आपकी इस भारत यात्रा का मकसद क्या था?
मेरी इस भारत यात्रा पहला मकसद यह था कि यहां जो नई सरकार आई है उसको समझना और उनसे संबंधों को आगे बढ़ाना. इसके अलावा नेपाल की वर्तमान परिस्थितियों में जिस प्रकार शांति प्रक्रिया आगे बढ़ रही है उसकी सफलता के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग भी चाहिए. चूंकि भारत हमारा करीबी देश है और उसका समर्थन भी जरूरी है. भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, भाजपा नेता राम माधव, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत तमाम नेताओं से हमने बात की. हमारी बातचीत के दौरान भारत के वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम को समझने में भी हमें काफी मदद मिली है.
क्या कहा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने आपसे?
उन्होंने भारत की नेपाल के प्रति सोच साफ की है. भारत, नेपाल में शांति और स्थिरता चाहता है. वह हमें हर संभव मदद देने को तैयार है, यह भारत के हित में भी है. वर्तमान सरकार यह चाहती है कि नेपाल में शांति प्रक्रिया जल्द पूरी हो. नेपाल के राजनीतिक दल इसके लिए मिलजुलकर काम करें. वहां का संविधान जल्द बने और लागू हो इसके लिए वहां के दल आपसी सहयोग करें. यही भारत की इच्छा है, यही भारत की नीति है. यही भारत का स्थायी भाव है.
क्या आप मानते है कि वर्तमान भारतीय सरकार नेपाल की संविधान सभा व इसके बनने की प्रक्रिया से वाकई सहानुभूति रखती है?
हां, भारत की यह पहले से ही नीति रही है, मनमोहन सिंह की सरकार की यही नीति थी. भारत के राजनीतिक दलों में विदेश नीति को लेकर कोई मतभेद नहीं होता है. सरकार बदलने से यहां की नीति नहीं बदलती है. वर्तमान भाजपा सरकार मनमोहन सिंह की विदेश नीति की निरंतरता की दिशा में काम कर रही है. मोदी जी ने जिस प्रकार दक्षिण एशियाई देशों को अहमियत दी है वह काफी सकारात्मक लक्षण है. हमें भी यही लगता है कि भारत में नेपाल के लिए काफी सकारात्मक माहौल है.
किन लक्षणों को आप सकारात्मक कह रहे हैं?
मोदी जी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुख को बुलाना, फिर नेपाल की यात्रा करना. ये सभी सकारात्मक लक्षण हैं. यहीं से सद्भाव आगे बढ़ा है. वह पिछले 17 वर्षों में नेपाल आए पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं. यह दिखाता है कि नेपाल उनके लिए महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है.
नेपाल इस वक्त जिस संकट से गुजर रहा है, खासकर संविधान सभा के मसले पर, जिसका आपने जिक्र भी किया है, इसमें आपकी जुबान में भारत के सद्भाव से आपकी और क्या उम्मीदें हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो भारत से क्या चाहते हैं?
पहली बात नेपाल का संकट कोई नया संकट नहीं है. जब तक यह संकट खत्म नहीं हो जाता है तब तक यह किसी न किसी शक्ल में सामने आता रहेगा. इसमें उतार-चढ़ावों का आना स्वाभाविक है. मेरा मानना है कि हम सही दिशा की ओर जा रहे हैं लेकिन नेपाल की कुछ राजनीतिक शक्तियां शांति प्रक्रिया को लेकर किए अपने वादों को भूल गई हैं. हमें समग्र शांति समझौते को निबाहना होगा. जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल जैसे दल संविधान सभा और जनता के प्रति सही जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं. अपने दिल्ली प्रवास में मैंने अपने और नेपाल हितैषी भारतीय नेताओं को इन सब परिस्थितियों से अवगत कराने की कोशिश की है. ताकि मैं उनके विचारों को इस संबंध में जान सकूं. इस वैचारिक आदान-प्रदान से नेपाल की शांति प्रक्रिया को मदद मिलेगी, ऐसा मुझे लगता है.
कहीं आपकी मदद की मांग हस्तक्षेप को आमंत्रण तो नहीं है?
देखिए, मैं किसी को नेपाल में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित नहीं कर रहा हूं. नेपाल एक संप्रभु देश है. नेपाल की राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां अपने हित-अहित का निर्णय लेने में सक्षम है. आपने मेरी बात का गलत अर्थ निकाला है. मैं शांति प्रक्रिया के संदर्भ में बात कर रहा हूं. संविधान सभा में आई रुकावट को हम शांति प्रक्रिया में आनेवाले उतार-चढ़ाव के तौर पर देखते हैं. आप जान लें कि अगर शांति प्रक्रिया अटकती है या फिर संघर्ष बढ़ता है तो इसका असर अड़ोस-पड़ोस पर भी अवश्य पड़ेगा.भारत में शांति के लिए नेपाल में शांति का होना बेहद जरूरी है. भारत चूंकि नेपाल का सबसे करीबी देश है, सो उसे इन परिस्थितियों से अवगत कराना आवश्यक था. इसमें भारतीय हस्तक्षेप को आमंत्रण जैसा कुछ भी नहीं है. भारत की सकारात्मक भूमिका से शांति प्रक्रिया को बल ही मिलेगा.
लेकिन मोदी जी तो शांति प्रक्रिया, खासकर संविधान सभा के मसले पर सर्वसम्मति के पक्षधर रहे हैं. अपनी नेपाल यात्रा के दौरान वे ऐसा बयान दे चुकें हैं, ऐसे में आपके समग्र शांति समझौतेवाले तर्क का क्या होगा. क्योंकि आपके अनुसार तो शांति प्रक्रिया को जारी रखने के लिए पूर्व में किए समझौतों का पालन करना ही होगा.
हां, यह बात सही है कि शांति समझौतों का पालन किए बगैर नेपाल संकट का सही समाधान नहीं निकलेगा. हम नेपाल के अन्य राजनीतिक दलों को यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं. जनता भी इसके साथ है. प्रश्न सर्वसम्मति या बहुमत का नहीं है, प्रक्रिया की नींव को बनाए रखने का है. जनता सिर्फ समग्र शांति समझौतों के पक्ष में है. हमें मोदी जी पर भरोसा है. वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह नेपाल की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप के पक्षधर नहीं दिखाई देते हैं. नेपाल में मोदी जी के आलोचक दरअसल पाखंडी हैं. जहां तक उनके बयान के विरोध की बात है तो आपको पता ही है कि उनके बयानों का किन लोगों ने विरोध किया था. ये वही लोग है जो भारत आकर अपने निजी हितों की पैरवी करते-करवाते हैं.
अब जनयुद्घ का औचित्य नहीं हैं. आज जनचेतना वहां नहीं खड़ी जहां वो नब्बे के दशक में थी. शांतिपूर्ण तरीकों से भी विरोधियों को हराया जा सकता है
शांति प्रक्रिया में गतिरोध की सबसे बड़ी वजह क्या है?
गतिरोध की सबसे बड़ी वजह यूएमल और नेपाली कांग्रेस का रुख है. ये लोग जनयुद्घ थमने के बाद हुए समझौतों पर से लगातार पीछे हट रहे हैं. वे उन्हें लागू नहीं करना चाहते. इस संविधान सभा में उन्हीं मुद्दों पर गतिरोध बरकरार है जिन पर पहली संविधान सभा पर गतिरोध बना था. आपको याद दिलाना चाहता हूं कि यूएमएल और एनसी तो पुरानी वेस्टमिंस्टर संसदीय प्रणाली को लागू करने को तैयार बैठे हैं. यह लोग तो 199० से ही राजा प्रदत्त संविधान और व्यवस्था से सहमत हो गए थे. यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और सर्व समावेशी लोकतंत्र की कोई जगह नहीं थी.
पर मधेसी भी तो आपके पक्ष में नहीं हैं, वो जाति की राजनीति कर रहे हैं और आप वर्ग की.
ऐसा नहीं है. कई मसलों पर उनकी हमसे सैद्घांतिक सहमति है. जैसे हम जिस राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की बात करते हैं, वे उससे काफी हद तक सहमत हंै. हम जिस आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं उसमें दलित, महिलाएं और अन्य शोषित अस्मिताओं का पूरा स्थान और सम्मान है. यूएमएल और एनसी प्रक्रिया के नाम पर प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संविधान के खिलाफ खड़े हैं. मधेसियों समेत सभी नई राजनीतिक शक्तियां संघवाद और सर्व समावोशी लोकतंत्र के पक्ष में हैं जबकि पुरानी राजनीतिक पार्टिया बदलाव नहीं चाहती हैं. हमारा मधेसियों से कोई बड़ा मतभेद नहीं है. जाति के मसले पर हम खासे संवेदनशील हैं.
अगर गतिरोध बना रहा तो क्या आप वापस जनयुद्घ छेड़ेंगे?
नहीं, आज के हालत के मद्देनजर जनयुद्घ छेड़ने का कोई औचित्य नहीं है. जनता की चेतना आज वर्ष 2००० के स्तर पर नहीं खड़ी है वह आगे आ चुकी है. नई वैचारिक ऊंचाई पर पहुंच चुकी है. अब पहले जैसे जनयुद्घ या रणनीति की बजाय निर्माण की नई योजनाओं व जनसंघर्ष को अंजाम देना होगा. आज प्रतिगामी शक्तियों को शांतिपूर्ण तरीकों से भी हराया जा सकता है. इसके अलावा यह भी समझना होगा कि हमारी राजनीतिक सोच आज वहां नहीं खड़ी जहां वह नब्बे के दशक में थी.
क्या यही वजह है कि आपकी पार्टी में भी भारतीय वाम पार्टियों की तरह टूट हो रही है.
कुछ टूट तो हुई है. बिखराव आया है. पर नेपाली माओवादियों का हर धड़ा शांति प्रक्रिया में हमारे मूलभूत सिद्घांतों से मौटे तौर पर सहमत है. वह भी सर्व समावेशी लोकतंत्र की ही वकालत करते हैं. मुझे उम्मीद है कि हम अपने अन्य मतभेद भी सुलझा लेंगे. असली परेशानी तो एनसी और यूएमएल की ओर से है.
पर एनसी और यूएमएल तो आप लोगों पर शांति प्रक्रिया को बाधित करने का आरोप लगाते हैं.
देखिए, तथ्य तो यह है कि वो हम ही थे जो राजतंत्र के खिलाफ लड़े और आज भी उसके खिलाफ जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. एनसी और यूएमएल तो राजतंत्र को कमोबेश स्वीकारने को पहले से तैयार हैं. इस पृष्ठभूमि में देखेंगे तो साफ नजर आएगा कि शांति प्रक्रिया आज जहां तक और जिस स्तर पर पहुंची है वह माओवादियों के कारण है. रुकावट हमने नहीं उन्होंने खड़ी कर रखी हैं, पूर्व समझौतों का पालन न करके. इसके अतिरिक्त प्रक्रिया और विषयवस्तु में विषयवस्तु ज्यादा अहम है. संविधान सभा, मूलत: इस विषयवस्तु का प्रतिनिधित्व करनेवाले समग्र शांति समझौते को लागू करने का एक प्रभावी तरीका और व्यवस्था है. इसी सोच के साथ इसकी स्थापना की गई थी. पर आज एनसी इस मसले पर वादा खिलाफी कर रही है और यूएमएल उसके साथ है. हम वैकल्पिक राजनीति स्थापित करना चाहते हैं और वो पुरानी पड़ चुकी राजनीति की तरफ जनता को ले जाना चाहते हैं.
भारत में आम आदमी पार्टी भी वैकल्पिक राजनीति की बात करती है. माओवादियों और आम आदमी पार्टी की वैकल्पिक राजनीति में अंतर और समानताएं क्या हैं
अंतर या समानताओं पर कुछ कहना तो जल्दबाजी होगी. हम लोग तो अभी नई राजनीतिक परिस्थितियों को समझने की कोशिश ही कर रहे हैं. जैसा मैंने कहा कि मेरी यात्रा का मकसद ताजा हालत का अध्ययन करना भी था. नेपाल में हम वैकल्पिक लोकतंत्र की वकालत कर रहे हैं जो वैकल्पिक राजनीति का एक मॉडल ही माना जाएगा. हां हमारे इस मॉडल में और आम आदमी पार्टी की सोच में कुछ अंतर तो अवश्य है. लेकिन इतना है कि हम दोनों ही पुरानी व्यवस्था का अपने तरीकों से विरोध कर रहे हैं.
वैकल्पिक राजनीति की आपकी परिभाषा क्या है?
पारंपरिक लोकतांत्रिक राजनीति मूलतः कुछ लोगों के हाथ में है. खासकर अमीर और ताकतवर ही इसका उपभोग करते हैं. इन तत्वों ने राजनीति और लोकतंत्र के अर्थों को सीमित और कमजोर बना दिया है. यह एक प्रकार का औपचारिक लोकतंत्र है. नेपाल की आम जनता की इसमें भागीदारी नहीं के बराबर है. इसीलिए हमने जनयुद्घ छेड़ा था. सच्चा जनवादी लोकतंत्र स्थापित करना हमारा लक्ष्य है. संविधान सभा के जरिए हम इसे संस्थागत स्वरूप देना चाहते हैं. वैकल्पिक राजनीति से हमारा आशय जनवादी लोकतंत्र की स्थापना है. ‘आप’ ने अपने तरीकों से हमारा ध्यान जरूर खींचा है. पर अभी हम इसे ठीक से समझना चाहते हैं. प्रत्यक्ष लोकतंत्र और सीधी भागीदारी के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है. हम नेपाल में शोषित राष्ट्रीयताओं, दलितों और महिलाओं आदि की भागीदारी सिर्फ सरकार के सहयोग के रूप में नहीं बल्कि व्यवस्था निर्माण और संचालन में उनकी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं. इसीलिए हम आनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत कर रहे हैं.
नेपाल को मौजूदा संकट से निकालने का क्या तरीका होगा?
देखिए, सभी राजनीतिक शक्तियों को समग्र शांति समझौता लागू करने से ही समाधान निकलेगा. अगर ऐसा नहीं होगा तो हम जनता के बीच वापस जाएंगे. जनता ही समाधान निकालेगी.
अंत में चीन और भारत में आपकी प्राथमिकता में कौन है?
हम इस सवाल को प्राथमिकता की नजर से नहीं देखते हैं. हमारे लिए दोनों देश करीबी हंै. भारत एक उभरती विश्व शक्ति है. हम भारत और चीन दोनों से सहयोग करने को तैयार हैं, और यह सुनिश्चित कर देना चाहते हैं कि हमारी सीमाओं का पड़ोसी देशों के खिलाफ इस्तेमाल न हो. खासकर भारत के साथ तो हम हर हाल में शांति और समृद्घि की कामना करते हैं.