संपादकीय पेज की जगह खाली थी. नगालैंड के अखबारों- नगालैंड पेज, ईस्टर्न मिरर और मोरंग एक्सप्रेस के पाठक हैरान थे. राष्ट्रीय प्रेस दिवस, जो भारत में स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है, पर इन अखबारों ने संपादकीय पेज को कोरा छोड़ दिया था.
देश में आपातकाल के बाद प्रिंट मीडिया द्वारा विरोध करने का यह सबसे मजबूत तरीका इसलिए अपनाया गया क्योंकि असम राइफल्स के एक कर्नल ने मीडिया को धमकी भरा पत्र लिखा था. 25 अक्टूबर को सामने आए इस पत्र में इन अखबारों पर एक प्रतिबंधित संगठन की गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया गया था.
मोरंग एक्सप्रेस ने संपादकीय पेज खाली रखने का कारण बताते हुए लिखा, ‘सत्ता द्वारा स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है, उसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने के लिए हम संपादकीय पेज खाली छोड़ने का विकल्प चुन रहे हैं.’
असम राइफल्स ने इन अखबारों के अलावा ‘नगालैंड पोस्ट’ और ‘कैपी’ को भी उग्रवादी संगठनों के बयान न छापने के लिए कहा है. ‘कोई भी लेख जो उग्रवादी संगठन ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खापलंग)’ (एनएससीएन-के) की मांगें छापता है और उन्हें प्रचारित करता है वह गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1957 का उल्लंघन है और इसलिए आपके अखबार को ये सब नहीं छापना चाहिए.’ पत्र में आगे लिखा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एनएससीएन (के) को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया है. अधिसूचना की एक प्रति और उन लेखों को भी पत्र के साथ संलग्न किया गया है.
इस औपचारिक फरमान का उद्देश्य, जिसकी विषय-वस्तु में ‘गैर-कानूनी संगठनों को मीडिया का समर्थन’ लिखा है, नगा मीडिया को उग्रवादी संगठनों के विचारों को लिखने से रोकना है. इसके चलते मीडिया बिरादरी और दूसरे लोगों में गुस्सा है. नगालैंड पेज की मोनालिसा चंगकीजा मानती हैं, ‘असम राइफल्स ये सब नगालैंड में हथियारबंद संगठनों पर लगाम लगाने की अपनी असफलता से ध्यान भटकाने के लिए कर रही है.’
देश के दूसरे हिस्सों में भी गूंज रहे ताजा घटनाक्रम में कई पेंचिदा मुद्दे शामिल हैं. नगा संपादक इस घटनाक्रम को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार पर घोषणा के उल्लंघन के रूप में देखते हैं. ये घटनाक्रम आपातकाल के दिनों में प्रेस सेंसरशिप के फरमानों की याद दिलाता है जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार और नई दुनिया जैसे कुछ अखबारों ने अपने संपादकीय पेज खाली छोड़े थे.
नगालैंड का गठन 1963 में अशांत परिस्थितियों में हुआ था इस वजह से सामाजिक और राजनीतिक विरोधाभास इसे विरासत में मिले हैं. संपादक कहते हैं कि ऐसी स्थिति में सभी पक्षों की राय और स्थिति को रिपोर्ट करना जरूरी हो जाता है. नगालैंड के 6 अखबारों के संपादकों ने एक संयुक्त बयान में कहा है, ‘राज्य, गैर-राज्य और काॅरपोरेट से प्रभावित हुए बिना हम अपनी संपादकीय स्वतंत्रता को निभाते समय निष्पक्ष और गैर-पक्षपातपूर्ण रहेंगे.’
संपादकों के संयुक्त बयान पर असम राइफल्स ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, ‘मीडिया को स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट करने के लिए कभी मना नहीं किया गया. हालांकि प्रतिबंधित संगठन के द्वारा व्यावसायिक अधिष्ठानों को भेजे जबरन वसूली के नोटिस को छापना उस संगठन को फंड इकट्ठा करने के लिए उकसाने जैसा है, जिससे उगाही हुई रकम का इस्तेमाल सरकारी एजेंसियों और सुरक्षा बलों के खिलाफ विनाशकारी गतिविधियों में किया जा सके.’
राज्य में हालांकि चुनी हुई सरकार है लेकिन आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (आफ्स्पा) के निरंतर विस्तार के कारण सेना को अधिक शक्तियां मिली हुई हैं. असम राइफल्स ने कई मौकों पर उन संवाददाताओं पर आर्मी विरोधी होने का आरोप लगाया है जिन्होंने उनके आचरण पर सवाल उठाए. लेकिन सीधे तौर पर आरोप लगाने का सिलसिला इस वर्ष संघर्षविराम के उल्लंघन के बाद शुरू हुआ है. मोरंग एक्सप्रेस के एक प्रतिनिधि ने ‘तहलका’ को बताया, ‘जुलाई में जब हमारे एक रिपोर्टर ने तथाकथित रूप से असम राइफल्स द्वारा मारे गए दो बच्चों के बारे में सवाल पूछा तो उन्होंने हमें आर्मी विरोधी और प्रतिबंधित संगठन का समर्थक करार दे दिया.’
गौर करने लायक बात ये भी है कि जब संघर्ष क्षेत्र में रिपोर्टिंग की बात आती है तो सभी पक्षों की बात सुनना राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता दोनों के लिए एक सामान्य प्रथा है. नगालैंड पोस्ट के संपादक इस सेंसरशिप को असम राइफल्स द्वारा दी गई एक ढकी-छिपी हुई धमकी मानते हैं.
इसके अलावा, राज्य के प्रशासनिक और नागरिक मुद्दे असम राइफल्स के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते. यहां के अखबार खुद को भारतीय प्रेस काउंसिल के प्रति जवाबदेह मानने के लिए तैयार हैं. वे ऐसे मुद्दों पर राज्य सरकार के चुने हुए सदस्यों से मिलने के लिए भी स्वतंत्र हैं.