राजधानी दिल्ली के शाहदरा स्थित गुरु तेग बहादुर अस्पताल में लगी भारी भीड़ के बीच फेफड़ों की बीमारी से जूझ रहे 68 वर्षीय सुरेश चंद्र एक हाथ में अपनी मेडिकल फाइल और दूसरे में डॉक्टर का पर्चा लिए यहां संचालित ‘जन औषधि केंद्र’ की तरफ बढ़ रहे हैं. केंद्र सरकार की ओर से शुरू किए गए इस केंद्र पर बाजार की तुलना में काफी सस्ती दवाएं मिलती हैं. सुरेश को उम्मीद है कि उन्हें यहां सस्ती दवाएं मिल जाएंगी. हालांकि उन्हें निराशा हाथ लगी जब पता चला कि उनके इलाज के लिए लिखी गईं दवाएं जन औषधि केंद्र के स्टॉक में उपलब्ध ही नहीं हैं. निराश सुरेश कहते हैं, ‘मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं किसी निजी मेडिकल स्टोर से महंगे दामों पर ये दवाएं खरीद सकूं.’ इस केंद्र के बाहर तकरीबन आधा घंटा बिताने पर पता चला कि दवा की तलाश में आए 10 से 15 लोगों को भी सुरेश की तरह खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि दवाएं स्टॉक में मौजूद ही नहीं थीं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और हेल्थ एक्शन इंटरनेशनल की ओर से 2004-2005 में किए गए एक सर्वे से जुटाए गए आंकड़ों पर नजर डालने पर पता चलता है कि सरकार की ओर से चलाए जा रहे दवा केंद्रों पर सिर्फ 30 फीसदी जरूरी दवाएं उपलब्ध होती हैं. यह स्थिति तब है जब भारत दुनिया के बड़े दवा निर्यातक देशों में से एक है. विश्व भर में कहीं भी प्रयोग होने वाली हर पांचवीं गोली, कैप्सूल या इंजेक्शन भारत में बनी होती है.
2008 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने आम जन को कम दामों पर गुणवत्तापूर्ण जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए देश भर में जन औषधि केंद्र खोलने की योजना बनाई थी. इसके बाद रसायन मंत्रालय के तहत आने वाले औषधि विभाग ने राज्य सरकारों, रेड क्रॉस सोसायटी और कुछ गैरसरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर देश भर में जन औषधि केंद्र खोले थे. शुरुआती दौर में ऐसे तकरीबन 200 केंद्र खोले गए. तब सरकार ने घोषणा की थी कि देश के 660 जिलों में जन औषधि केंद्र खोले जाएंगे. हालांकि दवाओं की अनुपलब्धता और लोगों में ब्रांडेड दवाओं की तुलना में जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता और चिकित्सीय गुणों के प्रति जागरूकता की कमी के चलते आज सिर्फ 98 केंद्र ही ठीक तरह से काम कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, श्रीनगर में भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी की क्षेत्रीय शाखा की इमारत में संचालित जन औषधि केंद्र के पास केवल सौ दवाओं का ही स्टॉक है. भारतीय रेडक्रॉस सोसायटी (आईआरसीएस) की सचिव रोमा वानी कहती हैं, ‘जागरूकता की कमी के चलते चंद लोग ही जन औषधि केंद्र तक पहुंचते हैं.’ इस जमीनी हकीकत के बावजूद वर्तमान सरकार ‘जन औषधि’ अभियान को और व्यापक स्तर पर शुरू करने की योजना बना रही है. सरकार की तरफ से घोषणा हुई है कि देश भर में ऐसे ही हजारों केंद्र खोले जाएंगे. हाल ही में रसायन एवं उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने एक प्रेसवार्ता में दावा किया है कि सात राज्यों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर शुरुआती चरण में जन औषधि केंद्रों की संख्या 3000 तक बढ़ाई जाएगी और एक नई व्यापक योजना के तहत बाद में देश भर के सभी जिला अस्पतालों में ऐसे केंद्र खोले जाएंगे. यह प्रस्ताव महत्वाकांक्षी जान पड़ता है. इसका वास्तविकता में तब्दील होने का मतलब होगा देश की बड़ी दवा निर्माता कंपनियों द्वारा निर्मित ब्रांडेड दवाओं पर लोगों की निर्भरता कम होना व सस्ती जेनरिक दवाओं की आसानी से उपलब्धता. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी यह क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा.
वर्तमान में संचालित जन औषधि केंद्रों पर जरूरत की सिर्फ कुछ ही दवाएं मिलती हैं, जैसे- एंटीबायोटिक्स (प्रतिजैविक दवाएं), एनाल्जेसिक (दर्द निवारक दवाएं), एंटीपायरेटिक्स (बुखाररोधी दवाएं) और दर्द निवारक व एंटी इनफ्लेमेटरी (जलनरोधी) दवाओं का मिश्रण. सार्वजनिक क्षेत्र की पांच कंपनियां- इंडियन ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (आईडीपीएल), हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड (एचएएल), बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (बीसीपीएल), कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (केपीसीएल) और राजस्थान ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (आरडीपीएल) इन दवाओं का निर्माण कर रही हैं. सूत्रों के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की इन सभी इकाइयों को पुनरुद्धार की जरूरत हैं. नाम न छापने की शर्त पर मंत्रालय के एक सूत्र ने बताया, ‘तकनीक के लिहाज से इन इकाइयों में किसी भी तरह के बदलाव नहीं किए गए हैं. दवा निर्माण की ये इकाइयां या तो बंद पड़ी हैं या फिर दवा की बहुत ही काम सप्लाई कर रही हैं.’ जाहिर तौर पर सरकार इन कंपनियों को केवल नाम के लिए चला रही है. गरीबों को कम कीमत पर जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए स्थापित इन कंपनियों के वास्तविक उद्देश्य से वह बेपरवाह है. जन औषधि केंद्रों पर उपलब्ध दवाओं के स्टॉक में वे सभी जरूरी दवाएं होनी चाहिए जो केंद्र और राज्यों की सूची में होती हैं. हालांकि जो दवाएं इन केंद्रों से बेची जा रही हैं, वे सभी इन दवा कंपनियों में बनाने वाली दवा सूची से निर्धारित की जाती है.
इसके अलावा लोगों में भी यह धारणा बन चुकी है कि सस्ती जेनरिक दवाओं से ब्रांडेड महंगी दवाएं अच्छी होती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के वीपी चेस्ट संस्थान में औषधि विज्ञान विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर अनीता कोटवानी कहती हैं, ‘लोग अपनी ही सुविधा के लिए उपलब्ध जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा नहीं करते. दवा की दुकानों से जेनरिक दवा खरीदने को लेकर लोग अनिच्छुक नजर आते हैं क्योंकि इन दवाओं की गुणवत्ता के प्रति वे खुद सवाल उठाते हैं.’ कोटवानी औषधि वैज्ञानिकों की एक टीम के साथ जन औषधि केंद्र में उपलब्ध दवाओं की गुणवत्ता परखने का अध्ययन कर चुकी हैं. चार दवाओं पर किए गए अध्ययन में खुलासा हुआ था कि जेनरिक दवाओं के दाम बाजार में उपलब्ध अपने समकक्ष ब्रांडेड दवाओं के बराबर थे. साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निर्मित जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) के अनुरूप ठीक पाई गई. अध्ययन में कई महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए गए हैं, जैसे- अगर जेनरिक दवाएं उतनी ही अच्छी हैं जितनी कि ब्रांडेड दवाएं तो लोग आखिर क्यों ज्यादा महंगी दवाएं खरीदते हैं? सरकारी अस्पतालों में जब निःशुल्क दवाएं उपलब्ध नहीं होतीं तब क्या डॉक्टर मरीज को जेनरिक स्टोर से दवा खरीदने की सलाह देते हैं? इसके अलावा क्या डॉक्टर दवाओं को उनके जेनरिक नाम से लिख रहे हैं? भारतीय चिकित्सा परिषद (पेशेवर व्यवहार, शिष्टता एवं नैतिकता) अधिनियम 2002 में वर्णित है कि हर डॉक्टर को जहां तक संभव हो सके मरीजों के लिए दवाएं उनके जेनरिक नाम से लिखनी चाहिए और वह यह भी सुनिश्चित करेगा कि दवा की पर्ची और दवा का इस्तेमाल तर्कसंगत हो.
देखा जाए तो तकनीकी तौर पर हम सभी जेनरिक दवा ही खाते हैं. पेटेंट की निर्धारित अवधि बीतने के बाद दवाएं जेनरिक की श्रेणी में आ जाती हैं. कभी-कभी दवा निर्माण कंपनियां इन जेनरिक दवाओं को अपने ब्रांड नाम के साथ बाजार में उतारती हैं. इन्हें ‘ब्रांडेड जेनरिक’ दवाएं कहा जाता है. निजी मेडिकल स्टोर पर ब्रांडेड जेनरिक दवाएं मिलती हैं जो वास्तव में जेनरिक दवाओं के समान ही होती हैं, सिर्फ इनकी कीमत अधिक होती है. सार्वजनिक क्षेत्र निर्माताओं से दवाएं अनब्रांडेड जेनरिक के रूप में जेनरिक नाम से खरीदता है. सरकार सार्वजनिक अस्पतालों को दवा की आपूर्ति करने वाली निर्माण कंपनियों को एक निश्चित राशि मूल्यवर्धित कर (वैट) के तौर पर चुकाती है. दवा की कीमत में कोई अतिरिक्त लागत नहीं जोड़ी जाती. दूसरी ओर समान ब्रांडेड दवाओं की कीमत में इनका विज्ञापन खर्च जोड़े जाने से इनकी बाजार कीमत बढ़ जाती है. निर्माता, थोक विक्रेता और फुटकर विक्रेताओं को दी जाने वाली विक्रय योजनाओं का खर्च भी इन दवाओं के मूल्य से जोड़ा जाता है, जिससे ये और महंगी हो जाती हैं. इन योजनाओं के तहत फुटकर विक्रेताओं को सबसे ज्यादा लाभ दिया जाता है. एक निश्चित मात्रा की दवा की खरीददारी पर उन्हें कुछ दवाएं फ्री में मिल जाती हैं. इसके बावजूद फुटकर विक्रेता ग्राहकों को किसी तरह की छूट देने की जहमत नहीं उठाते.
भारतीय औषधि उद्योग का एक रोचक पहलू ये है कि विनिर्माता ‘ब्रांडेड’ और ‘ब्रांडेड जेनरिक’ उत्पाद बाजार में अलग-अलग कीमतों पर उतारते हैं. इसलिए मरीज द्वारा वहन दवा की लागत काफी हद तक इस कारक पर निर्भर करती है कि डॉक्टर उसे कौन-सी दवा लिखता है और दवा विक्रेता कौन-सी दवा देता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, देश में 3.2 प्रतिशत भारतीय दवाओं पर होने वाले क्षमता से अधिक खर्च के कारण हर साल गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं. भारत में स्वास्थ्य खर्च का 80 प्रतिशत हिस्सा जेब पर दबाव डालकर होता है. इसमें भी मरीज के इलाज के दौरान स्वास्थ्य खर्च का 70 प्रतिशत दवाओं की खरीद में जाता है. देश में दवाओं की कीमत और उपलब्धता ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 1995 (डीपीसीओ) के तहत निर्धारित की जाती है. इसके बाद डीपीसीओ के तहत राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) 1997 में गठित किया गया था जो औषधि विभाग के तहत आता है.
हैरान करने वाली बात ये है कि सरकार डीपीसीओ के अंतर्गत दवा निर्माण में जरूरी सिर्फ 74 तत्वों से निर्मित दवाओं की कीमत ही नियंत्रित करती है. बाकी की कीमतें दवा निर्माता निर्धारित करते हैं. वे दवाएं जो इन 74 दवा सामग्रियों के मिश्रण से बनती हैं ‘सूचीबद्ध दवाएं’ कही जाती हैं. इन दवाओं की कीमत जिनमें कुछ बेहद ही जरूरी दवाएं भी शामिल हैं, प्राय: कम रखी जाती हैं. बाकी गैर-सूचीबद्ध दवाओं की कीमत दवा निर्माता ही निर्धारित करते हैं. अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) और मूल्य के रूप में छपी अंतिम राशि का निर्धारण, खुदरा और थोक व्यापारियों को दिया जाने वाला लाभ आदि सभी पर निर्णय दवा निर्माताओं द्वारा ही लिया जाता है. आखिर में निर्माता दवा की कीमत एनपीपीए से पंजीकृत करा लेता है. मूल्य निर्धारण प्राधिकरण केवल यह निगरानी करता है कि गैर-सूचीबद्ध दवाओं की कीमत साल भर में दस प्रतिशत से अधिक न बढ़े. दवा निर्माताओं को एमआरपी निर्धारित करने का अधिकार देने का उद्देश्य दवाओं के एक मुक्त बाजार का निर्माण करना है जिससे कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा हो और दवाओं की कीमतें नीचे लाने में मदद मिले. हालांकि यह दवा नीति अब तक ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी.
कोटवानी अपने एक शोधपत्र में लिखती हैं, ‘दवा विक्रेता उन दवाओं को स्टॉक कर लेते हैं जो ज्यादा बिकती हैं. इससे यह संकेत मिलता है कि डॉक्टर कुछ चुनिंदा ब्रांडेड दवाएं ही मरीजों के लिए लिखते हैं. वैध रूप से औषधि विक्रेताओं को जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं के बीच विकल्प देने की अनुमति नहीं है. डॉक्टर द्वारा लिखे गए किसी दवा के व्यापारिक नाम को किसी अन्य दवा से बदला नहीं सकता है.’ वहीं मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के नियमों के मुताबिक, डॉक्टरों से उम्मीद की जाती है कि वह कम कीमत वाले जेनरिक संस्करण या ब्रांडेड जेनरिक दवाएं ही मरीजों को लिखें, ताकि लोग आसानी से उसे खरीद सकें.
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आंकड़ों के आईने में
- भारतीय दवा उद्योग वैश्विक उत्पादन के दस प्रतिशत हिस्से की आपूर्ति करता है. आपूर्ति की मात्रा के लिहाज से यह विश्व में तीसरे स्थान और मूल्य के लिहाज से 14वें स्थान पर आता है
- एंटी एचआईवी दवाओं की वैश्विक जरूरत का 30 प्रतिशत हिस्सा भारत में बनता है
- वैश्विक बाजार में भारतीय दवा उद्योग की हिस्सेदारी 2.4 प्रतिशत है
- भारतीय दवाएं अमेरिका, रूस, जर्मनी जैसे तकरीबन 200 देशों में निर्यात की जाती हैं. इसका लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ अमेरिका को निर्यात किया जाता है
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अपने शोध में शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि दवा निर्माता ब्रांडेड जेनरिक दवाओं को उनके समकक्ष पेटेंट दवाओं की तुलना में ऊंचे अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) पर बेच रहे हैं. इसमें इंजेक्शन भी शामिल हैं जो गंभीर रूप से बीमार मरीजों को लगाए जाते हैं. सरकारी अस्पतालों के पास बने निजी मेडिकल स्टोर इन महंगी दवाओं का स्टॉक रखते हैं और ऊंचे दामों पर मरीज के संबंधियों को बेच देते हैं. जैसा कि सरकार गरीब आबादी तक जरूरी दवाओं की पहुंच की प्रक्रिया में सुधार के लिए जन औषधि योजना को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है, ऐसे में दवा निर्माताओं, खुदरा विक्रेताओं और डॉक्टरों की भूमिका पर भी ध्यान देने की जरूरत है.
सरकार को सबसे पहले अपनी मूल्य निर्धारण पद्धति को लोगों के अनुकूल और दक्ष बनाना होगा. हाल ही में रसायन और उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने ‘फार्मा प्राइस डाटा बैंक’ का शुभारंभ किया है. यह एकीकृत औषध डाटाबेस प्रबंधन प्रणाली है. इसका प्रयोग दवा निर्माण/क्रय-विक्रय/आयात/वितरण कंपनियां ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013 के तहत बताई गईं जरूरी जानकारियां ऑनलाइन सबमिट करने के लिए इस्तेमाल कर सकेंगी. इसका प्रबंधन एवं संचालन राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण द्वारा किया जाएगा. हालांकि, इससे मरीजों को राहत तब तक नहीं मिलेगी जब तक सरकार मूल्य निर्धारण प्रणाली में कोई बदलाव नहीं लाती. इसके लिए सरकार को किसी दवा का अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) तय करने में निर्माताओं की तुलना में ज्यादा भागीदारी रखनी चाहिए. दूसरा, सरकारी फार्मेसी और जन औषधि केंद्र पर आपूर्ति प्रबंधन को मजबूत करना होगा.
रियाज़ वानी के सहयोग से