भारत में क्रिकेट के लिए जूनून घड़ी के पेंडुलम की तरह दोनों दिशाओं में आवृत्ति करता है. टीम जीती तो वह सारे देश की आंखों की तारा हो जाती है और हारी तो खिलाड़ियों के घरों पर पत्थर पड़ने तक की खबरें आने लगती हैं. कुछ ऐसा ही टीम के कप्तान के मामले में होता है. कई कहते भी हैं कि भारत में राष्ट्रीय क्रिकेट टीम का कप्तान प्रधानमंत्री के बाद सबसे अहम व्यक्ति होता है.
लेकिन क्या यह सिर्फ भारतीयों का क्रिकेट के प्रति जूनून ही है जो इद दिनों भारतीय क्रिकेट टीम और उसके मुखिया महेंद्र सिंह धोनी को संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है? या फिर बात कुछ और भी है ?
सचिन तेंदुलकर के बाद धोनी भारत के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर हैं. बतौर कप्तान धोनी 2007 में ट्वेंटी ट्वेंटी वर्ल्ड कप जीते. 2008 में उन्होंने टेस्ट टीम की कमान संभाली और एक साल के भीतर ही भारतीय टेस्ट टीम खेल के इस संस्करण की रैंकिंग में पहले स्थान पर पहुंच गई. धोनी से पहले कोई भी भारतीय कप्तान ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया था. फिर मार्च 2011 में वह दिन या कहें कि रात भी आई जब धोनी की कप्तानी में भारत वन डे क्रिकेट का चैंपियन बना. 2013 में भारत चैंपियंस ट्रॉफी भी जीता. क्रिकेट के अलग अलग प्रारूपों में ऐसी उपलब्धियां हासिल करने वाले धोनी एक मात्र कप्तान हैं.
लेकिन आज भारतीय टेस्ट टीम रैंकिंग में पांचवें स्थान पर है. जो क्रिकेट प्रशंसक धोनी -धोनी जपा करते थे आज वे ही धोनी के टेस्ट टीम की कप्तानी क्या बल्कि उनके टेस्ट टीम में होने तक पर सवाल उठा रहे हैं. हाल में ही खत्म हुए इंग्लैंड दौरे में भारतीय टीम लॉर्ड्स में 28 साल बाद टेस्ट मैच जीतने में कामयाब रही. लेकिन उसके बाद वह लगातार तीन टेस्ट मैच हार गई. हार क्या गई बल्कि कहिए तो ध्वस्त हो गई. ओवल में हुए सीरीज के अंतिम टेस्ट में तो टीम पारी और 244 रनों अंतर से हारी. 1974 से ओवल के इस टेस्ट के बीच की अवधि में भारतीय टेस्ट टीम को ऐसी बुरी पराजय कभी नहीं झेलनी पड़ी थी.
सीरीज के बाकी दो टेस्ट मैचों पर नजर डालें तो टीम और कप्तान की कमजोरियों का एक पिटारा सा खुलता है. साउथेम्प्टन में 266 रनों की हार और मैनचेस्टर में एक पारी और 54 रनों की हार. इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है लार्ड्स टेस्ट को छोड़ भारतीय टीम बाकी के टेस्ट मैचों के दौरान इंग्लैंड की टीम से किसी भी स्तर पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई. साउथेम्प्टन के टेस्ट मैच में जो 13 सत्र थे उनमें हर एक में भारतीय टीम 19 ही ठहरी. वहीं मैनचेस्टर और ओवल टेस्ट मैचों में सीम और स्विंग करती गेंदों के सामने भारतीय बल्लेबाजों की कलई खुल गई और टीम का पुलिंदा 150 से 170 रनों के बीच बंध गया. इसके बाद भी जब दौरे के आखिर में पूर्व इंग्लिश कप्तान नासिर हुसैन ने धोनी से पूछा कि आप दौरे को कैसे देखते हैं तो धोनी का जवाब था, ‘दौरा अच्छा था’. एक दशक में लगातार दूसरी बार इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज बुरी तरह से हारने के बाद कप्तान का ऐसा जवाब सुनकर कइयों को हैरानी हुई.
बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि भारतीय खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है
इससे कई अहम सवाल खड़े होते हैं. मसलन क्या भारतीय क्रिकेटरों की मौजूदा पीढ़ी के लिए टेस्ट क्रिकेट की कोई खास अहमियत नहीं है. अगर नहीं है तो क्यों? सवाल और भी हैं. जैसे कि आखिर क्या वजह है जो भारतीय टीम की क्रिकेट के इस लंबे संस्करण में इतनी दुर्गति हो रही है. यह भी कि खेल के आम प्रशंसकों के दिल में अब टेस्ट क्रिकेट की क्या जगह है?
दरअसल देखा जाए तो खेल का शास्त्रीय प्रारूप कहे जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में भारत की दुर्गति कुछ तो खिलाड़ियों और खेल प्रशासकों के रवैय्ये का नतीजा है और कुछ इस संस्करण के वक्त से तालमेल न बिठा पाने का. ज्यादातर लोग मानते हैं कि इसका नुकसान आखिरकार खेल को ही होना है.
पहले सवाल से शुरू करते हैं. टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से देखें तो भारतीय टीम लगातार नीचे लुढ़कती जा रही है. इंग्लैंड दौरे ने इस कथन पर मुहर भी लगा दी है. लेकिन दौरे के तुरंत बाद भारतीय टेस्ट टीम के अधिकांश खिलाडी चैंपियंस लीग (ट्वेंटी ट्वेंटी सीरीज) में जीतोड़ ताकत लगा रहे हैं. उधर, मैनचेस्टर टेस्ट मैच तीन दिन में ही हारने के बाद धोनी बोल रहे थे कि तीन दिन में हार का एक पहलू यह भी है कि अगला टेस्ट मैच शुरू होने पहले टीम को दो दिन का अतिरिक्त आराम मिल जाएगा. उनकी यह बात साफ संकेत देती है कि बतौर क्रिकेटर और टीम वे टेस्ट क्रिकेट से कितनी जल्दी छुट्टी लेना चाहते हैं. 2011 में लगातार दो विदेशी दौरों पर करारी हार के बाद कप्तान धोनी ने यहां तक कह दिया था कि 2013 के आखिर तक वे यह फैसला ले लेंगे कि उन्हें टेस्ट क्रिकेट आगे खेलना चाहिए या नहीं.
आखिर क्यों मौजूदा भारतीय खिलाड़ी इस खेल के लंबे प्रारूप को लेकर उत्साहित नहीं दिखते जबकि कहा जाता है कि टेस्ट क्रिकेट शास्त्रीय संगीत की तरह है जो सही मायने में खिलाड़ी की गहराई को परखता है. उसके खेल को संपूर्णता देता है. वर्तमान में क्रिकेट खेल रहे खिलाड़ियों ने 90 का वह दशक देखा है जब एकदिवसीय क्रिकेट की लोकप्रियता अपने चरम पर थी. यही वजह है कि उनके मन और खेल पर खेल के इस छोटे प्रारूप की बनिस्बत बड़ी छाप पड़ी. बाद में ट्वेंटी ट्वेंटी मैचों ने क्रिकेट के छोटे प्रारूप को नए आयाम दे डाले. इनका संबंध सिर्फ खेल से ही नहीं, उसमें छिपी कारोबार और नतीजतन आर्थिक मुनाफे से भी था. पांच दिन तक चलने वाले टेस्ट मैच से कहीं गुना ज्यादा मैच फीस खिलाड़ियों को तीन घंटे के एक आईपीएल मैच में मिलने लगी. टेस्ट मैच धैर्य और तकनीक की परीक्षा लेता है तो आईपीएल जैसे आयोजनों में धैर्य की दीवारों को तोड़ने की मांग रहती है. महेंद्र सिंह धोनी, रविंदर जडेजा, विराट कोहली, शिखर धवन, अश्विन आज एक दिवसीय क्रिकेट के माने जाने सितारे हैं, लेकिन बहुत से लोग हैं जो इन्हें तेंदुलकर, द्रविड़, कुंबले और गांगुली की कतार में रखने से हिचकते हैं. कहते हैं कि जो क्रिकेट खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट में सफल हो सकता है वह क्रिकेट की किसी भी विधा में सफल हो सकता है. तेंदुलकर, गांगुली और द्रविड़ की इस खूबी ने ही उन्हें क्रिकेट की हर विधा में सफल बनाया. मुरली विजय, चेतेश्वर पुजारा, शिखर धवन, विराट कोहली और अजिंक्य रहाणे ऐसे नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम के नए स्तंभ हैं. कोहली को जब से टेस्ट टीम में सचिन तेंदुलकर द्वारा छोड़ी गई जगह यानी नंबर चार पर बल्लेबाजी करने का मौका मिला है तब से मीडिया पंडित एक अति आशावाद से साथ उनमें नए तेंदुलकर को ढूंढ़ने का अथक प्रयास कर रहे हैं. लेकिन तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी ग्लैमर की चकाचौंध नहीं बल्कि विशुद्ध खेल के प्रति सम्मान का परिणाम होते हैं.
कुछेक अपवाद जरूर होंगे, लेकिन मौजूदा भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों के मन में टेस्ट क्रिकेट के लिए कितना सम्मान है यह तो टीम के मुखिया धोनी का रवैय्या काफी कुछ बतला देता है. बहुत से जानकार यह भी मानने लगे हैं कि इन खिलाड़ियों की तकनीक भी अब टेस्ट के लिए उतनी माकूल नहीं रह गई है. बल्लेबाजी को ही लें. ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट के इस दौर में छक्के-चौकों की अहमियत इतनी बढ़ गई है कि लगभग सारे बल्लेबाज अपने बल्ले को मजबूती से पकड़ते हैं ताकि शॉटों में जान आ सके. टेस्ट क्रिकेट, खासकर इंग्लेंड, दक्षिण अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में खेली जाने वाले टेस्ट क्रिकेट में सफलता के लिए जरूरी है कि बल्लेबाज बैट पर मजबूत पकड़ यानी हार्ड ग्रिप न बनाएं बल्कि गेंद की दिशा (Length) और उछाल (Bounce) को देखते हुए ग्रिप का इस्तेमाल करें. इंग्लैंड की परिस्थितियों में यही तकनीकी दिक्कत भारतीय बल्लेबाजो के पतन का कारण बनती रही है. दरअसल वहां की परिस्थितयों में गेंद सीम और स्विंग करती है. ऐसे में बल्लेबाज के लिए जरूरी होता है कि वह गेंद को जितना हो सके देर से खेले. मतलब गेंद को पूरी तरह से भांपने की कोशिश करे और फिर उसे सॉफ्ट हैंड्स के साथ खेले. लेकिन हुआ इसका उल्टा. भारतीय बल्लेबाज अपने अति उत्साह के चलते गेंद को जल्दी खेलने की कोशिश करते रहे. नतीजा टेस्ट सीरीज के आखिरी तीन मैचों में पूरी टीम का 150 -160 रनों के बीच पुलिंदा बंधने के रूप में सामने आया. यदि तकनीक की खामियां ढूंढने लगें तो बहुत कुछ मिल सकता है, लेकिन इन तकनीकी कमियों की जड़ बल्लेबाजों की उस ही प्राथमिकता में नजर आती है जिसका जिक्र लेख में पहले आ चुका है. यानी ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट.
एक आम व्यक्ति जो क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है वह टी-20 के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है. उसे टेस्ट क्रिकेट नहीं भाता
जहां तक स्पिनरों की बात है तो तो उनके लिए भी प्राथमिकता वही है जिसका जिक्र बल्लेबाजों के संदर्भ में आ चुका है. ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट के बाद से स्पिनरों की वह खेप खत्म होती दिख रही है जो गेंद को फ्लाइट कराना चाहती है या बल्लेबाज को फ्रंट फुट पर लाना चाहती है. आजकल स्पिनर ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट में छक्के-चौकों के डर से इतना भयभीत हैं कि गेंद को फ्लाइट कराने से डर रहे हैं. आर अश्विन, रविंदर जडेजा से लेकर हरभजन सिंह जैसे गेंदबाज तक लगभग हर गेंद पर कंधे का इस्तेमाल करते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इंग्लैंड दौरे पर भारतीय टीम में एक लेग स्पिनर जरूर होना चाहिए था. इंग्लिश बल्लेबाज लेग स्पिन के सामने कुशलता से नहीं खेल पाते. इसकी पुष्टि समकालीन इतिहास के महानतम लेग स्पिनर शेन वार्न के इंग्लैंड के खिलाफ रिकार्ड पर नजर डालने से भी होती है. वार्न हर एशेज श्रृंखला में इंग्लिश बल्लेबाजों को अपनी लेग स्पिन की धुन से परेशान कर दिया करते थे. भारतीय क्रिकेट में अमित मिश्रा और पीयूष चावला को छोड़ ऐसा कोई भी लेग स्पिनर नहीं है जिसे इस दौरे पर ले जाया जा सकता था. फिर यह भी है कि लेग स्पिनरों पर कप्तान धोनी का विश्वास हमेशा संदेह की नजर से देखा गया है. भारतीय टीम शुरूआती तीन टेस्ट मैचों में सपाट विकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी खेलने वाले रविंदर जडेजा के साथ उतरी. जडेजा अपनी गेंदबाजी से कम और इंग्लिश तेज गेंदबाज जेम्स एंडरसन के साथ विवाद के लिए सुर्खियां बटोरते रहे. यह विवाद न जडेजा की गेंदबाजी में कुशलता का सृजन कर पाया न भारतीय टीम के प्रदर्शन में. साफ है कि भ्रमवश या फिर मजबूरी के मारे भारतीय टीम उन खिलाड़ियों के साथ खेल रही है जो टेस्ट क्रिकेट के माकूल नहीं दिखते.
लेकिन क्या बात सिर्फ क्रिकेट खिलाड़ियों की कुशलता और अकुशलता तक जाकर खत्म हो जाती है? भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) और प्रसंशकों का इसमें कोई योगदान नहीं? कहते हैं कि किसी भी समाज की पहचान उसकी राजनीति में परिलक्षित होती है. उसी तरह भारत के क्रिकेट प्रशंसक की रुचि भारतीय क्रिकेट में परिलक्षित होती है. सवाल यह है कि क्या आज भारतीय क्रिकेट टीम का कोई आम प्रशंसक टेस्ट क्रिकेट को गंभीरता से लेता है. यदि हां तो फिर यह ‘हां’ टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम को सफलता के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर पा रहा?
शायद इसका जवाब उस विशाल बाजार के पास है जो क्रिकेट को क्रिकेट से ज्यादा जैकपॉट समझ रहा है और इसे जैकपॉट जैसा दिखाने में बीसीसीआई की अहम भूमिका है.एक तर्क यह दिया जाता है कि बोर्ड को सर्वाधिक राजस्व आईपीएल जैसे निजी उपक्रम से प्राप्त होता है. अगर देश में लोक सभा चुनाव हो रहे हों तो आईपीएल को मध्य पूर्व एशिया के क्रिकेट मैदानों जैसे शारजाह और आबू धाबी में कराने पर कोई आपत्ति नहीं होती. ज्ञात हो कि आईपीएल से पहले मध्य पूर्व एशिया में तकरीबन 13 सालों से भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान के साथ एक दिवसीय मैचों की एक सीरीज को छोड़ अन्य कोई भी मैच नहीं खेली है क्योंकि इन देशों को सट्टेबाजो का गढ़ बताया जाता रहा. लेकिन आज वैश्वीकरण और स्पोर्ट्स प्रोफेशनलिज्म के नाम पर शारजाह और आबू धाबी जेसे स्थानों पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती. इन जुमलों के पीछे जाकर कोई यह बात नहीं करना चाहता कि क्यों हर साल आईपीएल में भ्रष्टाचार का कोई न कोई मामला सुर्खियां बनता है या फिर क्यों देश की सर्वोच्च अदालत बोर्ड अध्यक्ष को आईपीएल की गतिविधियों से दूर रखने के लिए उन्हें अध्यक्ष पद से हटा देती है.
दुनिया के अधिकांश खेल आज बाजार की दिशाओं के अनुसार वक्त बेवक्त नियंत्रित और अनियंत्रित होते रहते हैं ऐसे में हर खेल को देखने वाली सर्वोच्च संस्था की यह जिम्मेदारी होती है कि वह किस हद तक खेल को खेल बने रहने दे और किस हद तक इसमें बाजार का योगदान हो. भारतीय क्रिकेट बोर्ड के संदर्भ में उक्त कथन संतुलन की अवस्था में नहीं दिखता. जब 90 के दशक में कोलकाता के ईडेन गार्डन्स में टेस्ट मैच होते थे तो एक लाख की क्षमता वाला यह मैदान खचाखच भरा होता था. लेकिन अब यही मैदान अपनी क्षमता के महज दस फीसदी दर्शकों का गवाह बन रहा है. भारत के अन्य टेस्ट मैदानों का भी यही हाल है. बताते हैं 80 और 90 के दशक में भारत के अधिकांश मैदानों में साधारण दर्जे के टायलेट भी नहीं थे लेकिन मैदान खचाखच भरे रहते थे. आज पूंजी की बयार में टॉयलेट तो विश्व स्तरीय हैं लेकिन टेस्ट मैचों के दौरान उनका प्रयोग करने के लिए लोग ही नहीं आते. दर्शकों की यह कम भीड़ भी टेस्ट स्तरीय खिलाड़ियों को हतोत्साहित करती है. कई यह भी मानते हैं कि पिछले दो दशक में आए सामाजिक बदलावों के चलते आज क्रिकेट प्रशंसकों के एक बड़े वर्ग के पास टेस्ट क्रिकेट के लिए समय ही नहीं है. उसे आईपीएल जैसे आयोजन ज्यादा आकर्षित करते हैं जिनका समय तब होता है जब ऑफिस का समय नहीं होता और जो फटाफट निबट जाते हैं. एक आम व्यक्ति जो क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है वह टी-20 के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है जिसे लाइव ड्रामा और एक्शन के साथ रिजल्ट चाहिए. उसे पांच दिन तक चलने वाला टेस्ट मैच देखना भारी लगता है.
साफ है कि यह टेस्ट क्रिकेट के लिए संकट काल है. कुछ हद तक अंतरष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) भी इसके लिए जिम्मेवार है. क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था होने के बाद भी यह बीसीसीआई की महत्वकांक्षाओं पर लगाम नहीं लगा सकी. हालांकि दूसरी तरफ से देखा जाए तो क्रिकेट की इस सर्वोच्च संस्था की लगाम आज पूरी तरह से बीसीसीआई के हाथ में ही है. आज आईसीसी के मामलों में उसके पास सबसे ज्यादा वीटो पावर है. इस वीटो पावर के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत से आने वाली स्पांसरशिप और राजस्व है. बीसीआई नहीं तो आईसीसी का क्या होगा, यह सवाल बीसीसीआई अधिकारियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से आईसीसी के सामने खड़ा किया जाता रहा है. जिन एन श्रीनिवासन पर बतौर बोर्ड के अध्यक्ष और चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक के रूप में हितों के टकराव का आरोप लगा आज वे ही आईसीसी के चेयरमैन हैं और भारत की सर्वोच्च अदालत आईसीसी के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती. फलस्वरूप, ग्लैमर, चकाचौंध, चीयर गर्ल्स और दर्शकों का रुझान सब कुछ बीसीसीआई के हिसाब से चल रहा है. यह आर्थिक शक्ति भारत के उस मध्यवर्ग को बहुत लुभाती है जो भारत को विश्व पटल पर एक महाशक्ति के रूप में देखना चाहता है. यह भी एक वजह है कि टेस्ट क्रिकेट पुराने जमाने की किसी बात की तरह देखा जा रहा है तो ट्वेंटी ट्वेंटी क्रिकेट के भविष्य के रूप में.
जिन श्रीनिवासन पर बोर्ड के अध्यक्ष और चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक के रूप में हितों के टकराव का आरोप लगा आज वे ही आईसीसी के चेयरमैन हैं
ऐसे में सवाल उठता है कि फिर सारा दोष खिलाड़ियों पर डालना कितना वाजिब है. जानकारों का एक वर्ग है जो मानता है कि कुछ तो खेल खिलाड़ी को बदलता है और कुछ खिलाड़ी भी खेल को बदलते हैं. इस लिहाज से टेस्ट क्रिकेट में भारतीय टीम की दुर्गति में उसके खिलाड़ियों का अहम योगदान तो है ही. कप्तान धोनी को ही लीजिए. पूर्व ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर और दिग्गज इयान चैपल तो अभी से कह चुके हैं कि यदि धोनी टेस्ट मैचों में ऐसे ही कप्तानी करते रहे तो भारतीय टीम को साल के अंत में आस्ट्रेलिया में फिर से 4-0 से शिकस्त झेलनी पड़ेगी. गौर से देखा जाए तो पता चलता है कि भले ही बतौर कप्तान धोनी की रणनीतियां क्रिकेट के छोटे प्रारूप में उन्हें बहुत सी सफलताएं दिला चुकी हैं, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में उनकी यही रणनीतियां टीम को हार की और लेकर जाती हैं. कहते हैं कि टेस्ट क्रिकेट में आक्रामकता ही सुरक्षा का सबसे बेहतरीन तरीका है. लेकिन धोनी किसी छोटी सी साझेदारी के बनने से पहले ही ऐसी फील्डिंग लगा लेते हैं मानो किसी एक दिवसीय मैच के अंतिम ओवरों के लिए फील्डिंग सजा रहे हों. टेस्ट मैच के पहले दिन ही 20 वें ओवर तक लॉन्ग आन या फिर डीप मिड विकेट पर फील्डिंग लगाना गेंदबाज के उत्साह को तो कमजोर करता ही है, विपक्षी बल्लेबाज को रन बनाने का मौका भी देता है. यही वजह है कि आज क्रिकेट जगत में धोनी को एक सुरक्षात्मक कप्तान के रूप में जाना जाने लगा है.
साथ ही धोनी की बल्लेबाजी तकनीक टेस्ट क्रिकेट के लिए कितनी माकूल है, इस पर भी कई सवाल उठ रहे हैं. अगर बतौर बल्लेबाज उनके रिकार्डों पर नजर डालें तो महसूस होता है कि भारत में विकेटकीपर बल्लबाजों की एक ऐसी खेप जरूर रही है जो शायद टेस्ट में धोनी से बेहतर बल्लेबाजी कर सकते थे. कई साल तक तमिलनाडु के दिनेश कार्तिक घरेलू क्रिकेट में रनों का अंबार लगाते रहे . लेकिन एक दिवसीय क्रिकेट में धोनी की सफलता भारत के चयनकर्ताओं से लेकर जनमानस क को इस कदर प्रभावित करती रही की किसी ने धोनी से आगे देखने की कोशिश ही नहीं की.
धोनी आईपीएल में खेलने वाली एक टीम चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान हैं. इस टीम का स्वामित्व इंडिया सीमेंट्स नाम की एक कंपनी के पास है जिसके मुखिया वर्तमान आईसीसी चेयरमैन एन श्रीनिवासन हैं. धोनी इंडिया सीमेंट्स के वाइस प्रेसीडेंट भी हैं. हितों के इस टकराव पर चर्चा होती रहती है और दबी जबान में यह भी कहा जाता रहता है कि भारतीय टीम में उन खिलाड़ियों को तरजीह मिलती है जिनका संबंध चेन्नई सुपरकिंग्स से हो. इंग्लेंड दौरे पर कमेंट्री करते वक्त शेन वॉर्न ने रविंदर जडेजा को टेस्ट स्तर का गेंदबाज मानने से असहमति जता दी थी. ज्ञात हो कि जडेजा चेन्नई सुपर किंग्स के लिए खेलते हैं. कई आरोप लगाते हैं कि आर अश्विन, मुरली विजय, मोहित शर्मा आदि को भारतीय टीम में जगह मिलती है तो इसकी वजह यह भी है कि वे चेन्नई सुपर किंग्स के खिलाड़ी हैं. उधर, प्रज्ञान ओझा, अमित मिश्रा और उमेश यादव जैसे कई और नाम कुछ मैचों में मेहमान के तौर पर बुलाए जाते हैं और फिर बिना कोई मैच खेले अगले दौरे से बाहर कर दिए जाते हैं.
धोनी की मैदान के अंदर और बाहर की नीतियां भारतीय क्रिकेट आगे कहां लेकर जाती हैं इसका जवाब अगले साल आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में होने वाले विश्व कप तक मिल जायेगा. तब तक चयनकर्ता धोनी को ही कप्तान बनाए रखेंगे इसमें कोई संदेह नहीं दिखता. धोनी साल के अंत में आस्ट्रेलिया में तीन टेस्ट मैचों की सीरीज हारते हैं तो वे ऐसे कप्तान बन जाएंगे जिसका रिकॉर्ड घर से बाहर कप्तानी करने के मामले में सबसे खराब रहा है.
धोनी के समर्थक कहते हैं कि अगर धोनी नहीं तो कप्तानी का विकल्प कौन है. धोनी के विकल्प के रूप में देखे जा रहे विराट कोहली का प्रदर्शन इंग्लैंड में बहुत खराब रहा इसलिए टेस्ट कप्तानी के लिहाज से उनकी संभावनाएं भी कमजोर हुई हैं. लेकिन टेस्ट क्रिकेट में जिस प्रकार से भारत हार झेल रहा है उसे देखकर लगता है कि कप्तान कोई भी हो क्या कोई टीम इस से बुरा प्रदर्शन कर सकती है.
नयी सहस्त्राब्दी में भारतीय क्रिकेट टीम ने सौरव गांगुली की कप्तानी में जो सबसे बड़ी छवि बनाई थी वह यही थी कि अब भारतीय टीम उपमहाद्वीप के बाहर भी प्रतिस्पर्धा करती है. लेकिन धोनी की कप्तानी में यह छवि आसमान पर पहुंचने के बाद अब गर्त तक पहुंच गई है. लेकिन इसके बाद भी बीसीसीआई की ओर से वैसे कदम नहीं उठाए गए जो उठाए जाने चाहिए थे.
हार, हार होती है और बिना प्रतिस्पर्धा के हो जाए तो ज्यादा दुखदायी होती है. भले ही भारत एक दिवसीय क्रिकेट में चैम्पियन हो, लेकिन टेस्ट क्रिकेट में उसकी प्रत्येक हार खेल के हर प्रारूप में किसी न किसी तरह से उसके लिए नुकसानदेह ही होगी. गायक भले ही गीत गाए या गजल, रियाज की उपेक्षा आखिरकार उसका नुकसान ही करती है. इसलिए टेस्ट क्रिकेट के लिहाज से देखें तो बीसीसीआई और खिलाड़ियों की सोच और प्राथमिकताओं में बदलाव होना जरूरी है क्योंकि सवाल खेल का है और कोई भी खिलाडी खेल से बड़ा नहीं होता.