शाकाहारी सरकार, कुपोषित नौनिहाल

malnutrition

मध्य प्रदेश के लिए कुपोषण एक ऐसा नासूर है, जिसे जितना कुरेदो दर्द उतना ही बढ़ता है. गाहे-बगाहे बहस में आने वाला यह मुद्दा बीते दो माह में फिर चर्चा का विषय बना, क्योंकि सरकार ने कुपोषण के खिलाफ अपने ही विभाग के तार्किक प्रस्ताव को खारिज कर दिया. राज्य के महिला एवं विकास विभाग ने चर्चा के लिए प्रस्ताव रखा था कि तीन जिलों- अलीराजपुर, मंडला और होशंगाबाद में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस) के तहत बच्चों को हफ्ते में 2 से 3 दिन अंडे खिलाए जाएं. प्रस्ताव के शुरुआती दौर में ही राज्य के जैन संगठनों ने विरोध करना शुरू कर दिया था. प्रभावशाली समुदाय के जरिये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रेरित किया गया कि वे इसका विरोध करें.

आखिरकार, फैसला यही हुआ कि आंगनबाड़ी में बच्चों को अंडा नहीं मिलेगा. मीडिया रिपोर्ट कहती हैं कि कट्टर शाकाहारी मुख्यमंत्री ने बच्चों को अंडा खिलाने के प्रस्ताव को खारिज किया. इन खबरों से ऐसा लगता है कि शासन व्यवस्था पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है. अव्वल तो यह निर्णय राज्य सरकार और शासन व्यवस्था के तौर-तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े करता है, साथ ही यह संकेत भी देता है कि कुपोषण को लेकर सामाजिक ही नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी पूरी तरह से अभाव है.

दाल-चावल, सब्जी, रोटी, खीर-मक्खन, सोया-पनीर कुछ भी हो, कुपोषण से निपटने के लिए अच्छे ही हैं. उसी कड़ी में अंडा भी ज्यादा पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत है. यदि आप सम्मान के साथ बिना भ्रष्ट आचरण के ये सब खिला सके तो कुपोषण तो कम हो ही जाएगा. इसमें कोई शक नहीं है. शक तो मंशा पर है कि क्या वास्तव में हम कुपोषण के पहाड़ को चढ़ने की मंशा रखते भी हैं. दाल कम पानी ज्यादा, पोषण आहार के पैकेट में बदबू, कभी मिले-कभी न मिले; कोई भरोसा नहीं; जो खिलाने की नीति बनाई उस पर अनैतिक क्रियान्वयन हावी हो गया. ऐसे में ही सरकार का कहना कि भले अच्छा हो, पर अंडे का विकल्प लागू न होगा. यह एक विकल्प है, अनिवार्यता नहीं.

दूध या अंडा ?

बात केवल अंडे तक सीमित नहीं है; न ही यह अंतिम विकल्प है. बात बेहतर पोषण, सहज उपलब्धता की है. बाल पोषण अधिकार की विशेषज्ञ डॉ. दीपा सिन्हा कहती हैं, ‘भोजन में विविधता महत्वपूर्ण है. यदि बच्चों को दूध, दाल, फल, सब्जी, अनाज, तेल मिल पाएं, तो भी सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरत पूरी हो सकती है. लेकिन एनएसएसओ और नेशनल न्यूिट्रशन मॉनीटरिंग ब्यूरो के अध्ययन बताते हैं कि ज्यादातर आबादी को विविधतापूर्ण भोजन नहीं मिल पाता. इस सूरत में बच्चों के लिए अंडा एक अनिवार्यता बन जाती है, क्योंकि प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों का दूसरा कोई बेहतर विकल्प भी नहीं.’

भारत में अक्टूबर 2014 की पौष्टिक अंतर्ग्रहण रिपोर्ट (एनएसएसओ) कहती है कि मध्य प्रदेश में लोगों को 70.7 प्रतिशत प्रोटीन अनाज से मिलता है. बाकी का 10.8 प्रतिशत प्रोटीन दाल और 9 प्रतिशत दूध से मिलता है. अनाज से मिलने वाला प्रोटीन अच्छी गुणवत्ता का नहीं माना जाता. प्रोटीन का अच्छा स्रोत दूध है, लेकिन ऊंची कीमत और शुद्धता के अभाव ने उसे समाज से दूर किया है. मध्यप्रदेश में 5 साल से छोटे बच्चों के दूध पर औसतन 54 रुपये मासिक (1.80 रुपये प्रतिदिन) खर्च होता है. अब मध्यप्रदेश सरकार भरोसा दिला रही है कि आंगनबाड़ी में बच्चों को सप्ताह में 2 से 3 दिन दूध मिलेगा.

‘अंडा केवल पोषण के लिहाज से ही नहीं, बल्कि किफायती और सुरक्षित भी है. इसे आसानी से पकाया जा सकता है और यह समुदाय में पोल्ट्री उद्योग को बढ़ावा देने में कारगर होगा. वैसे भी बच्चों को जो विविधताभरा भोजन चाहिए, वह संपन्न परिवारों को ही नसीब होता है’

वंदना प्रसाद, कम्युनिटी पीडियाट्रिशियन और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की पूर्व सदस्य

अंडे को लेकर जारी बहस के बीच राज्य खाद्य पदार्थ परीक्षण प्रयोगशाला की रिपोर्ट में सामने आया कि 2014-15 में दूध के 983 नमूनों की जांच में 282 यानी 29 प्रतिशत मिलावटी निकले. सीधी जिले में तो 100 फीसदी दूध मिलावटी निकला. जब 88 लाख बच्चों को नियमित रूप से दूध देने की बात हो रही है तो इस पक्ष को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है?   यह भी देखें कि आंगनबाड़ी में तीन दिन दूध देने के लिए महीने भर में 21.12 लाख लीटर दूध जरूरी होगा.

कोरकू आदिवासियों के साथ काम कर रही स्पंदन की सीमा प्रकाश कहती हैं, ‘आंगनबाड़ी में अगर बच्चों को अंडा मिला तो उनकी और महिलाओं की मौजूदगी बढ़ेगी. बच्चों की सही वृद्धि, निगरानी और स्वास्थ्य जांच भी हो सकेगी. यह पहल स्थानीय समुदाय को मुर्गी पालन के लिए प्रेरित करेगी, जो पूरे परिवार की पोषण सुरक्षा में भी योगदान देगा.’

जमीनी अध्ययनकर्ता और इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी (दिल्ली) में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाली एसोसिएट प्रोफेसर रीतिका खेरा मानती हैं, ‘अंडे बच्चों और लड़कियों के लिए पशु उत्पादित प्रोटीन का श्रेष्ठ स्रोत है. इसमें विटामिन-सी के अलावा हर पोषक तत्व मौजूद है. देश के 15 राज्यों में आंगबाड़ी और मध्याह्न भोजन में बच्चों को अंडा मिल रहा है. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगड़ी जातियों ने अंडे की राह में रोड़े अटकाए, लेकिन शाकाहारी परिवारों के लिए इसकी जगह दूध और केले दिए जा सकते हैं. यह एक पक्षीय निर्णय नहीं हो सकता.’ राष्ट्रीय पोषण संस्थान (हैदराबाद) ने भी अंडे को प्रोटीन का बेहतर स्रोत माना है. संस्थान ने वंचित तबकों, खासतौर पर बच्चों और महिलाओं के लिए इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने की सिफारिश की है. अंडे में लगभग सभी अमीनो एसिड्स मौजूद हैं. अगर एक किलोग्राम वजन के बच्चे को अंडा मिले तो उसे रोजाना 1.2 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होगी. इसके बजाय उसे यदि सब्जी और अनाज खिलाएं तो 2 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होगी.

शाकाहारी राज्य और शाकाहारी समाज 

यह जानना बेहद दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश में अंडे पर नीतिगत निर्णय जैन समाज के किसी कार्यक्रम के मंच पर ही होता है. ऐसे ही एक मंच से 2009-10 में अंडे की खिलाफत की जमीन तैयार की गई थी. इस साल फिर यही हुआ. शाकाहारी परिवार के बच्चे पर अंडा खाने की बाध्यता बेशक नहीं होनी चाहिए. उन्हें दूध-केले का विकल्प दिया जा सकता है. लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा नहीं हो रही. बस फैसला सुना दिया जाता है.  राज्य में आधे बच्चों और गर्भवती-धात्री महिलाओं को टेक होम राशन दिया जाता है, यदि चाहना हो तो अंडे के लिए अलग व्यवस्था बनाई जा सकती है.

शिवपुरी जिले में सहरिया आदिवासियों के बीच काम कर रहे अजय यादव कहते हैं, ‘पोहरी ब्लॉक में 24 तरह के पैकेट बंद आहार गांव की छोटी-छोटी दुकानों में मिल रहे हैं. उन पर पहले पाबंदी लगानी चाहिए थी. अंडा तो इनसे कहीं ज्यादा जरूरी है.’

‘द हिंदू’ और ‘सीएनएन-आईबीएन’ के वर्ष 2006 में किए गए अध्ययन से पता चला कि मध्य प्रदेश की 35 प्रतिशत जनसंख्या शाकाहारी है. जनगणना 2011 के मुताबिक, भारत में सबसे ज्यादा आदिवासी (1.52 करोड़) मध्य प्रदेश में रहते हैं. इनमें से 90 प्रतिशत शाकाहारी नहीं हैं. लेकिन इनमें कुपोषण इस कदर है कि 28.27 लाख बच्चों में से 71.4 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं. दलित बच्चों में 17.59 लाख में से 62.6 प्रतिशत कम वजन के हैं. फिर भी सरकार इन तबकों से कभी नहीं पूछती कि उन्हें अंडे से परहेज तो नहीं? जिस मंच पर ‘अंडा रहित पोषण’ का निर्णय लिया गया, वह सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे संपन्न तबकों का है. पोषण आहार कार्यक्रम का लाभ लेना उनकी प्राथमिकता में नहीं है.

नीति नहीं, राजनीति

मध्य प्रदेश में वर्ष 2008-09 में 67.15 करोड़ अंडों का उत्पादन हुआ, जो 2014 में बढ़कर 96.71 करोड़ हो गया. मछली पालन को लेकर मध्य प्रदेश सरकार की नीति कहती है, ‘बढ़ती आबादी, बेरोजगारी तथा पौष्टिक आहार में कमी की सूरत में मत्स्य पालन रोजगार के साथ प्रोटीन युक्त किफायती भोजन भी देता है (आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15).’ इसका मतलब है कि अंडे पर रोक सरकारी नीति नहीं, बल्कि एक खास संदर्भ और परिस्थिति में लिया गया निर्णय है. सितंबर 2007 में मध्य प्रदेश सरकार ने गंभीर कुपोषित बच्चों के इलाज के लिए प्रोजेक्ट शक्तिमान शुरू किया था. इसमें एक साल के लिए 19 जिलों के 38 विकासखंडों के 1000 गांवों में बच्चों को उबले अंडे और उबले आलू खिलाए गए. कुपोषणग्रस्त 10 हजार बच्चों का इलाज हुआ. सरकार का दबाव अंडे की जरूरत पर भारी पड़ता दिख रहा है. मार्च से अगस्त 2010 के बीच इंदौर के गांवों में पंचायतों की पहल पर 4123 गंभीर कुपोषित बच्चों को अंडे खिलाए गए. इससे 3077 बच्चों का वजन बढ़ा, 1452 बच्चे गंभीर से मध्यम श्रेणी में आ गए और 310 बच्चे सामान्य हो गए. इसके बावजूद 2010 में अटल बाल स्वास्थ्य और पोषण मिशन की स्थापना से ही अंडा देने का प्रावधान हटा लिया गया क्योंकि राज्य के तीन मंत्रियों- गोपाल भार्गव, अर्चना चिटनिस और जयंत मलैया को इस पर आपत्ति थी. अंडे का विरोध समाज ने नहीं किया. राज्य सरकार ने ही इसे रोकने की पहल की थी. जरा नजर उठाकर देखिए; समाज का एक हिस्सा कभी भी दूसरे हिस्से के खान-पान को रोकते हुए नजर न आएगा; फिर रोक की पहल कौन कर रहा है; जरा सोचिये!

इसके बाद भी कुपोषण प्रबंधन कार्यक्रमों की नीति बनाते समय अंडे के विकल्प की बात कही गई, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया. 1 जून 2015 को जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में राज्य की पशुपालन मंत्री कुसुम महदेले ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में कहा कि मछली या मांस खाने वालों को अंडा देने में कुछ गलत नहीं है. असल में वे राज्य को मछलीमय और कछुआमय बनाने की बात कह रही थीं. मध्य प्रदेश में 3 से 6 साल के बच्चों को स्वयं सहायता समूहों से गरम और पका हुआ पोषण आहार मिलता है. एक बच्चे के लिए 4 रुपये का बजट बहुत कम है. इस पर भी स्वयं सहायता समूहों से बिल पास करवाने के नाम पर रिश्वत मांगी जाती है. दूसरी तरफ टेक होम राशन की व्यवस्था में भी गुणवत्ता और मात्रा को लेकर सवाल उठते रहे हैं. टेक होम राशन में मिल रही खिचड़ी में नमक, हल्दी और तेल मिला होने से स्वाद में बदलाव और अजीब तरह की बू की शिकायत के चलते बच्चे, महिलाएं उसे नहीं खा पाते. प्रोफेसर ज्यां द्रेज कहते हैं, ‘पोषण आहार के लिए अंडा बेहतर विकल्प है.’

वस्तुतः जब यह स्पष्ट है कि पोषण आहार का एक खास स्रोत किसके लिए (समाज के उस तबके के लिए जो सामाजिक आर्थिक रूप से हाशिए पर धकेला गया है और जहां अंडा त्याज्य नहीं है) जरूरी खाद्य पदार्थ है. उस विषय पर सांस्कृतिक सवाल कौन (सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊंचे मुकाम पर बैठा समुदाय, जिसने कुपोषण का दंश ही न झेला हो) उठा रहा है! इस व्यवस्था में प्रभावशाली समुदायों द्वारा उठाई गई सांस्कृतिक आपत्तियों पर समावेशी शासन-व्यवस्था के तहत समाज से कोई चर्चा किए बिना सरकार तत्काल निर्णय ले लेती है कि सभी बच्चों को (जिनमें आदिवासी और दलित समुदाय के बच्चे सबसे ज्यादा हंै) अंडे के विकल्प से वंचित किया जाता है. यह विषय केवल आंगनबाड़ी, कुपोषण और अंडे तक ही सीमित नहीं है, यह अनुभव हमें राज्य और समाज के मौजूदा वर्ग चरित्र का दर्शन भी करवाता है.     l

‘प्रोटीन का मापन उसके जैविक मूल्य के आधार पर होता है. दालों और अनाज का जैविक मूल्य 60 और 70 के बीच है, जबकि अंडे में प्रोटीन का जैविक मूल्य 100 है. अंडे में अमीनो एसिड्स होने के कारण शरीर इसे सौ फीसदी सोख लेता है. इसे सरल शब्दों में समझें तो शाकाहारी भोजन से प्राप्त प्रोटीन का जैविक मूल्य पशु उत्पादों से कम होता है’

वीणा शत्रुघ्न, राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद की पूर्व उप-निदेशक

विदेशी तर्कों पर टिकी देसी ‘प्रगतिशीलता’

अंडे पर रोक का ऐलान करने के 48 घंटे के भीतर पीपुल्स फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) की देसी शाखा ने शिवराज सिंह चौहान को ‘प्रगतिशील अवॉर्ड’ थमा दिया. इसके लिए यह दलील दी गई कि अंडा खाने से हार्ट अटैक की 19 और डायबिटीज की 68 फीसदी आशंका बढ़ जाती है. इसके अलावा आंतों का कैंसर होने की बात भी पेटा की विज्ञप्ति में कही गई है. राष्ट्रीय पोषण संस्थान की पूर्व उप निदेशक वीणा शत्रुघ्न इन दलीलों को निराधार ठहराती हुई कहती हैं कि अव्वल तो ये विदेशों में हुए अध्ययनों पर टिकी हैं, जहां लोग फल-सब्जियों के बजाय शक्कर, वसा, सोडियम ज्यादा खाते हैं. उनके भोजन में मांस ज्यादा, अनाज कम होता है. नतीजा मोटापा, दिल की बीमारी और कैंसर के रूप में दिखाई देता है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ, जिससे साबित होता हो कि अंडा खाने से कैंसर और हार्ट अटैक का खतरा रहता है. अलबत्ता यह जरूर है कि गर्भावस्था में पोषण की कमी से कम वजन के बच्चे पैदा होते हैं. वे कहती हैं कि पेटा को पहले भारतीय संदर्भों में पोषण की जानकारी जुटा लेनी चाहिए.

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