10 अगस्त 2014. हम झारखंड की राजधानी रांची से खूंटी के लिए निकले हैं. यात्रा की शुरुआत में ही दो बड़े-बड़े स्कूल दिखते हैं. पहला वर्ल्ड क्लास स्कूल, दूसरा इंटरनेशनल स्कूल. इनकी भव्यता देखते ही बनती है. बताया जाता है कि ये पूर्वी भारत के चुनिंदा स्कूलों में से हैं. महंगे और हर तरह की सुविधाओं से संपन्न. कुछ आगे बढ़ने पर हिरण पार्क दिखता है. हिरणों की धमाचौकड़ी से भरे इस पार्क की खूबसूरती भी लाजवाब है.
लेकिन इस पार्क के बाद वही सड़क और उसके इर्द-गिर्द पसरा वीराना एक डरावना माहौल बनाने लगता है. थोड़ी ही देर बाद हम उस जिले में प्रवेश करने वाले हैं जो नक्सलवाद से जुड़ी घटनाओं के मामले में सबसे खूंखार आंकड़ा रखता है. माहौल में भय घुलना स्वाभाविक है.
लगभग एक घंटे के सफर के बाद हम खूंटी पहुंचते हैं. यह कस्बा जिला मुख्यालय भी है. माहौल में रक्षाबंधन की चहल-पहल के साथ दहशत भी घुली दिखती है. इसकी वजह स्थानीय अखबारों के पहले पन्ने में छपी एक खबर है. वैसे तो खबर यहां से बहुत दूर पलामू जिले की है. वहां के छोटकी कौडि़या नाम के एक गांव में माओवादियों ने तृतीय प्रस्तुति कमिटी यानी टीपीसी के 16 उग्रवादियों को रात में घेरकर मार दिया है. मार्च 2013 में चतरा जिले के कुंदा में टीपीसीवालों ने 10 माओवादियों को मार डाला था. खबर बता रही है कि माओवादियों ने उसी का बदला लिया है. पलामू में इस खबर से दहशत होने का अंदाजा स्वाभाविक है. लेकिन खूंटी में भी उसे लेकर इतना आतंक क्यों?
खूंटी चौक पर चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम से हम यह सवाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘टीपीसी-माओवादियों के टकराव का असर हमारे यहां भी पड़ेगा. यहां टीपीसी-माओवादी तो नहीं टकराएंगे, लेकिन वर्चस्व स्थापित करने के लिए दो-तीन ग्रुपों का टकराव होगा. फुटकर हत्याएं अचानक नरसंहार का रूप लेंगी. यह जिला और गर्त में जाएगा.’
उनकी आशंका गलत नहीं लगती. माओवाद या नक्सलवादी हिंसा की जब बात होती है तो अक्सर छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा, महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली, पश्चिम बंगाल के लालगढ़ या झारखंड के पलामू-सारंडा का जिक्र होता है. लेकिन इसी झारखंड में राजधानी रांची से सटे खूंटी की उतनी चर्चा नहीं होती जबकि नक्सलवाद के नाम पर होने वाली हत्याओं के आंकड़े में यह देश के सभी खतरनाक जिलों को पीछे छोड़ता है. पिछले पांच साल के दौरान यहां 498 लोगों की हत्या के मामले दर्ज हुए हैं. अपराध की कुल घटनाओं में हत्याओं का आंकड़ा यहां सबसे ज्यादा है. कभी इसी खूंटी से यह मुहावरा निकला था कि झारखंड में बोलना ही संगीत होता है और चलना ही नृत्य. लेकिन अब यहां लोग चलने और बोलने, दोनों से डरते हैं.
खूंटी में यह पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया यानी पीएलएफआई के खिलाफ चल रहे पुलिसिया अभियान ऑपरेशन कारो के परवान चढ़कर ढलान की ओर जाने का समय है. पुलिस कुछ दिनों से इस संगठन के खिलाफ अभियान चला रही थी. उसका दावा है कि कई उग्रवादी पकड़े गए हैं और हथियार भी जब्त हुए हैं. इनमें पीएलएफआई का जोनल कमांडर और सुप्रीमो दिनेश गोप के बाद संगठन में दूसरे नंबर का पदाधिकारी जेठा कच्छप भी है. कच्छप पर खूंटी व रांची के विभिन्न थानों में 56 से अधिक मामले दर्ज हैं जिनमें से 50 तो हत्याओं के ही हैं. चाय की दुकान पर ही हम पुरुषोत्तम से कहते हैं, ‘अब तो आपके यहां पुलिस ने पीएलएफआई के खिलाफ अभियान भी चलाया है. जेठा कच्छप पकड़ लिया गया है. अशांति के बीच शांति की कुछ उम्मीद तो जगी ही है.’ गंभीर मुसकान के साथ उनका जवाब आता है, ‘न तो एक जेठा कच्छप पीएलएफआई का वजूद था और न ही एक पीएलएफआई की वजह से खूंटी का यह हाल है. यहां हर कुछ किलोमीटर की दूरी पर किसी न किसी जेठा कच्छप का वास है और हर दूसरे इलाके में अलग-अलग पीएलएफआई टाइप संगठन हैं. हां, अपनी पीठ थपथपा लेने के वास्ते पुलिस के लिए यह बड़ी सफलता हो सकती है.’
पुरुषोत्तम की बात हंसी के साथ शुरू हुई थी जिसमें अब आक्रोश घुल गया दिखता है. लेकिन यह अटपटा नहीं लगता. खूंटी में तमाम लोग मिलते हैं जिनकी बातों में स्वाभाविक तौर पर हंसी का भाव होता है और बात निकलने पर उतने ही स्वाभाविक तौर पर गुस्सा. इसकी ठोस वजहें भी हैं. खूंटी की चर्चा भले ही मसलन पलामू, गिरिडीह, लातेहार, चतरा या सारंडा जैसे झारखंड के दूसरे नक्सल प्रभावित हिस्सों की तरह नहीं होती, भले ही देश के दूसरे खतरनाक इलाकों की सूची में इसका नाम नहीं दिखता, लेकिन सच यही है कि राजधानी रांची से सटा यह जिला अपने बनने के सात साल के भीतर ही ऐसा खतरनाक इलाका बन चुका है जहां औसतन हर रोज हत्याएं होती हैं. जहां हवाओं, रास्तों, पानी सहित हर चीज पर या तो अपराधियों का कब्जा है, या नक्सलवाद का खोल पहनकर रॉबिनहुड बनने की कोशिश करते गिरोहबाजों का या माओवादियों का या फिर जंगल माफियाओं का.
इलाके में काम करनेवाले और जनमाध्यम संस्थान से जुड़े प्रवीण कहते हैं, ‘यहां लकड़ी और लड़की माफियाओं का राज चलता है. उसी के लिए सब होता है. यहां कुछ भी हो सकता है. यहां नक्सलवादियों की खाल पहनकर माफिया गिरोहों को खड़ा करते हैं और फिर वे सबकुछ करते हैं.’ प्रवीण कहते हैं, ‘आप आंकड़ों की भाषा में खूंटी को समझने की कोशिश नहीं कीजिएगा. यहां हर वह बहू-बेटी थाने तक नहीं पहुंच पाती जिसके साथ अत्याचार होता है. हर सताया हुआ थाने तक नहीं पहुंच पाता.’ उनकी बात जारी रहती है, ‘आप इतना ही समझिए कि इस जिले का निर्माण ही इसलिए हुआ था ताकि राजधानी रांची का चेहरा साफ-सुथरा बना रहे. पास में जो अत्याचार-अनाचार हो, खतरनाक खेल हो उसका दाग खूंटी के माथे पर लगे. ताकि देश और दुनिया में यह छवि न बन सके कि झारखंड की राजधानी रांची सबसे अशांत शहरों में एक है.’
यह जिला अपने बनने के सात साल के भीतर ही ऐसा खतरनाक इलाका बन चुका है जहां औसतन रोज ही हत्याएं होती हैं
प्रवीण की बातों में दम लगता है. वे आंकड़ों के जरिये खूंटी जिले को नहीं समझने की सलाह देते हैं. फिर भी हम एक आंकड़े के जरिये समझने की कोशिश करते हैं. 2009 से 2014 के फरवरी महीने तक का यह आंकड़ा हैरान करता है. यह बताता है कि निर्धन जिला खूंटी खतरनाक होते हुए भी लूटपाट, डकैती आदि से उतना प्रभावित नहीं है, जितना कि हत्याओं से. यह विचित्र जिला है जहां अपराध के नाम पर दूसरे किस्म की घटनाएं कम होती हैं, हत्याएं ज्यादा. पांच सालों में इस जिले में सामान्य अपराध की घटनाओं के 343 मामले सामने आते हैं जबकि इसी दौरान 498 लोगों की हत्या के मामले दर्ज होते हैं. 2014 में ही फरवरी तक यानी सिर्फ दो माह के जो आंकड़े मिलते हैं वे बताते हैं कि इस दौरान 15 हत्याएं हो चुकी हैं जबकि डकैती या लूटपाट की एक भी घटना नहीं हुई है. एक आंकड़ा और मिलता है जो बताता है कि 2012 से 2014 के बीच पूरे राज्य में हत्या की 296 घटनाएं दर्ज हुई हैं जिनमें अकेले खूंटी में 62 घटनाएं दर्ज हैं. यानी कुल घटनाओं का 21 प्रतिशत. (बॉक्स देखें )
ये सारे आंकड़े बताते हैं कि खूंटी में स्थिति भयावह है. लेकिन जो बात ये नहीं बताते वह यह है कि स्थिति इससे कहीं ज्यादा भयानक हो सकती है. खूंटी में घूमकर, लोगों से बात करने के बाद अहसास होता है कि यहां हत्या भले ही आम बात है, लेकिन हत्या के बाद मामला दर्ज कराने की हिम्मत उतनी आम नहीं.
खूंटी में हैरान करने वाले और भी आंकड़े मिलते हैं. यहां आनेवाले अधिकारियों से जुड़ा आंकड़ा ही लीजिए जो बताता है कि यहां अधिकारियों का जी रत्ती भर भी नहीं लगता. जो आते हैं वे आने के दिन से ही जाने का जुगाड़ लगाते रहते हैं. खूंटी को जिला बने सात साल हुए हैं और अब तक यहां आठ पुलिस अधीक्षक और छह उपायुक्त आ-जा चुके हैं. पहले अधिकारी का औसतन कार्यकाल जहां 10 महीने का है वहीं दूसरे का 13 महीने का. ऐसे में जिले की कल्याणकारी योजनाएं कैसे चल रही होंगी और अपराध पर लगाम लगाने की क्या योजना बनती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है. खूंटी के साथ ही बने रामगढ़ जिले में इन पदों की पोस्टिंग के लिए करोड़ों की बोली लगने की बात कही जाती है जबकि खूंटी की पोस्टिंग आने पर तमाम पैरवियां पोस्टिंग टलवाने के लिए की जाती हैं.
2535 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला खूंटी 12 सितंबर 2007 को वजूद में आया था. सात सालों का सफरनामा देखें तो यही पता चलता है कि जब देश में अशांति-उपद्रव और हिंसा की धार कम करने का दम भरा जा रहा है तो यह इकलौता जिला है जो दिन-ब-दिन अशांति और हिंसा के रास्ते पर जाने को मजबूर है. यह झारखंड का वह जिला भी है, जहां आदिवासियों की सबसे अधिक बसावट है. कुल आबादी में करीब 73 प्रतिशत आदिवासी. इसी आदिवासी आबादी के बूते यहां के इतिहास में कई क्रांतिकारी आंदोलन हुए. अंग्रेजों से लड़कर बिरसा मुंडा के नायक बन जाने की कहानी हो या कोयलकारो आंदोलन की कथा या फिर दयामनी बरला के नेतृत्व में स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल की कंपनी के खिलाफ चली लड़ाई, इस इलाके में बसे आदिवासियों ने आंदोलन, क्रांति, साहस और पराक्रम की ऐसी कई मिसालें पेश कीं. लेकिन जैसे-जैसे हम खूंटी जिला मुख्यालय से मुरहू कस्बे की ओर बढ़ते जाते हैं, यही आदिवासी राज्य के किसी दूसरे जिले से आदिवासियों से ज्यादा निरीह और सहमे हुए दिखते हैं.
पीएलएफआई के पास अचानक इतनी ताकत कैसे आ गई कि उससे टकराने के बाद माओवादी तक अपना गढ़ छोड़ने को मजबूर हुए?
मुरहू बाजार में हमारी मुलाकात गंदरू मुंडा से होती है. वे कहते हैं, ‘हम क्या करें, हमारी मजबूरी है. पुलिसवाले समझते हैं कि हम साहेब या पाहनजी के आदमी हैं और साहेब या पाहनजी के लोग समझते हैं कि हम पुलिस के आदमी हैं. हम पर हर हाल में जुल्म होता है इसलिए अब जो लड़के हैं वे या तो इलाका छोड़ दूर-देस कमाने चले जा रहे हैं या फिर सच में किसी न किसी के आदमी हो जा रहे हैं.’ गंदरू आगे कहते हैं, ‘यहां रहते हुए जीने की जरूरी शर्त ही यह है कि किसी न किसी का आदमी होना पड़ेगा.’
साहेब और पाहनजी से उनका आशय दो लोगों से है. साहेब वे दिनेश गोप के लिए कहते हैं और पाहन जी कुंदन पाहन के लिए. दिनेश गोप पीएलएफआई का सुप्रीमो है. कुंदन पाहन यानी पहले भाकपा माओवादी संगठन में प्रमुख पदों पर काम करने के बाद अब स्वतंत्र रूप से काम करनेवाला उग्रवादी है. राजनेताओं, ठेकेदारों, माफियाओं के गठजोड़ के साथ नक्सलवाद की खाल ओढ़कर तरह-तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले ये दोनों नाम हाल के दौरान इस इलाके को सबसे ज्यादा अशांत करते रहे हैं. दोनों ने खूंटी जिले को दो हिस्सोंे में बांटकर अपने-अपने कब्जे में कर लिया है. अब सब कुछ इनकी ही मर्जी से तय होता है. कुंदन पाहन का गुट बुंडू, तमाड़ आदि इलाके में लोगों का उठना-बैठना-बोलना-चलना तय करता है तो दिनेश गोप का गुट जिले के बाकी हिस्से में अपना सिक्का जमाए हुए है.
गंदरू से हम आग्रह करते हैं कि वे इस इलाके के पुराने बाशिंदे हैं तो बताएं कि कैसे वीर बिरसा का यह इलाका इतना खतरनाक बन गया. गंदरू कहते हैं, ‘हम बताएंगे आपको. विस्तार से बताएंगे. हमें किसी का डर नहीं है. अधिक से अधिक कोई क्या करेगा? मार डालेगा! यहां रहनेवाला हर कोई हमेशा ही मरने को तैयार रहता है तो हम मार ही दिए जाएंगे तो कौन सा आश्चर्य हो जाएगा.’
गंदरू जो बताते हैं उसका लब्बोलुआब यह है–पहले इस इलाके में जयनाथ साहू नाम का गिरोह चलता था. उससे साहू जाति का वर्चस्व कायम हुआ. फिर सुरेश गोप नामक एक अपराधी हुआ. वह जयनाथ साहू से भिड़ने लगा, लेकिन उससे पार नहीं पा सका. बाद में सुरेश पुलिस द्वारा मार डाला गया. दिनेश गोप सुरेश का ही भाई है. सीमा सुरक्षा बल में काम करने वाला दिनेश ट्रेनिंग खत्म करके अपने गांव लप्पा बकसपुर में आया था. उसका भाई मारा गया तो वह फिर नौकरी करने नहीं गया. गांव में ही रहने लगा. उसने समाज बदलने का नारा लगाना शुरू किया और धीरे-धीरे झारखंड लिबरेशन टाइगर नाम का एक गिरोह बना लिया. गिरोह बनाकर उसने भी हत्याओं का खेल खेलना शुरू किया. वह रंगदारी भी वसूलने लगा. गिरोह के साथ जातीय अस्मिता जुड़ी. जो साहू जाति के वर्चस्व से परेशान थे वे दिनेश गोप के पक्ष में खड़े होने लगे. गोप भी साहू गिरोह से लड़ता रहा. इस बीच भाकपा (माओवादी) से अलग हुआ मसीह चरण पूर्ति दिनेश के संपर्क में आया. उसके पास माओवादी दस्ते में शामिल रहने का अनुभव था. दिनेश के पास गिरोह. मसीह पूर्ति के शामिल होते ही अचानक दिनेश गोप और उसका संगठन मजबूत हो गया. उसका दायरा बढ़ता गया. लेकिन जल्द ही वह यह भी समझ गया कि मसीह पूर्ति को साथ रखने के जो फायदे हो सकते थे, हो चुके हैं. गंदरू कहते हैं, ‘दिनेश ने पुलिस से मिलीभगत कर मसीह को जेल भिजवा दिया. मसीह जेल में जाकर राजनीति में भाग्य आजमाने लगा. उसने 2009 में जेल से ही खूंटी से विधानसभा चुनाव भी लड़ा और मजबूत उम्मीदवार के तौर पर दूसरे नंबर पर आया भी.’
रामायण बांचने की तर्ज पर गंदरू लगातार किस्सा सुनाते रहते हैं. कहते हैं ‘दिनेश शातिर है, उसने मसीह का उपयोग करने के बाद माफियाओं और राजनेताओं से संपर्क साधना शुरू किया. उनसे गठजोड़ करके वह आतंक और कमाई का दायरा बढ़ाने लगा. अब तक झारखंड लिबरेशन टाइगर पीएलएफआई हो चुका था. लगातार नौजवानों को अपने गिरोह में भर्ती कर दिनेश ने लेवी वसूली के धंधे का विस्तार किया. धीरे-धीरे दिनेश के गुट में इतने नौजवान आ गए कि माओवादियों को यह इलाका छोड़ना पड़ा. फिर दिनेश गोप के इशारे पर ही सब कुछ होने लगा.’
गंदरू की कहानी चलती रहती है. हमारे मन में सवाल उठता है कि टीपीसी और भाकपा माओवादी के बीच बराबरी का टकराव तो फिर भी समझ में आता है कि दोनों एक ही जगह से निकले हैं और दोनों में ताकतवर लोग हैं. टीपीसी को पुलिस का भी संरक्षण मिलता रहता है इसलिए टीपीसीवाले माओवादियों से आसानी से हार नहीं मानते. लेकिन पीएलएफआई के पास अचानक इतनी ताकत कैसे आ गई कि उससे टकराने के बाद माओवादी तक अपना गढ़ छोड़ने तक को मजबूर हुए? सवाल यह भी उठता है कि आखिर पीएलएफआई के पास इतना पैसा कहां से आता है कि वह इतने बड़े संगठन का विस्तार करने के साथ ही दर्जन भर स्कूल भी चलाने लगा है.
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बयान से साफ होता है कि अपराधियों को नक्सलियों की खाल ओढ़ाकर राज्य पुलिस ने ही इतने सारे संगठन खड़े किए
गंदरू से हम यह सवाल नहीं पूछते. हमें पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ती क्योंकि इन सवालों के आधिकारिक जवाब पहले से ही मौजूद होते हैं. खूंटी में पुलिस ने जब पीएलएफआई के खिलाफ अभियान शुरू किया तो तभी झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विधानसभा में यह बयान दिया कि टीपीसी, पीएलएफआई जैसे जो भी संगठन हैं वे सब बीडीराम ने खड़े किए थे. मुख्यमंत्री के तौर पर हेमंत द्वारा ऐसी बातें कहना कितना सही-गलत था, यह अलग बहस का विषय है. लेकिन बतौर मुख्यमंत्री जब वे यह कहते हैं तो साफ होता है कि अपराधियों को नक्सलियों की खाल ओढ़ाकर राज्य पुलिस ने ही इतने सारे संगठन खड़े किए हैं. यह भी स्पष्ट होता है कि आज अगर खूंटी खूबसूरत से खतरनाक इलाका बन गया है तो उसमें भी सरकार की भी अहम भूमिका है. दरअसल बीडीराम पहले राज्य के डीजीपी थे और अब पलामू से भाजपा सांसद हैं. मुख्यमंत्री के इस आरोप पर बीडीराम कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री को ऐसा कुछ भी बोलने से पहले सोचना चाहिए. जब खुद स्थिति नहीं संभाल पा रहे तो ऐसे बयान दे रहे हैं.’
यह तो दो नेताओं की बयानबाजी की एक बात हुई. खूंटी जिले में फैली अशांति की दूसरी कहानी भी है जो बताती है कि राजनीति और जंगल माफियाओं ने ही मिलकर इस इलाके को जानबूझकर इतना अशांत किया ताकि उनका खेल आसानी से चलता रहे. अभी हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में यहां से झारखंड पार्टी के एक उम्मीदवार एनोस एक्का भी थे. आम आदमी पार्टी से दयामनी बरला भी चुनाव मैदान में थीं. बरला समर्थकों को एनोस एक्का के लोगों द्वारा खूब परेशान करने की खबरें आईं. आप समर्थकों पर हमले भी हुए. एनोस के बारे में यह कहा जाता है कि चुनावी मैदान में उनकी ताकत की वजह सिर्फ यही थी कि उनके साथ पीएलएफआई ने समझौता किया था और इसके एवज में उनसे मोटी रकम ली थी. गिरफ्तार जेठा कच्छप भी पुलिस के सामने इकबालिया बयान में यह कह चुका है कि एनोस को समर्थन देने का फैसला दिनेश गोप ने लिया था और इसके लिए विशेष निर्देश भी जारी हुए थे. विधायक और ग्रामीण विकास मंत्री रह चुके एनोस पर अपराधियों को संरक्षण देने के िलए मुकदमा दर्ज हुआ. फिलहाल वे फरार हैं. हाल ही में आय से अधिक संपत्ति के एक मामले में 100 करोड़ रु से भी अधिक कीमत की बताई जाने वाली उनकी कई संपत्तियां कुर्क हुई हैं.
एनोस-दिनेश के गठजोड़ का खुलासा इस चुनाव के बाद हुआ. लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है. दरअसल खूंटी में राजनीति के पहले माफियाओं ने पीएलएफआई जैसे संगठनों को आगे बढ़ाया ताकि उन्हें जंगल काटने या लड़कियों की तस्करी करने में ज्यादा परेशानी न हो. दयामनी बरला कहती हैं, ‘हमें कुछ नहीं कहना लेकिन यह सोचना होगा कि आखिर क्यों सबसे साहसी, पराक्रमी और सकारात्मक नजीर पेश करनेवाला जिला आज इस खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुका है.’
दयामनी ज्यादा नहीं बोलतीं. वे जानती हैं कि आदिवासियों की सबसे ज्यादा बसावट वाले इस इलाके में अब बोलना भी उतना ही खतरनाक है, जितना चलना. जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, कभी इसी खूंटी से यह मुहावरा निकला था कि झारखंड में बोलना ही संगीत होता है और चलना ही नृत्य.
खैर! खूंटी के इलाके में हम आगे बढ़ते जाते हैं. शाम ढलते-ढलते यह साफ होता जाता है कि कैसे पीएलएफआई जैसा एक संगठन दिन-ब-दिन तेज रफ्तार से अपने दायरे का विस्तार करके खूंटी के अलावा गुमला, सिमडेगा और रांची शहर तक पहुंच जाता है और फिर अपने संगठन को फ्रेंचाइजी पर देकर झारखंड से सटे उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में और छत्तीसगढ़ के जशपरु जिले तक में फैल जाता है. राजनीति की शह पर पीएलएफआई बढ़ा है, यह भी साफ हो जाता है और जंगल माफियाओं ने इसे खड़ा किया और पुलिस परोक्ष तौर पर इसका सहयोग करती रही है, यह भी. इससे जुड़े कई किस्से सुनने को मिलते हैं जो कोरे नहीं होते.
जैसे खूंटी से आगे बढ़ने पर तिलेश्वर साहू का किस्सा सुनने को मिलता है. साहू झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष हुआ करते थे. कुछ माह पहले उनकी हत्या हो गई. बताया जाता है कि साहू ही थे जो एनोस एक्का को राजनीति में लाए थे. माओवादियों से परेशानी न हो और साहू से भी ज्यादा परेशानी न हो, इसलिए एनोस साहू जाति का विरोध करनेवाले दिनेश गोप के करीब हो गए और फिर पैसे से सहयोग करके पीएलएफआई को आगे बढ़ाने में लगे रहे.
सवाल उठता है कि आखिर कितना पैसा है पीएलएफआई के पास कि महज सात साल में यह किसी बड़ी घटना को अंजाम दिए या पुलिस से मुठभेड़ किए बगैर इतना फैल गया है और दहशत का पर्याय बनने के साथ ही इलाके के नौजवानों को अपने से जोड़ने में सफल भी रहा है. झारखंड पुलिस के पूर्व प्रवक्ता रहे एसएन प्रधान कहते हैं कि सिर्फ लेवी से ही पीएलएफआई की सालाना इनकम करीब 150 करोड़ रुपये है. प्रधान सिर्फ डेढ़ अरब रुपये सालाना की बात बताते हैं, लेकिन एक दूसरे पुलिस अधिकारी बताते हैं कि यह तो अकेले पीएलएफआई प्रमुख दिनेश गोप की कमाई है.
हम पीएलएफआई द्वारा लेवी वसूली का तरीका समझने की कोशिश करते हैं. मालूम होता है कि सरकारी कामों में लेवी लेने के साथ ही पीएलएफआई से खुद को जुड़ा बताने वाले लोग नौकरीपेशा जमात से भी हर माह लेवी वसूलते हैं. पेंशनधारियों से भी नियमित लेवी ली जाती है. इसके अलावा जिले के जंगल को कटवाने में भूमिका निभाकर वे जंगल के ठेकेदारों से भी मोटी कमाई करते हैं.
सिर्फ लेवी से ही पीएलएफआई की सालाना इनकम करीब 150 करोड़ रुपए है. कुछ यहां तक कहते हैं कि यह तो अकेले दिनेश गोप की कमाई का आंकड़ा है
खूंटी में घूमते हुए हमें दिनेश गोप के बारे में दूसरी बातें भी सुनने को मिलती हैं. कहा जाता है कि वह भविष्य में राजनीति के अखाड़े में उतरने के लिए अभी से ही बड़े स्तर पर तैयारी भी कर रहा है. लोगों का उस पर विश्वास जमा रहे इसके लिए वह इलाके में विद्या विहार नाम से कई स्कूल भी चलाता है. कुछ लोग बताते हैं कि पीएलएफआई को लोगों से मान्यता मिले, इसके लिए भी दिखाने का यह काम होता है. हालांकि इस स्कूल में काम करनेवाले शिक्षक साफ मना करते हैं कि पीएलएफआई से उनका कोई लेना-देना है, लेकिन सब जानते हैं. पीएलएफआई का जोनल कमांडर जेठा कच्छप भी पुलिस से इकबालिया बयान में कह चुका है कि ये स्कूल पीएलएफआई के सहयोग और संरक्षण में चलते हैं.
पीएलएफआई का स्कूल देखने हम इलाके के अंदरूनी हिस्से में जाते हैं. रनिया के कोटांगेर-गरई के पहाड़ी इलाके में बड़े परिसर में फैला स्कूल परिसर रांची के स्कूलों के कैंपस को झुठलाता है. वैसे आज स्कूल बंद है. मालूम होता है कि स्कूल में पढ़ाई के लिये नाममात्र की रकम ली जा रही है, मात्र 700 रुपये प्रति माह. इसी रकम में रहने, खाने और पढ़ने का कॉम्बो पैक ग्रामीण क्षेत्र की जनता के लिये किसी वरदान से कम नहीं. अनाथ बच्चों के लिए स्कूल में फ्री सेवा भी है. खेल का बड़ा मैदान भी दिखता है. घुड़सवारी होती है, यह भी पता चलता है. ऐसे दर्जन भर स्कूलों के बारे में जानकारी दी जाती है जिन्हें सुदूर इलाकों में चलाया जाता है. ग्रामीणों की इस स्कूल से सहानुभूति दिखती है. हम स्कूल देखने जाते हैं तो हम स्कूल के बारे में जितना पूछते हैं उससे ज्यादा कुछ नौजवान हमसे हमारे बारे में ही पूछते हैं. एक-एक सवाल कि आप कौन हैं, कहां से आए हैं, क्यों आए हैं, कहां जाएंगे, किसने बताया है स्कूल के बारे में आदि-आदि. हम उन नौजवानों से नहीं पूछते कि स्कूल का इतना बखान कर रहे हो और पीएलएफआई को महान संगठन बता रहे हो तो आखिर क्यों इसी संगठन ने इसी जुलाई में 400 सरकारी स्कूलों को बंद करवाकर 40 हजार बच्चों की पढ़ाई रुकवा दी थी. पढ़ाई तो उनके लिए भी जरूरी है, जो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. यह सवाल करने के अपने खतरे हैं सो हम सवाल को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं. स्कूल से आगे बढ़ने पर ही हमें यह जानकारी भी दी जाती है कि पीएलएफआई मजदूर संगठन नाम से एक एनजीओ भी चलाता है.
स्कूल देख हम लौटने को होते हैं तो अड़की में राजबीर से मुलाकात होती है. अड़की की पहचान खूंटी में भी सबसे खतरनाक इलाके की है. बीती जुलाई में यहीं पुलिस ने मुठभेड़ के बाद भाकपा माओवादी के सबजोनल कमांडर तुलसी दास उर्फ विशालजी को मार गिराया था. तुलसी पर दो लाख रुपये का इनाम था. राजबीर हमारा सवाल सुनने से पहले अपना सवाल पूछते हैं. कहते हैं, ‘आपने कभी गौर किया है कि हालिया वर्षों में इसी खूंटी से होकर रांची से सारंडा जानेवाले और अपराध-माओवादी मुक्त करनेवाले नेताओं की फौज आती-जाती रही है. लेकिन इस बीच खूंटी की ओर ध्यान किसी ने नहीं दिया, ऐसा क्यों?’ जवाब भी वे खुद देते हैं, ‘इससे भी समझ सकते हैं कि सरकारों की ज्यादा रुचि इलाके को अपराध मुक्त बनाने या आमलोगों के बीच शांति बहाली की बजाय कहीं और होती है. चूंकि सारंडा में कॉरपोरेट के लिए रास्ता खोलना था इसलिए वहां ऑपरेशन सारंडा बचाओ चला, लेकिन खूंटी निर्धनतम जिला है और यहां सबसे ज्यादा गरीब आदिवासी रहते हैं इसलिए यहां अभियान नहीं चलता. यहां जंगल एक संपत्ति थी जिसका नाश कर दिया गया है तो भला इस जिले के नागरिकों को बचाने के लिए विशेष अभियान क्यों कर चलता. दिल्ली तक से लोग क्यों बड़ी-बड़ी बातें इस जिले के लिए करते.’ राजबीर आगे बताते हैं, ‘खूंटी को सिर्फ खूंटी के हिसाब से नहीं देखिए. अब यह ऐसा जिला बन गया है, जो आसपास के कई जिलों में माओवादी और आपराधिक घटनाओं की नब्ज तय करता है. खूंटी में माओवादियों का प्रभाव कम हुआ है तो वे पास के जिलों में आतंक मचा रहे हैं. माओवादी जानते हैं कि वे चतरा और पलामू में टीपीसी से घिर चुके हैं और खूंटी-रांची सिमडेगा-गुमला आदि में पीएलएफआई का वर्चस्व बढ़ गया है, इसलिए वे बीच में पड़नेवाले लोहरदगा आदि जिले में अपने को मजबूत करने में लगे हुए हैं.’ उनकी बात जारी रहती है, ‘आपने सुना होगा कि अभी हाल में नवसशस्त्र पीपुल्स मोर्चा नाम से एक नए संगठन का जन्म हुआ है जो ग्रामीणों से जबरिया बच्चे मांग रहा था और नहीं देने पर ग्रामीणों की पिटाई भी कर रहा था. 40 बच्चों को गांव से उठा ले जाने की सूचना भी आई थी.’
‘अपने-अपने इलाके में एक संगठन बनाओ. जाति, अपराध, राजनीति का थोड़ा घालमेल करो. फिर क्रांति की बयार बहाने के बहाने तमाम कुकृत्य करते रहो’
राजबीर की बात हम ध्यान से सुनते हैं. वे गंभीर विश्लेषक की तरह आगे कहते हैं, ‘रांची शहर में अब पीएलएफआई मुठभेड़ करता है, पुलिस कुछ नहीं करती. पुलिस कुछ करेगी भी नहीं इनका. जो हो रहा है या अभी अभियान के नाम पर हुआ, वह दिखावे के लिए हुआ.’ वे आगे बताते हैं, ‘पीएलएफआई से सिर्फ एक पीएलएफआई के होने का खतरा नहीं है, नवसशस्त्र पीपुल्स मोर्चा जैसे कई पीएलएफआई खड़े होंगे, क्योंकि यह आसानी से नाम, दाम और काम, तीनों बनाने का जरिया बन गया है. खूंटी जिला बेरोजगारों का ध्यान एक नये धंधे की ओर खींच रहा है. अपने-अपने इलाके में एक संगठन बनाओ. जाति, अपराध, राजनीति का थोड़ा घालमेल कर. फिर उसमें लिबरेशन जैसा शब्द जोड़ो और नक्सलवाद के नाम पर क्रांति और बदलाव की बयार बहाने के बहाने हर तरह के कुकृत्य करते रहो.’ राजबीर चलते-चलते कहते हैं, ‘हम अपना नाम गलत बताए हैं आपको. असली नाम कैसे बताएंगे, रहना तो इसी इलाके में है.’
राजबीर से बात खत्म होती है. हम वापस खूंटी जिला मुख्यालय होते हुए रांची आते हैं. यहां मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती ऐसे संगठनों और माओवादियों को रोकने के लिए उत्साहित बयान देते हैं. कहते हैं कि आरपार की लड़ाई होगी. डीजीपी राजीव कुमार के मुताबिक माओवादी घटनाओं का असर कम हो गया है. 35 प्रतिशत कम हो गया है.
उनकी बात सही है लेकिन बात का दूसरा पक्ष वे नहीं बताते. माओवादी असर कम हुआ है, लेकिन पीएलएफआई का असर बढ़ा है. 2011 में कुल घटनाओं में माओवादियों की सहभागिता 59 प्रतिशत थी. 2013 में यह घटकर 35 प्रतिशत हो गई. यह राहत की बात लग सकती है. लेकिन यह राहत तब काफूर हो जाती है जब पता चलता है कि 2011 में पीएलएफआई की सहभागिता 15 प्रतिशत थी जो 2013 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई. इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि क्या पीएलएफआई जैसे संगठनों का अपराध अपराध नहीं होता. क्या सिर्फ माओवादियों से ही राज्य अशांत होता है? अगर हां तो क्या इसलिए कि माओवादी पुलिस से भी भिड़ते हैं और पीएलएफआई जैसे संगठन पुलिस से कभी नहीं भिड़ते बल्कि आमलोगों की रोजमर्रा की जिंदगी मुश्किल करते हैं.
इन सवालों का जवाब झारखंड में आधिकारिक तौर पर कोई दे भी नहीं सकता, क्योंकि यहां के मुख्यमंत्री ही पीएलएफआई से मुक्ति की बजाय पीएलएफआई के निर्माण और गठन की प्रक्रिया का इतिहास बताते हुए एक पूर्व डीजीपी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करके अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं.
आखिर में हमारी बात फिर दयामनी बरला से होती है. वे कहती हैं, ‘इस इलाके में भाजपा के नेताजी ही सांसद हैं पिछले कई टर्म से. उन्हें भी कुछ बोलना चाहिए, एक शांत इलाके के अशांत इलाके में बदलने पर भी उनका हमेशा खामोशी साधे रहना इलाके के लिए ठीक नहीं.’ दयामनी का इशारा कड़िया मुंडा की तरफ है. वही कडि़या मुंडा जो भाजपा के दिग्गज नेता हैं और पिछली लोकसभा के उपाध्यक्ष थे. लेकिन खूंटी की दुर्गति से उठे सवालों का जवाब कोई नहीं देना चाहता.
खूंटी और आसपास के इलाकों में ऑपरेशन कारो चलाने में अहम भूमिका निभाने वाले झारखंड के मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती को अब इस पद से हटा दिया गया है. सियासी गलियारों में चर्चा है कि यह फैसला कुंदन पाहन और पीएलएफआई, दोनों के दवाब में लिया गया. कहा जा रहा है कि ये दोनों ही संगठन खूंटी में पुलिस से आक्रामक अभियान के चलतेे उन्हें हो रहे नुकसान से चिंतित थे.
लेकिन खूंटी को हो रहा असल नुकसान यहां के आम बाशिंदों के सिवा किसी के लिए चिंता का सबब नहीं है.