों में काफ़ी उत्सुकता है। लोग इस पुल पर चलने के लिए उत्सुक हैं। मुंबई के निवासी दिनेश साठे नाम के एक व्यक्ति ने बताया कि मुंबई के समुद्र पर पुल बनने से लोगों का टाइम और पैसा बचेगा। मुंबई में टाइम की क़ीमत बहुत है। यहाँ किसी के पास $फालतू टाइम नहीं है, लेकिन ट्रैफिक में न चाहते हुए भी बहुत टाइम ख़राब होता है, जिसकी बचत इस पुल पर चलने वालों के लिए एक बड़ी सहूलियत होगी। लेकिन अभी मुंबई में कई इलाक़े ऐसे हैं, जहाँ हर रोज़ जाम लगता है। मुंबई की लोकल ट्रेनों से लेकर सडक़ों तक पर जिधर देखो मुंडी ही मुंडी (लोगों के सिर ही सिर) नज़र आती है। सरकार इधर भी ध्यान दे।

बहरहाल, मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक पुल के निर्माण से मुंबई के एक हिस्से को बड़ी राहत मिलने वाली है। इससे मुंबई में पर्यटकों का आकर्षण भी और बढ़ेगा। पुल से समुद्र और मुंबई देखने का नज़ारा कौन नहीं देखना चाहेगा। लेकिन इस पुल पर गाड़ी रोककर रखने पर चालान और सज़ा का प्रावधान भी हो सकता है। इसलिए चलते-चलते ही समुद्र और मुंबई का नज़ारा कोई देख सकता है।

भारत में समुद्र पर बने अन्य पुल

भारत एक ओर अरब सागर से दूसरी ओर हिंद महासागर से और तीसरी ओर बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ देश है। अगर इतिहास की बात करें, दुनिया का और भारत का सबसे पहले समुद्री पुल के निर्माण का श्रेय त्रेता युग में भगवान राम के समय में नल और नील को जाता है। लेकिन भारत के दक्षिण स्थित रामेश्वरम् से लेकर श्रीलंका तक बने होने के इस समुद्री पुल के दावों पर अभी भी कई विवाद हैं। हालाँकि हाल के कुछ वर्षों में इस पुल के होने की बातों को कुछ वैज्ञानिकों और खोजी लोगों ने स्वीकार किया है; लेकिन कुछ लोग अभी भी नहीं मानते कि उस दौर में समुद्र पर कोई पुल बना होगा। लेकिन हिन्दू धर्म ग्रंथ वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास के रामचरित मानस में इस पुल का ज़िक्र किया गया है। कहा जाता है कि इस पुल का नाम राम सेतु रखा गया था, जो आज भी इसी नाम से जाना जाता है। ये समुद्री पुल भारत के पंबन आइलैंड को श्रीलंका से जोड़ता था। इस राम सेतु के अतिरिक्त भारत में पिछले कुछ वर्षों में अन्य कई समुद्री पुल भी बने हैं।

पम्बन पुल

पम्बन पुल भारत के तमिलनाडु राज्य से लगे समुद्र के पम्बन द्वीप को मण्डपम् से जोडऩे वाला एक रेल पुल है। इसका निर्माण अगस्त, 1911 से शुरू हुआ था और पौने तीन साल की कड़ी मेहनत के बाद यह पुल 24 फरवरी 1914 को ट्रेनों के लिए खोला गया। रामसेतु के बाद यह भारत का एकमात्र समुद्री सेतु बना था, जिसकी लम्बाई 2.065 किलोमीटर है। साल 2010 में बान्द्रा-वर्ली समुद्रसेतु के खुलने तक यह भारत का सबसे लम्बा समुद्री पुल बना रहा।

साल 1988 में इस रेल पुल के बराबर एक सडक़ पुल और बनाया गया, जो कि राष्ट्रीय राजमार्ग 87 का हिस्सा है। पाम्बन पुल का मुख्य छोर 9ए 16′ 56.70″ नॉर्थ 79ए 11′ 20.12″ ईस्ट पर स्थित है। यह पुल पर चक्रवात-प्रवण उच्च वायु वेग क्षेत्र में आने के कारण फ्लोरिडा के बाद दुनिया के सबसे संवेदनशील और ज़्यादा रखरखाव की आवश्यकता वाला समुद्री पुल है। संक्षारक वातावरण में बना 143 खंभों पर बना यह रेलवे पुल समुद्र तल से क़रीब 41 फुट ऊँचा है। इसमें दो पतरे लगे हैं, जिसमें हर एक पतरे का वज़न 415 टन है।

बांद्रा-वर्ली सी लिंक

मुंबई में बांद्रा-वर्ली सी लिंक यानी राजीव गाँधी सी लिंक नाम का समुद्री पुल भारत का अब तक का सबसे लम्बा पुल रहा है। इसकी लम्बाई 5.6 किलोमीटर है। लेकिन मुंबई के मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक के आगे ये बहुत छोटा पुल हो जाएगा। 8 लेन ट्रैफिक वाला यह पुल माहिम-वे पर बांद्रा को वर्ली से जोड़ता है। इस पुल को 30 जून, 2009 में उद्घाटन करके 1 जुलाई 2009 की आधी रात को जनता के लिए खोल दिया गया था। इस पुल के कारण पौन घंटे में तय होने वाली बांद्रा और वर्ली के बीच दूरी सिर्फ़ 8 मिनट के अंदर तय हो जाती है।

वाशी पुल

वाशी पुल भी मुंबई में ही बना है। इसे थाणे क्रीक ब्रिज भी कहते हैं। 1,837 मीटर लम्बा यह पुल मुंबई सिटी को थाणे खाड़ी से जोड़ता है। इस पुल को मुंबई में प्रवेश का चौथा एंट्री प्वाइंट माना जाता है। सन् 1973 में बना यह पुल मुंबई के उपनगर मानखुर्द को मुंबई के सेटेलाइट शहर नवी मुंबई के वाशी से जोड़ता है। लेकिन अब यह पुल बंद रहता है। कहा जाता है कि इस पुल को तकनीकी ख़राबी के चलते बंद किया गया है, ताकि कोई हादसा न हो जाए।

अतरौली पुल

अतरौली पुल भी मुंबई के ही समुद्र में स्थित है। अतरौली दूसरा समुद्री पुल है, जो मुंबई को नवी मुंबई से जोड़ता है। 3.8 किलोमीटर लम्बा यह पुल थाणे, बेलापुर और ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे को जोडऩे के लिए बनाया गया था। यह पुल ऐरोली में ठाणे-बेलापुर रोड पर एक जंक्शन बनाता है और मुलुंड को नवी मुंबई के विभिन्न व्यापारिक केंद्रों से जोड़ता है। इस पुल का उपयोग मुंबई में सर्वाधिक किया जाता है।

उत्तर प्रदेश में औद्योगीकरण की राह नहीं आसान

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश को औद्योगिक प्रदेश बनाने के प्रयास में लगे हैं। पिछले दिनों उनके नेतृत्व में लखनऊ में आयोजित हुए यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट- 2023 का उद्देश्य भी यही था। इस समिट में निवेशकों ने 20 से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों में 33.52 लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश की जो रुचि दिखायी उससे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अत्यंत उत्साहित हैं।

भले ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश में विभिन्न उद्योगों, विशेषकर डेयरी उद्योग को फलीभूत करना चाहते हैं; मगर उत्तर प्रदेश को औद्योगिक प्रदेश बनाने में अनेक चुनौतियाँ हैं। क्योंकि पहले भी कई बार उत्तर प्रदेश में निवेशकों के ऐसे सम्मेलन हो चुके हैं, मगर कोई योजना आज तक परवान नहीं चढ़ सकी है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने पहले कार्यकाल में भी देशी तथा विदेशी निवेशकों को उत्तर प्रदेश में उद्योग करने के कई निमंत्रण दे चुके हैं। 2018 में भी निवेशक सम्मेलन उन्होंने किया था, मगर उसका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।

इस बार के यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट-2023 की बात करें, तो निवेशकों ने कुल निवेश में से डेयरी उद्योग तथा पशुधन योजना में 35,569 करोड़ रुपये का निवेश करने पर सहमति जतायी है। इसमें डेयरी उद्योग पर 31,116 करोड़ रुपये तथा पशुपालन पर 4,453 करोड़ रुपये का निवेश तय हुआ है। कहा जा रहा है कि कुछ ही समय बाद उत्तर प्रदेश डेयरी उद्योग में देश का अग्रणी राज्य होगा, जो कि प्रदेश के 72,000 से अधिक युवाओं को रोज़गार प्रदान करेगा।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देशों के अनुसार, इन दोनों उद्योगों को स्थापित करने के लिए पशुपालन विभाग के मार्गदर्शन में पाँच सदस्यीय समिति कार्य में जुट गयी है। यह समिति सुनिश्चित करेगी कि डेयरी उद्योग में 1051 तथा पशुधन क्षेत्र में 1432 निवेश प्रस्तावों को शीघ्र ही भुनाया जाए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश हैं कि सभी उद्योगों के लिए मिले निवेश प्रस्तावों पर तीव्रता से कार्य हो, ताकि प्रदेश की आय के रास्ते खुलें। राज्य के पशुधन एवं दुग्ध विकास मंत्री धर्मपाल सिंह डेयरी उद्योग तथा पशुपालन में सुगमता के लिए जुट गये हैं। प्रदेश में विभिन्न उद्योगों की स्थापना के लिए औद्योगिक विकास विभाग और निवेशक उत्तर प्रदेश दल विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों की समितियों की मदद करेंगे।

भले ही यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट-2023 में निवेशकों ने निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में कृषि, पशुपालन, डेयरी उद्योग, अक्षय ऊर्जा तथा अन्य कई औद्योगिक क्षेत्रों में निवेश करने की रुचि दिखाकर प्रदेश के युवाओं में एक नयी आशा जगायी है; मगर इससे प्रदेश के सभी या अधिकतर युवाओं को नौकरी मिलना सम्भव नहीं है। कहा जा रहा है कि इस उद्योग से लगभग 72,000 नौकरियाँ युवाओं को मिलेंगी।

यह ऊँट के मुँह में जीरा ही है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में लगभग 3.42 करोड़ युवा हैं। इतनी बड़ी संख्या में 72,000 को नौकरी मिलने का अर्थ है 1,000 से अधिक युवाओं में दो युवाओं को नौकरी मिलना।

बंद हो चुके अनेक उद्योग

उत्तर प्रदेश में स्वतंत्रता के पहले तथा बाद के कुछ दशकों में खुले सैकड़ों उद्योग बन्द हो चुके हैं। बन्द होने वाले उद्योगों में निजी तथा सरकारी दोनों ही के उद्योग सम्मिलित हैं। अगर केवल दो जनपदों बरेली तथा पीलीभीत की बात करें, तो यहाँ के लगभग 70 प्रतिशत उद्योग पिछले चार दशकों के अंदर बन्द हो चुके हैं। बरेली का फर्नीचर उद्योग, पतंग उद्योग में अब पहले जैसा उछाल नहीं रहा है। बरेली के पश्चिमी फ़तेहगंज में बनी रबड़ फैक्ट्री, कई प्लाई कम्पनियाँ, कत्था फैक्ट्री, सरकारी चीनी मिलें, साइकिल कम्पनियाँ, काग़ज़ फैक्ट्रियाँ या तो बन्द हो चुकी हैं या बन्द होने की दशा में हैं। ऐसे ही पीलीभीत के कई औद्योगिक संस्थान आज वीरान पड़े हैं।

दुर्भाग्य की बात यह है कि प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा, सपा तथा बसपा इन सभी पार्टियों की सरकारें बनी हैं; मगर किसी भी पार्टी की सरकार में चार दशक के अंदर बन्द होने वाले उद्योगों को दोबारा चालू करने के सार्थक प्रयास नहीं हुए। सन् 2007 से सन् 2012 तक जब बसपा की सरकार बनी थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह ही प्रदेश में नये उद्योगों की स्थापना के प्रयास किये थे, जो सफल नहीं हुए। मगर उन्होंने भी बन्द पड़े उद्योगों को दोबारा चालू करने में कोई विशेष रुचि नहीं दिखायी।

सबसे बड़ी चुनौतियाँ

उत्तर प्रदेश में नये उद्योगों की स्थापना में सबसे बड़ी चुनौती भूमि है। किसान कृषि योग्य भूमि देना नहीं चाहते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की भूमि तो कृषि के लिए अति उत्तम मानी जाती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भूमि अधिग्रहण के $कानूनों को सरल करने का प्रयास किया है। वर्तमान केंद्र सरकार ने भी यह प्रयास किया है। मगर किसान आसानी से अपनी उपजाऊ भूमि देना नहीं चाहेंगे। अगर सरकार पुराने बन्द पड़े औद्योगिक संस्थानों की भूमि का अधिग्रहण करे, तो उसके लिए आसानी भी हो सकती है तथा कृषि योग्य भूमि भी ख़राब नहीं होगी। प्रदेश में औद्योगिक इकाइयाँ लगाने के लिए बाहर से निवेशक तो आ चुके हैं; मगर चुनौतियों से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को तैयार रहना होगा। कमुआँ निवासी नंदराम मास्टर कहते हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश में उद्योगों की स्थापना के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वो अत्यधिक सराहनीय हैं मगर उद्योगों को स्थापित करने में चुनौतियों से निपटने पर उन्हें ध्यान देना होगा।

पहली चुनौती तो यही है कि प्रदेश में औद्योगिक नीतियों को सुगम बनाना होगा, ताकि प्रदेश के लोग भी उद्योग स्थापति करने के लिए आगे आ सकें। अधिकारियों को ईमानदार तथा सहयोगी बनाने की दिशा में कार्य करने की अत्यधिक आवश्यकता है। क्योंकि देखा जाता है कि कोई व्यक्ति किसी कार्य को आरम्भ करने के लिए लाइसेंस लेने जाए, तो उसे सम्बन्धित विभाग अधिकारियों तथा कर्मचारियों को रिश्वत तक देनी पड़ती है। अगर इच्छुक व्यक्ति ऐसा नहीं करता, तो उसे लाइसेंस नहीं मिलता।

प्रक्रिया हो सरल, बिजली हो सस्ती

प्रदेश में उद्योग अथवा दूसरे व्यवसायों को स्थापित करने के लिए प्रक्रिया सरल होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त सरकार तथा प्रशासनिक अधिकारियों को बिना किसी भेदभाव के लोगों को व्यवसाय स्थापित करने के लिए उनका सहयोग करना होगा। मीरगंज क्षेत्र के बड़े व्यापारी प्रकाश कहते हैं कि उद्योगों की स्थापना के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए। मगर आज भी प्रदेश में उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को अपना व्यवसाय चलाने के लिए कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यवसायी कोई व्यवसाय कर रहा है, तो उसे उसके व्यवसाय से सम्बन्धित विभाग की कई प्रक्रियाएँ इतनी जटिल होती हैं कि उनसे पार पाना आसान नहीं होता।

इसके अतिरिक्त व्यवसाय के लिए बिजली महँगी पड़ती है। भारी भरकम जीएसटी तथा तमाम तरह के सुविधा शुल्क व्यापारियों को भरने पड़ते हैं। इस ओर भी सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है। कहने का अर्थ यह है कि प्रदेश में उद्योग तथा व्यवसाय स्थापित करने तथा उन्हें चलाने के लिए प्रक्रिया सरल होनी चाहिए, ताकि व्यापारियों को अपने प्रतिष्ठान चलाने में सुगमता हो सके।

पशु पालन नहीं आसान

उत्तर प्रदेश में डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए पशुधन पालन की आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए गोपालन को योगी आदित्यनाथ सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही बढ़ावा देने में लगी है। योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के उपरांत प्रदेश में कई गोशालाएँ स्थापित हुई हैं। अब प्रदेश में कई सरकारी तथा निजी गौशालाएँ हैं। अब एक बार पुन: योगी आदित्यनाथ सरकार गोसंरक्षण और गोपालन को बढ़ावा देने के लिए गोपालन की इच्छुक स्वयंसेवी संस्थाओं एवं लोगों को लीज पर 25 से 30 एकड़ नि:शुल्क भूमि मुहैया कराने की योजना बना रही है। मगर दुधारू पशुओं का पालन इतना आसान नहीं है। इसका कारण चारे वाली फ़सलों की कमी, चोकर तथा वाटे पर बढ़ी महँगाई, पशुओं को चराने के लिए मैदानों का न होना आदि है। इसके अतिरिक्त एक चुनौती यह है कि दूध का भाव बहुत कम है। दुग्ध कम्पनियाँ किसानों से 32 से 38 रुपये प्रति लीटर जिस दूध का क्रय करती हैं, उसकी क्रीम खींचकर भी 60 रुपये प्रति लीटर से अधिक में उसकी बिक्री करती हैं।

दुग्ध उत्पादन की सच्चाई

समाचारों के अनुसार उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक प्रदेश है। कहा जाता है कि देश में होने वाले कुल दुग्ध उत्पादन का 16.60 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन अकेले उत्तर प्रदेश में होता है। सरकारी आँकड़े कहते हैं कि वर्तमान में प्रदेश में प्रतिदिन 8.72 करोड़ लीटर से अधिक दुग्ध उत्पादन हो रहा है, जिसमें से 48 प्रतिशत खपत प्रदेश में है, तथा शेष 52 प्रतिशत दूध दूसरे प्रदेशों को निर्यात होता है।

सरकारी आँकड़ों की मानें, तो पिछले पाँच वर्षों में उत्तर प्रदेश में 20 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन बढ़ा है। अब योगी सरकार उत्तर प्रदेश में दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए 1,000 करोड़ रुपये का निवेश करेगी। इसके अतिरिक्त निवेशकों द्वारा 35,569 करोड़ डेयरी उद्योग तथा पशुपालन के लिए व्यय किये जाएँगे। इससे अनुमानित तौर पर दुग्ध उत्पान डेढ़ से दो गुना होने की आशा है। वर्तमान में प्रदेश में 110 डेयरी प्लांट लगे हैं। इनमें 13 डेयरी प्लांट सरकारी तथा शेष 97 निजी डेयरी प्लांट हैं। लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, इसे जानने के लिए गाँवों में पशुपालकों से जानकारी सरकार को लेनी चाहिए।

गंगाराम नाम के एक पशुपालक ने बताया कि 8-10 साल पहले उनके पास चार-पाँच भैंसें थीं, मगर अब दो ही हैं। रामसेवक नाम के पशुपालक बताते हैं कि उनके बचपन में उनके घर में 10-15 गायें पलती थीं, मगर अब एक ही गाय है घर में दूध के लिए। एक पशुपालक ने बताया कि अब पशु पालना आसान भी नहीं है तथा गोरक्षा की मुहिम के बाद लोगों ने गाय पालनी कम कर दी हैं। प्रदेश में सन् 2012 की तुलना में सन् 2019 में गोवंश की संख्या में 3.93 प्रतिशत की कमी आ चुकी थी। इन चुनौतियों को देखते हुए स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में दूध की नदियाँ बहाना उतना आसान नहीं है, जितना मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मानकर चल रहे हैं। अपना सपना पूरा करने के लिए उन्हें धरातल पर उतरकर पहले उन समस्याओं से निपटना होगा, जो पशुपालकों के सामने खड़ी हैं।

ख़ुद की तलाश में बशीर बद्र

तालियों की गूँज और वाह-वाह के साथ आज भी जी रहे मशहूर शायर

याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम

कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम

अब हमें देख भी न पाओगे

इतने नज़दीक आ रहे हैं हम

सब कुछ भुला चुके बशीर बद्र आज भी तालियों की गूँज और वाह-वाह की आवाज़ के साथ ही जी रहे।

बशीर बद्र ने 70 के दशक में एक ग़ज़ल लिखी, जिसका मतला और एक शे’र कुछ यूँ थे- ‘याद अब ख़ुद को आ रहे हैं हम

कुछ दिनों तक ख़ुदा रहे हैं हम

अब हमें देख भी न पाओगे

इतने नज़दीक आ रहे हैं हम’

यह मतला और शे’र कभी महफ़िलों की शान रहे मशहूर शायर पद्मश्री बशीर बद्र के जीवन की सच्चाई बन चुका है। अब डिमेंशिया (मतिभ्रम) बीमारी के चलते न वह वर्षों से शायरी कर रहे हैं और न मंचों पर दिखते हैं। हालाँकि उनके शे’र लोगों के ज़ेहन में आज भी ताज़ा हैं। बशीर बद्र इन दिनों भले ही ख़ुद को भी न पहचान रहे हों; लेकिन वह ख़ुद को ही याद करने का प्रयास कर रहे हों।

बशीर बद्र का इलाज कर रहे रांची के न्यूरो के डॉक्टर उज्ज्वल कहते हैं कि पद्मश्री बशीर बद्र डिमेंशिया रोग से ग्रसित हैं। वह सब कुछ भूल चुके हैं; लेकिन आज भी उन्हें तालियों की गूँज और वाह-वाह का इंतज़ार है। अगर कभी चेहरे पर मुस्कान आती है और मुँह से कुछ शब्द निकलते हैं, तो वह शायराना अंदाज़ में ‘वाह-वाह’ ही होती हैं।

हज़ारों लोग डिमेंशिया से ग्रसित

चिकित्सा विज्ञान के पास डिमेंशिया या अल्जाइमर के कारणों का अभी तक निश्चित उत्तर नहीं है। इसे आनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों का संयोजन माना जाता है, जो ज़्यादातर बुजुर्गों को प्रभावित करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन अनुसार, दुनिया भर में डिमेंशिया रोग के शिकार मरीज़ों की संख्या 5.5 करोड़ से ज़्यादा है। इसमें अल्जाइमर आम है। वर्ष 2030 तक यह संख्या 7.8 करोड़ होने की संभावना है। वहीं, वर्ष 2050 तक दुनिया भर में इस बीमारी के शिकार मरीज़ों की संख्या 13.9 करोड़ से भी ज़्यादा हो सकती है। इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि डिमेंशिया या अल्जाइमर की बीमारी किस हद तक बढ़ रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। भारत की अगर बात की जाए, तो डिमेंशिया या अल्जाइमर के मरीज़ 60 लाख से अधिक हैं। वर्ष 2050 तक यह संख्या 1.40 करोड़ होने की संभावना है।

बीमारी के दुष्प्रभाव

विशेषज्ञों का कहना है कि डिमेंशिया और अल्जाइमर से ब्रेन की महत्त्वपूर्ण कोशिकाएँ मर जाती हैं। जिस कारण इंसान की याददाश्त कमज़ोर हो जाती है। इस बीमारी के लक्षण 50-60 साल की उम्र में दिखने लगते हैं। 80-85 साल की उम्र में चीज़ों को भूलना आम बात है। दुनिया में बुजुर्गों की आबादी बढऩे के साथ डिमेंशिया भी अपने पाँव पसार रही है। डॉक्टर उज्ज्वल कहते हैं कि डिमेंशिया बीमारी इंसान के सोचने और समझने की शक्ति को $खत्म कर देती है और उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है। बशीर बद्र भी लोगों को पहचानने से लेकर अन्य बातों को भूल चुके हैं और लगभग बिस्तर पर हैं।

ग़ज़ल गायक हैं बशीर के डॉक्टर

झारखण्ड की राजधानी रांची में रहने वाले डॉक्टर उज्ज्वल राय ख़ुद ग़ज़ल गायक हैं। उन्होंने बताया कि ग़ज़ल का शौक़ ही उन्हें बशीर बद्र के नज़दीक ले आया। उन्होंने कहा कि ग़ज़ल के कारण मैं दिल्ली और मुंबई के म्यूजिक डायरेक्टर्स, कवियों, शायरों और जगजीत सिंह, शैलेंद्र सिंह जैसे गायकों के सम्पर्क में आया। इसी शौक़ ने मुझे बशीर बद्र तक पहुँचा दिया। दो साल पहले उनसे बात करने की कोशिश की, तो पता चला वह डिमेंशिया से ग्रसित हैं। मैंने उनका ऑनलाइन ही इलाज शुरू किया। फिर देखा की कुछ फ़ायदा हो रहा, तो भोपाल भी जाने लगा।

88 साल के हुए बशीर बद्र

15 फरवरी डॉ. बशीर बद्र का 87वाँ जन्मदिन था। वह 15 फरवरी, 1936 को कानपुर में हुआ था। भोपाल में रहने वाले बशीर बद्र का पैदाइशी नाम सैय्यद मोहम्मद बशीर है। साहित्य और नाटक अकादमी में किये गये योगदान के लिए उन्हें सन् 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। वह दुनिया के दो दर्ज़न से ज़्यादा देशों में मुशायरे में शिरकत कर चुके हैं।

वह आम आदमी के शायर हैं और ज़िन्दगी की आम बातों को बेहद ख़ूबसूरती और सलीक़े से अपनी ग़ज़लों में कह जाना बशीर बद्र की ख़ासियत रही है। उन्होंने ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया। यही वजह है कि उन्होंने श्रोता और पाठकों के दिलों में अपनी ख़ास जगह बनायी है। बशीर बद्र के जन्मदिन के मौक़े पर डॉक्टर उज्ज्वल भी भोपाल गये थे। उन्होंने बशीर बद्र की ग़ज़लों को संगीत के साथ अपनी मखमली आवाज़ में पिरोकर एल्बम के रूप में इस मशहूर शायर को जन्मदिन का ख़ूबसूरत तोहफ़ा दिया।

लोगों के साथ की ज़रूरत

डॉक्टर उज्ज्वल ने कहा कि जब मैंने बशीर बद्र का इलाज शुरू किया, तो वह लगभग बिस्तर पर (बेड रीडेन) थे। न कुछ बोलना, न कुछ याद आना। न किसी को पहचानना और न ही कुछ करना। शे’र-ओ-शायरी तो दूर की बात थी। डिमेंशिया में यही सब होता है। धीरे-धीरे लोग खाना-पीना, मल-मूत्र त्याग करना आदि भी भूल जाते हैं। बशीर बद्र उस स्थिति में नहीं पहुँचे थे। इसलिए मुझे कुछ उम्मीद दिखी। बशीर बद्र एक मशहूर शायर हैं। वह हमेशा लोगों से घिरे रहते होंगे। शेरो-शायरी करते रहते होंगे। शायरी उनकी रगों में दौड़ती है। कभी कुछ बोलने का प्रयास करते, तो कहते- ‘हमें और कितनी दूर जाना है, अब हमारा सफ़र कितना बाक़ी है।’

दवा के साथ-साथ मैंने इसी शायरी को उनके इलाज का ज़रिया बनाया। अभी इलाज करते हुए बहुत वक़्त नहीं हुआ है। लेकिन उनमें धीमी गति से ही सही, बेहतरी दिख रही है। इस बार बशीर साहेब के जन्मदिन के मौक़े पर जैसे ही मैं भोपाल उनके पास पहुँचा, तो मुझे देखते ही शायराना अंदाज़ में कहा- वाह! वाह!! आइए-आइए, …विराजिये।

उनकी 88 की उम्र है। एक लम्बे समय से डिमेंशिया से ग्रसित हैं। यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह पूरी तरह ठीक हो जाएँगे और पहले की तरह शायरी कर लगेंगे। लेकिन उम्मीद है कि काफ़ी हद तक ठीक हो जाएँगे। उन्हें गुमनामी नहीं, लोगों की साथ की ज़रूरत है। वह लोगों से घिरे रहना चाहते हैं, जो उनकी सेहत में सुधार का मुख्य ज़रिया बनेगा।

कैसे होगा डिमेंशिया का निदान?

डिमेंशिया के निदान पर ध्यान देने की ज़रूरत है। अगर आप फोन उठाने, खाना खाने से लेकर छोटी-छोटी चीज़ें तक भूल रहे हैं, तो इसे हल्के में न लें और फ़ौरन डॉक्टर से सम्पर्क करें। विशेषज्ञ कहते हैं कि डिमेंशिया वाले 90 फ़ीसदी लोगों का उपचार या निदान कभी नहीं किया जाता है। देश में डिमेंशिया स्क्रीनिंग के लिए पर्याप्त क्लीनिक नहीं हैं। इसलिए इस बीमारी का निदान नहीं हो रहा है। एक तो लोग इसके प्रति जागरूक नहीं हैं। दूसरी शुरुआती इलाज में देरी हो रही है। भारत को एक राष्ट्रीय डिमेंशिया रणनीति की आवश्यकता है, जो हमें इस स्वास्थ्य समस्या से बेहतर तरीक़े से लडऩे के लिए तैयार करे।

हवस में डूबा एक प्रोफेसर

राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, कोटा के प्रोफेसर गिरीश परमार ने गुरु-शिष्य परम्परा की जो धज्जियाँ उड़ायी हैं, उससे इस रिश्ते में हैवानियत और दरिंदगी की बदबू आने लगी है। उसने जब मधुलिका (कल्पित नाम) को अपने घर बुलाकर कामयाबी का लालच देकर बिस्तर पर ले जाकर उसके साथ दुराचार करना चाहा, तो वह चीखते हुए झटके के साथ उठी और दरवाज़े की तरफ़ यह कहते हुए दौड़ पड़ी- ‘मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी मेहरबानियाँ।’

एक प्रख्यात शैक्षणिक संस्थान को अपने ग़लीज़ खुरों से रौंदता हुआ प्रोफेसर की नक़ाब ओढ़े वहशी दरिंदा इस तरह से महीनों तक मासूम लड़कियों की अस्मत रौंदता रहा। उसकी करतूतों को जानकर भी संस्थान का प्रशासन अनजान बना रहा। आख़िर इस अंतहीन अत्याचार का अँधेरा छँटने की नौबत तब आयी, जब कुछ लड़कियों ने हौसला दिखाते हुए पुलिस के दरवाज़े पर दस्तक दी। कोटा स्थित राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय की चर्चा अपनी शैक्षणिक विश्वसनीयता और उच्च कोटि के ज्ञानार्जन के लिए होती है। लेकिन इसकी साख और धवलता को प्रोफेसर गिरीश परमार ने इस क़दर कलंकित कर दिया कि लोग इसके नाम से भी थर्राने लगे। इस प्रोफेसर ने विश्वविद्यालय को अय्याशी का अड्डा बना दिया। नंबर देने के नाम पर अपनी बेटी की उम्र की छात्राओं की अस्मत का सौदा करने लगा। इस सौदेबाज़ी की ख़ातिर उसने छात्र-छात्राओं में ही बिचोलिए खड़े कर दिये।

पीडित छात्राओं ने पुलिस को रोंगटे खड़े कर देने वाली आपबीती बतायी। प्रोफेसर की दरिंदगी की चपेट में आयी एक छात्रा तो इस क़दर बदहवास हो गयी कि आत्महत्या का मन बना बैठी। प्रोफेसर के ख़ौफ़ के आगे छात्र अर्पित और छात्रा ईशा इसके दलाल बन गये। विश्वविद्यालय में इलेक्ट्रॉनिक और कम्युनिकेशन के सिक्स्थ सेमेस्टर की एक छात्रा छाया (कल्पित नाम) मुश्किल में फँस गयी, तो उसने अर्पित से सम्पर्क किया। अर्पित पहले उसे वीराने में ले गया, वहाँ कार में रखी उसकी कॉपियाँ दिखायीं। फिर बोला- ‘पास होना है, तो इन कॉपियों में ठीक से लिख लेना।’ छात्रा ने पूछा- ‘मुझे कितने पैसे देने पड़ेंगे?’ अर्पित ने धीरे-धीरे उससे प्रोफेसर गिरीश परमार से शारीरिक रिश्तों की अपील कर डाली। ग़ुस्से से आगबबूला हुई छाया अर्पित पर झपट पड़ी और उसे कोसते हुए बोली- ‘तू शरीफ़ों की दुनिया में कैसे आ गया?’ अपमान से भन्नाया हुआ अर्पित यह कहकर भागा- ‘तो फिर देख लेना इसका नतीजा।’ डर्टी प्रोफेसर परमार के इस खेल में बिचौलिया बने अर्पित और ईशा यादव भी कम शातिर नहीं थे। परमार के साथ होने वाली तमाम बातें रिकॉर्डिंग करते रहे। संभवत: उन्हें अंदेशा रहा होगा कि कभी वे फँस गये, तो अपने बचाव के लिए उन्हें यह रिकॉर्डिंग मददगार साबित हो सकती है। डर्टी परमार की गंदी बातें इतनी दरिंदगी से भरी थीं कि शरीफ़ आदमी सुन भी न सके। हालात ये कि परमार एक महिला प्रोफेसर तक पर गंदी नज़र रखे हुए था और बिचौलिया बने छात्र अर्पित से भी उसके साथ दरिंदगी करने को उकसाता था।

दूसरी बिचोलिया छात्रा ईशा यादव से कहता है कि वह नयी-नयी लड़कियों को फँसाकर उसके आगे दरिंदगी के लिए परोसे। परमार अपने घर से लेकर सेमेस्टर लेब तक को कुकर्म का अड्डा बना चुका था। अर्पित और ईशा जाल में फँसाकर छात्राओं को फँसाकर प्रोफेसर परमार तक लाते और पिज्जा लेने या दूसरे किसी बहाने से ग़ायब हो जाते। लडक़ी राज़ी हो या न हो, परमार के पिंजरे में आयी लडक़ी बच जाए, ये बहुत मुश्किल था। बाद में वह उस मसली-कुचली छात्रा को अर्पित को भी समर्पित करता। सब पास करने और फेल करने का भँवर जाल बनाकर होता था। कुछ छात्राएँ आसानी से फँस जातीं, तो कुछ जबरदस्ती का शिकार होती रहीं।

पुलिस के पास गंदी और नीचता की 50 रिकार्डिंग्स हैं। परमार के पास से भी पुलिस को 70 से ज़्यादा अश्लील वीडियो मिले हैं। साथ ही 4,200 से अधिक डीपी, छात्राओं व स्टाफ के कई फोटो और 80 से ज़्यादा स्क्रीन शॉट भी बरामद किये हैं। अर्पित तथा ईशा की गिरफ़्तारी के बाद बौखलाया हुआ प्रोफेसर इस क़दर भडक़ उठा कि अपने इन दलालों को अनाप-शनाप बकने लगा। सीआर का चुनाव हारने के बाद ईशा ने लड़कियों से बदला लेने का मन बनाकर इस गंदगी में क़दम रख दिया था। मामले के जाँच अधिकारी डीएसपी अमर सिंह राठौर का कहना है कि छात्राओं को पास कराने की एवज़ में शारीरिक सम्बन्ध के लिए दबाव डालने, एससी, एसटी एक्ट तथा जालसाज़ी और परीक्षा अधिनियम की धारा के तहत परमार और बिचौलियों को गिरफ़्तार किया गया है। फ़िलहाल तीनों आरोपी न्यायिक अभिरक्षा में है। इधर, परमार के ख़िलाफ़ विश्वविद्यालय प्रशासन ने सख़्त क़दम उठाते हुए क़दम छात्रों और शिक्षकों के बीच मुखबिरों का जाल बिछा दिया है। वहीं महिला आयोग ने तीन सदस्यीय टीम का गठन किया है, जो तथ्यों की परख करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

एक कक्षा की एक दर्ज़न छात्राएँ सीधे-सीधे परमार के निशाने पर थीं। बची हुई छात्राओं को वह निशाना बनाना चाहता था। अमिता (कल्पित नाम) ने बयान दिया है कि अर्पित ने उसे परमार की बात न मानने पर ज़िन्दगी भर पास न हो सकने की धमकी दी थी। उसने कहा- ‘तू (अमिता) सर (परमार) से रिश्ते बनाने पर ज़िन्दगी भर राज करेगी।’ अनामिका (कल्पित नाम) नाम की छात्रा का ने अर्पित को भी दरिंदा बताया। डर्टी परमार न केवल उसकी बात न मानने वाली छात्राओं फेल कर चुका है, बल्कि ऊँचे ओहदेदारों से अपने सम्बन्धों के दम पर 18 अध्यापकों की तरक़क़ी भी रुकवा चुका था। क़रीब दो दर्ज़न छात्राओं ने अनुसंधान के मामले में परेशान किये जाने पर उसकी शिकायत राज्यपाल से भी की; लेकिन परमार का बाल भी बाँका नहीं हुआ।

मुख्य आरोपी प्रोफेसर गिरीश परमार और दूसरा आरोपी छात्र अर्पित

एक महिला प्रोफेसर ने यहाँ तक कहा है कि उसने जब परमार के सम्बन्ध बनाने से इन्कार किया, तो उसे 14 साल तक एमटेक नहीं करने दिया। परमार की नीचता की हद यह थी कि उसने एक बार मौक़ा देखकर एक महिला कर्मचारी को एकाएक दबोच लिया था। एक महिला लेक्चरर पर भी वह एक बार वहशी दरिंदे की तरह झपट पड़ा था। घटना के बाद जब उस लेक्चरर का पति और देवर उसे धमकाने पहुँचे, तो परमान ने उन्हें उल्टा धमकाते हुए कहा- ‘मुझे कम मत समझाना। 500 रुपये देकर तुम्हारे बीवी को उठवा लूँगा। विश्वविद्यालय प्रशासन के पास भी इसकी शिकायत पहुँची; लेकिन परमार का कुछ नहीं हुआ। सूत्रों की मानें, तो परमार अय्याशी के लिए देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा बैंकॉक और आईलैड तक जाता था। छात्राओं के अलावा कॉल गल्र्स बुलाता था। पैसे की उसे कोई कमी नहीं थी। शायद पैसा उसे उन रसूख़दारों से भी मिलता हो, जिनसे उसके गहरे रिश्ते थे। ज़ाहिर है छात्राओं को फँसाकर वह कहीं और भी उनका ग़लत इस्तेमाल करता होगा।

हालाँकि अभी तक इस बात का ख़ुलासा नहीं हुआ है। लेकिन यह कोई बड़ी बात भी नहीं कि ऐसा हो। परमार की मोबाइल में ऐसी कई कॉल गल्र्स की तस्वीरें मिली हैं। उसके खेल में प्रोफेसर राजीव गुप्ता भी शामिल था। एक महिला संविदाकर्मी ने जब परमार पर आरोप लगाया, तो परमार की पैरोकार राजीव की पत्नी भारती उल्टा संविदाकर्मी पर ही दुश्मनी निकालने का आरोप लगाने लगी। छात्राओं का कहना है कि प्रोफेसर परमार सैक्स साइको है और वहशी भेडिय़े की तरह विश्वविद्यालय की छात्राओं की अस्मत को रौंद रहा था। फ़िलहाल राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय में छात्राओं को पास करने की एवज़ में सम्बन्ध बनाने को मजबूर करने के मामले में पुलिस ने 4,000 पन्नों की चार्जशीट तैयार कर ली है, जिसे जल्द ही अदालत में पेश किया जाएगा। इस मामले में 30 से अधिक गवाहों, पूर्व व वर्तमान छात्राओं के बयान लिये गये हैं। वहीं छठवें सेमेस्टर की 34 कॉपियाँ भी ज़ब्त की हैं। पुलिस ने चार्जशीट में सात छात्राओं के बयान दर्ज किये हैं। आरटीयू के कुलसचिव, रजिस्ट्रार, परीक्षा नियंत्रक हित अन्य स्टाफ के बयान शामिल है। पुलिस ने गिरीश परमार, अर्पित और ईशा की कॉल डिटेल्स भी निकलवायी हैं।

डीएसपी अमर सिंह ने बताया कि पुलिस को क़रीब 50 से अधिक ऑडियो मिले थे। इनमें छात्रा-प्रोफेसर, और पीडि़ता दोनों स्टूडेंटस के बीच बातचीत है। इनमें प्रोफेसर सभी के लिए अभद्र भाषा का बोल रहा है। कुल 30 ऑडियो की जाँच हो रही है। इनमें पूरी ट्रांस स्क्रिप्ट तैयार की है। हालाँकि तीनों आरोपियों ने वॉयस सैंपल देने से इन्कार कर दिया था। पुलिस ने इन्हें एफएसएल लैब भेजा है। इससे आगे मामले में मदद मिलेगी।

आदि महोत्सव और आदिवासियों की ज़मीनी ज़िन्दगी

PM at the inauguration of ‘Aadi Mahotsav’ at Major Dhyan Chand National Stadium, in New Delhi on February 16, 2023.

जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए सैकड़ों वर्षों से संघर्षरत प्रकृतिवादी आदिवासी समाज आज भी ग़रीबी, अशिक्षा, कुपोषण और आवश्यक ज़रूरतों से वंचित है। सरकार आदिवासी समाज के सच्चे देशप्रेम की भावना को समझना नहीं चाहती है यहीं कारण है कि सरकार की विकास योजनाओं के लाभ से आज भी आदिवासी समुदाय वंचित है।

उल्टे सरकार ही आदिवासी समाज के जल, जंगल, ज़मीन को लूटने में उद्योगपतियों की सहयोग करने लगी है। आदिवासी अंग्रेजी शासन के दौरान भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे और आज भी लड़ रहे हैं। आदिवासी समुदाय से भारत के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर महामहिम द्रौपदी मुर्मू के विराजमान होने पर बेशक आदिवासी लोगों को लगता हो कि उनके समाज, संस्कृति और जल जंगल ज़मीन की रक्षा होगी; लेकिन इसकी उम्मीदें कम ही हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि आदिवासी समाज जिन जंगलों को, ज़मीनों को सुरक्षित रखना चाहता है, उन्हें सदियों से उनसे जबरन छीने जाने में और उनके घरों को उजाडऩे में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ही मुख्य भूमिका है। उद्योगपति सरकार की मिलीभगत से ही आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन छीनकर उनकी ज़िन्दगी को तबाह कर देते हैं। आदिवासियों के ऊपर ऐसे अत्याचार की सैकड़ों सच्ची घटनाएँ न सिर्फ़ बेचैन करती हैं, बल्कि सच्चे देशप्रेमी आदिवासियों के प्रति सरकार के ग़ैर-जिम्मेदार रवैये को भी दर्शाती हैं। 

हाल ही में आदिवासी समुदाय के प्रोत्साहन और जनजातीय संस्कृति, शिल्प, खान-पान, वाणिज्य, पारम्परिक कला को प्रदर्शित के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आदि महोत्सव का आयोजन केंद्र सरकार द्वारा किया गया। इस महोत्सव का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इस पूरे कार्यक्रम में जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा उनके साथ रहे। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी महानायक बिरसा मुंडा को श्रद्धांजलि देने के बाद अपने भाषण में आदिवासियों की संस्कृति की तारीफ़ की और अपनी सरकार में उनके विकास के दावे किये। उन्होंने आदिवासी समाज का हित व्यक्तिगत बताया। उन्होंने एक बात पूरी तरह सही कही कि आज भारत विश्व को बताता है कि अगर आपको जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौतियों का समाधान चाहिए, तो आदिवासियों की जीवन परम्परा देख लीजिए, आपको रास्ता मिल जाएगा।

विश्व की बात तो छोडि़ए, प्रश्न यह है कि भारत में कितने लोग आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को समर्थन दे रहे हैं और कितने लोग आदिवासियों के साथ मिलकर प्रकृति को, जल जंगल ज़मीन को बचाना चाहते हैं? बड़े-बड़े पूँजीपति, माफिया, तस्कर सरकारों के साथ मिलकर उन्हीं आदिवासियों को कुचल रहे हैं, जो आदिवासी दुनिया को प्रकृति से जुडक़र जीना सिखा रहे हैं। इन समुदायों की ज़मीनी ज़िन्दगी बिल्कुल सीधी-सादी और प्रकृतिवादी होती है, इसके बावजूद भी इन पर अत्याचार ग़ुलामों और आतंकवादियों की तरह किया जाता है। आज भी सीधे-साधे आदिवासियों को नक्सली ठहराकर उन पर दिल दहला देने वाले अत्याचार किये जाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास से आदिवासियों के शिल्प, कला और संस्कृति को बढ़ावा ज़रूर मिलेगा, किन्तु क्या आदिवासियों की उन समस्याओं का समाधान हो सकेगा, जिनके लिए वे सदियों से संघर्ष कर रहे हैं?

जल, जंगल, ज़मीन का संघर्ष

आदिवासियों के लिए अपने आस्तित्व जल, जंगल, ज़मीन को बचाने की चुनौती सबसे बड़ी है। कभी नौकरी का झाँसा देकर, कभी मुआवज़े का झाँसा देकर, तो कभी तरक़्क़ी के नाम पर जबरन आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जाती रही हैं, उनकी बस्तियाँ उजाड़ी जाती रही हैं। आदिवासी इलाक़ों में माइनिंग, जंगलों का कटान, भू-संसाधनों का दोहन जिस गति से पिछले 75 वर्षों में हुआ है, उसने सीधे-साधे आदिवासियों की ज़िन्दगी तहस-नहस कर दी है। सुविधाओं के मामले में आदिवासियों से सरकारों का सौतेला व्यवहार किसी से छिपा नहीं है।

भाषा और संस्कृति के लिए संघर्ष

भारत में सभी आदिवासी समुदायों की अपनी भाषा, रीति-रिवाज, अपनी संस्कृति, अपना जीवन दर्शन हैं। लेकिन ये मुख्यत: तीन भाषाई समुदायों में बांट दी गयी हैं- गोंडी, द्रविड़, आस्ट्रिक। किन्तु भीली, संताली, मुंडारी, हो, कुड़ुख, खडिय़ा, बोडो, डोगरी, टुलु, हलबी और सादरी जैसी भाषाएँ आदिवासियों की देन हैं। भारत की 114 मुख्य भाषाओं में से 22 को ही संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है, जिनमें दो आदिवासी भाषाएँ- संताली और बोड़ो ही आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों के आदिवासी आज भी अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। इसी तरह आदिवासी अपनी संस्कृति-सभ्यता को बचाने की लड़ाई आज़ादी से पहले से कर रहे हैं। आज़ादी के बाद उन्हें सांस्कृतिक संरक्षण मिलना चाहिए, किन्तु आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बावजूद आदिवासी समाज संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज़ को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

ओडिशा का आदिवासी मेला

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में वार्षिक राज्य स्तरीय आदिवासी मेला भी 20 फरवरी, 2023 से 1 मार्च, 2023 तक लगा है। इस बार इस मेले में टीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी, माइक्रो प्रोजेक्ट्स, मिशन शक्ति, ओडिशा रूरल डेवलपमेंट एंड मार्केटिंग सोसायटी, ट्राइबल डेवलपमेंट को-ऑपरेटिव कॉरपोरेशन शामिल रहे। इस मेले में लगे 100 स्टॉलों में से 80 पर आदिवासी संस्कृति की झलक दिखी।

तरह-तरह की परेशानियों और संघर्षों के बीच सीधी-सादी ज़िन्दगी जी रहे ओडिशा के आदिवासी आज भी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। आज़ादी के 75 वर्षों में न तो उन्हें मुख्यधारा में लाया गया है और न ही उनका अपना अस्तित्व सुरक्षित है। ओडिशा के दक्षिणी पश्चिमी ज़िलों कालाहांडी और रायगढ़ में 250 वर्ग किलोमीटर में फैली नियामगिरी पर्वत शृंखला को बचाने के लिए यहाँ के आदिवासी संघर्षरत हैं। इस पर्वत पर डोंगरिया कोंध नाम के आदिवासी रहते हैं। डोंगरिया नियामगिरी पर्वतों को अपना पूर्वज और सबसे पहला राजा पेनु कहते हैं। प्रकृति प्रेमी आदिवासी इस पर्वत को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाते हैं। स्थानीय प्रशासन और पुलिस की शह पर इन आदिवासियों पर माइनिंग, जंगलों के कटान और भू संसाधनों के दोहन के लिए लगातार अत्याचार होते रहते हैं। इनके संघर्ष में न तो कोई राजनीतिक पार्टी शामिल है और ना ही वे लोग जो अपने को प्रकृति प्रेमी कहते हैं।

क़ीक़त में कोई सुधार नहीं

मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र के रहने वाले राजेश पाटिल ने आदिवासियों की मूल समस्याओं को रखते हुए कहा कि आदिवासियों की समस्याओं पर ध्यान देने से ज़्यादा उन्हें लूटने की साज़िश की जाती रही है। इसकी वजह यह है कि आदिवासियों की आवाज़ उठाने वाले संगठन और संस्थान कम हैं। जो है, वो बाहरी ज़्यादा है। एनजीओ भी ग़ैर-आदिवासी लोगों के ज़्यादा हैं, जो आदिवासियों के हितों से कोई ख़ास मतलब नहीं रखते।

मध्य प्रदेश सरकार विज्ञापनों के ज़रिये यह प्रचार कर रही है कि उसने पूरे प्रदेश में नल से जल की व्यवस्था कर दी है, पर सच्चाई यह है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में आज भी आदिवासी समाज की महिलाएँ और पुरुष पीने तक का पानी लेने के लिए कई-कई किलोमीटर दूर जाते हैं। उस बुरहानपुर ज़िले में भी, जिसे नल से जल के लिए देश का पहला ज़िला घोषित किया जा चुका है। आदिवासियों को आज भी दिहाड़ी मज़दूर बनाकर उनसे कम मज़दूरी में काम कराया जाता है। इसी को यह कहकर दिखाया जाता है कि आदिवासियों को रोज़गार दिया गया है, उनका विकास किया गया है। आदिवासियों के विकास के सरकारी दावों की सच्चाई अगर जाननी हो, तो वो आदिवासी क्षेत्रों में जाने से पता चलेगी।

मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन के इस्तीफे के बाद कौन बनेंगे केजरीवाल सरकार में मंत्री

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन के इस्तीफे की राष्ट्रपति से मंजूरी के बाद नए मंत्रियों की नियुक्ति होनी है। बता दें मनीष सिसोदिया के पास कई प्रमुख मंत्रालय थे उन्हें दो नए मंत्रियों के बीच बांटने का प्रस्ताव दिया गया है।

मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र दोनो ही भ्रष्टाचार मामले में जेल में बंद है। दोनों मंत्रियों ने अपने पद से इस्तीफा मंगलवार को दिया था। जिसके बाद से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दो नए मंत्रियों को शामिल करने का फैसला किया है।

बता दें, कैलाश गहलोत और राजकुमार आनंद को कैबिनेट में शामिल किया जाना है। मनीष सिसोदिया के पास 18 विभाग थे, जिन्हें दो मंत्रियों के बीच विभाजित करने का फैसला किया गया है। और नियमानुसार यह प्रस्ताव उपराज्यपाल को भेज दिया गया है।

कैलाश गहलोत के पास वित्त, गृह, सिंचार्इ, बाढ़ नियंत्रण, पीडब्ल्यूडी, बिजली, शहरी विकास, और जल विभाग होंगे। वहीं राजकुमार आनंद के पास दिल्ली को नए शिक्षा, स्वास्थ्य, सतर्कता, उद्योग, सेवाएं, पर्यटन, कला और संस्कृति, भूमि और भवन निर्माण, श्रम और रोजगार विभाग शामिल है।

आपको बता दें, मनीष सिसोदिया ने अपने त्यागपत्र में कहा है कि उन पर लगे सभी इलजाम झूठे साबित होंगे और उन्हें साजिश रचकर जेल भेजा गया है।

कांग्रेस की तैयारी

पार्टी ज़मीनी मुद्दों पर लड़ेगी आगामी विधानसभा चुनाव और 2024 का लोकसभा चुनाव

दीपक बल्यूटिया

कांग्रेस का 85वाँ महाधिवेशन ख़त्म हो गया है। इस महाधिवेशन में रायपुर डिक्लेरेशन के नाम से शीर्ष नेतृत्व ने कई निर्णय लिये हैं। माना जा रहा है कि इससे न केवल कांग्रेस ने 2024 में होने वाले आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस ली है, बल्कि उसके भविष्य का रास्ता भी प्रशस्त होगा। सही मायने में भाजपा विपक्षी दलों पर हमलावर है, जिसमें कांग्रेस सबसे ज़्यादा निशाने पर है; क्योंकि भाजपा जानती है कि देश में अगर कोई पार्टी पूरी तरह से भाजपा को टक्कर दे सकती है और कभी भी सत्ता में वापसी कर सकती है, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस है।

भाजपा को अच्छी तरह पता है कि कांग्रेस ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से कन्याकुमारी से लेकर जम्मू-कश्मीर तक पूरे भारत से लोगों का जो समर्थन हासिल किया है, उससे उसकी सीटें 2024 में फिर बढ़ेंगी। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस अचानक सत्ता में वापसी करेगी। यही वजह है कि भाजपा ने कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को भी रोकने की पूरी कोशिश की थी। लेकिन राहुल गाँधी के दृढ़ संकल्प और लोगों के समर्थन से भारत जोड़ो यात्रा पूर्ण हुई। अब कांग्रेस राजनीतिक एंगल से अपनी आगे की मुहिम में जुट गयी है, जो भाजपा के लिए बेचैनी का कारण बन रही है।

रायपुर महाधिवेशन में पारित हुए प्रस्ताव कांग्रेस पार्टी के लिए 2023 के विधानसभा चुनावों और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में महत्त्वपूर्ण साबित होंगे। इससे देश के कांग्रेस कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार होगा। कांग्रेस ने रायपुर डिक्लेरेशन में साफ़ कर दिया है कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ‘फूट डालो और राज करो’ की राजनीति का मुखर विरोध करती रहेगी। कांग्रेस ने कहा कि पार्टी हमेशा भाजपा के सत्तावादी, सांप्रदायिक और क्रोनी पूँजीवादी हमले के ख़िलाफ़ अपने राजनीतिक मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ेगी। रायपुर अधिवेशन इस मामले में भी महत्त्वपूर्ण रहा कि कांग्रेस के संविधान में छ: बड़े संशोधन किये गये। इन संशोधनों के मुताबिक, कांग्रेस राजनीति में एससी / एसटी, आदिवासी, पिछड़ों महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय को उचित भागीदारी देेगी, जिससे अन्य पार्टियों को भी ऐसा करना पड़ सकता है। कांग्रेस के संशोधनों के मुताबिक, पार्टी कार्यसमिति में 50 फ़ीसदी सीटें एससी, एसटी, ओबीसी, महिला और युवा वर्ग के लोगों के लिए आरक्षित कर दी गयी हैं। निर्णय का फ़ायदा कांग्रेस को आगामी चुनावों में मिलेगा। आरक्षण के इस महत्त्वपूर्ण निर्णय से देश के सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाले वर्गों, ख़ासतौर पर ओबीसी वर्ग को राजनीतिक तौर पर फ़ायदा होगा और देश की राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ेगी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के एसटी समुदाय की भी राजनीतिक भागीदारी रायपुर महाधिवेशन में लिये गये इस निर्णय से बढ़ेगी। कांग्रेस ने इस संशोधन प्रस्ताव को ‘सामाजिक न्याय और सामाजिक बदलाव की क्रान्ति’ का नाम दिया है। पार्टी नेताओं को उम्मीद है कि आने वाले समय में अपने नाम के अनुरूप ‘सामाजिक बदलाव की क्रान्ति’ साबित भी होगा।

राहुल गाँधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक की सफल भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नव ऊर्जा का संचार किया है, तो वहीं युवाओं देश के उन युवाओं, महिलाओं, किसानों समेत हर वर्ग से सीधा संवाद करने का मौक़ा दिया। दरअसल राहुल गाँधी का मक़सद पिछले नौ वर्षों में मिली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की बाँटने वाली राजनीति से युवाओं को मुक्त करते हुए भारत जोड़ो यात्रा और दूसरी योजनाओं के माध्यम से इस नफ़रत की राजनीति पर गहरी चोट करना है। इससे हाल के वर्षों में वोटर बने युवाओं को राहुल गाँधी की मोहब्बत वाली राजनीति ने आकर्षित किया है।

राहुल गाँधी की बढ़ती लोकप्रियता से भाजपा घबरायी हुई है। इसलिए ही राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा जब उत्तर भारत में पहुँच रही थी तो केंद्र सरकार ने कोरोना का शिगूफ़ा छोड़ा था और पूरी सरकारी मशीनरी कैसे भी भारत जोड़ो यात्रा को स्थगित कराने के लिए जी-जान से जुट गयी थी। फिर जैसे ही कांग्रेस का रायपुर महाधिवेशन शुरू होने वाला था, उससे पहले रायपुर में कांग्रेस नेताओं पर ईडी के छापे भाजपा की हताशा को साबित करते हैं।

भाजपा विपक्ष को दबाने के लिए सरकारी संस्थाओं का शुरू से ही दुरुपयोग कर रही है। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार केवल कांग्रेस को दबाने के लिए ही सरकार मशीनरी का दुरुपयोग कर रही है, बल्कि उन सभी दलों को परेशान किया जा रहा है, जो भाजपा और संघ की विचारधारा से दूरी रखते हैं। इसी को देखते हुए रायपुर डिक्लेरेशन में कांग्रेस ने साफ़ कर दिया कि वह समान विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन को तैयार है। कांग्रेस देश में बढ़ रही आर्थिक असमानता, ख़त्म होती सामाजिक समरसता के ख़िलाफ़ समान विचारधारा के दलों से गठबंधन के लिए खुले दिल से विचार कर रही है। अगर राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक आदि प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में ज़ोरदार प्रदर्शन करती है, तो विपक्ष में कांग्रेस की स्वीकार्यता बढ़ेगी और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों में विपक्ष की एकता के लिए महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध होगा।

इस बार लम्बे समय बाद सोनिया गाँधी ने अपने विचार रखे, जिसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। सोनियिा गाँधी ने कहा कि कांग्रेस सिर्फ़ राजनीतिक दल नहीं है। हम वह वाहन हैं, जिसके माध्यम से भारत के लोग स्वतंत्रता और समता और न्याय के लिए लड़ते हैं। इसलिए आगे का रास्ता आसान नहीं है, लेकिन मेरा अनुभव और समृद्ध इतिहास मुझे बताता है कि जीत हमारी ही होगी। माना जा रहा है कि सोनिया गाँधी के भाषण के यह अंश हरेक कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करेंगे और उन्हें देश और लोकतंत्र के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी की याद दिलाते रहेंगे।

कांग्रेस भली-भाँति समझ चुकी है कि  संसाधन से परिपूर्ण और छल-कपट में माहिर भाजपा से लड़ाई लडऩा आसान नहीं है। वहीं भाजपा भी है कि लेकिन कांग्रेस देश की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, जो उसे इस लड़ाई को कन्याकुमारी से कश्मीर और पासीघाट से पोरबंदर तक टक्कर दे सकती है। कांग्रेस यह भी जानती है कि भाजपा के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है; लेकिन उसे यह याद रखना होगा कि उसकी विचारधारा हमेशा सकारात्मक रही है। जब आज़ादी से पहले की कांग्रेस देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ रही थी, तो अंग्रेजों के पास भी संसाधन की कोई कमी नहीं थी।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास राहुल गाँधी जैसे लोकप्रिय और जुझारू नेता हैं, जो बिना किसी भय के अपनी बात को बहुत मज़बूत तरीक़े से रखते हैं और देश की जनता उनकी बात को सुनती है। हिंडनबर्ग मामले पर उठे सवालों का जवाब नहीं देना मोदी सरकार की मंशा साफ़ करता है। लेकिन कांग्रेस ने जिन ज़रूरी सवालों को सरकार के सामने रखा है, उससे देश की जनता भी उन सवालों के जवाब माँगने लगी है। आख़िर सरकार की नाक के नीचे इतना बड़ा घोटाला कैसे हो गया? सरकार और अडानी का क्या गठजोड़ है?

अभी तक इन सवालों के जवाब देश को नहीं मिले हैं। इसी के मद्देनज़र कांग्रेस ‘भ्रष्ट यार – बचाए सरकार’ नारे के साथ रैलियाँ शुरू करेगी। इन रैलियों को राहुल गाँधी, मल्लिकार्जुन खडग़े जैसे नेता सम्बोधित करेंगे। इससे साफ़ है कि कांग्रेस अडानी के मुद्दे को ऐसे ही हाथ से नहीं जाने देगी। रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने अपने मुद्दे शीशे की तरह साफ़ करके जनता के सामने रख दिये हैं कि सामाजिक समरसता को कांग्रेस ख़राब नहीं होने देगी। एससी, एसटी, महिला, अल्पसंख्यक और पिछड़ों के उत्थान हेतु काम करती रहेगी। दरअसल कांग्रेस देश के लोगों की खून-पसीने की कमायी को क्रोनी कैपिटलिस्टों के द्वारा लूटने के ख़िलाफ़ लड़ाई की तैयारी कर चुकी है। जनता में अब चर्चा है कि भाजपा से अच्छी तो कांग्रेस ही थी और उसे कांग्रेस ही बचा सकती है। महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी और ऊपर से सत्ता दल की तानाशाही से ऊब चुके लोग कांग्रेस की ओर देख रहे हैं।

कांग्रेस अब ज़मीनी मुद्दों के आधार पर जनता को अपने साथ कर रही है और इन्हीं मुद्दों के आधार पर आगामी विधानसभा चुनाव और 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ेगी, जिसमें लोगों को न्याय, उचित सरकारी व्यवस्था और महँगाई से मुक्ति दिलाने के रास्ते भी निकालने को लेकर काम करेगी।

क्रिकेट की लॉबियाँ

चेतन शर्मा के स्टिंग से सामने आयी बातों की जाँच होनी चाहिए

महिला क्रिकेट में आईपीएल नीलामी में खिलाडिय़ों को अच्छा पैसा मिलने की सुखद ख़बर के बीच ही एक और ख़बर आयी कि बीसीसीआई के मुख्य चयनकर्ता चेतन शर्मा का स्टिंग हुआ, जिसमें उन्होंने कई गम्भीर ख़ुलासे किये हैं। स्टिंग से निकले ख़ुलासों का तो पता नहीं क्या होगा? लेकिन ख़ुद चेतन शर्मा को इस कारण से अपनी नौकरी गँवानी पड़ी। स्टिंग से बाहर आयी, जो चीज़ें की इबारत पड़ें, तो लगता है देश की क्रिकेट में दिल्ली और मुंबई लॉबी की जंग और अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए दोनों में मारकाट जारी है। भले इसे बीसीसीआई या खिलाड़ी स्वीकार करने से कतराएँ; लेकिन विराट कोहली की कप्तानी जाने से लेकर अन्य कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जो ज़ाहिर करती हैं कि बाहर से भारतीय क्रिकेट में जितनी ख़ूबसूरत दिखती है, भीतर सब कुछ वैसा नहीं है।

चेतन शर्मा के ख़ुलासों पर उनकी मुख्य चयनकर्ता के पद से छुट्टी तो हो गयी। लेकिन क्या बीसीसीआई स्टिंग में आम जनता के बीच आयी कड़वी बातों की जाँच करवाएगा? बड़े दिग्गजों के अहम और चयन में दबाव जैसी चीज़ें क्रिकेट में हो रही हैं, यह जानकर देश के करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों को गहरी ठेस लगी है। नैतिकता का तक़ाज़ा है कि बीसीसीआई इस पर सच सामने लाये। भारत की पुरुष क्रिकेट टीम दुनिया में दो फॉर्मेट में नंबर-1 की, जबकि टेस्ट के दूसरे नंबर की टीम है। ऐसे में भीतर की सनसनी से भरी जो जानकारियाँ सामने आयी हैं, वो मन खट्टा करती हैं। कह सकते हैं कि भारतीय क्रिकेट के गौरव को धब्बा लगाती हैं और टीम के दुनिया भर में नंबर-1 होने के मज़े को किरकिरा करती हैं।

चेतन शर्मा, पूर्व राष्ट्रीय मुख्य चयनकर्ता

दरअसल क्रिकेट में कप्तानी छीनने या टीम से बाहर करने जैसे स्टिंग के ख़ुलासे षड्यंत्र रचने जैसे आरोप हैं। दरअसल जैसे टी-20 से सीनियर खिलाडिय़ों को आराम उनके स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए नहीं, परन्तु उन्हें टीम से बाहर करने के षड्यंत्र की तरफ़ इशारा करता है। विराट कोहली की कप्तानी एक योजना के तहत छीनी गयी, यह भी एक गम्भीर आरोप है। ज़ाहिर है देश की क्रिकेट में मुंबई और दिल्ली की जो ताक़तवर लॉबियाँ हैं, वह एक दूसरे को कमज़ोर करने में सक्रिय हैं। यह बहुत शर्म की बात है कि देश की टीम में खिलाड़ी का चयन या उसे कप्तानी प्रतिभा से ज़्यादा क्षेत्रों के आधार पर मिलती है, क्योंकि उस क्षेत्र की लॉबी मज़बूत है।

बीसीसीआई में नये अध्यक्ष रोजर बिन्नी, जिन्हें नैतिक स्तर पर बड़ा रुतबा हासिल है; के सामने यह चुनौती है कि देश की क्रिकेट से इस गंदगी की सफ़ाई करें। उन्हें दृढ़ता दिखानी होगी और बीसीसीआई, क्षेत्रों और दिग्गजों की दादागीरी को ख़त्म कर एक साफ़-सुथरा क्रिकेट ढाँचा बनाना होगा। बिन्नी ऐसा कर पाते हैं, तो भारत के क्रिकेट इतिहास में उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।

चेतन के ख़ुलासों ने पूरी दुनिया के क्रिकेट प्रशंसकों को हैरान किया है। उन्होंने अनजाने में गांगुली-कोहली विवाद, टीम में खिलाडिय़ों के चयन और फ़र्ज़ी फिटनेस सर्टिफिकेट जैसी कई सच्चाइयों पर से पर्दा उठा दिया है। चेतन का आरोप अगर सही है, तो भारतीय क्रिकेट में कई खिलाडिय़ों के इंजेक्शन लेकर फिट दिखाने वाली बात भी बहुत गम्भीर है। चेतन के मुताबिक, खिलाडिय़ों की फिटनेस 80-85 फ़ीसदी ही होती है; लेकिन फिर भी वह पेशेवर क्रिकेट खेलने के लिए इंजेक्शन लेते हैं और 100 फ़ीसदी फिट हो जाते हैं। इन इंजेक्शन में जो दवा पड़ती है, वह डोप टेस्ट में पकड़ी नहीं जाती। नक़ली फिटनेस सर्टिफिकेट खिलाड़ी बाहर के डॉक्टरों से लेते हैं। निश्चित भी यह गम्भीर आरोप हैं, जो जाँच की माँग करते हैं।

स्टिंग से जो बातें सामने आयीं, उनमें एक यह है कि टी20 फॉर्मेट में विराट कोहली और रोहित शर्मा को इसलिए आराम दिया गया, क्योंकि इसके ज़रिये उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। नये खिलाडिय़ों को अवसर मिला चाहिए। लेकिन आराम देकर दल से जगह छीनने का यह तरीक़ा सही है? चेतन शर्मा ने यह भी बताया कि रोहित शर्मा उनके बच्चे की तरह हैं और उनसे फोन पर आधा-आधा घंटा बात करते हैं और वे (रोहित) जो भी बात करते हैं, वह इस कमरे से बाहर नहीं जाती। उनके मुताबिक, खिलाड़ी सिलेक्टर्स के टच में रहते हैं और हार्दिक पांड्या उनसे घर पर मिलने आते हैं। पांड्या भारतीय क्रिकेट का भविष्य हैं, इसमें कोई संदेह नहीं और किसी से मिलने में भी कोई बुराई नहीं; लेकिन क्या यह सब चीज़ें शंका पैदा नहीं करतीं?

विराट कोहली की कप्तानी और पूर्व बीसीसीआई अध्यक्ष सौरव गांगुली के साथ हुए विवाद पर भी स्टिंग में काफ़ी कुछ सामने आया है। चेतन के मुताबिक, विराट कोहली को ऐसा लगता था कि उनकी कप्तानी सौरव गांगुली की वजह से गयी; लेकिन ऐसा नहीं था। सिलेक्शन कमेटी की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग मीटिंग में गांगुली ने कोहली से कप्तानी के बारे में कहा था कि फ़ैसले को लेकर एक बार फिर सोच लो। मुझे लगता है कि कोहली ने सौरव की बात सुनी नहीं।

चेतन ने विराट-रोहित के बीच मतभेदों को लेकर स्वीकार किया कि उन दोनों के बीच निश्चित तौर पर अहं की टक्कर है; लेकिन कोई दरार नहीं है। हालाँकि चेतन का यह भी कहना है कि दोनों खिलाडिय़ों ने हमेशा एक-दूसरे का साथ दिया है। चेतन ने जसप्रीत बुमराह की टीम में वापसी को लेकर भी सनसनी भरा ख़ुलासा किया और कहा कि बुमराह ने 2022 में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ टी20 सीरीज के दौरान अपनी चोट को छिपाया था। फिटनेस सर्टिफिकेट के बावजूद सीरीज के दूसरे मैच से पहले, बुमराह का दर्द बढ़ गया था। चेतन के मुताबिक बुमराह ने इसे सिर्फ़ टी20 विश्व कप 2022 टीम में रहने के लिए छिपाया था।

क्रिकेट की लॉबियाँ

जहाँ तक दिल्ली और मुंबई लॉबी की बात है, यह पहले भी रही है। भारतीय क्रिकेट में लॉबी की चर्चा हमेशा रही है। आरोप यह हैं कि मुंबई लॉबी के पास इतने ताक़तवर लोग हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों से बनी राष्ट्रीय चयन समितियों और ग़ैर-मुंबई बीसीसीआई अध्यक्षों को दबाव में लाती हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भारतीय क्रिकेट में महाराष्ट्र (मुंबई) लॉबी हमेशा से ताक़तवर रही है। यह कहा जाता है कि विराट कोहली ने जब टी-20 अंतरराष्ट्रीय मैचों की कप्तानी छोडऩे का फ़ैसला किया, तो वास्तव में इसके पीछे मुंबई की ताक़तवर लॉबी थी, जो कप्तानी रोहित शर्मा के हाथ में देना चाहती थी।

हाल के दशकों में गौतम गम्भीर और वीरेंद्र सहवाग और उनके बाद विराट कोहली दिल्ली के मज़बूत चेहरे रहे हैं, जिन्होंने क्रिकेट में दबदबा क़ायम किया। उनकी ताक़त दीवानगर भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री रहे अरुण जेटली थे। उनके जाने के बाद दिल्ली के खिलाडिय़ों को मुश्किलें आयीं। जेटली के निधन पर वीरेंद्र सहवाग ने ट्वीट में लिखा था कि जेटली के सार्वजनिक जीवन में योगदान के अलावा एक बड़ा योगदान यह भी था कि दिल्ली क्रिकेट के कई खिलाड़ी भारत के लिए खेल सके। मुंबई में सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर जैसे दिग्गज रहे हैं और अब रोहित शर्मा हैं। अब दिल्ली बनाम मुंबई लॉबी की बात करें, तो लगता है कि विराट कोहली को इसी लॉबी ने निशाना बनाया। तो क्या विराट कोहली के कप्तानी छोडऩे (या दबाव से हटने के लिए मजबूर करने) के पीछे भी लॉबीवाद ही है? लगता तो यही है।

चलते-चलते

महिला आईपीएल 2 मार्च से शुरू हो रहा है। इसके लिए महिला खिलाडिय़ों की नीलामी से ज़ाहिर होता है कि भले वे पुरुषों के मुक़ाबले कम पैसों में बिकी हों, उन्हें आर्थिक संबल प्रदान करने के लिए यह एक अच्छी शुरुआत है। मुंबई में हुई इस ऑक्शन में 448 खिलाडिय़ों में से 87 पर बोली लगी, जिनमें से 57 भारतीय हैं। पाँच फ्रेंचाइजी, मुंबई इंडियंस, दिल्ली कैपिटल्स, यूपी वॉरियर्स, गुजरात जाएंट्स और रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ने मिलकर 59.50 करोड़ रुपये ख़र्च किये। चार खिलाडिय़ों को फ्रेंचाइजी ने दो करोड़ से तीन करोड़ के बीच और तीन खिलाडिय़ों को तीन करोड़ रुपये से ज़्यादा की राशि में ख़रीदा। भारत की डैशिंग बैटर स्मृति मंधाना पर ऑक्शन में सबसे महँगी 3.40 करोड़ रुपये की बोली लगी। इंग्लैंड की नताली स्कीवर और ऑस्ट्रेलिया की एश्ले गार्डनर 3.20 करोड़, दीप्ति शर्मा 2.60, जेमिमा रॉड्रिग्स 2.20, शेफाली वर्मा और बेथ मूनी 2-2 और रेणुका ठाकुर को उनके फ्रेंचाइजी ने 1.60 करोड़ में ख़रीदा।

खेलों में लड़कियों की कमी

हाल ही में राजस्थान के बाड़मेर के कानासर गाँव की मूमल मेहर नाम की 15 वर्ष की किशोरी रेत के मैदान पर चौके-छक्के जड़ते दिख रही है। इस बच्ची की मदद के लिए कई हाथ आगे बढ़े हैं। आँकड़े कहते हैं कि भारत इस समय एक युवा देश है अर्थात् भारत की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम है। इस 50 प्रतिशत आबादी में क़रीब 48 प्रतिशत महिलाएँ हैं। प्राइमरी, मिडिल व हायर सेकेंडरी स्कूलों में पढऩे वाली लड़कियों के झुण्ड स्कूलों के बाहर अक्सर नज़र आते हैं; लेकिन क्या कारण है कि अधिकांश स्कूलों के खेल के मैदानों में यह दृश्य नदारद है।

गली, मोहल्लों, पार्कों में खेलने वालों की आवाज़ ही बता देती है कि यहाँ पर भी लडक़ों की ही क़ब्ज़ा है। खेल की सामग्री बेचने वाले दुकानों पर भी अक्सर यही नज़ारा देखने को मिल जाता है। ऐसे बहुत-से सवालों का समाधान हम क्या तलाशते हैं? तलाशते हैं, तो उनके साथ कितनी दूर तक चलते हैं? खेल का कोई लिंग नहीं होता; पर हक़ीक़त कुछ और ही है। खेल में लड़कियों, महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है, उन्हें पुरुष खिलाडिय़ों से कमतर आँकने की अवधारणा साफ़ दिखायी देती है। इस तस्वीर का एक अहम पहलू यह भी है कि इस अवधारणा को बदलने के प्रयास जारी हैं। पर इसके बावजूद इसका वाजूद साफ़ दिखायी देता है।

हाल ही में देश में 13 फरवरी को महिला प्रीमियर लीग (डब्लयूपीएल) की नीलामी का आयोजन किया गया। 406 महिलाओं में से 87 महिला खिलाडिय़ों के साथ अनुबंध किये गये। इन 87 में से 30 विदेशी और 57 भारतीय हैं। इस महिला प्रीमियर लीग ने 87 महिला खिलाडिय़ों को लखपति-करोड़पति बना दिया है। अब चर्चा इस ओर मुड़ गयी है कि इस लीग ने महिला खिलाडिय़ों के भीतर एक नयी ऊर्जा का संचार कर दिया है। अब देश की लड़कियाँ खेल को एक करियर के तौर पर देखने इससे इन्कार नहीं किया जा सकता; लेकिन इसके समानांतर यह सवाल भी खड़ा होता है कि क्या अन्य खेलों की भी तस्वीर बदलेगी? दूर-दराज़ इलाक़ों में लड़कियों के लिए खेल की ज़रूरी सुविधाओं से लैस ढाँचा विकसित किया जाएगा? क्या उसका विस्तार होगा? दिल्ली के एक पार्क में धूप सेंकती एक महिला से जब सवाल पूछा गया कि क्या उन्हें महिला प्रीमियर लीग के बारे में पता है? तो जबाव नहीं मिला। क्या उन्हें किसी महिला खिलाड़ी का नाम याद है? नहीं। बताया कि वह विराट कोहली को पहचानती है।

लड़कियों को खेल के मैदान में खेलने के लिए भेजने पर उन्होंने बताया कि उनकी नज़र में लड़कियों की सुरक्षा एक बहुत बड़ी समस्या है। लड़कियों को पढऩे भेजने के लिए तो जोखिम उठाते ही हैं, खेल के लिए नहीं उठा सकते। बहरहाल लड़कियों की सुरक्षा देश में एक बहुत बड़ा मुद्दा है। यहाँ पर प्रसंगवश पापुआ न्यू गिनी देश का ज़िक्र किया जा रहा है। इस देश की महिला फुटबॉल टीम को खेल की चुनौतियों के साथ ही सामाजिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। इस टीम के कोच स्पेंसर प्रायर ने मीडिया को बताया कि देश की राजधानी पोर्ट मोर्सबी महिलाओं के लिए ख़तरनाक है। यहाँ अर्केी महिला के साथ आपराधिक घटना आम बात है। ऐसे में सपोर्टिंग स्टाफ रात में किसी भी महिला को अकेले नहीं निकलने देता। लेकिन इन सबके बावजूद यहाँ की महिला फुटबॉल टीम मज़बूती से खेलती हैं और अपने दम पर महिला फीफा वल्र्ड कप के लिए क्वालीफाई की तैयार कर रही हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि खेल एक सामाजिक मंच भी है। यह इंसान के अंदर खेल भावना, अनुशासन, दूसरों से मेल-मिलाप, आत्म विश्वास सरीखी कई भावनाओं को विकसित करने में मददगार साबित हो सकता है। आगे बढऩे के कई मौक़े मुहैया कराता है। और यहीं पर लड़कियाँ पीछे छूटती साफ़ नज़र आती हैं। बहुत साल पहले चक दे इंडिया फ़िल्म महिला हॉकी पर बनी थी। इस फ़िल्म के लेखक ने इस मुद्दे को उठाने की वजह यह बतायी कि राष्ट्रीय महिला हॉकी की उपलब्धि को मीडिया ने अख़बार के एक कोने में जगह दी।

इस फ़िल्म को सराहा गया और महिला खिलाड़ी खेल संघों में भी कमतर आँकी जाती हैं, इस नज़रिये को बेबाक रखा गया। महिला खिलाडिय़ों का संघर्ष पुरुषों के संघर्ष से मिलता भी है; लेकिन खेल के मैदान तक पहुँचने व उन पर लम्बे समय तक टिके रहने की जद्दोजहद पुरुषों से अलग भी है, जिन्हें एड्रस करने व उनके ठोस समाधान की दिशा में तेज़ी से आगे बढऩे की दरकार है। महिला प्रीमियर लीग में महिलाओं को अनुबंधित करने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भारतीय महिला क्रिकेट की पूर्व कप्तान मिताली राज ने कहा कि पहले महिला क्रिकेटर जल्द ही मैदान को इसलिए अलविदा कह जाती थीं; क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके पास अवसरों की कमी है। मगर अब महिला प्रीमियर लीग उन्हें अपना करियर आगे ले जाने के लिए प्रेरित करेगी।’

देखा जाए, तो इंडियन प्रीमियर लीग, जिसकी शुरुआत आज से 15 साल पहले सन् 2008 में हुई थी; उसने क्रिकेट का चेहरा ही नहीं बल्कि क्रिकेट को लेकर दर्शकों के जुनून को एक अलग स्तर तक पहुँचा दिया है। दूर-दराज़ से खिलाड़ी आकर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा से पहचान बना रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि अगर आईपीएल नहीं होता, तो भारत शायद तेज़ गेंदबाज़ जसप्रीत बुमराह को नहीं खोज पाता। इसी तरह हार्दिक पांड्या, कुलदीप यादव, उमरान मलिक और अक्षर पटेल को भी अपनी प्रतिभा को तेज़ी से निखारने का मौक़ा आईपीएल ने ही दिया।

आईपीएल ने उन्हें विश्व के सबसे बढिय़ा क्रिकेटरों के साथ खेलने का मौक़ा दिया और जो वो सामान्य तौर पर 10 साल में सीखते, वह उन्होंने पाँच साल में ही सीख लिया। यानी अपने खेल में सुधार करते हुए आगे बढ़ते चले गये और यह सिलसिला जारी है। प्रतिभा-पूल बनाने के लिए फ्रेंचाइजी टीम भी बहुत मेहनत करती है।

अब देखना यह है कि महिला क्रिकेटरों की तलाश व उन्हें निखारने में ये टीमें अपने बजट का कितना ख़र्च करती हैं? 13 फरवरी को महिला प्रीमियर लीग में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ने भारत की स्टार सलामी बल्लेबाज़ स्मृति मंधाना के साथ 3.4 करोड़ रुपये में सबसे महँगा अनुबंध किया। महिला क्रिकेट के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था। टीम खेल में सर्वाधिक वेतन अक्सर फुटबॉल में मिलता है, जहाँ सबसे अधिक कमायी करने वाली आस्ट्रेलियाई समांथा केर इंग्लैंड में महिला सुपर लीग में चेल्सी महिला के लिए फुटबॉल खेलती हैं। उनकी सालाना कमायी 4,10,000 डॉलर से 5,06,000 डॉलर के बीच रहती है, भारतीय मुद्रा के अनुसार यह राशि चार करोड़ है।

स्मृति मंधाना के बाद देश की दूसरी सबसे महँगी बिकने वाली खिलाड़ी आलराउंडर दीप्ति शर्मा है, जिनके साथ यूपी वारियर्स ने 2.6 करोड़ रुपये का अनुबंध किया है। इस महिला प्रमीयिर लीग में पाँच फ्रेंचाइजी- दिल्ली कैपिटल्स, रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर, गुजरात जाएंट्स, मुंबई इंडियस और यूपी वारियर्स ने हिस्सा लिया और 87 महिला खिलाडिय़ों के साथ 59.5 करोड़ रुपये के अनुबंध किये। महिला प्रमीयिर लीग के तहत बनाये गये नियम के मुताबिक, प्रतयेक फ्रेंचाइजी खिलाडिय़ों पर 12 करोड़ ही ख़र्च कर सकती है। लेकिन आईपीएल का पिछले साल 2023 की नीलामी का बजट 90-95 करोड़ था। खेलों में निवेश करने वाले निजी प्लेयर यानी निवेशक खेलों की सांस्कृतिक, सामाजिक भावना से अधिक महत्त्व खेलों से होने वाली कमायी, मुनाफ़े को देते हैं। खेल में महिलाओं को बराबरी के मौक़े मुहैया कराना एक बहुत बड़ी चुनौती है। इसी के मद्देनज़र आईसीसी और यूनिसेफ ने एक वैश्विक भागीदारी की है। यूनिसेफ इंडिया के रिसोर्स मोबाइलाजेशन एंड पार्टनरशिप चीफ रिचर्ड बीगटन ने बीते दिनों दिल्ली में मीडिया को बताया कि ‘इस भागीदारी के तहत बीए चैंपियन फॉर गल्र्स यानी एक करने वाले संदेश के ज़रिये एक ऐसी दुनिया बनाने की बात कही जा रही है, जहाँ लड़कियाँ खेल सकती हैं और अपनी क्षमताओं को पूरा कर सकती हैं। खेल एक ऐसा शक्तिशाली उपकरण है, जो सामाजिक बदलाव ला सकता है। हमारा मक़सद ऐसे प्रयास करना है, जो दुनिया भर के बच्चों व किशोरों की ज़िन्दगी पर सकारात्मक प्रभाव ला सकते हैं।’

राजस्थान में महिला जन अधिकार समिति नामक गैर-सरकारी संगठन भी खेल को लड़कियों की ज़िन्दगी में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए इस्तेमाल कर रहा है। यह संगठन फुटबॉल खेल के ज़रिये लड़कियों को सशक्त करता है, ताकि वे अपने बाल विवाह को न कह सकें। लड़कियाँ, किशोरियाँ स्कूल, कॉलेज में अधिक समय तक पढ़ाई करेंगी, खेल खेलेंगी, पेशेवर खिलाड़ी बनने के लिए ख़ास प्रषिक्षण लेंगी तो अपने लिए एक ठोस आधार भी तैयार करने की सम्भावना बढ़ती चली जाएगी। खेलतंत्र जो पुरुषों की ओर झुका हुआ है, उसे सन्तुलित करने की दरकार है।

घरेलू गैस का सिलेंडर 50 रुपए महंगा, लोगों को महंगाई में एक और झटका  

जबरदस्त महंगाई के बीच सरकार ने गरीबों पर एक और मार मारी है। घरेलू रसोई गैस (एलपीजी) सिलेंडर की कीमत सीधे 50 रुपये बढ़ा दी गयी है। कीमत बढ़ने के बाद एलपीजी घरेलू सिलेंडर (14.2 किलो बजन) अब राजधानी दिल्ली में बढ़कर 1103 रुपये हो गई है।

कामर्शियल एलपीजी सिलेंडर की कीमत में भी बढ़ोतरी की गई है जिसकी कीमत  350.50 रुपये की बढ़ोतरी के बाद  2119.50 रुपये हो गई है। जाहिर है आम और गरीब आदमी पर इसकी सीधी मार पड़ी है।  

इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने घरेलू रसोई गैस सिलेंडर और वाणिज्यिक गैस सिलेंडर की कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा है।

उन्होंने सरकार से सवाल करते हुए पूछा – ‘लूट के फरमान कब तक जारी रहेंगे? घरेलू रसोई गैस सिलेंडर के दाम 50 रुपये बढ़े, वाणिज्यिक गैस सिलेंडर 350 रुपये महंगे हुए। जनता पूछ रही है – अब कैसे बनेंगे होली के पकवान, कब तक जारी रहेंगे लूट के ये फरमान ?’

सिलेंडर की कीमत बढ़ने से लोगों पर अब और बोझ सरकार ने डाल दिया है। कुछ महीने पहले ही घरेलू रसोई गैस सिलेंडर 150 रुपये महंगा हुआ था। कामर्शियल गैस सिलेंडर के दाम पिछली बार 25 रुपये बढ़े थे।