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आरटीआई:सूचना! पूछ ना

फोटोःविजय पांडे
फोटोःविजय पांडे
फोटोःविजय पांडे

आज से तकरीबन 130 साल पहले हिंदी के नामी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘अंधेर नगरी’ नाम का एक नाटक लिखा था. व्यंगात्मक और रोचक प्रहसनों की भरमार वाले इस नाटक में एक आदमी अपनी बकरी के मरने की फरियाद लेकर राजदरबार में पहुंचता है और राजा से न्याय की गुहार लगाता है. उस व्यक्ति को मुआवजा दिलाने के बजाय राजा, बकरी की मौत के जिम्मेदार अपराधी का पता लगाने के लिए हास्यापद खोज का ऐसा सिलसिला शुरू करता है जो कल्लू बनिया नाम के दुकानदार से लेकर एक कारीगर, चूनेवाले, और गड़रिये से होते-होते अंतत: नगर के कोतवाल पर आकर थमता है. राजा कोतवाल को फांसी की सजा सुना देता है. पर इस बीच घटनाक्रम कुछ ऐसा घूमता है कि आखिर में राजा खुद ही फांसी पर चढ़ जाता है. इसके साथ ही नाटक समाप्त हो जाता है और बकरी की मौत पर न्याय मांगने आया फरियादी खाली हाथ रह जाता है.

उस दौर की अव्यवस्थित और अराजक प्रशासनिक व्यवस्था पर चोट करने वाले इस नाटक को लिखे आज एक सदी से भी ज्यादा का वक्त बीत चुका है. इस नाटक की भाषा में ही कहा जाए तो तब ‘एक टके’ में गली-नुक्कड़ों में आसानी से मिल जानेवाला सामान आज डॉलर और पाउंड की कीमत पर बड़े-बड़े शॉपिंग कांप्लेक्सों में मिलता है. लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था के मोर्चे पर तुलना की जाए तो ‘अंधेर नगरी’ वाला वह ‘चौपट राज’ आज भी उसी तरह कायम है. प्रशासन की तमाम इकाइयों में तब से ही घुस चुके अव्यवस्था के ये विषबीज अब सूचना का अधिकार (आरटीआई) नाम के उस कानून की अवधारणा पर चोट कर रहे हैं जिसे प्रशासन में पारदर्शिता और जिम्मेदारी तय करने के उद्देश्य से साल 2005 में बड़े जोर-शोर से लागू किया गया था. देश-भर के अलग-अलग हिस्सों में इस कानून के तहत सूचना मांगने के ऐसे बहुत से मामले हैं जो भारतेंदु के उस नाटक को अक्षरश: चरितार्थ करते नजर आते हैं. यानी, सूचना चाहनेवाला फरियादी संबंधित विभाग में आवेदन लगाता है. इस पर सूचना देने के बजाय उस विभाग का सूचना अधिकारी आवेदन को एक विभाग से दूसरे, तीसरे और चौथे विभाग को सौंप देता है. तय सीमा से कहीं ज्यादा समय तक चलनेवाली इस आंखमिचौली के बाद भी जब सूचना नहीं मिलती है तो सूचना आयोग ‘राजा की फांसी’ की तरह सूचना अधिकारी पर जुर्माना ठोक देता है. इस तरह यह असली नाटक भी खत्म हो जाता है और यहां भी आवेदन करनेवाला फरियादी हाथ मलता रह जाता है.

‘सूचना अधिकार अधिनियम 2005’ के लागू होने से अब तक लगभग नौ साल की इस समयावधि में इसके प्रावधानों के तहत सूचना मांगे जाने पर सूचना न देने, आनाकानी करने, बहाना बनाने और आवेदनों को खारिज कर देने के ऐसे बहुत से मामले देश के अलग-अलग हिस्सों से सामने आ चुके हैं. ये मामले साफ तौर पर बताते हैं कि आरटीआई के तहत आवेदन करने पर पहली बार में ही सूचना हासिल करना किसी महाभारत लड़ने से कम नहीं है. इसके अलावा इन मामलों से यह भी पता चलता है कि किसी आवेदन को अलग-अलग विभागों की सैर पर भेज देने में खर्च होने वाले अतिरिक्त पैसे और समय की बर्बादी के चलते कई बार हासिल होने वाली सूचना सही होने के बावजूद भी रद्दी के अलावा किसी काम की नहीं रह जाती.

बात पिछले साल जून के महीने की है. उत्तराखंड के केदारनाथ समेत कई अन्य हिस्सों में आपदा ने भयंकर विनाशलीला मचाई थी. आपदा से हुए जानमाल के भारी भरकम नुकसान के लिए तब प्रदेश की सरकार को बहुत हद तक जिम्मेदार बताया जा रहा था. सरकार पर आरोप था कि आपदा से निपटने को लेकर उसकी तैयारियां पर्याप्त नहीं थीं. इन आरोपों की पड़ताल करने के लिए तहलका ने आठ जुलाई, 2013 को उत्तराखंड सरकार के मुख्यमंत्री कार्यालय में एक आरटीआई आवेदन लगाया. इसमें चार धाम यात्रा की तैयारियों को लेकर प्रदेश सरकार द्वारा पिछले तीन सालों में की गई बैठकों का ब्यौरा मांगा गया. आमतौर पर मुख्यमंत्री द्वारा की जाने वाली बैठकों का कार्यवृत्त तैयार किए जाने की जिम्मेदारी सीधे-सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय की होती है. इस लिहाज से देखा जाय तो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कार्यालय को अपने स्तर से यह सूचना प्रदान करनी थी. लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय ने इस आवेदन पर सूचना देने के बजाय इसे प्रदेश के आपदा प्रबंधन विभाग तथा पर्यटन विभाग को सौंप दिया. इन दोनों विभागों ने कुछ जानकारियां देने के साथ अन्य जानकारियों के लिए आवेदन को आपदा एवं न्यूनीकरण अनुभाग, धर्मस्व एवं संस्कृति विभाग, चार धाम विकास प्राधिकरण तथा कुछ अन्य विभागों की तरफ सरका दिया. तकरीबन तीन महीने के बाद अलग-अलग विभागों से तहलका को जो जानकारी मिल पाई उसके मुताबिक चारधाम यात्रा की तैयारियों को लेकर सरकार का रवैया बेहद रस्मी था. आलम यह था कि 2011 में हुई बैठक के दौरान लिए गए बहुत से निर्णय दो साल बाद भी धरातल पर नहीं उतर सके थे. आपदा को लेकर सरकार के राहत कार्यक्रमों की पोल खोलने के लिहाज यह एक बेहद महत्वपूर्ण जानकारी थी. लेकिन सूचना मिलने में हुई देरी के कारण इसका औचित्य लगभग समाप्त हो चुका था.

इसी तरह का एक और मामला मध्यप्रदेश सरकार के मुख्य सचिव कार्यालय का भी है. तहलका ने पांच जुलाई, 2013 को मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव कार्यालय से राज्य के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों तथा अन्य जनप्रतिनिधियों के खिलाफ हुई भ्रष्टाचार की शिकायतों की संख्या तथा उनको लेकर लोकायुक्त द्वारा की गई कार्रवाई पर  सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की जानकारी मांगी. कायदे के मुताबिक मुख्य सचिव कार्यालय को इस आवेदन के जवाब में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की जानकारी अपने स्तर से देनी चाहिए थी. लेकिन मुख्य सचिव कार्यालय ने यह आवेदन मध्यप्रदेश के लोकायुक्त कार्यालय को सौंप दिया.

इसके बाद इस आवेदन के साथ जो कुछ हुआ वह भी बेहद हैरान करनेवाला है. लोकायुक्त कार्यालय ने इस पर कोई सूचना देने के बजाय इस आवेदन को यह कहकर अमान्य करार दिया कि इसमें क्यों, कैसे, और कितने जैसे प्रश्नावाचक शब्दों का प्रयोग किया गया है. कार्यालय का साफ कहना था कि प्रश्नवाचक भाव वाले आवेदनों का जवाब आरटीआई के तहत नहीं दिया जा सकता.

कई बार अधिकारी आवेदन को सिर्फ इसलिए अन्य विभागों को भेज देते हैं ताकि सूचना छिपाई जा सके. वे सूचना न देने के जुर्म से भी बच जाते हैं और आवेदक को सही सूचना भी नहीं मिलती

जिस ‘कितने’ शब्द पर आयोग के लोक सूचना अधिकारी को आपत्ति थी जरा उस पर भी नजर डाल लेते हैं. तहलका ने अपने सवाल में पूछा था कि, ‘जनवरी 2010 से अब तक लोकायुक्त के पास दर्ज हुई शिकायतों में जांच के बाद लोकायुक्त ने ‘कितने’ मामलों में आरोपितों को दोषी माना? तथा इन मामलों में से जन प्रतिनिधियों (राज्य के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, राज्य मंत्रियों एवं विधायकों आदि) की संख्या ‘कितनी’ है?

दिल्ली विधानसभा चुनावः आप की चुस्ती, भाजपा की सुस्ती

 arvind kejriwal
तीन अगस्त को जंतर-मंतर पर पार्टी की रैली में अरविंद केजरीवाल और दूसरे नेता. फोटो: विकास कुमार

पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी के बार-बार बयान आ रहे हैं कि दिल्ली की विधानसभा भंग होनी चाहिए और तुरंत चुनाव कराए जाने चाहिए. अपनी मांग को लेकर वे हाल ही में दिल्ली के उपराज्यपाल से भी मिले. इस पर पार्टी ने अदालत में एक याचिका भी दायर की है और तीन अगस्त को जंतर-मंतर पर एक रैली भी आयोजित की गई. उसके नेताओं के व्यवहार से भी लग रहा है कि वे बड़ी जल्दी में हैं.

लेकिन वे इतनी जल्दी में क्यों हैं?

ऊपर से देखने में तो लगता है कि यदि आप को चुनावों के लिए थोड़ा समय मिल जाता है तो यह उसके लिए अच्छा ही होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद उसकी हालत थोड़ी खराब है, उसके पास संसाधनों की कमी है, कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी नीचे है और लगातार संघर्षों से वे कुछ थक भी चुके हैं.

लेकिन सतह को जरा खुरचें तो कई ऐसी कई वजहें हैं जो आम आदमी पार्टी को ऐसा करने के लिए मजबूर कर रही होंगी. पहली तो यही कि आप के शीर्ष नेतृत्व को लगता है कि यदि चुनाव जल्दी न हुए तो कहीं उनके विधायकों में से कुछ को भाजपा अपने पाले में न कर ले. ऐसा होने की आशंका लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद बहुत ज्यादा थी. उस वक्त पार्टी में पूरी तरह से निराशा का माहौल था और विधायक दुबारा चुनाव में जाने को लेकर हर तरह की आशंकाओं से घिरे हुए थे. अब इस तरह की आशंकाएं उस परिमाण में न भी हों तो भी इतनी तो हैं ही कि हर दो-चार दिन में नेतृत्व की नींद उड़ाती रहें.

दूसरी चिंता आप को कांग्रेस के विधायकों के भाजपा में मिल जाने को लेकर भी है. उन्हें लगता है कि इस समय उससे कहीं ज्यादा निराशा का माहौल कांग्रेस में है और उसके कुछ विधायक भाजपा में शामिल हो ही जाते अगर आप इसे लेकर हाल ही में जबर्दस्त हो-हल्ला न मचाती. आगे ऐसा नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है.

आप के नेताओं को लगता है कि अभी भाजपा उनकी पार्टी या फिर कांग्रेस में तोड़-फोड़ इसलिए नहीं कर रही है क्योंकि दो राज्यों –हरियाणा और महाराष्ट्र – में इसी साल चुनाव होने हैं और इसका असर उन पर पड़ सकता है. चूंकि ये चुनाव लोकसभा चुनावों और अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद होने वाले पहले चुनाव हैं इसलिए भाजपा इनसे पहले अपनी छवि खराब करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती. एक बार चुनाव हो गए तो हो सकता है कि वह अपनी हिचक को उठाकर खूंटी पर टांग दे. उस हालत में अगर भाजपा ने किसी तरह की तोड़-फोड़ करके सरकार बना ली तो फिर केंद्र में भी उसकी मजबूत सरकार होने की स्थिति में उसका समय से पहले गिरना बड़ा मुश्किल होगा. तब दिल्ली में चार साल का इंतजार आम आदमी पार्टी के लिए बड़ा संकट पैदा कर सकता है. दिल्ली के अलावा पंजाब में भी आप के लिए थोड़ी संभावनाओं का जन्म हुआ है लेकिन वहां पर भी चुनाव होने में अभी तीन साल का समय है.

क्या आप की आशंका सही है कि भाजपा चुनाव जीतकर दिल्ली में सरकार बनाने के बजाय जोड़तोड़ की सरकार बनाने में ज्यादा इच्छुक है? अगर ऐसा है तो भाजपा के ऐसा चाहने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

आप के सामने एक और समस्या यह भी हो सकती है कि तहलका की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक उसके कार्यकर्ताओं ने पिछले दिनों बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़ा है. ऐसे में सालों तक संघर्ष के लिए हजारों कार्यकर्ताओं को जोड़े रखना उसके लिए आसान नहीं होगा.

लेकिन अगर पूरी तरह तैयार न होते हुए भी आप तुरंत चुनाव करवाना चाह रही है तो भाजपा इसका फायदा उठाने को तैयार क्यों नहीं है? क्या आप की आशंका सही है कि भाजपा चुनाव जीतकर दिल्ली में सरकार बनाने की बजाय जोड़ तोड़ की सरकार बनाने में ज्यादा इच्छुक है? अगर ऐसा है तो भाजपा के ऐसा चाहने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

दरअसल आनेवाले समय में जिन भी राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं या हो सकते हैं उनमें दिल्ली ही ऐसा है जहां आप के रूप में एक मजबूत विपक्ष भाजपा के सामने है. हाल ही में उत्तराखंड में हुए उपचुनाव भी बताते हैं कि जरूरी नहीं है कि क्षेत्रीय चुनावों में भी मोदी का जादू उतना ही चले जितना लोकसभा चुनावों में चला था. ऊपर से दिल्ली में पार्टी के सामने नेतृत्व की समस्या भी है. पिछले एक साल से भी कम समय में इस प्रदेश ने तीन-तीन पार्टी अध्यक्षों को देखा है. दिल्ली प्रदेश भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष सतीश उपाध्याय का नाम अध्यक्ष बनने से पहले ज्यादातर लोगों ने नहीं सुना था. दिल्ली में पार्टी का सबसे विश्वसनीय चेहरा रहे डॉक्टर हर्षवर्धन एक ऐसी सरकार के कैबिनेट मंत्री हैं जिसमें एक-एक मंत्री कई-कई महत्वपूर्ण विभागों का काम संभाल रहे हैं. इन वजहों से दिल्ली में पार्टी संगठन की हालत फिलहाल जैसी है उसके चलते भाजपा के विधायक भी जल्द चुनाव में नहीं जाना चाहते.

जिन राज्यों में इसी साल चुनाव होने हैं उनमें महाराष्ट्र और हरियाणा तो हैं ही बिहार और उत्तर प्रदेश में होनेवाले उपचुनाव भी हैं. कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा की सरकार अगर केंद्र में इतने जबर्दस्त बहुमत के साथ है तो उत्तर प्रदेश, बिहार इसकी सबसे बड़ी वजहों में से हैं. यहां की करीब 10-10 सीटों पर उपचुनाव होने हैं. वैसे तो उपचुनाव ज्यादातर सत्तासीन दल के पक्ष में जाते देखे गए हैं लेकिन जिस तरह की स्थितियां इन दो राज्यों में भाजपा के लिए बन गईं हैं उनके चलते इनका भी जबर्दस्त प्रतीकात्मक महत्व उसके लिए हो गया है.

जैसाकि आप को भी लगता है कि भाजपा अभी दिल्ली में ऐसा कुछ नहीं करना चाहती जिसका जरा भी बुरा असर चुनावों में जानेवाले राज्यों पर पड़े. लेकिन जरूरी हुआ तो इन राज्यों के चुनावों के बाद वह जोड़-जुगत से भी सरकार बनाने की सोच सकती है.

इसके अलावा भाजपा नेतृत्व और सरकार में एक सोच यह भी बन रही है कि कुछ समय में कई मोर्चों पर सरकार जो काम कर रही है उसके परिणाम आने शुरू हो जाएंगे जिससे उसके पक्ष में सकारात्मक माहौल बन सकता है. अभी महंगाई की दर काफी ऊपर है जो आने वाले समय में अपने आप और थोड़ा उसके प्रयासों से नीचे आ सकती है. भाजपा की केंद्र सरकार को लगता है कि भले ही वह केंद्रीय बजट के जरिये जनता में पिछली सरकार से खुद के अलग होने का संदेश मजबूती से नहीं दे पाई हो लेकिन आनेवाले समय में वह नए कानून बनाकर, अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जरूरी नये कदम उठाकर और निर्णय लेनेवाली सरकार बन-दिखकर सकारात्मक संदेश देने में सफल रहेगी.

भाजपा के अंदर एक सोच यह भी है कि अगर उसे आम आदमी पार्टी के भूत से हमेशा के लिए निजात पाना है तो ऐसा उसे दिल्ली में पटखनी देकर ही किया जा सकता है. नहीं तो वह बिलकुल केंद्र सरकार की नाक के नीचे एक ऐसा तिनका साबित हो सकती है जो वक्त-बेवक्त उसे असहज और उसके व्यवहार को असंतुलित बनाता रहे. भले ही दिल्ली एक पूरा राज्य न हो लेकिन यहां सत्तासीन होने का एक अपना सांकेतिक महत्व भी है. इन्हीं सब वजहों से यहां पार्टी एक नहीं बल्कि 10 बार फूंककर कदम रखते दिख रही है.

(इस लेख के कुछ हिस्से   ‘केजरीवाल इतनी जल्दी में क्यों हैं’ शीर्षक से वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुके हैं.)

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गाजा संकट से उपजे सवाल

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

गाजा पट्टी में एक बार फिर निर्दोष नागरिकों का खून बह रहा है. हर दिन मरनेवालों की तादाद बढ़ती ही जा रही है. जुलाई के दूसरे सप्ताह से फलीस्तीनी इलाकों पर जारी अंधाधुंध इजरायली हवाई हमलों में अब तक एक हजार से ज्यादा फलीस्तीनी मारे जा चुके हैं और छह हजार से ज्यादा घायल हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानवीय मामलों की समन्वय समिति (यूएनओसीएचए) के मुताबिक, मारे गए लोगों में 760 से अधिक निर्दोष नागरिक हैं जिनमें से 362 महिलाएं या बच्चे हैं. समिति के अनुसार, ‘गाजा पट्टी में नागरिकों के लिए कोई भी जगह सुरक्षित नहीं है.’

यानी गाजा पट्टी और फलीस्तीनी नागरिक पिछले कुछ वर्षों की सबसे गंभीर मानवीय त्रासदी से गुजर रहे हैं. दूसरी ओर, दुनिया के अनेकों देशों में इजराइली हमलों के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन हुए और हो रहे हैं. जाहिर है कि यह खबर दुनिया-भर के न्यूज मीडिया- चैनलों और अखबारों में छाई हुई है. यूक्रेन में मलेशियाई यात्री विमान के मार गिराए जाने और ईराक में इस्लामी विद्रोहियों की सैन्य बढ़त जैसी बड़ी खबरों के बावजूद गाजा में इजरायली हमले की खबर दुनिया-भर में सुर्खियों में बनी हुई है. खासकर विकसित पश्चिमी देशों के बड़े समाचार समूहों के अलावा कई-कई रिपोर्टर और टीमें गाजा और इजरायल से इसकी चौबीसों घंटे रिपोर्टिंग कर रही हैं. चैनलों पर लगातार चर्चाएं और बहसें हो रही हैं. अखबारों में मत और टिप्पणियां छप रही हैं. पश्चिमी देशों के अलावा अरब देशों के अल जजीरा जैसे चैनलों के अलावा चीन सहित कई विकासशील देशों के चैनल और अखबार भी अपने संवाददाताओं के जरिये गाजा संकट की लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और खुद के लिए सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की मांग कर रहे भारत के अखबार और चैनल गाजा संकट को कैसे कवर कर रहे हैं?

हालांकि भारतीय अखबारों और चैनलों में भी यह खबर लगातार चल और छप रही है लेकिन उस तरह कवर नहीं हो रही जैसे पश्चिमी देशों या अल जजीरा जैसे चैनल और चीन जैसे देशों का न्यूज मीडिया इसे कवर कर रहा है. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि किसी भी चैनल या अखबार ने गाजा में अपने रिपोर्टर या कैमरा टीमें नहीं भेजीं. आखिर क्यों? यही नहीं, दो सप्ताह से जारी संघर्ष और हमलों की रिपोर्टें ज्यादातर मौकों पर चैनलों की फटाफट या न्यूज हंड्रेड में ‘रूटीन खबर’ की तरह शामिल की गईं. अखबारों में उन्हें अंदर के पन्नों में जगह मिली.

बिना अपवाद सभी अखबार और चैनल पश्चिमी एजेंसियों और अखबारों की रिपोर्टों को छापते/दिखाते रहे. इन रिपोर्टों और विश्लेषणों में दबे-छिपे और कई बार खुलकर इजरायल के पक्ष में झुका पश्चिमी नजरिया और झुकाव साफ देखा जा सकता है. हालांकि भारतीय जनमत का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक रूप से फलीस्तीन के साथ रहा है और इजरायल के रवैय्ये की आलोचना करता रहा है. अफसोस कि भारतीय संसद में गाजा मुद्दे पर चर्चा कराने को लेकर विपक्ष और सरकार के बीच हुई तकरार के बाद कई चैनलों पर हुई बड़ी बहसों/चर्चाओं में भाजपा/शिव सेना के प्रतिनिधियों की मौजूदगी के कारण जाने-अनजाने एक सांप्रदायिक अंडरटोन भी दिखाई पड़ा.

कहने की जरूरत नहीं है कि एक बार फिर भारतीय न्यूज मीडिया गाजा जैसी बड़ी वैश्विक त्रासदी की खबर को स्वतंत्र और सुसंगत तरीके से कवर करने में नाकाम रहा. और गाजा ही क्यों, ईराक में कट्टर इस्लामी संगठन- आईएसआईएस की बढ़त और यूक्रेन संकट जैसे वैश्विक महत्व की खबरों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट और व्यापक कवरेज के मामले में भारतीय न्यूज मीडिया का बौनापन साफ दिख जाता है. भारत को वैश्विक महाशक्ति का दर्जा देने का राग अलापनेवाला भारतीय न्यूज मीडिया अपने दर्शकों/पाठकों को वैश्विक महत्व के बड़े मसलों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट रिपोर्टिंग और विश्लेषण पेश करने का साहस और तैयारी कब दिखाएगा?

‘लोग संगठन बनाकर चुनाव लड़ते हैं हमने चुनाव के जरिए संगठन बनाया है’

फोटोः विकास कुमार
आम आदमी पार्टी के नेता और विधायक मनीष सिसोदिया. फोटो: विकास कुमार
आम आदमी पार्टी के नेता और विधायक मनीष सिसोदिया. फोटो: विकास कुमार

दिल्ली के चुनाव को लेकर आपकी पार्टी इतनी जल्दबाजी में क्यों हैं ?
जल्दबाजी चुनाव को लेकर नहीं है. दिल्ली में हो क्या रहा है कि एक अभिभावक को अपने बच्चों के स्कूल में एडमिशन के लिए एमएलए का चक्कर लगाना पड़ रहा है. ब्यूरोक्रेसी अपने हिसाब से चल रही है. दिल्ली को एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार की तुरंत जरूरत है. सब एक-दूसरे पर टाल रहे हैं. बिजली-पानी की स्थिति खराब हो गई है. राजनीतिक नेतृत्व का आना जरूरी है. नेतृत्व का खालीपन हो गया है. कितनी देर तक यह राजनीतिक खालीपन को बनाए रखेंगे. दिल्ली को एक चुनी हुई सरकार की जरूरत है.

कुछ लोगों का कहना है कि अगर आप चुनाव थोड़ा और टाले तो उसे ही फायदा होगा. कुछ दूसरे लोगों का मानना है कि आपके कार्यकर्ता हड़बड़ी में हैं, कुछ छोड़कर जा रहे है वे परेशान हैं. अगर यह ज्यादा समय तक टलेगा तो आपके लिए उन्हें बनाए रखना बड़ा मुश्किल होगा.
कार्यकर्ता देश बदलने के लिए आए हैं. वे तो चुनाव से पहले आए थे. चुनाव के बाद वे दूसरी तरह से काम करेंगे.

उनमें से कई लोग बहुत निराश हैं. एक तो जिस तरह से दिल्ली की सरकार से आप हटे और बाद में जिस तरह से आप कार्यकर्ताओं को पहले निर्णय की प्रक्रिया में शामिल करते थे अब वैसा नहीं रहा. इसको लेकर कार्यकर्ताओं में काफी नाराजगी है.
हो सकता है कि कुछ लोगों मे ऐसा हो. जैसे-जैसे लोगों की संख्या बढ़ेगी इस तरह की कुछ बातें होंगी. आज जो कार्यकर्ता हमारे साथ खड़ा है वह दूसरी भूमिका में है. कल अगर सरकार बनती है तो वह दूसरी भूमिका में हमारे साथ खड़ा होगा. काम तो कार्यकर्ता ही करेगा. पर हमारे दिमाग में वह बात नहीं है. हमारे सामने स्थिति साफ होनी चाहिए. अगर उपराज्यपाल का ही शासन रहना है तो वही साफ कर दिया जाय.

राजनीतिक लाभ की निगाह से देखें तो आपको नहीं लगता कि थोड़ा और समय लिया जाय तो आप लोगों को और अच्छी तरह से समझा पाएंगे.
मुझे लगता है कि इसकी कोई लिमिट नहीं है. यह तो परीक्षा देनेवाले बच्चे जैसी स्थिति है. वह चाहता है कि दो दिन और मिल जाते तो थोड़ा और तैयारी हो जाती पर यह तो कोई समाधान नहीं है.

कार्यकर्ताओं का जो मामला है वह बड़ी समस्या है. लोकसभा चुनावों में हार के बाद कंस्टीट्यूशन क्लब में हुई बैठक में आप लोगों ने एक रिड्रेशल कमेटी बनाई थी. उसका क्या हुआ. उन्होंने क्या सुझाव दिए?
वह सुझाव देने के लिए नहीं थी. वे सारी चीजें मिशन विस्तार के तहत जोड़ दी गई हैं. मिशन विस्तार के तहत पूरे देश में जो लोग जुड़ते हैं उन्हें जिम्मेदारियां दी जाती हैं.

पर जो खबरें आ रही हैं वह चिंताजनक हैं. जिस करन को आप लोगों ने वालंटियर रिड्रेसल कमेटी की जिम्मेदारी सौंपी थी अब उसे ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है. उसके सुझाव को आपने खारिज कर दिया.
करन का काम सुझाव देना नहीं था. करन का काम ये था कि ऑफिस में जो कार्यकर्ता आते हैं उन्हें शीर्ष नेताओं के साथ जोड़ना था. लोगों के बीच में कम्युनिकेट करना था. करन ने थोड़ी-सी गलतियां की. उसे लगा कि उसका काम जगह-जगह जाकर सिर्फ वालंटियर को जोड़ना रह गया है. उसने कई विधानसभाओं में जाकर मीटिंग करनी शुरू कर दी, फिर कुछ और ऐसी एक्टिविटी की जो पार्टी के लिए ठीक नहीं थी तो इस वजह से उसे निकालने का फैसला करना पड़ा. कंस्टीट्यूशन क्लब में जो फैसला हुआ था उसका मकसद यह था कि सेंट्रल ऑफिस में एक टीम होगी जो देश-भर से जुड़ रहे नए लोगों को अलग-अलग कमेटियों और विभागों से जोड़ने और उन्हें डायवर्ट करने का काम करेगी. ताकि कोई अनअटेंडेड न रहे. किसी को यह अहसास न हो कि वह हमसे जुड़ना चाहता था लेकिन किसी ने उसे एंटरटेन ही नहीं किया गया.

अब लोगों के जुड़ने का सिलसिला कैसा चल रहा है. विधानसभा चुनाव के बाद तो हर व्यक्ति आप से जुड़ना चाहता था.     
दो तरह के लोग हमेशा जुड़ते हैं. एक तो पार्टी जब चुनाव जीत रही होती है तब ऐसे लोग जुड़ना चाहते हैं जिन्हें लगता है कि कुछ अच्छा काम करना है और यह पार्टी उनका मकसद पूरा कर सकती है. दूसरे वे लोग होते हैं जो राजनीति में करियर बनाना चाहते हैं, टिकट पाना चाहते हैं. जो लोग करियर की इच्छा लेकर आते हैं वे तो बाद में निकल लेते हैं. जो लोग देश बदलने की इच्छा लेकर आते हैं उन्हें पता है कि यह रास्ता इतना आसान नहीं है.

तो आपको लगता है कि अब भले ही कम लोग जुड़ रहे हैं लेकिन जो लोग जुड़ रहे हैं वे ठोस और अच्छी नीयत से जुड़ने वाले लोग हैं.
कम या ज्यादा का सवाल नहीं है. इस समय हमारी कोई एनरोलमेंट की ड्राइव नहीं चल रही है. आज भी लोग हर दिन आते हैं मेरे दफ्तर में जो हमसे जुड़ना चाहते हैं.

पर अब वैसी बड़ी खबरे नहीं आ रही हैं कि कैप्टन गोपीनाथ जुड़ रहे हैं, बालाकृष्णन जुड़ रहे हैं. अब इसके उलट खबरें आ रही हैं कि शाजिया इल्मी जा रही हैं, योगेंद्र यादव जा रहे हैं. ये नकारात्मक खबरें ज्यादा आ रही हैं.
देखिए जब पार्टी ऊपर जा रही होती है तब लोग आते हैं. जब पार्टी नीचे जाती है तब लोग जाने लगते हैं. यह तो प्रकृति का नियम है.

कार्यकर्ताओ का तो हम नहीं आंक सकते लेकिन वेबसाइट के माध्यम से डोनेशन मिलने की जो रफ्तार है उसका अंदाजा तो मिल ही जाता है.
नहीं उसमे भी लोगों को एक गलतफहमी है. आम आदमी पार्टी ने हमेशा ड्राइव चलाया है. हमने हमेशा लोगों को कॉल दी है कि हम चुनाव लड़ना चाहते हैं या हम फलाना काम करना चाहते हैं हमे पैसे की जरूरत है. उसमें भी हम एक कैंप लगाकर चलते हैं कि इस सीमा से ऊपर हमें डोनेशन नहीं चाहिए. आपको याद होगा हमने दिल्ली के चुनाव में 20 करोड़ रुपये पर कैप लगा दी थी. अब हमने कोई काल ही नहीं कर रखी है. अब आगे अगर कोई चुनाव होगा तब हम लोगो को कॉल करेंगे कि हमें पैसे की जरूरत है.

हालांकि आपने लोकसभा में कोई कैप नहीं लगाई थी पर शायद वह ड्राइव इतनी सफल नहीं रही.
हां लोकसभा में हमने नहीं लगाया था.

अच्छा हम पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र पर लौटते हैं. यह बात बार-बार आ रही है कि पार्टी के भीतर लोकतंत्र का अभाव है. यही बात शाजिया के मामले में आई, योगेंद्र यादव यही बात कह रहे थे. योगेंद्र यादव ने जो मुद्दे उठाए उस पर आपका लिखा जवाब सामने आया था. उस पत्र में योगेंद्र यादव के उठाए मुद्दों का जवाब नहीं था बल्कि कहीं न कहीं ऐसा लग रहा था कि आप थोड़ा पर्सनल हो गए थे.
देखिए हमारी पार्टी अभी शुरुआती अवस्था में है. इस दशा में कुछ गलतियां होंगी, कुछ बदलाव होंगे. कुछ अच्छे काम भी होंगे. शाजिया ने जो मुद्दे उठाए मैं बहुत सारे मुद्दों से सहमत हूं. आप इसे इवॉल्यूशन से जोड़कर देखिए कि पहले कुल पंद्रह-बीस लोग थे दिल्ली में वही लोग हर कमेटी में काम कर रहे थे. वही मेनिफेस्टो कमेटी में थे, वही लोग सिलेक्शन कमेटी में होते थे, वही लोग अलग-अलग कमेटियों में होते थे. आज पार्टी बहुत बड़ी हो गई है. इसके पास 27 एमएलए, चार एमपी, तीन सौ उम्मीदवार हैं जिनमें से कई बहुत हाई प्रोफाइल लोग हैं. अब हम उस स्थिति में है कि जिम्मेदारियों को बांटकर जो तथाकथित कोटरियां है उन्हें तोड़ सकें. आज कर्नाटक मे रहने वाले पृथ्वी रेड्डी संगठन के सबसे प्रमुख व्यक्ति बन गए हैं. आज से डेढ़ साल पहले कहते तो शायद ही बन पाते.

आपने कहा कि शाजिया के कुछ मुद्दों से आप सहमत हैं. योगेंद्र यादव ने भी लगभग उसी तरह के मामले उठाए थे. पर आपने उनका जवाब काफी व्यक्तिगत स्तर पर जाकर दिया.
देखिए योगेंद्र भाई के पत्र का मैंने जवाब नहीं दिया था. वो आप लोगों का इंटरप्रेटेशन है. वह असल में 35 लोगों के बीच चल रही चर्चा थी. उसमें योगेंद्र भाई ने कुछ कहा, मैंने कुछ कहा दस और लोगों ने कुछ कहा होगा. उसका लीक होना दुर्भाग्यपूर्ण है. उसमें जो कुछ कहा गया मेरा मानना है कि वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है. जब हम 35 लोग ग्रुप में बैठते हैं तो हम 35 तरह की बातें भी कर सकते हैं और एक तरह की भी. अब बाद में कोई सिर्फ दो लोगों की बात को उठाकर इस तरह से उसकी व्याख्या करे तो यह ठीक नहीं है. योगेंद्र भाई और मेरे बीच जो चर्चा हुई वह असल में 35 लोगों के बीच चल रहा एक जीमेल डिस्कशन था. हमारे बीच में कोई गलतफहमी नहीं है.

लेकिन योगेंद्र यादव ने जो सवाल उठाए थे वे हम आपके सामने रख रहे हैं क्योंकि वह सवाल फिर भी महत्वपूर्ण हैं. उनका कहना था कि लोकसभा चुनाव के बाद सिर्फ लोकल यूनिटों को भंग कर देना ठीक नहीं है, जवाबदेही ऊपर तक तय होनी चाहिए. वरना पार्टी में हाई कमान कल्चर की नींव पड़ जाएगी. यह तो कांग्रेसी संस्कृति हो गई कि आप कोई चुनाव जीत गए तो गांधी परिवार की वजह से और हार गए तो लोकल लीडरशिप और कार्यकर्ता जिम्मेदार हैं. जिम्मेदारी मनीष सिसोदिया से लेकर अरविंद केजरीवाल तक सबकी होनी चाहिए थी या नहीं.
पहली बात वह लेटर नहीं है वह हमारे बीच की बातचीत है. अरविंद ने कुछ कहा, मैंने कुछ कहा योगेंद्र भाई ने कुछ कहा. वो सब चीजें जब पार्टी के भीतर 35 लोग तय कर लेते हैं तब वह पार्टी का निर्णय बनता है. वह एक बहुत प्रीमेच्योर बातचीत को सिलेक्टिवली उठा लिया गया है. मान लीजिए आपकी किसी मुद्दे पर एक सोच थी. आप आए, मुझसे बातचीत की और आपकी सोच बदल गई कि हां भाई यह बात ज्यादा सही है. अरविंद ने या किसी और वरिष्ठ नेता ने अपना एक नजरिया रखा था वह यूनिटों को भंग करने का फैसला नहीं था. अब उस पर योगेंद्र भाई ने अपना विचार रखा. अब सिर्फ योगेंद्र भाई के किसी विचार को लीडरशिप के ऊपर हमले जैसा परसेप्शन बनाएंगे तो यह ठीक बात नहीं है.  

शंकर गुहा नियोगी: मजदूर आंदोलन

शंकर गुहा नियोगी की हत्या के मामले पर सुप्रीम कोटट का फैसला 2005 में आया था
शंकर गुहा नियोगी की हत्या के मामले पर सुप्रीम कोटट का फैसला 2005 में आया था.
शंकर गुहा नियोगी की हत्या के मामले पर सुप्रीम कोटट का फैसला 2005 में आया था.

भारत में यूं तो कई मजदूर नेता हुए हैं लेकिन इनमें से एक ही दौर के दो लोग सबसे ज्यादा चर्चित रहे. इनमें पहला नाम है दत्ता सामंत का. उन्होंने बंबई के कपड़ा मिल मजदूरों की मांगों को लेकर 1982 में हड़ताल की थी. इसे एशिया में अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल कहा जाता है. हालांकि इसके चलते कई मिलें हमेशा के लिए बंद हो गईं और तकरीबन अस्सी हजार मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. इसी दौर के जो दूसरे सबसे चर्चित नेता रहे वे थे शंकर गुहा नियोगी. उन्होंने 1977 में असंठित क्षेत्र के मजदूरों का सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा किया था. छत्तीसगढ़ के इस मजदूर नेता का आंदोलन सिर्फ हड़ताल तक सीमित नहीं था. अपने सामाजिक कार्यों की वजह से इसे आज भी दूसरे आंदोलनों के लिए अनुकरणीय माना जाता है.

मूल रूप से पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के रहनेवाले नियोगी का असली नाम धीरेश था. 1970 के दशक की शुरुआत में वे छत्तीसगढ आए और यहां भिलाई स्टील संयंत्र (बीएसपी) में बतौर कुशल श्रमिक काम करने लगे. अपने छात्र जीवन से मजदूरों के समर्थन में काम करने वाले धीरेश जल्दी ही बीएसपी में एक मजदूर नेता के तौर पर पहचाने जाने लगे. उस समय तक इस संयंत्र में कभी मजदूरों की हड़ताल नहीं हुई थी या कहें कि उन्हें कभी अपनी मांगों के लिए एकजुट नहीं होने दिया गया था. लेकिन धीरेश के आने से यहां स्थितियां बदल गईं. पहली बार मजदूरों ने अपनी काम करने की दशाओं में सुधार के लिए हड़ताल की और उनकी मांगों के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा. हालांकि इसके बाद प्रबंधन ने धीरेश को नौकरी से बर्खास्त कर दिया. यह घटना 1967 की है. इसके बाद लंबे अरसे तक तक वे छत्तीसगढ़ में घूम-घूमकर मजदूरों को अपने अधिकारों के लिए जागरूक करते रहे. 1970-71 में वे दोबारा भिलाई आ गए और अपना नाम बदलकर शंकर कर लिया. अब वे भिलाई के दानी टोला की चूना पत्थर खदानों में मजदूर की हैसियत से काम करने लगे. अपने पहले के काम की वजह से धीरेश यानी शंकर यहां भी मजदूरों के बीच लोकप्रिय हो गए. उस समय बीएसपी की दल्ली और राजहरा स्थित लौह अयस्क खदानों में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की बहुत बुरी दशा थी. 14-16  घंटे काम करने के बदले उन्हेें महज दो रुपये मजदूरी मिलती थी. उनकी कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं थी. शंकर ने इन मजदूरों को साथ लेकर 1977 में छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ (सीएमएसएस) का गठन किया और इसके बैनर तले मजदूरों के कल्याण के लिए कई गतिविधियां शुरू कीं. यूनियन के गठन के दो महीने के भीतर ही इससे तकरीबन 10-12 हजार मजदूर जुड़ गए थे. यह शंकर गुहा नियोगी और उनके कुछ साथियों का नेतृत्व ही था कि इस यूनियन ने अपने कामों में शिक्षा व स्वास्थ्य और शराबबंदी जैसे कार्यक्रमों को पूरी प्रतिबद्धता से शामिल किया. यह संगठन सितंबर, 1977 में उस समय देशभर में चर्चा में आया जब दल्ली-राजहरा की खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों ने नियोगी के नेतृत्व में अनिश्चितकालीन हड़ताल कर दी. यह ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की देश में सबसे बड़ी हड़ताल थी. इसका असर इतना व्यापक था कि संयंत्र प्रबंधन को मजदूरों की तमाम मांगें माननी पड़ीं.

इस एक हड़ताल ने छत्तीसगढ़ में नियोगी को सबसे प्रभावशाली मजदूर नेता बना दिया. उनकी यूनियन का साल दर साल विस्तार होने लगा. भिलाई की कई निजी कंपनियों के मजदूर भी उसके सदस्य बनने लगे. कहा जाता है कि सन 1990 के आसपास उद्योगपतियों की ताकतवर लॉबी इस संगठन से आशंकित रहने लगी. नियोगी को जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं और आखिरकार सितंबर, 1991 में पल्टन मल्लाह नाम के व्यक्ति ने उनकी हत्या कर दी. यह घटना छत्तीसगढ़ के मजदूर आंदोलन के लिए बहुत बड़ा आघात थी. नियोगी हत्याकांड में मल्लाह के साथ ही कुछ उद्योगपतियों को आरोपी बनाया गया था लेकिन इस मामले में मुख्य अभियुक्त के अलावा किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सका.

यूपीएससी-सीसैट विवाद: प्रश्नपत्र पर सवाल

उग्र यूपीएससी केखिलाफ खिल्ली में प्रिशर्न करते और खिरफ्तारी िेते छात्र
यूपीएससी के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन  करते और खिरफ्तारी देते छात्र. फोटो: राहुल गुप्ता.
यूपीएससी के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन करते और गिरफ्तारी देते छात्र. फोटो: राहुल गुप्ता.

‘सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के लिए कम से कम दिन में सात से आठ घंटे की पढ़ाई करनी होती है. इतने घंटे हम अपने कमरे में ही कैद रहते थे, लेकिन पिछले दस दिनों से हम पढ़ ही नहीं पा रहे. दिन रात सड़क पर रह रहे हैं. नोट्स के बदले बैनर-पोस्टर बना रहे हैं. ट्यूशन जाने की जगह प्रदर्शन और अनशन में जा रहे हैं. लेकिन करें तो क्या करें? यूपीएसी ने ऐसी ही हालत बना दी है कि हिंदी और दूसरे भाषाओं में परीक्षा देने वाले छात्रों को पहले लड़ना होगा, जीतना होगा और तब पढ़ना होगा. केवल पढ़ाई करने से कुछ नहीं होने वाला.’

मायूसी और जोश के मिले-जुले भाव के साथ यह बात कहते विवेक कुमार उत्तर प्रदेश के जौनपुर के रहने वाले हैं. पांच साल पहले सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने के लिए वे दिल्ली आए और अपने जैसे उन हजारों छात्रों की तरह शहर के मुखर्जी नगर इलाके में समा गए जो चुपचाप इस परीक्षा की तैयारी करते रहते हैं. लेकिन पिछले एक पखवाड़े से इन छात्रों का एक बड़ा वर्ग आंदोलित है. मुखर्जीनगर में अनशन और प्रदर्शन चल रहा है. हिंदी सहित अन्य दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में तैयारी करने वाले छात्रों का आरोप है कि सिविल सेवा करवाने वाला यूपीएसी 2011 से उनके साथ भेदभाव कर रहा है. इस साल यूपीएससी ने सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में एक बदलाव किया था. इसे अब सी-सैट (सिविल सर्विसेस एप्टिट्यूड टेस्ट) के नाम से जाना जाता है. यूपीएससी ने यह बदलाव प्रोफेसर एसके खन्ना की अध्यक्षता वाली कमेटी की सिफारिशों के आधार पर किया था. लेकिन छात्रों के एक बड़े वर्ग को यह बदलाव मंजूर नहीं है और वह इसमें सुधार चाहता है.

2010 तक सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा 450 अंकों की हुआ करती थी. इसमें दो पर्चे होते थे. इतिहास, राजनीतिशास्त्र, भौतिकी जैसे 20 वैकल्पिक विषयों में से एक का प्रश्नपत्र जो 300 अंकों का होता था और 150 अंकों वाला सामान्य ज्ञान का प्रश्नपत्र. 2011 में लागू सीसैट में 450 अंकों की बजाय दो-दो सौ अंकों के दो प्रश्नपत्र हैं. पहला सामान्य ज्ञान का है और दूसरे में मानसिक क्षमता, तर्कशक्ति और आंकड़ों के विश्लेषण, अंग्रेजी भाषा के ज्ञान से जुड़े प्रश्न हैं.

हालिया विवाद इसी दूसरे प्रश्न पत्र को लेकर है. विरोध कर रहे छात्रों का कहना है कि जब मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी की परीक्षा होती ही है तो फिर प्रारंभिक परीक्षा में भी इसकी क्या जरूरत है. छात्रों की शिकायत है कि इस प्रणाली के तहत मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले छात्रों को फायदा पहुंचता है. छात्र यह भी कहते हैं कि यह प्रणाली गांव-देहात के स्कूलों से पढ़कर आए हुए छात्रों के सामने बाधा पैदा करती है जबकि अंग्रेजी माध्यम और शहरों में पढ़े हुए बच्चों के लिए रास्ता और आसान करती है.

पूर्व प्रशासनिक अधिकारी डॉक्टर विकास दिव्यकीर्ति कहते हैं, ‘देखिए, कुछ लोग जबरन इसे हिंदी बनाम अंग्रेजी की लड़ाई बता रहे हैं. ऐसे लोग यह तस्वीर बनाना चाहते हैं मानो हिंदी माध्यम के बच्चे अंग्रेजी नहीं जानते और इसी वजह से वे इसका विरोध कर रहे हैं जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. अंग्रेजी से किसी को भी दिक्कत नहीं है. अंग्रेजी का एक पेपर तो मुख्य परीक्षा में वर्षों से होता आ रहा है. आजतक किसी ने उसका विरोध नहीं किया. असल दिक्कत यूपीएससी के उस नए परीक्षा पैटर्न से है जो हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बच्चों को तो नुकसान पहुंचाता है, लेकिन अंग्रेजी और विज्ञान पृष्ठभूमि के बच्चों को फायदा पहुंचाता है.

डॉक्टर दिव्यकीर्ति आगे बताते हैं, ‘समझने की कोशिश कीजिए. सी-सैट में कुल 80 सवाल होते हैं. इन 80 सवालों में से 40 सवाल ऐसे हैं जो सीधे-सीधे अंग्रेजी माध्यम के बच्चों को फायदा पहुंचाते हैं. इन 40 सवालों में से सात या आठ अंग्रेजी भाषा के होते हैं तो जाहिर तौर पर इन सवालों को वे बच्चे जल्दी हल कर लेंगे जिन्होंने अंग्रेजी भाषा पढ़ी होगी. 32 सवाल मानसिक क्षमता परखने के लिए होते हैं. मूल रूप से ये सवाल अंग्रेजी में बनते हैं और बाद में इनका हिंदी अनुवाद किया जाता है. अब इन अनुवादों को देखिए तो समझ में आएगा कि हिंदी माध्यम के बच्चे इन सवालों को कैसे हल कर पाएंगे. हिंदी में ऊल-जुलूल अनुवाद के चलते इन सवालों को समझने के लिए अंग्रेजी में छपे प्रश्न ही पढ़ने होंगे. जब तक हिंदी का बच्चा सवाल समझता है तब तक अंग्रेजी वाला कई सवाल हल कर चुका होता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यह कोई सामान्य परीक्षा नहीं बल्कि प्रतियोगी परीक्षा है जिसमें एक-एक मिनट बहुत कीमती होता है. क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या इसका विरोध नहीं होना चाहिए?  क्या यह केवल हिंदी बनाम अंग्रेजी का मामला है?’

ऐसे कई सवाल हैं जिनका यूपीएसी के पास कोई जवाब नहीं है. हां कुछ पूर्व अधिकारी हैं जो केवल इतना भर कहते हैं कि यूपीएससी एक संवैधानिक संस्था है और इस पर भेदभाव का आरोप नहीं लगाना चाहिए. लेकिन उनके पास भी इस बात का जवाब नहीं है कि जो संस्था पूरे देश में इतनी महत्वपूर्ण परीक्षा लेती है वह सवाल के हिंदी अनुवाद में ’स्टील प्लांट’ को स्टील का पौधा’ , ‘टैबलेट कंप्यूटर’ को ‘गोली कंप्यूटर’ और ज्वाईंट वेंचर रूट’ को ‘संयुक्त संधिमार्ग’ कैसे लिख देती है?

इस अनुवाद को देखकर हिंदी के जाने माने साहित्यकार और सिविल सेवा में रह चुके अशोक वाजपेयी भी चकरा गए. उनका कहना था, ‘मैं इतने साल से हिंदी में कहानी-कविताएं लिख रहा हूं. यह कहने में भी संकोच नहीं है कि हिंदी की अच्छी जानकारी है मुझे. फिर भी जब मैंने इन सवालों के हिंदी अनुवाद देखे तो माथा चकरा गया. बहुत से सवाल तो मैं समझ ही नहीं पाया.’ दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इस अनुवाद को वाहियात बताकर खारिज कर दिया. जाने माने पत्रकार और टीवी एंकर रवीश कुमार ने अपने टीवी शो के दौरान यहां तक कहा कि जिन लोगों पर अनुवाद की जिम्मेदारी है उन पर तो कानून के तहत मामला दर्ज किया जाना चाहिए.

विरोध कर रहे छात्रों के मुताबिक अनुवाद की समस्या तो केवल बानगी भर है. इससे यह दिखता है कि यूपीएससी एक भाषा के प्रति किस कदर लापरवाह है. छात्रों की मांग में सी-सैट में बदलाव के अलावा यह भी शामिल है कि अगस्त में होने वाली यूपीएससी परीक्षा को एक महीने टाला जाए. इस मांग के पीछे छात्रों का तर्क है कि यूपीएससी के भेदभावपूर्ण रवैय्येे का विरोध करने की वजह से छात्र अपनी तैयारी नहीं कर पाए हैं.

गौर करनेवाली बात यह भी है कि यूपीएससी द्वारा यूजीसी के भूतपूर्व अध्यक्ष अरुण निगवेकर की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में सी-सैट को भेदभावपूर्ण बताया था. समिति ने अगस्त 2012 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सी-सैट शहरी क्षेत्रों के अंग्रेजी माध्यम के प्रतियोगियों को फायदा पहुंचाता है तथा ग्रामीण क्षेत्र के प्रतियोगियों के लिए कठिनाई पैदा करता है. समिति के मुताबिक पहले वर्ग के प्रतियोगी सामान्य अध्ययन पर पकड़ न रखने के बावजूद सी-सैट पर अच्छी पकड़ होने के चलते सफल हो रहे हैं जबकि दूसरे वर्ग के प्रतियोगियों के लिए सामान्य अध्ययन के विषय में अच्छी पकड़ होने पर भी प्रारंभिक परीक्षा पास कर पाना मुश्किल होता है. इसी समिति ने अंग्रेजी से होनेवाले अनुवाद को ‘मशीनी किस्म’ का भी बताया था.

इस समिति ने जो बात कही है वह खुद यूपीएससी के आंकड़ों से साबित होती है. उदाहरण के लिए 2003 से 2010 के बीच प्रारंभिक परीक्षा पास करके मुख्य परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवारों में से हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों की संख्या 35 प्रतिशत से 45 प्रतिशत के  बीच थी, लेकिन 2011 में सीसैट के आते ही यह आंकड़ा 15 फीसदी तक लुढ़क गया है.

इतनी अहम परीक्षा लेने वाली संस्था सवाल के हिंदी अनुवाद में ’स्टील प्लांट’ को स्टील का पौधा’ या ‘टैबलेट कंप्यूटर’ को ‘गोली कंप्यूटर’ कैसे लिख देती है?

सफल होनेवाले छात्रों की घटती संख्या ने छात्रों में असंतोष की लहर पैदा कर दी है. इस सबके बीच 16 जुलाई को कार्मिक मामलों के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने संसद में बोलते हुए विरोध कर रहे छात्रों को यह भरोसा दिलाया था कि सरकार छात्रों के पक्ष में है. उन्होंने यह भी कहा कि पिछली सरकार के कार्यकाल में गठित अरविंद वर्मा समिति ही सिविल सेवा परीक्षा में बदलावों पर विचार करेगी. समिति को एक सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट देने को कहा गया. तब इसी भरोसे पर छात्रॊं ने अपना अनशन तोड़ा था. लेकिन जब छात्रों को यह जानकारी मिली कि यूपीएससी ने अपनी वेबसाइट पर सूचना दी है कि प्रारंभिक परीक्षा पहले से तय तारीख यानी 24 अगस्त से ही होगी और परीक्षा के लिए जरूरी एडमिड कार्ड भी जारी कर दिया गया है तो शांति से प्रदर्शन कर रहे छात्रों का एक गुट उग्र हो गया. छात्रों ने मुखर्जी नगर से बाहर निकलकर इंडिया गेट और यूपीएससी दफ्तर के बाहर प्रदर्शन किया. पुलिस ने उन पर लाठियां भांजते हुए कई छात्रों को गिरफ्तार किया. फिलहाल छात्र शांत हैं और वर्मा समिति की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं. सरकार ने भी छात्रों से यह अनुरोध किया गया है कि वे तब तक संयम रखें जब तक समिति की रिपोर्ट नहीं आ जाती.

छात्र एक ऐसा फैसला चाहते हैं जिससे हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा देनेवालों के हित सुरक्षित हों और उनसे हो रहा भेदभाव बंद हो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘यूपीएससी से तो हमें कोई उम्मीद ही नहीं है. अगर इन्हें कुछ करना होता तो 2012 में ही कुछ कर लेते जब इनके द्वारा गठित समिति ने ही इस प्रणाली पर कई सवाल खड़े किए थे. हमें तो उम्मीद है सरकार से. अगर सरकार चाहे तो वह हम छात्रों को बचा सकती है.’

हम उनसे पूछते हैं कि क्या वे सी-सैट को खत्म करके पुराने तरीके से परीक्षा करवाने के हिमायती हैं. वे कहते हैं, ‘पीछे लौटना कोई समझदारी नहीं है, लेकिन केवल अंग्रेजी में प्रश्न पूछा जाना भी भेदभाव है. क्यों न 10 प्रश्न ऐसे भी हों जो सिर्फ भारतीय भाषाओं में पूछे जाएं और उनका अंग्रेजी अनुवाद न दिया जाए? अगर यह अस्वीकार्य है तो केवल अंग्रेजी के प्रश्नों को भी हटाया जाए. मानसिक क्षमता के प्रश्न मूल हिंदी में पूछे जाने चाहिए, अनुवाद वाली हिंदी में नहीं क्योंकि अनुवाद जितना भी अच्छा हो, मूल पाठ की बराबरी नहीं कर सकता.’ वे आगे कहते हैं, ‘अगर यह संभव नहीं है तो क्यों न हिंदी पाठ को मूल माना जाए और अंग्रेजी में अनुवाद करके प्रश्न पूछे जाएं? अगर इस विकल्प पर भी आपत्ति है तो क्यों न ऐसे प्रश्न हटा ही दिए जाएं? आखिर मुख्य परीक्षा में तो मानसिक क्षमता की जांच होती ही है. गणित और तर्क शक्ति के प्रश्नों से कोई दिक्कत नहीं है, पर उनका अनुपात ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी एक पृष्ठभूमि के छात्रों  को ज्यादा फायदा मिले.’

ये तो विरोध कर रहे छात्रों के तर्क हैं जिनसे सरकार या यूपीएससी का सहमत होना या न होना कतई जरूरी नहीं है. लेकिन यूपीएससी और सरकार को इन छात्रों के हितों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा.

एलबमः दावत-ए-इश्क

एलबमः दावत-ए-इश्क गीतकार » कौसर मुनीर संगीतकार » साजिद-वाजिद
एलबमः दावत-ए-इश्क गीतकार  » कौसर मुनीर    संगीतकार  » साजिद-वाजिद
एलबमः दावत-ए-इश्क
गीतकार » कौसर मुनीर
संगीतकार » साजिद-वाजिद

दावत-ए-इश्क में एक चांद-सा खूबसूरत गीत है. शलमली खोलगड़े का ‘शायराना’. दिल इस गीत को सुनकर वैसे ही खुश होता है जैसा गुलाबों से घिरे रहने के बावजूद वो खुश रातरानी की खुशबू से होता है. ‘अर्थात’ यह मत निकालिएगा कि बाकी के गीत गुलाब हैं. नहीं हैं. लेकिन अगर साजिद-वाजिद ‘शायराना’ जैसा गीत बना सकते हैं, यकीन मानिए, हिंदी फिल्मों के संगीत का मर्सिया पढ़ने का वक्त अभी नहीं आया है, किताब अंदर रख लीजिए.

शायराना की शलमली ‘परेशां’ से अलग हैं, झीनी आवाज पर नशा चढ़ाकर वे सॉफ्ट-रॉक गीत को अलग जगह का गीत बना देती हैं, ऐसी जगह का गीत जहां अभी तक साजिद-वाजिद गए नहीं थे. लेकिन बाकी के गीतों के पास न शलमली हैं, न साजिद-वाजिद का वक्त और न ही अच्छी किस्मत. वे किस्मत-विहीन गीत हैं. पुराने वाले साजिद-वाजिद के बासी गीत. हालांकि एक गीत इस बासीपने से बच निकलने की कोशिश करता है. ‘दावत-ए-इश्क’ नाम की कव्वाली. हारमोनियम व तबले की जुगलबंदी और उनके साथ खड़े जावेद अली इस गीत को बुरा होने से बचाकर ले ही जा रहे थे कि अंत आते-आते गीत अंतहीन बातें करने लगता है, पुरानी वाली ही, और फिर कुछ-एक बार सुनने के बाद इसे दुबारा कभी नहीं सुनने का मन बन जाता है.

बचे हुए गीतों में ‘मन्नत’ सोनू निगम की वजह से दो बार कानों में जाता है. लेकिन वे कुछ अलग करते नहीं, अपने पुराने दिनों को ही जीते हैं, जिसमें साजिद-वाजिद उनका भरपूर साथ भरे-पूरे दिल के साथ देते हैं, और हम गीत से उम्मीद छोड़ देते हैं. जिनका जिक्र नहीं किया, वे गीत नीचे जाती ढलान पर पड़े पत्थर हैं, कभी भी लुढ़क कर अपना अस्तित्व खो सकते हैं. मत सुनिएगा.

इस टूथपेस्ट में नमक नहीं…सलमान खान हैं

kick
िफल्म » किक
निर्देशक» साजिद नाडियाडवाला
लेखक » रजत अरोड़ा, साजिद, चेतन भगत
कलाकार » सलमान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जैकलीन फर्नांडिस, रणदीप हुड्डा

बात पहले टूथपेस्ट की. फिर सलमान की.

टूथपेस्ट के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले दैदीप्यमान ज्ञानियों के अनुसार टूथपेस्ट के तकरीबन सात हजार साल पुराना होने के प्रमाण उनके पास हैं. इतना पुराना पेस्ट नहीं है, पर उसका वेस्ट और टेस्ट कहीं न कहीं है. निकट के वर्षों में जबसे बाजार ने ‘एक जार में एक आम’ बेचने का चलन विदेशों में शुरू किया था, टूथपेस्ट ने अनेकों रूपों में प्रकट होना शुरू कर दिया. उसे जगत में बिकना सिर्फ एक वजह से था –साफ करने वाला दातून जो कड़वा नहीं है- लेकिन इत्ते से काम के लिए टूथपेस्ट के सैकड़ों नाम, सैकड़ों रंग, सैकड़ों स्वाद, मुंह के अलग-अलग हिस्सों में प्रहार करने की अलग-अलग दैवीय क्षमताओं के साथ बाजार में चले आए. इनका लंगोटिया यार बना दांतों के साथ चमत्कार करनेवाला विज्ञापन अभियान, जिसे नफासत से दशकों से चलाते रहने के लिए इसे बनाने और बेचनेवाले एडवरटाइजिंग के नटवरलालों को  मानवता का नमन.

सलमान खान की फिल्में यही टूथपेस्ट हैं. दशकों से उनके सैकड़ों नाम, रंग, स्वाद हैं और उतने ही दावे-वादे भी. लेकिन अंत में वे बेचती सिर्फ एक चीज हैं. सलमान खान. और चूंकि टूथपेस्ट की समीक्षाएं हमारे समाज में होती नहीं हैं, जोमेटो पर भी नहीं, सलमान खान की फिल्मों की भी समीक्षाएं नहीं होनी चाहिए.

लेकिन…

जब आपने पुरानी कमीज पर नयी चमकदार इस्त्री कर उसे नया-महंगा बता दर्शकों को पहनने के लिए दे ही दिया है, ऐसी कमीज को उतारने का काम तो करना पडेगा ही.

जब कुछ लोग पीछे की खाली पड़ी सीटों पर जाकर बैठने के लिए इंटरवल होने का इंतजार कर रहे थे, ‘किक’ इंटरवल से पहले वाले हिस्से में बादवाले हिस्से की भूमिका बनाने में अपनी जगह खर्च कर रही थी. वही दूसरा हिस्सा, जिसके प्रोमो से लोगों को प्रेम हुआ था क्योंकि उसमें सलमान मास्क लगाकर आनेवाले थे और मानवता के हर दुख को हरने वाले थे. इसलिए पहले भाग के दौरान लोगों ने कंधे ढीले छोड़ दिए और वे सलमान, मिथुन, संजय मिश्रा के जेल वाले दृश्य पर और नृत्य पर खूब हंसे, जैकलीन के पूरी फिल्म में एक ही एक्सप्रेशन कैरी करने को नजरअंदाज कर गए, रणदीप हुड्डा के साधारणतम होने पर उन्हें कोसना भूल गए, सलमान के आईआईटी-आईआईएम टाइप बुद्धि होने के साथ सड़कछाप आशिकी का शौकीन होने पर सीटी मारते रहे, और बेवजह आने वाले गानों पर गपागप नाचोज खाते रहे.

लेकिन दूसरे हिस्से में जब किक-मैन सलमान मास्क लगा पोलैंड में ‘जुम्मे की रात’ गाते हुए एक्शन का बंदोबस्त करने निकलते हैं, फिल्म जय हो के नेकदिल नायक की तरफ लौट जाती है, और उसमें बीइंग ह्यूमन को मिला देती है. इस घालमेल से तालमेल मिलाने की कोशिश कर रहे सलमान दर्शकों को बेतुकी कहानी में बेवजह की हीरोगीरी-सुपरहीरोगीरी दिखा तिलमिला देते हैं, और दर्शक पछताता है कि क्या हो सकती थी फिल्म और क्या हो गई फिल्म. ऐसे में नवाजुद्दीन आनंद देते हैं. हालांकि उनके पास दृश्य बेहद कम हैं लेकिन जोकर प्रभावित उनका किरदार जब देसी-जोकरी करता है, फिल्म का नायक वही बनता है.

किक की यही खासियत है. वह टूथपेस्ट के साथ एक छोटा टूथब्रश फ्री देती है, जो मुख्यधारा के सिनेमा की सफाई अच्छी करता है. यानी नवाज. सलमान की फिल्म में नवाज कहर ढा रहे हैं, इसी में किक है, सिनेमा की उम्मीद है.

जो राज्य को ब्रांड समझते हैं

सानिया निजा्एक साक्ात्कार के दौरान भावुक हो गईं
सानिया निजा्एक साक्ात्कार के दौरान भावुक हो गईं
सानिया मिर्जा एक साक्षात्कार के दौरान भावुक हो गईं.
सानिया मिर्जा एक साक्षात्कार के दौरान भावुक हो गईं.

तेलंगाना या किसी भी राज्य या सेवा को कोई ब्रांड अंबैसडर क्यों चाहिए? देश या राज्य बाजार का उत्पाद या ब्रांड नहीं होते जिन्हें बेचने के लिए उनका प्रचार-प्रसार किया जाए. बेशक कुछ खास तरह की सेवाओं और योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए- मसलन पोलियो नियंत्रण या फिर पर्यटन के विकास के लिए- अगर राज्य किसी भी जानी-मानी हस्ती की मदद लेते हैं तो इसमें एतराज लायक कुछ भी नहीं है, लेकिन किसी को अपना ब्रांड अंबैसडर नियुक्त करने की प्रवृत्ति बताती है कि हम बाजार के तौर-तरीकों से इस हद तक जकड़ गए हैं कि राज्य और ब्रांड में- सरोकार और सौदे में- फर्क नहीं करते. दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति अगर सबसे पहले कहीं नजर आई तो वह भाजपा शासित गुजरात में, जिसने अमिताभ बच्चन को अपना ब्रांड अंबैसडर घोषित किया.

राज्य की ब्रांडिंग का यह गुजरात मॉडल अब टीआरएस को इतना पसंद आया कि उसने सानिया मिर्जा को तेलंगाना का ब्रांड अंबैसडर बना डाला. निस्संदेह, सानिया तेलंगाना की सबसे मशहूर शख्सियतों में से एक हैं और उनके राज्य को उन पर स्वाभाविक तौर पर गर्व करना चाहिए, लेकिन उन्हें ब्रांड अंबैसडर बनाकर टीआरएस सरकार ने अचानक न सिर्फ तेलंगाना के संघर्ष को कुछ छोटा और धूमिल कर डाला, बल्कि सानिया को अनजाने में उस राजनीतिक दायरे में खींच लिया, जहां उन पर हमले शुरू हो गए.

लेकिन क्या यह सानिया का कसूर है कि एक दृष्टिहीन राजनीति उनसे ब्रांड अंबैसडर होने की उम्मीद लगा बैठी? क्या यह उचित होता कि ऐसे प्रस्ताव से वे इनकार कर देतीं? अगर ऐसा करतीं तो शायद भाजपा के जिस विधायक के लक्ष्मण ने उनकी हैदराबादी और हिंदुस्तानी पहचान पर सवाल खड़ा करते हुए उन्हें पाकिस्तान की बहू बताया, वही इसे वाकई इस बात के सबूत की तरह पेश करते कि सानिया को तेलंगाना से और भारत से प्रेम नहीं है.

हम बाजार के तौर-तरीकों से इस हद तक जकड़ गए हैं कि राज्य और ब्रांड में- सरोकार और सौदे में- फर्क नहीं करते

अच्छी बात यह रही कि लक्ष्मण को अपनी पार्टी से भी समर्थन नहीं मिला. प्रकाश जावड़ेकर और रविशंकर प्रसाद जैसे बड़े भाजपा नेताओं ने कहा कि सानिया मिर्जा देश का गौरव हैं. मगर सवाल यह है कि क्या देश के इस गौरव से उसकी पहचान पूछने की हिमाकत करने वाले अपने विधायक के खिलाफ उन्होंने कोई कार्रवाई की? उसे क्या कम से कम सानिया से माफी मांगने को भी कहा? जिस दिन सानिया को बाहरी और पाकिस्तान की बहू बताया गया, उसके अगले दिन वे टीवी चैनलों पर सुबकती नजर आईं- पूछती हुई कि आखिर कितनी बार उन्हें अपनी भारतीयता साबित करनी होगी? जिस जांबाज खिलाड़ी ने मार्टिना हिंगिस, विक्टोरिया अजारेन्का और सफीना जैसे दिग्गजों को हराया हो, जो दुनियाभर के मैदानों में जाकर भारतीय उपलब्धि के झंडे गाड़ती रही हो, जिसे इस देश की लाखों लड़कियां अपने मॉडल की तरह देखती हों, उसे इस तरह रोने-सुबकने की नौबत क्यों आई? क्या इसलिए नहीं कि वह मुसलमान है और उससे भी आगे, उसने पाकिस्तान के एक खिलाड़ी शोएब मलिक से शादी की है?

भाजपा इस सवाल का जवाब नहीं देगी. वह कह देगी कि सानिया किसी भी मजहब की हो, वह हिंदुस्तान की है और उसने हिंदुस्तान के लिए पदक जीते हैं- एक तरह से यह बात वह कह चुकी है. लेकिन दरअसल यहां सानिया की शोहरत है जो भाजपा को अपने जाने-पहचाने ‘स्टैंड’ से पीछे हटने पर मजबूर करती है. इसी हैदराबाद में बम धमाकों के नाम पर पकड़े गए बेगुनाह मुसलमानों की एक पूरी सूची है जिनकी हिंदुस्तानियत ही नहीं, इंसानियत पर भी सवाल खड़े कर दिए गए. मुश्किल यह है कि सानिया के सामने राष्ट्रवाद की उसकी अपनी बनाई हुई जो अवधारणा ध्वस्त हो जाती है, उस पर पुनर्विचार करने या उसे संशोधित करने की कोशिश की जगह, भाजपा इस सवाल से कतराकर निकल जाती है.

दरअसल इस बिंदु पर वह अंतर्विरोध दिखने लगता है जो भाजपा ही नहीं, हमारे पूरे मध्यवर्ग की राष्ट्रवाद संबंधी धारणा में अंतर्निहित है. हम देश या राष्ट्र से प्रेम की बात तो करते हंै, लेकिन इस राष्ट्र या देश को ठीक से समझने के लिए तैयार नहीं होते. हम भारत में पैदा भी न हुई सुनीता विलियम्स को भारतीय मान लेते हैं, हम बरसों से स्पेन में रह रहे विश्वनाथन आनंद को भी अपना मानते हैं,  लेकिन जो सानिया जीवन भर भारत में रहीं, भारत की तरफ से खेलती रहीं और भारत के लिए जीतती रहीं, उन पर पराया होने की तोहमत लगा देते हैं. साफ है कि राष्ट्र और धर्म के बीच एक दीवार कहीं हमने अपने जेहन में बना रखी है. दरअसल राष्ट्र या उसकी दूसरी इकाइयों- मसलन भारतीय संदर्भों में राज्य- को लेकर हमारी इस कमअक्ली या तंगजेहनी का भी नतीजा है कि हम राज्य के लिए कोई ब्रांड अंबैसडर ढूंढ़ते हैं. बाजार की विज्ञापनबाज दुनिया के इस शब्द का हम ठीक से अनुवाद भी नहीं कर पाते, क्योंकि यह किसी अवधारणात्मक स्तर पर हमें छूता नहीं. ऐसे में किसी एक खिलाड़ी या सितारे को ब्रांड अंबैसडर बनाकर हम बस उसकी शोहरत का राजनीतिक इस्तेमाल भर करना चाहते हैं.

विडंबना यह है कि इससे देश या राज्य का भला होता हो या न हो, ऐसी लोकप्रिय हस्तियों का भला नहीं होता. बहुत सारे तनावों के बीच बने तेलंगाना की ब्रांड अंबैसडर बनकर अचानक सानिया उन सीमांध्र वालों के लिए कुछ परायी हो जाती हैं जिनके भीतर अपने राज्य के टूटने की कसक और इससे पैदा हुए अनिश्चय और अंदेशे हैं. इसी तरह अमिताभ बच्चन जब गुजरात के ब्रांड अंबैसडर होते हैं तो उनके उस अखिल भारतीय महानायकत्व को कुछ खरोंच लगती है जो उन्होंने अपने अभिनय के बूते हासिल किया है. राजकीय और राष्ट्रीय पहचानों का मामला बहुत संवेदनशील होता है, उसे लोकप्रियतावादी राजनीति के हवाले कर हम अपना भी नुकसान करते हैं और अपने नायकों का भी.

जजों की नियुक्तिः बदलाव जरूरी हैं

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इलस्ट्रेशनः ऋषभ अरोड़ा

सर्वोच्च न्यायालय का कोई जज कैसे नियुक्त होगा इसके बारे में संविधान के अनुच्छेद 124 में लिखा है. इस अनुच्छेद के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति, जितने उन्हें जरूरी लगें उतने, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों से सलाह के बाद करेंगे और मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के अलावा बाकी सभी जजों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश से सलाह करना अनिवार्य होगा. मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को जितने जरूरी हों उतने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों से सलाह करनी होगी.

सन 1993 से पहले तक जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका प्रधान थी. वह जिसे चाहती थी नियुक्त कर देती थी. तब की कुछ सरकारों ने संविधान के लिखे को कुछ इस तरह से लिया था कि जजों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश से विचार-विमर्श करना भले आवश्यक हो, लेकिन उसकी सलाह से पूरी तरह सहमत होना सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार की इस सोच का समर्थन 1982 में ‘फर्स्ट जजेज़’ वाले मामले में कर दिया था.

मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संदर्भ में आज की तरह पहले भी थोड़ी निश्चितता थी. उस समय भी परंपरा यह थी कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही देश का मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता था. हालांकि कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने इस परिपाटी को भी अपनी मनमर्जी से खूब तोड़ा-मरोड़ा. 1973 में उसने तीन जजों – जेएम शेलत, केएस हेगड़े और एएन ग्रोवर – की वरिष्ठता को लांघकर जस्टिस एएन रे को मुख्य न्यायाधीश बना दिया. इन जजों ने केशवानंद भारती के मामले में सरकार के खिलाफ जाने वाला फैसला दिया था. जस्टिस रे की नियुक्ति के बाद तीनों जजों ने सर्वोच्च न्यायालय से अपना इस्तीफा दे दिया था.

1977 में एक बार फिर से वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस एचआर खन्ना को नियुक्त करने के बजाय इंदिरा सरकार ने एमएच बेग को मुख्य न्यायाधीश बना दिया. जस्टिस खन्ना ने भी आपातकाल के दौरान एक ऐसा फैसला दिया था जो सरकार को पसंद नहीं आया था. जस्टिस खन्ना ने भी इसके बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.

1993 और 1998 में ‘सेकंड’ और ‘थर्ड जजेज़’ वाले मामलों में आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों ने जजों की नियुक्ति वाली वर्तमान व्यवस्था को जन्म दिया. इसके मुताबिक यह अनिवार्य हो गया कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश केवल वरिष्ठता के आधार पर ही बनाया जाएगा और बाकी न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश सहित सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों का एक कॉलेजियम करेगा. इस कॉलेजियम की सिफारिशों को मानना सरकार के लिए अनिवार्य होगा.

इस कॉलेजियम के व्यवहार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने काफी विस्तृत व्यवस्था दी थी और यह तमाम जानकारों के मुताबिक पिछली ‘अव्यवस्था’ से बेहतर थी. लेकिन यह भी सच है कि यह संविधान में जजों की नियुक्ति से जुड़े प्रावधानों से ठीक से मेल नहीं खाती. संविधान ने जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका को बेहद महत्वपूर्ण माना था जबकि कॉलेजियम की वर्तमान व्यवस्था में सरकार की भूमिका उतनी ही है जितनी अपने नाम पर लिए गए केंद्र सरकार के निर्णयों में राष्ट्रपति की होती है. संविधान के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में भी सरकार की एक मुख्य भूमिका होनी थी, लेकिन नेहरू जी के समय में ही कार्यपालिका ने अपनी इस भूमिका को एक स्वस्थ परंपरा – वरिष्ठता के आधार पर चयन – के हवाले कर दिया था (यह भी अजीब ही है कि बाद में जिसने इस परिपाटी को तोड़ा वह उनकी बेटी ही थी). कॉलेजियम तंत्र देश चलाने की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तकाजों पर भी पूरी तरह खरा नहीं उतरते दिखता और इसमें पारदर्शिता का भी पूरी तरह अभाव है.

इस व्यवस्था को तब भी सही कहा जा सकता था जब यह अपने आप में आदर्श न सही, लेकिन बेहद उत्कृष्ट तरीके से काम करती. लेकिन जस्टिस काटजू के हालिया बयानों ने और पिछले कुछ समय के हमारे अनुभवों ने हमें इसके बारे में अलग ही सोच बनाने पर मजबूर कर दिया है.

हो सकता है यह व्यवस्था पिछले चलन से बेहतर हो, लेकिन 20 साल बाद इस व्यवस्था से बेहतर बनाने की सोचने और फिर उसे बनाने में बुराई क्या है?

लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इसमें न्यायपालिका के सदस्यों की प्रमुख भूमिका हो और सरकार की भूमिका तो हो लेकिन ऐसी नहीं कि वह इस व्यवस्था को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कैसे भी प्रभावित करने की स्थिति में आ जाए.

चूंकि कोई भी तंत्र आदर्श तो हो नहीं सकता इसलिए इसके बाद भी गलतियां होने की गुंजाइश तो बनी ही रहेगी. ऐसी हालत में हमें गलतियों में सुधारवाली व्यवस्था का निर्माण भी करना होगा. यानी जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच और उन पर उचित कार्रवाई की व्यवस्था बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना नियुक्तियों के लिए अभी से बेहतर तंत्र बनाना. वर्ना अभी की हमारी व्यवस्था ऐसी है जिसमें जजों की जांच और उन पर कार्रवाई की डगर सात समुंदर पार जाने से थोड़ी ही कम मुश्किल होगी. या शायद उतनी ही.