बलात्कार पर दो नजरिए कभी नहीं हो सकते. बलात्कार हर हालत में बलात्कार होता है, चाहें वह सड़क पर हो या किसी शादीशुदा जोड़े के बेडरूम में. अपराधी पति, पिता, भाई या प्रेमी, कोई भी हो अगर उसने घर के अंदर या बाहर बलात्कार किया है तो उसे कभी भी कमतर यौन हिंसा के बतौर नहीं देखा जाना चाहिए. अगर इस सामान्य से तथ्य को पैमाना बनाकर एक प्रगतिशील कानून और वैधानिक सुधार के लिए पहल की जाए तो हमारी न्यायपालिका और राजनीतिक संगठन एक बेहतर लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़गी.
2012 में भयावह निर्भया बलात्कार कांड के बाद घटी बहुत सी घटनाओं ने बलात्कार को देश की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के लिए चिंता का विषय बना दिया था. आपराधिक कानून में संशोधन के लिए न्यायाधीश जेएस वर्मा के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई. वर्मा समिति द्वारा पेश की गई रिपोर्ट में बहुत सारे सुझाव शामिल किए गए. वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को लेकर कई सिफारिशें कीं जैसे यौन प्रताड़ना को परिभाषित करने की बात ताकि इसमें असहमति और यौन प्रकृति के दूसरे कृत्यों को शामिल किया जा सके. समिति ने सिफारिश की थी कि आईपीसी के तहत वैवाहिक बलात्कार को मिली छूट भी हटाई जानी चाहिए. हालांकि जब समिति की सिफारिशों को गृह मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति के पास भेजा गया तो समिति के दो सदस्यों को छोड़कर सभी ने इन सिफारिशों को सिरे से खारिज कर दिया. आखिर क्या कारण है कि हमारे सांसद वैैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठने के साथ ही असहज हो जाते हैं?
कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव शकील अहमद ‘तहलका’ से बातचीत में कहते हैं, ‘मीडिया में आई बहुत सारी रिपोर्ट और सर्वेक्षण के अनुसार, हमारे यहां की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की वजह से औरतों की स्थिति लाभवाली नहीं है. इस संबंध में वर्मा समिति ने कुछ सिफारिशें की हैं लेकिन सवाल ये है कि साथ रह रहे लोगों की गतिविधियों पर कानून कैसे नजर रखेगा. इस वजह से इस मुद्दे पर एक राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाने की दरकार है. किस तरह का कानून होना चाहिए इसे लेकर आम सहमति बनाने की जरूरत है.’
वैवाहिक बलात्कार को लेकर तमाम राजनेताअों ने समय-समय पर अपनी चिंता जताई है. ये चिंताएं मुख्य रूप से दो सामाजिक मिथकों पर आधारित हैं. पहला, एक शादीशुदा महिला इस कानून का अपने पति के खिलाफ दुरुपयोग कर सकती है. दूसरा, दंपति के बेडरूम में घुसपैठ करने की इजाजत कानून को नहीं मिलनी चाहिए. भाजपा सांसद महेश गिरि के अनुसार ‘वैवाहिक बलात्कार जैसे जटिल मामले को देखते हुए थाने में बैठे पुलिस अधिकारियों को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केस दर्ज किए जाने योग्य है या नहीं. नहीं तो अक्सर यह देखने को मिलता है कि पति से बदला लेने के लिए पत्नी उस पर दुष्कर्म का आरोप लगा देती है.’
1980 के दशक में चले जोरदार महिला आंदोलनों की बदौलत महिलाओं से जुड़े बहुत सारे मुद्दों को लेकर सीधे-सीधे कानून बनाया जा सका था. इसी दौर में विधायिका ‘दहेज हत्या’ और ‘दहेज प्रताड़ना’ को घरेलू हिंसा के तहत जोड़कर देख रही थी, जिसे समीक्षा के तहत रख दिया गया. उस दौर के कानून के मुताबिक दहेज प्रताड़ना में सिर्फ घरेलू हिंसा को जोड़ा गया था. इसलिए आईपीसी में संशोधन की जरूरत महसूस की गई. इसी संदर्भ में 1998 में घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम अस्तित्व में आया.
परिवार के अंदर किसी भी महिला के प्रति शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक तौर पर हिंसा को घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम, 1998 के तहत रखा गया. इसके अलावा दहेज की धारणा भर को भी घरेलू हिंसा के तहत माना गया. अिधनियम के तहत यह भी माना गया कि मां, बेटियां, बहनें और पत्नियाें के अलावा अनौपचारिक संबंधों में
रह रहीं महिलाएं भी घरेलू हिंसा की शिकार हो सकती हैं.
इस अधिनियम ने जब प्रगतिशील लैंगिक राजनीति के दरवाजे खोले तब इसके दुरुपयोग के भी सवाल उठे. इसी वजह से शकील अहमद और महेश गिरि जैसे नेता वैवाहिक बलात्कार के संदर्भ में संदेह प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 1998 के तहत कई सारे ऐसे मामले भी दर्ज कराए गए जो बाद में झूठे साबित हो गए थे. हालांकि जब कोई उन झूठे मामलों की ओर देखता है तो वह इसे घरेलू हिंसा के दर्ज न होने वाले मामलों की तुलना में नगण्य पाता है.
घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम का दुरुपयोग कोई भी महिला अपनी दुश्मनी निभाने के लिए कर सकती हैं, जैसे अनगिनत तर्क 1998 में इसे लागू होने से नहीं रोक सके बल्कि साल 2005 में घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम से इसे और मजबूती मिली. बाद में इसके दुरुपयोग किए जाने का तर्क हल्का साबित होने लगा जब ये पाया गया कि इस कानून की मदद से बड़ी संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा से लड़ाई लड़ने में सक्षम हो गईं. 2005 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं के साथ काेई और नहीं बल्कि सबसे ज्यादा यौन हिंसा उनके पतियों ने ही की है. वैवाहिक बलात्कार से जुड़े मौजूदा कानून के तहत पति को छूट देकर भारत में यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई को पंगु बनाने का काम किया जा रहा है.
आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आशुतोष का कहना है कि शादी किसी भी पुरुष को उसकी पत्नी की इच्छा के विरुद्घ उससे संबंध बनाने की इजाजत नहीं देती. दूसरे शब्दों कहा जाए तो जब वैवाहिक बलात्कार की बात होती है तो मुख्य मुद्दा ‘सहमति’ ही होता है. लेकिन क्या कानून ने ‘सहमति’ और स्वीकार्य यौन हिंसा के बीच दीवार खड़ी कर दी है?
दो साल पहले भारतीय शयनकक्षों में जबरन कानून तब लागू किया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को गैरअपराध मानने के खिलाफ आदेश दिया. कोर्ट ने तब यह घोषित किया था कि आईपीसी की धारा 377 के अनुसार किसी भी तरह का सेक्स, चाहें वो सहमति से हो या असहमति से और जो अप्राकृतिक हो उसे अपराध माना जाएगा. तब ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ को लेकर कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी, लेकिन इसे पूरी तरह से नकार दिया गया.
वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी कर लेता है तब उसके मूल अधिकार खत्म हो जाते हैं
ऐसे में तमाम तरह की शैलियों में होने वाले यौन संबंधों को लेकर सवाल उठाए गए. उन्हें कानूनी और गैरकानूनी मानने को लेकर बहसों का दौर चला, लेकिन अदालत ने इन तमाम सवालों से किनारा करके सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों को बरकरार रखने तक सीमित रखा है. हालांकि अपने आदेश में अदालत ने संसद में धारा 377 की प्रासंगिकता पर बहस की जरूरत पर बल जरूर दिया. ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली’ शीर्षक वाले हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत यह प्रावधान किया गया है कि अगर दांपत्य जीवन में पति या पत्नी में से कोई भी साथ छोड़ देता है तो ऐसी स्थिति में अदालत उसे वापस उसके साथ घर जाने का आदेश दे सकती है.
इस मसले पर 1983 में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने कहा था कि यह कानून व्यक्तिगत यौन स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. विवाह को पवित्र संस्था मानने से इंकार करते हुए टी. सरीता बनाम वी. वेंकटसुबैया मामले में न्यायाधीश जे. चौधरी ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि धारा 9 वैवाहिक संबंधों में यौन संबंध बनाने या न बनाने के किसी व्यक्ति के अधिकार को राज्य को सौंप देती है. उन्होंने आदेश दिया कि इस तरह से अधिकारों का हस्तानांतरण किसी व्यक्ति की संपूर्णता को नुकसान पहुंचाएगा. साथ ही उसके या उसकी वैवाहिक और घरेलू निजता का उल्लंघन करेगा. हालांकि धारा 9 दंपति (पति या पत्नी) के बीच जबरन संबंध बनाने का अधिकार नहीं देती है. न्यायाधीश चौधरी का मानना था कि महिला को ऐसा करने पर बाध्य होना पड़ता है क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच खासकर वैवाहिक संबंधों में शक्ति पुरुष के हाथों में ही होती है. इस मामले में निष्कर्ष के तौर पर न्यायाधीश ने एक व्यक्ति विशेष के अधिकारों को ऊपर रखते हुए कहा था कि धारा 9, संविधान के अन्तर्गत अनुच्छेद 21 के तहत देश के नागरिकों को जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन है.
दुर्भाग्यवश, दिल्ली हाई कोर्ट ने न्यायाधीश चौधरी के फैसले को एक साल के भीतर ही पलटते हुए यह कहा था कि संविधान के प्रावधानों को बेडरूम में घुसपैठ की इजाजत देना ‘चीनी मिट्टी के बर्तन की दुकान में सांड़’ को प्रवेश की अनुमति देने जैसा है और इसके चलते विवाह नाम की संस्था बर्बाद हो जाएगी. उस साल के बाद में दिल्ली हाई कोर्ट के ‘विवाह संस्था को बचाए रखने’ की दलील से सुप्रीम कोर्ट भी सहमत दिखा. बहरहाल वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, लेकिन जो स्थितियां हैं उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी के बंधन में बंध जाता है तब उसके मूल अधिकार समाप्त हो जाते हैं. लोकतंत्र के लिहाज से हकीकत में यह अच्छी बात नहीं है.
वरुण बिधुड़ी के सहयोग से