ग्वालियर में पारा 47 डिग्री को छू रहा था. इस साल मई के महीने में भीषण गर्मी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. गर्मी के चलते मेरी भी तबीयत गड़बड़ थी. उस दिन चेकअप कराके बाइक से घर वापस आ रहा था. कहने को तो सुबह के 10 बज रहे थे लेकिन सूरज की तपिश बदन को झुलसा रही थी. अचानक रास्ते में किसी महिला ने मुझे आवाज दी. बाइक के ब्रेक ढंग से काम नहीं कर रहे थे. इसलिए अचानक ब्रेक मारने पर बाइक कुछ दूरी पर जाकर रुकी.
पीछे मुड़कर देखा तो एक 55-60 साल की वृद्धा मुझे रुकने का इशारा कर रही थी. पास आने पर वे हांफते हुए बोलीं, ‘बेटा यहां डॉक्टर के पास आई थी पर आज रविवार होने की वजह से उन्होंने कहीं और अपना कैंप लगा लिया है, मैं वहीं जा रही हूं. बड़ी देर से ऑटो-तांगे का इंतजार कर रही हूं पर कोई मिल नहीं रहा. गर्मी इतनी ज्यादा है कि मुझसे सही नहीं जा रही.’ पहनावे और बातचीत से वह महिला पढ़ी-लिखी नजर आ रही थी. मैंने कहा, ‘बाइक पर बैठ जाइए, मैं आपको छोड़ दूंगा.’
बाइक पर बैठने के बाद रास्ते भर वे मुझे धन्यवाद देती रहीं और साथ ही साथ मुझसे मेरे बारे में जैसे- काम-धंधा, पगार आदि पूछती रहीं. उन्होंने अपने बारे में बताया कि वे शिक्षा विभाग में लॉ एनफोर्समेंट ऑफिसर के पद पर कार्यरत हैं. फिर मेरा नाम पूछने के बाद उन्होंने खुद को भी ब्राह्मण बताते हुए मुझसे जातीय रिश्ता भी बना लिया. इस बीच वह पड़ाव आ गया जहां वृद्धा को जाना था. जैसे ही मैंने उन्हें बाइक से उतारा, वे बताने लगीं कि वे किसी संस्था से जुड़ी हुई हैं जो उन वृद्ध मां-बाप की देख-रेख करती है जिन्हें उनके बच्चे घर से बाहर कर देते हैं. मैंने उनके प्रयासों की सराहना की तो उन्होंने मुझसे सहयोग की मांग की.
आजकल किसी की मदद के लिए कोई आगे नहीं आता. कारण यह है कि जरूरतमंद की पहचान करना बड़ा ही मुश्किल है
मैंने उन्हें सहयोग का आश्वासन दिया और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए कहा कि बेझिझक आप कभी भी मुझसे संपर्क कीजिएगा. लेकिन इतने पर वे बिफर पड़ीं और कहने लगीं कि भूखे को भूख अभी लगी है और आप कार्ड थमाकर कहो कि मुझे फोन लगाना, तब खाना खिलाऊंगा, ये कहां की बात हुई? मैंने उनसे पूछा, ‘आप कहना क्या चाहती हैं?’ वे बोलीं, ‘जो सहयोग करना है अभी करो.’ मैंने असमर्थता जताई तो बोलीं, ‘तुम भी ब्राह्मण हो तो मैंने तुमसे सहयोग मांगा बेसहारा बुजुर्गों के लिए.’ मैंने उन्हें आश्वासन देना चाहा कि आप मुझे फोन कीजिएगा जो सहयोग बन सकेगा करूंगा. इस पर वे बोलीं, ‘अरे थोड़ा ही कर दो. जेब में जो भी हो, दे दो. परशुराम जयंती पर ब्राह्मणों ने कितना खर्च किया है और तुम कैसे ब्राह्मण हो? और जो कार्ड दे रहे हो, तो सुनो मुझे जरूरत नहीं कि किसी को फोन करूं. अभी एक आवाज दूं तो दान देने वालों की लाइन लग जाएगी. अपना कार्ड अपने पास रखो. हमारी संस्था दान इस तरह नहीं लेती कि रसीद काटकर दिखावा करे. बोलो सहयोग करोगे या नहीं?’ उनका लहजा धमकाने वाला था. मैं अवाक रह गया. फिर वे बोलीं, ‘अगर मैं कहूं कि मुझे अभी खाना खाना है तो खिलाओगे नहीं और कहोगे कि कार्ड लो और बाद में फोन करना, बताओ.’ मैंने कहा, ‘अगर आपको भूख लगी है तो चलिए आपको खाना खिलवा दूं.’ इस पर वे भड़क गईं. बोलीं, ‘मुझे नहीं खाना, बहुत हैं खिलाने वाले. तुमसे ज्यादा तनख्वाह मिलती है मुझे. बोलो अभी कुछ पैसे देते हो या नहीं?’ यह सब चौंकाने वाला था. चंद सेकंड पहले जो वृद्धा गर्मी से लाचार, थकी-हारी मदद की गुहार लगा रही थी, वह अब मुझे धमकी भरे लहजे में सुनाए जा रही थी. मैं अपनी बाइक चालू करके आगे चल दिया. पीछे वह बड़बड़ाती रही.
इस पूरे घटनाक्रम से पता चलता है कि आखिर आजकल लोग क्यों किसी की मदद को आगे नहीं आते. कारण यही है कि जरूरतमंद की पहचान बड़ी ही मुश्किल है. जिसे हम जरूरतमंद समझ उसकी सहायता करते हैं, वह बहुरूपिया निकलता है. देखकर भी अनदेखा करने की प्रवृत्ति इसीलिए बढ़ती जा रही है. जो सही मायने में जरूरतमंद हैं, उन्हें भी शक की निगाह से देखा जाता है. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ. अक्सर मेरे मन में आता है कि लोगों की मदद के लिए आगे न आने में ही भलाई है. फिर यह भी लगता है कि चंद धूर्तों के कारण कभी कोई सच्चा जरूरतमंद न छूट जाए.
(लेखक पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)