गोरखपुर से 40 किलोमीटर दूर एक गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरी कर रहे एक मित्र और तहलका के नियमित पाठक से दो-ढाई महीने पहले हुई बातचीत के दौरान एक बात सामने आई थी उसे तहलका के पाठकों से साझा करना जरूरी है. यह इसलिए जरूरी है क्योंकि इस अंक की कल्पना की एक कड़ी उस बातचीत से भी जुड़ी है. डॉक्टर साब ने कहा, ‘तहलका बहुत ही गंभीर और गरिष्ठ होती है, राजनीतिक विषयों पर ज्यादा केंद्रित होती है. हमारे जैसे राजनीति में कम रुचि रखनेवालों के लिए भी कभी-कभार कुछ आना चाहिए.’ तहलका अपने स्वभाव के मुताबिक ही डॉक्टर साब की इच्छा को पूरी कर सकता था. इसके लिए एक अदद अवसर और एक नए विचार की दरकार थी. मौका और दस्तूर की ताक में लगी तहलका की टीम को यह अवसर होली के रूप में मिला और विचार राजनीति और इतिहास से जुड़ी कुछ बेहद प्रचलित गप्पबाजियों के रूप में.
होली और ठिठोली का रिश्ता ऐसा ही है जैसे हमारी फिल्मों और साहित्य में वर्णित चोली और दामन का, बेहद गहरा, बेहद करीब. इसी मौके को ध्यान में रखकर इस अंक की आवरण कथा बुनी गई है. इसमें देश के गंवई और शहरी समाज के ताने-बाने में गुंथी हुई कुछेक गल्प कथाएं समाहित की गई हैं. इन कहानियों से हम सबका सामना चौक-चौबारों, चाय की दुकानों, पंचायतों, चलती ट्रेनों, रुकी हुई बसों, खाप की बैठकों, दारुल-शफा की अड़ियों, गंगा के घाटों पर जमनेवाली बैठकी में गाहे बगाहे होता रहता है. तर्क, सच्चाई और यथार्थ की जमीन से दो इंच ऊपर चलनेवाली ये कहानियां अपने कहन में जो भरोसा समेटे होती हैं और भाषा में जो छौंका लगाए होती हैं वह इसे न सिर्फ विश्वसनीय बना देता है बल्कि साल दर साल मौखिक रूप में आगे बढ़ते-बढ़ते इतना परिष्कृत और संशोधित हो जाता है कि एक पीढ़ी इन कहानियों पर यकीन करने लगती है.
लेकिन एक पत्रिका के रूप में तहलका की अपनी पत्रकारीय जिम्मेदारी भी है. जिम्मेदारी का तकाजा है कि कहानियां तो सबके सामने आएं लेकिन पाठकों को यह न लगे कि तहलका उन कहानियों का समर्थन कर रहा या उन्हें विश्वसनीय बना रहा है. जितने दिलचस्प तरीके से भारतीय समाज के बीच फैली इन कहानियों को पाठकों के सामने रखा गया है उतने ही तर्कसंगत तरीके से उन कहानियों की निर्मम पड़ताल भी की गई है. ज्यादातर कहानियां तर्क की कसौटी पर आकर दम तोड़ देती हैं. इन तमाम बातों से अलग एक सच्चाई यह भी है ही कि तमाम आधुनिकता, उदारीकरण और सूचना क्रांति के बावजूद एक बड़ा समाज इससे कटा हुआ है, उसकी अपनी अलग दुनिया है, उसके अपने सच हैं, उसका अपना इतिहास है, उसका अपना तर्कशास्त्र है. एक जरूरत के रूप में तार्किकता को अपनाना इस हिस्से में अभी भी शेष है. लेकिन यह होली का मौका है और इस मौके पर इन कहानियों से रूबरू होना बिल्कुल जायज है. इनमें से ज्यादातर कहानियां हंसाती हैं, गुदगुदादी हैं, थोड़ा परेशान भी करती हैं. लेकिन आप बुरा न मानें, सामने होली है.