पिछले साल वैलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी को जब पूरी दुनिया प्यार की खुमारी में डूबी एक-दूसरे को प्यार का पैगाम दे रही थी, तब सरिता (बदला हुआ नाम) बुरी तरह प्रताड़ित और अपमानित होकर खून से लथपथ अपने ही घर के एक कोने में डरी-सहमी पड़ी हुई थी. जिस आदमी से उसने टूटकर प्यार किया और दो साल पहले एक बेहद निजी समारोह में शादी की, वही अब उसे शारीरिक, मानसिक और बेइंतहां यौन प्रताड़ना दे रहा था. उस रोज सरिता के पति ने उसके निजी अंगों में टॉर्च डालकर बुरी तरह पीटने के बाद अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया था. उसे याद करते हुए वह बताती हैं, ‘जानवरों के जैसी उसकी वहशियाना हरकत उस दिन चरम पर पहुंच गई थी. मेरे शरीर को नोच-नोचकर उसने छिन्न-भिन्न कर दिया था. मेरे सीने और पैरों पर जहां-तहां उसके काटने के निशान थे. उस वक्त शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था.’ सरिता के साथ यह वहशियाना हरकत शादी के कुछ दिनों बाद ही शुरू हो गई थी. महीनों से जारी उत्पीड़न और पिटाई के दौर के बाद इस दर्दनाक यौन प्रताड़ना ने उस दिन को सरिता की जिंदगी का सबसे भयानक दिन बना दिया था. उसकी हालत देख उसके ससुरालवाले भी डर गए थे. वे उसे लेकर तुरंत अस्पताल भागे. अस्पताल में कई दिनों बाद जब वह होश में लौटी तो पता चला कि वह अपने अजन्मे बच्चे को खो चुकी है. सरिता के दर्द का अंत यहीं नहीं था. उसके दर्द का दौर अब भी जारी है. बच्चे को खोने से बुरी तरह टूट चुकी सरिता ने पति की प्रताड़ना के खिलाफ 17 फरवरी 2015 को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, मगर यहां से भी उसे निराशा हाथ लगी. शीर्ष अदालत ने उसकी याचिका पर सुनवाई करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उसका मामला जनहित का मुद्दा नहीं बल्कि बेहद निजी है.
इस साल 29 अप्रैल को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी ने राज्यसभा में एक सवाल का लिखित जवाब देते हुए बताया कि विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारत के संदर्भ में वैवाहिक रिश्तों में बलात्कार की अवधारणा पर विचार नहीं किया जा सकता. डीएमके की सांसद कनिमोझी ने यह सवाल उठाया था. इसका जवाब देते वक्त हरिभाई चौधरी 100 ईसा पूर्व के लगभग लिखी गई ‘मनुस्मृति’ में युवतियों और विवाहित स्त्रियों के रहन-सहन और आचार-व्यवहार की सदियों पुरानी मान्यताओं को समर्थन देते नजर आ रहे थे. कनिमोझी जानना चाह रही थीं कि ‘जबरदस्ती बनाए गए वैवाहिक संबंध’ को भी ‘बलात्कार’ की श्रेणी में लाने के लिए क्या सरकार भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करेगी?
बेडरुम में कानून का क्या काम |संजय हेगड़े | अधिवक्ता |
इसके जवाब में मंत्रीजी का यह तर्क था कि शिक्षा का स्तर या अशिक्षा, गरीबी, अनगिनत सामाजिक प्रथाएं और जीवन मूल्य, धार्मिक मान्यताएं, विवाह को संस्कार के रूप में देखने की समाज की मानसिकता आदि के चलते ‘विश्वस्तर पर वैवाहिक दुष्कर्म की परिभाषा को भारत में सीधे तौर पर लागू नहीं किया जा सकता.
‘सामाजिक मान्यताओं’ और ‘धार्मिक विश्वास’ के बारे में जब हरिभाई पार्थीभाई चौधरी बात कर रहे थे तो महसूस हो रहा था कि वे ‘मनुस्मृति’ में कही गई बातों को ही आगे बढ़ा रहे हैं. ‘मनुस्मृति’ में महिलाओं पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और ये बताया गया है कि कैसे एक महिला का कर्तव्य अपने पति को संतुष्ट रखना और उसकी आज्ञा मानना है.
सरिता कहती हैं, ‘जब एक लड़की की शादी होती है तब उसके बहुत सारे सपने होते हैं. जैसे- प्यार किए जाने का सपना और अपने साथी के साथ खुशनुमा जिंदगी बिताने का सपना… मगर हकीकत कुछ और ही होती है. मैं और मेरी जैसी दूसरी औरतें एक अलग ही खौफनाक हकीकत का सामना करती हैं.’ दफ्तर में ही सरिता को उनका प्यार मिला और उन्होंने शादी कर ली. उनकी शादी में सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि वह मुस्लिम परिवार से थीं और उनके पति हिंदू. अपने से पहले कुछ दूसरी युवतियों, जिन्होंने ऐसी ही स्थितियों का सामना किया था और जो इस दुविधा में रहीं कि अपने पति के लिए धर्म परिवर्तन करें या नहीं, सरिता ने हिंदू धर्म अपनाने का फैसला किया.
भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में मिली छूट को हटाने की जरूरत है क्योंकि यह बराबरी और किसी के जीने के संवैधानिक अधिकारों का हनन करती है. आपराधिक कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किए बगैर उसकी ‘सहमति’ को ज्यादा तवज्जो देना चाहिए
वृंदा ग्रोवर, अधिवक्ता
हालांकि जो एक पूर्ण प्रेम कहानी लग रही थी वो जल्द ही तमाम तरह की दुश्वारियों से घिर गई. सरिता का पति उन्हें बुरी तरह से पीटने लगा था, उन्हें अपमानित करने लगा था और कभी-कभी तो गर्म या ठंडा पानी डालकर बाथरूम में बंद कर देता था. सरिता बताती हैं, ‘मैं अपनी नौकरी पर ध्यान नहीं दे पा रही थी, क्योंकि प्रताड़ना के भयानक पल हमेशा आंखों के सामने तैरते रहते थे. मैं उन्हें भुला नहीं सकती थी. उन पलों की यादें मुझे डराती रहती थीं. वो दर्द अब भी मेरे जेहन में जिंदा है.’
सरिता उन तमाम महिलाओं में से एक हैं जो वैवाहिक बलात्कार का शिकार हुई हैं. ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे भारत के रोजमर्रा के जीवन में जगह नहीं मिलती. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 53 देशों में वैवाहिक बलात्कार अपराध नहीं है. इसमें पाकिस्तान, सउदी अरब के साथ भारत भी शामिल है. तकरीबन 10 प्रतिशत भारतीय महिलाएं ही अपने पतियों द्वारा यौन प्रताड़ना का शिकार हुईं हैं.
सरिता के मामले ने नई दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को 23 साल की पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म के मामले की भी यादें ताजा कर दी हैं. दोनों ही मामलों में दिखाई गई वहशियत लगभग एक जैसी है लेकिन कानून की नजरों में निर्भया के दोषियों को ही दुष्कर्म के मामले में सजा हो सकी. जबकि सरिता के मामले में पति को सजा नहीं हो सकी क्योंकि वैवाहिक रिश्तों में दुष्कर्म को अपराध नहीं माना जाता. आईपीसी की धारा 375 कहती है, ‘अगर एक युवती 15 साल से बड़ी हो तो उसके साथ पति द्वारा यौन संबंध बनाना, दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आता.’ इस अपवाद ने कानूनी पक्षकारों, एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक धड़े को कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने पर मजबूर किया. इस मामले को लेकर बहस और कानून बनाने की चर्चा गर्म है.
‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस !’ | अरविंद जैन | अधिवक्ता |
अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर बताती हैं, ‘कानून की इस धारा को हटाने की जरूरत है क्योंकि यह बराबरी और किसी के जीने के संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है. आपराधिक कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किए बगैर उसकी ‘सहमति’ को तवज्जो देनी चाहिए.’ अधिवक्ता करुणा नंदी महसूस करती हैं कि पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. करुणा कहती हैं, ‘कुछ लोग का ऐसा मानना है कि कुछ बलात्कार ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है.’ एनजीओ ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली विवाह संस्थाओं को सुरक्षा देने की सलाह पर गृह राज्यमंत्री को आड़े हाथों लेती हैं. वह कहती हैं, ‘यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए.’
यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. गृह राज्यमंत्री बेवजह विवाह संस्थाओं की वकालत कर रहे हैं. ऐसी संस्थाओं को चाहिए कि वे महिलाओं को भी वे ही अधिकार दें जो पुरुषों को मिले हुए हैं
मीनाक्षी गांगुली , ह्यूमन राइट वाच की दक्षिण एशिया प्रमुख
16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 के तहत हुआ एकमात्र सुधार ये है कि पति द्वारा पत्नी पर अलग रहने की स्थिति में (जब तलाक का मामला कोर्ट में चल रहा हो और वे न्यायिक रूप से अलग रह रहे हों) किए गए यौन शोषण को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376बी के तहत एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया. इसमें न्यूनतम दो और अधिकतम सात साल कैद व जुर्माने की सजा का प्रावधान है.
दोराहे पर राय | केएन अशोक | दीप्ति श्रीराम |
हालांकि ये बात उन नारीवादियों और इस मसले को लेकर काम कर रहे दूसरे कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने में नाकाम रही है जिनका मानना है कि विवाह के भीतर बनाए गए जबरन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. कानूनी जानकार अनिल कौल कहते हैं कि ये वास्तविक मुद्दे से भटकाने के लिए बनाया गया एक पर्दा है जिससे शोषण को ढका जा रहा है.
ऐसा करना समाज में फैले पाखंडों को नीतिगत बनाने की कोशिश है. वैसे कानून के जानकारों में कुछ संजय हेगड़े (देखें पेज 46) जैसे भी हैं जो ये मानते हैं कि घरेलू हिंसा या अलग रह रहे दंपतियों के मामलों को छोड़कर कानून को किसी की भी वैवाहिक निजता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. हालांकि उनके तर्क के खिलाफ वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘आईपीसी में धारा 498ए और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की व्यवस्था के बाद क्या निजी है और क्या सार्वजानिक, ये फर्क करना ही मुश्किल हो गया है. कानून तो उसी वक्त परिवार में आ जाता है जब वहां जान-बूझकर किसी महिला को नुकसान पहुंचाया जाता है.
पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. ये कहां का नियम है कि अपराध के एक जैसे मामले को दो चश्मों से देखा जाए. कुछ लोग ये तथ्य बताते हैं कि कुछ दुष्कर्म ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है
करुणा नंदी, अधिवक्ता
ग्रोवर की बात का समर्थन करते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (एआईपीडब्ल्यूए) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, ‘जब किसी बस या फुटपाथ पर हुआ बलात्कार कानून के दायरे में है तो बेडरूम में किया गया बलात्कार इससे बाहर कैसे हो सकता है?’
सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो हिंसा की नहीं | शालिनी माथुर| वरिष्ठ लेखिका |
वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने को लेकर हुई बहस में अब तक की सबसे बड़ा हस्तक्षेप आपराधिक कानून अधिनियम में संशोधन किए जाने के लिए बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी ने किया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे स्वर्गीय जस्टिस वर्मा के प्रतिनिधित्व में बनी इस कमेटी में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ और पूर्व सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम सदस्य थे. कमेटी का गठन 23 दिसंबर 2012 को किया गया था. कमेटी ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. कमेटी की अनुशंसा थी कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद की श्रेणी से हटा देना चाहिए (देखें पेज 43). तर्क ये दिया गया था कि वैवाहिक बलात्कार को माफी या छूट देना विवाह के साथ जुड़ी उस रूढ़िवादी मान्यता को पोषित करता है जिसके अनुसार बीवी को पति की जागीर या संपत्ति समझा जाता है.