जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की भयावह विभीषिका के बीच एक दिन राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खुद हेलीकॉप्टर से बाढ़ पीड़ितों के लिए खाने के पैकेट और फल गिराते नजर आए. यह दृश्य देखकर हमारे एक सहकर्मी ने टिप्पणी की कि उमर अब्दुल्ला को अंदेशा रहा होगा कि कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आकर यह काम करने लगें तो वे पीछे छूट जाएंगे. इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की तत्परता अपने-आप में एजेंडा सेट करती रही है. जम्मू-कश्मीर में भी उन्होंने जिस तरह ‘राजधर्म’ निभाया, उसकी भरपूर वाहवाही हुई. जिस तरह वे निजी तौर पर इस बाढ़ का जायजा लेते दिखे, और जैसे उन्होंने आगे बढ़कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी मदद की पेशकश की, इस पर कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी और दिग्विजय सिंह ही नहीं, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ तक ताली बजाते दिखाई पड़े. राहत और बचाव में स्थानीय प्रशासन की गैरमौजूदगी के लिए आलोचनाएं झेल रहे उमर अब्दुल्ला ने यह हल्की शिकायत जरूर की कि सारी राहत वर्दी वाले नहीं दे रहे हैं, वे भी काम कर रहे हैं जिन्होंने वर्दी नहीं पहन रखी है, लेकिन साथ में यह भी माना कि केंद्र और राज्य की तमाम एजेंसियों के आपसी तालमेल की वजह से जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को कुछ राहत मिली है.
जम्मू-कश्मीर के इस राहत अभियान की तुलना अगर पिछले साल केदारनाथ में चले राहत अभियान से करें तो खयाल आता है कि यहां वह अशोभनीय तमाशा नहीं दुहराया गया, जो कांग्रेस और बीजेपी ने उत्तराखंड में किया था. शायद इसलिए भी कि फिलहाल राज्य में मुख्यधारा के इन दो दलों का दखल वैसा नहीं है जैसा उत्तराखंड में है. फिलहाल कहा जा सकता है कि संकट की इस घड़ी को नरेंद्र मोदी ने अपने लिए एक अवसर में बदला और कश्मीरियों को एहसास कराने की कोशिश की कि वह उनके भी प्रधानमंत्री हैं. भारतीय सेना ने भी सही साबित किया कि वह सिर्फ कश्मीरियों पर गोली चलाने के लिए नहीं है, उनकी जान बचाने के लिए भी है.
हालांकि इस दौरान भी आम कश्मीरियों की यह शिकायत सामने आती रही कि बचाव में सैलानियों और वीआइपी लोगों को कहीं ज्यादा अहमियत दी जा रही है, स्थानीय बाशिंदे अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं. हमारे देश की पूरी व्यवस्था में आम और खास का जो फर्क है, उसे याद करते हुए यह शिकायत वैध भी मालूम पड़ती है. जम्मू-कश्मीर में जो तमाम सैलानी घूमने गए हैं, उनके समृद्ध-संपन्न घरवाले दिल्ली से अपने लोगों के लिए संदेश भेजने और उन्हें जल्दी निकलवा लेने में कहीं ज्यादा कामयाब रहे होंगे, इसमें संदेह नहीं. इसके अलावा बाढ़ में डूबे कश्मीर में ऊंचे होटलों और ऊंचे घरों से लोगों को निकालना आसान रहा होगा- सबसे ज्यादा परेशानी एकमंजिला मकानों और तंग गलियों में रहने वाले कमजोर लोगों ने झेली होगी, इसमें भी किसी को शक नहीं होगा. फिर दुहराने की जरूरत है कि हमारी पूरी व्यवस्था में जो कमजोर है, वह सबसे ज्यादा पिटता है और सबसे कम पाता है- आम कश्मीरियों को अगर बाढ़ के इन दिनों में अपनी पिटी हुई पुरानी हालत और बचाव में अपने छोड़े जाने की नई हकीकत तंग कर रही हो तो यह स्वाभाविक है. भूख, हताशा और परेशानी में वे कभी राहतकर्मियों और कभी मीडिया के साथ गुस्ताख हो उठते हों तो यह बात भी समझ में आती है.
यह अनुभव बताता है कि जम्मू-कश्मीर या किसी भी राज्य को बंदूकों के दबाव से नहीं, बराबरी और बिरादरी के भाव से ही जोड़ा जा सकता है
लेकिन दिल्ली में बैठे लोग जो बात समझ नहीं पा रहे, वह दूसरी है. वे तकलीफ की इस घड़ी में कुछ परपीड़क आनंद के साथ याद दिला रहे हैं कि कश्मीरी जिस सेना को निकाल बाहर करने की मांग करते रहे, वही उन्हें बचा रही है- सीमा पार से उन्हें कोई बचाने नहीं आ रहा. जाहिर है, दहशत, शिकायत, सियासत और इंसानियत की कहीं ज्यादा जटिल दुनिया को समझने की जगह वे उसका एक सरलीकृत भाष्य पेश कर रहे हैं जिसमें उन्हें न भारतीय सेना के जोखिम का एहसास है और न कश्मीरी नागरिकों की जिल्लत का. वे सेना के मानवीय अभियान की कीमत उस राजनीतिक दमन की वैधता के रूप में वसूलना चाहते हैं जो कश्मीर में बीते वर्षों में होता रहा है, जो, जाहिर है, हमें मंजूर नहीं होना चाहिए.
दरअसल हम चाहें तो इस सैलाब में सेना की भूमिका और कश्मीरियों की प्रतिक्रिया के बीच एक सबक सीख सकते हैं. गोली चलाती हुई सेना किसी को मंजूर नहीं होगी, जान बचाने वाली सेना का सब स्वागत करते हैं. सेना की मौजूदा भूमिका से अगर कश्मीरियों में यह एहसास जाग पाता है कि उन्हें भी भारत का नागरिक माना जाता है और उनकी भी जान की भारतीय राष्ट्र राज्य को परवाह है तो वे भारत के कहीं ज्यादा करीब आते हैं.
तो बतौर प्रधानमंत्री मोदी जम्मू-कश्मीर से जो रिश्ता अब जोड़ते दिख रहे हैं, उसका एक तकाजा यह भी है कि वह अब इस सूबे में अलगाव का जो एहसास है उसको ठीक से समझें और अपनी पार्टी को भी समझाएं. बाढ़ का यह अनुभव शायद कारगर ढंग से बता सकता है कि जम्मू-कश्मीर या किसी भी राज्य को बंदूकों के दबाव से नहीं, बराबरी और बिरादरी के भाव से ही जोड़ा जा सकता है. मुश्किल यह है कि कश्मीर पर प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का जो रुख रहा है, वह अब तक इस मानवीय सिद्धांत के बिल्कुल विरुद्ध रहा है. असली सवाल यही है कि जब यह सैलाब उतर जाएगा तो क्या कश्मीरियों को बचाने-बसाने की मानवीय पहल चलती रहेगी या फिर उनकी जान बचाने की एवज हम उन पर नई ज्यादतियों का जुर्माना लगाएंगे? एक सैलाब में लड़खड़ाते-उखड़ते जम्मू-कश्मीर के हाथ थामना एक बात है और आम दिनों में उसके बाजू उमेठ कर उसको यह याद दिलाना दूसरी बात कि हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं, तुम्हें कभी अलग नहीं होने देंगे.