‘गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिया छोड़ना होगा, अगर उसे बुखार है तो ब्यूटी पार्लर ले जाने की जरूरत नहीं’

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गंगा को लेकर हर कुछ दिन पर कोई न कोई बात होती रहती है. कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गंगा में जल परिवहन को फिर से शुरू करने के लिए योजनाओं का एक खाका पेश करते हुए संसद में बताया था कि उन्होंने पूरी तैयारी कर ली है, देखिएगा गंगा में कैसे सरपट जहाज दौड़ाएंगे. उसके कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा था कि वे संकल्प ले चुकी हैं कि गंगा को साफ करके ही रहेंगी और नदियों को जोड़कर भी दिखाएंगी. इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों के बीच में गंगा का एक बड़ा सवाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी टकराया, जब वे कानपुर गए तो किसी ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण का सवाल उठा दिया. अखिलेश यादव गंगा के पचड़े में नहीं पड़े, सवाल को मुस्कुराकर टाल गए. अखिलेश यादव तो गंगा प्रदूषण के सवाल को हंसकर टाल गए, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों नदियों पर एक अहम घोषणा की. उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐलान किया है कि वे बिहार में रिवर स्टडी एंड रिसर्च सेंटर की शुरुआत करेंगे.

आजादी के बाद से ही गंगा पर ऐसी ही बातें होती रही हैं. 1985 से, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान जैसी महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की, तब से तो खैर गंगा प्रयोगशाला ही बन गई. तमाम तरह के प्रयोग करने की प्रयोगशाला, तमाम तरह की खयाली योजनाएं बनाने की प्रयोगशाला और गंगा के बहाने अपनी-अपनी गंगा बहाने के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा करने-करवाने की प्रयोगशाला. लेकिन गंगा दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही है. अब गंगा पर एक बार फिर चर्चाएं गरम हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना ‘नमामि गंगे’ को मूर्त रूप देने की शुरुआत की है. प्रधानमंत्री ने कई विभागों को गंगा के साथ जोड़ने की पहल की है. मानव संसाधन, जहाजरानी, पर्यटन, जलसंसाधन और भी कई मंत्रालयों को इस आशय का आदेश मिला है. मानव संसाधन मंत्रालय को आदेश मिला है कि वह नदियों को विशेषकर गंगा को ध्यान में रखकर किसी बेहतर संस्थान की शुरुआत करे, जहां नदियों का अध्ययन-अध्यापन हो सके. स्कूलों और कॉलेजों में नदियों के बारे में पढ़ाई भी हो.
संभव है, यह सब होगा, क्योंकि सीधे पीएम का आदेश है, लेकिन सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा? क्योंकि इतनी ही सरगर्मी राजीव गांधी ने भी अपने जमाने में दिखाई थी. वे 1984 में प्रधानमंत्री बने थे और उनकी भी सबसे महत्वाकांक्षी योजना गंगा को बचाने की थी. उस योजना के शुरू होकर खत्म हुए 30 साल से अधिक हो गए लेकिन गंगा साफ नहीं हो सकी. सीवर ट्रीटमेंट प्लांट ने बनारस के दीनापुर गांव जैसे कई गांवों को जन्म जरूर दिया, जहां कई किस्म की बीमारियों वाले लोग निवास करते हैं. कानपुर जैसे शहर के आसपास मानक से डेढ़ हजार गुणा क्लोरोफॉर्म की मात्रा गंगाजल में जरूर बढ़ी. गाजीपुर से लेकर बक्सर तक आर्सेनिक पट्टी का निर्माण जरूर हुआ. पटना में, गंगा कई किलोमीटर दूर जरूर चली गई और झारखंड के राजमहल से लेकर फरक्का तक कई गांव साल-दर-साल गंगा में विलीन होते गए. इस बीच पूर्व की मनमोहन सिंह की सरकार को लगा कि वे बीच में गंगा पर कुछ भी नया करने से चूक रहे हैं तो उन्होंने 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देकर खुद के कार्यकाल को भी गंगासेवी कार्यकाल के रूप में चर्चा दिला दी.
एक बार फिर ‘नमामि गंगे’ पर जोर-शोर से होती चर्चा को केंद्र में रखकर और गंगा के मौजूदा हालात पर हमने यूके चौधरी से एक लंबी बात की. प्रो. चौधरी आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद करीब तीन दशक से अधिक समय तक आईआईटी बीएचयू में रिवर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष रहे हैं. उन्होंने बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना भी की थी. तीन दशक पहले ‘गंगा’ नाम से पत्रिका निकालकर लोगों को गंगा के हालात भी बताते रहे हैं. ‘गंगा और मानव शरीर’ नाम से उनकी चर्चित पुस्तक है, जिसमें गंगा के मार्फोलॉजिकल और एनोटॉमिकल पक्ष को उन्होंने सहज भाषा में विस्तार से समझाया है. इनके द्वारा प्रतिपादित ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ दुनिया भर में चर्चित रही है. फिलहाल वे बनारस में रहते हैं और महामना इंस्टीट्यूट ऑफ रिवर टेक्नोलाॅजी एंड मैनेजमेंट नामक संस्थान की स्थापना कर गंगा के अध्ययन में लगे हैं. प्रसिद्ध नदीविज्ञानी प्रो. यूके चौधरी से निराला की बातचीत

‘नमामि गंगे’ का क्या हाल है? इस अभियान को शुरू हुए एक साल से ज्यादा हो गया, क्या असर दिख रहा है?
अभी तक ग्राउंड पर तो कुछ भी नहीं दिख रहा. जैसे सभी जगह शोर है, वैसे ही बनारस में भी शोर है. जैसे आप सुन रहे हैं, सभी सुन रहे हैं, वैसे मैं भी सुन रहा हूं लेकिन उम्मीद है कि मोदी जी कुछ करेंगे. वे महाशक्तिशाली और संकल्प वाले व्यक्ति हैं. वे बार-बार कहते भी रहे हैं कि वे खुद नहीं आए बनारस, मां गंगे ने उन्हें बुलाया था तो वे आए हैं.

‘निर्मल गंगा’, ‘अविरल गंगा’ के बाद नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू हुआ. इसका कॉन्सेप्ट तो ठीक है न?
अभी क्या कहा जाए. गंगा पर कई प्रोजेक्ट देखे जा चुके हैं. अब इसका क्या होता है, यह अभी कहना ठीक नहीं. गंगा की मौलिकता ही उसकी विशिष्टता है, उसकी ताकत है. उसके एनाटमी-मार्फोलॉजी को समझना होगा. गंगा की मूल समस्याओं या चुनौतियों को समझने की कोशिश इसमें भी नहीं की जा रही. नमामि गंगे नाम हो या कुछ और, असल बात है कि हमें गंगा पर अतीत में किए गए तमाम प्रयोगों से सबक लेना होगा. भीमगौड़ा-नरौड़ा आदि बनाकर देख चुके हैं. हमने गंगा के उद्गम से 44 किलोमीटर दूरी पर टिहरी बनाया था. उसके लिए रिजर्वायर 44 किलोमीटर रखा. आज कितनी बिजली ले रहे हैं उससे? मात्र 750 मेगावाॅट. चीन ने भी उसी समय टीजीसी बनाया था. 660 किलोमीटर का रिजर्वायर रखा. वह 18 हजार मेगावाॅट बिजली का उत्पादन कर रहा है. नया कुछ करने के पहले हम गंगा पर अतीत में किए गए काम की समीक्षा कर भविष्य की योजना बनाएं तो गंगा का भला होगा, वरना नाम बदलने को और दाम वसूलने को तो जो भी आता है, तरह-तरह का प्रयोग करता ही रहता है.

‘बनारस में पंचगंगा, दशाश्वमेध, हरिश्चंद्र घाट आदि पर अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कभी भी ये घाट गंगा में समा जाएंगे’

गंगा को लेकर तमाम नई योजनाओं की शुरुआत में दो ही केंद्र होते हैं, या तो उत्तराखंड का हिमालयी इलाका या बनारस. राजीव गांधी ने भी बनारस से ही गंगा एक्शन प्लान का शंखनाद किया था, मोदी ने भी नमामि गंगे की शुरुआत यहीं से की. सुना है कि बनारस में घाट वगैरह साफ रखे जा रहे हैं.
अजीब बात करते हैं. गंगा की समस्या घाटों की गंदगी है क्या? बनारस की बात कर रहे हैं, यहां तो अभी भी 17-18 नाले गंगा में सीधे गिर रहे हैं. घाटों की सफाई से क्या होगा? उसका एक महत्व हो सकता है लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं. बनारस में अगर कोई गंगा की बात करता है तो उसे थोड़ा सचेत हो जाना होगा, क्योंकि जिन घाटों को चकाचक किया जा रहा है, वही खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुके हैं. अंदर ही अंदर खंडहर हो चुके हैं और किसी भी दिन ध्वस्त हो जाएंगे. तब घाटों की सफाई का क्या होगा. बनारस में गंगा की पहचान घाट ही हैं और घाट किसी दिन ध्वस्त हो जाएंगे, बनारस की पहचान गंगा में विलीन हो जाएगी.

यह कैसे? वजह क्या होगी?
यह कछुओं के नाम पर हुए खेल की वजह से होगा. बनारस में डेढ़ दो दशक पहले कछुआ सेंचुरी बनाया गया. अब ऐसी बेवकूफी कि बनारस शहर के सामने कछुआ सेंचुरी बना लिया गया. ऐसा होता है क्या? कछुआ सेंचुरी कहीं वीराने में बनाना था. सेंचुरी बनाया गया था तो 3000 कछुए छोड़े गए थे. अब तक तो 25-30 हजार कछुए हो गए होते! कहीं किसी को कछुए दिखते हैं क्या? मुझे तो कोई नहीं मिला जो बताए कि उसने कछुए का झुंड देखा कभी. कछुए वहां इंतजार नहीं कर रहे और कछुआ सेंचुरी वाले भी सूचना मांगने पर यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि सेंचुरी ने कितने कछुओं का संरक्षण या संवर्द्धन किया? कछुओं का तो नहीं पता लेकिन उसके नाम पर पिछले डेढ़-दो दशक से बनारस शहर के ठीक दूसरी ओर बालू का ढेर लगता जा रहा है. मालवीय पुल के पास तक बालू का ढेर बढ़ गया है. इसमें किसी वैज्ञानिक समझ की जरूरत नहीं. सामान्य आदमी भी जानता है कि एक ओर अगर बालू का अनवरत जमाव होगा तो दूसरी ओर पानी की गति तेज होगी, वह कटाव करेगा, क्योंकि दूसरी ओर धार को बढ़ने का मौका नहीं मिल रहा. उसका असर बनारस पर तेजी से पड़ रहा है. बनारस में पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, हरिश्चंद्र घाट आदि के क्षेत्र में अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. अंदर ही अंदर ग्राउंड वाटर का मिलान गंगा में होने लगा है. हम लोगों ने इन घाटों का अध्ययन किया है. वैज्ञानिक तरीके से देखा-समझा है. अभी इन घाटों पर कटाव के कारण दरारें दिख रही हैं लेकिन ये दरारें ऊपर से दिखने वाली हैं. अंदर ही अंदर घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. गंगा का वेग बनारस शहर की ओर बढ़ता रहेगा और फिर आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कब ये घाट गंगा में समा जाएंगे, कह नहीं सकते. रिवर इंजीनियर होने और इस क्षेत्र में चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन के आधार पर मैं कह रहा हूं और इसके समर्थन में तथ्य भी बता रहे हैं कि 2025 तक या उससे पहले कभी भी बनारस में एक बड़ा हादसा होने वाला है.

आपने इस बाबत सरकार को आगाह किया है?
कितना आगाह किया जाए! कितना अनुरोध किया जाए. पत्र पर पत्र लिखे जा चुके हैं. पिछले डेढ़ साल में ही दस से अधिक पत्र लिख चुका हूं कि गंगा पर कोई योजना बनाने से पहले इन बिंदुओं पर गौर करें. आप पूछ रहे हैं कि बनारस के ध्वस्त होने को लेकर आगाह किया या नहीं. यह आगाह करने वाली बात है कि जाकर देख लेने वाली बात है? बंगाल में फरक्का के पास बालू के जमाव से क्या हुआ है, क्या हो रहा है, इसे बताने के लिए न तो विशेषज्ञ की जरूरत है, न रिसर्च टीम की. गांव के गांव गंगा में समा चुके हैं या समा रहे हैं. कटाव जारी है. बनारस में भी वही होगा.

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मोदी से क्या अपेक्षा करते हैं? किस तरह से नमामि गंगे की योजना चलाई जाए?
मेरी कोई अपेक्षा नहीं. आप पूछ रहे हैं तो सिर्फ बता रहा हूं, वह भी अपने इतने वर्षों के अनुभव के आधार पर. बस इतना ही कह रहा हूं कि गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिये का त्याग करना होगा. गंगा को अगर बुखार की दवाई चाहिए तो उसे ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने की जरूरत नहीं. प्रधानमंत्री जी से यही कहूंगा कि उनमें इच्छाशक्ति है, वे संकल्प वाले व्यक्ति हैं, उन्हें गंगा को लेकर काम करना है तो सबसे पहले देश भर से हर क्षेत्र के विशेषज्ञों को बुलाना चाहिए. जो इंजीनियर हैं, समाजविज्ञानी हैं, अर्थशास्त्री हैं, गंगा सेवी हैं, संत-महात्मा हैं, जीवविज्ञानी हैं… कहने का मतलब हर क्षेत्र से देश के कोने-कोने से लोगों को बुलाइए. सबकी राय लीजिए. गंगा को रोमांटिक नजरिये से ट्रीट मत कीजिए. बुखार की दवाई की जरूरत है तो ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने वाली जो प्रक्रिया है, उसे बंद कीजिए लेकिन दुर्भाग्य है कि गंगा को सिर्फ एक नदी और पानी की बहती हुई धार मानकर इसे उसी तरह से देखने की कोशिश की जाती है. गंगा सिर्फ पानी की बहती हुई धार नहीं है. यह दुनिया की सबसे खास और विशिष्ट नदी है, नदी घाटी है. गंगा का दायरा सिर्फ वही नहीं है, जहां से और जिन इलाकों से यह गुजरती है. यह देश की धमनी है. गंगा गुजरती तो सिर्फ पांच राज्यों से है लेकिन एक दर्जन से अधिक राज्यों के भूजल से लेकर पेयजल तक का गणित गंगा पर निर्भर करता है. भारत की एक तिहाई आबादी सीधे तौर पर गंगा से प्रभावित होती है और गंगा भी एक तिहाई इलाके की गतिविधियों से प्रभावित होती है लेकिन हो कुछ और रहा है. अब आईआईटी वालों को जिम्मा दे दिया गया है कि आप ही बता दो कि गंगा का क्या करना है. आईआईटी वालों को फीस मिली होगी, उन्होंने क्षेत्र का गहराई से अध्ययन किए बिना, गंगा के एनाटमी-मार्फोलॉजी का अध्ययन किए बिना बता दिया कि यह ऐसा होना चाहिए.

‘नदियों को जोड़ना इतना आसान नहीं. रूस में ऐसा किया गया था, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई और दुनिया ने इस योजना से ही तौबा कर ली’

नदी जोड़ो योजना को भी तेजी से आगे बढ़ाने की बात चल रही है और गंगा में तो जल परिवहन के बारे में भी ढेरों बातें हुई हैं कि अब जल मार्ग से सफर आसान होगा.
नदी जोड़ो योजना पर मैं पहले से दृढ़ संकल्प वाला रहा हूं, अभी भी कह रहा हूं कि नदियों को जोड़ना इतना आसान होता तो दुनिया के दूसरे देशों में ज्ञान-विज्ञान कोई कम नहीं है. एक जगह रूस में जोड़ा गया था, नतीजा देखा लोगों ने, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई. दुनिया ने इस योजना से तौबा कर ली. पिछले दिनों उमा भारती मिली थीं तो मैंने फिर दोहराया कि नदियों को जोड़ने का मतलब सिर्फ उनके पानी का मिलान नहीं होता. पहले ग्राउंड वाटर से ग्राउंड वाटर का मिलान होता है, फिर बेसिन से बेसिन का, भूमि से भूमि का. तब जाकर नदी लंबी परिधि लेते हुए एक दूसरे से मिलती है. रही बात गंगा में जल परिवहन की तो यह फालतू की बात है. गंगा में पानी है कहां, जो आप उसमें परिवहन करवाएंगे. कहां से करवाएंगे यह तो बताएं. पानी की धार कहां से लाएंगे. सभी जगह टीले बनते जा रहे हैं और सारा पानी उधर ही निकाल ले रहे हैं. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. फालतू बात है. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें कर दी जा रही हैं. पैसे बहाना है तो उसका बहाना चाहिए.

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आपसे पूछा जाए तो आप क्या कहना चाहेंगे? गंगा पर किस तरह से काम होना चाहिए?
मैं कोई अपनी ओर से, अपने मन से बात नहीं कहूंगा. 1974 में मैंने आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और उसके बाद करीब 35 साल तक आईटी बीएचयू में नदी के बारे में ही पढ़ाता रहा, नदी को ही जीने और जानने की कोशिश की. 1985 में बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना की, उससे कई रिसर्च पेपर निकाले गए. कई शोध हुए. अब वह गंगा रिसर्च सेंटर बंद है. इन सभी अनुभवों के आधार पर कुछ कहूंगा. 2001 में मुझसे सलाह मांगी गई थी. मैंने तब भी वही ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ मैनेजमेंट को सौंपा था, आज भी वही कह रहा हूं. उस थ्योरी को दुनिया के कई देशों में अपनाया जा रहा है. साधारण-सी बात है. सबसे पहले गंगा को एक मुकम्मल शरीर की तरह देखिए. उसके अलग-अलग अंग हैं. किस-किस अंग में बीमारी है, उसे ठीक करने की कोशिश कीजिए. स‌िरदर्द है तो पैर का इलाज करने की जरूरत नहीं. दूसरी बात है कि वर्षों से गंगा पर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने जो एकाधिकार जमा रखा है, वह टूटना चाहिए. देखिए तमाशा कि किसी आदमी के शरीर में छह लीटर खून हो और आप पांच लीटर निकालकर कहें कि वह जिंदा रहे तो क्या संभव है कि वह ठीक से चल फिर सकेगा? गंगा के साथ वाटर मैनेजमेंट को ठीक करना होगा. गंगा के हिमालय से उतरते ही हरिद्वार के पास भीमगौड़ा में 10,600 क्यूबिक फीट पानी प्रति सेकेंड निकाला जाता रहा है और उसके बाद नरौरा में पूरा का पूरा पानी. गंगा का पूरा पानी ही उधर निकालकर फिर कहा जाता है कि गंगा में अब यह ठीक करना है, वह ठीक करना है. अरे भाई गंगा में जल जब प्रवाह से आएगा तभी उसमें डीओबी भार कम होगा. तभी उसमें ऑक्सीजन की मात्रा ठीक रहेगी. गंगा में वेग रहेगा तभी वह जीवंत बनी रहेगी. लेकिन हद है कि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में गंगा को वर्षों से ऐसे दुहा जाता है, जैसे वह इन्हीं दो प्रदेशों के लिए निकलती हो. बिहार, झारखंड, बंगाल से गंगा गुजरती है तो क्या उनका अधिकार नहीं है गंगा पर? इसे ठीक करना होगा. तीसरा यह है कि गंगा के समाजशास्त्र को समझना होगा. गंगा सिर्फ बिजली पैदा करने के लिए नहीं है. उस पर 47 करोड़ आबादी निर्भर है. पूरे विश्व में ऐसी नदी नहीं है, न इतनी बड़ी घाटी. आपको गंगा से पैसा ही चाहिए तो गंगोत्री के पास के जल का वैज्ञानिक अध्ययन करवा लीजिए. वह कैसा मिनरल वाटर है, देख लीजिए. बेचिए उसे पूरी दुनिया में. अरबों-खरबों आएगा लेकिन गंगा को बहने तो दीजिए. चौथी महत्वपूर्ण बात है इसके पॉल्यूशन मैनेजमेंट की. इसके सैंड बेड को समझना होगा. जो रेत है गंगा का, वह ऐसे ही नहीं है. गंगा का अगर एक एकड़ में प्राकृतिक सैंड बेड है तो वह उतने प्रदूषण को मैनेज और कंट्रोल करता है, जितना करने के लिए 2200 एकड़ भूतल जमीन चाहिए. आप खुद सोचिए कि कुंभ में इलाहाबाद में कितने लोग आते होंगे. करोड़ों लोग आते हैं. उनके शौच-पेशाब आदि को उसी बालू से मैनेज करती रही है गंगा. गंगा के पास लिमिटेड प्रदूषण को मैनेज करने की शक्ति खुद है. वह बालू से पॉल्यूशन मैनेज कर लेती है. और आखिरी है बेसिन मैनेजमेंट. खेत का पानी खेत में रहे, रुके, इस पर काम होना चाहिए. गंगा बेसिन में ग्राउंड वाटर बैलेंस रहेगा, तभी गंगा अपने स्वाभाविक रूप में अपनी गति को बरकरार रख पाएगी. ये सब बहुत साधारण बिंदु हैं. इन पर काम होना चाहिए. इसके लिए गंगा को सजाने-संवारने से काम नहीं चलेगा. नदी को लेकर बेहतर संस्थान खोलने चाहिए. नदियों का अध्ययन होना चाहिए. चीन जैसे देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के तीन-तीन रिवर सेंटर हैं. उस पर काम होता है. उसके अनुसार योजनाएं बनती हैं. अपने देश में तो मैं खुद 35 साल तक रिवर इंजीनियरिंग पढ़ाता रहा, कई पीएचडी करवाई, बाद में उसका राष्ट्रहित, गंगाहित में कोई सार्थक उपयोग हुआ हो, मुझे नहीं लगता. इसलिए कह रहा हूं कि मोदी जी अगर चाहते हैं तो गंगा पर गंभीरता से काम करें. गंगा का अध्ययन करवाएं. फिर उसका समुचित उपचार करें. सजाने-संवारने की जरूरत नहीं, सिर्फ अपने स्वाभाविक रूप में रहे तो गंगा ऐसे ही बहुत खूबसूरत है.

‘गंगा में जल परिवहन की बात फालतू है. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें की जा रही हैं. पैसे बहाना है तो बहाना चाहिए’

आपने बीच में गंगा रिसर्च सेंटर की बात कही. वह क्यों बंद हो गया? अभी तो गंगा पर शोर का समय है, फिर इतना पुराना संस्थान बंद क्यों हो गया?
बीएचयू में दो-तीन वजहों से गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना 1985 में हुई थी. एक, बनारस गंगा का प्रमुख केंद्र है. दूसरा यह कि मालवीय जी खुद गंगा में गहरी रुचि रखते थे. यही सोच कर उसकी स्थापना हुई थी कि बीएचयू जैसा प्रसिद्ध संस्थान बनारस में होने के कारण गंगा पर महत्वपूर्ण काम करेगा. वहां से अब तक 55 एमटेक थीसिस लिखी गईं. तीन महत्वपूर्ण पीएचडी हुईं. सैकड़ों रिसर्च पेपर दिए गए. सारा काम होता रहा लेकिन बीएचयू ने उसे फंड ही नहीं दिया. 2011 तक मैं बीएचयू में था तो वहां जाता था. साफ-सफाई वगैरह करता था लेकिन अब तो वह भी बंद हो गया. एक बार वहां पांच करोड़ का फंड स्वीकृत हुआ कि इसका पुनरुद्धार होगा लेकिन बाद में कहा गया कि पांच लाख से यहां सब काम करवा लीजिए. मैंने कहा कि पांच लाख रखिए, मैं सत्याग्रह करूंगा. बीएचयू के वीसी ने कहा कि सत्याग्रह मत कीजिए, पूरे पैसे का उपयोग होगा. लेकिन बाद में वह मामला खत्म कर दिया गया. इसलिए तो मैं कह रहा हूं कि गंगा पर बातें करने वाले ढेरों हैं, गंगा पर लंबी सोच रखकर, ठोस पहल करने वाले लोग नहीं हैं. गंगा पर पॉपुलर तरीके से बात हो, पॉपुलर काम हो, सब इसी में उलझे हुए हैं. अब बीएचयू का वह गंगा रिसर्च सेंटर भी बंद हो गया तो समझिए कि गंगा का कोई संधान केंद्र देश में नहीं बचा है. कैसी विडंबना है, इसी से समझिए. देश की राष्ट्रीय नदी, 47 करोड़ आबादी पालने वाली नदी, दर्जन भर राज्यों से जिसका वास्ता है, जिस नदी को लेकर रोज लच्छेदार भाषण होते हैं, उसका एक वैज्ञानिक संधान-अनुसंधान केंद्र तक नहीं.