‘चौदह साल के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में अब मिला’

फोटो साभारः radio.wpsu.org
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पहली कक्षा में पढ़ने वाली छह साल की वह मासूम तब एथलीट शब्द का मतलब तक नहीं समझती थी जबकि उसकी खुद की बड़ी बहन एक एथलीट थी. वह तो बस स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में पहला स्थान पाना चाहती थी. एक दिन उसकी एथलीट बहन ने उससे बोला, ‘तू मेरे साथ भागेगी तो रेस में फर्स्ट आएगी’. फिर क्या सोचना था, उसने साथ भागना शुरू कर दिया. उस दिन के बाद वह ऐसी भागी कि स्कूल में ही नहीं, पूरे देश में कोई महिला धावक उसकी रफ्तार नहीं पकड़ सकी.
हम बात कर रहे हैं, 20 वर्षीय भारतीय महिला धावक द्युति चंद की. उन्होंने ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में आयोजित होने वाले 31वें ओलंपिक खेलों की 100 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में भारत की ओर से क्वालिफाई किया है. ओलंपिक की इस स्पर्धा में द्युति 36 साल बाद कोई भारतीय चेहरा होंगी. द्युति से पहले सन 1980 में मॉस्को में आयोजित 22वें ओलंपिक खेलों में ‘उड़नपरी’ पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. द्युति उड़ीसा के जाजपुर जिले के चक गोपालपुर गांव की रहने वाली हैं. वे भुवनेश्वर के केआईआईटी विश्वविद्यालय से एलएलबी भी कर रही हैं. वे एक गरीब बुनकर परिवार से ताल्लुक रखती हैं. छह बहन और एक भाई के बीच तीसरे नंबर की द्युति की यहां तक पहुंचने की कहानी काफी उतार-चढ़ाव भरी रही. उनके गांव में खेलों को लेकर इतनी जागरूकता नहीं थी क्योंकि टीवी नहीं हुआ करता था. बड़ी बहन सरस्वती ने जब खेलों में करिअर बनाना चाहा तो मां-बाप को समझाना पड़ा कि खिलाड़ियों को नौकरी जल्द मिलती है और नौकरी करके वे गरीबी में परिवार की मदद कर पाएंगी. द्युति भी एथलेटिक्स से इसी कारण जुड़ सकीं. सरस्वती आज ओडिशा पुलिस में कार्यरत हैं. वहीं द्युति को पिछले दिनों ओडिशा सरकार ने ओडिशा माइनिंग काॅरपोरेशन में सहायक प्रबंधक के पद पर नियुक्त किया है. द्युति का चयन इस मामले में भी खास है कि 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरुआत से ऐन पहले द्युति के प्रतियोगिता में शामिल होने पर अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक महासंघ (आईएएएफ) ने पाबंदी लगा दी थी. इसका कारण द्युति के शरीर में पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन का अधिक मात्रा में पाया जाना बताया गया. द्युति ने इसके खिलाफ स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय (सीएएस) में एक साल लड़ाई लड़कर ट्रैक पर पिछले साल ही जुलाई में वापसी की थी. द्युति इसके अलावा कई ऐसे राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं जो लंबे समय से भारतीय महिला धावकों के लिए चुनौती बने हुए थे. ऐसा ही एक रिकॉर्ड उन्होंने इसी साल अप्रैल में दिल्ली में आयोजित फेडरेशन कप एथलेटिक्स चैंपियनशिप के दौरान तोड़ा. उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में 11.33 सेकंड का समय निकालकर रचिता मिस्त्री द्वारा 16 साल पहले सन 2000 में बनाए गए 11.38 सेकंड के रिकॉर्ड को तोड़ा. दोहा में एशियन इनडोर एथलेटिक्स गेम्स में भाग लेते हुए 60 मीटर की स्पर्धा में 7.28 सेकंड का समय निकालकर अर्जिना खातून का 7 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ा. जूनियर एवं सीनियर प्रतियोगिताओं में कई पदक अपने नाम करने वाली द्युति ओलंपिक का टिकट लेकर जब कजाकिस्तान से वापस लौटीं तो ‘तहलका’ ने उनसे बात की.

रियो ओलंपिक तक का सफर कैसा रहा और ओलंपिक में दौड़ने का सपना कब देखना शुरू किया?

बचपन में स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में मेरा मन हमेशा फर्स्ट आने का करता था. तब मुझे न तो एथलीट शब्द का मतलब पता था और न ओलंपिक के बारे में जानती थी जबकि मेरी बड़ी बहन सरस्वती चंद खुद एक एथलीट थीं. उन्होंने एक दिन मुझे बोला, ‘तू मेरे साथ दौड़ा कर, फर्स्ट आ जाएगी.’ मैंने उनके साथ दौड़ना शुरू किया. पहली कक्षा से तीसरी कक्षा तक मैं स्कूल प्रतियोगिताओं में फर्स्ट आती रही. 2006 में जब 5वीं कक्षा पास की तो एक सरकारी खेल अकादमी के बारे में पता चला जहां अच्छे एथलीटों का रहना, खाना, पढ़ाई सब निःशुल्क होता है. मैं इंटरव्यू देने गई और पास हो गई. वहीं पढ़ाई के साथ मेरी ट्रेनिंग भी हुई. 2007 में मैंने पहला नेशनल जूनियर मेडल जीता. तब से ओलंपिक में जाने का सपना देखने लगी. उसके बाद से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. जिस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया कभी बिना मेडल जीते नहीं आई. मेरे 14 सालों के कठिन परिश्रम का फल रियो ओलंपिक के टिकट के रूप में मुझे अब मिला है. अभी तो बस ऐसा लग रहा है कि मेरे बचपन का सपना पूरा हो गया.

पिछली बार ओलंपिक की 100 मीटर दौड़ की स्पर्धा में 1980 मॉस्को ओलंपिक में पीटी उषा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. उसके 36 साल बाद भारत की ओर से किसी एथलीट ने इस स्पर्धा में जगह बनाई है. अपनी इस उपलब्धि पर क्या कहना है?

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी. यह तो मुझे बाद में पता चला. हां, अब अच्छा लग रहा है कि मैंने 36 साल बाद देश को गर्व का मौका दिया है.

दिल्ली में हुए फेडरेशन कप में 0.01 सेकंड से आप ओलंपिक में क्वालिफाई करने से चूक गई थीं. लेकिन रचिता मिस्त्री का 16 साल पुराना नेशनल रिकॉर्ड आपने तोड़ दिया था. उस समय रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी थी या फिर क्वालिफाई न कर पाने का गम?

मैं क्वालिफाई करने के लिए महीनों से कड़ी मेहनत कर रही थी. मैंने वो पूरी मेहनत उस दिन झोंक दी थी. पर मैं बिल्कुल नजदीक आकर चूक गई, यह सदमे जैसा था. नेशनल रिकॉर्ड तोड़ने की खुशी तो हुई पर गम और हताशा का अहसास ज्यादा हुआ क्योंकि रियो के दरवाजे तक आकर वापस लौटना पड़ा था.

100 मीटर प्रतियोगिता में कमजोर नहीं पड़ती बल्कि कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कर रही हूं

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अक्सर किसी चीज के करीब आकर उसे खो देने की हताशा एक अनावश्यक मानसिक दबाव बनाती है. उस हताशा के बीच आपने खुद को कैसे तैयार किया कि अब मुझे चूकना नहीं है?

मौसम से काफी फर्क पड़ता है. अप्रैल माह के अंत में फेडरेशन कप के समय दिल्ली में तापमान 45 डिग्री के करीब था. इस तापमान में वाॅर्मअप करने में ही एक एथलीट की इतनी ऊर्जा बर्बाद हो जाती है कि वह मुख्य मुकाबले के लिए थक सा जाता है. फेडरेशन कप के बाद भारत में सिर्फ एक स्पर्धा बाकी रह गई थी, जो हैदराबाद में हुई. मैंने उसके लिए तैयारी शुरू कर दी. इस बीच मैंने एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एएफआई) को एक पत्र लिखा. उन्हें यकीन दिलाया कि मैं अच्छा प्रदर्शन कर रही हूं. आप अगर मुझे ट्रेनिंग पर विदेश भेजेंगे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला कर मैं ओलंपिक का टिकट हासिल कर सकती हूं. मुझे एक प्रतियोगिता में भाग लेने बीजिंग भेजा गया पर आखिरी समय में बताया गया कि 100 मीटर में भारतीय एथलीट नहीं दौड़ सकती. वहां 4×10 रिले में भाग लिया. फिर ताइपे गई, वहां 100 मीटर और 200 मीटर दोनों में स्वर्ण पदक जीता. लेकिन ओलंपिक क्वालिफिकेशन के लिए निर्धारित समय नहीं निकाल सकी क्योंकि वहां मुकाबले में टक्कर देने वाला कोई एथलीट ही नहीं था. मैंने एएफआई को समझाया कि जब मुकाबले में कोई होगा ही नहीं तो मैं कैसे और अच्छा करूंगी. तब मुझे कजाकिस्तान भेजा गया. यहां टक्कर में अच्छे एथलीट भी थे और मौसम भी अच्छा था, 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास, जिससे मैं क्वालिफाई कर गई.

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रियो ओलंपिक की 200 मीटर की स्पर्धा में क्वालिफाई न कर पाने से कोई निराशा हुई?

वैसे मैं 200 मीटर की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मीटर की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मीटर में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा. 100 मीटर में क्वालिफाइंग टाइम 11.32 सेकंड था और 200 मीटर में 23.20 सेकंड. लेकिन मेरा 100 मीटर में तब तक का बेस्ट 11.50 सेकंड था और 200 मीटर में 23.41 सेकंड. मतलब क्वालिफाई करने के लिए मुझे दोनों ही इवेंट में कुछ-कुछ सेकंड कम करने थे. मैं दोहा इनडोर गेम्स में 60 मीटर इवेंट में दौड़ने गई. वहां मैंने 60 मीटर में 7.28 सेकंड का समय निकालकर नया नेशनल रिकॉर्ड बनाया. तब जेहन में आया कि अगर 100 मीटर इंवेट पर ध्यान दूं तो क्वालिफाई कर सकती हूं. फिर मैंने तय किया कि 200 मीटर की जगह 100 मीटर पर ही पूरा ध्यान लगाऊंगी.

वैसे मैं 200 मी. की धावक हूं. लेकिन इस साल मैंने 200 मी. की रेस पर ध्यान नहीं लगाया. मेरा ध्यान 100 मी. में क्वालिफाई करने पर ज्यादा रहा

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किसी भारतीय महिला धावक को ओलंपिक की 100 मीटर स्पर्धा में अपनी जगह बनाने में 36 साल का लंबा समय क्यों लगा? कहीं खामियां रहीं या नया टैलेंट सामने नहीं आ रहा?

एक कारण तो आईएएएफ द्वारा 1980 के बाद अपनाए गए कठोर क्वालिफाइंग स्टैंडर्ड रहे. भारतीय एथलीट सामान्यत: इतनी तेज नहीं होतीं कि 11.32 सेकंड में 100 मीटर की रेस खत्म कर सकें. एक अन्य कारण यह भी है कि हर किसी को इतना सहयोग नहीं मिल पाता कि वह अपनी ट्रेनिंग को उन मानकों तक पहुंचा सके. कई मर्तबा कई अच्छे धावकों का करिअर चोटिल होने के कारण खत्म हो जाता है. किसी को अच्छा कोच नहीं मिल पाता. और एक सच यह भी है कि लोग खेल के तौर पर एथलेटिक्स का चुनाव करने में रुचि कम दिखाते हैं. मैंने जब से दौड़ना शुरू किया, तब से ही सुन रही थी कि 100 मीटर में रचिता मिस्त्री का रिकॉर्ड कोई तोड़ नहीं पा रहा है. मैं यह रिकॉर्ड तोड़ने की कोशिश कर रही थी. सन 2000 में यह रिकॉर्ड बना था और मैंने अब जाकर 2016 में तोड़ा है. इस दौरान कोई इस रिकॉर्ड को नहीं तोड़ सका तो इसके यही कारण रहे जो मैं बता रही हूं.

आपके कोच का कहना है कि 60 मीटर तक आप विश्व की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक हैं लेकिन अगले 40 मीटर में कमजोर पड़ जाती हैं.

कमजोर नहीं पड़ती. कद छोटा होने के कारण लंबे डग नहीं भर पाती. शुरुआती 60 मीटर में रफ्तार से आगे निकल जाती हूं. उसके बाद एनर्जी कम होने पर मेरे थोड़ा धीमा पड़ते ही अन्य एथलीट अपने कद का लाभ उठाकर आगे निकल जाती हैं. इसका समाधान निकालने के संभव तरीकों पर काम कर रही हूं. कोच को बताया, वे बोले कि इस पर काम करेंगे. पर अभी तो समय नहीं है. आगे इस पर ध्यान देंगे. एक अन्य कारण यह भी है कि 100 मीटर मेरा इवेंट नहीं था. 2012 से लेकर 2014 तक 200 मीटर पर मेरा ज्यादा फोकस रहा. मैंने जूनियर और सीनियर एशियन टाइटल में गोल्ड जीता. पहली बार है कि मैं 100 मीटर में दौड़ रही हूं. तो गलतियां तो होंगी और जो भी गलती होगी उन्हें सुधारने में समय तो लगेगा ही.

ओलंपिक के लिए क्या तैयारी है? क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि आप कोई पदक जीतकर फिर से देश को गर्व करने का एक मौका देने वाली हैं?

मेरा प्रयास अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने का रहेगा. मौसम अच्छा रहा, शरीर ने साथ दिया और आप सब लोगों का प्यार रहा तो जरूर पदक लेकर आऊंगी. जहां तक तैयारी का सवाल है तो जब जुलाई 2015 में मुझ पर लगा प्रतिबंध हटा तब से ओलंपिक में क्वालिफाई करने की तैयारी कर रही थी. महीनों की मेहनत के बाद क्वालिफाई कर पाई. लेकिन अब जो मुख्य स्पर्धा है उसकी तैयारी के लिए मुझे ज्यादा समय नहीं मिला. क्वालिफाई के बाद मैंने कजाकिस्तान में ही 200 मीटर में भाग लिया. बंगलुरु में 4×100 रिले में भाग लेने वाली हूं. अभी मेरे पास अधिकतम 15 दिन का समय है जो पर्याप्त नहीं है. इसलिए अभी जो अभ्यास चल रहा है और जैसा कोच बोलते हैं, वही कर रही हूं. कुछ नया करने की कोशिश नहीं कर रही.

ओलंपिक के लिए तैयारी के दौरान कभी दिमाग में नहीं था कि मुझे पीटी उषा का रिकॉर्ड तोड़ना है. सही मायनों में मुझे तो ऐसे किसी रिकॉर्ड की जानकारी भी नहीं थी

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अगर आपने एक साल प्रतिबंध नहीं झेला होता तो क्या आप और अच्छा कर सकती थीं?

जब से मैंने दौड़ना शुरू किया, किसी स्पर्धा से बिना पदक जीते नहीं लौटी. 2014 तक मेरा प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा. 2014 में तो मैंने कॉमनवेल्थ गेम्स सहित तीन बड़ी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लिया और हर बार अपना सर्वश्रेष्ठ समय निकाला. पर ऐन कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले मुझ पर लगे प्रतिबंध से मेरा अभ्यास बहुत प्रभावित हुआ. मानसिक तनाव रहा, जिसके चलते आज भी ट्रेनिंग अच्छे से नहीं कर पा रही. इसका असर प्रदर्शन पर पड़ता है. जितनी एंडयूरेंस ट्रेनिंग तब कर रही थी, उस सबका असर मेरे शरीर से उस साल भर के दौरान निकल गया. उसे वापस पाने के लिए ही मुझे दो-तीन महीने लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ी. तब यह उपलब्धि हासिल हुई. अगर एक साल का प्रतिबंध नहीं होता तो मैं बहुत पहले ही ओलंपिक में क्वालिफाई कर जाती. ओलंपिक क्वालिफायर ओलंपिक से एक साल पहले शुरू होते हैं. तब ही क्वालिफाई हो जाती. फिर 100 मीटर और 200 मीटर दोनों पर ही ध्यान दे सकती थी.

क्या प्रतिबंध के दौरान भी आप ओलंपिक में जाने के अपने सपने के बारे में सोचा करती थीं?

उस समय तो बस केस के बारे में ही ख्याल आता था कि कब फैसला आएगा. ओलंपिक या दूसरी स्पर्धाओं के बारे में तो सोचना ही छोड़ दिया था क्योंकि मेरा ट्रेक पर जाना प्रतिबंधित था. कमरे में महिलाओं के साथ नहीं रुक सकती थी. यह मानसिक प्रताड़ना से कम नहीं था. ओलंपिक में जाने का मेरा बचपन का सपना तब चकनाचूर-सा हो गया था. लोग मेरे औरत होने पर सवाल उठाकर जो मुंह में आया बकते थे.

17 साल की उम्र में इतना तनाव झेलना, वापस ओलंपिक का सपना पालना, अपर्याप्त समय के अंदर उसे पूरा भी करना, इतनी हिम्मत कहां से मिली?

तब सभी से मुझे बहुत भला-बुरा सुनने को मिला. बस इसी बात से हिम्मत मिलती थी कि मैं सही हूं, मैंने कुछ गलत नहीं किया है. जैसी हूं, भगवान ने बनाया है. बुरे वक्त पर ज्यादा ध्यान न देकर अच्छा वक्त आएगा, यही सोचती थी. खुद के लिए कितना अच्छा कर सकती हूं, इस पर ध्यान देती थी. हमेशा सोचा कि ये मेरी लड़ाई नहीं, देश के लिए खेल रही हूं तो देश की लड़ाई है. जब तक देश खिलाएगा, मैं खेलूंगी. जब देश कहेगा कि तुम नहीं खेल सकती, दौड़ना छोड़ दूंगी. तब दिक्कत नहीं. दुनिया में सभी को जिस तरह जीने का हक है, मुझे भी देश के लिए खेलकर कुछ करने का हक है. और मुझसे वह हक कोई भी बेतुका नियम नहीं छीन सकता. बचपन से लेकर अब तक खेल ने ही मुझे पढ़ाई, नौकरी सब दिया. खेल के बिना मैं नहीं रह सकती थी. इसी हिम्मत के सहारे मैंने केस जीता. फिर सबने कहा, ‘द्युति, केस जीती हो तो कुछ करके भी दिखाओ. भगवान ने कुछ कर दिखाने के लिए जिताया है तो अब क्या कर सकती हो?’ मैंने कहा, ‘अगले साल ओलंपिक है. उस पर ध्यान लगाऊंगी और क्वालिफाई करके दिखाऊंगी.’ जो मैंने बोला, उसे सच करके भी दिखाया.

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खुद को लड़की साबित करने की लड़ाई

साल 2014 में आईएएएफ ने द्युति के दौड़ने पर रोक लगा दी थी. मेडिकल टेस्ट में उनके शरीर में प्राकृतिक तौर पर पुरुषों में पाए जाने वाले हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन की अधिकता (हायपरएंड्रोजेनिज्म) पाई गई थी. टेस्टोस्टेरॉन बल और शक्ति बढ़ाने वाला पुरुष प्रधान हार्मोन होता है. विश्व की हर 10 में से एक महिला में इसकी अधिकता पाई जाती है. आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी के मुताबिक इस हार्मोन के चलते एक महिला एथलीट को स्पर्धा के दौरान अनुचित लाभ मिलता है और वह अन्य महिला एथलीटों पर बढ़त बना लेती है. द्युति पर जब यह रोक लगी तब वह अपने करिअर के सर्वश्रेष्ठ दौर से गुजर रही थीं और कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने की तैयारियों में जुटी हुई थीं. प्रतिबंध लगते ही भारतीय एथलेटिक महासंघ ने उनका नाम कॉमनवेल्थ गेम्स की टीम से बाहर कर दिया. द्युति को पुरुष बताकर उनके लिंग पर बहस होने लगी. ऐसी स्थिति में खेल में बने रहने के लिए जहां दूसरी महिला खिलाड़ी अपने टेस्टोस्टेरॉन के स्तर को नियंत्रित करने के लिए सर्जरी, हार्मोन थेरेपी आदि का सहारा लेती हैं या अपना करिअर खत्म मान लेती हैं, वहीं द्युति ने इसके खिलाफ लड़ने की ठानी. उन्होंने स्विट्जरलैंड स्थित खेल मध्यस्थता न्यायालय में आईएएएफ के इस फैसले को चुनौती दी. वहां आईएएएफ यह साबित नहीं कर सका कि हायपरएंड्रोजेनिज्म से महिला एथलीटों को खेल के दौरान किसी प्रकार का अनुचित लाभ मिलता है. 27 जुलाई, 2015 को न्यायालय ने द्युति के पक्ष में अपना फैसला सुनाया. उसने आईएएएफ की हायपरएंड्रोजेनिज्म पॉलिसी पर ही दो साल के लिए रोक लगा दी और आदेश दिया कि वह अगले दो सालों के भीतर खेल मध्यस्थता न्यायालय के समक्ष ऐसे तथ्य पेश करे जो उसके दावे को साबित कर सकें. इस प्रकार द्युति ने अपने लिए ही नहीं, विश्व भर की हायपरएंड्रोजेनिज्म की शिकार महिला खिलाड़ियों के लिए लड़ाई जीती. द्युति से पहले भारत की सांथि सुंदरम भी इस तरह की स्थितियों का सामना कर चुकी थीं.[/symple_box]