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बिहार पंचायत चुनाव : बदलाव की बयार

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बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले की बड़गांव पंचायत. पूरे बिहार की तरह वहां भी इन दिनों पंचायत चुनाव की सरगर्मी है. उस पंचायत से तीन बड़े नामदार ठाकुर उम्मीदवार मुखिया पद के लिए मैदान में उतरे हैं. इन तीनों मजबूत उम्मीदवारों के सामने शंभू डोम नाम का एक मामूली हैसियत वाला उम्मीदवार मजबूती से चुनौती दे रहा है. बड़गांव से ही कुछ दूरी पर एक और पंचायत है सलहा बरियरवा. सलहा बरियरवा पंचायत की कहानी और भी दिलचस्प है. आजादी के बाद से उस पंचायत का मुखिया मारकंडेश्वर सिंह के परिवार से होता आया है. इस बार भी उस परिवार का मुखिया एक बार फिर चुनाव मैदान में है जिसे पिछले 25 सालों से 224 एकड़ जमीन पर हकदारों को कब्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे सोहन राम चुनौती दे रहे हैं. सोहन चर्चा में हैं. मारकंडेश्वर सिंह के परिवार को पहली बार मजबूत चुनौती मिल रही है.
जिन दोनों पंचायतों की बात की जा रही है वहां की सीट सामान्य है. यानी अनारक्षित लेकिन दोनों ही सीटों पर महादलित परिवार से आने वाले उम्मीदवार दिग्गजों को चुनौती दे रहे हैं. पश्चिमी चंपारण के ही बगहा इलाके से एक और कहानी है. बगहा इलाके में रहने वाले थारू आदिवासियों ने चुनाव के पहले ही मुखिया-सरपंच आदि का चयन चुनाव के पहले ही सर्वसम्मति से कर लिया है. इसी पश्चिमी चंपारण इलाके में कुछ और छोटे-छोटे किस्से सुनने को मिलते हैं. बताया जाता है कि इस बार बगहा, जोगापट्टी, गवनाहा, नवतन जैसे कई इलाकों में शराबबंदी का अभियान चल रहा है और पंचायत चुनाव में शराब और पैसे का इस्तेमाल न हो, इसके लिए लगातार आंदोलन भी हो रहे हैं. इस इलाके में सक्रिय लोक संघर्ष समिति के सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता पंकज बताते हैं, ‘इस बार महिलाएं कई इलाकों में नारे लगा रही हैं और उन नारों का असर भी हो रहा है. एक नारा है- जो बांटे चुनाव में दारू, उसको बहनो मारो झाड़ू… चुनाव में जो बांटे दारू-नोट, उसको कभी न देना वोट… वोट के नाम पर कभी नोट न लेना, जो बांटे उसे कभी वोट न देना…’
चंपारण से निकलते हैं. कुछ और जगहों पर बात होती है. तरह-तरह की सूचनाएं मिलती हैं. जानकारी मिलती है कि चंपारण के सोहन राम और शंभू डोम की तरह दर्जनों दलित नौजवान इस बार चुनावी मैदान में दमखम और रणनीति के साथ मैदान में हैं. अांबेडकर युवा मंच के बैनर तले राज्य के अलग-अलग हिस्सों से 25 महादलित युवाओं के चुनाव लड़ने की जानकारी मिलती है. अमूमन सभी स्नातक हैं. दलितों से इतर दूसरे समुदाय के नौजवानों के बारे में जानकारी मिलती है. खुसरूपुर के हैवतपुर पंचायत से सूचना मिलती है कि टाटा कंपनी के लेबर सुपरवाइजर पद पर काम करने वाले 27 वर्षीय नौजवान दिलीप कुमार वहां से चुनाव के मैदान में हैं. वे अपनी नौकरी छोड़ पंचायत चुनाव लड़ने आए हैं.

पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं

एक ऐसी ही जानकारी भतुहा के मामिनपुर पंचायत से मिलती है. उस पंचायत से 27 वर्षीय दिनेश कुमार मैदान में हैं. दिनेश आईसीआईसीआई बैंक में अधिकारी थे. नौकरी को छोड़कर वे पंचायत चुनाव लड़ रहे हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके की एक पंचायत में मुखिया पद के लिए 40 पुरुषों ने नामांकन करवाया तो रणनीति बनाकर 39 महिलाओं ने भी मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया, जबकि यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं है. जहानाबाद से सूचना मिलती है कि वहां की कई पंचायतों में, जहां सीटें अनारक्षित हैं, स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाएं गोलबंद होकर एक-एक पद के लिए चुनाव लड़ रही हैं.

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हालांकि उत्तर बिहार से दक्षिण और मध्य बिहार तक आते-आते सूचनाएं बदलने लगती हैं. परिदृश्य बदलने लगते हैं. मध्य बिहार के औरंगाबाद जिले में माहौल इतना खुशनुमा कहीं नहीं दिखता. इस इलाके में एक अप्रैल से शराबबंदी सबसे बड़ी चिंता की बात है और यहां बंदी से पहले शराब का स्टाॅक जमा कर लेने या होली में ही पंचायत चुनाव के कोटे की शराब बांट देने की होड़ मची हुई थी. भोजपुर के सासाराम इलाके में होली के अवसर पर पंचायत चुनाव में उतरे प्रत्याशियों द्वारा घर-घर शराब पहुंचा देने की सूचना मिलती है. आरा, बक्सर, सासाराम, गया जैसे कई इलाकों से शराब के साथ-साथ जाति के उन्माद में चुनाव के डूब जाने की सूचना मिलती है.
पंकज बताते हैं, ‘पूरे बिहार में ऐसी ही स्थिति है लेकिन कुछ इलाकों में, जहां लोग जागरूक हैं, वहां इन चुनौतियों से पार पाने की कोशिश भी हो रही है. इस बार यह हल्ला मच गया है कि केंद्र की सरकार अब सीधे पंचायतों को पैसा देगी, बीच में राज्य सरकार नहीं होगी. यह हवा फैल जाने से जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे जान रहे हैं कि इस बार जो मुखिया बनेगा वह करोड़ों का खेल करेगा और यह बात जनता तक भी फैल गई है, इसलिए जनता भी जान रही है कि मुखिया बन जाने के बाद तो प्रत्याशी पकड़ में आएंगे नहीं इसलिए जो वसूल किया जा सकता है उसे अभी से ही वसूलने की कोशिश कर रहे हैं.’ वे बताते हैं, ‘मैंने पहली बार देखा कि होली में मुखिया पद के प्रत्याशियों द्वारा अंग्रेजी शराब और पांच-पांच सौ रुपये का नोट घर-घर भिजवाया गया.’ समाजशास्त्री प्रो. एस. नारायण कहते हैं, ‘बिहार में पंचायती राज व्यवस्था ने हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और जनप्रतिनिधियों की लगातार हत्याएं हुई हैं, यह चलन खतरनाक है.’ लोगों को भी पता है कि जब 2001 में पंचायत चुनाव शुरू हुआ था तो करीब पांच दर्जन प्रत्याशियों की हत्या चुनाव के पहले ही हो गई थी और दहशत का माहौल बन गया था.
बिहार में 24 अप्रैल से पंचायत के चुनाव होने वाले है. 10 चरणों में चुनाव होना हैं. हर चरण में 53 प्रखंडों में चुनाव होंगे. कुल दो लाख 58 हजार 772 पदों के लिए यह चुनाव होने वाला है. बिहार में 1978 के बाद से पंचायत चुनाव रुक गए थे. 2001 से फिर से चुनाव का सिलसिला शुरू हुआ. उसके बाद से यह चौथा चुनाव होने वाला है. तीन चुनाव से बिहार में बहुत कुछ बदला है.

‘द हंगर प्रोजेक्ट’ की कार्यक्रम अधिकारी शाहीना परवीन कहती हैं, ‘आपको पिछले तीन चुनाव काे देखना हो तो यही देखिए कि नीतीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री बन रहे हैं. नीतीश जान गए थे कि पंचायत चुनाव सिर्फ कोरम पूरा करने से नहीं होगा, इसलिए उन्होंने महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया, पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों को अलग से आरक्षण दिया और उसका ही नतीजा निकला कि सामाजिक स्तर पर राजनीति में कई बदलाव हुए और नीतीश कुमार खुद को लंबी पारी के लिए तैयार कर पाए.’
शाहीना जो बात कहती हैं उसका असर पूरे बिहार में देखा जा सकता है. पिछले कुछ दशकों मंे दो चीजों ने ही बिहार की राजनीति और समाज को पूरी तरह से बदला है. एक 90 के दशक के आरंभ में मंडल राजनीति का उभार और दूसरा 2001 के बाद शुरू हुआ पंचायत चुनाव. मंडल की राजनीति ने लालू प्रसाद यादव को बड़े नेता के तौर पर स्थापित किया. इस वजह से कई लोग लालू को परिस्थितियों की देन वाला नेता भी मानते हैं लेकिन उसके बाद 2001 में जब पंचायत चुनाव शुरू हुआ और 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री चुने गए तो उन्होंने इसका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया. नीतीश कुमार ने पंचायत की राजनीति को राज्य की राजनीति को बदलने वाले तत्व की तरह विकसित किया और नतीजा यह हुआ कि अतिपिछड़ों, महादलितों के साथ महिलाएं एक अलग और स्वतंत्र समूह के तौर पर उभरीं और वे नीतीश के खास वोटबैंक में बदल गईं.

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पंचायत चुनावों का कोई मतलब नहीं, इसने बिहार की संस्कृति का क्षरण किया है:  डाॅ. विजय

Vijay-fFwebदेश में जो व्यवस्था है उसमें पंचायत चुनावों को और उससे बनने वाली व्यवस्था को तीसरी सरकार के रूप में देखा गया. लेकिन बिहार में होने वाले पंचायत चुनाव में तीसरी सरकार की जो मूल अवधारणा है उसकी ही कमी दिखती है. बिहार में पंचायत चुनाव में सबसे मजबूत सवाल स्वायत्तता का है. न पंचायत की सरकार को अब तक अपनी योजना बनाने का अधिकार मिल सका है, न उसके अपने कर्मचारी हैं, न अपना भवन है. तो तीसरी सरकार जैसी अवधारणा कहां कारगर हो पा रही है. मैं तो यह मानता हूं कि संविधान में 73वां संशोधन हुआ, वही एक बड़ी भूल जैसा था या कहिए कि बेईमानी की गई थी. पंचायत और नगर निगम को लिस्टेड ही नहीं किया गया. संविधान के नीति निर्देशक तत्व में जो 40 क है, उसके अनुसार पंचायतों को या इस तीसरी सरकार को राज्य के भरोसे छोड़ दिया गया. इसलिए गौर कीजिए कि 23 सालों के बाद जब 2001 में बिहार में फिर से पंचायत चुनाव शुरू हुआ तो उसमें उत्साह दिखा. सामाजिक न्याय का नजरिया भी दिखा लेकिन उसके बाद पंचायत की व्यवस्था और उसके चुने हुए प्रतिनिधि सिर्फ राज्य सरकार के एजेंसी भर बनकर रह गए और ब्यूरोक्रेसी ने इसे चंगुल में ले लिया. नतीजा यह हुआ कि पंचायत के प्रतिनिधि दलाल हो गए और वे उसी तर्ज पर चुनाव लड़ने लगे, जिस तरह से लोकसभा-विधानसभा के चुनाव लड़े जाते हैं. जो लोग लोकसभा-विधानसभा मंे चुकते गए, वे पंचायत चुनाव में मुखिया बनने के लिए लड़ने लगे. लोकसभा या विधानसभा सदस्य बनकर लूट सकने की संभावना खत्म हुई तो मुखिया बनकर लूटने लगे. और राज्य सरकारों ने भी मुखियाओं को पैसे में उलझा दिया क्योंकि पैसे में अगर नहीं उलझाया जाता तो फिर पंचायतें अपने अधिकार की मांग करतीं और पंचायतों को अधिकार देने को और स्वायत्त करने को कोई तैयार नहीं है. मुखिया राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए वोट मैनेज करने का टूल बन गए, इसे आप बिहार में सभी जगह देख सकते हैं और यह भी देख सकते हैं कि कैसे अधिकाधिक पैसे खर्च कर चुनाव लड़े जा रहे हैं. मैं तो साफ मानता हूं कि बिहार में पंचायत चुनावों ने राज्य की संस्कृति का क्षरण किया है और इस तरह से चुनाव कराने का कोई खास फायदा नहीं.

( लेखक गांधीवादी विचारक हैं )
(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]

शाहीना बताती हैं, ‘लड़कियों को साइकिल देने वाली योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा, नीतीश कुमार के ये दो काम ही ऐसे रहे जिससे वे जाति की राजनीति को पार कर समूह की राजनीति करने वाले नेता बन गए और बड़ी से बड़ी चुनौतियों से पार पाकर तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए.’ जन जागरण शक्ति संगठन के प्रमुख आशीष रंजन कहते हैं, ‘बिहार पंचायत चुनाव में आपको तमाम बुराइयां दिखेंगी. सरकार की मंशा मंे भी खोट दिखेगा. कहने को पिछले तीन बार से पंचायत चुनाव हो गए हैं. मुखिया करोड़पति हो गए हैं. लाखों में अब कोई बात नहीं करता. कहीं पर पंचायत सरकार का काम फंक्शनल नहीं दिखेगा. कायदे का पंचायत भवन नहीं दिखेगा. टेक्निकल स्टाफ नहीं दिखेंगे. ऐसी तमाम शिकायतें आप कर सकते हैं लेकिन इन तमाम शिकायतों को अभी परे कर सकते हैं, क्योंकि यह पंचायत चुनाव तमाम बुराइयों के बावजूद बिहार को बड़े स्तर पर बदल रहा है. दलित-वंचित अपने राजनीतिक हक के लिए आगे आ रहे हैं. वे चुनाव लड़ रहे हैं, जीत रहे हैं और फिर राजनीति में आगे बढ़कर अपनी हिस्सेदारी पाने के लिए बेताब हैं. आप कह सकते हैं कि मुखियापति और सरपंचपति का जमाना है, महिलाएं सिर्फ मोहरा रहती हैं लेकिन उसका दूसरा पहलू यह देखिए कि इस पंचायत चुनाव के पहले बिहार में स्थिति ऐसी भी नहीं थी. यह तो तय है न कि जो महिला पंचायत चुनाव लड़ेगी उसे स्टूडियो जाकर कटआउट के लिए अपनी तस्वीर खिंचवानी होगी. उसे गलियों में घूमना होगा. सभाओं में कभी-कभार ही सही जाना होगा. यह क्या कम है. बिहार के एक बड़े हिस्से में यह होना भी तो असंभव-सा ही दिखता था.’
शाहीना और आशीष रंजन की तरह ही तमाम लोगों की यही राय है कि पंचायत चुनाव बिहार को बदल रहा है. उसका काला पक्ष है लेकिन उस काले पक्ष पर संभावनाएं भी हावी दिखती हैं. इस बात को बिहार के मुखिया नीतीश कुमार भी अपने तरीके से कहते हैं. 30 मार्च को जब वे शराबबंदी की पुनर्घोषणा करके आदेश दे रहे होते हैं तो खुलकर कहते हैं, ‘यह कड़ा फैसला है लेकिन यह फैसला हमने महिलाओं के कहने पर लिया है. उन महिलाओं के कहने पर जो अब राजनीति और समाज को समझने लगी हैं. उन महिलाओं ने ही हमसे कहा था कि शराब बंद करवा दीजिए. हमने उनकी बात मानकर चुनाव के पहले ही घोषणा कर दी कि अगर सरकार में आए तो शराब बंद करवा देंगे.’ सरकार में आने के बाद उन्होंने पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया. नीतीश कुमार यह कहकर बता रहे होते हैं कि बिहार की राजनीति में महिलाओं का क्या महत्व है. और बिहार में महिलाओं का राजनीतिक महत्व बढ़ाने में इस पंचायत चुनाव की भूमिका क्या रही है, यह सब जानते हैं.

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कोई कैसे भी देखे इस चुनाव को, सच ये है कि महिलाओं की स्थिति और बिहार के हाल को पंचायत चुनावों ने ही बदला है : शाहीना परवीन

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पिछली बार जब पंचायत चुनाव हुआ था तो महिलाओं ने आरक्षित सीटों से ज्यादा पर अपनी जीत दर्ज की थी. 50 प्रतिशत सीटें उनके लिए आरक्षित हैं, इससे ज्यादा प्रतिशत सीटों पर महिलाओं की जीत हुई थी लेकिन उस जीत में एक और बात हुई थी. मुखिया की सीट पर महिलाएं करीब उतनी ही जीत पाई थीं, जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित थीं. इसके अलावा एक या दो प्रतिशत के करीब सामान्य सीट पर महिलाएं मुखिया के लिए चुनी जा सकी थीं. ऐसा इसलिए हुआ था कि पुरुष बाकी पदों को तो महिलाओं के हवाले कर देने को तैयार भी हैं लेकिन मुखिया पद को अब भी नहीं देना चाहते. ऐसा इसलिए कि यह पद सीधे-सीधे आर्थिक मसले से जुड़ा हुआ है.
जो महिलाएं आरक्षित पद होने के कारण मुखिया पद के लिए चुन भी ली गईं, उनमें से भी कई को पांचों साल तक कई किस्म की प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ा. अध्ययन के दौरान कई केस ऐसे आए जिससे यह साफ हुआ. मुखिया बनने के बावजूद कई महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा. अधिकांश मामले साइन करने को लेकर हुए. पुरुषों का एक हिस्सा चाहता है कि उनके घर की महिलाएं आरक्षण का लाभ लेकर मुखिया तो बनें लेकिन वे सिर्फ मुखिया ही बनी रहें. इसके अलावा अपने दिमाग या विवेक का इस्तेमाल न करें लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि कई जगहों से ये खबरें आ रही हैं कि महिलाएं गोलबंद होकर चुनाव लड़ रही हैं. इस गोलबंदी का रूप-स्वरूप ऐसा है कि कई महिलाएं आपस में तय कर रही हैं कि उनमें से कौन महिला पंचायत समिति सदस्य के लिए चुनाव लड़ेगी, कौन सरपंच के लिए और कौन दूसरे पदों के लिए. इतना ही नहीं, कौन उपमुखिया बनेगी, यह तक इस बार कई जगहों पर तय कर रही हैं.
मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके से खबर आई कि वहां एक सीट पर 40 पुरुषों और तकरीबन 39 महिलाओं ने मुखिया पद के लिए नामांकन कर दिया है, जबकि वह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित भी नहीं है. यह गोलबंदी का ही असर है. ऐसा कर वे आपस में सहमति बना रही हैं. महिलाएं अब पुरुषों की तरह दांव-पेंच अपना रही हैं. यह सीमित क्षेत्र में ही है लेकिन यह एक बेहतर संकेत है. आने वाले दिनों में इसका असर दिखेगा और यह बिहार जैसे राज्य के लिए बेहतर ही होगा. यह क्यों अच्छा होगा, इसे इस रूप में देख-समझ सकते हैं.
महिलाएं जिन पदों के लिए चुनी गईं, उसका असर पूरे बिहार में व्यापक रूप में देखा गया. महिलाएं वार्ड सदस्य के लिए चुनी गईं, सरपंच पद के लिए चुनी गईं और उन पदों पर रहते हुए खुलकर काम किया. वार्ड सदस्यों को ही देखें. वार्ड सदस्य चुनकर जब महिलाएं आईं तो उसका असर यह हुआ कि बिहार में कई ऐसे मसले उठने लगे जो कभी उठते ही नहीं थे और यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रही हूं कि वे मसले पुरुष प्रतिनिधि कभी उतनी शिद्दत से नहीं उठाते. आंगनबाड़ी चल रहा है या नहीं, मध्याह्न भोजन सही समय और सही क्वालिटी के साथ मिल रहा है या नहीं, सैनिटरी नैपकिन का बंटवारा सही से हो रहा है या नहीं, स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय है या नहीं, इन सभी मसलों को पिछले 15 साल में वार्ड और पंचायत स्तर पर महिला प्रतिनिधियों ने ही उठाया है.

(लेखिका द हंगर प्रोजेक्ट में कार्यक्रम अधिकारी हैं )

(निराला से बातचीत पर आधारित) [/symple_box]

‘लोगों को बरगलाने के लिए कहा जा रहा है कि भगत सिंह हमारे हैं’

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लोगों को बरगलाने के लिए मुखौटे डालकर हर तरफ से यह कहा जा रहा है कि भगत सिंह हमारे हैं और हम भी उन्हीं के जैसे हैं. भगत सिंह के होने का मतलब वह है जो कुछ उन्होंने असेंबली में बम फेंकने के बाद कहा था. जो भगत सिंह के विचारों के एकदम उलट काम कर रहे हैं, वे भी भगत सिंह पर दावा पेश कर रहे हैं. यहां तक कि भाजपा भी उनको अपना बता रही है. भगत सिंह को पगड़ी पहना दें, ये नारे लगा दें, वो नारे लगा दें, यही हाे रहा है. सेंट्रल असेंबली में जाने का निर्णय भगत सिंह ने जान-बूझकर लिया था जिसका कुछ उद्देश्य था. वह यह था कि अगर उनका एक नारा लोग समझ जाएंगे, तो इस व्यवस्था को पूरी तरह गरीबी और गुलामी से मुक्ति मिलेगी. उनके दो नारे थे, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’. यह जो द्वंद्वात्मक रिश्ता है शोषण और शोषक के बीच, जिसे गदर पार्टी ने स्पष्ट किया था, भगत सिंह सिर्फ यह चाहते थे कि लोग इसे समझें. कांग्रेस जब पूर्ण स्वराज की बात कर रही थी तब उसके पहले ही भगत सिंह कह रहे थे कि वैयक्तिक स्वतंत्रता मिले बिना पूर्ण स्वराज कैसे संभव है. वे यह चाहते थे कि लोग निजी स्तर पर अपनी आवाज उठा सकें और उन्हें बुनियादी नागरिक अधिकार प्राप्त हों, जो अंतरराष्ट्रीय नागरिक अधिकारों के तहत आते हैं.

भगत सिंह कहते थे कि हमारी लड़ाई दो चीजों को लेकर है- गुलामी और गरीबी. उस समय लोगों पर देशद्रोह के आरोप लगाने का जो षड्यंत्र चल रहा था, भगत सिंह उसके खिलाफ आवाज उठा र​हे थे. आज जब लोग अपने मुद्दे उठा रहे हैं तो उन पर कार्रवाई करके सरकार अपना फर्ज पूरा नहीं कर रही है. भगत सिंह ने शोषण, गरीबी, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद आदि के खिलाफ युद्ध छेड़ा था. आज उनके सब मुद्दे गायब हैं. पार्टियां अभी जो कर रही हैं वह लोगों को मूर्ख बनाने के लिए कर रही हैं. एक तरफ नेशनल हाइवे बन रहे हैं तो उसी के ठीक बगल में घोर गरीबी में रह रहे अविकसित इलाके हैं. आप उस पर ध्यान नहीं दे रहे. मतलब आप सिर्फ और सिर्फ लोगों को मूर्ख बना रहे हैं. आप लोगों के लिए नौकरियों का सृजन नहीं कर रहे, जो कि सरकारों का कर्तव्य है. यह संविधान के ​नीति निर्देशक तत्वों में निहित है. वे कह रहे हैं कि पहले आप झंडा लगाइए. पहले आप संविधान की प्रस्तावना पढ़िए. और अगर झंडे की बात है तो अभी भी आरएसएस के आॅफिस पर झंडा नहीं है. 26 जनवरी और 15 अगस्त के अलावा वहां झंडा नहीं होता. अगर आप चाहते हैं कि हर जगह झंडा हो, तो पहले वहां आप झंडे को लेकर बात करें. लेकिन आप वह भी नहीं करेंगे.

आप अब तक जितनी बातें करते हैं उसमें हमारे तीन आदर्श- संविधान की प्रस्तावना, तिरंगा झंडा और नेशनल एंथम का अपमान ही करते हैं. और आप देशभक्त बन रहे हैं और राष्ट्रवाद की बात करते हैं. नौजवान भारत सभा के पर्चे में एक बात कही गई थी कि हम देश के 98 प्रतिशत लोगों के लिए स्वराज चाहते हैं. आज भी आप देखिए कि इस आजादी में 20 प्रतिशत लोग ही शामिल हैं. 80 प्रतिशत तो बाहर हैं. अभी-अभी आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की रिपोर्ट आई है कि भारत में 36 करोड़ लोग कंगाल हैं. उसकी कोई बात नहीं करता. इसीलिए मैं कहता हूं कि जल, जंगल, जमीन और संसाधनों को बचाना हमारा मूल कर्तव्य है. मूल कर्तव्यों को निबाहना राष्ट्रवाद है. और आज क्या है कि जो लोग देश को नष्ट कर रहे हैं, वही देशभक्त बने हैं.

नौजवान भारत सभा के पर्चे में एक बात कही गई थी कि हम देश के 98 प्रतिशत लोगों के लिए स्वराज चाहते हैं. आज इस आजादी में 20 प्रतिशत लोग ही शामिल हैं. 80 प्रतिशत तो अब भी बाहर हैं. भारत में 36 करोड़ लोग कंगाल हैं. उनकी कोई बात नहीं करता

भगत सिंह के अलावा सुभाष चंद्र बोस के साथ इन लोगों ने क्या किया. उनका इतिहास खोद रहे हैं ​लेकिन उनके विचारों पर कौन बात करता है. उनके विचार को तो हमने नहीं माना. उन्होंने रांची कांग्रेस में एक रिजोल्युशन पारित किया था कि साम्राज्यवाद से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. अगर हमने साम्राज्यवाद से समझौता किया तो कई दशकों तक हमें दर्द झेलना पड़ेगा. वो दर्द हमने 1947 में सहा और आज तक सह रहे हैं.

मुख्य बात है कि व्यवस्था को आप बदलेंगे नहीं, जबकि भगत सिंह तो कोई बदला लेने वाले थे नहीं, वे तो व्यवस्था को बदलने की बात कर रहे थे. यही बात उन्होंने अपने कोर्ट के बयान में भी कही थी. जबकि हमने उनके साथ प्रचारित किया कि उन्होंने सांडर्स ​की हत्या की. उन्होंने तो मांग की थी कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और गोली से उड़ा दिया जाए.

भगत सिंह ने हमेशा शोषण के सवाल को उठाया. आज बस्तर में जो हो रहा है, जेएनयू जिससे अलग नहीं है, वहां जो हो रहा है, उसका मतलब आप यह नहीं चाहते कि लोगों को यह पता चले कि मोदी का एडवाइजर जो है, एप्को का वे हेनरी किसिंजर है. अमेरिकी कंपनी मोदी की एडवाइजर है और उसका एक रणनीतिकार हेनरी किसिंजर है. हेनरी किसिंजर ने इंडो​नेशियाई राष्ट्रपति सुहार्तो को यही कहा था कि पूर्वी तिमोर में लोगों को मरवा दीजिए, हम लोगों को पता नहीं चलने देंगे कि क्या हुआ है. इस तरह के लोग इनके सलाहकार हैं. इसीलिए सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय काम करता है, बाकी मंत्रियों के पास काम ही नहीं है. उनको अपनी छुट्टी भी प्रधानमंत्री कार्यालय से लेनी पड़ती है.

उसके साथ जो हरियाणा में हुआ, वह सबसे खराब रहा. कोई नहीं जानता कि वहां क्या हो रहा है. पीएम के साथ मीटिंग के बाद जाटों का प्रदर्शन शुरू होता है. 23 दिसंबर को एक बड़ी मीटिंग थी जंतर मंतर पर और कहा जाता है कि नवजवानों को बुलाइए क्योंकि हमें नवजवानों का साथ मिला है. अब पूरा हरियाणा जलाकर के जातीय बैरियर खड़ा कर दिया गया. बात करते हैं सौहार्द की और पूरा राजनीतिक तंत्र ही सौहार्द बिगाड़ने में लगा है. भगत सिंह इन मसलों बहुत स्पष्ट मत रखते थे, जिन पर आज कोई अमल नहीं हो रहा है.

(लेखक भगत सिंह के भतीजे हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

भगत के सियासी भगत

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‘मां, मुझे कोई शंका नहीं है कि मेरा मुल्क एक दिन आजाद हो जाएगा, पर मुझे डर है कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़कर जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का कब्जा हो जाएगा.’ आजादी के तमाम नायकों में से एक शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने अपनी मां को लिखी चिट्ठी में यह बात कही थी. उन्हीं भगत सिंह ने शहीद होने से पहले अपनी जेल डायरी में लिखा था, ‘सरकार जेलों और राजमहलों, या कंगाली और शान-शौकत के बीच किसी समझौते के रूप में नहीं होती. यह इसलिए गठित नहीं की जाती कि जरूरतमंद से उसकी दमड़ी भी लूट ली जाए और खस्ताहालों की दुर्दशा और बढ़ा दी जाए.’ उसी डायरी में वे एक जगह लिखते हैं, ‘शासक के लिए यही उचित है कि उसके शासन में कोई भी आदमी ठंड और भूख से पीड़ित न रहे. आदमी के पास जब जीने के मामूली साधन भी नहीं रहते, तो वह अपने नैतिक स्तर को बनाए नहीं रख सकता.’ किसी के भूखे न रहने का सपना देखने वाला यह शहीद देश के शासक वर्ग के लिए सबसे लोकलुभावन हीरो है, जबकि इस देश के सरकारी आंकड़ों में इस वक्त करीब 30 करोड़ लोग भूखे सोते हैं. सवाल उठता है कि भगत सिंह तो सबके हैं लेकिन उनके विचार किसके हैं.

‘जब तक कोई निचला वर्ग है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई अपराधी तत्व है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई जेल में कैद है, मैं आजाद नहीं हूं.’ भगत सिंह की जेल डायरी में दर्ज ऐसी तमाम पंक्तियां उनके क्रांतिकारी सपनों का आईना हैं, जिन पर वक्त के साथ उपेक्षाओं की धूल भरी मोटी चादर बिछा दी गई है. भगत सिंह के नाम का नारा लगाने वाले ज्यादातर राजनीतिज्ञ इन सपनों के बारे में शायद ही कोई बात करते हों. अगर भगत सिंह हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं तो भूख से मर रहे लोगों, कर्ज से आत्महत्या करते किसानों और जेलों में सड़ रही लाखों जिंदगियों में क्या भगत सिंह जीवित नहीं हैं, जैसा कि उक्त पंक्तियों में दर्ज है? फिर हमारी सियासत इस बात पर क्यों उलझ गई कि कन्हैया कुमार नामक युवक में भगत सिंह है कि नहीं? भगत सिंह के दस्तावेज गवाह हैं कि उनका सपना मजदूर, किसान, वंचित, दलित और हर उस व्यक्ति के लिए लड़ना रहा जो पीड़ित है. क्या देश की कुर्सी पर ‘भूरे साहबों के कब्जे’ को लेकर भगत सिंह का डर सच साबित हुआ? अगर यह सच न होता तो भगत सिंह की राजनीतिक विरासत और उनके सपनों के हिंदुस्तान पर बहस होती, न कि इस बात पर कि भगत सिंह ‘भारत माता की जय’ बोलकर फांसी पर चढ़ने वाले ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ थे, या भगवा रंग की पगड़ी पहनने वाले सरदार? क्या भगत सिंह का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि उनके लिखे को स्वीकारते हुए उन्हें नास्तिकता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता का झंडा बुलंद करने वाला क्रांतिकारी माना जाए और जब तक एक भी व्यक्ति शोषित है, तब तक व्यवस्था बदलने का सतत प्रयास होता रहे?

शहीद भगत सिंह इस देश की राजनीति के लिए अचानक महत्वपूर्ण हो उठे हैं. हर राजनीतिक दल उन्हें अपना साबित करने के लिए बेकरार है. सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि अचानक सियासतदानों को उनकी याद आ गई. इतिहास के पन्ने जिन लोगों को वैचारिक या राजनीतिक तौर पर भगत सिंह के खिलाफ खड़ा करते हैं, वे लोग अब उनकी विरासत के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर खड़े हैं. जिन लोगों ने उनके समय में उनसे दूरी बनाकर रखी, सबसे पहला दावा आज उन्हीं का है. वैचारिक निकटता या अंगीकार के चलते कोई भगत सिंह को अपना कहे तो भी गनीमत है, लेकिन भगत सिंह के सपनों की हत्या करने वाले लोग भी अगर भगत सिंह को अपना कहें तो यह भगत सिंह समेत पूरे क्रांतिकारी आंदोलन का अपमान है जो आजादी के साथ समता, बंधुता और मानव मुक्ति के उद्देश्यों के साथ लड़ा गया.

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bhagat Head

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कॉन्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कॉन्फ्रेंस हुई. दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई. उनमें से एक सवाल धर्म का भी था. प्रांतीय कॉन्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफर अली साहब के पांच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें. आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूं.

यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शांति में कोई विघ्न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज उठाने की जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आंदोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आजादी दे दी गई. यहां तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़े जाने लगे. उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था. फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी. जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतंत्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गए हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं.

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुंचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं. वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमजोर बनाना है. उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है. लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नजर आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है. मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों. उनमें पूंजीपतियों के ऊंच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे. लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है. बीसवीं सदी में भी पंडित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इनकारी है. यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा.

(1928 में ‘किरती’ में छपे भगत सिंह के लेख ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ से)[/symple_box]

आजादी के नायकों में से दो विभूतियों को सबसे ज्यादा सेलिब्रेट किया जाता है एक गांधी और दूसरे भगत सिंह. गांधी के साथ वामपंथ और दक्षिणपंथ की घोर असहमतियां रही हैं, जो अब भी बरकरार हैं, लेकिन भगत सिंह की सभी खुले स्वर में प्रशंसा करते हैं और सभी उन्हें अपना साबित करने की कोशिश करते हैं. वामपंथी भगत सिंह को वामपंथी कहकर उनके सपनों के भारत की बात करते हैं, जबकि संघ परिवार उन्हें कट्टर राष्ट्रवादी और देश के लिए प्राणों की बलि देने वाला देशभक्त बताकर उनका महिमामंडन करता है. लेकिन भगत सिंह को लेकर मची इस छीना-झपटी में असली भगत सिंह कहां हैं? देश को लेकर उनके क्या विचार थे? वे कैसा भारत चाहते थे? वे कैसी राजनीति चाहते थे? आज के राजनीतिक दलों और उनके विचारों का भगत सिंह से कितना साम्य है? आज भगत सिंह होते तो मौजूदा राजनीति में किस तरह से हस्तक्षेप करते? इन सारे सवालों का जवाब उन लेखों और दस्तावेजों में मिल सकता है जो उन्होंने खुद लिखे हैं या जो उनसे संबंधित हैं.

राजनीतिक दलों के बीच भगत सिंह को अपनाने की इस कदर होड़ क्यों मची है, इसके जवाब में पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘जीते-जी जिस भगत सिंह की राजनीतिक दलों ने अवहेलना की, उसे अब सब अपना कहने पर आमादा हैं. भगत सिंह जब अंग्रेज सरकार के हाथ लगे तो अखबारों ने रिपोर्ट में लिखा कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आम तौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे. आखिर भगत सिंह वामपंथी पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें. जिहाद के जाल में फंसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताजा करने में लगे हैं. आखिर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह जमीन थी जो आज पाकिस्तान है.’

इन्हीं सवालों को लेकर लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘अपने सीमित राजनीतिक जीवन में भगत सिंह ने जो भविष्यवाणी की थी, आज खुलकर उसे सामने देख रहे हैं. आजादी के बाद कुछ चीजों को लेकर भले ही भ्रम रहा हो, लेकिन अब चाहे सांप्रदायिकता के मसले को देखें, जाति के मसले को देखें या काले अंग्रेज-भूरे अंग्रेज की उनकी जो समझदारी थी, मेरे ख्याल से वो खुलकर सामने आ रहा है. एक तो उनकी भविष्यवाणी सामने आ रही है. इसके अलावा मुझे लगता है कि जो भी संकट दिख रहा है, एक तरफ तो सांप्रदायिक ताकतें हैं, दूसरी तरफ विकल्प के तौर पर जो शक्तियां हैं वे भी संकट में हैं. वामपंथी पार्टियां और आंदोलन खुद संकट में है. ऐसे समय में समाज अपने नायकों को याद करता है. बढ़े हुए संकट के दौर में भगत सिंह लोगों को अपने करीब लगने लगे हैं.’

भगत सिंह को लेकर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के अभियान का यह चरम है कि भगत सिंह के बारे में ज्ञात तथ्यों को भी झुठलाया जा रहा है. शशि थरूर ने कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से की तो प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने यह झूठ बोलकर भगत सिंह के प्रति शिष्टाचार की सारी हदें पार कर दीं कि ‘भगत सिंह भारत माता की जय बोलकर फांसी पर चढ़े थे.’ सारी दुनिया अब तक यही जानती है कि 23 मार्च, 1931 को फांसी के दौरान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए थे. उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाना भी गाया था और चेहरे पर काला कपड़ा पहनने से इनकार कर दिया था. अब फर्जी राष्ट्रवादी, जिनकी पार्टी और पूर्वजों का राष्ट्र निर्माण और स्वतंत्रता संघर्ष में कोई भूमिका नहीं रही है, इतिहास को गोएबल्स की स्टाइल में उलट-पलट रहे हैं, जैसा कि हिटलर के समय किया गया था.’

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इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘कई सालों तक गांधी जी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया. बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेजी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई. पर इसके बाद के समय में भी राजनीतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी-कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई जरूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझने या लोगों तक पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई. भगत सिंह को याद करना महज 26 जनवरी और 15 अगस्त को फिल्म ‘शहीद’ के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे-जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी-सी याद भी खत्म कर दी गई. इसके बाद 1997 में भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को , देश की आजादी की 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आजादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.’

वे आगे कहते हैं, ‘इतिहासकार प्रोफेसर बिपन चंद्र 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए. इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के-दुक्के बयान दिए, भगत सिंह केे कुछ पर्चों के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई. दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालांकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे. किसी ने उन पर गेरुआ वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.’

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bhagat Headभारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि इस तरह के धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे.

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो.

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है.

(जून, 1928 में ‘किरती’ में छपे भगत सिंह के लेख ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ का अंश)

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भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों पर महत्वपूर्ण किताबें लिखने वाले सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘शहीद भगत सिंह पर दावेदारी कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से जारी है. खास तौर से जब भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई. इस वर्ष उनके सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके.’ भगत सिंह की प्रतीकात्मक पहचान और विचारधारा से छेड़छाड़ पर चिंता जताते हुए विद्यार्थी कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं. आप यही तो बताना चाह रहे हैं कि भगत सिंह इसलिए बहादुर थे कि सिख थे. तब कहना पड़ेगा कि राम प्रसाद बिस्मिल इसलिए बहादुर थे कि ब्राह्मण थे, रोशन सिंह इसलिए बहादुर थे कि ठाकुर थे, अशफाक उल्ला इसलिए बहादुर थे कि पठान थे. आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह युवा क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती.’

भगत सिंह को लेकर आजकल ज्यादा शोर इसलिए सुनाई दे रहा है कि भगत सिंह को अपनाने की होड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल हो गया है. संघ पर यह भी आरोप लगता है कि उसके प्रयासों से भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर उन्हें धार्मिक दिखाने की कोशिश की गई. सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘आरएसएस इस मामले में दिलचस्प है. जिस गांधी की हत्या में उनका या उनकी विचारधारा का हाथ था, जब उन पर दावा कर सकती है, तो और क्या कहा जाए. आंबेडकर जिनके विचारों से उनकी ताउम्र दुश्मनी रही, आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, ब्राह्मणवाद का विरोध किया, आरएसएस उनको भी क्लेम करता है. आरएसएस को इसमें सलाहियत हासिल है. बस एक ही व्यक्ति बचते हैैं वो हैं नेहरू, क्योंकि उनकी जगह वह सरदार पटेल को अपनाता है. दूसरा, क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर आम जनमानस में जो एक छवि है कि वे पिस्तौल और बम वाले लोग थे, बड़े बहादुर थे, उसके साथ जोड़कर खुद को पेश करते हैं. वे भगत सिंह की टोपी वाली इमेज नहीं दिखाते हैं, उनको सरदार टाइप दिखाते हैं. पगड़ी पहनाकर. आरएसएस और भाजपा आंबेडकर व भगत सिंह को चुनिंदा ढंग से अपनाते हैं. इसमें प्रगतिशील लोगों की कमजोरी है कि आरएसएस नायकों को अपनाने की कोशिश कर पा रहा है.’

इतिहासकार राजीव लोचन कुछ नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं, ‘जब भगत सिंह सक्रिय थे, उस समय राजनीतिक दल उनसे बिल्कुल परे हट कर रहते थे. भगत सिंह का जो सीधा संवाद होता था, वो गांधी के साथ होता था. बाकी हमारे जितने नेतागण थे, भगत सिंह की जब मौत हुई तो फट से पल्ला झाड़ा और उसके बाद उन्हें कभी याद नहीं किया. 1980 के बाद भगत सिंह की याद सबको आनी शुरू हुई, जब नेताओं की एनिवर्सरीज आनी शुरू हुईं. अगर आपको याद हो तो 80 और 90 के दशक में रेडियो और टीवी पर जो गाने भगत सिंह को लेकर हुआ करते थे, वे गाने बजने बंद हो गए. उस वक्त कुछ टीवी वालों ने चर्चा में मुझसे कहा था कि अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता, इसलिए अब इसकी कोई जरूरत नहीं है. एनिवर्सरीज नजदीक आईं तो लोगों को भगत सिंह की याद आई. एक तो याद आई हमारे कम्युनिस्ट साथियों को जो कि उस वक्त भगत सिंह का पूरी तरह विरोध करते थे. अभी तो कहने भी लगे हैं कि भगत सिंह हमारे हैं, लेकिन उस वक्त सख्त खिलाफ थे. ये बेचारे इसलिए भी याद करने लगे क्योंकि 60 साल से जूते पड़ रहे थे कि तुम तो गद्दार हो, 1942 में अंग्रेजों का साथ दिया. तो उनको अचानक समझ में आया कि भगत सिंह को इस्तेमाल करके हम भी अपने को राष्ट्रवादी साबित कर सकते हैं. कम्युनिस्ट इस्तेमाल करने लगे तो जो बाकी लोग थे वे भी भगत सिंह पर टूट पड़े और भगत सिंह को सर आंखों पर उठाया. इस पूरे माहौल में बीजेपी एक पार्टी थी जो कि पीछे रही क्योंकि बीजेपी का भगत सिंह के साथ कोई भी संबंध नहीं है. अब बीजेपी ने उनको याद करना शुरू किया और बीजेपी ने जिस तरह याद किया वो हमें दिख ही रहा है.’

भगत सिंह पर असली दावेदारी किसकी है, इस सवाल पर प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘भगत सिंह भारत के कामगार, मजदूर, किसान, दलित और निचले वर्ग के साथ थे. 1929 से 1931 के दौरान जब भगत सिंह के केस का ट्रायल चल रहा था, उस वक्त सभी अखबार वामपंथी और ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ लिख रहे थे. 24 जनवरी, 1930 को वे कोर्ट में ‘लाल स्कार्फ’ पहनकर पहुंचे थे और जज से अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए सोवियत यूनियन को शुभकामना भेजने का अनुरोध किया था.’

वे आगे कहते हैं, ‘एक वक्त पर भगत सिंह, चंद्रशेखर और उनके साथियों ने ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाया था, लेकिन सितंबर, 1928 में अपने संगठन के नाम में सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे को अपनाया. 2 फरवरी, 1931 को लिखे उनके ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पत्र’ में स्पष्ट रूप से ‘समाजवादी सिद्धांत’ को भारतीय स्वतंत्रता का रास्ता बताया है. कोई भी व्यक्ति जिसने ऐतिहासिक दस्तावेज पढ़े हैं, वह भगत सिंह के मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित ‘समाजवादी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी’ होने से इनकार नहीं कर सकता.’

बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘वे मार्क्सवादी हो चले थे और इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है. दूसरे शब्दों में जनता ही जनता के लिए क्रांति कर सकती है. अदालत में और अदालत के बाहर भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने जो बयान दिए, उनका सार यह है कि क्रांति का अर्थ है क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के शोषित, दलित व गरीब तबकों के जनांदोलन का विकास. भगत सिंह एक जागरूक, धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी होने के नाते राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के सम्मुख मौजूद सांप्रदायिकता के खतरे को पहचानते थे. अपने साथियों, श्रोताओं से वे बराबर कहा करते थे कि सांप्रदायिकता उतनी ही खतरनाक है जितना उपनिवेशवाद. नौजवान भारत सभा के छह नियम, जिन्हें भगत सिंह ने तैयार करवाए थे, में से दो इस तरह थे- ‘ऐसी किसी भी संस्था, संगठन या पार्टी से किसी तरह का संपर्क न रखना जो सांप्रदायिकता का प्रचार करती हो’ और ‘धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते हुए जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति सहनशीलता की भावना पैदा करना और इस पर दृढ़ता से काम करना.’ 

लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘भगत सिंह ने ‘वंदे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा दिया. जाहिर है वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सिर्फ इसलिए नहीं थे कि यह एक विदेशी हुकूमत थी. वे साम्राज्यवाद के खिलाफ थे और इसके विकल्प के रूप में समाजवाद के समर्थक. भगत सिंह निश्चित तौर पर भारत की आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों का हिस्सा नहीं थे, लेकिन अपने विचारों में वे वैज्ञानिक समाजवाद के बेहद करीब थे. आजाद हिंदुस्तान को लेकर उनके स्वप्न एक शोषण विहीन और समानता आधारित समाज के थे जिसमें सत्ता का संचालन कामगार वर्ग के हाथ में हो. वह लड़ाई उपनिवेशवाद की मुक्ति तक तो पहुंची लेकिन उसके आगे जाकर वंचित जनों के हाथ में सत्ता देकर एक समतावादी समाज की स्थापना अब भी एक स्वप्न ही है.’

भगत सिंह और उनके साथियों के उद्देश्यों को लेकर इतिहासकार बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने पहली बार क्रांतिकारियों के समक्ष एक क्रांतिकारी दर्शन रखा. उन्हें बताया कि क्रांति का लक्ष्य क्या होना चाहिए. 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के घोषणापत्र में कहा गया कि हमारा उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है. क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, इस बात को जनता तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह ने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था, ‘क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से आती है.’

भगत सिंह आज कितने प्रासंगिक हैं, इस सवाल पर लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘हमने जो आर्थिक व्यवस्था चुनी वह समतावादी होने की जगह लगातार विषमता बढ़ाने वाली साबित हुई और आज आजादी के सात दशकों बाद भी हम अपनी जनता के बड़े हिस्से को जरूरी सुविधाएं भी मुहैया नहीं करा पा रहे. सामाजिक ताना-बाना भी बुरी तरह उलझा और ध्वस्त हुआ है. एक अपेक्षाकृत बराबरी वाला संविधान अपनाने के बावजूद समाज के भीतर जातीय, धार्मिक और इलाकाई भेदभाव लगातार बढ़ता गया है. दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत हुई हैं और धर्म का स्पेस राजनीति में घटने की जगह भयावह रूप से विस्तारित होता चला जा रहा है. कश्मीर और उत्तर-पूर्व में जिस तरह उत्पीिड़त राष्ट्रीयताओं का प्रतिरोध और दमन देखा जा रहा है वह देश के रूप में हमारी परिकल्पना को ही प्रश्नांकित कर रहा है. ऐसे में भगत सिंह को याद करना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की क्रांतिकारी तथा जनपक्षधर धारा को याद करना है.’

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[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-bhagat-singh-s-nephew-on-ongoing-debate-on-bhagat-singh/” style=”tick”]जानें भगत सिंह के भतीजे प्रो. जगमोहन सिंह के विचार[/ilink]

सबके अपने-अपने पक्ष हैं और सब पार्टियां और विचारक अपने तरीके से भगत को पेश करते हैं. राजीव लोचन कहते हैं, ‘पार्टियां ऐसा क्यों करती हैं? क्योंकि युवा वर्ग भगत सिंह से बहुत प्रभावित होता है. पंजाब में आप देखेंगे कि भिंडरावाले और भगत सिंह के पोस्टर एक साथ लगे. दोनों एक साथ लोगों का दिल जीतते हैं. युवाओं को लगता है बम और पिस्तौल लेकर सारी समस्या का हल खोज सकते हैं. बाकी लोग तो बेवकूफ की माफिक चर्चाएं कर रहे हैं, सॉल्यूशन तो बंदूक में है. उसे भगत सिंह भी अच्छा लग जाता है, भिंडरावाले भी अच्छा लग जाता है. भाजपा को लग रहा है कि अगर भगत सिंह उसके हो गए तो उसकी बल्ले-बल्ले. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा. भगत सिंह के सब दस्तावेज मौजूद हैं. उन्हें इंटरनेट पर भी कोई भी देख सकता है. जब आप कहते हैं कि भगत सिंह भारत माता की जय बोलता था, तब लोगों को इसकी हकीकत आसानी से पता चल सकती है. भाजपा के लिए सबसे अच्छा ये रहेगा कि वह पहले अपना रवैया बदले, फिर भगत सिंह का नारा लगाए.’

राजीव लोचन आगे कहते हैं, ‘भगत सिंह पूरी तरह वामपंथी थे. उस समय के लोगों का भी मानना था कि वे वामपंथी हैं. असेंबली में बम फेंकने के बाद अगले दिन की खबर में यह नहीं था कि भगत सिंह ने बम फोड़ा, अखबारों ने लिखा था सोशलिस्टों ने बम फोड़ा.’

भगत सिंह के सहयोगी रहे कॉमरेड शिव वर्मा ने ‘शहीद भगत सिंह की चुनी हुईं कृतियां’ शीर्षक से एक किताब संपादित की, जो 1987 में कानपुर से छपी. इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘आम जनता यह बात नहीं जानती कि भगत सिंह वास्तव में थे क्या. वह इतना ही जानती है कि वे एक बहादुर इंसान थे जिन्होंने सांडर्स को मारकर लाला जी की हत्या का बदला लिया और सेंट्रल असेंबली में बम फेंका. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह एक उच्च कोटि के बुद्धिजीवी भी थे. इस कारण से स्वार्थी व्यक्तियों के लिए क्रांतिकारी आंदोलन और खासकर भगत सिंह के वैचारिक पक्ष को विकृ​त करना आसान हो जाता है.’

भगत सिंह और उनके साथियों को करीब से जानने वाले शिव वर्मा आगे लिखते हैं, ‘एक बुद्धिजीवी के रूप में भगत सिंह हम सबसे बहुत ऊंचे थे. जिस समय जल्लाद ने उनको जीवन के अधिकार से वंचित किया, वे मुश्किल से 23 साल के थे. इतनी कम आयु में उन्होंने बड़े अधिकार के साथ कई विषयों पर लिखा. राजनीति, ईश्वर, धर्म, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्महत्या, फौरी समस्याओं और कई दूसरे विषयों पर उन्होंने विचार व्यक्त किए थे. क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का, उसके वैचारिक संघर्ष और विकास का गहरा अध्ययन-मनन उन्होंने किया था और उससे समुचित निष्कर्ष निकाले थे. इसलिए अगर हमें भगत सिंह को ठीक तरह से समझना है तो हमें उनकी इस पृष्ठभूमि की भी कुछ जानकारी होनी चाहिए.’

यह सच है कि राजनीतिक दावेदारी के शोर में भगत सिंह के सपनों की कोई चर्चा नहीं है. भगत सिंह के लेखों और पत्रों से गुजरते हुए आप पाएंगे कि भगत सिंह गरीब, मजदूर, शोषित, वंचित के पक्ष में साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और शोषण के विरुद्ध युद्ध की बार-बार घोषणा कर रहे थे. लाहौर षड्यंत्र केस के तीन अभियुक्तों को फांसी हुई तो इन अभियुक्तों ने मांग की कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फांसी न देकर गोली से उड़ा दिया जाए. उस समय युद्धबंदियों को गोली से उड़ाया जाता था. लाहौर षड्यंत्र केस के साथियों का साथ देते हुए भगत सिंह और उनके दोनों साथियों ने भी अंग्रेज सरकार से यही मांग रखते हुए पत्र लिखा. उस पत्र में लिखा गया, ‘हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है. इस प्रकार से स्वार्थ साधने वाले चाहे अंग्रेज पूंजीपति हों, चाहे हिंदुस्तानी, उन्होंने आपस में मिलकर लूट जारी कर रखी हो या युद्ध, भारतीय पूंजी के द्वारा ही गरीब का खून चूसा जा रहा हो, इन बातों से अवस्था में कोई अंतर नहीं आता.’

भगत सिंह का नारा लगाकर उन पर दावा ठोंकने वाली सियासत ने इन प्रश्नों पर कब विचार किया है, जो भगत सिंह के लिए मौत के पहले के प्रश्न थे कि ‘मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है.’

निचली अदालत में भगत सिंह से पूछा गया था कि क्रांति से उनका क्या मतलब है, इसके जवाब में भगत सिंह ने कहा था, ‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं हैं. और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है. वो बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन… मजदूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए तरस जाते हैं… यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है. यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती. स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है…’ भगत सिंह ने जिन सवालों को ताल ठोंककर अंग्रेज सरकार के सामने उठाया था, वही सवाल अब भारतीय संसद में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या के बाद भी नहीं उठते. क्या भगत सिंह का ‘व्यवस्था पर भूरे साहबों’ द्वारा कब्जा कर लेने से जुड़ा शक सही नहीं हो गया है?

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‘सरकार में बैठे लोग हर सूबे से चार भगत सिंह ढूंढें और फांसी चढ़ा दें’

जिस दिन गांधी जी ने यह कहा कि भगवान उनका मार्गदर्शन करता है, संसार को चलाने के लिए वर्णाश्रम एक श्रेष्ठ व्यवस्था है और जो कुछ होता है भगवान की इच्छा से होता है, उसी दिन हम इस निर्णय पर पहुंच गए थे कि गांधीवाद और ब्राह्मणवाद में कोई फर्क नहीं है. हमने यह भी निष्कर्ष निकाला था कि देश का भला तब तक नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस पार्टी जो इस दर्शन और सिद्धांत पर चलती है, समाप्त न हो जाए. लेकिन अब यह तथ्य कम से कम कुछ लोग मानने लगे हैं, उनके पास ज्ञान और साहस आ गया है कि वे गांधीवाद के पतन के लिए प्रयास कर सकें. यह हमारे उद्देश्य की महान सफलता है. यदि भगत सिंह को फांसी न दी गई होती तो इतने लोकप्रिय ढंग इस विजय के आधार न होते. बल्कि हम तो यह बात कहने का जोखिम उठाते हैं कि यदि भगत सिंह को फांसी न हुई होती तो गांधीवाद को और जमीन मिली होती.

भगत सिंह बीमार पड़कर नहीं मरे, जैसा आम तौर पर लोगों के साथ होता है. उन्होंने न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व को वास्तविक समानता और शांति का मार्ग दिखाने के महान उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. भगत सिंह एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जहां सामान्यतया कोई नहीं पहुंच पाया. हमें उनकी शहादत पर हृदय से गर्व है. साथ ही साथ हम सरकार में बैठे लोगों से यह प्रार्थना करते हैं कि वे हर सूबे में चार भगत सिंह जैसे सच्चे आदमी ढूंढें और फांसी पर चढ़ा दें.

(भगत सिंह की फांसी के बाद रामास्वामी पेरियार द्वारा अपने अखबार ‘कुडई आरसु’ में लिखे संपादकीय का अंश)[/symple_box]

भगत सिंह के पास सिर्फ स्वप्न नहीं थे. उनकी निगाह में हिंसा एक ‘विवशता का हथियार’ भर थी. बाकी पूरी व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, इसका स्पष्ट दर्शन बार-बार वे पेश करते रहे. लेकिन उन्होंने शहादत इसलिए दी कि उनकी शहादत ‘युवाओं को मदहोश करेगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे.’ वे ‘बम और पिस्तौल का रास्ता’ अपनाकर खून बहाने की जगह युवाओं को सलाह देते हैं कि ‘करोड़ों लोगों को जागरूक करना’ हमारा कर्तव्य है. वे अदालत में स्वीकार करते हैं कि ‘हम मानव जीवन को अ​कथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव-सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे.’ इंसानियत के बचाव और शोषण के विरुद्ध उनके बलिदान की चर्चाएं करने की जगह सिर्फ उनकी विरासत पर कब्जे की कोशिश क्या भगत सिंह को दोबारा फांसी देने के समान नहीं है?

भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में पृष्ठ 24 पर एक स्पेनी शिक्षक फ्रांसिस्को फेरेर, जिन्हें षड्यंत्र के तहत फांसी दी गई थी, की वसीयत लिखी. इसमें कहा गया है, ‘मैं अपने दोस्तों से यह भी कहना चाहूंगा कि वे मेरे बारे में कम से कम चर्चा करेंगे या बिल्कुल ही चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि जब आदमी की तारीफ होने लगती है तो उसे इंसान के बजाय देवप्रतिमा-सा बना दिया जाता है और यह मानव जाति के भविष्य के लिए बहुत बुरी बात है. सिर्फ कर्मों पर ही गौर करना चाहिए, उन्हीं की तारीफ या निंदा होनी चाहिए, चाहे वे किसी के द्वारा किए गए हों. अगर लोगों को इनसे सार्वजनिक हित के लिए प्रेरणा मिलती दिखाई दे तो वे इनकी तारीफ कर सकते हैं, लेकिन अगर ये सामान्य हित के लिए हानिकारक लगें तो वे इनकी निंदा भी कर सकते हैं, ताकि फिर इनकी पुनरावृत्ति न हो सके… मरे हुए के लिए खर्च किए जाने वाले समय का बेहतर इस्तेमाल उन लोगों की जीवन दशाओं को सुधारने में किया जा सकता है जिनमें से बहुतेरों को इसकी भारी आवश्यकता है.’ क्या भगत सिंह के नाम पर नारा लगाकर शोर मचाने वाले सत्ताधारी उनकी इस विरासत पर अमल करेंगे?

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bhagat Head30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा! उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआं अपवित्र हो जाएगा! ये सवाल बीसवीं सदी में किए जा रहे हैं, जिन्हें कि सुनते ही शर्म आती है… हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इंकलाब की आवाज उठा रहा है. उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी. आज रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है. हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिंतित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता. अंग्रेजी शासन हमें अंग्रजों के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?

जब तुम एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के अधिकारी कैसे बन गए?

जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों-जैसा व्यवहार किया जाएगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा.

समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गए, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया तथा यह दो बातें स्वीकृत कर हिंदू धर्म की लाज रख ली. वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है.

(1928 में ‘किरती’ में ‘अछूत का सवाल’ शीर्षक से छपे भगत सिंह के लेख का अंश)[/symple_box]

हम नास्तिक क्यों हैं…

सभी फोटो : अमित सिंह
सभी फोटो : अमित सिंह
सभी फोटो : अमित सिंह

‘देखिए भैया, हम बहुत मेहनत करके शाम की रोटी का जुगाड़ करते हैं. हमें ये पता है कि हम मेहनत नहीं करेंगे तो बच्चों के साथ भूखा ही सोना पड़ेगा. ऐसे में हम अपनी मेहनत का श्रेय भगवान को नहीं दे सकते. या कहिए कि हम भगवान को नहीं मानते हैं. आपको आपका भगवान रोटी देता होगा, आप मानिए. हमको रोटी हमारी मेहनत की मिलती है. हमको समाज में इज्जत हमारे कर्मों से मिलती है, तो हम इसे ही सबसे बेहतर मानते हैं.’ ये कहना है शांति देवी का. शांति देवी उत्तर प्रदेश के बरूर गांव (कानपुर देहात) की रहने वाली हैं और गांव की प्रधान भी रह चुकी हैं.

शांति ने बीए तक की पढ़ाई की है और लंबे समय तक अपने गांव की प्रधान भी रही हैं. हमारे देश में जहां धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं और उसकी रक्षा के नाम पर आतंकवाद से लेकर दंगे तक होते रहे हैं, वहां शांति देवी जैसे कुछ लोगों की ये बातें अजीब लगती हैं. बहरहाल ऐसा कहने वाली शांति अकेली नहीं हैं. हाल ही में जारी किए गए जनगणना 2011 के आंकड़ों में बताया गया है कि देश में 28 लाख से अधिक लोग छह प्रमुख धर्मों में से किसी का पालन नहीं करते हैं. वे नास्तिक हैं. इनमें से 5.82 लाख उत्तर प्रदेश में हैं. इसमें से एक बड़ा वर्ग अर्जक संघ से जुड़ा हुआ है.

अर्जक संघ उत्तर प्रदेश में सक्रिय सबसे बड़ा नास्तिक समूह है. इसका प्रभाव कानपुर, बस्ती, फैजाबाद, वाराणसी, फतेहपुर, इलाहाबाद और प्रतापगढ़ के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में फैला हुआ है. साथ ही इस संघ से बिहार व झारखंड में भी लोग जुड़े हुए हैं. शांति इसी अर्जक संघ से जुड़ी हुई हैं. वे कहती हैं, ‘हम हमेशा से नास्तिक नहीं थे, लेकिन कई साल पहले जब हमारे पति ने ये बातें समझाईं तो लगा कि वह सही बोल रहे हैं. अगर हम थोड़ा सा भी दिमाग लगाएंगे तो पता चल जाएगा कि भगवान तो है ही नहीं, फिर हम क्यों फालतू में उनके चक्कर में परेशान होते हैं.’

‘आपके पास चढ़ावे के लिए पैसा है तो आपने पंडित जी, मौलवी जी को घूस दिया और आपके सारे कष्ट दूर. इससे बड़ा मजाक कुछ और हो नहीं सकता है. इस तरह तो आप भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं’

कुछ ऐसा ही मानना बरूर गांव के पूर्व प्रधान यशवंत सिंह का भी है. 65 वर्षीय यशवंत कहते हैं, ‘आपको आज का माहौल तो पता ही है. धर्म के नाम पर लोग इतने पागल हो गए हैं कि सिर्फ बीफ की अफवाह पर किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दे रहे हैं. धर्म को बचाने के नाम पर जेहाद करते हैं. यहां तक कि धर्म की राजनीति करके सरकारें गिराई और बनाई जा रही हैं. अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि ऐसा करके हम अपने समाज को किस तरफ ले जा रहे हैं. एक तरफ दुनिया के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पत्ति वाले कण की खोज करने का दावा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक और धार्मिक पिछड़ेपन के शिकार लोग आस्था के नाम पर अंधविश्वास के अंधे कुएं से बाहर नहीं आना चाहते.’ यशवंत से बातचीत करते हुए हम बरूर गांव की गलियों में घूमने लगते हैं.

आगे हमारी मुलाकात कुंती वर्मा से होती है. वे अपने घर के बाहर वाले चौखट पर बैठी होती हैं. कुंती कहती हैं, ‘हम भगवान की पूजा नहीं करते हैं, आप हमारे घर में आकर देख लीजिए, अगर आपको पूजा घर या भगवान के कैलेंडर मिल जाएं. यह हमारे घर का ही हाल नहीं है. आप इस गांव के ज्यादातर घरों में ऐसा ही पाएंगे. लेकिन आप यह न समझिए कि हम त्योहार नहीं मनाते. हमारे गांव में धार्मिक त्योहार से ज्यादा धूमधाम से राष्ट्रीय त्योहार मनाया जाता है.’ जब हमने उनसे पूछा कि क्या गांव में लोग पूजा-पाठ नहीं करते हैं तो उन्होंने कहा, ‘कुछ साल पहले तक गांव के ज्यादातर लोग पूजा-पाठ के चक्कर में नहीं फंसते थे, पर अब कुछ लोग पूजा-पाठ करने लगे हैं. उन्हें पता होता है कि हम भगवान में विश्वास नहीं करते हैं तो हमें नहीं बुलाते हैं. हां, कई बार प्रसाद वगैरह दे जाते हैं, कहते हैं मिठाई समझकर खा लीजिए.’ इसी बातचीत के दौरान यशवंत जी कहते हैं, ‘हमारे गांव में पिछले कई दशकों से किसी मंदिर का निर्माण नहीं किया गया है. जो लोग पूजा-पाठ करना चाहते हैं, उन्हें कोई रोकता नहीं है. जब मैं प्रधान था तो कई बार लोगों के ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों में जाना भी पड़ता था पर हम पर कोई दबाव नहीं डालता था.’ वह आगे कहते हैं, ‘देखिए, भगवान है या नहीं है इस विवाद में हम नहीं पड़ना चाहते हैं. हम मानववादी लोग हैं, अर्जक संघ भी मानव को श्रेष्ठ मानता है. अर्जक का अर्थ है वह समुदाय जो हाथ मजदूरी या श्रम के काम में लगा रहता है और यही कारण है कि जो लोग ब्राह्मण या सवर्ण जाति में जन्म लेते हैं उनके लिए इस संगठन की सदस्यता खुली हुई नहीं है. अर्जक संघ ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा, भाग्य या किस्मत, पुनर्जन्म, आत्मा आदि का कट्टर विरोधी है.’ सवर्ण जातियों को संघ में शामिल न किए जाने का कारण पूछे जाने पर यशवंत कहते हैं, ‘दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की तरह हिंदू धर्मग्रंथों को भी ईश्वर की इच्छा बताया जाता है. क्या यह ईश्वर की इच्छा है कि आप अपने कर्मों की वजह से नीच जाति में जन्म लेते हैं और ब्राह्मण सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर हैं. दरअसल यह एक पाखंड है. हम इसी पाखंड के विरोधी हैं.’

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अर्जक संघ की स्थापना 1जून, 1968 को रामस्वरूप वर्मा ने की थी. आचार्य नरेंद्र देव और लोहिया के करीबी रहे वर्मा विधायक भी रहे हैं.

वे कहते हैं, ‘अर्जक संघ रामायण को ‘ब्राह्मण महिमा’ मानता है और 1978 में दयानतपुर गांव में उसके संस्थापक रामस्वरूप वर्मा ने रामायण की कॉपियों को जलाया था. उस दौरान करीब 80 लोगों को हिरासत में ले लिया गया था. इलाके में माहौल बहुत खराब हो गया था. आप समझ सकते हैं कि आज से करीब चार दशक पहले ऐसी बात करना कितना कठिन रहा होगा.’ 1978 में हुई गिरफ्तारी में दयानकपुर गांव के राम आधार कटियार भी शामिल थे. वह अभी समाजशास्त्र के प्रवक्ता पद से रिटायर हुए हैं. राम आधार उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ‘वह हमारे लिए बहुत बड़ा दिन था. हमने पहली बार उस व्यवस्था को खारिज किया था जिसके जरिए सदियों तक हमें गुलाम बनाया गया था. पहली बार वैज्ञानिक आधार और तार्किक ढंग से बात कही गई थी. इसका फल हमें मिला, हमें बराबरी का एहसास हुआ.’ यह पूछे जाने पर कि क्या उसके बाद गांव में हालात फिर पहले जैसे सामान्य हो पाए या सवर्णों और बाकी जातियों में तनाव बना रहा, राम आधार कहते हैं, ‘शुरुआत के कई सालों तक हमारे बीच में काफी तनाव रहा, लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया. दरअसल कई सदियों से शीर्ष पर कायम ब्राह्मणों को जब चुनौती मिली थी तो वह बौखला गए. गांव में बहुत तरह की बातें हुईं, पुरानी पीढ़ी ज्यादा कट्टर थी. पर अब सब सामान्य है.’

अर्जक संघ से जुड़ने का भी वे बड़ा मजेदार कारण सुनाते हैं. वे कहते हैं, ‘देखिए, विकास के कितने भी दावे कर लिए जाएं पर हकीकत आज भी वही है कि शिक्षा और ज्ञान की कमी से जूझ रहे लोगों में अंधविश्वास जड़ तक समाया हुआ है. इसके शिकार महिला और पुरुष दोनों बन रहे हैं. अब आप लोगों की समस्याएं सुनिए. किसी की नौकरी चली गई है, किसी को बेटा नहीं हो रहा है, किसी का पति शादी के बाद परदेस चला गया है, किसी की शादी में बार-बार रुकावटें आ रही हैं, किसी बेटे या मां को कोई बीमारी हो गई है. अब इसका उपाय यह है कि इसके लिए आप पंडे और मौलवी की शरण में चले जाएं. पूजा-पाठ, व्रत, उपवास रखने लगें. ये सारी बातें ठीक हो जाएंगी. मुझे लगता है कि आज के समय में ऐसे काम करने से बेहतर है कि आप अपने ऊपर भरोसा करें और अपने लोगों पर भरोसा करें जो आपको सही सलाह व मदद दे सकें.’

इस बात पर यशवंत कहते हैं, ‘आप अगर इन बातों को लेकर किसी पंडे या मौलवी के पास जा रहे हैं या भगवान को चढ़ावे चढ़ा रहे हैं तो एक तरह से आप भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं. आखिर आपके पास चढ़ावे के लिए पैसा है तो आपने पंडित जी, मौलवी जी को घूस दिया और आपके सारे कष्ट दूर. इससे बड़ा मजाक कुछ और हो नहीं सकता है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने हमारे समाज में भ्रष्टाचार को जन्म दिया और उसे बढ़ावा भी दिया है.’

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बहरहाल, तकनीक के इस दौर में अंधविश्वास के प्रति बढ़ रही आस्था वाकई हमारे समाज पर सवाल खड़ा कर रही है. जबकि पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने धारा 51 ए को लेकर अपना मसविदा संसद के सामने पेश किया था, जिस पर संसद ने मुहर लगाई थी. उन दिनों की संसद की बहसें बताती हैं कि सांसदों के विशाल बहुमत ने अंधश्रद्धा से मुक्त होकर स्वाधीन भारत की प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी. भारतीय संविधान की धारा 51 ए सभी नागरिकों का मूल कर्तव्य तय करते हुए सभी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने और तर्क की प्रवृत्ति विकसित करने पर जोर देती है. अर्थात भारतीय संविधान समाज में वैज्ञानिक सोच स्थापित करने पर जोर देता है. अर्जक संघ इसी को बढ़ावा देने के काम में लगा हुआ है.

जब आप कानपुर देहात में सिकंदरा के पटेल चौक से गुजरेंगे तो अर्जक संघ के कार्यालय पर आपकी नजर पड़ेगी. एक पुरानी-सी खस्ताहाल इमारत जिस पर लिखा हुआ है, ‘भगवान से यदि न्याय मिलता तो न्यायालय नहीं होते, सरस्वती से यदि विद्या मिलती तो विद्यालय नहीं होते.’ बाहर से देखने और इसके अंदर जाने पर भी आपको यह एक बेहद सामान्य-सा कार्यालय नजर आता है, लेकिन यह जो काम कर रहा है वह बड़े संगठनों को सीख देने लायक है.

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संघ के जिलाध्यक्ष सीताराम कटियार कहते हैं, ‘देखिए भगवान तो कल्पना की चीज है. इसमें भी लोग निश्चित नहीं कर पा रहे हैं कि कौन-सा बेहतर और कौन-सा बुरा है. ईसाई धर्म में उसकी परिभाषा अलग है, इस्लाम में अलग, हिंदू में अलग, बौद्ध धर्म में अलग है. अब जब किसी बात पर सब सहमत नहीं हैं तो इसका मतलब कि यह सिर्फ कोरी बकवास है. जैसे बच्चे को डराने के लिए हम कहते हैं कि देखो बिगवा आ जाएगा, वैसे ही इंसान को डराने के लिए भगवान का इस्तेमाल किया गया है.’ वे कहते हैं, ‘अर्जक संघ मानववादी संस्कृति का विकास करने का काम करता है. इसका मकसद मानव में समता का विकास करना, ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करना और सबकी उन्नति के लिए काम करना है. संघ 14 मानवतावादी त्योहार मनाता है. इनमें गणतंत्र दिवस, आंबेडकर जयंती, बुद्ध जयंती, स्वतंत्रता दिवस के अलावा बिरसा मुंडा और पेरियार रामास्वामी की पुण्यतिथियां भी शामिल हैं. अर्जक संघ के अनुयायी सनातन विचारधारा के उलट जीवन में सिर्फ दो संस्कार ही मानते हैं- विवाह और मृत्यु संस्कार. शादी के लिए परंपरागत रस्में नहीं निभाई जातीं. लड़का-लड़की संघ की पहले से तय प्रतिज्ञा को दोहराते हैं और एक-दूसरे को वरमाला पहनाकर शादी के बंधन में बंध जाते हैं. मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार मुखाग्नि या दफना-कर पूरा किया जाता है, लेकिन बाकी धार्मिक कर्मकांड इसमें नहीं होते. इसके 5 या 7 दिन बाद सिर्फ एक शोकसभा होती है. दरअसल हमारे हिंदू समाज में जन्म के आधार पर बहुत ही ज्यादा भेदभाव किया गया है. कोई पैदा होते ही ब्राह्मण, तो कोई वाल्मीकि होता है. ब्राह्मण समाज धर्मग्रंथों का सहारा लेकर सदियों से नीची जातियों का दमन करते आए हैं. हम ऐसी ही बातों का विरोध करते हैं.’ सीताराम कहते हैं, ‘1978 के आंदोलन के पहले तक लोग हमारी बातों पर ज्यादा गौर नहीं करते थे लेकिन उसके बाद लोगों ने हमारे संगठन पर ध्यान देना शुरू किया, वरना उससे पहले वे पंडितों पर ही विश्वास करते थे. लेकिन अब उनको मालूम है कि धर्मग्रंथ एक व्यक्ति की गप से ज्यादा कुछ नहीं है.’ 1978 में जेल जाने वाले लोगों में सीताराम कटियार भी शामिल थे.

भगवान को खारिज करने वालों में अर्जक संघ इकलौता संगठन नहीं है. इससे कई साल पहले तमिलनाडु के राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता ईरोड वेंकट रामास्वामी उर्फ पेरियार ने कहा, ‘ईश्वर नहीं है. जिसने ईश्वर को रचा वह बेवकूफ है, जो ईश्वर का प्रचार करता है वह दुष्ट है और जो ईश्वर की पूजा करता है वह बर्बर है.’ हालांकि इस बात से सब सहमत नहीं हैं. अर्जक संघ से जुड़े वीरेंद्र कहते हैं, ‘हमारे नास्तिक होने का खामियाजा कभी-कभी हमारे परिवार को भुगतना पड़ता है. दरअसल लोग अब भी अपने जीवन में तर्क को जगह नहीं दे रहे हैं. वैसे तो शादी-ब्याह हम अर्जक तौर-तरीकों से करते हैं, लेकिन बहुत सारे लोग इसके लिए तैयार नहीं होते. खासकर बहनों और बेटियों की शादी में. इसके चलते कई बार हमें मजबूरन उनकी बात माननी पड़ती है, कई बार इसी बात को लेकर रिश्ता टूट जाता है. हमें परेशानी का सामना करना पड़ता है.’

अर्जक संघ की स्थापना 1 जून, 1968 को रामस्वरूप वर्मा ने की थी. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के गौरीकरन नामक गांव में हुआ था. आचार्य नरेंद्र देव और राम मनोहर लोहिया के करीबी रहे रामस्वरूप वर्मा कई बार विधायक चुने गए थे. वे 1967 में चौधरी चरण सिंह के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री भी रहे. 

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उनके बारे में भाषाविद राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘रामस्वरूप वर्मा सिर्फ राजनेता नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटि के दार्शनिक, चिंतक और रचनाकार भी थे. उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की है. क्रांति क्यों और कैसे, मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद, मानववाद प्रश्नोत्तरी, ब्राह्मणवाद महिमा क्यों और कैसे, अछूतों की समस्या और समाधान, आंबेडकर साहित्य की जब्ती और बहाली, निरादर कैसे मिटे, शोषित समाज दल का सिद्धांत, अर्जक संघ का सिद्धांत, वैवाहिक कुरीतियां और आदर्श विवाह पद्धति, आत्मा पुनर्जन्म मिथ्या, मानव समता कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं.’ वे कहते हैं, ‘वर्मा की अधिकांश रचनाएं ब्राह्मणवाद के खिलाफ हैं. पुनर्जन्म, भाग्यवाद, जात-पात, ऊंच-नीच का भेदभाव और चमत्कार सभी ब्राह्मणवाद के पंचांग हैं जो जाने-अनजाने ईसाई, इस्लामी, बौद्ध आदि मानववादी संस्कृतियों में प्रकारांतर से स्थान पा गए हैं. वे मानववाद के प्रबल समर्थक थे. वे मानते थे कि मानववाद वह विचारधारा है जो मानव मात्र के लिए समता, सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है.’ रामस्वरूप ने आंबेडकर की पुस्तक जब्ती के खिलाफ आंदोलन भी किया था. डॉक्टर भगवान स्वरूप कटियार द्वारा संपादित किताब ‘रामस्वरूप वर्मा: व्यक्तित्व और विचार’ में उपेंद्र पथिक लिखते हैं, ‘जब उत्तर प्रदेश सरकार ने डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक जाति भेद का उच्छेद और अछूत कौन पर प्रतिबंध लगा दिया तो रामस्वरूप ने अर्जक संघ के बैनर तले सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया, साथ ही अर्जक संघ के नेता ललई सिंह यादव के हवाले से इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया. वर्मा जी खुद कानून के अच्छे जानकार थे. अंतत: मुकदमे में जीत हुई और उन्होंने सरकार को आंबेडकर के साहित्य को सभी राजकीय पुस्तकालयों में रखने की मंजूरी दिलाई.’ रामस्वरूप वर्मा का निधन 19 अगस्त, 1998 को लखनऊ में हुआ. उन्हें याद करते हुए वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस कहते हैं, ‘यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इतना मौलिक विचारक और नेता अधिक दिन जीवित नहीं रह सका, लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि समाज को इतने क्रांतिकारी विचार देने वाले वर्मा को उत्तर भारत में लगभग पूरी तरह से भुला दिया गया.’ 

हालांकि इस आंदोलन को कुछ लोग दूसरे नजरिये से भी देखते हैं. वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल कहते हैं, ‘अर्जक का मतलब होता है जो अर्जन करके अपना जीवनयापन करें. यह कम्युनिस्टों का आंदोलन नहीं था, बल्कि समाजवादियों का आंदोलन था. हालांकि उस दौरान इसे अहीर, जाट, कुर्मी आंदोलन कहकर प्रचारित किया गया था. फिलहाल अब यह अपने अंतिम दौर में है. जब रामस्वरूप वर्मा जिंदा थे तब यह बहुत तेजी से फैला था. ये लोग कर्मकांड नहीं करते हैं. अपनी शादियों में पंडितों को नहीं बुलाते हैं. इसकी जगह इनके अपने सात वचन होते हैं. मरने पर भी तेरहवीं या भोज के आयोजन के बजाय शोकसभा का आयोजन करते हैं. यह खत्म इसलिए हो गया क्योंकि यह एक राजनीतिक आंदोलन था. रामस्वरूप इसमें कुर्मियों के अलावा बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ पाने में असफल रहे.’ कुछ ऐसा ही मानना वरिष्ठ लेखक कंवल भारती का भी है. वह कहते हैं, ‘अर्जक संघ ने एक दौर में बड़ी संख्या में लोगों को अपने साथ जोड़ा, लेकिन रामस्वरूप वर्मा के निधन के बाद इससे लोगों का जुड़ाव कम हो गया. यह उनकी सबसे बड़ी कमी रही कि वे आगे की पीढ़ी को इसके लिए प्रेरित नहीं कर पाए.’

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लोगों, खासकर युवा पीढ़ी के संघ से कम जुड़ने की बात पत्रकार और लेखिका प्रतिभा कटियार भी स्वीकार करती हैं, लेकिन वे इसका दूसरा कारण बताती हैं. वे कहती हैं, ‘1991 के बाद जब हमारे देश में बाजारवाद ने कदम रखा तो उसने धर्म को ग्लैमर बनाकर उसका उपयोग किया. फिल्मों में देखने के बाद बहुत सारे लोगों ने व्रत रखना शुरू कर दिया. करवाचौथ जैसा त्योहार पूरे देश में फैल गया. जिस गांव में कभी पंडित नहीं दिखते थे, पूजा नहीं होती थी, वहां दुर्गा के पंडाल लगने लगे. इसके बाद रही-सही कसर धार्मिक चैनलों ने पूरी कर दी. अब बाजार ने आपके लिए दिन भर प्रवचन की व्यवस्था कर दी है. दरअसल धर्म, आस्था के साथ बहुत बड़ा बाजार भी है. पूंजीवादी व्यवस्था में बाजार ही हर चीज तय करती है. ऐसे में कोई विचार कितना भी वैज्ञानिक, तर्कयुक्त और पाखंड से दूर हो, बाजार के लिए उपयोगी नहीं हो तो वह बचा नहीं रह पाएगा. अगर गौर से देखें तो आज का समाज पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा है. हमारी साक्षरता ज्यादा है. लोग तकनीक की दुनिया में जी रहे हैं. ज्यादा तर्कशील हैं. फिर भी बाजार के चलते पाखंड की चपेट में हैं. अर्जक संघ के विस्तार को रोकने में इसकी अहम भूमिका रही. लेकिन जैसे-जैसे लोगों के पास अर्जक संघ के विचार पहुंच रहे हैं, लोग इसे अपना रहे हैं.’ ऐसी ही राय लंबे समय से अर्जक संघ से जुड़े भगवान स्वरूप कटियार की भी है. वे कहते हैं, ‘धीरे-धीरे अर्जक संघ का विस्तार हो रहा है. यह अलग बात है कि अब यह एक आंदोलन नहीं रह गया है. बिहार के गया, नवादा समेत कई जिलों में इसका विस्तार हो गया है. बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ रहे हैं.’

इस पर सीताराम कटियार कहते हैं, ‘आप यह तो कह रहे हैं कि नए लोग अर्जक संघ से नहीं जुड़ रहे हैं, लेकिन आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि आप अपने बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं? उनकी किताबों में राम, कृष्ण की गप कथाएं हैं. बच्चे स्कूल से जब घर वापस आते हैं तो पूछते हैं कि क्या सच में भगवान होते हैं, क्या वे हमारी मदद करते हैं. हमें बच्चों को समझाना होता है कि आप अपनी मदद खुद कर सकते हैं, कोई फालतू में आपकी मदद करने नहीं आता है. अब जब हम बच्चों को तर्कशील बनाने की जगह उन्हें धार्मिक शिक्षा देंगे तो नए लोग कहां से अर्जक संघ से जुड़ेंगे. दरअसल अब जरूरत हमारे पाठ्यक्रम को ज्यादा तर्कशील और वैज्ञानिक बनाए जाने की है. हम विज्ञान के युग में जी रहे हैं. हमें आगे बढ़ना है.’

तर्कवादी व मानव को श्रेष्ठ मानने वाले संगठन लगभग देश के हर राज्य में हैं और वे अंधविश्वास व सांप्रदायिकता से दो-दो हाथ भी कर रहे हैं. भले ही उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ रही हो. अंधश्रद्धा का विरोध करने वाले लेखकों नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे व एमएम कलबुर्गी आदि को इसके लिए अपनी जान गंवानी पड़ी है. बड़ी संख्या में ऐसे संगठनों और लोगों को अतिवादियों की धमकियों और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. मतलब जहां एक ओर धार्मिक पाखंड व अंधविश्वास और सांप्रदायिकता के खिलाफ वैज्ञानिक तर्क व मानवतावाद को प्रस्तुत किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर इस आवाज पर विराम लगाने का भी जोर-शोर से प्रयास जारी है.

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अर्जक साहित्य ने आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए : राजेंद्र प्रसाद सिंह

अर्जक आंदोलन और अर्जक साहित्य का प्रकाशन साठोत्तरी हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण परिघटना है. हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने इसे अभी तक दबाए रखा है. 1968 से जारी अर्जक आंदोलन से जुड़े कई प्रभावशाली साहित्यकार हुए हैं और न जाने कितनी रचनाएं रची गईं. पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास में अर्जक साहित्य के आलोचकों ने पहली बार आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए और नए औजारों से धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक गल्पों का पुनर्मूल्यांकन किया. मिसाल के तौर पर मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, रामायण की शव परीक्षा, गीता की शव परीक्षा आदि. अर्जक साहित्य ने भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ भी किया है. मिसाल के तौर पर भारत के आदि-निवासियों की सभ्यता, आर्यों का नैतिक पोल प्रकाश, क्या कभी सतयुग था, हिंदू इतिहास या हारों की दास्तान आदि. संत साहित्य के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास में पाखंड, ढोंग, अंधविश्वास जैसे सामाजिक-धार्मिक मुद्दों पर अर्जक साहित्य सर्वाधिक मुखर है. ईश्वर की खोज, पाप-पुण्य क्यों और कैसे, धर्म का धंधा, ब्राह्मणवाद की शव परीक्षा आदि पुस्तकें इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं. छायावाद के छद्म मानवतावाद को वास्तविक धरातल पर उतारने का श्रेय अर्जक साहित्य को है. रामस्वरूप वर्मा की पुस्तक ‘मानववाद प्रश्नोत्तरी’ पठनीय है. अर्जक साहित्यकारों ने अस्मितामूलक अनेक रचनाकारों की खोज की है जिसमें अछूतानंद जी हरिहर प्रमुख हैं. अर्जक साहित्य ने हाशिये के नायकों को अपने नाटकों का केंद्रीय चरित्र बनाया है. मिसाल के तौर पर ललई सिंह यादव कृत एकलव्य नाटक, शंबूक वध नाटक, वीर संत माया बलिदान नाटक आदि. अर्जक साहित्य की परंपरा में बुद्ध, फुले और आंबेडकर से लेकर जगदेव प्रसाद तक अनेक काव्यग्रंथ रचे गए हैं. मिसाल के तौर पर शहीद जगदेव महाकाव्य, अमर शहीद जगदेव प्रबंध काव्य आदि. चौधरी महाराज सिंह भारती का ग्रंथ ‘सृष्टि और प्रलय’ अर्जक साहित्य का प्रमुख ग्रंथ है जिसमें दर्ज है कि सृष्टि को ईश्वर ने नहीं बनाया है. रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, भदंत आनंद कौशिल्यायन और ललई सिंह यादव से लेकर सुरेंद्र अज्ञात तथा एलआर. बाली तक अर्जक आंदोलन से प्रभावित साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा है. अर्जक साप्ताहिक, भीम पत्रिका और शोषित साप्ताहिक जैसी पत्र-पत्रिकाओं ने अर्जक साहित्य को बल प्रदान किया है.

(लेखक भाषा विज्ञानी हैं )

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सतलुज-यमुना लिंक नहर सींच रही राजनीति की फसल

All Photos : Raman Gill
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पटियाला में चंडीगढ़ रोड पर बसे बनूर गांव में एसवाईएल कैनाल को पाटती जेसीबी मशीन.
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पंजाब विधानसभा चुनावों में साल भर से भी कम का समय रह गया है. राज्य भर में फैली सत्ता विरोधी लहर और सरकार के प्रति गुस्से के बीच से निकलने के लिए सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 को पारित करना सरकार के लिए जनता के खोए हुए विश्वास को पाने का बड़ा अवसर है. मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के इस कदम से न सिर्फ विपक्ष चिंता में आ गया है बल्कि पड़ोसी राज्य हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी परेशानी में डाल दिया है जो पहले ही 14 मार्च, 2016 को पंजाब सरकार द्वारा दिए गए डीनोटिफिकेशन के फैसले के खिलाफ खड़े हैं.
सुप्रीम कोर्ट के सतलुज-यमुना लिंक (एसवाईएल) मामले पर यथास्थिति रखने के आदेश के बावजूद पंजाब से हरियाणा को पानी भेजने के लिए बनी इस नहर को पाटने का काम शुरू हो चुका है. सरकार की मौन सहमति के साथ पंजाब के किसान इस नहर के बड़े हिस्से को पाट भी चुके हैं. इस विधेयक के अनुसार दशकों पहले एसवाईएल नहर के नाम पर सरकार द्वारा अधिगृहित की गई किसानों की जमीन उन्हें बिना कोई मूल्य चुकाए वापस की जाएगी. इस विधेयक को लाने का राजनीतिक उद्देश्य राज्य में विपक्ष को कमजोर करना है. खबर यह भी आ रही है कि शायद मुख्यमंत्री समय से पहले ही चुनाव करा सकते हैं.

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वर्तमान सरकार के इस विधेयक को लाने के फैसले का असर पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की छवि पर भी पड़ेगा. 2004 में पंजाब टर्मिनेशन ऑफ अग्रीमेंट्स एेक्ट लाने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब का पानी बचाने वाले के रूप में देखा जाने लगा था. इस कदम से एसवाईएल संबंधी किसी भी मुद्दे में सुप्रीम कोर्ट की कोई भूमिका नहीं रह गई थी. सूत्रों की मानें तो 3 मार्च, 2016 को हुई पंजाब कांग्रेस घोषणापत्र कमेटी की बैठक में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों द्वारा नहर पाटने के विचार को सामने रखा था. हालांकि कैप्टन इस योजना पर आगे बढ़ते इसके पहले ही मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने पंजाब विधानसभा में यह विधेयक लाकर इसका श्रेय अपने नाम कर लिया. इस विधेयक के अनुसार नहर बनाने के लिए अधिगृहित की गई 3,928 एकड़ जमीन उनके असली मालिकों को बिना कोई मुआवजा लिए वापस लौटा दी जाएगी. सदन में यह विधेयक सर्वसम्मति से पारित हुआ है.

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अब तक का घटनाक्रम

Indira at SYLweb

01.11.1966: पंजाब रिआॅर्गेनाइजेशन एेक्ट, 1966 के अंतर्गत पंजाब को दो हिस्सों में बांटकर हरियाणा नाम का दूसरा राज्य बना.
24.03.1976: सरकार ने सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर के निर्माण की योजना बनाई और पंजाब-हरियाणा को रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी के आवंटन की अधिसूचना जारी की.
31.12.1981: हरियाणा क्षेत्र में आने वाले एसवाईएल के हिस्से का निर्माण पूरा हुआ.
08.04.1982: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटियाला के कपूरी गांव में एसवाईएल नहर की नींव रखी.
05.11.1985: पंजाब विधानसभा में दिसंबर, 1981 में हुई वाटर ट्रीटी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया.
30.01.1987: नेशनल वाटर ट्रिब्यूनल ने पंजाब सरकार को उसके क्षेत्र में एसवाईएल का निर्माण जल्द से जल्द पूरा करने का आदेश दिया. उस समय लगभग 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका था.
12.07.2004: पंजाब में कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए ‘पंजाब टर्मिनेशन ऑफ अग्रीमेंट्स एेक्ट, 2004’ लागू किया.
14.03.2016: पंजाब विधानसभा में सर्वसम्मति से सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 पास किया गया, जिसके अनुसार सरकार एसवाईएल नहर के निर्माण के लिए अधिगृहित की गई किसानों की 3,928 एकड़ जमीन बिना उनसे मुआवजा लिए उन्हें वापस करेगी. [/symple_box]

विधेयक के अनुसार सरकार इससे संबंधी नियम व शर्तें बाद में जारी करेगी साथ ही जमीन संबंधी अधिकार राजस्व विभाग द्वारा स्वत: पूरी कर दी जाएंगी. विधेयक में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा जमीन मालिकों के सभी दावों का निस्तारण करने के लिए उचित माध्यमों को भी अधिसूचित किया जाएगा. इसके अनुसार विधेयक के बारे में पंजाब सरकार या किसी व्यक्ति के बारे में कोई भी वाद, अभियोजन या कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकेगी और न ही विधेयक के संदर्भ में कोई वाद या कार्रवाई करना किसी भी सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में होगा.

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इस विधेयक के अनुसार यह 3,928 एकड़ जमीन किसानों को लौटने के लिए एसवाईएल को भरने का काम शुरू हो चुका है. रिकॉर्ड के अनुसार एसवाईएल के लिए 5,376 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई थी, जिसमें 3,928 एकड़ जमीन 121 किलोमीटर लंबे एसवाईएल नहर के लिए थी और बाकी नहर से विभिन्न क्षेत्रों में पानी के वितरण के लिए उपशाखाएं यानी डिस्ट्रीब्यूट्रीज बनाने के लिए. ऐसे में रोपड़, साहिबजादा अजित सिंह नगर, फतेहगढ़ साहिब और पटियाला के वे किसान असमंजस की स्थिति में हैं जिनकी जमीन एसवाईएल की डिस्ट्रीब्यूट्रीज बनाने के लिए ली गई थी क्योंकि सतलुज-यमुना लिंक कैनाल (मालिकाना हकों का स्थानांतरण) विधेयक, 2016 के अनुसार सिर्फ उन्हीं जमीनों का जिक्र है जिन पर हरियाणा सरकार ने मुआवजा दिया था, बाकी 1/5 भाग जिसके लिए पंजाब सरकार ने भुगतान किया था, उसका कोई जिक्र इस विधेयक में नहीं है. गौरतलब है कि पंजाब सरकार हरियाणा सरकार द्वारा एसवाईएल नहर बनाने के लिए जारी किए गए 191 करोड़ रुपये का चेक भी लौटा चुकी है.

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पहले ही दिन से एसवाईएल नहर योजना के साथ बदकिस्मती जुड़ गई थी. 31 अक्टूबर, 1984 को इसने तत्कालीन इंदिरा गांधी की जान ली, इसके बाद 20 अगस्त, 1985 को अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल की भी गोली मारकर हत्या कर दी गई. इन दोनों ही से नदी का पानी बांटने को लेकर शिकायत थी. 1982 में इंदिरा गांधी ने ही पटियाला के कपूरी में एसवाईएल नहर की नींव रखी थी. फिर 1988 में माजत गांव में 32 मजदूरों को उग्रवादियों द्वारा गोली मार दी गई थी, जिसके बाद नहर का निर्माण कार्य, जो उस समय 70 से 80 फीसदी तक पूरा हो गया था, बंद हो गया. इसके बाद 1990 में भी उग्रवादियों ने एसवाईएल नहर पर काम कर रहे एक चीफ इंजीनियर और सुप््रिटेंडेंट इंजीनियर की हत्या कर दी थी.[/symple_box]

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इस बीच जब पंजाब में किसान नहर को पाट चुके हैं, हरियाणा के वो किसान जिनकी जमीन एसवाईएल के लिए अधिगृहित की गई थी, उन्होंने राज्य के किसानों से मुकदमा दायर करने की मांग की है. इसका कारण या तो पंजाब के किसानों की तरह जमीन पाने का लोभ भी हो सकता है, जहां जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं या फिर वे इस नहर से हरियाणा में पानी आने की उम्मीद ही छोड़ चुके हैं. हरियाणा में नहर के 90 किलोमीटर हिस्सा आता है, जिसका काम 1976 में ही पूरा हो चुका है. हरियाणा में एसवाईएल का क्षेत्र अंबाला से शुरू होकर करनाल जिले के मुनक तक है. जब इसका काम शुरू हुआ था तब नहर कुरुक्षेत्र से गुजरती थी. एसवाईएल के निर्मित क्षेत्र में अब बरसात का पानी ही जमा होता है.

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कोई समाधान न देखते हुए हरियाणा सरकार ने विधानसभा में पंजाब सरकार के इस विधेयक के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है और सुप्रीम कोर्ट से पंजाब सरकार को इस विधेयक को लागू करने से रोकने का निवेदन किया है. अदालत ने हरियाणा की अर्जी पर पंजाब से 28 मार्च तक जवाब देने को कहा था. हरियाणा ने इस अर्जी में एक कोर्ट रिसीवर की नियुक्ति और इस विधेयक को राजपत्र अधिसूचना में शामिल न करने की भी मांग की है.

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नदी पर किसका अधिकार ?

नदी-तट सिद्धांतों के अनुसार अगर कोई नदी पूरी तरह से एक ही राज्य के अंतर्गत बहती है तब उस पर केवल उस राज्य का अधिकार होगा, किसी और राज्य का नहीं. यदि नदी एक राज्य से अधिक राज्यों से होकर बहती है, तो जिस भी राज्य से वह गुजर रही है, उस राज्य में आने वाले नदी के क्षेत्र पर उस राज्य का अधिकार होगा. इन नदी तट अधिकारों का आधार इस बात को माना गया है कि किसी राज्य विशेष के लोगों को नदी के राज्य में होने से उसके बहाव आदि के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो ऐसे में नदी से होने वाले फायदे का एकमात्र लाभार्थी भी वही राज्य होगा. नदी के पानी के बंटवारे को लेकर पहला विवाद 1947 में विभाजन के बाद पाकिस्तान बनने से हुआ था, जब भारत के पंजाब राज्य और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में कई नदियां बहा करती थीं. 1960 में प्रधानमंत्री नेहरू और अयूब खान इंडस बेसिन रिवर्स वाटर्स ट्रीटी (संधि) लेकर आए, जिसके अनुसार यह निश्चित हुआ कि सतलुज, व्यास और रावी नदियों के पानी पर हिंदुस्तान का हक होगा. पाकिस्तान को वर्ल्ड बैंक और कई मित्र देशों ने सहायता दी. एसवाईएल नहर मुद्दे पर पंजाब का तर्क था कि पंजाब रिआॅर्गेनाइजेशन एेक्ट, 1966 के बाद हरियाणा सतलुज नदी के संबंध में पंजाब के साथ सह-तटवर्ती (समान नदी बांटने वाला) राज्य नहीं रहा, ठीक उसी तरह जैसे पंजाब यमुना के लिए नहीं रहा. तो ऐसे में अगर हरियाणा पंजाब की नदियों का पानी लेना चाहता है तो पंजाब को भी यमुना में उसका हिस्सा मिलना चाहिए.
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पढ़ाई नहीं कमाई का जरिया बनते शिक्षण संस्थान

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बीते दिनों तमिलनाडु के एक निजी कॉलेज में प्रताड़ना से तंग आकर कथित रूप से तीन छात्राओं वी. प्रियंका, टी. मोनिशा और ईसरण्या ने खुदकुशी कर ली थी.

तमिलनाडु में शिक्षा के निजीकरण की शुरुआत 80 के दशक में तब हुई जब एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) राज्य के मुख्यमंत्री थे. यह देखते हुए कि ग्रामीण नशे के अभिशाप से व्यापक तौर पर प्रभावित हो रहे हैं, एमजीआर ने ताड़ी के उत्पादन, खरीद तथा उपभोग पर पाबंदी लगा दी जबकि भारत निर्मित विदेशी शराब (आईएमएफएल) के लिए अनुमति बनाए रखी. नतीजा यह हुआ कि राज्य के शराब व्यापारी एमजीआर के नेतृत्व वाली एआईएडीएमके सरकार के खिलाफ हो गए. संयोग से ये लोग पहले सरकार के समर्थक हुआ करते थे और इन्होंने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी को चंदा भी दिया था. शराब व्यापारियों को खुश करने के लिए एमजीआर ने कर्नाटक की तर्ज पर उनके लिए स्ववित्तपोषित शैक्षणिक संस्थानों का आवंटन किया. इस तरह तमिलनाडु में भी उच्च शिक्षा में निजीकरण का दौर शुरू हुआ.
सामाजिक कार्यकर्ता और मद्रास इंस्टिट्यूट आॅफ डेवलपमेंट स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर सी. लक्ष्मण कहते हैं, ‘पिछले कुछ दशकों से तमिलनाडु में अवैध शराब व्यापारी, दलाल और तस्कर आदि उच्च शिक्षा को संभाल रहे हैं. ये लोग तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों क्षेत्रों को संभाल रहे हैं. इन शैक्षणिक संस्थानों की शासकीय परिषदों में भी इन लोगों की पहुंच है. द्रविड़ पार्टियों के सत्ता में आने के बाद शिक्षा एक व्यापार बन चुकी है और इसकी गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हुई है. इसके अलावा इन लोगों द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों में उन विद्यार्थियों को राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं होने दिया जाता जिनका शोषण और दमन होता है.’

हाल ही में विल्लुपुरम जिले के कल्लाकुरिची स्थित एसवीएस योगा एेंड नेचुरोपैथी कॉलेज की तीन छात्राओं की आत्महत्या ने उच्च शिक्षा के निजीकरण के खतरों की ओर एक बार फिर ध्यान खींचा है. इन छात्राओं के सुसाइड नोट से यह स्पष्ट होता है कि कॉलेज प्रबंधन से मतभेद जाहिर करने पर उन्हें इस कॉलेज में काफी तंग और अपमानित किया गया. गौरतलब है कि वर्ष 2015-16 में डॉ. एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से इस कॉलेज को प्राप्त मान्यता खत्म हो गई थी, इसके बावजूद कॉलेज ने अपनी वेबसाइट पर ‘मान्यता प्राप्त’ के उल्लेख को नहीं हटाया था. छात्राओं ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि उन्हें कक्षाएं साफ करने के लिए कहा जाता था, खराब खाना देने के साथ अपमानित किया जाता था. जब कॉलेज प्रबंधन और मद्रास हाई कोर्ट से न्याय पाने की उनकी कोशिशें लगातार नाकाम होती गईं तो उन्होंने यह अतिवादी कदम उठाया.

सुसाइड नोट में यह भी लिखा है कि योगा एंड नेचुरोपैथी पाठ्यक्रम के दूसरे साल में हर छात्रा से छह लाख रुपये वसूले गए और रसीद देने से मना कर दिया गया. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन तीन छात्राओं के बाद तमिलनाडु में दो और विद्यार्थियों ने आत्महत्या की लेकिन यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर किसी का ध्यान खींचने में नाकाम रही. राष्ट्रीय पार्टियों का कोई नेता इन छात्राओं के घर नहीं गया. यहां तक कि राज्य के नेता भी इस घटना को लेकर चुप्पी साधे रहे. हालांकि ये तथ्य न केवल निजी कॉलेजों के मालिकों, राज्य के शिक्षा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों और नेताओं के बीच मिलीभगत की को उजागर करते हैं बल्कि वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा करते हैं. नाम न बताने की शर्त पर कोयंबटूर की एक डीम्ड यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर बताते हैं, ‘जहां तक तमिलनाडु का सवाल है, नेताओं और निजी संस्थाओं के बीच का गठजोड़ काफी स्पष्ट और मजबूत है. बहुत-से कॉलेज हैं जो बिना मान्यता और बुनियादी ढांचे के ही चल रहे हैं. इन संस्थानों की मान्यता खत्म किए जाने के बाद भी इन्हें बदस्तूर चलाया जा रहा है.’
जब शिक्षा व्यापार बन जाती है तो इसकी गुणवत्ता गिरने लगती है. पैसा कमाने और खर्च कम करने के लिहाज से इन शैक्षणिक संस्थानों के मालिक शिक्षकों की योग्यता और क्षमता से भी समझौता करने लगते हैं. कुछ कॉलेजों में उच्च स्तर का आधारभूत ढांचा और आधुनिक सुविधाएं तो हैं लेकिन योग्य शिक्षक नहीं हैं. कोयंबटूर के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘ऐसे भी इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जहां असिस्टेंट प्रोफेसरों को 5000-7000 रुपये मासिक की तनख्वाह दी जाती है. यह केवल शिक्षक की क्षमता और गुणवत्ता की ही बात नहीं है, बल्कि प्रबंधन के लोग यह कोशिश करते हैं कि कर्मचारियों को कम से कम खर्च पर रखा जाए.’

‘निजी स्कूलों और कॉलेजों पर सामाजिक नियंत्रण बिलकुल नामुमकिन हो गया है, बल्कि हालात ऐसे हैं कि निजी संस्थान सरकार को भी नियंत्रित कर रहे हैं. ऐसी स्थितियां किसी भी हाल में उच्च शिक्षा के लिए ठीक नहीं’

तमिलनाडु के लिए शर्मिंदा हाेने वाली बात यह भी है कि छात्रों को रोजगार दिलाने के मामले में यह राज्य सबसे आखिरी पायदान पर खड़ा है. रोजगारपरकता का मूल्यांकन करने वाली और प्रमाणपत्र देने वाली कंपनी ‘एस्पायरिंग माइंड’ द्वारा जारी की गई राष्ट्रीय रोजगारपरकता रिपाेर्ट (2015-16) से इस तथ्य की जानकारी मिलती है. यह रिपोर्ट भारत के 650 कॉलेजों के इंजीनियरिंग के 1,50,000 से ज्यादा छात्र-छात्राओं के बीच हुए सर्वे के आधार पर तैयार की गई. त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती. एक तमिल चैनल पर बहस के दौरान एक चौंकाने वाली बात सामने आई. कार्यक्रम में आए कुछ विद्यार्थियों ने बताया कि कॉलेज के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले छात्रों को पीटने के लिए कुछ संस्थान गुंडों को काम पर रखते हैं. चेन्नई में श्री साईं राम कॉलेज आॅफ इंजीनियरिंग के पूर्व छात्र गौतम वलावन बताते हैं, ‘हाल ही में प्रबंधन के मत से राजी न होने पर श्री साईं राम कॉलेज आॅफ इंजीनियरिंग में हड़ताल कर रहे कुछ छात्रों को हत्या की धमकी दी गई थी.’ पिछले दिनों यह कॉलेज लड़कियों के लिए ड्रेस कोड लागू करने के लिए भी चर्चा में रहा है.
तमिलनाडु में निजी शिक्षण संस्थान पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़े हैं. इस समय ये कुल इंजीनियरिंग और प्रबंधन कॉलेजों का 90 प्रतिशत हैं. तीन साल पहले चेन्नई के नजदीक मेलमारुवथुर में आयकर विभाग की ओेर से एक संत के घर में मारे गए छापे में प्रतिबंधित कैपिटेशन फीस की वसूली से जमा किए गए कई करोड़ रुपये जब्त किए गए. यह संत कई इंजीनियरिंग कॉलेजों का अध्यक्ष था. साथ ही राज्य के प्रशासनिक हलकों में भी अच्छा-खासा दखल रखता था. इस तरह की पृष्ठभूमि के बाद जैसी उम्मीद थी, केस को बीच में ही खत्म कर दिया गया.
तमिलनाडु में 60 प्रतिशत सामान्य कला और विज्ञान कॉलेज स्ववित्तपोषित हैं. उच्च शिक्षा के शैक्षणिक संस्थानों में तीन चौथाई स्ववित्तपोषित हैं. सीपीएम के राज्य सचिव जी. रामकृष्णन बताते हैं, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपनी वेबसाइट पर 9 राज्यों के 21 फर्जी संस्थानों के नाम दिए हैं जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है और जो यूजीसी अधिनियम 1956 के विरुद्ध संचालित हैं. इनमें तमिलनाडु के संस्थान भी शामिल हैं. शिक्षा के निजीकरण से इसी तरह समाज में असमानता बढ़ेगी और वंचित तबकों को शिक्षा नहीं मिल पाएगी.’

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वे आगे कहते हैं, ‘249 निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों के साथ तमिलनाडु देश का दूसरा सबसे ज्यादा इंजीनियरिंग कॉलेजों वाला राज्य है. सरकार द्वारा सहायता प्राप्त कॉलेज केवल 13 हैं जो कुल इंजीनियरिंग कॉलेजों का महज पांच प्रतिशत है. इसके बावजूद ऐसा नहीं माना जा सकता कि स्ववित्तपोषित इंजीनियरिंग कॉलेजों की अपेक्षा सरकारी कॉलेजों में बेहतर शिक्षा आैर सुविधाएं मिलती हैं.’
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता निजीकरण किस प्रकार सकारात्मक परिवर्तनों को बाधित कर रहा है, इस बारे में सीपीआई के राष्ट्रीय सचिव डी. राजा कहते हैं, ‘निजी स्कूलों और कॉलेजों पर सामाजिक नियंत्रण बिलकुल नामुमकिन हो गया है, बल्कि हालात ऐसे हैं कि निजी संस्थान सरकार को भी नियंत्रित कर रहे हैं. ऐसी स्थितियां किसी भी हाल में उच्च शिक्षा के लिए ठीक नहीं.’ अधिवक्ता और कोयंबटूर में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के कार्यकर्ता मुहम्मद शफीक कहते हैं, ‘शिक्षा लाभ कमाने का जरिया बन गई है. अब विद्यार्थी भी शिक्षा सिर्फ धन कमाने का माध्यम मानकर ही ग्रहण करते हैं. अधिकांश निजी संस्थान अध्ययन शाखाओं के रूप में बहुत कम विकल्प देते हैं. इंजीनियरिंग, औषधि विज्ञान और प्रबंधन अधिक लोकप्रिय शाखाएं हैं. लगभग 80 प्रतिशत सीटें इंजीनियरिंग और 50 प्रतिशत से ज्यादा मेडिकल के लिए रखी जाती हैं. ये पाठ्यक्रम ज्यादा रोजगारपरक होते हैं इसलिए निजी संस्थानों की प्राथमिकता में यही होते हैं.’
बहरहाल, अब केरल में भी स्ववित्तपोषित संस्थान शुरू हो रहे हैं और देखने में आ रहा है कि इस राज्य से तमिलनाडु जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में गिरावट आ रही है. इसके कारण पिछले कुछ सालों से तमिलनाडु के शैक्षणिक संस्थानों में अधिकांश इंजीनियरिंग सीटें खाली पड़ी रहती हैं और इसी कारण बहुत-से संस्थान अपनी मान्यता भी खो रहे हैं. यहां तक कि विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए इन संस्थानों के प्रोफेसर पड़ोसी राज्यों में भी जा रहे हैं. दिलचस्प है कि विद्यार्थियों को फीस में छूट, फ्री बस सर्विस और लैपटॉप जैसी अन्य मुफ्त सुविधाओं से भी आकर्षित करने की कोशिश की जाती है. आने वाले समय में तमिलनाडु में स्ववित्तपोषित संस्थानों की संख्या और बढ़ेगी, ऐसे में यहां शिक्षा की स्थिति और भी खराब होगी. राज्य में हाल ही में हुई विद्यार्थियों की आत्महत्याएं शिक्षा की बिगड़ती स्थिति की ओर साफ इशारा करती हैं. आखिर, सरकार को शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिए और कितनी मौतों का इंतजार है!

‘आपको लगता है कि हर वो आदमी दुश्मन है जो भारत माता की जय नहीं कहता, ऐसे तो ये देश पाकिस्तान बन जाएगा’

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देश में आजकल एक खास किस्म का सिलसिला चल रहा है. मैं उसका शिकार बना. वो पहले से जाल बिछाए बैठे थे, मैं फंस गया. सबसे परेशान करने वाली बात कि पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, वहां पर बहुत दमन रहा है. हमारे यहां आपातकाल को छोड़ दें तो शायरों या लेखकों का दमन बहुत कम हुआ है. लोग जेल भी गए हैं. फैज़ अहमद फैज़ से लेकर हबीब जालिब तक पाकिस्तान में तर्कवादियों की हत्याएं हुई हैं, बांग्लादेश में भी तर्कवादियों को मारा गया है, लेकिन इन सारी चीजों में संलिप्तता स्टेट यानी सरकार की रही है. सरकारी तंत्र और उसकी मशीनरी शामिल रही है. जिया उल हक की सरकार ने हबीब जालिब को पकड़कर बंद किया. हमारे यहां रूढ़िवादियों ने कई लोगों को मारने की कोशिश की है, कलबुर्गी को और पानसरे को मारने में सफल भी रहे. ये सिलसिला पिछले कुछ समय में दिखाई देता रहा है.

ऐसा पहली बार हुआ है कि मीडिया चैनल ही ऐसे हमले करने का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान में मीडिया हमेशा फैज, हबीब जालिब या डीगर, लेखक और वैज्ञानिकों के साथ रहा है. बांग्लादेश में भी मीडिया साथ रहा है. उनको ढाढस दिया, भरोसा दिलाया कि अवाम आपके साथ है. यहां उल्टा हुआ है. यहां मेरे ऊपर लांछन स्टेट नहीं लगा रहा कि आपने हमारे खिलाफ नज्म कही और हम आपको सजा देंगे. यहां पर तो मीडिया प्रोएेक्टिव (अति सक्रिय) हो गया. मैं बताता हूं कि क्यों ये लोकतंत्र के लिए ज्यादा खतरनाक है. राज्य अगर दमन करे तो आप लड़ सकते हैं. आपके खिलाफ मीडिया अगर खड़ा हो जाए, चैनल्स बिक जाएं, जिस तरह यह बिका हुआ चैनल है तो परेशानी यह है कि आपका दुश्मन पहचाना नहीं जा सकता. मेरा दुश्मन कौन है, मैं नहीं जानता. मैं पान की दुकान पर हूं, मैं बाजार में हूं, मैं कहां हूं और कहां से कौन हमला कर देगा, यह मैं नहीं जानता. कोई भी आकर मुझ पर हमला कर सकता है. मेरी सुरक्षा पूरी तरह से खत्म है उस वक्त जब से मीडिया मेरे खिलाफ हो गया क्योंकि दूसरा कोई साथ खड़े होने को तैयार नहीं है. लोग डर जाते हैं.

दूसरी परेशानी इस बात की है कि किसी भी समाज के अंदर उसका जिस्म यानी समाज का बदन, समाज के दिमाग के खिलाफ खड़ा हो जाए. जो सोचने-समझने, दिशा निर्धारित करने वाले लोग हैं, पढ़ाने वाले, फिल्में बनाने वाले, उन लोगों के खिलाफ आपका समाज खड़ा हो जाए तो ये ऐसा ही है कि कोई इंसान अपने ही बालों को नोचने लगे. तीसरी बात ये है कि जब आप किसी समाज में रहते हैं और उस समाज के अंदर कुछ तत्वों को ऐसी जगह मिली है जो उन्हें नहीं मिलनी चाहिए. मीडिया में तमाम लोग ऐसे बैठे हैं जिनको वहां नहीं होना चाहिए लेकिन वे हैं और पुरस्कृत हो रहे हैं. समझौता करने में सबसे आगे होता है अपराधी. अगर मीडिया का अपराधीकरण हो जाए तो एक आम आदमी के लिए कोई रास्ता नहीं बचता. किसी आदमी पर आपराधिक हमला होगा तो उम्मीद की जाती है कि सबसे पहले मीडिया खड़ा होगा, पुलिस और राज्य बाद में. राज्य की भूमिका अच्छी है तो भी मीडिया पहले खड़ा हो जाता है. अगर वो ही अपराधी की भूमिका में है, वो ही जजमेंट देना शुरू कर देता है, उसका ही आपराधीकरण हो जाता है तो यह खतरनाक स्थिति है.

अभी जो ट्रेंड दिखाई दे रहा है, उसमें ये तो साफ है कि मीडिया अपने दायित्व से हटकर एक अपराधिक भूमिका में है. आप सारे नियम-कानून और नैतिकता छोड़कर अपने ही बुद्धिजीवियों के खिलाफ खड़े हो गए. ऐसे में स्टेट अगर फासीवादी है तो आप क्या ही उम्मीद करेंगे, लेकिन अगर लोकतांत्रिक स्टेट है तो जाहिर है कि उसको खड़ा होना चाहिए. उसको जरूर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए. गलत हमलों से लेकर मीडिया ट्रायल तक, उसके खिलाफ खड़ा होना राज्य का दायित्व है. एक फुटेज को देखकर सरकार लोगों को गिरफ्तार करने दौड़ पड़ी, (जेएनयू मामले में) इसकी जगह यह देखना चाहिए कि क्या हमें उन लोगों को गिरफ्तार करने की जरूरत है या उनको जो यह आरोप लगा रहे हैं. मैं समझता हूं कि सरकार का दायित्व था कि सबसे पहले पुलिस जांच करती कि क्या ये टेप सही हैं या डॉक्टर्ड और अगर हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है.

ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में मीडिया चैनल हमले का बीड़ा उठा लें. पाकिस्तान और बांग्लादेश में मीडिया हमेशा लेखक और वैज्ञानिक के साथ रहा है

एक चीज और बहुत खतरनाक है जो मैं कहना चाहता हूं. हमारे उपमहाद्वीप में एक लंबी परंपरा है मुशायरों की. यह अद्भुत परंपरा है जो सदियों पहले अरब से आई. यह वहां तो तकरीबन खत्म हो गई लेकिन हमने इसे जिंदा रखा. यहां अहम बात है कि यह अकेला ऐसा स्पेस है जहां नागरिक और बुद्धिजीवी, वो एक क्षेत्र के ही सही, कविता के ही सही, एक-दूसरे के सामने होते हैं. ये इसलिए अद्भुत परंपरा है. हर रोज हमारे देश में, पाकिस्तान-बांग्लादेश में हजारों ऐसे मुशायरे और कवि-गोष्ठियां होती हैं. आप जब हमला कर रहे हैं तो दो तरह से हमला कर रहे हैं. एक तो इस परंपरा पर हमला कर रहे हैं. दूसरा, आप हमला कर रहे हैं आयोजकों और शायरों-लेखकों पर. इसका अंजाम होगा कि लोग आयोजन करने से बचेंगे. पहली प्रतिक्रिया यह होगी कि वे करेंगे नहीं, करेंगे भी तो सुनिश्चित करेंगे कि ऐसे शायरों को बुलाएं जो उन्हें परेशानी में न डालें. आपने चैनल की वो टैगलाइन देखी होगी. उसमें मुशायरे पर सीधा हमला है. चैनल ने ‘अफजल प्रेमी गैंग का मुशायरा’ लिखा. यह मुशायरे की परंपरा पर हमला है. अगर मान लिया मुशायरा हो भी जाता है तो शायर घबराएंगे कि कल को कहीं मेरे ऊपर उंगली न उठ जाए. 

बहुत दिन से एक तरह की प्रोफाइलिंग चल रही है और यह कोई नया नहीं है कि मुसलमान है तो आतंकी है या देशद्रोही है. इससे तो आपको राजनीतिक रूप से लड़ना होगा. यह राजनीतिक दलों का काम है. यह इतनी आसानी से खत्म होने वाला नहीं है. मेरे ख्याल से यह लंबी लड़ाई है. जो तात्कालिक लड़ाई है वो ये है कि क्या हम ऐसे स्पेस को बचा पाएंगे. क्या हम मुशायरों-सम्मेलनों को उतना ही मुक्त रख सकेंगे जितना उन्हें होना चाहिए? कितनी भी प्रोफाइलिंग की जाए पर हमारे यहां परंपरा है कि आखिर में बैठा हुआ एक बच्चा उंगली उठा ही देता है, आप कितना भी अच्छा लेक्चर दें वो सवाल पूछेगा. तो यह प्रोफाइलिंग हमारे ख्याल से एक हद तक ही सफल हो सकती है. लेकिन ये स्पेस बचाए रखना कि हमारा कवि मुक्त होकर खुद को व्यक्त कर सके, डरे नहीं. हमारा शिक्षक जब क्लास में जाए तो मुक्त  महसूस करे. हमारा लेखक जब किताब लिख रहा है तो उससे यह न लिखवाया जाए कि तुम कुछ भी सरकार के खिलाफ नहीं लिख सकते. सिर्फ सरकार के ही खिलाफ नहीं, किसी के खिलाफ हो, आप यह न कहें कि हम आपका हाथ पकड़कर कलम चलवाएंगे. इसी को मैं कह रहा हूं कि जिस्म अगर दिमाग के खिलाफ हो जाए तो यह खतरनाक होगा. अभी सरकार की ओर से एक फाॅर्म जारी हुआ है कि उर्दू लेखक हलफनामा दें कि वे सरकार के खिलाफ नहीं लिख रहे. मेरे ख्याल से आगे यह सबके साथ होगा. हिंदी के साथ, अंग्रेजी के साथ भी.

एक चीज और समझने की जरूरत है, अगर हम पाकिस्तान को देखें तो वहां जो सबसे कट्टरपंथी ताकतें थीं, उनको शुरुआत में जो दुश्मन की तलाश थी, उसमें हिंदू फिट हुए. फिर उन्होंने कहा कि इनसे काम नहीं चल रहा, तब उन्होंने मुहाजिर (शरणार्थी) की तलाश शुरू की. उनसे भी काम नहीं चला तो कादियानों को दुश्मन बनाया. उनसे भी काम नहीं चला तो शियाओं को चुना. अब उनसे भी काम नहीं चल रहा तो उसमें बरेलवी जोड़ लिए गए.

हमारे यहां अगर आप देखें तो सन 1947 के बाद मुसलमान उनके दुश्मन हैं. उसके बाद जोड़े जाते हैं ईसाई. एक छोटे से काल में सिख, उसके बाद सेक्युलर और अब एंटीनेशनल. ये घेरा बढ़ता जा रहा है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. प्रोफाइलिंग तो ईसाइयों की भी करने की कोशिश की गई. धर्म परिवर्तन का जो पूरा मामला था, वह यही था. युवाओं की प्रोफाइलिंग किस तरह से की जा रही है. मेरा मानना है कि जब किसी मुल्क में फासीवादी ताकतें होती हैं तो किसी एक दुश्मन पर रुकती नहीं हैं. दुश्मनों की बास्केट भरती नहीं है, बढ़ती रहती है. आज हिंदुस्तान में एक बड़ी बास्केट है दुश्मनों की, जिनमें अब हर वो आदमी जो आपको लगता है कि वो भारत माता की जय नहीं कहेगा, वह दुश्मन है. इसमें सिर्फ मुसलमान नहीं हैं. बहुत सारे लोग जय हिंद कहेंगे. आंकड़ा है कि 94 फीसदी युवा भगत सिंह को अपना हीरो मानता है, वह इंकलाब जिंदाबाद कहना चाहेगा. अगर कोई भारत माता की जय नहीं कहेगा, तो वह देशद्रोही ठहरा दिया जाएगा. यह बास्केट बढ़ाने का सिलसिला तेजी से चल रहा है. इसका अंजाम होगा कि हम पाकिस्तान हो जाएंगे. जर्मनी को दोहराना मुश्किल है. लेकिन अगर जर्मनी न भी हुआ तो हम पाकिस्तान जरूर बन जाएंगे. खतरा ये है कि पाकिस्तान छोटा मुल्क है. उसे संभालना आसान है. हिंदुस्तान बहुत बड़ा मुल्क है. इस धरती पर रहने वाला हर सातवां आदमी हिंदुस्तानी है. यहां कुछ ऐसा होता है तो फिर ये मानवता के लिए सबसे बड़ा संकट होगा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इतनी बड़ी ट्रेजडी दूसरी नहीं होगी.

मेरे ख्याल से जो लोग जोर-शोर से कह रहे हैं कि ऐसा करने वाले फ्रिंज एलीमेंट (हाशिये के लोग) हैं, वे खुद फ्रिंज एलीमेंट हैं. ये तो सेंटर स्टेज (अहम लोग) हैं, जो चीख-चीखकर कह रहे हैं कि ये फ्रिंज एलीमेंट हैं, वे सिर्फ चैनल पर हैं. जिन्हें फ्रिंज एलीमेंट कहा जा रहा है वे तो गलियों-चौराहों में घुस-घुसकर मार रहे हैं. वे फ्रिंज एलीमेंट कैसे हुए? वे सेंटर स्टेज हैं. देश में फासीवाद अभी स्पष्ट रूप से हो न हो, लेकिन फासीवादी ताकतें जरूर हैं. उनकी चेतना भी फासीवादी है. वो किसी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहतीं. वो लगातार एक नया दुश्मन तलाश करती हैं. उनका सत्ता और अपराधियों के साथ जो रिश्ता है, वह साफ दिख रहा है. इसलिए मैं कह रहा हूं कि वे फ्रिंज एलीमेंट से सेंटर स्टेज की ओर चले गए हैं. मुझे फासीवाद का खतरा बिल्कुल साफ दिखाई देता है. यही बात मैंने उस कविता में कही है, ‘यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा सहमा रहता है, खतरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी.’

पश्चिमी यूपी में देखिए, जहां तक तनाव का सवाल है तो 1947 के बाद कुछ जगहों पर तनाव रहे हैं, कुछ जगहों पर नहीं. कुछ जगहों पर ज्यादा रहे कुछ जगह कम. मेरठ, मुजफ्फरनगर और मलियाना में ऐसा हुआ. लेकिन 1970 के बाद मैंने यूपी में बड़े स्तर पर कोई उन्माद नहीं देखा. उसके बाद अभी मुजफ्फरनगर में जो हुआ, वहां पर बड़े स्तर पर धार्मिक उन्माद दिखाई देता है. जाहिर है कि 1970 के बाद भाईचारे, शांति और विकास चाहने वाली जो ताकतें थीं वे एक साथ हो गईं. तब सोच यह थी कि अगर अमन नहीं होगा तब तक निवेश नहीं होगा, हम सिर्फ नुकसान उठाएंगे. यह सबको समझ में आ रहा था. अब जो नया ट्रेंड शुरू हुआ है, उसमें बड़े धीरज के साथ बंटवारा कराने का काम किया गया है. दिमागों का बंटवारा करने की कोशिश की गई. ऐसे में अगर स्टेट मशीनरी साथ हो जाए तो बहुत थोड़े से ही लोग उन्माद फैला सकते हैं. ऐसा बिहार में भी नहीं हुआ. मतलब आपको ज्यादा बड़ी भीड़ नहीं चाहिए. ये ट्रेंड मुझे यूपी में दिखाई दे रहा है कि स्टेट मशीनरी ने पूरी तरह से हाथ खींच लिए हैं. जो लोग ऐसी चीजों को अंजाम दे रहे हैं, उनको बजाय सजा देने और रोकने के एक तरह से वे खुद उनका फायदा उठाना चाहते हैं. मैं समझता हूं तात्कालिक तौर पर शायद किसी को इस बंटवारे का फायदा हो जाए, लेकिन लंबे समय में हम सब सिर्फ गंवाते हैं. चाहे वह निचला तबका हो या ऊपर का, अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक, इसमें सबका नुकसान है.

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

‘विभाजन के जख्म को बार-बार कुरेदकर पेश की जाती हैं नई पेचीदगियां’

यूरोपियन यूनियन (ईयू) के जो सदस्य देश हैं उनके बीच द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान खूनी संघर्ष हुआ था. इन देशों के बीच की कटुता भी तब भारत-पाकिस्तान के बीच की कटुता से कम नहीं थी पर आपसी कटुता मिटाकर उन्होंने नई शुरुआत की. आज आप उनका लेवल ऑफ इकोनॉमिक काेआॅपरेशन देखिए. सबके यहां यूरो चल रहा है. इंग्लैंड को छोड़कर पूरे यूरोप में कॉमन वीजा है. कॉमन बॉर्डर हैं. इसी तरह जो पूर्व-पश्चिम जर्मनी का विवाद था, वो एक ही देश हो गया है. देखा ये जाता है कि लोग पिछला भुलाकर आगे बढ़ते हैं पर हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसा नहीं है. हमारे यहां विभाजन के जख्म को बार-बार कुरेदकर और भी नई पेचीदगियां पेश की जाती हैं. ‘शत्रु संपत्ति अधिनियम’ का हालिया विवाद भी यही है.  यह उन समस्याओं में से है जो बड़ी ही गंभीर और जटिल होती हैं. इनमें दो चीजें होती हैं. पहला राष्ट्रीय हित और दूसरा व्यक्तिगत आजादी व भारतीय नागरिकों के संवैधानिक अधिकार, दोनों में एक टकराव होता है. टकराव कुछ यूं होता है कि हमें राष्ट्रीय हित के लिए चाहते और न चाहते हुए भी अपनी व्यक्तिगत आजादी और संविधान प्रदत्त अधिकारों की कुर्बानी देनी पड़ती है.

जिस व्यक्ति का पाकिस्तान से दूर-दूर तक कोई नाता न हो. बस उसके परिवार का कोई सदस्य वहां जाकर बस गया हो, उसकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति कहा जाए तो प्रश्न तो उठता ही है. लेकिन इसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. पाकिस्तान में अपनी जमीन-जायदादें छोड़कर भारत आ बसे लोगों को वहां कुछ नहीं मिला. उनकी भी लाखों-करोड़ों की संपत्ति वहीं छूट गई. उन्हें कुछ नहीं मिल पाया. इसलिए राष्ट्रीय दृष्टिकोण से तर्क तो बनता है कि जो लोग अपनी संपत्ति यहां छोड़कर पाकिस्तान गए, उनको या उनके वारिसों को भी क्यों उससे कोई लाभ मिले. अब बात ये है कि जो वारिस हैं वो कहते हैं कि हम तो जन्म से भारतीय नागरिक हैं, देश कभी नहीं छोड़ा. पाकिस्तान की जमीन पर कदम तक नहीं रखा. इससे बात खड़ी होती है कि एक सभ्य समाज में एक व्यक्ति के जो व्यापक संवैधानिक अधिकार होते हैं, वो उसे मिलें.

शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती.

सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि अगर परिवार के दस लोगों में से कोई एक देश के बाहर चला गया तो उस एक की सजा सबको क्यों दी जाए. लेकिन विश्व भर में अंतरराष्ट्रीय कानून इस आधार पर होते हैं कि आप हमारे नागरिक, व्यापारी या कैदी के साथ जो सुलूक करेंगे हम भी आपके लोगों के साथ वही करेंगे. पहली बारगी तो देखने में यह जुल्म लगता है पर अगर गौर करें तो जो भारत आए उनकी संपत्ति तो पाकिस्तान ने ले ली. इसलिए यहां से जाकर वहां बसे लोगों की संपत्ति पर भारत का हक क्यों नहीं बनता है? यहां बात फंस जाती है. ये ऐसे गूढ़ प्रश्न हैं जिनका जवाब तलाशना आसान नहीं है. हम पश्चिम को लेकर हर मामले में नकल करते हैं पर उन लोगों का मानवीय दृष्टिकोण, समस्याओं को निपटाने का तरीका और लिबरल एटीट्यूड है, उस तरफ हम सोचना भी नहीं चाहते. जैसा ईयू का उदाहरण दिया कि वो पुराने मुद्दों को ही पकड़कर लकीर के फकीर नहीं बने रहे. इससे उसके सभी सदस्य देशों को ही फायदा मिला. उसका हम अनुसरण नहीं करना चाहते हैं. हम चीजों को जटिल बनाते हैं. जहां तक अध्यादेश के रास्ते विधेयक लाने की बात है तो पिछली बार कांग्रेस की सरकार भी ऐसा ही एक अध्यादेश लेकर आई थी. उस समय कैबिनेट में मतभेद पैदा हो गए थे. इसलिए तब आम राय नहीं बन पाई थी. अब वर्तमान सरकार इस पर जोर दे रही है. इसलिए विपक्ष के लिए विरोध करना बहुत मुश्किल होगा. संसद से तो कानून बनने की पूरी संभावना है. बस विरोध न्यायपालिका की तरफ से होगा क्योंकि न्यायपालिका पर कोई दबाव नहीं होता. वो तो बस कानूनी दृष्टिकोण से देखती है. राजा महमूदाबाद का भी केस देखें तो उन्हें भी न्यायपालिका से ही लाभ मिला. 

वहीं विधेयक में यह प्रावधान भले ही हो कि शत्रु संपत्ति के संबंध में अदालत नहीं जा सकते पर मान लीजिए लाॅन्ड्री में कपड़े दिए हैं तो वो पर्ची पर भले ही लिखकर दे कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है पर हमने तो कपड़े दिए हैं जिम्मेदारी तो बनती है न उसकी, लिखने का कोई मतलब नहीं होता है. इसलिए अदालत न जाने को सरकार बाध्य नहीं कर सकती. आपातकाल के दौरान भी बहुत सारे ऐसे कानून पास किए गए थे जिनमें कहा गया था कि इनमें जूडिशियल रिव्यू नहीं होगा पर वे चले नहीं, अदालतों ने उसकी व्याख्या की. आम तौर पर जो सरकारी कानून होते हैं उनकी न्यायालयों में विवेचना होती है. इस पूरे विधेयक या इसके इस बिंदु पर भी कोई भी अदालत जा सकता है. जो प्रावधान हैं इस कानून में वो डिफेंस ऑफ इंडिया एेक्ट 1962 के तहत हैं. उनमें शत्रु की परिभाषा दी गई है. इन तमाम चीजों का अदालत संज्ञान तो लेती ही है. अब अगर कोई कह दे कि इसमें आप अदालत में नहीं जा सकते तो वो पर्याप्त नहीं होता.

विवाद यह है कि इससे एक बड़ी आबादी प्रभावित हो रही है. सरकार अब इसे कैसे लागू कर पाएगी, उसके सामने यह एक चुनौती होगी क्योंकि काम करने का न्यायालय का एक अपना ढंग होता है. कई बार सरकार के चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता. प्रभावित लोगों को न्यायालय से उम्मीदें हैं कि सरकार भले ही नागरिकों के संवैधानिक हितों को गौण मानकर चले पर न्यायालय न्यायसंगत फैसला करेगा. कानून बनाना आसान काम होता है. अध्यादेश लाना और भी आसान होता है. लेकिन अदालत में इसे साबित करना बड़ा मुश्किल भरा होता है. जहां तक प्रभावित लोगों की बात है तो अदालत अगर यह भी मान लेती है कि वो लोग जिस संपत्ति पर काबिज हैं वो शत्रु संपत्ति है तब भी सरकार को लचीला रुख अपनाना होगा. वह वर्षों से उस संपत्ति पर कानूनन बसे लाखों लोगों को एकदम से बेदखल नहीं कर सकती क्योंकि जो लोग आज इन संपत्ति यों पर काबिज हैं उनका इस सबसे कोई लेना-देना नहीं था. ये सारी चीजें सरकार को देखनी पड़ेंगी. निपटारे सरकार औने-पौने दाम पर कब्जेधारियों को ही वो संपत्ति बेचकर या उनसे कोई सुपुर्दगी लेकर कर सकती है. पर यह सब आसान नहीं होगा. मामला लंबा खिंच सकता है. अदालत में कोई चीज आती है तो अदालतें उसकी हर स्तर पर जांच करती हैं. मामले की जड़ तक जाती हैं और जब जड़ में गईं तो कई चीजें सामने आएंगी. सरकार को लगता है कि इन संपत्तियों से उसे एक लाख करोड़ मिल जाएंगे तो वो इतना आसान नहीं है. नौकरशाह और राजनेताओं के काम करने का तरीका कई बार जनहित में नहीं होता पर अदालत के पास संविधान है, उसकी व्याख्या करना उसका काम है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

(दीपक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)

शत्रु संपत्ति : मुल्क अपना, जमीन पराई!

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शत्रु संपत्ति : लखनऊ का बटलर पैलेस
फोटो साभारः मैपियो डॉट नेट

‘हमने जिन्ना को छोड़ा, मुस्लिम लीग को छोड़ा, महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष आवाज पर भारत को अपनाया कि ये हमारी साझी विरासत है. क्या पाकिस्तान पर भारत को तरजीह देना हमारा गुनाह था, जो आज विभाजन के 65 साल बाद हमें उसकी सजा दी जा रही है?’ सरकार द्वारा जनवरी में शत्रु संपत्ति संशोधन अध्यादेश लाने पर ‘तहलका’ से बातचीत में राज्यसभा के पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब ने ये बात कही थी.

शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. इस कानून के तहत वे लोग जिन्होंने भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता ले ली थी, उन्हें ‘शत्रु नागरिक’ और उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ की श्रेणी में रखा गया. सरकार को यह अधिकार मिला कि वह ऐसी संपत्तियों के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे.

महमूदाबाद के तत्कालीन राजा मोहम्मद आमिर अहमद खान भी 1957 में पाकिस्तान पलायन कर गए थे. लेकिन उनके परिवार के अन्य सदस्य भारत में ही बने रहे. शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत इस प्रकार उनकी संपत्ति भी भारत सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी. पिता की इसी संपत्ति पर उत्तराधिकार पाने के लिए उनके बेटे मोहम्मद आमिर मोहम्मद खान ने 32 वर्ष कानूनी लड़ाई लड़ी. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैसला सुनाते हुए उनके पिता की हजारों करोड़ की संपत्ति उन्हें वापस लौटाने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.

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क्या है शत्रु संपत्ति अधिनियम?

शत्रु संपत्ति अधिनियम भारत सरकार द्वारा 1968 में लाया गया था. यह कानून सरकार को शक्ति प्रदान करता है कि वह भारत विभाजन के समय या 1962, 1965 और 1971 युद्ध के बाद चीन या पाकिस्तान पलायन करके वहां की नागरिकता लेने वाले लोगों की संपत्ति जब्त कर ले और ऐसी संपत्ति के लिए अभिरक्षक या संरक्षक (कस्टोडियन) नियुक्त करे. ऐसी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ कहलाती है और ऐसे नागरिक ‘शत्रु नागरिक’.

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इसके बाद मुंबई स्थित भारत के शत्रु संपत्ति संरक्षक (सीईपी) के कब्जे में संरक्षित कई अन्य और संपत्तियों पर उनके वारिसों ने दावे किए. पाकिस्तान जाकर बस गए लोगों के परिजन जिन्होंने भारत में ही रहना चुना, सरकार के अधीन अपने पूर्वजों की संपत्ति सरकार से वापस पाने के लिए अदालतों का रुख करने लगे.

अब उस फैसले के दस साल बाद केंद्र सरकार 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन करना चाहती है, जो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को निष्क्रिय कर देगा, जिसके बाद ऐसी संपत्तियों पर किसी भी प्रकार के दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी और सीईपी के पास जब्त सारी शत्रु संपत्ति सरकार के अधीन हो जाएगी. विधेयक में प्रावधान है कि जिस संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है उस पर मालिकाना हक संरक्षक का मान लिया जाएगा. पाकिस्तान में बसे लोग या उनके उत्तराधिकारी इन संपत्तियों का हस्तांतरण नहीं कर सकेंगे. सीईपी सभी जिलों में सहायक संरक्षक (जिलाधिकारी) के सहयोग से इन संपत्तियों का संरक्षण करता है.

‘यह कानून लाकर केंद्र सरकार मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना चाहती है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है’

मोहम्मद अदीब कहते हैं, ‘एक परिवार है. उसके एक आदमी ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया लेकिन बाकियों ने नेहरू और गांधी की आवाज पर कहा कि हम नहीं जाएंगे. अब आप दशकों बाद उनसे उनकी संपत्ति छीन रहे हैं. क्या यह भारत न छोड़ने की सजा है? आप तो यह संदेश दे रहे हैं कि मुस्लिमों को भारत छोड़ देना चाहिए था. उस समय कोई और समुदाय होता तो उस देश का चुनाव करता जो उनके धर्म और संस्कृति के नाम पर बना था. हमने अपने मजहब के मुल्क को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष मुल्क का चुनाव किया. क्या यही उसका इनाम है?’

अखिल भारतीय मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत (एआईएमएमएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नावेद हमीद इस विधेयक को सांप्रदायिक करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने शत्रु संपत्ति को लेकर स्थिति पहले ही स्पष्ट कर दी है. उसके बाद भी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अपमान कर अध्यादेश के रास्ते ऐसा विधेयक क्यों लाई? क्योंकि उसका मकसद मुसलमानों की रीढ़ तोड़ना है. संपत्ति मुसलमानों की रीढ़ है. वह अपने बांटने के एजेंडे के तहत काम करते हुए मुसलमानों के खिलाफ माहौल तैयार कर रही है. राम मंदिर की बात करो या जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को खत्म करने की, उसकी नीति सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली ही रही है. यह विधेयक भी सांप्रदायिक है. सरकार की विचारधारा इसमें साफ दिख रही है. आप समाज के एक तबके को देश के दुश्मन के रूप में घोषित करने का प्रयास कर रहे हैं.’

हालांकि शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की भाजता नीत राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है.  जिस तरह वर्तमान सरकार पहले अध्यादेश लाई, फिर विधेयक के रूप में उसे लोकसभा से पास करा लिया. उसी तरह वह भी लगभग समान प्रावधान वाला एक अध्यादेश 2010 में लेकर आई थी. डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार अध्यादेश को कानून में पारित कराने का मन भी बना चुकी थी. लेकिन पार्टी ही इसे लेकर दो फाड़ हो गई. सभी मुस्लिम सांसद इसके विरोध में लामबंद हो गए. उनका तर्क था कि इससे सिर्फ मुसलमान प्रभावित होंगे, क्योंकि शत्रु संपत्ति पर उनका ही हक है. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने भी इसे मुस्लिम विरोधी करार दिया. चौतरफा दबाव के आगे सरकार झुक गई और अपने कदम वापस खींच लिए. इसके बाद मुस्लिम सांसदों के दबाव में अध्यादेश में कुछ और संशोधन करके इसे संसद की स्थायी समिति के सामने विधेयक के रूप में पेश किया गया. जो संशोधन किए गए, वे शत्रु संपत्ति के वारिसों के लिए उनकी संपत्ति पाने के द्वार खोलने वाले थे. हालांकि स्थायी समिति ने इसे भी खारिज कर दिया.

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क्या है भोपाल के नवाब की संपत्ति का विवाद?

हमीदुल्ला खान भोपाल के आखिरी नवाब थे. उनकी दो बेटियां थीं, आबिदा सुल्तान और साजिदा सुल्तान. नवाब का कोई बेटा नहीं था. रियासतों की उत्तराधिकारी चुनने की नीति के अनुसार बड़ी संतान को पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार मिलता था. इस लिहाज से आबिदा सुल्तान नवाब की उत्तराधिकारी थीं. आबिदा 1950 में पाकिस्तान जाकर बस गईं. लेकिन नवाब और उनका बाकी परिवार भारत में ही रहा. 1960 में नवाब का निधन हो गया. चूंकि बड़ी बेटी आबिदा पाकिस्तान जा चुकी थीं, इसलिए छोटी बेटी साजिदा नवाब की वारिस बन गईं. वर्ष 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने साजिदा को भोपाल का राज्याधिकारी नियुक्त कर दिया, जिससे नवाब की जायदाद की वारिस साजिदा बन गईं. साजिदा सुल्तान मंसूर अली खान पटौदी की मां, शर्मिला टैगोर की सास और सैफ अली खान, सोहा अली खान और सबा अली खान की दादी थीं. 1968 में सरकार द्वारा शत्रु संपत्ति अधिनियम लाया गया, जो भूतलक्षी प्रभावों के साथ लागू हुआ. कानून के 47 साल बाद पिछले वर्ष सीईपी ने नवाब की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया था. जिसके बाद भोपाल के नवाब की संपत्ति को लेकर बवाल खड़ा हुआ था. वर्तमान में इस मामले पर मध्य प्रदेश के जबलपुर हाई कोर्ट में सुनवाई चल रही है. भोपाल के नवाब द्वारा और साजिदा सुल्तान के द्वारा उनकी संपत्ति कई लोगों को बेची गई थी. उन लोगों द्वारा वह दूसरे लोगों को बेची गई, जिसके कारण आज नवाब की संपत्ति का मालिकाना हक कई बार बदल चुका है. वर्तमान में जिनका उन पर मालिकाना हक है वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं. अगर हालिया विधेयक के बाद उनकी संपत्ति को शत्रु संपत्ति मानकर सीईपी अपने अधिकार में लेती है तो भोपाल में लाखों की संख्या में ऐसी आबादी के प्रभावित होने की संभावना है जो नवाब से खरीदी संपत्ति पर दशकों से रह रही है. इसमें कई आवासीय परिसर, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, होटल और नगर निगम की जमीन भी शामिल है.

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मोहम्मद अदीब भी तब विरोध करने वाले सांसदों में शामिल थे. वे बताते हैं, ‘यह पूरा विवाद राजा महमूदाबाद की संपत्ति के इर्द-गिर्द घूमता है. लखनऊ में कपूर होटल, बटलर पैलेस, आधा हजरतगंज उनका ही है. सीतापुर, लखनऊ, लखीमपुर खीरी में सरकारी अधिकारियों की जितनी कोठियां हैं, वे सब इनकी ही रियासत की हैं. हलवासिया मार्केट और कपूर होटल पर किरायेदारों का कब्जा है. कस्टोडियन ने उनको ये जगहें सामान्य से किराये पर दे रखी हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इनके ऊपर बेदखली की तलवार लटक रही थी. इन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी और इनके वकील थे पी. चिदंबरम. इसलिए जब चिदंबरम कांग्रेस के कार्यकाल में केंद्रीय गृह मंत्री बने तो अपने पुराने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने वाला अध्यादेश ले आए. हमने तब इसका विरोध किया था. अब आज भी वही हो रहा है. चिदंबरम के बाद वह केस अरुण जेटली और राम जेठमलानी लड़ने लगे. अब अरुण जेटली की पार्टी की सरकार आई तो उन्होंने भी वही कहानी वापस दोहरा दी.’ विधेयक के कानून में तब्दील होने के बाद सिर्फ राजा महमूदाबाद की ही नहीं, देश भर में चिहि्नत ऐसी 16,000 संपत्तियों का मालिकाना हक सरकार के पास होगा, जिनमें मुंबई स्थित मोहम्मद अली जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्ति भी शामिल हैं. ये दोनों मामले भी अदालत में विचाराधीन हैं.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/dispute-on-the-property-of-mahmudabad-royal-family/” style=”tick”]जानें, क्या है राजा महमूदाबाद की संपत्ति का विवाद[/ilink]

केंद्र सरकार ने 47 साल पुराने शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन किया है, जिसके बाद शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली संपत्तियों पर दावे की गुंजाइश ही नहीं बचेगी

पी. चिदंबरम और अरुण जेटली के जिन हितों के टकराव का जिक्र ऊपर मो. अदीब ने किया, उसमें एक नाम और जुड़ता है. उस समय अध्यादेश कानून का रूप इसलिए भी नहीं ले सका कि मुस्लिम सांसदों के विरोध की अगुवाई तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद कर रहे थे. खुर्शीद ही राजा महमूदाबाद की संपत्ति के विवाद में उनके वकील रह चुके थे. वहीं कांग्रेस को खुद की मुस्लिम विरोधी छवि बनने का भी डर था. वह मुस्लिम वोट बैंक को खफा करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने भी तब सलमान खुर्शीद पर हितों का टकराव होने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा था कि सलमान खुर्शीद अपने मुवक्किल को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार में अपने ऊंचे ओहदे का लाभ ले रहे हैं. वहीं सरकार पर भी ऐसे आरोप लगे थे कि चूंकि सलमान खुर्शीद मामले में राजा महमूदाबाद के वकील थे, इसलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी अपना पक्ष पुरजोर तरीके से नहीं रखा.

बहरहाल केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद आई राजग सरकार ने भी पांच साल पुरानी इस कवायद को जारी रखा है. जो अध्यादेश तब कानून का रूप नहीं ले सका, उसे अब अमली जामा पहनाने की तैयारी है. लेकिन इस पूरी कवायद से केवल राजा महमूदाबाद, भोपाल के नवाब की संपत्ति के वारिस सैफ अली खान या जिन्ना का बंगला और अन्य शत्रु संपत्तियों के दावेदार ही प्रभावित होंगे, ऐसा भी नहीं है. जिन संपत्तियों को लेकर आज यह विवाद है, उनका मालिकाना हक बदल चुका है. भोपाल की ही बात करें तो नवाब हमीदुल्ला खां के निधन के बाद वारिस बनी उनकी बेटी साजिया सुल्तान ने अपनी रियासत की जमीन का एक बड़ा हिस्सा बेच दिया था. आज उस जमीन पर भोपाल की कई कॉलोनियां बसी हुई हैं. नवाब की संपूर्ण रियासत को सीईपी शत्रु संपत्ति घोषित कर चुका है, जिससे संबंधित मामला जबलपुर हाई कोर्ट में विचाराधीन है. इस कानून के प्रभाव में आने से साजिया सुल्तान द्वारा बेची गई जमीन पर सीईपी का मालिकाना हक होगा. इस स्थिति में इस जमीन पर दशकों से बसे लोग भी प्रभावित होंगे.

दिल्ली के सदर बाजार स्थित बेलीराम मार्केट में लगभग 200 दुकानें हैं. इन सभी को लेकर शत्रु संपति का विवाद है
दिल्ली के सदर बाजार स्थित बेलीराम मार्केट में लगभग 200 दुकानें हैं. इन सभी को लेकर शत्रु संपति का विवाद है

भूषण नागपाल की दिल्ली के सदर बाजार में बैग की दुकान है. 1947 से वे इस दुकान को चला रहे हैं. वे इसमें किरायेदार के तौर पर काबिज हैं. 1947 में उनके पिता ने दुकान की कीमत की दो तिहाई पगड़ी देकर इसे किराये पर लिया था. इसी कारण वे इसका मामूली किराया चुकाते हैं. लेकिन अब उन्हें डर है कि अगर उनकी दुकान सीईपी के कब्जे में आई तो उन्हें वर्तमान दर के हिसाब से किराया चुकाना पड़ेगा जो हजारों में होगा. उन्हें डर इस बात का भी है कि कहीं यह किराया उन्हें वर्ष 1947 से न चुकाना पड़े क्योंकि सीईपी कहेगा कि अब तक आप जिसे किराया दे रहे थे वह तो इसका मालिक ही नहीं था मालिक तो हम थे. और क्या पता कहीं बेदखल ही न कर दिए जाएं. अकेले भोपाल में ही लगभग पांच लाख की ऐसी आबादी मानी जाती है, जो भूषण नागपाल की तरह ही प्रभावित हो सकती है. इस आबादी की कानूनी लड़ाई लड़ रहे ‘घर बचाओ संघर्ष समिति’ के उपसंयोजक एडवोकेट जगदीश छवानी कहते हैं, ‘बहुत सारी संपत्ति लोगों ने खरीदी है. कई तरीकों से ऐसी संपत्तियां लोगों को मिली हैं. उस संपत्ति का लोगों ने आगे भी हस्तांतरण किया. उस पर निर्माण कार्य हुए. उन्हें गिरवी रखा गया. बैंक से लोन लिए गए. इस तरह तो वो सारी संपत्ति जो भोपाल के नवाबों से खरीदी गई, सरकारी अधिकार में आ गई. सभी प्रभावित हुए.’ वे आगे बताते हैं, ‘कानून में संशोधन के बाद कई कानूनी अड़चनें पैदा होंगी. महमूदाबाद रियासत को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने नवाब के बेटे के हक में फैसला दिया था. अब अड़चन ये है कि जब सुप्रीम कोर्ट पहले ही निर्णय कर चुका है तब भी कानून को भूतलक्षी प्रभाव के साथ लाया जा रहा है. यह मामला अभी और जोर पकड़ेगा.’

शत्रु संपत्ति अपने अधीन रखने की यह कोशिश केवल वर्तमान की राजग सरकार ने ही की हो ऐसा भी नहीं है. ऐसा ही प्रयास कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी कर चुकी है 

इस विधेयक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह सीधे तौर पर मुस्लिमों के हित प्रभावित करता है. 2010 में भी केंद्र की संप्रग सरकार की यह कवायद मुस्लिमों पर जाकर रुक गई थी और इस बार भी स्थिति अलग नहीं है. अब भी इसे राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. जगदीश छवानी इस विधेयक को ‘असहिष्णुता’ की ही अगली कड़ी करार देते हैं. वे कहते हैं, ‘यह राजनीति से प्रेरित मामला है. बस एक समुदाय को टारगेट करने के लिए लाखों लोगों के हितों को नजरअंदाज किया जा रहा है. सरकार सिर्फ अपना हित देख रही है. जिस शत्रु संपत्ति का निपटारा पाकिस्तान 1971 में ही कर चुका हैै, साठ के दशक के बाद उस पर हम अब जागे हैं.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान में नवाज शरीफ से आकस्मिक मुलाकात और फिर पठानकोट में आतंकी हमले की घटना को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है. ऐसा माना जा रहा है कि इन दोनों घटनाओं के बाद मोदी सरकार आलोचकों के निशाने पर थी. अध्यादेश को लाकर वह अपने हिंदू वोटबैंक को पुख्ता करना चाहती थी कि उसका रुख पाकिस्तान के प्रति नरम नहीं हुआ है. वह पाकिस्तानियों की संपत्ति को उसी तरह राजसात कर रही है जैसे पाकिस्तान ने अपने यहां भारतीयों की संपत्तियों को किया था.

वैसे अधिनियम के 47 साल बाद इसमें संशोधन का सरकारी कारण यह है कि सीईपी के अनुसार देश भर में शत्रु संपत्ति के दायरे में आने वाली अनुमानित 16,000 संपत्तियां हैं, जिनमें से 9411 को अब तक शत्रु संपत्ति घोषित किया जा चुका है. इनकी अनुमानित कीमत लगभग एक लाख करोड़ रुपये है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजा महमूदाबाद के पक्ष में आने के बाद से इन संपत्तियों पर अिधकार के िलए लगातार दावे ठोके जा रहे हैं. लोकसभा में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह कहते हैं, ‘अदालतों के शत्रु संपत्तियों के संबंध में आए फैसले भारत सरकार और कस्टोडियन को शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 के तहत मिली शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते थे. जिसके कारण कस्टोडियन को काम करने में समस्याएं आती थीं. इसीलिए संशोधन की जरूरत महसूस हुई.’ पर सरकार ने जिस तरह अध्यादेश का रास्ता अपनाकर इस विधेयक को लोकसभा में पास कराया है, सवाल उस पर भी उठता है. सरकार 7 जनवरी को इस संबंध में अध्यादेश लेकर आई थी, जबकि संसद सत्र शुरू होने में महज डेढ़ महीने का ही समय बचा था. लोकसभा में कांग्रेसी सांसद सुष्मिता देव पूछती हैं, ‘ऐसी क्या आपात स्थितियां आ गई थीं जो सरकार इतना भी इंतजार नहीं कर सकी, क्यों उसे अध्यादेश का सहारा लेना पड़ा?’

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ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति ‘शत्रु संपत्ति’ है

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बल्लीमारान का मुस्लिम मुसाफिरखाना जिसके लिए डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारुक वस्फी लंबी लड़ाई लड़ चुके हैं

दिल्ली के बल्लीमारान में स्थित मुस्लिम मुसाफिरखाना. 26 साल की कानूनी लड़ाई के बाद इसके मुतवल्ली (ट्रस्टी) डॉक्टर मौलाना मोहम्मद फारूक वस्फी यह साबित करने में सफल हुए कि यह शत्रु संपत्ति नहीं है. जमीर अहमद जुमलाना ने भी 13 साल संघर्ष किया. इस कानून के खिलाफ लड़े और जीते. ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जहां कस्टोडियन ने मनमर्जी से भारतीय नागरिकों को भी नोटिस थमा दिया कि उनकी संपत्ति शत्रु संपत्ति है. पर जब नोटिस को अदालत में चुनौती दी गई तो कस्टोडियन को मुंह की खानी पड़ी. शत्रु संपत्ति मामलों के विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट के वकील नीरज गुप्ता बताते हैं, ‘अनेक मामलों में लोग अपनी संपत्ति कस्टोडियन के फंदे से छुड़ाने में सफल रहे हैं. शत्रु संपत्ति के मामलों में अदालतों ने हमेशा कस्टोडियन की आलोचना ही की है. उसकी कार्यशैली पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं.’ जमीर अहमद जुमलाना बताते हैं, ‘1995 में मेरी बहन की संपत्ति पर कस्टोडियन ने नजर गड़ाई थी. हमने वो संपत्ति आसिफा खातून नाम की महिला से 1990 में खरीदी थी. 1995 में नोटिस आया कि आसिफा खातून पाकिस्तानी नागरिक हैं. लेकिन आसिफा कभी पाकिस्तान गई ही नहीं थीं, वे भारतीय नागरिक थीं. उनके पास भारतीय वोटर कार्ड, राशन कार्ड और पासपोर्ट तक मौजूद थे. हमने सारे सबूत पेश किए लेकिन कस्टोडियन तब भी मानने को तैयार नहीं था. 13 साल हमारा संघर्ष चला और हम साबित करने में सफल हुए कि कस्टोडियन गलत है.’ इसके अलावा कस्टोडियन पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं. मुंबई के एक मामले का जिक्र करें तो वहां कस्टोडियन ने करोड़ों की शत्रु संपत्ति का सौदा नियमों को ताक पर रखकर कुछ लाख में कर दिया. जुमलाना कहते हैं, ‘शत्रु संपत्ति की लिस्ट में संपत्तियों के नाम जोड़ने-घटाने का भी खेल चलता है. जो समृद्ध हैं वे अपनी संपत्ति का नाम हटवाने में सफल हो जाते हैं. वहीं किरायेदार-मालिक के विवाद में किरायेदार कस्टोडियन से साठ-गांठ कर मालिक की संपत्ति को शत्रु संपत्ति का नोटिस भिजवा देता है. ताकि मालिक का कस्टोडियन से विवाद चलता रहे और वह बिना किराया दिए संपत्ति पर कब्जा जमाए रखे.’

डॉक्टर वस्फी बताते हैं, ‘मेरा किरायेदार से विवाद था. वह न तो किराया बढ़ाना चाहता था और न खाली करना. जब हमने दबाव बनाया तो उसने कस्टोडियन से शिकायत कर दी कि मुस्लिम मुसाफिरखाना शत्रु संपत्ति है. कस्टोडियन ने हमें नोटिस थमा दिया. हम 26 साल तक यह साबित करते रहे कि इसके पुराने मालिक भारतीय नागरिक थे और वह किरायेदार अपना कब्जा जमाए रखा. टोकने पर कहता कि आप तो इसके मालिक ही नहीं हो, कस्टोडियन मालिक है, आप नहीं निकाल सकते.’

दिल्ली के सदर बाजार, बल्लीमारान, दरियागंज जैसे इलाकों में कुछ माह पहले कई लोगों को कस्टोडियन ने शत्रु संपत्ति का नोटिस दिया है. अकेले सदर बाजार में ही 200-300 दुकानों को नोटिस थमाए गए हैं. जब ‘तहलका’ ने इन लोगों से बात की तो कोई भी मीडिया के सामने आने को तैयार नहीं था. अपना नाम या फोटो छपवाने से लोग कतरा रहे थे. लोगों को डर था कि अगर एक बार मीडिया में नाम आ गया तो वे कस्टोडियन की निगाह में चढ़ जाएंगे और मामले में उसके साथ किसी भी प्रकार के समझौते की संभावना नहीं रह जाएगी. इससे जुमलाना के इस कथन की पुष्टि हो जाती है कि कस्टोडियन में शत्रु संपत्ति के नाम जोड़ने व घटाने का खेल चलता है. जुमलाना कहते हैं, ‘कोई आदमी इतनी बड़ी प्रॉपर्टी पर क्यों नुकसान का जोखिम लेगा! अपने लिए क्यों टेबल के नीचे से मामला निपटाने की संभावनाएं खत्म करेगा!’

इसके बाद यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि मनमर्जी से भारतीयों की संपत्ति को भी शत्रु संपत्ति बताने वाले कस्टोडियन को कानून के माध्यम से ऐसे अधिकार देना, जिससे उसका उन संपत्तियों पर मालिकाना हक स्थापित हो जाए और वह उन्हें बेचने का हकदार हो, साथ ही उसके फैसले के खिलाफ सिविल अदालत में जाने का भी विकल्प न हो, क्या उसे निरंकुश नहीं बना देगा! ऐसे में जुमलाना और डॉ. वस्फी जैसे न जाने कितने लोग अपनी संपत्तियों से हाथ धो बैठेंगे.

डॉ. वस्फी की अभी और भी कई संपत्तियों पर विवाद है. लेकिन एक संपत्ति के लिए इतनी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद न तो उनमें हिम्मत बची है और न ही इतना पैसा कि अब आगे और लड़ सकें. उम्र भी जवाब दे गई है. नीरज गुप्ता कहते हैं, ‘नए कानून के बाद बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी प्रभावित होंगे जिनकी संपत्ति को बिना किसी ठोस आधार के कस्टोडियन शत्रु संपत्ति घोषित कर देता है.’[/symple_box]

वैसे इसके पीछे कारण यह माना जा रहा है कि राजा महमूदाबाद की अरबों की संपत्ति पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमों पर जल्द ही फैसला आने वाला था, जिसके सरकार के खिलाफ जाने की संभावना थी. सरकार इतनी बड़ी राशि की संपत्ति अपने कब्जे से जाने देना नहीं चाहती थी इसलिए वह अदालत के फैसले को खारिज करने वाला अध्यादेश पहले ही ले आई. वहीं इंडियन नेशनल लीग के सचिव जमीर अहमद जुमलाना कहते हैं, ‘विधेयक को लाने के पीछे सरकार एक कारण यह भी दे रही है कि भारत और पाकिस्तान के बीच 1966 में शत्रु संपत्ति को लेकर ताशकंद में एक समझौता हुआ था, जिसे तोड़कर पाकिस्तान ने 1971 में अपने यहां मौजूद भारतीय नागरिकों की संपत्तियों को बेच दिया था. यह विधेयक उसी की प्रतिक्रिया है.’ इस पर वह पूछते हैं, ‘जापान पर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कोरियन महिलाओं के साथ अत्याचार और उनसे जबरन देह व्यापार करवाने के आरोप लगते हैं, तो क्या अब कोरिया को भी जापानी महिलाओं को चुन-चुनकर उनके साथ यही करना चाहिए? सरकार को करना यह चाहिए था कि वह पाकिस्तान के सामने यह मुद्दा उठाती और उनसे कहती कि उसने तब जिन भारतीयों की संपत्तियों को बेचा, उन्हें वापस अपने अधिकार में ले और भारतीयों को लौटाए या मुआवजा दे. बजाय इसके वह अपने ही नागरिकों को प्रताड़ित कर रही है.’

कानून बनने पर राजा महमूदाबाद के साथ ऐसी 16,000 संपत्तियां सरकार की हो जाएंगी, जिनमें जिन्ना का बंगला और भोपाल के नवाब की संपत्तियां भी हैं

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/opinion-of-renowned-journalist-rasheed-kidwai-on-enemy-property-act/” style=”tick”]जानें, शत्रु संपत्ति अधिनियम पर वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई की राय[/ilink]

जब विधेयक लोकसभा में पेश हुआ तो लगभग सभी विपक्षी दल इसके विरोध में खड़े नजर आए. विधेयक के मुस्लिम विरोधी प्रवृत्ति के होने के कारण इसकी पहले से ही उम्मीद थी. विपक्षी दलों की मांग थी कि पहले इस विधेयक को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाए. संघ की विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले पत्रकार लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘सरकार जब अध्यादेश लेकर आई थी तभी यह तय था कि जब ये संसद में पेश होगा तो इस पर ध्रुवीकरण होगा.  हुआ भी वही.’ लोकसभा में तो सरकार बहुमत में थी तो वहां से तो हरी झंडी मिलना तय था लेकिन सरकार के सामने असली चुनौती तो राज्यसभा से इस विधेयक पर मुहर लगवानी होगी. ऐसा वह कर पाएगी, इस पर संशय है क्योंकि वहां वह अल्पमत में है. लोकेंद्र आगे कहते हैं,  ‘राज्यसभा में सरकार इसे पारित करने पर जोर देगी और दूसरे दल आनाकानी करेंगे. तब सरकार दिखाना चाहेगी कि विपक्षी दल किस तरह हिंदू-मुस्लिम के मसले को हवा देते हैं. वहीं विपक्ष एकजुट होकर बताने की कोशिश करेगा कि मुसलमानों की संपत्ति पर सरकार नजर गड़ा रही है.’  उनके मुताबिक,  ‘राज्यसभा में अगर सरकार बहुमत नहीं जुटा पाती तो उसके पास दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाकर इस संशोधन विधेयक पर मुहर लगवाने का भी विकल्प होगा. लेकिन संयुक्त सत्र कम मौकों पर बहुत ही विशेष परिस्थितियों में बुलाए जाते हैं.’ बीजू जनता दल के लोकसभा सांसद पिनाकी मिश्रा विधेयक के भविष्य के बारे में कहते हैं, ‘यह विधेयक शत्रु संपत्ति के मामलों में सिविल कोर्ट से सुनवाई का अधिकार छीनता है, पास होने पर यह एक अतर्कसंगत कानून होगा जिसको जनहित याचिकाओं के माध्यम से अदालत में चुनौती दी जाएगी.

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम का ही उदाहरण ले लीजिए. सरकार ले तो आई पर देश के उच्चतम न्यायालय ने उसे गिरा दिया.’ वहीं जगदीश छवानी एक अन्य संभावना व्यक्त करते हैं. वह बताते हैं, ‘सरकार संसद से इसे कानून बनवाने में सफल हो भी जाती है तो भी अदालती तलवार इस पर लटकती रहगी. सुप्रीम कोर्ट में तो इसे चुनौती दी ही जाएगी, लेकिन इससे संबंधित जो अध्यादेश लाया गया था, उसे पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है. अगर कोर्ट का फैसला उस अध्यादेश के खिलाफ आता है तो यह कानून उधर ही खत्म हो जाएगा.’

जब इस विधेयक के पास होने की कम संभावनाएं हैं, इसके बावजूद सरकार इससे संबंधित अध्यादेश क्यों लाई थी? इस पर लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘अध्यादेश का मकसद कई बार सांकेतिक भी होता है. सरकार संकेत देना चाहती है कि वह क्या करने की इच्छा रखती है. भले ही यह कानून न बने पर सरकार यह संदेश देने में तो सफल हो ही जाएगी कि वह पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को अपने अधीन रखना चाहती है. चुनावों में इसका फायदा हो सकता है.’ पर मो. अदीब मानते हैं कि सरकार का इसके पीछे छिपा मंसूबा है.

वे बताते हैं, ‘सरकार को पता था कि राज्यसभा में अड़चनें आएंगी. इसलिए इन्होंने सीईपी को हिदायत दे दी थी कि अध्यादेश पारित होने के साथ ही जितनी भी शत्रु संपत्ति है उसे संरक्षण में ले लो. इसके परिणामस्वरूप कस्टोडियन ने तब से ही ऐसी संपत्ति को देश भर में चिहि्नत करना और कब्जे में लेना शुरू कर दिया है. अगर विधेयक कानून नहीं बनता तो भी सारी संपत्ति सीईपी के पास आ जाएगी और अध्यादेश के प्रभावी रहने तक उसे कौड़ियों के भाव नीलाम कर दिया जाएगा. जिस वक्त पहला अध्यादेश आया था, तब भी यही किया गया था. जामा मस्जिद के मेरे पास नौ मामले आए थे. अध्यादेश के आने के तुरंत बाद ही सीईपी के लोग पहुंचे और संपत्ति की मार्किंग शुरू कर दी थी. एक-एक घर की तलाशी ली गई. जांच की गई कि कहीं कोई पाकिस्तान तो नहीं गया था. मैंने उन सबको सोनिया गांधी से मिलवाया था.’ वे आगे बताते हैं, ‘दोनों ही दलों के कुछ नेताओं के इसमें निजी हित तो रहे ही हैं. साथ ही मुस्लिम समुदाय को दलितों से भी नीचे ले जाकर पटकने की साजिश है. आरक्षण की बदौलत आज दलित जागरूक हो गया. वह अब इनकी गुलामी नहीं सहता. अब उसकी जगह इनको कोई तो चाहिए. इसलिए मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. क्योंकि अब यही एक दबा-कुचला समुदाय देश में बचा है. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीनकर अस्तित्वहीन बना दो. वर्तमान सरकार इससे भी आगे निकल गई है. उसकी नजर मुस्लिमों की संपत्ति पर तो है ही, साथ में उनके शिक्षण संस्थानों पर प्रहार कर उन्हें शिक्षित होने से भी रोकना चाहती है. कानून की आड़ में वह आरएसएस का एजेंडा भी साध रही है. आरएसएस तो मानती ही नहीं है कि एक इंच जमीन भी देश में हमारी है. उसका मानना है कि जो जमीन है वो सब हिंदुओं की है. मुसलमानों ने इस पर कब्जा कर लिया था. हम 1200 साल के बाद भी अपने ही मुल्क में पराये हैं. विभाजन के समय हमने धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में भारत का चुनाव किया. अब अगर इनका एजेंडा हिंदू राष्ट्र बनाने का है तो हम तो ठगे गए हैं.’

‘वे मुस्लिमों को दूसरा दलित बनाना चाहते हैं. इसलिए जो भी मुस्लिमों के अतीत के गौरव रहे हैं, उन्हें खत्म कर दो. दौलत और संपत्ति छीन अस्तित्वहीन बना दो’

वैसे इस कानून में शामिल ‘शत्रु’ की परिभाषा पर भी विवाद है. पूर्व राज्यसभा सांसद अजीज पाशा कहते हैं, ‘जो संपत्ति का वारिस है, वो कानूनन है. वो देश का नागरिक है. जब वो भारत का नागरिक है तो उसे इस आधार पर शत्रु कहना कि उसके बाप-दादा पाकिस्तान चले गए थे, अन्याय है. अगर पूरा खानदान ही पाकिस्तान चला गया होता और फिर वापस आकर संपत्ति पर दावा करता तो उसे शत्रु कह सकते थे, लेकिन जो भारत का नागरिक है, यहीं रह रहा है. उसे शत्रु की संज्ञा देकर उसकी संपत्ति पर नजर गड़ाना तो गलत है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘सीतापुर के डॉ. ताज फारूकी उन स्वर्गीय एमएम किदवई साहब के दामाद हैं, जो कांग्रेस के एक बहुत बड़े नेता थे. डॉक्टर साहब के चाचा पाकिस्तान चले गए थे पर उनके बाप नहीं गए थे और वो भी नहीं गए थे. उनकी संपत्ति सरकार ने जब्त कर ली. संपत्ति कस्टोडियन के पास है पर लगान वही जमा करते हैं. लगान की जो रसीद मिलती है उस पर इनके नाम के आगे शत्रु लिखा होता है. हम शत्रु हैं. अपने देश का दामन थामना शत्रुता की श्रेणी में आता है. अपने ही घर में परायों जैसा सलूक क्यों? दिल दुखता है. लेकिन कर भी क्या सकते हैं. जहां गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाकर उसे पूजने की बात हो, वहां हमारी कौन सुनेगा.’ पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकसभा सांसद शशि थरूर को भी ‘शत्रु नागरिक’ की परिभाषा से आपत्ति है. वे कहते हैं, ‘हम एक ऐसे विधेयक को पास करने पर विचार कर रहे हैं जो अपने ही देश के कुछ लोगों को शत्रु बताता है. इससे लाखों लोगों के हित प्रभावित होंगे. यह भारतीय नागरिकता को दो भागों में विभाजित करता है, हम भारतीय नागरिकता के विचार को ही विभाजित कर रहे हैं.’

जगदीश छवानी एक अहम सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘एक ओर हम पाकिस्तान से मित्रता बढ़ाने की बात करते हैं, अखंड भारत की स्मृतियां संजोते हैं तो दूसरी ओर पाकिस्तान बस गए लोगों को शत्रु की श्रेणी में रखते हैं. यह कैसी नीतिगत असमानता है? अपने ही देश के उन मुसलमानों को जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए, शत्रु कहा जाता है. जबकि वो भारत के नागरिक हैं.’ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी मानते हैं, ‘जो भी भारत में है और उसका नागरिक है, उसे शत्रु नहीं कहा जा सकता.’

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‘सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया गया विधेयक वहीं खत्म हो जाएगा’

‘घर बचाओ संघर्ष समिति’  के बैनर तले भोपाल में शत्रु संपत्ति के कई मामले देख रहे जबलपुर हाई कोर्ट के वकील जगदीश छवानी से बातचीत

विधेयक के कानून बनने के बाद क्या भोपाल के नवाब सहित दूसरे लोगों की संपत्तियां जिनसे संबंधित मामले अदालत में चल रहे हैं, वे अपने आप कस्टोडियन की हो जाएंगी और मुकदमे बंद हो जाएंगे?

हां, ऐसा प्रावधान संशोधित विधेयक में है. अभी यह विधेयक लोकसभा से पास हो चुका है. अब राज्यसभा से पास होगा फिर राष्ट्रपति से अनुमोदन होगा. उसके बाद कस्टोडियन उन अदालतों में याचिका लगाकर, जिनमें शत्रु संपत्ति से संबंधित मामले चल रहे हैं, मांग करेगा कि नया कानून बन चुका है, लिहाजा अब ये मामले बंद किए जाएं. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का भी साफ कहना है कि जो भी मुकदमे अदालत में हैं, उन्हें ही खत्म करने के लिए इसे लाया जा रहा है.

क्या नए कानून के बाद पीड़ितों के लिए अदालत जाने के दरवाजे बंद हो जाते हैं?

सिविल कोर्ट न जाने का प्रावधान विधेयक में रखा गया है पर अपने संविधान प्रदत्त अधिकार अनुच्छेद 19 और 21 के तहत हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं. वैसे भी सिविल कोर्ट को यह निश्चित करने का अधिकार है िक कोई संपत्ति िकसी व्यक्ति की है या नहीं! पर यह निश्चित करने का अधिकार नहीं है कि कौन-सी संपत्ति शत्रु संपत्ति है, क्योंकि यह मुद्दा केंद्र सरकार से संबंधित है. सिविल कोर्ट घरेलू मुद्दों पर फैसला कर सकता है पर यह दो मुल्कों का मसला है.

क्या विधेयक को अदालत में चुनौती दी जा सकती है?

हां, अध्यादेश जो आया था उसे राजा महमूदाबाद ने पहले से ही चुनौती दे रखी है. वही अध्यादेश तो विधेयक में बदला है, तो चुनौती तो पहले से ही दी जा चुकी है.

अगर यह विधेयक संसदीय प्रक्रिया से गुजरकर कानून बन जाता है तो भी क्या उसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं?

हां, अगर कोई कानून तर्कसंगत नहीं है तो उसकी समीक्षा के लिए अदालत से गुहार लगाई जा सकती है. ऐसे बहुत उदाहरण हैं. हालिया उदाहरण राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का है, जहां सरकार के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया.

राजा महमूदाबाद ने इस विधेयक से संबंधित अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है. वह मामला विचाराधीन है. उस पर फैसला नहीं आया है, तब तक यह विधेयक पास हो गया. क्या विधेयक पर इसका कोई असर पड़ेगा? नए हालात में उस मामले का क्या होगा?

यह एक ऐसी स्थिति है कि एक तरफ सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग कर कानून ला रही है तो दूसरी तरफ न्यायालय भी उस कानून पर विचार कर रहा है. टकराव वाली स्थिति है. मान लीजिए कि अगर सरकार यह कानून संसद से बनवाने में सफल हो जाती है और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट अध्यादेश के खिलाफ फैसला सुनाता है तो सरकार द्वारा लाया कानून वहीं खत्म हो जाएगा. संविधान में तीन स्तंभ हैं; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका. एक कानून बनाता है, एक की जिम्मेदारी उसे लागू करने की है और एक उसकी समीक्षा करता है. वो न्यायपालिका देखेगी कि इस कानून का क्या भविष्य होगा.

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नए संशोधनों के समर्थन में यह तर्क दिया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट का राजा महमूदाबाद के पक्ष में फैसला आने के बाद से शत्रु संपत्तियों को पाने के कई फर्जी दावे सामने आए, जो आज भी अदालतों में लंबित हैं. अब इस कानून के बाद शत्रु संपत्ति पर नजर गड़ाए बैठे कई फर्जी लोगों के मंसूबों पर पानी फिर जाएगा.

इस पर नावेद हमीद कहते हैं, ‘क्या सरकार फर्जी दस्तावेज पहचानने में अक्षम है? सरकार के पास सारे दस्तावेज मौजूद हैं. अगर एक-दो प्रतिशत ऐसे फर्जी दावे भी हैं तो सरकार उनकी सत्यता की पुष्टि करे. इन फर्जी मामलों के कारण दूसरों को उनके हक से वंचित करना कहां तक जायज है?’ शमीम फैजी कहते हैं, ‘हमारा मानना है कि जो कानूनन वारिस हैं उनका संपत्ति पर हक है. अगर आप फर्जी दस्तावेज वालों का पता नहीं लगा सकते तो आपकी सरकार किस बात की? इनके निहित स्वार्थ हैं. वे विभाजन के बाद बहुत संपत्ति जब्त कर चुके हैं. ये लोग बड़ी संख्या में लोगों की संपत्तियां शत्रु संपत्ति के नाम पर जब्त कर चुके हैं, जो उनके वारिसों को मिलनी चाहिए. वह ये नहीं लौटाना चाहते.’

जुमलाना के अनुसार, इस कानून की मूल भावना थी पाकिस्तान जा बसे लोगों की संपत्तियों का अस्थायी संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण. वे कहते हैं, ‘मान लीजिए एक व्यक्ति उस देश जा बसा जिससे हमारा युद्ध चल रहा हो. वह यहां अपनी जायदाद छोड़ गया. उस जायदाद से उसे आय हो रही है और वह आय शत्रु देश पहुंच रही है और उसका प्रयोग हमारे ही खिलाफ युद्ध में हो रहा है. इसलिए ऐसे लोगों की संपत्तियों को अस्थायी रूप से संरक्षण में रखने के लिए यह कानून लाया गया था. युद्ध के समय इस प्रकार का कानून हर देश लेकर आया है और यह सही भी है. युद्ध खत्म, कानून खत्म. पर हमारे यहां उल्टा हो रहा है, इसे स्थायी रूप दिया जा रहा है.’ मो. अदीब कहते हैं, ‘शाहबानो केस में जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को संसद में कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया गया तो मुसलमानों को कहा गया कि आप देश का कानून नहीं मानते, चारों ओर बदनाम किया गया. और अब आप भी तो वही कर रहे हैं. संसद से कानून बनाकर हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहे हैं. जबकि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जो भारतीय नागरिक है उसे उसकी विरासत से दूर नहीं किया जा सकता.’

नावेद हमीद कुछ सवाल उठाते हैं, ‘जिन्होंने पाकिस्तान को नहीं, भारत को अपना मुल्क माना, भारत में रुके, मातृभूमि को नहीं छोड़ा. जबकि उनके ऊपर दबाव था. उन लोगों का क्या कुसूर है? नौ में से अगर एक चला गया है और आठ रह गए हैं तो आप कहोगे कि आप क्यों रह गए? अगर खानदान का एक व्यक्ति कहीं चला गया है, जाने को तो बहुत लोग अलग-अलग देशों में चले गए हैं. लेकिन अगर पाकिस्तान चला गया है तो वह शत्रु है और जिन्होंने भारत में रहने का विकल्प चुना, उन्हें देशभक्त क्यों नहीं कहा जाता?’

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व्यथा कथा 1

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व्यथा कथा 2

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व्यथा कथा 3

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व्यथा कथा 4

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व्यथा कथा 5

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/vyatha-katha-fifth-enemy-property-act/” style=”tick”]‘क्या भाइयों से कहूं कि धोखा दिया’[/ilink]  [/symple_box]

‘क्या भाइयों से कहूं कि धोखा दिया’

सतीशचंद्र सदर बाजार में जिस दुकान से व्यापार करते हैं उसकी रजिस्ट्री 1965 में उनके पिता के नाम हुई थी. उनके पिता के पांच बेटे थे. 29 साल बाद 1994 में पांचों भाइयों में संपत्ति का बंटवारा हुआ. सतीश को अपने पिता से कुछ अधिक ही लगाव था जिसके कारण उन्होंने अपने भाइयों को दुकान की कीमत चुकता कर वह खरीद ली. लेकिन अपने इस फैसले पर बीस साल बाद सतीश अब पछता रहे हैं. सीईपी ने उन्हें नोटिस दिया है कि उनकी दुकान शत्रु संपत्ति के दायरे में आती है. सतीश कहते हैं, ‘जब मैंने दुकान ली तो सोचा कि मेरे बाप की दुकान है, कैसे छोड़ दूं. बाप का नाम जुड़ा है इससे. लेकिन अब लगता है कि मैं तो सड़क पर आ जाऊंगा. ये मैंने क्या बवाल पाल लिया. अकेले बैठकर सोचूं तो लगता है मैं तो फंस गया. अब क्या करूं अपने भाइयों पर मुकदमा करूं? क्योंकि मैंने तो उनसे ही खरीदी थी. सबसे पीछे वाले को कैसे खोजूं जो कि पाकिस्तान गया! क्या भाइयों से कहूं कि आपने मेरे साथ धोखा किया?’ वे आगे बताते हैं, ‘सब भ्रष्टाचार है. जब वो यहां सर्वे करने आए थे तो मांग कर रहे थे पैसों की. कह रहे थे कि हमारा कुछ कराओ फिर देखते हैं. मैंने कहा कि हमारे मार्केट के अध्यक्ष अभी मौजूद नहीं हैं, उनसे बात करके बताऊंगा. उस समय मैंने उन्हें टाल दिया था लेकिन दस दिन बाद मेरे पास नोटिस आ गया.’

अपनी आपबीती सुनाते वक्त सतीशचंद्र के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थीं. नोटिस का जवाब वे अपने वकील से सीईपी को भिजवा चुके हैं लेकिन आज महीनों बाद भी सीईपी ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है. अब सरकार शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन करना चाहती है. इसने सतीशचंद्र की चिंता में कई गुना इजाफा कर दिया है. उन्हें लगता है कि अब तो सारे अधिकार सीईपी के पास होंगे, एक बार जिस संपत्ति को उसने शत्रु घोषित कर दिया तो वह उसकी हो जाएगी. उनकी दुकान तो उनके हाथों से कभी भी जा सकती है.