अगर फूट के न निकले, बिना किसी वजह के, मत लिखो. अगर बिना पूछे-बताए न बरस पड़े, तुम्हारे दिल और दिमाग और जुबां और पेट से, मत लिखो… क्योंकि जब वक्त आएगा, और तुम्हें मिला होगा वो वरदान, तुम लिखोगे और लिखते रहोगे, जब तक भस्म नहीं हो जाते…
ये पंक्तियां मशहूर अमेरिकी लेखक चार्ल्स बुकोव्स्की की कविता ‘सो यू वाॅन्ट टू बी अ राइटर’ से हैं, जिसका वरुण ग्रोवर ने अनुवाद किया है और ये चंद लाइनें वरुण के लेखन के प्रति प्रेम को साफ दिखाती हैं. फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के गीत लिखकर चर्चा में आए वरुण ग्रोवर न सिर्फ गीतकार हैं बल्कि पटकथा लेखक भी हैं, साथ ही वे स्टैंडअप कॉमेडी भी करते हैं. ये तीनों विधाएं बिल्कुल अलग-अलग हैं पर उनके ही शब्दों में कहें तो जो बात उन्हें इन तीनों से जोड़ती है, वह है लिखना. उनसे मीनाक्षी तिवारी की बातचीत.
बॉलीवुड गीतों में जिस तरह मौलिकता खत्म हो रही है, पुराने गीतों को रीमिक्स करके पेश किया जा रहा है, ऐसे में आप दुष्यंत कुमार की कविता से गीत लिखने की प्रेरणा कैसे पाते हैं?
ये मुझे बहुत बाद में समझ आया कि दुष्यंत कुमार को किसी हिंदी फिल्म में लाना बहुत विलक्षण चीज है. जब हम ये कर रहे थे तब तक हमारे दिमाग में नहीं था कि ऐसा कुछ करना है. जब मैंने नीरज (मसान के निर्देशक) से कहा कि मैं इस कविता से कुछ करना चाहता हूं तो उसने भी इसे बहुत सहज रूप में लिया. हमारे दिमाग में ये नहीं था कि आजकल जो सिनेमा में हो रहा है, ये उसमें कैसे फिट बैठेगा. है तो ये भी पुरानी ही चीज का इस्तेमाल पर ये एकदम दूसरी दुनिया की चीज है.
लोगों को लग सकता है कि आज ये लिखना बड़ी बात है पर मेरे दिमाग में ऐसा कुछ नहीं था. ये बहुत मौलिक तौर पर आ गया. हमारे बड़े होने के सालों में ये साहित्यकार चाहे वो दुष्यंत कुमार हों, बशीर बद्र, मनोहर श्याम जोशी या विनोद कुमार शुक्ल उतना ही हिस्सा हैं, जितना रमेश सिप्पी या अमिताभ बच्चन या गुलजार. हां, इससे लोग एक बात समझ सकते हैं कि अभी बहुत सारी चीजें हैं जिन्हें देखना बाकी है. बहुत सारी बातें हैं जो हम अभी नहीं जानते, जिन्हें हमने हिंदी सिनेमा में लाने की कोशिश ही नहीं की है. हिंदी साहित्य की ही बात करूं तो अनगिनत कहानियां हैं जिन्हें छोड़कर हम बाहर की फिल्मों या पुरानी फिल्मों के रीमेक के चक्कर में पड़े हुए हैं, यहां सभी को कहानियों की किल्लत लगती है पर मुझे तो हर तरफ कहानियां बिखरी हुई लगती हैं.
आपने गैंग्स ऑफ वासेपुर के गाने लिखे, जिनमें नयापन था, देसी परिवेश की मिठास थी, पर फिर प्रयोगधर्मिता के नाम पर अनोखे ही गीत लिखे जाने लगे, मसलन ‘मोहतरमा, तू किस खेत की मूली’ , ‘लोचा-ए-उल्फत हो गया’ , ‘ओ हुजूर तेरा-तेरा तेरा सुरूर’ . आप लखनऊ से ताल्लुक रखते हैं, तो बखूबी समझते होंगे कि ‘मोहतरमा’ के साथ ‘तू’ , ‘हुजूर’ के साथ ‘तेरा’ सही नहीं है. क्या ये किसी भाषा की संस्कृति के साथ अन्याय करने जैसा नहीं है?
हम ऐसा सोच सकते हैं, बोल भी सकते हैं पर इस बारे में कुछ कर नहीं सकते. मुझे नहीं लगता ये रुकेगा या बदलेगा क्योंकि जिन लोगों के हाथ में ताकत है वो हमसे बहुत ज्यादा हैं. वो इस बात से भी खुश हैं कि उन्हें भाषा के बारे में इतना नहीं पता है या ज्यादातर सुनने वालों को इस बारे में नहीं पता है या पता भी है तो उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है. और उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता ये इस बात से साफ हो जाता है कि ये गाने कितने हिट हैं. तो जिन्होंने ये गाने बनाए हैं वो खुश भी हैं, जो सुन रहे हैं वो खुश हैं. सब अपनी अज्ञानता में खुश हैं और हम लोग जो इस बारे में जानते हैं वो अपने जानने की कीमत दे रहे हैं.
भाषा के साथ ये हमेशा से होता रहा है पर अब शायद वो स्थिति आ चुकी है जहां से भाषा का पतन साफ-साफ दिखना शुरू हो गया है. भाषा हर दौर में बदलती रही है. ‘हुजूर’ और ‘मोहतरमा’ इसलिए नहीं आए कि इनकी गानों में जरूरत थी, बस उनके अनूठेपन की वजह से उन्हें जोड़ा गया. अब बस वो शब्द चाहिए, जिसे सुनने में अच्छा लगे; उसका अर्थ किसी को नहीं चाहिए. हमें ‘हुक्का बार’ और ‘चिट्टियां कलाइयां’ चाहिए क्योंकि उन्हें सुनना अच्छा लगता है. ये सब मार्केटिंग फॉर्मूले हैं जिन पर सब चल रहा है.
शायद इसीलिए पहले आ चुके पंजाबी गीतों या पुराने गानों का ज्यादा प्रयोग होने लगा है.
पुराने गाने आने के पीछे दूसरा कारण है. आजकल फिल्मों में एमबीए वाले बहुत आ गए हैं. देश इतने बना रहा है तो वो कहां जाएंगे! उनका काम सर्वे करना है, बनाना नहीं बेचना है तो उन्हें जांचा-परखा प्रोडक्ट चाहिए होता है, जो बाजार में चल चुका हो, इसीलिए फिल्मों का, गानों का रीमेक हो रहा है. नई चीज बनाने का रचनात्मक आत्मविश्वास नहीं है इनमें, तो पंजाबी गाना हो या कोई और उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. उन्हें पता है फलां गाने पर 70-80 लाख हिट्स पहले से हैं तो इनका ऑडियंस बेस है जो सुनेगा ही इसे.
बाजार है तो खरीददार भी हैं. ऐसे में सुनने वालों की विविधता पर बात करें तो एक तरफ ‘ब्लू है पानी पानी’ भी हिट है और ‘मोह मोह के धागे’ भी चार्टबस्टर्स में जगह बनाता है. इस पर आपका क्या कहना है?
देश की खास बात ही ये है कि यहां सवा सौ करोड़ लोग हैं तो विविधता तो मिलेगी ही. पर इस विविधता का कोई फायदा नहीं है. कोई पूछे क्या बनाना आसान है तो जवाब होगा वही जो चल रहा है. दिल्ली में एक शख्स हैं हरप्रीत, जो प्रसिद्ध हिंदी और पंजाबी कवियों की रचनाओं को कंपोज करते हैं और ये काम बहुत कठिनाई से पैसा बचाकर कर पाते हैं. उन्हें पसंद करने वाले भी हैं. पर ऐसे गाने बनाने के लिए मार्केट में सपोर्ट नहीं है. मैं अगर कहूं कि मैं दुष्यंत कुमार की कविता या गजलों को कंपोज करना चाहता हूं, तब भी शायद इंडस्ट्री में कोई प्रोड्यूसर तैयार नहीं होगा.
शुरू से ही कटाक्ष करने की आदत थी या किसी बात ने आपको सटायर करने के लिए प्रभावित किया?
जब मैं किसी बात से गुस्सा या नाराज होता हूं तो उस पर सटायर करता हूं. हां, बचपन की एक घटना है जिसने मुझे प्रभावित किया है. बचपन में बहुत मोटा था तो दोस्त चिढ़ाया करते थे और फिर उसी दौरान मैंने फिल्म मेरा नाम जोकर देखी, जहां ऋषि कपूर का किरदार जोकर बन जाता है तो लोग उस पर हंसना बंद कर देते हैं. तो जब कोई मुझ पर जोक मारता तो मैं भी खुद पर दो जोक मारकर हंस देता. तो वहां से ये समझ विकसित हुई कि हंसने से दर्द कम हो जाता है या हंसाने से. फिर बचपन में, लखनऊ में पापा के साथ कवि सम्मेलनों, खासकर हास्य कवि सम्मेलनों में जाया करते थे. वहां शरद जोशी, केपी सक्सेना, हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी, अरुण जैमिनी, अशोक चक्रधर जैसे लोगों को देखा तो वहां से सटायर की एक समझ आई और रुचि बनी और फिर मुंबई आकर जब मौका मिला तो मैंने पहला ही काम (टीवी के लिए कॉमेडी शो की स्क्रिप्ट लिखना) ये किया.
मजाक या कटाक्ष करना जोखिम भरा हो गया है. क्या एआईबी विवाद के बाद स्टैंडअप कॉमेडी करना मुश्किल हुआ है?
नहीं, मुझे नहीं लगता कि किसी के लिए भी मुश्किल हुआ है बल्कि शायद इससे कुछ लोगों को फायदा ही हुआ है क्योंकि पहले लोगों को पता नहीं था कि स्टैंडअप कॉमेडी क्या है, अब वो जानते हैं. उन्हें पता है इसकी हद क्या है. हां, इससे कुछ कॉमेडी करने वालों को भी अपने आप को समझने में फायदा हुआ है कि क्या वो इस तरह के कॉमेडियन हैं, क्या वे भी ऐसा करना चाहते हैं. तो कॉमेडियन को तो कोई फर्क नहीं पड़ा है, लोगों के इसके प्रति नजरिये में पड़ा है. हो सकता है जो लोग शायद कॉमेडी देखने आते थे, वो कभी नहीं आएंगे या जो कभी नहीं देखते थे वो अब आएंगे या जो आने की सोचते हैं उन्हें पता है कि यहां कुछ तो शॉकिंग होगा. वैसे इस विवाद से जो असर पड़ा वो कॉमेडी के लिए और ऐसे विषयों (जिन पर विवाद हुआ) पर डिबेट के लिए अच्छा है.
पिछले कुछ समय में सटायर के केंद्र में देश में लगे बैन रहे. सरकार जनता को निर्देशित करती है कि क्या खाना है, क्या पढ़ना है. क्या किसी लोकतंत्र में ऐसा होना विरोधाभास की तरह नहीं है?
विरोधाभास तो डेमोक्रेसी में होते ही हैं, मेरे लिए इसमें चौंकने जैसा कुछ नहीं है. ऐसा होगा ही. देश में इतना कुछ है कि आप चाहें तो किसी न किसी बात पर हमेशा गुस्से में रह सकते हैं. उसमें भी अभी हम सिर्फ वही बातें पकड़ रहे हैं जो हमारे दायरे में हैं यानी दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु में हो रही हैं. इसके बाहर देश में कितना बुरा हो रहा है वो सोच ही नहीं पाते क्योंकि सोचकर आपको खुद से ही नफरत हो जाएगी कि आप चुप क्यों बैठे हैं जब इन शहरों से दूर किसी गांव में दलित के मंदिर में चले जाने या कुएं से पानी पी लेने पर कुएं में जहर मिला दिया गया. इन सबके बीच ये शहरी या कहें हिंदुस्तान की ‘फर्स्ट वर्ल्ड प्रॉब्लम्स’ बेमानी हो जाती हैं.
निर्देश देने में वैसे सेंसर बोर्ड भी पीछे नहीं रहा है. पहले गाली-गलौज, हिंसा आदि पर सेंसर की कैंची चलती थी पर अब देश में बन रही सेमी पॉर्न फिल्म एडल्ट कॉमेडी के नाम से रिलीज होती है और बोर्ड को हॉलीवुड में बनी फिल्म के किसिंग सीन की अवधि पर आपत्ति होती है. किसिंग सीन की सही अवधि का क्या मानक है? इस पर क्या कहेंगे?
दो बातें हैं, एक है सिस्टम यानी व्यवस्था और दूसरा उस व्यवस्था को चलाने वाले, तो ये व्यवस्था ही दोषपूर्ण है. ये कहूं कि पहलाज निहलानी से पहले सेंसर बोर्ड अच्छा था तो मैं झूठ बोल रहा हूं. ये सिस्टम बना ही एक्सप्लॉइट करने के लिए है. ये नहीं हो सकता न कि एक जमींदार अच्छा आ गया तो इसका अर्थ ये है कि फ्यूडल सिस्टम (सामंती व्यवस्था) खराब नहीं है. बस अब ये हो गया है कि अब जो जमींदार आया है वो सिर्फ गांव के बड़े लोगों की ही हत्या नहीं करता बल्कि बच्चों का भी खून पीता है तो अचानक से पिछला अनुभव अच्छा लगने लग गया. सिस्टम खराब है इसीलिए जमींदार आते हैं, जमींदार बदलते रहते हैं, व्यवस्था तो वही है. पहलाज निहलानी के साथ सिर्फ ये हुआ है कि उन्होंने वो हद भी पार कर दी है जिसके हम आदी हो चुके थे. सेंसर बोर्ड हमेशा से ही ऐसा था. पहले भी कई फिल्मों के साथ बुरा हुआ है. लीला सैमसन इनसे बेहतर थीं. पहलाज ने सेंसर बोर्ड से इतर जो काम किए हैं, मोदी जी के वीडियो बनाए हैं, उससे उन्हें समझना आसान हो गया है, तो ये व्यक्ति और विचारधारा विशेष को आधार बनाकर फिल्में सेंसर कर रहे हैं. और जहां तक किसिंग सीन की सही अवधि की बात है तो ये कुंठाएं हैं, जिसको उन्हें अब देश पर डालने का मौका मिला है तो वो कर रहे हैं. इसके पीछे कोई लॉजिक नहीं है. ये इसी से समझ आता है कि वे कहते हैं कि दस नहीं सात सेकंड्स ओके है यानी उनके दिमाग में पैरामीटर है कि इसके बाद आठवें सेकंड में देश की मर्यादा भंग हो जाएगी! आप दस लोगों को ये सीन दिखाइए, किसी को छह सेकंड पर परेशानी होगी तो किसी को पहले पर ही, किसी को होगी ही नहीं. ये बिल्कुल निजी राय है और वो अपनी निजी राय को देश पर थोप रहे हैं.
आप सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं. यहां रोज हर बात पर बहस-बवाल होता है. अफवाहें फैलाने में सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा प्रयोग हो रहा है. क्या ये बंदर के हाथ उस्तरा देने जैसी स्थिति नहीं है?
मेरा मानना है बंदर के हाथ उस्तरा लगने वाली बात आधी सही है क्योंकि ये बंदर सीख सकता है. पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में जो क्रांतियां या विरोध हुए हैं, उनमें इंटरनेट का बड़ा योगदान रहा है. इंटरनेट से सबकी आवाज बराबर हो गई है. ये अच्छा है. एक तरह से डेमोक्रेटिक स्पेस है पर इसके साथ कॉमन सेंस की कमी भी है. आपको नहीं पता कि आप क्या आग लगा रहे हैं और वो कहां तक पहुंचेगी. ये उसी तरह है कि आप जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं. अनजाने में बहुत-से लोग ऐसा कर रहे है.
आपने ‘ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ के लिए काम किया है, जो अलग तरह का कॉमेडी शो था और काफी सराहा भी गया. खुद भी स्टैंडअप कॉमेडी से जुड़े हुए हैं. आजकल टीवी पर जो कॉमेडी शो दिखाए जा रहे हैं, क्या आप उनसे खुश हैं?
बिल्कुल नहीं. आजकल जो कॉमेडी शो टीवी पर आ रहे हैं मुझे उनसे बेहद चिढ़ है. मैंने उन्हें सिर्फ देखने के लिए देखा है कि ये लोग किस हद तक गिरे हैं. ये जो हो रहा है उसमें जनता की गलती है पर बनाने वाले की ज्यादा है क्योंकि ताकत उनके हाथ में है और फिर वे यह कहकर बचने की कोशिश करते हैं कि लोग यही देखते हैं. वे लोगों के बेसिक इंस्टिंक्ट यानी मूल प्रवृत्ति को संतुष्ट करके खुश हैं. पूरी दुनिया में मूल प्रवृत्ति यही है कि जो अपने से कमजोर है उसका मजाक बनाओ, वो कुछ नहीं कह सकता. वे अच्छे शो बना सकते हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते, दिमाग नहीं लगाना चाहते.
आप फिल्म भी बनाना चाहते हैं, किस तरह की होगी ये फिल्म?
इस सवाल का जवाब देना अभी बहुत मुश्किल है. मैंने जब ऐसा कहा था तब मेरे पास एक स्क्रिप्ट थी पर अब तीन हैं. तो इतना कह सकता हूं कि इनमें से जो भी बनेगी, जब भी बनेगी बहुत वास्तविक होगी और हिंदुस्तान के मध्य वर्ग के बारे में होगी क्योंकि वही एक दुनिया है जिसे मैं अच्छी तरह से जानता हूं.
अब तक लिखे गीतों में कौन-सा दिल के करीब है? किसी गीत को लिखते समय कोई ऐसा अनुभव जो यादगार बन गया हो.
दिल के सबसे करीब है ‘मसान’ का ‘मन कस्तूरी रे’ है क्योंकि इसे लिखने के पहले कुछ अंदाजा नहीं था कि क्या चाहिए और लिखने के तुरंत बाद लगा कि यही चाहिए था बिल्कुल. इस गीत के साथ ऐसा लगा जैसे वरदान की तरह मिला हो कबीर से. बस हाथ फैलाए, आंख बंद करके सोचा और यह उपमा आ गिरी. सबसे यादगार मौका रहा जब ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के गीत ‘जियऽ हो बिहार के लाला’ की रिकॉर्डिंग हो रही थी मनोज तिवारी के साथ. स्टूडियो में अनुराग कश्यप और स्नेहा खानवलकर भी थे और एक मौका आया जब मनोज तिवारी आंख बंद करके बस आलाप लेने लगे और स्नेहा ने संगीत को बस चलने दिया और तब मनोज बस मुग्ध होकर गीत को दोहराते रहे. हम सब सुनने वाले भी एक तरह के ट्रांस में चले गए और गाना पार लग गया.
आने वाली फिल्में?
फिलहाल तो अनुराग कश्यप की अगली फिल्म ‘रमन राघव’ के लिए गाने लिख रहा हूं.