‘मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं… 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री के रूप में शुरू हुई नरेंद्र मोदी की इस पारी के लिए काफी समय से जमीन तैयार की जा रही थी. इसके लिए 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज करने के लिए हरसंभव दांव खेले गए. मोदी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनने मात्र ने ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कैडर को उत्साह से भर दिया.
साधनों का बहुत ही चतुराई से उपयोग किया गया, विकास के सपने बेचकर वोट खरीदे गए और अंततः विपक्षियों को शिकस्त मिली. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने पहले भाषण में 10 साल के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और हिंसा पर रोक की बात की तब उनकी इस अपील में नरसिम्हा राव द्वारा 1992 में इसी अवसर पर दिए गए भाषण की अनुगूंज सुनाई दी. नरसिम्हा राव ने अपने उस भाषण में दो-तीन साल के लिए आपसी मतभेदों को पाटने की अपील की थी और इस अपील के चार महीने बाद ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना घट गई थी.
मोदी ने अपनी वाकपटुता के दम पर 2014 का लोकसभा चुनाव जीत लिया और ऐसा संभव बनाने के लिए विकास के एजेंडे का सनसनीखेज तरीके से प्रचार किया, पर धीरे-धीरे विकास के इस सपने के रंग धुंधले पड़ रहे हैं क्योंकि साल भर होने के बाद भी वो चुनाव प्रचार के ही मूड में दिख रहे हैं. बीते साल सितंबर में अमेरिका का मैडिसन स्क्वायर गार्डन हो, चीन का शंघाई हो, लोक कल्याणकारी योजना के खर्चों में कटौती और सब्सिडी में कटौती करके उस पैसे का उपयोग बुनियादी ढांचों के लिए प्रोत्साहन पैकेज के तौर पर लाना हो या फिर सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा के लिए पैसा इकट्ठा करने का मामला, उन्होंने हर मुद्दे पर एक मसीहा या मुक्तिदाता के अंदाज में तीसरा ही रास्ता चुना.
अपनी शैली के बारे में वे खुद कहते हैं, ‘मेरी सोच तीसरे प्रकार की है. आपको गिलास आधा खाली दिख सकता है पर मेरे लिए ये पूरा भरा है आधा पानी से और आधा हवा से. यही वजह है कि मैं खुद को प्रकृति से ही आशावादी कहता हूं.’ ये सब बातें नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज करने के चार दिन बाद संसद के सेंट्रल हाल में कही थीं. इसके हफ्तेभर बाद उन्होंने देश के 15वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली.
मोदी समर्थकों का तर्क है कि महज सालभर बीतने पर सरकार की उपलब्धियां गिनाना जल्दबाजी होगी लेकिन अगर इन 365 दिनों को संकेत के रूप में देखा जाए तो मोदी खुद अपने प्रचार के जाल में फंस गए हैं. जनवरी में गुजरात में आयोजित वाइब्रेंट सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि प्रचार से गति मिलती है और इससे सरकारी अधिकारियों के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी तेजी आती है, साथ ही लाल-फीताशाही खत्म करने में भी मदद मिलती है. पर उम्मीदें दिखाने और उन पर खरे न उतरने से कहीं वो उस बहुमत को फिजूल में ही न गंवा दें जिसने उन्हें वहां तक पहुंचाया है.
वैसे भाजपा के वरिष्ठ सदस्य अरुण शौरी मोदी की अर्थनीति को पहले ही दिशाहीन कह चुके हैं. मोदी सरकार ने गिरते-पड़ते, शोर-शराबे और तमाम चुप्पियों के बीच आखिर बारह महीने पूरे कर ही लिए हैं. इस बीच कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी हुए जैसे प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी शुरू हुई, पर सरकार भूमि अधिग्रहण बिल, वस्तु एवं सेवाकर के मामले में फंसती दिखी. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नए महासचिव सीताराम येचुरी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री विदेश में लोगों को अभी भी चुनावी अंदाज में संबोधित कर रहे हैं. वे विदेशों में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करने के दौरान विपक्षी दलों पर लगातार आरोप लगा रहे हैं और उनके खिलाफ टिप्पणियां कर रहे हैं. देश के इतिहास में शायद वो पहले प्रधानमंत्री होंगे जिन्होंने एक साल के अंदर 18 देशों की यात्राएं की हैं.’ कांग्रेस के आनंद शर्मा भी इस बात से सहमत होते हुए कह चुके हैं, ‘प्रधानमंत्री के विदेशों (जर्मनी और कनाडा) में दिए गए भाषण बहुत हल्के थे. यह साफ है कि वे अभी भी लोकसभा चुनावों के प्रचार की खुमारी से बाहर नहीं निकल पाए हैं.’
मोदी ने बहुत सारे अनछुए मुद्दों पर आवाज उठाई है पर कुछ जरूरी मामलों में उनकी चुप्पी बहुत खली, वो चाहे उनके कैबिनेट मंत्रियों की घटिया बयानबाजी हो, अल्पसंख्यकों के इबादत को लेकर दिए गए बयान हों या बेमौसम बारिश से बर्बाद हुई खेती के समय उठे विवाद, प्रधानमंत्री के कुछ न बोलने से बात बिगड़ती ही चली गई. इसके बावजूद, उत्तर प्रदेश के उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज मोदी की उपलब्धियां गिनाते हुए कहते हैं कि मोदी सरकार ने वो किया है जो कांग्रेस एक दशक में भी नहीं कर पाई. वो कहते हैं, ‘मोदी गुड गवर्नेंस के रोल मॉडल हैं और मुझे विश्वास है कि मोदी अगले 30-35 सालों तक देश का नेतृत्व करेंगे.’
मोदी अगर मतदाताओं की नजर में उठे हैं तो इसका कुछ श्रेय उन्हें मणिशंकर अय्यर के ‘चायवाला’ कहने को देना चाहिए और कुछ मनमोहन सिंह को
अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए मोदी चार अक्षरों का एक नाम भर थे और रहेंगे पर अगर मोदी मतदाताओं की नजर में उठे हैं तो इसका कुछ श्रेय उन्हें मणिशंकर अय्यर के ‘चायवाला’ कहने को देना चाहिए और कुछ मनमोहन सिंह को. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उजागर घोटालों और उनकी नीतियों की विफलता ने मोदी की सफलता की राह आसान की. मोदी ने खुद को देश का ‘प्रधान सेवक’ कहा, कुछ लोग उन्हें दूरद्रष्टा के तौर पर भी देखते हैं. कुछ का कहना ये भी है कि उन्हें बस कारोबार से मतलब है. मीडिया के एक धड़े ने उन्हें ऐसा राजनेता घोषित किया है जो देश को आगे ले जाने के लिए असीम ऊर्जा और उत्साह से भरा हुआ है. वो देशवासियों और दुनिया की नजर में भारत की छवि बदल देना चाहते हैं. (अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने टाइम पत्रिका में मोदी के बारे में लिखे एक लेख में उन्हें ‘इंडियाज रिफॉर्मर इन चीफ’ कहा था, और उनके जीवन को ‘फ्रॉम पावर्टी टू प्राइम मिनिस्टर’ का नाम दिया था.)
मोदी की छवि उस वक्त और चमकी जब स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने पहले ही भाषण में उन्होंने स्वच्छता, स्त्री-सुरक्षा, लैंगिक समानता जैसी बुनियादी बातें कहीं. उन्होंने अभिभावकों को समझाते हुए कहा कि अपने बेटों को स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उनका सम्मान करना सिखाएं. उन्होंने ऐसे बुनियादी मुद्दों पर मुखर होकर अपनी बातें कहीं जो लालकिले से बोलना तो दूर, किसी सरकार के मुखिया के लिए विचारयोग्य ही नहीं मानी जाती थीं. एक कुशल वक्ता होने की वजह से मोदी ब्रांड बनते गए. पर कुशलता से गढ़ी गई इस छवि को तब चोट लगी, जब जनवरी में मोदी की अपने नाम का सूट पहनने की बात सामने आई. ‘एक नेता जो चायवाले के घर से आया है’ वाली जमीन से जुड़े होने की छवि इस ‘आत्म-केंद्रित, अपने नाम का सूट पहनने वाले नेता’ के नीचे दब गई. वोट देने वाली आम जनता ने उस छवि को वोट बटोरने की चाल समझा. इसका खामियाजा दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को भुगतना पड़ा. वो मतदाता जिसने लोकसभा चुनावों में रातोंरात मोदी को स्टार बनाया था, उसी मतदाता को उनकी कथनी और करनी में अंतर दिखने लगा. इस बीच संघ परिवार से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने भी सरकार की नीतियों के खिलाफ रोष भी प्रकट किया. मोदी की एक रौबीले प्रशासक होने की बात भी उठी जब खबरें आईं कि मोदी कैबिनेट मंत्रियों को जरिया बनाने की बजाय सचिवों से सीधे संपर्क में रहते हैं, साथ ही कुछ मंत्री ऐसे भी हैं, जिन्हें अपनी पसंद का निजी सेक्रेटरी भी नहीं रखने दिया गया. कुछ मंत्रियों को तो निर्देश भी मिले कि उन्हें किस मौके पर कैसी पोशाक पहननी है, किनसे मिलना है और कैसे बात करनी है. मोदी के बहुप्रचारित सिद्घांत ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ को उनके शपथ ग्रहण के कुछ महीनों के भीतर ही, तब झटका लगा जब मंत्रालयों को रैशनलाइज करने की कोशिश में एक ही मंत्री को कई मंत्रालय संभालने की योजना उस तरह नहीं चल पाई जैसा सोचा गया था.
हालांकि, सरकारी कार्यालयों में बायोमिट्रिक सिस्टम से उपस्थिति दर्ज करने को आम लोगों ने बहुत सराहा, पर दिल्ली के नौकरशाहों के एक वर्ग में इस बात को लेकर खासा रोष देखा गया. मोदी के प्रतिदिन 18 घंटे काम करने की बात का भी कई अधिकारियों ने विरोध किया. एक आईएएस अधिकारी व्यंग्यात्मक लहजे में ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘आज, आप क्या करते हैं वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये कि आप इसे किस समय करते हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय शाम को 6ः30 बजे तब काम शुरू करता है, जब सभी सरकारी कार्यालय बंद हो जाते हैं.’
‘सेल्फी’ खिंचवाने और भारतीयों को संबोधित करने के चलते वे विदेशों में तो बहुत लोकप्रिय होते जा रहे हैं पर अपने देश में उनकी विश्वसनीयता कम हो रही है
इसके अलावा सरकार के लिए मुश्किलें तब भी बढ़ी जब देशभर से लगभग 600 छोटे-बड़े सांप्रदायिक दंगों की खबरें आईं. पुणे में एक युवा आईटी कर्मचारी की हत्या का आरोप एक हिंदू अतिवादी संगठन पर लगा. मुजफ्फरनगर दंगों को भड़काने का आरोपी संजीव बालियान मोदी सरकार में शामिल हुआ. मुजफ्फरनगर दंगों के ही एक और आरोपी संगीत सोम को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया कराई गई. इन मसलों पर मोदी की चुप्पी से लोगों का मोहभंग हुआ और सरकार से उम्मीदों को लेकर उनकी बेचैनी बढ़ी. सरकार के महिलाओं से जुड़े मुद्दों को हल न कर पाने की वजह से मोदी के इरादों को लेकर आशंकाएं प्रकट की जाने लगी. भाजपा के घोषणा-पत्र में खास तौर पर शामिल किया गया महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा अभी भी अधर में है. कुछ संस्थानों को भंग करना (योजना आयोग) भी विवादों के विषय बने. ट्राई (संशोधित) विधेयक में बदलाव करना हो, नृपेंद्र मिश्रा की प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के रूप में नियुक्ति हो या हर्षवर्द्घन से स्वास्थ्य मंत्रालय लेकर उन्हें विज्ञान व तकनीकी मंत्री बनाना, ये सभी ही विवादों से जुड़े रहे.
‘बीते एक साल में मैंने एक दिन का भी अवकाश नहीं लिया है. मैंने दिन-रात काम किया. क्या मैंने कोई छुट्टी ली? क्या मैं आराम कर रहा हूं? क्या मैं अपने वादे पूरे नहीं कर रहा?,’ मोदी ने शंघाई में विपक्षियों पर चुटकी लेते हुए ये कहा था. एक मौके पर उन्होंने यह भी कहा कि मेरे बिना थके-हारे, लगातार काम करने की आलोचना हो रही है, मानो ऐसा करना अपराध हो, पर मैं ऐसा करता रहूंगा. अपनी पीठ थपथपाने के अंदाज में उन्होंने आगे कहा, ‘समय बदल रहा है, दुनिया अब भारत की तरफ अलग अंदाज से देख रही है. इसकी वजह बीते एक साल में सरकार का बेहतरीन प्रदर्शन है और भारत के सभी नागरिकों के लिए ये गौरव की बात है.’
मोदी विदेशी दौरों पर ‘सेल्फी’ खिंचवाने और वहां के भारतीयों को संबोधित करने के चलते वे विदेशों में तो बहुत लोकप्रिय होते जा रहे हैं पर अपने देश में उनकी विश्वसनीयता कम हो रही है. अपनी स्वीकार्यता और पहुंच बढ़ाने के लिए इससे पहले भी प्रधानमंत्री अपनी विदेश नीति का ही सहारा लेते आए हैं पर अगर किसी सरकार का मुखिया अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में ही इसका सहारा लेने लग जाए तो यह न तो प्रधानमंत्री के लिए और न ही सरकार के लिए अच्छा है.