बात बीते साल की है. मैं ट्रेन से रूड़की से दिल्ली जा रही थी. इस छोटी-सी यात्रा ने मुझे जीवन भर न भूलने वाली ऐसी शिक्षा दी जो आज के माहौल में सीखने योग्य है. ये ट्रेन हरिद्वार से शुरू होकर अहमदाबाद जा रही थी तो जाहिर था कि इस लंबी यात्रा के कई यात्री आस-पास थे. मेरे सामने वाली सीट पर अधेड़ उम्र की एक महिला बैठी थीं और अगल-बगल की सीटों पर कई नौजवान लड़के-लड़कियां. यह शायद किसी टूर से लौट रहा समूह था और इस उम्र के हर नौजवान समूह की तरह वे लोग भी जोर-जोर से गाने गा रहे थे, चिल्ला रहे थे. हर आने-जाने वाले पर टिप्पणियां करते ये युवा लगातार अंग्रेजी में बात कर रहे थे. उन्हें देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि वे हिंदी नहीं जानते हैं पर शायद खुद को अलग दिखाने के लिए अंग्रेजी में उनकी गिटपिट जारी थी.
इस सब शोर-शराबे के बीच वह महिला बिल्कुल चुपचाप सफर का लुत्फ उठा रही थीं. कुछ देर बाद जब खाने का समय हुआ तो मैंने खाना निकाला और उनसे खाने का आग्रह किया. उनका उपवास था तो उन्होंने खाना लेने से मना कर दिया. कुछ देर बाद जब पैंट्री कार से अटेंडेंट आया तो उन्होंने शालीनता से उससे अनुरोध किया, ‘भैया, क्या आप सफाई से मुझे एक कप चाय बनाकर ला सकते हैं, मेरा उपवास है.’ ‘ट्रेन में एक अलग ‘पवित्र’ पैंट्री कार भी होनी चाहिए!’, उस समूह में से किसी ने अंग्रेजी में यह फिकरा उछाला.
‘अपनी ही भाषा को कमतर समझकर अगर हम दुनिया जीतने का सपना देख रहे हैं तो सही मायनों में ये सपना अधूरा है’
मैं अचरज में पड़ गई. ये किस तरह की बात थी! हर एक को अपनी राय देने की इजाजत है पर न तो ये राय देने की बात थी, न जगह और लोग. बीच सफर में किसी अनजान व्यक्ति पर टिप्पणी करना क्यों किसी को अच्छा लग सकता है, ये मैं नहीं समझ सकी. वह गुजराती महिला शायद अंग्रेजी नहीं समझती थीं. उनके सादगी भरे पहनावे से मैं तो बस यही अंदाजा लगा पाई थी क्योंकि ऐसी अशालीन टिप्पणी को उन्होंने बहुत आसानी से नजरअंदाज कर दिया.
समय की रफ्तार के साथ ट्रेन भी आगे बढ़ रही थी. कुछ देर बाद, शायद किसी दूसरे डिब्बे से तीन लोग इन महिला से मिलने आए. उन्होंने झुककर सम्मानपूर्ण तरीके से उनका अभिवादन किया. उन्हें कुछ कागजों पर महिला के दस्तखत चाहिए थे. और फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी मुझे तो उम्मीद नहीं थी. आश्चर्य! वे तीनों ही उनसे शुद्ध अंग्रेजी में बात कर रहे थे. मैं मंद-मंद मुस्कुरा रही थी और लड़के-लड़कियों का वह समूह शर्मिंदगी भरी नजरों से कभी मुझे तो कभी उन्हें देख रहा था.
ये साधारण-सी दिखने वाली महिला गुजरात विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग की विभागाध्यक्ष मिसेज दवे थीं और ये लोग उनके छात्र थे. उन लोगों के जाने के बाद मैंने उनसे सवाल किया, ‘आपको देखकर लगा ही नहीं आप अंग्रेजी भाषा की इतनी बड़ी जानकार हैं?’
इस पर उन्होंने जो जवाब दिया, उससे मेरी नजर में उनकी इज्जत कई गुना बढ़ गई. ‘विदेशी भाषाएं हम अपनी जरूरत और ज्ञान बढ़ाने के लिए सीखते हैं और जब बातचीत के लिए हमारे पास अपनी इतनी सुंदर भाषा है तो हम किसी विदेशी भाषा की बैसाखी का सहारा क्यों लें? अपनी भाषा हमें जमीन से जुड़ा रखती है’, उन्होंने कहा था.
उनकी ये बात मुझे अंदर तक छू गई. मैं सोचने लगी कि हम आज भी उसी मानसिक जड़ता से जूझ रहे हैं, जहां सालों पहले थे. हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां अंग्रेजी में बात करते हुए हम श्रेष्ठता के भाव से भर जाते हैं और अपने सामने किसी को, खासकर अंग्रेजी न समझने वाले को कमतर आंकते हैं. अपनी ही भाषा को कमतर समझकर अगर हम दुनिया जीतने का सपना देख रहे हैं तो सही मायनों में ये सपना अधूरा है. वो सही कह रही थीं. हमारी भाषा हमें हमारी जमीन, हमारी वास्तविकता से जोड़े रखती है. मेरी नजर में आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचकर भी अपनी जमीन से जुड़े रहना ही असली कामयाबी है.
(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं और रूड़की में रहती हैं)