बीएमएमए द्वारा प्रधानमंत्री को तीन तलाक पर बैन लगाने को लेकर पत्र लिखा गया था?
हां, पर उस पत्र में सिर्फ तीन तलाक की बात नहीं है बल्कि मुस्लिम फैमिली लॉ को विधिवत करने की बात है, उसमें सुधार लाने की जरूरत है तो ये सुधार क्या होंगे ये हमने सुझाया था. जैसे शादी के लिए एक उम्र सीमा तय हो, एकतरफा, जुबानी तलाक बंद हों, बहुविवाह पर रोक लगे. प्रधानमंत्री की तरफ से तो कोई जवाब नहीं आया पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दवे और जस्टिस गोयल की बेंच ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार से पूछा है कि महिलाओं के साथ हो रहे अन्याय खासकर मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे तीन तलाक पर उनकी क्या राय है. सरकार की तरफ से तो अभी प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई पर पिछले दिनों देश भर में हमने तीन तलाक पर कानूनी पाबंदी को लेकर एक अभियान चलाया जिस पर पूरे देश से सकारात्मक प्रतिक्रिया आई है, जिसके बाद हमने एक मेमोरेंडम तैयार करके राष्ट्रीय महिला आयोग में भेजा है. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग से भी उनकी इस मुद्दे पर स्पष्ट राय मांगी है. तो हमें वहां से आश्वासन दिया गया है कि वे लोग मुस्लिम महिलाओं की परेशानी समझेंगे और वे क्या चाहती हैं, उनकी मांगों को ध्यान में रहेंगे.
पर पिछले ही दिनों ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की एक महिला सदस्य ने इन सब मांगों को गलत बताया है. उन्होंने कहा कि वर्तमान के कानून मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए हैं, अगर कोई व्हाट्सऐप पर तलाक भेजता है तो अच्छा है, महिलाओं के पास तलाक का सबूत तो रहेगा.
ये सब निहायत ही वाहियात और दकियानूसी बातें हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बनाए कानून 1400 साल पुराने हैं, जिनका कुरान में कोई जिक्र नहीं है. आज देश की आजादी को भी सत्तर साल होने जा रहे हैं और देखिए अब भी तीन तलाक हो रहे हैं, हलाला हो रहा है. ये सदस्य महिला होकर भी ये पुरुषप्रधान सोच का समर्थन कर रही हैं, अन्य महिलाओं के अधिकारों के हनन पर चुप हैं तो इनका सिर्फ शरीर महिला का है, प्रतिनिधित्व ये उसी दकियानूसी पुरुषप्रधान सोच का कर रही हैं. जब कुरान तीन तलाक की इजाजत नहीं देता है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कौन होता है इसकी पैरवी करने वाला? ये अपनी पितृसत्ता से भरी सोच को धर्म के नाम पर खपा रहे हैं.
धर्म के नाम पर कैसे?
कुरान के चार मूलभूत सिद्धांत हैं- इंसाफ, नेकी, रहमदिली और समझदारी. तो इन चारों को अपने व्यवहार में रखें. सब्जी ठीक नहीं बनी, नमक कम पड़ा, तूने मेरी बात नहीं मानी जा मैं तुझे तलाक देता हूं… ये सब कुरान में है ही नहीं. ये बेअक्ली है. ये किसी भी तरीके से न्यायिक नहीं है और जो बात न्यायिक नहीं है उसकी पैरवी न तो इस्लाम करता है न ही कुरान. इस्लाम का, इसकी शिक्षाओं का प्राथमिक स्रोत कुरान रहा है और दूसरा पैगंबर साहब की जिंदगी, उनका आचरण. पैगंबर साहब ने तीन तलाक देने पर कड़ी नाराजगी जताई है. इसे अल्लाह की मर्जी के खिलाफ बताया है. उन्होंने कहा है कि अल्लाह इससे नाखुश होता है. कुरान के मुताबिक शादी एक सामाजिक करार है जहां पति-पत्नी दोनों को अपनी शर्तें, अपनी मांगें सामने रखने का हक दिया गया है और जहां इन्हें लिखित रूप में दर्ज किया जाता है वो निकाहनामा कहलाता है. तो कुरान महिला पुरुष दोनों को बराबर के हक देता है. पर ऐसा समाज में होता नहीं है. वहीं कुरान में भी कई ऐसी आयतें हैं जहां साफ लिखा है कि छोटी-सी बात पर तलाक न करें. शादी एक गंभीर सामाजिक और जज्बाती रिश्ता है, इसे ऐसे खत्म न करें. अगर कोई अनबन है तो पहले बातचीत से मसले को सुलझाने की कोशिश करें. ये बातचीत, ये कोशिश कम से कम चार महीने तक होनी चाहिए. अगर ये कोशिश नाकाम होती है तो दोनों के परिवार से एक-एक सदस्य मध्यस्थ के रूप में आए और मामले को सुलझाने की कोशिश करें. अगर ये प्रक्रिया नाकाम रहती है, लगता है निबाह नहीं हो पाएगा तो अलग हो जाएं. तलाक के बाद पत्नी के जो भी अधिकार हैं वे उसे मिलें. तीन तलाक का कुरान में कोई जिक्र भी नहीं है.
तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा, आपके अनुसार इन गैर-कुरानी कानूनों को बनाए रखने की क्या वजह है?
चूंकि उन्हें अपना वर्चस्व बरकरार रखना है, इसलिए ये कानून थोपे जा रहे हैं. शायरा (बानो) पहले से ही कितनी प्रताड़ित रही हैं, उन्हें ये ऐसे कानूनों से और परेशान कर रहे हैं. वो बहुत हिम्मत वाली हैं जो इन सबसे लड़ रही है. हम भारत के संविधान के अनुसार नागरिक हैं, आप कौन होते हैं हमें कानून सिखाने वाले?
आपको बीएमएमए की मांगों पर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया मिली?
प्रतिक्रिया सीधे तो नहीं मिली, पर टीवी डिबेट वगैरह में वे हमसे खूब तू-तू, मैं-मैं करते हैं. वो जानते हैं कि अगर कोई उनसे लड़ाई कर सकता है तो वो हम हैं. इसलिए अब वे हम पर निजी हमले भी कर रहे हैं. मेरे खिलाफ वॉट्सऐप पर एक मैसेज लगातार घूम रहा है जिसमें मुझे काफिर करार दिया गया है. मेरे पति और बेटे को भी इसमें घसीटा है. मेरी तस्वीर भी लगाई है और लिखा है हम इस्लाम के खिलाफ हैं. एक जगह नूरजहां को भी गाली दी है. ये पितृसत्ता और रूढ़ियों से भरे लोग हैं. इन्हें पढ़ी-लिखी, समझदार, एम्पावर्ड औरतों से डर लगता है. हम इन्हें चुनौती देते हैं कि आप बिचौलिए हैं और बिचौलियों के लिए हमारे मजहब में कोई जगह नहीं है.
ऐसा भी कहा गया कि आप आरएसएस एजेंट हैं.
आरएसएस का एक उद्देश्य है यूनिफाॅर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता… अगर किसी ने खुलकर इसका विरोध किया है तो वो हम हैं. हम अगर आरएसएस के साथ होते तो इसका विरोध क्यों करते! हमने तो इस पर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली है, जिसमें साफ कहा गया है कि हम इस आइडिया को सिरे से खारिज करते हैं. हमारे मुताबिक ये हमारी यानी मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं का हल नहीं है.
वो कैसे?
देखिए, आजादी के समय इसको लाने का माहौल और पृष्ठभूमि अलग थी. संविधान बना तो उसकी नजर में सब नागरिक एकसमान हो गए, पर हमारे समाज में धर्म की गहरी पकड़ है और महिलाओं को उन धर्मों के अनुसार विवाह, संपत्ति आदि में अधिकार नहीं थे. तब सोचा गया कि एक यूनिफाॅर्म सिविल कोड होना चाहिए पर संविधान सभा में संस्कृति को बचाने की बात कहकर हिंदुओं ने इसका काफी विरोध किया था. उस विरोध के चलते नेहरू और आंबेडकर को ये विचार छोड़ना पड़ा. पर फिर धीरे-धीरे कुछ ही सालों में हिंदू मैरिज ऐक्ट, हिंदू सक्सेशन ऐक्ट जैसे पारिवारिक और सामाजिक कानून बने, जो महिलाओं के पक्ष में थे. फिर सभी अल्पसंख्यक समुदायों, चाहे पारसी हो या क्रिशि्चयन सभी ने अपने-अपने धर्म के दायरे में ही औरतों के लिए कानून में सुधार किए, सिवाय इस्लाम के. इस्लाम में आज भी 1937 में बने कानून लागू हैं जो इन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड वालों की वजह से हुआ है. मुस्लिम महिलाओं को इतने सालों से उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. हमें हमारे आधारभूत अधिकार नहीं प्राप्त हैं और आप एक नया कानून लाने की बात कर रहे हैं. ये सिर्फ राजनीतिक दलों के चोंचले हैं.
तो आपके अनुसार ये सिर्फ कोरी राजनीति है.
बिल्कुल. 1986 (शाहबानो फैसले का समय) और 2016 में फर्क यही है कि आज मुसलमान जागरूक हो चुका है. वो सब समझता है. उसके पास जानकारी है. उसे बेवकूफ बनाना आसान नहीं है. अब वो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सच्चाई अच्छी तरह से पहचान गया है कि वो अपने अलावा किसी की मदद नहीं करते हैं. ये गलत लोग हैं. उन्हें आम मुसलमान की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है. मैं अहमदाबाद से हूं. दंगों के वक्त मैंने कितना काम किया है ये मुझे बताने की जरूरत नहीं है, पर सवाल ये है कि उस वक्त मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कहां था? वहां तो कोई नहीं आया, किसी को देखने तक नहीं भेजा गया कि वहां मुसलमानों का क्या हाल था. तो अब उनका फरेब और दकियानूसी बातें नहीं चलेंगी. हम पिछले दस साल से जो भी काम कर रहे हैं वो कुरान और इस्लाम के दायरे में ही कर रहे हैं.
‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का आम मुसलमान की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है. मैंने अहमदाबाद दंगों के वक्त काम किया है, पर जरूरत के उस वक्त पर्सनल लॉ बोर्ड कहां था?’
पूरी दुनिया में मुहिम चल रही है ‘जेंडर जस्टिस इन इस्लाम’, उसमें दुनिया भर के कई विद्वान हैं जो कुरान को पढ़कर उसकी व्याख्याएं लिख रहे हैं, उसका अनुवाद कर रहे हैं. अब मुसलमान जान रहा है कि हमारे मजहब में ‘जेंडर जस्टिस’ की बात कही गई है. पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो आयतों का अर्थ निकाला है वो झूठ है. उन्होंने आज तक सिर्फ इस्लाम का और मुसलमानों, दोनों का नुकसान किया है.
आपका अभियान लंबे समय से चल रहा है. मुस्लिम समाज की इस पर कैसी प्रतिक्रिया मिली?
आज की तारीख में मुझे दिन भर में कम से कम 15-20 ईमेल आते हैं मुसलमान लोगों से. छह से सात कॉल आते हैं कि हमने आपके बारे में फलानी जगह पढ़ा और हमारी ये आपबीती है. हमारी मदद कीजिए. सोशल मीडिया पर भी लोग लगातार जुड़ते हैं. ये सिर्फ मेरे पास का आंकड़ा है. नूरजहां और बाकी राज्यों के संयोजकों की गिनती अलग है. तो कहने का अर्थ यह है कि बदलाव की प्रक्रिया हमेशा लंबी होती है, लेकिन बदलाव की शुरुआत तो हो. बीएमएमए बस वही शुरुआत है. अब तक कोई नहीं था जो इस सबके खिलाफ खड़ा होता, पर अब हम हैं और उम्मीद है कि आने वाले दिनों और लोग भी साथ आएंगे जो तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाएंगे.
अपने अभियान की असली कामयाबी कब मानेंगी?
हम तो इसे ही कामयाबी मानते हैं कि महिलाएं खुद हक के लिए जागरूक हो रही हैं, उसके लिए लड़ रही हैं. हमने शायरा को नहीं कहा कि कोर्ट जाओ, वे खुद गई हैं. आफरीन को नहीं कहा. उसने कोर्ट जाने के बाद हमें बताया था. तो महिलाएं खुद के लिए खड़ा होना सीख रही हैं. दूसरी जरूरी बात है कि अब मुस्लिम समाज में ये पब्लिक ओपिनियन बन चुकी है कि तीन तलाक गैर-कानूनी है. यहां तक कि गैर-मुस्लिम भी समझ रहे हैं कि इस्लाम वो नहीं है जो अब तक बताया गया. इस्लाम भी महिलाओं की बराबरी की बात कहता है. हमारे लिए ये भी उपलब्धि है. हां, असली कामयाबी तो तब ही होगी जब तीन तलाक, हलाला आदि पर कानूनी तौर पर पाबंदी लगाई जाएगी.
तीन तलाक पर पाबंदी लगने की बहस शुरू होने के बाद उत्तर प्रदेश के एक मौलाना साहब ने कहा था कि ये इस्लाम का मजहबी मसला है, इस पर किसी को बोलने का हक नहीं है.
तो क्या हम सब महिलाएं मुसलमान नहीं हैं? हम कुरान में पूरा यकीन रखते हैं. और वैसे भी कुरान में किसी मौलाना को कोई विशेष स्थान नहीं है. हर मुसलमान और अल्लाह के बीच एक अपना रिश्ता है और वो मुसलमान कयामत के रोज अपने-अपने कर्मों का हिसाब उसे देगा. इसमें मौलाना कहीं नहीं है. किसी भी मौलाना को बोलने का उतना ही हक है जितना मुझे या किसी आम महिला को है.
कुरान में आयतें हैं जहां साफ लिखा है कि महिला-पुरुष बराबर हैं. कुरान में जो मानव जाति की उत्पत्ति की परिकल्पना है वहां अल्लाह साफ कहता है हमने पृथ्वी पर मनुष्य का सर्जन किया और साथ में उसका एक जोड़ीदार भी बनाया. वहां स्त्री-पुरुष या कौन सुपीरियर, ऐसी कोई बात नहीं कही गई है. यहां सिर्फ मानव के सर्जन की बात है. हमने इन आयतों का जिक्र सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका में भी किया है. अमरीकी स्कॉलर अमीना वदूद ने कुरान पर काफी काम किया है. वो भी इसी बात का समर्थन करती हैं कि जब गैर-बराबरी का कोई जिक्र कुरान में नहीं है तो समाज में क्यों है.
इन सब बुराइयों के समाज में अब तक बने रहने का कारण अशिक्षा भी है. कई बार महिलाएं कोई आर्थिक संबल न होने के कारण अपमान झेलती रहती हैं.
ये बिल्कुल सही बात है. जब सच्चर समिति कहती है कि देश का मुसलमान समाज पिछड़ा है, गरीब है तो महिलाओं की हालत सोचिए. माइनॉरिटी विदइन माइनॉरिटी वाला मसला है. इस अशिक्षा और गरीबी का सबसे ज्यादा खामियाजा मुस्लिम महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है. औरत पति के अत्याचार इसीलिए सहती रहती है कि वो पढ़ी-लिखी नहीं है, अपने पैरों पर खड़ी नहीं है. ये तीन तलाक का मसला, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. पर बीएमएमए इस पर भी काम कर रहा है. देश के सात शहरों में हमारे ‘कारवां’ सेंटर हैं जहां महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है. स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों को कंप्यूटर की ट्रेनिंग देते हैं. महिलाओं को कौशल
विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है. उनको रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाते हैं. पिछले दिनों भोपाल कारवां में महिलाओं ने तो अपने सिले गए कपड़ों की एक प्रदर्शनी लगाई थी जिससे उन्हें ठीक-ठाक आमदनी भी हुई. बीएमएमए के मिशन में दो ही बातें हैं- एक तो महिलाओं के नागरिक अधिकार दिलाना, दूसरे उनके कुरानी अधिकार दिलाना.
इस्लाम में महिला के अबॉर्शन करवाने को गलत माना गया है. अगर उसे लगता है कि उसे बच्चा नहीं चाहिए या वो उतनी सेहतमंद नहीं है जितना होना चाहिए तो क्या उसे ये फैसला करने का हक नहीं होना चाहिए?
मेरी जितनी इस्लाम की समझ है उसके मुताबिक विज्ञान और इस्लाम दोनों साथ-साथ चलते हैं. ऐसे में महिलाओं को परिस्थिति को देखते हुए समझदारी से फैसला लेना है कि उनके लिए क्या बेहतर होगा.