जिस वक्त हम यह योजना बना रहे थे कि सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों के बारे में जनता को बताया जाए, तभी सोशल मीडिया पर अफवाह उड़ गई कि अभिनेता दिलीप कुमार की मौत हो गई है. कुछ देर बाद पता चला कि वे लीलावती अस्पताल में सकुशल हैं और अस्पताल से घर जाने वाले हैं. दिलीप कुमार की मौत की यह अफवाह कोई पहली बार नहीं उड़ी थी. सोशल मीडिया उन्हें पहले भी श्रद्धांजलि दे चुका है. इसके कुछ दिन पहले कादर खान की मौत की अफवाह फैल गई थी. यह अफवाह फैलते ही कादर खान गूगल पर 50 हजार बार सर्च किए गए. यह स्टोरी लिखने के दौरान ही सोशल मीडिया पर ऐसे कई गुल खिले और इसमें दर्ज हुए.
जिस दौरान दिलीप कुमार की मौत की अफवाह फैली उसी दौरान कश्मीर घाटी में एक सैनिक द्वारा कथित तौर पर एक लड़की से छेड़छाड़ की घटना के बाद तनाव फैला हुआ था. उसे लेकर भी सोशल मीडिया पर तरह-तरह की कपोल-कल्पनाएं जारी थीं. इसे रोकने के लिए कश्मीर के कुपवाड़ा, बारामूला, बांदीपोरा और गांदरबल में इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई. जब इसे शुरू किया गया तो सोशल मीडिया पर फैलने वाली अफवाहों पर शिकंजा कसने के लिए कुपवाड़ा के जिलाधिकारी ने सर्कुलर जारी किया कि वाट्सऐप पर चलने वाले न्यूज ग्रुप दस दिन के अंदर डीएम आॅफिस में अपना रजिस्ट्रेशन करा लें. जिले में कार्यरत अधिकारियों से कहा गया कि सरकार के कामकाज पर भी कोई बयान देने को लेकर संयम बरतें.
इसी दौरान गुजरात में पटेल आरक्षण आंदोलन के चलते अहमदाबाद, राजकोट, वडोदरा, साबरकांठा आदि कुछ जिलों में इंटरनेट बंद कर दिया गया था. गुजरात में ही अगस्त 2015 में शुरू हुए पटेल आंदोलन के दौरान भी इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी. इस साल फरवरी में गुजरात में राजस्व लेखपाल की परीक्षा के दौरान दिन भर के लिए इंटरनेट बंद कर दिया गया था, ताकि बच्चे नकल न कर सकें. पुलिस ऐसा एहतियातन करती है ताकि किसी तरह की अफवाह फैलने से रोका जा सके.
इसी दौरान सोशल मीडिया पर अफवाह उड़ी कि पाकिस्तानी क्रिकेटर शाहिद अफरीदी की बेटी की मौत हो गई है. मिस्टर खान नामक ट्विटर अकाउंट से एक खबर शेयर की गई कि अफरीदी की बेटी असमायरा का कैंसर से इंतकाल हो गया है. लोगों ने असमायरा की फोटो के साथ उसके लिए दुआ की अपील कर डाली. बाद में लोगों ने ट्विटर पर ही इसका खंडन किया कि खबर झूठी है.
हाल ही में यूपीएससी का रिजल्ट आया जिसमें टीना डाबी ने टॉप किया. यह खबर मीडिया में प्रसारित होने के बाद वह करीब हफ्ते भर सोशल मीडिया पर छाई रहीं. टीना को एक मैसेज मिला जिसके जरिए उन्हें पता चला कि फेसबुक पर उनके नाम से 35 फर्जी प्रोफाइलें बनी हुई हैं. इन प्रोफाइलों पर टीना डाबी की फोटो थी जिसमें वे अपने माता-पिता के साथ दिखाई दे रही हैं. उनकी कुछ और तस्वीरें भी यहां शेयर की गईं और टीना के हवाले से कई बयान भी लिखे गए. एक प्रोफाइल पर स्टेटस डाला गया, ‘रुकावटों, मैं तुम्हें बर्बाद कर दूंगी.’ एक और प्रोफाइल पर लिखा गया, ‘ईश्वर सभी मनुष्यों को सहनशक्ति और हौसला दे जिससे वह आनंदपूर्वक जिंदगी जी सकें.’ एक और मैसेज वायरल हुआ, जिसमें लिखा गया था, ‘मैं जानती हूं कि मुझे कौन प्रेरणा दे रहा है और वे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. क्या मैं अांबेडकर जी को अपनी प्रेरणा मानने को मजबूर हो जाऊं क्योंकि मैं एक दलित हूं? यह ‘जय भीम’ का नारा हर तरफ क्यों है? मैं बाबा साहब की बड़ी प्रशंसक हूं. उन्होंने पिछड़ों के लिए जो भी किया वह सराहनीय है. उन्होंने दलितों के सशक्तीकरण के लिए कार्य किया लेकिन कभी भी आरक्षण का समर्थन नहीं किया. भारतीय संविधान में आरक्षण बस थोड़े समय के लिए ही था लेकिन हमारे राजनेता इसे वोट बैंक के लिए एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.’ सोशल मीडिया की इन अनसोशल हरकतों से व्यथित टीना डाबी ने एक अंग्रेजी अखबार से कहा, ‘यह बुरा है. मैंने ऐसा नहीं कहा. ये प्रोफाइल्स किसी और की बात को मेरे मत्थे मढ़ रही हैं. भविष्य में ये और भी खराब काम कर सकती हैं.’
बार-बार इस तरह की अफवाहें फैलने और जहां-तहां सोशल मीडिया पर प्रतिबंध की कार्रवाई से इस माध्यम पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं. संवेदनशील जगहों पर पुलिस की सतर्कता से साफ है कि सोशल मीडिया पर अफवाहों का यह असामाजिक बाजार सिर्फ किसी की मौत या बीमारी तक सीमित नहीं है. सबसे खतरनाक वे अफवाहें हैं जो राजनीतिक या सामाजिक महत्व की होती हैं और जिनका समाज पर निर्णायक असर पड़ता है.
हाल में ही यूपी के आजमगढ़ में फैले तनाव के बाद 24 अप्रैल को पुलिस महानिदेशक जावीद अहमद ने एसटीएफ को सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे एक संदेश और फोटो की जांच करने और उसे तत्काल रोकने का निर्देश दिया. इस मैसेज के जरिए अफवाह फैली थी कि आजमगढ़ में एक धार्मिक ग्रंथ के पन्नों पर चाट बेची जा रही है. इसे रोकने और कार्रवाई करने के लिए एसटीएफ के साथ सर्विलांस टीम को भी लगाया गया. जावीद अहमद का कहना था, ‘कुछ अराजक तत्व प्रदेश का माहौल खराब करने की कोशिश कर रहे हैं.’
इसके पहले दिल्ली के विकासपुरी में डॉ. पंकज नारंग की मारपीट के बाद हुई हत्या के मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई. इस अफवाह में कई नेता भी शामिल हुए और ट्वीट व फेसबुक पोस्ट के जरिए कहा गया कि मारने वाले बांग्लादेशी मुसलमान हैं. ट्विटर पर यह मुद्दा ट्रेंड करने लगा, तनाव की स्थिति देखते हुए पुलिस ने ऐसी खबरों को बकवास बताते हुए स्पष्ट किया कि कोई भी आरोपी बांग्लादेशी नहीं है. नौ में से पांच आरोपी हिंदू समुदाय से हैं और चार आरोपी मुस्लिम समुदाय से हैं जो कि मुरादाबाद के रहने वाले हैं. कुछ ट्वीटों एवं फेसबुक पोस्टों के जरिए मामले को झुग्गी बनाम उच्च वर्ग बनाने की कोशिश की भी गई और झुग्गीवासियों को अराजक बताया गया. एडिशनल डीसीपी मोनिका भारद्वाज ने खुद ट्वीट करके लोगों से अफवाहों से दूर रहने को कहा.
पुलिस ने इस मामले को संभाल तो लिया लेकिन सोशल मीडिया देश भर की पुलिस के लिए चुनौती बना हुआ है. राजधानी दिल्ली की ही पुलिस के पास सोशल मीडिया की निगरानी करने वाली सोशल मीडिया लैब नहीं है. सोशल मीडिया लैब में ऐसी सुविधाएं होती हैं कि विशेष सर्वर और ऐप के जरिए फर्जी वीडियो, फोटोशॉप्ड तस्वीरों और भड़काऊ सूचनाओं को चिह्नित करके उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है. एक बड़े हिंदी दैनिक के मुताबिक, ‘दिल्ली में हर साल 100 से अधिक दंगे होते हैं और ज्यादातर सोशल मीडिया के जरिए भड़काए जाते हैं. दिल्ली पुलिस को ऐसी अफवाहों की जानकारी लोगों से मिलती है. अभी तक उसके पास ऐसी सूचनाओं को चेक करने या उनका खंडन करने की कोई सुविधा नहीं है.’ हालांकि, दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच के सीपी ताज हसन का कहना है, ‘सोशल मीडिया के संबंध में जो शिकायत आती है, हम उस पर कार्रवाई करते हैं. दिल्ली पुलिस के पास सोशल मीडिया लैब तो है, लेकिन उसके सर्वर वगैरह बाहर होते हैं. उसकी मदद से भी कोशिश करते हैं. कोई विशेष मामला हो, शिकायत हो तो हम उस पर कार्रवाई करते हैं. जो भी कानूनी केस हैं, उन पर कार्रवाई की जाती है.’
2013 में मुजफ्फरनगर में फैले दंगों में सोशल मीडिया खतरनाक भूमिका में सामने आया था. दंगों के बाद गठित सहाय आयोग ने अपनी रिपोर्ट के अनुसार, ‘सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के तालिबान नियंत्रित इलाके का एक वीडियो जारी किया गया था जिसके बाद इलाके में हिंसा भड़की.’ वास्तव में इस वीडियो में तालिबान के लड़ाकों ने दो युवकों को पीटकर मार डाला था. आयोग ने इस ‘गलत वीडियो’ को ही दंगे का कारण माना जिसे मुजफ्फरनगर का बताकर शेयर किया गया था. इस वीडियों में दो लोगों को पीटते हुए दिखाया गया और कहा गया कि हिंदू युवकों की पीटकर हत्या की गई है. आयोग ने कहा, ‘यह वीडियो बीजेपी के विधायक संगीत सोम और 229 अन्य लोगों ने सोशल मीडिया पर अपलोड किए.’ गौरतलब है कि मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में दो युवकों- सचिन और गौरव की हत्या हुई थी. वीडियो यह कहते हुए शेयर किया गया कि इसमें सचिन और गौरव को पीट-पीटकर मारते हुए देखा जा सकता है. यह वीडियो 23 अगस्त को जारी किया गया था. तत्कालीन आईजी मेरठ बृजभूषण को 29 अगस्त को इस वीडियो के बारे में पता चला तो उन्होंने इसकी जांच का आदेश भी दिया था. हालांकि, इससे भड़के दंगे को रोका नहीं जा सका. दंगों के बाद मेरठ के आईजी रमित शर्मा के काफी प्रयास के बाद मेरठ आईजी आॅफिस में एक सोशल मीडिया लैब स्थापित की गई है.
उत्तर प्रदेश के दादरी में गोमांस खाने के आरोप में अखलाक की पीटकर हत्या करने की दुर्दांत घटना में भी सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. बिसाहड़ा गांव में अफवाह फैली थी कि अखलाक के घर में गोमांस पकाया गया है. इसमें वाट्सऐप और ट्विटर का सहारा लिया गया. घटना के बाद भी लोगों को भड़काने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिसके खिलाफ कार्रवाई करते हुए कुछ लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए और दो लोगों को गिरफ्तार किया गया था.
‘सोशल मीडिया के सहारे समाज को भड़काने का काम तेज हो गया है. यहां अफवाहों को बेहद त्वरित ढंग से परोसा जा रहा है. इनकी विश्वसनीयता की जब तक परख होती है, तब तक वे अपना दुष्प्रभाव दिखा चुके होते हैं. भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में सोशल मीडिया के माध्यम से समाज को बांटने का काम आसान हो चुका है. जब सत्ता तक पहुंचने के लिए धार्मिक कट्टरता को उभारना भी एक हथियार बन गया हो, तब यह खतरा और बढ़ जाता है’
2015 में नेपाल में भूकंप से तबाही हुई तो उसके बाद लोगों को डराने में सोशल मीडिया ने भरपूर योगदान दिया. भूकंप के एक दिन पहले बृहस्पति के करीब आने से चांद कुछ विशेष तरह से दिखाई दिया था. फेसबुक, ट्विटर और वाट्सऐप पर अमेरिकी संस्था नेशनल एरोनाॅटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के हवाले से लोगों ने भयंकर त्रासदी आने की भविष्यवाणी कर डाली. साथ ही कहा गया कि भूकंप की वजह से चांद उल्टा हो गया और धरती का पानी जहरीला हो गया है. यह अफवाह इतनी तेजी से फैली कि अंत में भारतीय वैज्ञानिकों को स्पष्टीकरण देना पड़ा. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने लोगों से अफवाहों पर ध्यान न देने की अपील की और अफवाह फैलाने वालों को चिह्नित करके कार्रवाई करने का आदेश दिया. भारत सरकार ने संसद में भी अफवाहों पर चिंता जताई और लोगों से अफवाहों पर ध्यान न देने की अपील की. मौसम विभाग ने लोगों से अपील की कि लोग मनगढ़ंत भविष्यवाणियां न करें. गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने बयान दिया, ‘इस तरह की अफवाह बिलकुल बेबुनियाद है. यह लोगों में दहशत फैलाने के लिए किया जा रहा है. यहां तक की चांद का उल्टा निकलना भी एक साधारण भौगोलिक प्रक्रिया है.’
फोटोशॉप के जरिए झूठ-फरेब और अफवाह फैलाने का खेल हर दिन खेला जा रहा है. हो सकता है कुछ युवा मसखरी में ऐसा करते हों, लेकिन कई बार इसमें राजनीतिक दल और सरकार भी शामिल दिखती है. हाल ही में जेएनयू विवाद के बाद सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में गगनचुंबी तिरंगा फहराने की बात चली. टाइम्स नाउ चैनल पर विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने की वकालत करते हुए भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने अपने टैबलेट से एक तस्वीर दिखाई. संबित ने दावा किया कि देखिए छह भारतीय जवान मरते दम तक हाथों में तिरंगा थामे हुए हैं. बाद में स्क्रॉल डॉट इन पर शुद्धब्रत सेनगुप्ता ने अपने एक लेख में बताया कि यह तस्वीर दूसरे विश्वयुद्ध (23 फरवरी, 1945) की है और ये भारतीय नहीं, अमेरिकी सैनिक हैं, जिनके हाथ में अमेरिका का झंडा है. फोटोशॉप में अमेरिका का झंडा हटाकर तिरंगा लहरा दिया गया है. उस फोटो के लिए फोटोग्राफर जो. रोजेनथल को पुलित्जर पुरस्कार भी मिल चुका है.
पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं, ‘आजकल रमेश के धड़ में सुरेश का सिर लगाकर काफी फोटो निकाली जा रही हैं. इस फोटोशॉप राजनीति ने यह हाल कर दिया है कि एक दिन लोग अपनी ही फोटो देखकर बोलेंगे कि यह मेरी ही है या फोटोशॉप! सोशल मीडिया पर रोज यह खेल हो रहा है. जनता के लिए कुछ दिन में जनता बना रहना मुश्किल हो जाएगा. राजनीति को तस्वीरों का खेल बनाने में जनता भी शामिल है क्योंकि वह अब तस्वीरों के आगे अपनी बुद्धि का समर्पण कर रही है. लिहाजा भारतीय राजनीति में झूठ एक बड़ा सत्य हो गया है. दिनों-दिन यह सत्य बड़ा होता जा रहा है. खुश रहिए कि अब उस झूठ की सच्ची तस्वीरें भी आने लगी हैं. आप फिर लुटने वाले हैं. दस का बीस करने वालों ने नई तकनीक का जुगाड़ कर लिया है.’
हाल ही में पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ. ब्रायन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक तस्वीर जारी की जिसमें राजनाथ सिंह, सीपीएम नेता प्रकाश करात को लड्डू खिला रहे हैं. तस्वीर के जारी होते ही करात ने बयान दिया कि मैंने तो कभी राजनाथ सिंह से मुलाकात ही नहीं की है. बाद में पता चला कि यह तस्वीर फोटोशॉप के जरिए बनाई गई है. असली तस्वीर में राजनाथ सिंह मोदी को लड्डू खिला रहे हैं. फोटोशॉप में मोदी को हटाकर वहां प्रकाश करात की फोटो पेस्ट कर दी गई थी.
जब से सोशल मीडिया वॉर शुरू हुआ है तब से गांधी और नेहरू की दो फोटोशॉप्ड तस्वीरें खूब वायरल होती रही हैं. एक फोटो में कुछ टिप्पणियों के साथ गांधी को एक महिला के साथ डांस करते हुए दिखाया जाता है. वह तस्वीर असल में आॅस्ट्रेलियाई अभिनेता की है, जो गांधी की तरह वेशभूषा में है. उसकी गठीली बाहें हैं और उसने वाे चप्पल नहीं पहनी, जो गांधी पहनते थे. ऐसे ही गांधी-नेहरू की एक तस्वीर से छेड़छाड़ करके उसमें से नेहरू को हटाकर उनकी जगह एक विदेशी महिला को दिखाया जाता है. इन तस्वीरों का इस्तेमाल गांधी व नेहरू का चरित्रहनन के लिए किया जाता है.
लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा समर्थकों ने नरेंद्र मोदी के युवावस्था की एक तस्वीर खूब शेयर की. इस तस्वीर में वे झाड़ू लगाते दिख रहे हैं. इसके बारे में दावा किया गया कि नरेंद्र मोदी जब संघ के कार्यकर्ता थे तो कार्यालय में झाड़ू लगाया करते थे, वे अति साधारण आदमी हैं. बाद में अहमदाबाद के एक आरटीआई कार्यकर्ता के आवेदन के जवाब में केंद्रीय सूचना अधिकारी ने बताया कि वह तस्वीर फर्जी है, जिसे फोटोशॉप के जरिए बनाया गया है. रवीश कुमार कहते हैं, ‘फोटोशॉप की जिस तस्वीर से फायदा होता हो उसके खंडन का रिवाज कम है. वैसे भी चुनौती देने का काम विरोधी दल का है.’
पिछले साल चेन्नई में लगातार बारिश के बाद बाढ़ आई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां का हवाई दौरा किया. इस दौरान उन्होंने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता से मुलाकात की और बाढ़ राहत के लिए केंद्र की ओर से एक हजार करोड़ की मदद की घोषणा भी की. उसी दिन प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो ने प्रधानमंत्री मोदी की एक तस्वीर ट्वीट पर शेयर की, जिसमें वे हेलिकॉप्टर में बैठे हैं और खिड़की से बाढ़ग्रस्त चेन्नई का जायजा ले रहे हैं. कुछ देर बाद ट्विटर पर ही इस फोटो को फर्जी बताया गया. असली तस्वीर में हेलिकॉप्टर की खिड़की के बाहर हर ओर पानी और पेड़ वगैरह दिख रहे थे, जबकि पीआईबी की फोटो में फोटोशॉप की मदद से शहर के हालात को स्पष्ट दिखाने के लिए खिड़की से बाहर पानी में डूबे मकानों की एक तस्वीर पेस्ट कर दी गई. ट्विटर पर खूब खिल्ली उड़ाए जाने के बाद पीआईबी ने यह फोटो डिलीट कर दी.
दिल्ली सरकार की आॅड-इवेन योजना के बारे में भी 2009 की एक तस्वीर प्रसारित करके दिखाया गया कि कैसे यह योजना फेल हो गई है. स्कीम हिट है या फ्लॉप, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन सात साल पुरानी तस्वीर शेयर करके कहा जा रहा है कि योजना फेल हो गई क्योंकि संबंधित तस्वीर में बच्चे बस के गेट पर लटके हैं. असल में वह फोटो 2009 में फोटोग्राफर राजीव भट्ट ने ली थी.
सियासत में झूठ का कारोबार इस तरह चल रहा है कि इसके सहारे सभी दल और उनके समर्थक बाजी जीत लेना चाहते हैं. लातूर ने पानी की रेल चलाई तो कहा गया कि भारत में पहली बार पानी की रेल चली है. केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी एनडीटीवी से कहा कि पहली बार पानी की रेल चली है. सोशल मीडिया पर भी तमाम पोस्ट डाली गईं कि देश में पहली बार पानी की रेल चली है. इस पर अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी कि 2 मई, 1986 को भारत में पहली बार गुजरात के राजकोट में पानी की रेल चली थी. राजस्थान में पिछले 14 साल से पानी सप्लाई के लिए रेलवे की सेवा ली जा रही है.
विजय माल्या के विदेश भागने के बाद सोशल मीडिया पर एक तस्वीर शेयर की गई, जिसमें एक पुलिसकर्मी एक बुजुर्ग को रस्सी से बांधकर पीटता हुआ दिख रहा है. इस तस्वीर के बारे में बताया गया, ‘गुजरात राजकोट में किसान से कर्ज वसूलती पुलिस. काश माल्या से भी ऐसे ही वसूलते तो देश का भला हो जाता.’ असल में वह फोटो तो राजकोट पुलिस की ही है, लेकिन इसमें वह किसी किसान को नहीं, बल्कि अपनी बहू से ‘बलात्कार’ करने के एक आरोपी को घसीट रही है. यह फोटो 10 अप्रैल, 2016 को हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में छपी थी, जो अखबार ने फाइल फोटो के तौर पर छापी थी. वह भी यह बताने के लिए कि पुलिस आम तौर पर किसी आरोपी को शर्मिंदा करने के लिए ऐसा करती है.
अगस्त 2011 में लंदन में दंगे हुए थे. इस दंगे में सोशल मीडिया ने अहम भूमिका निभाई. इसके जरिए अफवाहें फैलाई गईं. दंगे के बाद इस पर बनी एक कमेटी ने ‘आफ्टर द रायट्स’ नाम से रिपोर्ट पेश की. हालांकि समिति ने दंगों के अन्य कई कारणों की पड़ताल की और सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया के बारे में आंशिक टिप्पणी की. समिति ने सोशल मीडिया पर अफवाह पर मुख्यधारा के मीडिया के विश्वास करने को गंभीर माना. समिति ने सिर्फ मीडिया या सोशल मीडिया को दोषी न ठहराकर बच्चों-अभिभावकों के संबंध, सामाजिक रिश्तों में आई दरार, अविश्वास, अमीरी-गरीबी में बढ़ती खाई, युवाओं को टारगेट करने वाले महंगे विज्ञापनों और बाजार के दबाव को दंगों का मुख्य कारण माना. भारत में फिलहाल दंगों की पड़ताल की ऐसी प्रणाली विकसित नहीं हुई है कि उसके सामाजिक कारण खोजे जाएं.
जुलाई 2012 में असम में दंगे भड़क गए थे. ये दंगे लगभग पूरे असम में फैले और महीने भर के करीब चले. इसमें करीब 80 लोग मारे गए और पांच लाख लोग विस्थापित हुए. इन दंगों में सोशल मीडिया ने खतरनाक भूमिका निभाई थी. बोडो और बंगाली मुस्लिमों के बीच दंगों के फर्जी वीडियो वायरल करके लोगों को भड़काया गया. मोबाइल से मैसेज, एमएमएस और सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलने की वजह से इन दंगों की असम के साथ-साथ देश के कई शहरों में प्रतिक्रिया हुई. फेसबुक पर फर्जी तस्वीरों को शेयर करके अफवाहें फैलाई गईं. बंगलुरु में एक मैसेज फैलाया गया कि वहां रह रहे पूर्वोत्तर के निवासी शहर छोड़ दें वरना परिणाम भुगतना होगा. बंगलुरु से पूर्वोत्तर के लोग हजारों की संख्या में भागने लगे. बंगलुरु, पुणे, कोयंबटूर आदि शहरों में इस तरह के मैसेज फैलने से दहशत का माहौल बन गया था. इससे निपटने के लिए केंद्र सरकार ने बल्क एसएमएस को 15 दिन के लिए प्रतिबंधित कर दिया. करीब 250 वेब पेजों को ब्लॉक किया गया. जैसे-तैसे स्थिति संभाली और सोशल मीडिया या मोबाइल मैसेज के जरिए फैल रही बातों को अफवाह करार दिया.
‘सोशल मीडिया के सहारे समाज को भड़काने का काम तेज हो गया है. यहां अफवाहों को बेहद त्वरित ढंग से परोसा जा रहा है. इनकी विश्वसनीयता की जब तक परख होती है, तब तक वे अपना दुष्प्रभाव दिखा चुके होते हैं. भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में सोशल मीडिया के माध्यम से समाज को बांटने का काम आसान हो चुका है. जब सत्ता तक पहुंचने के लिए धार्मिक कट्टरता को उभारना भी एक हथियार बन गया हो, तब यह खतरा और बढ़ जाता है’
सोशल मीडिया का यह प्रकोप आमिर खान और शाहरुख खान जैसे सुपरस्टार भी झेल चुके हैं. नवंबर 2015 में रामनाथ गोयनका पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान अभिनेता आमिर खान ने ‘असहिष्णुता’ पर बयान दिया था, ‘हाल की कई घटनाओं ने मुझे ‘चिंतित’ किया है. मेरी पत्नी किरण राव ने यहां तक सुझाव दे दिया कि हमें संभवत: देश छोड़ देना चाहिए.’ आमिर ने असहिष्णुता को लेकर पुरस्कार लौटा रहे लेखकों-कलाकारों का समर्थन करते हुए कहा था कि रचनात्मक लोगों का पुरस्कार लौटाना अपना असंतोष या निराशा व्यक्त करने का एक तरीका है. इसे लेकर भी सोशल मीडिया पर उनकी खूब लानत-मलामत की गई. आमिर के बयान पर अनुपम खेर ने ट्वीट करके उनका तीखा विरोध करते हुए लिखा, ‘डियर आमिर खान, क्या आपने किरण को बताया कि आप इस देश में इससे भी बुरा दौर देख चुके हैं, लेकिन आपने कभी देश छोड़ने के बारे में सोचा भी नहीं.’ इसके बाद सोशल मीडिया दो धड़ों में बंट गया. कुछ लोग आमिर के समर्थन में आ गए तो कुछ विरोध में और अच्छा खासा दंगल हुआ. आमिर के इस बयान का खामियाजा ई-काॅमर्स कंपनी स्नैपडील को भी भुगतना पड़ा. आमिर के बयान के बाद लोग इस कंपनी का मोबाइल ऐप मोबाइल से अनइंस्टॉल करने लगे क्योंकि आमिर इस कंपनी के ब्रांड एंबेसडर हैं. ट्विटर पर लोगों ने हैशटैग ऐपवापसी और नो टू स्नैपडील ट्रेंड कराके अपनी भड़ास निकाली. स्नैपडील की रेटिंग काफी नीचे आने के बाद कंपनी ने सफाई दी, ‘आमिर खान के व्यक्तिगत रूप से दिए गए बयान से स्नैपडील का कोई लेना-देना नहीं है. स्नैपडील एक भारतीय कंपनी है, जिसमें वह गर्व महसूस करती है.’
सोशल मीडिया के तमाम ऐसे पहलू हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखे जाते हैं और निर्बाध सूचना के प्रसार के लिए इसके प्रति आलोचकों की दृष्टि बेहद सकारात्मक है. लेकिन इन खतरनाक पहलुओं को देखते हुए इस पर गंभीर सवाल भी उठ रहे हैं. लोकसभा चुनाव के बाद अपने बारे में तमाम तरह की अफवाहों और अपशब्दों के इस्तेमाल से आजिज आकर सोशल मीडिया छोड़ चुके पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं, ‘सोशल मीडिया का उभार एक ऐसे स्पेस के रूप में हुआ था जहां लोग थे. जो मीडिया और राजनीतिक दलों से अलग एक नए स्पेस की रचना कर रहे थे और अपनी बातें लिख रहे थे. अब बताने की जरूरत नहीं है कि किस तरह से दलों ने इस स्पेस का इस्तेमाल राजनीतिकरण करने में किया और किस तरह से अफवाहें फैलाने का सिलसिला आज भी जारी है. इस खेल में सत्ताधारी दल से जुड़े समर्थकों और संगठनों का ही पलड़ा भारी रहता है. इनके खिलाफ शायद ही कभी कार्रवाई होती है. संगठित रूप से गाली दी जा रही है, धमकी दी जा रही है और मनमाफिक न लिखने पर राजनीतिक समर्थक वाट्सऐप से लेकर फेसबुक और ट्विटर पर बदनाम करने का खेल खेलने लगते हैं. बहुत बड़ी संख्या में लोगों को सोशल मीडिया पर लगाया गया है, ताकि वे बहसों और मुद्दों को नियंत्रित कर सकें. इनके हंगामा करने से न्यूज चैनलों के न्यूज रूम में भूचाल-सा आ जाता है. एंकर इन्हें जनता समझकर इनकी भाषा बोलने लगते हैं, और जब ये चुप हो जाते हैं, तो वह मुद्दा चैनलों से गायब हो जाता है.’
साहित्यकार सुभाष चंद्र कुशवाहा कहते हैं, ‘सोशल मीडिया के सहारे समाज को भड़काने का काम तेज हो गया है. यहां अफवाहों को बेहद त्वरित ढंग से परोसा जा रहा है. इनकी विश्वसनीयता की जब तक परख होती है, तब तक वे अपना दुष्प्रभाव दिखा चुके होते हैं. भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में सोशल मीडिया के माध्यम से समाज को बांटने का काम आसान हो चुका है. जब सत्ता तक पहुंचने के लिए धार्मिक कट्टरता को उभारना भी एक हथियार बन गया हो तब यह खतरा और बढ़ जाता है. सोशल मीडिया पर फैले असामाजिक तत्व इनका दुरुपयोग कर, झूठी खबरें गढ़ कर अपने राजनीतिक मकसदों को पूरा करने में सफल हो रहे हैं. असामाजिक तत्व भिन्न संदर्भों का चित्र सोशल मीडिया पर डालते हुए यह अफवाह फैला देते हैं कि अमुक स्थान पर अमुक समुदाय के लोगों ने दंगा भड़का दिया है. सोशल मीडिया की ताकत जितनी मजबूत है उतनी ही आशंकित करने वाली भी है. हमें इसके बेहतर उपयोग के साथ ही असामाजिक तत्वों की हरकतों से निपटने के बारे में भी सोचना होगा.’
सोशल मीडिया विशेषज्ञ पीयूष पांडेय कहते हैं, ‘इस तरह की अफवाहों से जितना नुकसान हो सकता है, उसका अभी हम अंदाजा ही नहीं लगा पाए हैं. मैक्सिको में एक बार खबर फैल गई कि स्कूल में आतंकवादियों ने गोलीबारी की है. सोशल मीडिया से यह खबर रेडियो पर आ गई. रेडियोवाले ने भी यह सोचते हुए कि हम लोगों का भला कर रहे हैं, खबर आगे बढ़ा दी. इसके बाद सारे पैरेंट्स ने फर्राटा भरते हुए स्कूल की तरफ दौड़ लगाई. नतीजा यह हुआ कि उस रोड पर आठ-दस एक्सीडेंट हो गए. अफवाह के चलते कई कंपनियों के शेयरों के दाम गिरने के भी उदाहरण हैं.’
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘ज्ञान, सूचना, समझ और जानकारियों को साझा करने के लिए बेहतर माध्यम बन सकता है, वह माध्यम बन जाता है बुराइयों के संप्रेषण का. इसको कैसे चेक किया जाए, सरकार को इस पर सोचना चाहिए. समाज को भी सोचना चाहिए ताकि मिलकर कोई रास्ता निकले.