‘एैसेई मरता-मारता फिरता रै कर पूरा दिन. तुझै सरम तो बिल्कुल रई नाय. जब देखो तब कोई न कोई तेरी शिकायत ई लिए खड़ी रैवै है. मैं तो छक गई तुझसै. इससै तो अच्छा था पैदा होते ई तेरा टैंटवा दबा देती’
मां मुझे देखते ही ऐसे ही अक्सर चिल्लाया करती थीं. ‘चाची तुमारे चींटे ने मेरे लौंडे के सिर में ईंट मार दई, इननै हमारे बिटोरे की हंडिया फोड़ दई, मेरे खेत मैं सै चने उखाड़ लाया’ बचपन के दिनों में ऐसी न जाने कितनी ही शिकायतें मेरी रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा थे. सारी शिकायतें मां के पास जातीं. मां झल्ला कर मुझे गालियां देतीं. झाड़ू, बेलन, फुंकनी, चिमटा- जैसे खाना बनाने में सहयोग देने वाला जो भी सामान उनके हाथ लगता उसी से वह मेरी ‘खातिरदारी’ शुरू कर देतीं. साथ में ऐलान भी करतीं- ‘न तुझे कुछ खाने-पीने को दूंगी, न अपने पास सुलाऊंगी. वो भीख मांगने वाली आएगी तो अबकै तुझै ई दे दूंगी. मेरा पिंड तो छूटेगा. मै कहां तक रोज-रोज सबकी औगार (शिकायत) सुनूं.’ मां के इतने प्रयासों का यह असर होता कि मैं एक-दो दिन बिल्कुल शरीफ सधे हुए बच्चे की तरह रहता. एकदम अनुशासित. ऐसे में मां सुबह-सुबह बड़े प्यार से उठातीं. छुलुए में पानी लाकर मेरा मुंह धोतीं. अपनी साड़ी के पल्लू से मुंह पोंछतीं और भीमसैनी काजल आंखों में आंजकर माथे पर टीका भी लगातीं. फिर बालों में सरसों का तेल लगाकर बारीक दांतों की कंघी से बाल काढ़ती. कंघी का टूटा दांता खोपड़ी में चुभता तो मैं उचक जाता. मां कहतीं, ‘मेरा बेटा तो राजा है. कित्ता सोयना मलूक लग रिया है. बस लोगों की औगार लाना और बंद कर दे तो कित्ता अच्छा हो जाए.’ मां आगे कहतीं, ‘देख बेटा शैतानी मैं कुछ नाय रखा. पढ़ने-लिखने मैं ध्यान लगा. बे-पढ़े की इस दुनिया मैं कोई कदर नाय है.’
समय बीता उम्र के साथ-साथ समझदारी बढ़ी और शैतानियां कम हुईं. पढ़ने-लिखने में रुचि बढ़नी शुरू हुई. मां छोटी-छोटी सफलताओं पर भी खूब प्रोत्साहित करतीं. कहतीं, ‘आज मेरे बेटे ने कित्ता अच्छा इमला लिखा है. स्कूल मैं किसी कू इत्ते पहाड़े याद नाय जित्ते मेरे बबलू कू.’ मां के इन प्रोत्साहनों ने जैसे जीवन की धारा ही बदल दी. मां साक्षरता के नाम पर सिर्फ अपना नाम लिखना जानती थीं. इसलिए निरक्षरता के दर्द से भी भली-भांति वाकिफ थीं. अपने बच्चों को खूब पढ़ा-लिखा देखना उनका एकमात्र सपना था. बड़े भाई और बहन पढ़ने में अच्छे थे. इसीलिए अगर उन्हें जरा-सा भी यह आभास होता कि मैं शरारतें ही करता रहूंगा, पढ़ूंगा नहीं तो वे विचलित हो जातीं.
मां झाड़ू, बेलन, खाना बनाने में सहयोग देने वाला जो भी सामान उनके हाथ लगता, उसी से वह मेरी ‘खातिरदारी’ शुरू कर देतीं
छठी-सातवीं कक्षा तक आते-आते मैं पढ़ने में ठीक होने लगा था. मां-पिताजी के अलावा भाई-बहन सभी की कोशिशों ने मुझे सकारात्मक दिशा की ओर मोड़ दिया था. पढ़ाई पूरी करने के बाद जब नौकरी मिली तो मां ने छलछलाती आंखों के साथ कहा, ‘देख ले, नाय पढ़ा होता तो आज कहीं सड़ रिया होता पड़ा जेल मैं.’ मैं नौकरी जॉइन करने चला गया. बहन ने बताया कि मां कई रोज तक देवस्थानों पर प्रसाद चढ़ाती घूमीं. संभवतः मेरा सुधार उनके जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी, जिसमें वह जीत गई थीं.
पिछली गर्मियों में मैं अपने बेटे को किसी बात पर डांट रहा था. मां बोलीं- ‘इसै काय कू डांट रिया है. यो बी तो तेरा ई खून है. अपने दिन याद कर ले. जब तू इसकी उमर का था तो तू बी तो ऐसा ई था.’ मां की बात सौ फीसदी सही थी. पर मां को मैं कैसे बताता कि मैं जरूर ऐसा था, पर मेरी मां तुम थीं. तुम्हारी गालियां वे मंत्र थे जिन्होने मेरे जीवन को रस-रंग से अभिसिंचित कर दिया. अनायास ही ये लाइनें याद आती हैं…
लहलहाती रहीं उम्र की डालियां
काम ये कर गईं मां तेरी गालियां…